सूफीवाद, दरगाह-मज़ार और इस्लाम प्रचार

Written by रविवार, 13 मार्च 2016 10:10

भारत में सूफीवाद बहुत पुराना है, लेकिन वास्तव में सूफीवाद की असलियत क्या है? सूफियों के इस्लामिक प्रचारक और मानसिक अफीम की पड़ताल करता यह बेहद मारक लेख पढ़िए...

पिछले कुछ वर्षों में आपने हिन्दी फिल्मों एवं खासकर गीतों में अचानक तेजी से बढ़े कुछ खास शब्दों की तरफ ध्यान दिया होगा... जैसे “मौला”, “अल्ला” इत्यादि. फिल्मों में भी विजय अथवा राहुल नाम का कोई “हिन्दू” हीरो कई बार दरगाहों अथवा चर्चों में मत्था टेकते या सीने पर क्रास बनाए हुए दिखाई दे जाता है. इसी प्रकार अजमेर की ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर आए दिन बड़े-बड़े फ़िल्मी सितारों का जमघट लगा हुआ दीखता है, जो सिर पर गुलाबों के फूल की टोकरी और हाथ में हरी चादर लेकर “दुआ”(??) माँगने जाते हैं. क्या कभी आपने सोचा कि ऐसा क्यों होता है? वास्तव में यह एक प्रकार का “दृश्य-श्रव्य” धीमा ज़हर होता है, जिसके जरिये आपकी सांस्कृतिक चेतना एवं अवचेतन मन पर प्रभाव उत्पन्न किया जाता है. लगातार कई वर्षों तक विभिन्न माध्यमों के जरिये ऐसा करने से व्यक्ति के दिमाग के एक हिस्से में उन दृश्यों एवं उनमें दिखाए जाने वाले मौलाओं, कब्रों, दरगाहों के प्रति एक “सॉफ्ट कॉर्नर” उत्पन्न हो जाता है, जो धीरे-धीरे बढ़ते हुए पूर्ण ब्रेनवॉश का रूप ग्रहण कर लेता है. 

हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी ने अपनी ब्रिटेन यात्रा के दौरान बयान दिया, कि इस्लाम में यदि सूफ़ी मत प्रभावी स्वर होता, तो इतनी हत्याएं न होतीं... संसार में इस्लाम की केंद्रीय अवधारणा तौहीद के मानने वाले इतने नरसंहार न करते. इस्लामी इतिहास और इस्लामी वांग्मय के एक विद्यार्थी होने के नाते, यह मेरा दायित्व है कि मैं इस्लाम और सूफ़ीवाद पर इतिहास के आलोक में बात करूँ. और पाठकों को बताऊँ कि वास्तव में मोदी ने अनजाने में ही एक भीषण गलती कर दी है. आइये हम पहले जानें कि भारत के संदर्भ में सूफ़ी मत क्या है?

सूफ़ीमत यानी भारत के अपने में ही डूबे रहने वाले बुद्धिजीवी वर्ग, अपने चश्मे से दुनिया को देखने एवं उसके बारे में राय बनाने वाले विशिष्ट वर्ग के लिये हिन्दू-मुस्लिम एकता का एक और गंगा-जमुनी काम भर है. इन सेकुलर बुद्धिजीवियों की इस “गंगा-जमनी”(??) तहज़ीब का प्रकटन पाकिस्तानी गजगामिनी क़व्वाला आबिदा परवीन की क़व्वाली का आनंद लेने, उसके कार्यक्रमों में जा कर ताली बजा-बजा कर सर धुनने-धुनवाने, वडाली बंधुओं के अबूझ-अजीब से गानों में रस लेना प्रदर्शित करने, अमीर ख़ुसरो, बुल्ले शाह जैसे शायरों, कवियों की निहायत फटीचर कविता को अद्भुत मानने इत्यादि में होता है. आईये पहले उदाहरण के रूप में हम सर्वाधिक चर्चित सूफ़ी शायरों की कविताओं के कुछ उद्धरण लेते हैं, ताकि बात आगे बढ़ने के लिये ये उपयोगी होंगे...

