भारतीय "जाति व्यवस्था" में दुनिया की दिलचस्पी क्यों?
भारत की जाति व्यवस्था और ‘छुआ-छूत’ बड़ी संख्या में सामाजिक विज्ञान शोधकर्ताओं, इतिहासकारों और यहां तक कि आधुनिक समय में आम जनता के लिए गहरी रुचि का विषय रहा है। भारत में व्याप्त कास्ट की धारणाओं ने गैर-भारतीयों के दिमाग में ऐसी गहरी जड़ें जमा ली हैं कि मुझे अक्सर पश्चिमी लोगों के साथ अनौपचारिक बातचीत के दौरान पूछा जाता है कि क्या मैं अगड़ी जाति की हूँ?
क्या आदिकाल में 12 स्थानों पर कुम्भ स्नान होता था??
कुम्भ शब्द का अर्थ होता है- अमृत का घड़ा यानि ज्ञान का घड़ा और कुम्भ प्रथा का स्पष्ट अभिप्राय है, ज्ञान के घड़े का सदुपयोग। सर्वविदित है कि हमारे राष्ट्र भारत का एक नाम आदिकाल से आर्यावर्त भी है यानि हमारा राष्ट्र आर्य समुदाय बाहुल्य राष्ट्र है, जिसकी संस्कृति और सभ्यता पूर्णरूपेण अपौरूषेय वेद और वैदिक सनातन धर्म पर आधारित रहा है। यह राष्ट्र आदिकाल से ही संतों, ऋषियों, मुनियों की जन्म एवं कर्मभूमि रही है। इन्हीं संतों, ऋषियों, मुनियों के अन्वेषणोपरांत प्राप्त ज्ञानामृत पुंज को अध्यात्म कहा गया। इसके अनुसरण के फलस्वरूप सृष्टि काल से ही भारत राष्ट्र पूरे विश्व को अज्ञानतारूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर ला विश्व कल्याणार्थ तत्परता दिखाता आया है। इसी कारण विश्वधर्मगुरू से भी यह राष्ट्र विभूषित हुआ है। कुम्भ प्रथा भी निश्चित तौर पर इसी श्रृंखला की एक कड़ी है।
कर्बला की लड़ाई, इमाम हुसैन और दत्त हुसैनी ब्राह्मण
पूरे विश्व में शिया मुस्लिम मुहर्रम के दिन इमाम हुसैन की शहादत का शोक मानते हैं और ताजिया निकलते हैं। इमाम हुसैन और उनके साथियों की हत्या खलीफा यजीद प्रथम की सेना ने कर्बला के मैदान में करी थी। निश्चित रूप से इमाम हुसैन का बलिदान शिया मुसलमानों के लिए एक बहुत बड़ी घटना है जिसने प्रत्येक शिया को प्रभावित किया है। किन्तु विश्व के लिए ये एक सबसे बड़ा रहस्योद्धाटन होगा कि कर्बला के इसी युद्ध में 10 हिन्दू ब्राह्मणों ने भी इमाम हुसैन की ओर से खलीफा यजीद की सेना से युद्ध किया था। ये ब्राह्मण दत्त जाति के थे जिनहे मोहियाल भी कहा जाता है। उनमें स्वर्गीय राहिब दत्त और उनके सात बेटे भी थे। राहिब दत्त के सातों बेटों ने कर्बला के युद्ध में इमाम हुसैन के लिए लड़ते हुए वीरगति पाई थी।
भगवान राम की कर्मस्थली, दक्षिण की अयोघ्या : भद्राचलम
भारत की संस्कृति राममय है। हर सच्चे भारतीय के दिल में बसते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और उनके जीवन आदर्श। हमारे देश में ऐसे अनेक प्राचीन स्थल हैं जो श्रीराम के जीवन से निकटता से जुड़े हैं। यंी तो श्रीराम की जन्मभूमि के रूप में उत्तर प्रदेश में पावन सरयू के तट पर बसी अयोध्या नगरी विश्वविख्यात है। मगर क्या आप इस दिलचस्प तथ्य से अवगत हैं कि दक्षिण भारतीय राज्य आंध्र प्रदेश के खम्मम जिले की एक छोटी सी खूबसूरत तीर्थनगरी भद्राचलम को दक्षिण की अयोध्या की मान्यता हासिल है। श्री राम के वनवास काल से अभिन्न रूप से जुड़ा यह पुण्य क्षेत्र अगणित रामभक्तों का श्रद्धा का केन्द्र है।
