वैसे तो उत्तरप्रदेश में त्रिकोणीय मुकाबला है लेकिन राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो मुकाबला द्विपक्षीय ही लगता है।मेरे इस कथन के विशिष्ट मायने हैं, जहां उत्तरप्रदेश में जमीन पर सपा गठबंधन, बसपा और भाजपा में त्रिकोणीय मुकाबला है वहीँ उत्तरप्रदेश से बाहर, दिल्ली से लेकर देश भर में फैले विपक्ष, छद्मबुद्धिजीवी, सम्पादक, NGO गैंग समेत तमाम लोगो की बात से यह स्पष्ट हो जाता है, कि वे भाजपा/मोदी की हार चाहते हैं। इस लड़ाई में सपा जीते या बसपा इससे उन्हें कोई फर्क नही पड़ रहा, उनका अभिप्राय मोदी की हार से है। इसलिए मैं जब इस चुनाव के परिणाम को विस्तृत नजरिये से देखता हूँ तो यही निष्कर्ष निकलकर आता है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह मुकाबला ' भाजपा बनाम अन्य ' द्विपक्षीय ही है।
इस तथ्य से भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी पूरी तरह परिचित है, तभी चुनाव के अंतिम चरण तक आते आते जिस तरह से भाजपा ने आक्रामक रणनीति अख्तियार की है वह काफी कुछ बतलाने के लिए पर्याप्त है। पूरे देश में उत्तरप्रदेश चुनाव को लेकर जबरदस्त ऊहापोह है,जिज्ञासा है।चारो तरफ हवा में यही सवाल तैर रहा है कि आखिर सत्ता किसके पास जायेगी ? किसी भी चुनाव के परिणाम की भविष्यवाणी करना यद्यपि बेहद जटिल है परन्तु कुछ संकेतो की चर्चा करना आवश्यक है।
चुनाव की घोषणा के दौरान देश नोटबन्दी जैसे बड़े निर्णय से गुजर रहा था, किसी को भी इस निर्णय के लाभ-हानि की पक्की जानकारी नही थी लेकिन दिल्ली में बैठा संपादको/विश्लेषकों का बड़ा वर्ग यह मानकर चल रहा था कि जनता इस निर्णय से बेहद परेशान है और इसका बदला मोदी सरकार से प्रत्यासन्न विधानसभा चुनाव में भाजपा से जरूर लेगी। सपा और बसपा भी इसी खुशफहमी में थे, कि नोटबन्दी के फैसले से भाजपा ने खुद को चुनावी दौड़ से बाहर कर लिया है, बिल्कुल यहीं से चुनाव के रोचक होने पटकथा लिखे जाने की शुरुआत हुई। भाजपा के नेताओ में भी नोटबन्दी को लेकर , जनता की प्रतिक्रिया को लेकर आंतरिक रूप से बेहद घबराहट थी, क्योंकि इस बात से कोई भी असहमत नही हो सकता कि जनता को इस फैसले से परेशानी न हुई हो। इस दौरान फैलाये जाने वाले प्रोपेगेंडे ने भी इस घबराहट को बढ़ाने का काम किया। लेकिन जैसे जैसे चुनाव आगे बढ़ा और बेंको की स्थिति सुधरी तो पहले चरण के चुनाव से ही यह साफ़ हो चुका था कि जनता अत्यधिक दुःख को सहन करके भी मोदी को माफ़ कर चुकी है और इस साहसिक फैसले के लिए दण्डित करने की बजाय शाबासी देने के मूड में है। उड़ीसा, महाराष्ट्र और चंडीगढ़ आदि मुख्य स्थानों पर हुए निकाय चुनावो में भाजपा को मिले जबरदस्त जनसमर्थन ने भी इस बात की पुष्टि कर दी कि नोटबन्दी भाजपा उस तरह का आघात नही पहुंचा रही जैसी कल्पना विपक्ष तथा विश्लेषक लोग कर रहे थे।