रैनी चढ़ी रसूल की रंग मौला के हाथ
जिसकी चूँदर रंग दई धन-धन उसके भाग { अमीर ख़ुसरो }

मौला अली मौला मौला अली मौला
आज रंग है ए माँ रंग है जी रंग है {अमीर ख़ुसरो }

छाप-तिलक सब छीनी मोसे नैना मिलाय के
प्रेमभटी का मधवा पिलाय के मतवाली कर लीनी रे मोसे नैना मिलाय के
गोरी-गोरी बहियाँ हरी-हरी चुरियां, बँहियां पाकर धर लीनी रे मोसे नैना मिलाय के
बल-बल जाऊं मैं तोरे रंगरेजवा अपनी सी कर लीनी रे मोसे नैना मिलाय के
ख़ुसरो निज़ाम के बल-बल जाइये मोहे सुहागन कीन्हीं रे मोसे नैना मिलाय के {अमीर ख़ुसरो)

मोरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल
कैसी धार दिनी विकास मोरी माल
मोरा जोबना नवेलरा......
निजामुद्दीन औलिया को कोई समझाये
ज्यों ज्यों मनाऊं वो तो रूठता ही जाये
मोरा जोबना नवेलरा......
चूड़ियाँ फोड़ पलंग पे डारूँ
इस चोली को दूँ मैं आग लगाय
सुनी सेज डरावन लागे
विरही अगन मोहे डंस-डंस जाये
मोरा जोबना नवेलरा......{अमीर ख़ुसरो )

बुल्ले शाह शौह तैनूं मिलसी दिल नूं देह दलेरी
प्रीतम पास ते टोलणा किस नूं भुलिओं सिखर दुपहरी { बुल्ले शाह }

ओ रंग रंगिया गूडा रंगिया मुरशद वाली लाली ओ यार { बुल्ले शाह)

जिसे शायरी अथवा कविताओं की अधिक समझ नहीं है, उसे पहली नज़र में तो यही समझ में आता है कि इन क़व्वाली / कविताओं का उद्देश्य कपडे रंगवाना है, या होली में कपडे रंगवाना है और ये किसी मौला नाम के रंगरेज़ की बात कह रहे हैं. कई जगह ख़ुसरो या अन्य सूफ़ी नज़रें मिलते ही चेरी [दासी] बनने, अपने सुहागन होने, अपने नवल जोबन की अगन, अपनी चोली को जलाने की बात करते हैं. इसका तो मतलब ये लिया जा सकता है कि ये पठानी-ईरानी शौक़ { ग़िलमाँ} की बात कर रहे होंगे, मगर रंगरेज़ पर कविता लिखने का क्या मतलब? ये भी निश्चित है कि बुल्ले शाह, निज़ामुद्दीन, बख़्तियार काकी, ख़ुसरो इत्यादि लोग धोबी तो नहीं ही थे. विश्व की किसी भी भाषा में रंगरेज़ पर कवितायें मेरी जानकारी में तो नहीं मिलतीं. ये कविता का विषय ही नहीं है. तो फिर ये रंग क्या है? रसूल की चढ़ी रैनी में मौला के हाथ रंग होने का क्या मतलब? जिसकी चूनर रंग दी गयी, उसके धन-धन भाग का क्या अर्थ है? ये किसी सांकेतिक रंग की बात तो नहीं कर रहे? फिर ये छाप तिलक क्या है? ख़ुसरो अमीर सैफ़ुद्दीन मुहम्मद के बेटे थे जो तुर्क थे और निज़ामुद्दीन के शिष्य थे. न तो तुर्क लोग तिलक लगते हैं, और न ही निज़ामुद्दीन जिस चिश्ती परम्परा के सूफ़ी हैं उसमें तिलक लगाये जाते हैं. तो फिर ये किस छाप-तिलक का ज़िक्र किया जा रहा है? कहीं ये किसी अन्य की बात तो नहीं कर रहे, जिसकी छाप-तिलक नैना मिला कर छीन ली गयी हो?