पंचतंत्र की कहानियाँ और वर्तमान फास्टफूड सिलेबस
देहरादून स्थित शैमरॉक प्री-स्कूल में मैने अपने बेटे का प्रवेश कराया था। प्री-स्कूल का अर्थ क्या है? विद्यालय में प्रवेश से पूर्व बच्चा खेले-कूदे, हमउम्र बच्चों के बीच मिले-जुले और इस तरह जो सिखाया जा सकता है उसी माध्यम से उसकी बुनियाद इस तरह गढी जाये कि अध्ययन में अभिरुचि हो।
Me Too के बारे में मनु और चाणक्य के विधान
हाल ही में विदेश से प्रेरणा लेकर भारत में भी Me Too नामक "कथित आंदोलन" चला, जिसमें उच्च वर्ग के कई लोग शहीद हो गए... फिर जिस तेजी से यह "कथित" आंदोलन आया था, उतनी ही तेजी से गायब भी हो गया. Me Too के बारे में प्राचीन भारतीय विधान क्या हैं?? ऋषि मनु और चाणक्य ने इस बीमारी के बारे में क्या लिखा या कहा है... आगे पढ़िए...
निराश कार्यकर्ताओं के जरिए कैसे लगे बेड़ा पार (भाग-१)
करीब दो साल पहले की बात है। भारतीय जनता पार्टी के आला नेताओं की प्रधानमंत्री निवास पर बैठक हुई। उसमें पार्टी के केंद्रीय पदाधिकारी शामिल हुए। उनसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फीडबैक मांगी। तब एक महासचिव ने कहा था कि कार्यकर्ता निराश हो रहे हैं। उन्हें हमें संभालना होगा। तब प्रधानमंत्री ने उनसे पूछा था कि आखिर क्या वजह है कि कार्यकर्ता निराश हो रहे हैं तो उस महासचिव का जवाब था कि कार्यकर्ताओं ने अपनी बेहतरी की अपेक्षा हमसे लगा रखी थी, लेकिन वह अपेक्षा पूरी नहीं हो पा रही है। इसलिए वे निराश हैं। तब प्रधानमंत्री का जवाब था कि आप कार्यकर्ताओं को समझाओ कि सरकार उन्हें कुछ नहीं दे सकती। प्रधानमंत्री का जवाब सुनकर वहां मौजूद सभी केंद्रीय पदाधिकारी अवाक रह गए थे।
तथाकथित जातीय विद्वेष के झूठे किस्से-कहानियाँ किसने फैलाए?
आज से दो वर्ष पूर्व शूद्र वर्ण विमर्श नामक शोध कार्य को मैंने हाथ में लिया था। हालांकि इसका काफी हिस्सा साल वर्ष 2005 में पीएचडी के दौरान ही तैयार कर लिया था। पीएचडी में भारतीय प्रबंध चिन्तन मेरा विषय था। भारत में प्राचीन काल से अत्यंत सुन्दर प्रबंध प्रणाली रही थी जिसमें मानव संसाधन और मानव संबंध सिद्धांत से जुड़े वर्तमान पाश्चात्य चिन्तन को उत्पादन की उत्कृष्टता के सन्दर्भ में कहीं ज्यादा गहराई से रेखांकित किया गया था। इस प्राचीन भारतीय प्रबंधन में शूद्र वर्ण को लेकर अनेक प्रश्न खड़े किए जाते हैं। जिनके उत्पादन और सेवाओं के द्वारा प्राचीन काल से भारत समृद्धि के शिखर पर पहुंचा तो उन शूद्रों के बारे में यह बातें कहां से आ गईं कि उन्हें पढऩे के अधिकार से वंचित रखा जाता था, उनके साथ भेदभाव होता था, उनका उच्च जातियों ने भयानक शोषण किया। ऐसे अनेक सवाल जो हर किसी शोध अध्येता के मन में उठ सकते हैं, मेरे मन में भी तब उठे।
जौहर के बारे जानते हैं, "शाका" के बारे में भी जानें...
