तीन तलाक विरोधी बिल नाकाफी, अभी बहुत काम बाकी

Written by बुधवार, 03 जनवरी 2018 07:40

The Muslim women (Protection of Rights of Marriage) Bill 2017 लोकसभा में 2017 के जाते-जाते 29 दिसंबर 2017 को ध्वनिमत से पारित हो गया। यह बिल मुस्लिम समुदाय में व्याप्त ट्रिपल तलाक (Triple Talaq), जिसे तलाक-ए-बिद्दत के नाम से भी जाना जाता है, के खिलाफ है व मुस्लिम महिलाओं को बराबरी का अधिकार दिलाने वाला बिल है और ऐसा करने वाले व्यक्ति के लिए सजा का भी प्रावधान करता है।

हालांकि इस बिल का अभी राज्यसभा में पारित होना बाकी है, जहां सरकार के पास बहुमत नहीं है और उसे इस बिल को इसी रूप में पास कराना मुश्किल हो सकता है। इस बिल के अनुसार कोई भी मुस्लिम व्यक्ति बोलकर, लिखित रूप से, ईमेल या मैसेज आदि के द्वारा तलाक नहीं दे सकता। फिर भी यदि कोई ऐसा करता है तो इसे गैर जमानती व संज्ञेय अपराध की तरह माना जायेगा और ऐसा करने वाले को 3 साल की सजा हो सकेगी व पीड़ित महिला स्वयं के व अपने नाबालिग बच्चों के गुजारा भत्ता व संरक्षण की मांग कर सकेगी, जिस पर अंतिम फैसला मजिस्ट्रेट के द्वारा किया जाएगा।

10 अक्टूबर 2015 को तीन तलाक से पीड़ित मुस्लिम महिला सायरा बानो ने देश की सर्वोच्च न्यायपालिका में तीन तलाक के खिलाफ याचिका दाखिल की थी, जो उत्तराखंड की निवासी हैं व जिनका निकाह 11 अप्रैल 2002 को रिजवान अहमद से हुआ था व उनके पति ने उनका 6 बार गर्भपात कराया था व स्वयं उन्हें गर्भनिरोधक गोलियां देता था। इसी क्रम में जयपुर की आफरीन रहमान, पश्चिम बंगाल की इशरत जहां, उत्तरप्रदेश के रामपुर की गुलशन परवीन व सहारनपुर की अतिया साबरी आदि तीन तलाक से पीड़ित महिलाओं ने सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक के विरुद्ध याचिका दाखिल की थी। 7 अक्टूबर 2016 को केंद्र सरकार ने मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में खड़े होने की बात कही। 22 अक्टूबर 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित करते हुए इस पर रोक लगा दी थी, जिसमें पांच जजों की बेंच में 3 जजों ने तीन तलाक को असंवैधानिक माना था। इसके बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को तीन तलाक के विरुद्ध कानून बनाने के लिए 6 माह का समय दिया था व इन 6 माह में कोई तीन तलाक न होने की बात कही थी। लेकिन इसके बाद भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब तक लगभग 100 तीन तलाक हो चुके हैं।

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केंद्र सरकार द्वारा लोकसभा में पारित किए गए इस बिल का तमाम विपक्षी दल व राजनेता विरोध कर रहे हैं, उनका कहना है कि बिल में पीड़िता के गुजारे-भत्ते आदि का प्रावधान नहीं किया गया है। यह मुस्लिम महिलाओं व पुरुषों के अधिकारों का हनन करने वाला बिल है। ऐसी दलीलें वे लोग दे रहे हैं, जिन्होंने लगभग 32 वर्ष पूर्व इंदौर की शाहबानो के साथ न्याय नहीं किया था। शाहबानो को 1978 में 62 वर्ष की उम्र में उनके पति के द्वारा तलाक दिया गया था और उन्हें 5 बच्चों सहित घर से निकाल दिया गया था, तब उन्होंने पति से गुजारा भत्ता पाने के लिए देश की सर्वोच्च न्यायपालिका में शरण ली थी और 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया था। उस समय मुस्लिम समुदाय में व्याप्त स्त्री को भोग की वस्तु समझने वाले मुल्ला-मौलवियों व कट्टरपंथियों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध किया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने प्रचंड बहुमत होते हुए भी उन कट्टरपंथियों के आगे खुद को सरेंडर कर दिया व मुस्लिम महिलाओं के लिए न्याय व समानता की परवाह न करते हुए वोट बैंक की चिंता करते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद में कानून बनाकर बदल दिया था।