अभी तक उत्तरप्रदेश में चुनावी समीकरण कुछ इस तरह के होते थे, कि चुनावी विश्लेषक वातुनुकूलित कमरो में बैठकर जन्मपत्रियां बांच दिया करते थे, परंतु इस बार उन वामपंथी रुझान के विश्लेषकों के चेहरे पर भी हवाइयाँ नजर आ रही है। एक वरिष्ठ विश्लेषक कहते हैं कि ' इस बार दिल्ली में बैठकर कुछ कह पाना ठीक नही होगा'। इसका विशिष्ट कारण यह है कि भाजपा ने प्रचलित समीकरणों का ध्वस्त करने का काम किया है। पहले किसी मजबूत नेतृत्व के अभाव में ओबीसी तबका यादवों का पिछलग्गू बनने को मजबूर था, कमोबेश यही स्थिति गैरजाटव दलित तबके की भी थी। मुस्लिमो का तो एक ही मुख्य एजेंडा देखने में आता था कि जो दल भाजपा को हरा सकता है उसे वोट किया जाये। ये तीनो स्थापित समीकरण इस बार के चुनाव में नदारद दिख रहे हैं। भाजपा ने गैर-यादव ओबीसी तबके को टिकट वितरण तथा पार्टी के नेतृत्व में खासी तवज्जो दी है, लोध, कुर्मी ,सैनी तथा गुर्जर आदि छोटी छोटी जातियो का वोट 35 प्रतिशत तक है, जो 9 प्रतिशत यादवो के द्वारा सत्ता के अधिकारो के मामले में हाशिये पर था। भाजपा ने इस पूरे गैर-यादव ओबीसी मतदाता के मन को नयी उड़ान दी है तथा इनके अंदर यह विश्वास पैदा किया है कि हम लोग भी सत्ता के सीधे प्रतिनिधि बनने में सक्षम हैं। अभी तक विश्लेषक इन सभी प्रति जाति के आधार पर गिन रहे थे जबकि एक गुच्छे के रूप में यह बड़ा वर्ग भाजपा को मजबूती प्रदान करते हुए सपा के लिए सरदर्दी बन रहा है।
यही स्थिति दलित समाज के साथ भी रही है, दलित समुदाय को मायावती का वोट बैंक माना जाता रहा परन्तु जाटव समुदाय (जिससे खुद मायावती आती है) को छोड़कर बाकी दलित वर्ग की जातियो का अनुभव मायावती को लेकर कोई ख़ास अच्छा नही रहा है। बाकी दलित समाज मायावती के कार्यकाल में उपेक्षित ही रहा। भाजपा के रणनीतिकारों ने बड़ी सजगता से गैरजाटव दलित समाज को साधने का काम किया है। जिसके परिणामस्वरुप भाजपा को मजबूती मिलती दिख रही है और बसपा को अपने ही वोटबैंक सेंधमारी से झटका लगा है। सपा गठबंधन और बसपा को अपने कोर वोटबैंक में मुस्लिम मत जुड़ जाने पर जीत की स्पष्ट स्थिति दिख रही थी, इसलिए दोनों दलों ने बड़ी बेसब्री और आक्रामकता के साथ आचार संहिता की धज्जिया उड़ाते हुए भी मुस्लिमो को लुभाने की कोशिश की। लेकिन मुस्लिम मत एकमुश्त इन दोनों में से किसी भी दल को जाते नही दिख रहे। मुस्लिम भाजपा को हराने के फेर में कहीं न कहीं भ्रमित दिखे, पहले चरण में जहां मुस्लिम मतदाताओ का झुकाव सपा की तरफ था, वहीँ अगले चरणों में धीरे धीरे बसपा की तरफ रुझान बढ़ा है। इसलिए मुस्लिम मतदाताओं में भी स्पष्ट विभाजन देखा गया जबकि इसकी प्रतिक्रिया में कई जगह हिन्दू मत भाजपा के पक्ष में एकजुट हुए, बिजनौर, सहारनपुर, देवबन्द, मुरादनगर, शामली जैसे क्षेत्र इसके उदाहरण हैं। इसके साथ साथ सवर्ण मतदाता एकजुट होकर मोदी के साथ खड़े दिखे। जहाँ सपा , बसपा के जातीय समीकरण गड़बड़ाते दिखे वहीँ भाजपा को केंद्र सरकार के कुछ कामों का और अपने घोषणापत्र का भी लाभ मिलता दिख रहा है।
वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई अपने आंकलन के बाद कहते हैं कि "अगर बसपा इस चुनाव में एक्स फैक्टर है तो मोदी की उज्ज्वला योजना इससे बड़ा एक्स फैक्टर है"। राजदीप तो इससे बढ़कर इस योजना के क्रियान्वयन करने वाले को भी श्रेय देने की बात करते हैं। गरीब, दलित और ओबीसी परिवारों की महिलाये इस योजना से सीधी सीधी लाभान्वित हुई हैं और उनके जीवन में अप्रत्याशित सकारात्मक परिवर्तन हुआ है , सरकार का कहना है कि मात्र उत्तरप्रदेश में ही 50 लाख गैस कनेक्शन दिए गए हैं। इसका मतलब 50 लाख परिवारो के डेढ़ करोड़ से ज्यादा मतदाता सरकार की इस योजना से जुड़े हैं, ये ऐसे मतदाता हैं जिन्हें विश्लेषक भाजपा का वोटबैंक नही मानते। इसी तरह मुद्रा योजना से काफी लोग लाभान्वित हुए हैं, मनरेगा में अब मजदूरी सीधे बैंक खाते में मिलने लगी है, लोग बैंक सिस्टम में आये हैं। रेलवे और हाइवे के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। किसानो को यूरिया की नीम-कोटिंग का लाभ साफ़ तौर पर मिल रहा है, इन चीजो को लोग महसूस कर रहे हैं।
जनता को भाजपा के घोषणापत्र में एंटी रोमियो स्क्वायड, भूमाफिया स्क्वायड, कत्लखानो पर पाबंदी, चौबीस घण्टे बिजली, कन्याओ को निःशुल्क शिक्षा, और किसानो के ऋण माफ़ी जैसे मुद्दे खूब लुभा रहे हैं, सभाओ में जनता की उत्साही प्रतिक्रिया भी मिल रही है। इसके विपरीत जब जनता इन मुद्दों पर वर्तमान अखिलेश यादव सरकार को कसती है तो उसे निराशा ही हाथ लगती है। चुनावी विश्लेषक अभी तक यह कहते रहे कि इस बार मतदाता मुखर नही हैं, किसी की लहर नही है, एंटी इंकम्बेसी नही है वगैरा। मैने पहले भी एक जगह लिखा था, कि इस चुनाव का परिदृश्य उसी दिन से बदलना शुरू हो जाएगा जिस दिन से मोदी की रैलियां शुरू होंगी। यही हुआ भी, मोदी इस चुनाव का एजेंडा सेट करते रहे और विपक्षी मोदी की बातो का जवाब देते रहे। मोदी की बॉडी लेंग्वेज भी इस बार बहुत कुछ कह रही है, बिहार चुनाव में चरण दर चरण जहां मोदी की टोन में गिरावट देखी जा रही वहीँ इस बार चरण दर चरण ज्यादा आत्मविश्वास और उठान नजर आ रहा है, जो एक संकेत है। यहाँ तक कि बनारस में रोड शो करना इस बात को पुख्ता करता है कि प्रधानमन्त्री को कुछ स्पष्ट संकेत मिल चुके हैं, अन्यथा यह देखने में आता है कि हार की स्थिति में बड़े नेता खुद को पीछे कर लेते हैं, जैसे 2014 में सोनिया गांधी और इस बार उत्तराखण्ड में राहुल गांधी ने खुद को पीछे कर लिया ।
पूर्वी उत्तरप्रदेश में अनेक लोग काफी गहराई से पूछताछ होने के बाद भले ही मोदी की कोई उपलब्धि न बता पाये लेकिन आज भी उन्हें मोदी पर पूरा भरोसा है और वे मोदी के हाथ को मजबूत करने के लिए वोट करना चाहते हैं। मोदी की विश्वसनीयता, प्रामाणिकता 2014 के बाद से बढ़ती हुई नजर आ रही है। मोदी की रैली में जनता का उत्साह , प्रतिक्रिया और सहभागिता किसी भी लिहाज से कमतर नजर नही आ रही है।कोई भी विश्लेषक इस तथ्य को नकार भी नही पा रहा है। फिलहाल मतदान पूर्वी उत्तरप्रदेश में हो रहा है, परंतु उसकी गूँज और चुनाव का लब्बो लुबाव पश्चिमी उत्तरप्रदेश में साफ़ साफ़ जनता के मन में गूँज रहा है। सहारनपुर देहात के सचिन चड्ढा, बागपत के हेमन्त तोमर और मोदीनगर के रोशन सिंह का खुलकर यही कहना है शुरू में कुछ असमंजस था लेकिन अब साफ़ है कि भाजपा आ रही है।
ऐसा लगता है कि इस बार के चुनाव परिणाम एक बार फिर चौंकाने वाले होंगे और चुनावी विश्लेषक ,रणनीतिकार अपने निर्धारित खाँचो से निकलकर भाजपा की अचूक सामाजिक, प्रशासनिक रणनीति को गहराई से समझने को मजबूर होंगे।