राजपूत राज्य के किले के द्वार तक जब दुश्मन पहुँच गया हो, किले के अन्दर रसद खत्म हो गए हों, और जब हार निश्चित हो, तब, विशेषकर उत्तर-पश्चिमी भारत में, एक सम्मान-संहिता का पालन किया जाता था जिसे सुनकर आज भी आश्चर्य होता है और रूह काँप जाती है. दुश्मनों का किले के अन्दर घुसपैठ होने से पहले भीतर की सभी वीरांगनाएं, रानी-सा के नेतृत्व में, अपने बच्चों के साथ, सुहाग की निशानियों और आभूषण पहने एक साथ एक बड़ी चिता में कदम रखती थी और अग्नि में भष्म हो जाती थी. इसे जौहर कहा जाता था. इसी दरम्यान जब वीरांगनाएं राख हो रही होती थीं, राजपूत योद्धा अपने जीवन की अंतिम लड़ाई लड़ रहे होते थे जिसे शाका कहा जाता था। किला-द्वार को पूर्णतः खोल दिया जाता था और योद्धा केसरिया वस्त्र धारण कर, जो हिन्दू धर्म में त्याग का प्रतीक है, मुख में तुलसी पत्र लिए अंतिम सांस से पहले अधिक से अधिक संख्या में दुश्मनों का वध करने के उद्देश्य से उनपर टूट पड़ते थे.
राजकुमारी कार्विका : वीरांगना जिसने सिकंदर को हराया था
भारत का अतीत बड़ा गौरवमय रहा है। भारत की धरती को शस्यश्यामला कहा जाता है, रत्नगर्भा कहा जाता है, इतना ही नही अपितु वीरप्रसविनी कहा जाता है क्योंकि समय समय पर भारत मां की कोख से महान दार्शनिक ऋषि मुनि, राष्ट्रनायक उन्नायक, महान नेता युग प्रणेता, अन्वेषक, वैज्ञानिक और वीर-वीरांगनाएं उत्पन्न होते रहे हैं जिनकी यश पताका आज देश विदेश में सर्वत्र फहरा रही है। ऐसी ही एक वीरांगना हैं राजकुमारी कार्विका। यदि हम भारत की योद्धा स्त्रियों की चर्चा करें तो महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सभी को तुरंत याद आ जाता है किंतु राजकुमारी कार्विका का नाम कम ही लोग जानते हैं। राजकुमारी कार्विका की आँखों में शेरनी जैसी ज्वाला और चेहरे के आभामंडल में सूर्य जैसा तेज दमकता था। अदम्य साहस तथा शौर्य तो इसे जन्म से ही मिले थे और वीरता तथा निडरता तो मानो जैसे इसे घूंटी में पिलायी गयी हो। वह बचपन से ही अप्रतिम प्रतिभा की धनी थी।
आर्यावर्त भूमि की एक ऐसी वीरांगना हैं राजकुमारी कार्विका जिसके बारे में इतिहास में ना तो विस्तारपूर्वक लिखा गया और ना ही कभी सुना गया। यह आधुनिक इतिहासकारों द्वारा उपेक्षा की शिकार हुई एक ऐसी वीरांगना की वीरगाथा है जिसने विश्वविजय का सपना देखने वाले सिकन्दर से लोहा ले कर अपने राज्य की रक्षा की। इस अद्धभुत शौर्य से पूर्ण वो वीरांगना थी कठ गणराज्य की राजकुमारी कार्विका। कठ प्राचीन पंजाब का प्रसिद्ध गणराज्य था। इतिहास में उनके स्वरूप का वर्णन इन शब्दों में मिलता है – राजकुमारी की शारीरिक ऊँचाई