2011 की जनगणना के अनुसार भारत मे 17.22 करोड़ मुस्लिम हैं, जिसमे से 8.3 करोड़ महिलाएं हैं। तीन तलाक से पीड़ित महिलाओं की संख्या 2.12 लाख है, जिसमें 1 लाख 24 हज़ार महिलाएं गांवों में व 87500 महिलाएं शहरों में निर्वासित हैं। आंकड़ो पर गौर करें तो इन तीन तलाक में से 65.9% जुबानी तलाक हुए हैं, चिट्ठी के जरिये 7.6%, फोन पर 3.4%, मैसेज व ईमेल के जरिये 0.8% तीन तलाक हुए हैं व अन्य प्रकार से होने वाले तीन तलाक 22.3% हैं। इन तीन तलाक के कारणों पर गौर करें तो किसी को सोते समय, किसी को दहेज के लिए, किसी को जली रोटी के लिए, किसी को बच्चे के शौच की वजह से, किसी को बुर्का न पहनने पर आदि हैं। 59 % मुस्लिम महिलाओं को उनके पतियों के द्वारा इकतरफा तलाक दिया गया है। 50% मुस्लिम पुरुषों ने तलाक के तुरंत बाद दूसरी शादी कर ली व 79% मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता नहीं मिला। निकाह के समय यदि मुस्लिम महिलाओं की उम्र की बात की जाए तो 15 वर्ष से कम उम्र की 13.5%, 14-19 वर्ष की 49% व 20-21 वर्ष की 18% मुस्लिम महिलाएं हैं।

तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी कट्टरपंथियों व तमाम राजनेताओं के द्वारा विरोध हुआ था व केंद्र सरकार द्वारा पेश किए गए बिल का भी विरोध हो रहा है, जो परिवार तोड़ने व गुजारा भत्ते को आधार बनाकर किया जा रहा है। ऐसा तब है जब 90% मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक के विरोध में हैं व मुस्लिम समुदाय मे होने वाली बहु-विवाह प्रथा का विरोध किया है। 86% मुस्लिम महिलाएं चाहती हैं कि धर्मगुरु महिला अधिकारों के लिए आगे आएं व 92% मुस्लिम महिलाएं पति की दूसरी शादी नहीं चाहती है। दुनिया के लगभग 19 देशों में तीन तलाक को गैर कानूनी माना गया है, जिसमे तमाम मुस्लिम देश भी है। तीन तलाक को गैर कानूनी मानने वाले देशों में इंडोनेशिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इराक, ईरान, सीरिया, श्रीलंका, ब्रूनेई आदि हैं। आर्य समाज, ब्रह्म समाज आदि संस्थाओं ने 18 वीं 19वीं शताब्दी में ही समाज मे व्याप्त बुराइयों को दूर करने की दिशा में प्रयास किया व समाज सुधार का काम किया। जबकि आज हम 21 वीं सदी में आ गए हैं, दिन-प्रतिदिन आगे बढ़ते जा रहे हैं। हर प्रकार से सभी के समानता की बात कर रहे हैं। मानवाधिकारों की बात कर रहे हैं। इसके बावजूद तीन तलाक जैसे विषय पर देश के तमाम मुल्ला-मौलवी, कट्टरपंथी व वोट बैंक की राजनीति करने वाले राजनेता व राजनैतिक दल मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए, समानता के लिए व उनके साथ न्याय के लिए अपने रवैये को बदलना नहीं चाहते हैं, अपनी रूढ़िवादी व कट्टर सोंच से आगे नहीं निकलना चाह रहे है।

हर समाज में आज भी कुरीतियां किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं, लेकिन उन्हें किसी धर्म, जाति या मजहबी चश्मे से नहीं देखना चाहिए। जब बात सामाजिक सरोकारों की हो, सुधारों की हो तब सभी को सारे भेद भाव भूलकर एक साथ आना चाहिए, क्योंकि उनसे कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा समाज प्रभावित होता है। तीन तलाक का मामले में भी कुछ ऐसा होना चाहिए। लाखों स्त्रियों को इसका शिकार होना पड़ा है और अन्याय का सामना करना पड़ा है। आज समय की माँग है कि न सिर्फ तीन तलाक बल्कि हलाला और बहुविवाह जैसी कुरीतियां भी अमान्य व गैर कानूनी घोषित हों और तीन तलाक पर जैसे नया कानून सरकार लेकर आई है, ऐसे ही हलाला और बहुविवाह जैसी कुरीतियों के खिलाफ भी सरकार को नया, मजबूत व न्यायपूर्ण कानून लाना चाहिए। ऐसे में हम सभी की जिम्मेवारी और बढ़ जाती है कि हम मानवता के लिए, मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए, मुस्लिम महिलाओं की समानता के लिए एकजुट हों और उनके साथ न्याय करें और हमारा यह कदम महिला सशक्तीकरण की दिशा में भी होगा। जब स्त्री पुरुष दोनों में समानता होगी, समान अधिकार होंगे तभी एक स्वस्थ व अच्छे समाज की स्थापना हो सकेगी।

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इस्लाम में फ़ैली कुरीतियों और जातिवाद से सम्बंधित कुछ और लेखों की लिंक यह है... 

१) एक पाकिस्तानी लेखक ने इस्लाम की धज्जियाँ उड़ाईं.... http://desicnn.com/news/mehboob-haidar-writer-and-thinker-from-pakistan-defined-basic-nature-of-islam-and-its-irrelavence 

२) भारत में बौद्ध पंथ को इस्लाम में ख़त्म किया... http://desicnn.com/news/boudh-religion-in-indian-subcontinent-was-once-flourished-but-islamic-invaders-and-infighting-destroyed-it 

३) धारा 35-A पर नारीवादी और दलित संगठन चुप क्यों??... http://desicnn.com/news/article-35a-of-jammu-kashmir-must-be-abolished-because-its-anti-women-anti-dalit 

लेखक :- इलाहाबाद विश्वविद्यालय में परास्नातक छात्र हैं.

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