छ: फीट, रंग उगते हुए सूर्य की लालिमा की भांति, मुख पर सौम्यता और क्षात्र तेजयुक्त माँ दुर्गा जैसी तेजस्वी आँखें। उनका प्रिय कार्य था शास्त्र अध्ययन एवं शस्त्र अभ्यास। मात्र दस वर्ष की छोटी आयु में ही वे धनुर्वेद के ज्ञान में पूर्ण रूप से पारंगत हो चुकी थीं। इसके अलावा उन्होंने कई सारे युद्धकला में विशेषज्ञता हासिल कर चुकी थीं। जैसे 1) यन्त्रमुक्त युद्धकला (अस्त्र शस्त्र के उपकरण जैसे धनुष और बाण के उपयोग से विभिन्न प्रकार के तरीके से शत्रु पर प्रहार करने की पद्धति), 2) पाणिमुक्त युद्धकला (हाथ से फेंके जाने वाले अस्त्र जैसे कि भाला पर बारूद लगाकर फेंकने की पद्धति), 3) तांगथा युद्धकला (आँखों में पट्टी बांध कर दोनों हाथों में तलवार लिये युद्ध करने की पद्धति), 4) हस्त अस्त्र युद्ध विद्या जिसमें हवाओं की रफ्तार से तलवार चलाया जाता था और 5) नियुद्ध अर्थात बिना हथियार के युद्ध करना जिसे आज हम मार्शल आर्ट भी कहते हैं।
राजकुमारी कार्विका के प्रजावत्सल होने का प्रमाण इसी से मिलता है कि राजकुमारी बाल्यकाल में ही प्रजा के दुख दर्द को देखना एवं उनका दुखों के निवारण की चेष्टा करना सीख गयीं थीं। इसके लिए वे साधारण वेष में प्रजाजनों के बीच जाकर उनके दुख दर्द एवं शिकायतें भाँपकर अतिशीघ्र उसका निवारण हेतु आवश्यक कदम उठाती थीं। उनके इस कार्य से बाल्यकाल से ही उनके अंदर एक प्रजावत्सल महारानी का स्वरूप दिखने लगा था और मात्र 17 वर्ष की आयु में ही सब उनमें भावी साम्राज्ञी का चित्र देखने लगे थे। कठ गणराज्य की प्रजा राजकुमारी कार्विका की प्रजावत्सलता देख अत्यंत भावविह्वल थी एवं राज्य में सम्पनता के साथ खुशहालीपूर्वक जीवन व्यतीत कर रही थी। इसी बीच भारतवर्ष पर सिकन्दर का आक्रमण हुआ। सिकंदर ने भयंकर तबाही और नरसंहार मचाते हुए सिंध की तरफ से सर्वप्रथम कठ गणराज्य में प्रवेश किया। ऐसी सूचना मिलते ही राजकुमारी कार्विका ने अपने सैन्यबल को एकत्रित कर हुंकार भर रणभेरी फूंक कर युद्ध की घोषणा कर दिया। राजकुमारी ने अपनी स्त्रीसेना का निर्माण किया था एवं इस सैन्यबल का नाम चंडीसेना रखा था। इतिहास में मिले प्रमाणों के अनुसार राजकुमारी की चंडीसेना में 1300 अश्वारोही स्त्रियां, 3500 पैदल स्त्रियां, कुछ हजार के लगभग धनुर्धारी एवं ढालधारी स्त्रियां था। कुल लगभग 10 से 12 हजार तक का सैन्यबल था। सम्पूर्ण विश्व धरा के इतिहास में ऐसी पहली सेना बनी थी जो केवल वीरांगना नारियों की सेना थी।
वर्ष 325 ई.पू में सिकंदर ने अपने विशाल सैन्यबल के साथ कठ गणराज्य पर आक्रमण कर दिया था। सिकंदर को इस युद्ध में सहज विजय मिलने की अपेक्षा थी। राजकुमारी कार्विका ने बड़ी ही सूझ-बुझ, शांत चित्त, कुशल एवं अचूक रणनीति और अपने युद्धव्यूह से सिकंदर को पराजित करने का निश्चय किया। राजकुमारी कार्विका ने रणनीति बनाई कि शत्रु को जहाँ उसे बल मिल रहा है, उस जगह से बाहर ले आ कर बीच में कहीं ले आना है जिससे शत्रुदल की शक्ति कम हो जाये। राजकुमारी के इस युद्धनीति को आगे चलकर विदेशी खासकर चीन के योद्धाओं ने भरपूर व्यवहार में लाया है। इस युद्धनीति को अंग्रेज़ी में कहते है ल्यूर द टाइगर ऑफ द डेन यानी शेर को उसकी माँद से बाहर ले आना।
इस युद्धनीति के अनुसार सिकंदर की सैन्य शिविर के निकट राजकुमारी कार्विका के आदेशानुसार सर्वप्रथम दो-चार सौ सैनिकों ने बाणों की एकसाथ वर्षा कर दी। इससे सिकंदर की सेना तितर बितर हो गई। सिकंदर के सेनापति ने सिकंदर की आरामगृह शिविर में यह संदेश भिजवाया. संदेश प्राप्त होते ही सिकंदर ने अपने सैनिकों को आगे बढ़कर आक्रमण करने का आदेश दिया। इधर राजकुमारी कार्विका ने ऊंची, नीची, छोटी पर्वत जैसी बनी हुई घाटियों का सहारा लेकर हज़ार सैनिकों का दस्ता भेजा। कार्विका की सैन्य संख्या काफी कम थी, परंतु अपने अदभुत युद्धकौशल एवं रणनीति के द्वारा राजकुमारी कार्विका ने यह सिद्ध किया है कि युद्ध संख्याबल से नहीं बल्कि बुद्धिबल से जीते जाते हैं। सिकंदर के द्वारा भेजी गई पहली 35000 सैन्यबल के समक्ष कार्विका की सेना युद्ध में सिकंदर पर भारी सिद्ध हो रही थी। कार्विका की सेना ऊंचे नीचे पहाड़ जैसी बनी घाटियों का सहारा लेकर समवेत स्वर में हुंकार भरने पर आवाज की गूंज से सैनिकों की संख्या ज्यादा प्रतीत होने लगा था। इससे सिकंदर की सेना को भ्रम हो गया कि कठ गणराज्य की सेना का संख्याबल अत्यधिक है। इसी धोखे में सब एकसाथ मिलकर आगे बढ़ गये और झुंड में आक्रमण कर दिया। राजकुमारी कार्विका सिकंदर की सेना को अपने मूलस्थान से दूर ले आने की योजना में सफल हो चुकी थीं। सिकंदर का भेजा गया पहला सैन्य दस्ता बुरी तरह परास्त हो गया।
दूसरी बार सिकंदर ने 40000 का सैन्यदल भेजा और उन्हें उत्तर-पूर्व की दिशा से आक्रमण करने का निर्देश दिया। इस बार सिकंदर ने हेलेनिक एवं बारबैरियन (अर्थात बर्बर युद्ध पद्धति) को अपनाया। इस युद्ध पद्धति में सिकंदर की सेना ढाल की दीवार बनाकर भाला को मध्यभाग से पकड़ के सब एक साथ दस-दस सैनिकों का पंक्तिपद बना के आक्रमण करते थे।
इस युद्धव्यूह को तोडऩे के लिए राजकुमारी कार्विका ने भ्रमजाल नीति को अपनाया। इस युद्धनीति को अंग्रेजी में डिसेप्शन कहते हैं। डिसेप्शन युद्ध कला का जि़क्र सन् जू के किताब युद्ध कला में भी प्राप्त होता है। इस युद्धनीति के तहत कार्विका ने अपनी 150 सैनिकों की टोली को दो तरफ भेज दिया और कुछ घोड़ों को खुला छोड़ दिया। बाकी बचे सैनिकों को उत्तर एवं मध्य की दिशा में विभाजित कर बांट दिया। घोड़ों की भाग-दौड़ से यवन सेना को यह भ्रम हो गया कि राजकुमारी कार्विका की सैन्यदल पूर्व और दक्षिण की ओर से आ रही है। यवन सेना इस भ्रमजाल युद्ध नीति में फंस गई और दक्षिण की ओर मुड़ गई। तत्पश्चात राजकुमारी कार्विका अपनी उत्तर एवं मध्य में उपस्थित सैन्यबल को आक्रमण करने का आदेश दे दिया। भारतीय वीरांगनाओं ने अनुमति प्राप्त करते ही अग्नि बाणों की वर्षा कर दिया। साथ ही अश्वसेना एवं पैदल सैनिकों ने भी आक्रमण कर दिया और राजकुमारी कार्विका एक बार फिर यवन सेना के इस दस्ते को भी परास्त करने में सफल हुई। सिकंदर के 40000 सैनिकों में से केवल आठ हजार ही प्राण बचा कर भाग पाए।
तीसरा एवं अंतिम सैन्यदस्ता 75000 का मोर्चा लिए स्वयं सिकंदर ने आक्रमण किया। इस बार राजकुमारी कार्विका एवं सिकंदर का आमना सामना हुआ। राजकुमारी कार्विका ने यहाँ घात लगाकर युद्ध करने और सिकंदर का सैन्यबल कुछ कम होने पर औरमी व्यूह का उपयोग करने का निर्णय लिया। औरमी व्यूह में सेना को इस तरह से सुसज्जित किया जाता है जिस प्रकार समुद्र में लहरें दिखाई देती हैं। इस व्यूह की एक विशेषता है कि इसमें संख्या की कमी को छुपाया जा सकता है। राजकुमारी कार्विका ने इस व्यूह रचना से सिकंदर को युद्ध के अंत तक अपने सैन्यबल का अनुमान नहीं लगाने दिया। राजकुमारी कार्विका की सेना ने सिकंदर की सेना में हाहाकार मचा दिया। इस भीषण प्रलयंकारी युद्ध में राजकुमारी कार्विका की तलवार के प्रहारों ने सिकंदर की बाँह और पेट को चीर दिया था जिससे सिकंदर के आंतो पर गहरा ज़ख्म हो गया।
इस युद्ध में राजकुमारी कार्विका ने सिकंदर को सिंध के पार खदेड़ दिया था। सिकंदर की 150000 की सेना में से 25000 के लगभग सेना शेष बची थी। सिकंदर ने कठगणराज्य में दोबारा आक्रमण नहीं करने के आश्वासन के साथ एवं दंडरूपी जुर्माना देकर वापस लौट गया। इस अंतिम युद्ध में कठगणराज्य के 8500 में से 2750 साहसी वीरांगनाएं बलिदान हुईं जिसमे से कुछ वीरांगनाओ के ही नाम इतिहास के दस्तावेजों में मिलते हैं। इनमें से कुछ नाम हैं – गरिण्या, मृदुला, सौरायमिनि, जया इत्यादि।
एक वीरांगना की इतनी अदभुत वीरगाथा पढऩे एवं सुनने के बाद अवश्य ये प्रश्न उठता है कि इस वीरगाथा से हम अनभिज्ञ क्यों हैं। उसका उत्तर ये है कि राजकुमारी कार्विका के समूल इतिहास को नष्ठ कर दिया गया है। इनका इतिहास बहुत ढूंढने पर केवल दो संदर्भों में और वह भी केवल दो पन्नों में पाया जाता है।