जी हाँ यही सच है, और ये मतलब खुलता है अमीर ख़ुसरो की एक रचना 'छाप-तिलक सब छीनी मोसे नैना मिलाय के' से. छाप-तिलक से अभिप्राय ब्रज के गोस्वामियों द्वारा कृष्ण भक्ति में 8 जगह लगाने वाली छाप से है. वास्तव में ख़ुसरो कह रहा है, कि मुझसे आँखें मिला कर मेरी छाप-तिलक सब छीन ली... यानी मुझे मुसलमान कर दिया. आज रंग है हे माँ... का अर्थ इस्लाम में लोगों के दीक्षित होने से है. धर्मबंधुओ! सूफ़ी मत इस्लाम फ़ैलाने का केवल एक उपकरण मात्र है और सूफ़ियों की हर बात का अर्थ प्रकारांतर में इस्लाम में दीक्षित हो जाना है. भारत में धर्मान्तरण के सबसे प्रमुख उपकरण सूफ़ी ही रहे हैं. अफ़ग़ानिस्तान से शुरू करके मुल्तान, पाकिस्तानी पंजाब, भारतीय पंजाब, हरियाणा, दिल्ली पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल, बांग्लादेश से इंडोनेशिया से आगे जाता हुआ पूरा गलियारा इन्हीं सूफियों का शिकार हुआ है. उत्तर प्रदेश के “बौद्ध राजपथ” वाले सारे ज़िलों से बुद्ध मत गायब हो गया. यहाँ के बौद्ध इन्हीं सूफ़ियों के शिकार हुए हैं. बुल्ले शाह, मुईनुद्दीन, निजामुद्दीन, बख़्तियार काकी जैसे कुछ प्रमुख के अलावा भी सारे भारत में इनकी दरगाहें बिखरी पड़ी हैं. ये सब इस्लाम की लड़ाई लड़ने आये सैनिक थे. जिन्हें प्रतापी हिन्दू राजाओं ने काट डाला, वो “शहीद” कहला कर पूजे जा रहे हैं, बाक़ी पीर बाबा, ग़ाज़ी बाबा कहला रहे हैं. इनकी किताबें पढ़िये, सभी में इनके काफ़िरों या जादूगरों से संघर्ष की चतुराई से लिखी गयी कथाएं हैं. अजमेर के मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह या दिल्ली के निज़ामुद्दीन और अमीर ख़ुसरो की क़ब्रों पर जा कर देखिये, वहां आने वाले नब्बे प्रतिशत हिन्दू मिलते हैं, यानी आज भी न्यूनाधिक ये पापलीला चल रही है, क्योंकि एक सामान्य हिन्दू “लचीला” तो होता ही है, वह सामान्यतः दूसरे पंथों का अपमान भी नहीं करता और भोला तो इतना होता है कि पश्चिम से आए पंथों द्वारा रचे गए चतुराईपूर्ण षड्यंत्रों को समझ ही नहीं पाता. वर्तमान भारत से इतर वृहत्तर भारत का “सिल्क रूट” कहलाने वाला क्षेत्र इन्हीं कुचक्रों के कारण बौद्ध मत की जगह इस्लामी बना है. इसी का परिणाम आज चीन का सिंक्यांग, एवं रूस से अलग हुए इस्लामी देशों में दिखाई देता है. सब जगह खंडित बुद्ध मूर्तियां, ध्वस्त बौद्ध विहार मिलते हैं.

ऑनलाइन विवाद की स्थिति में मोमिन पूछते हैं कि बौद्ध धर्म का सफाया हिन्दू राजाओं ने किया और नव बौद्ध के साथ मिलकर दोनों राजा पुष्यमित्र शुंग को कोसते हैं, कि उन्होंने मौर्य राजवंश का अंत कर सत्ता हथियाई. सच्चाई का दूसरा पहलू यह है कि बामियान के बुद्ध हों, तक्षशीला, नालंदा या साँची के स्तूप हों... तारीख के स्याह पन्नों पर बख्तियार ख़िलजी, होशंग शाह और तालिबानी ज्यादतियों की कहानी कभी मिटाई नहीं जा सकेगी. हिन्दू और उनके नेता इतने भोले (बल्कि मूर्ख) हैं कि वह अभी तक खूंखार जिहादियों के सूफी होने का नकाब ओढ़ने वालों के मोह जाल में फंसे हुए हैं. एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लंदन में सूफियों के गुणगान करते हैं, तो दूसरी तरफ भाजपा की सरकारें करोड़ों रुपये इन सूफी दरगाहों पर खर्च करती हैं. आज भी इन सूफी दरगाहों पर जाने वाले लोग मुसलमान नहीं, बल्कि हिन्दू हैं. दुःख की बात यह है, कि इन तथाकथित जिहादी सूफियों ने करोड़ों हिन्दुओं को तलवार के जोर से मुसलमान बनाया, और उनके उपासना स्थलों को जबरन मस्जिदों और दरगाहों में बदल डाला. इस्लाम के इन छिपे जिहादियों के खतरनाक घिनौने चेहरों का कई विद्वानों ने पर्दाफाश करने का प्रयास बारम्बार किया है, ताकि बुद्धिहीन हिन्दू उनके असली चेहरों को पहचान सकें और उनके दरगाहों पर नजराने देने का सिलसिला फौरन बंद कर दें. आजादी के बाद इस्लाम के खूँखार प्रचारकों को सूफी करार देकर उनको महिमामंडित करने का अभियान चल रहा है. इस दुष्प्रचार का शिकार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी हो गए और उन्होंने लंदन में भाषण देते हुए फरमाया कि अगर सूफी होते तो कोई हत्याकांड नहीं होता. वर्ष 1992 में विख्यात् पत्रकार गिरीलाल जैन सूफी दरगाहों को इस्लाम में भर्ती करने वाली संस्थाओं की संज्ञा दी थी. गत कुछ दशकों से लम्बी-लम्बी दाढ़ियों वाले मौलवी, जगह-जगह हरी चादरें बिछाकर अपने पालतू संगठन बनाकर सूफीवाद की आड़ में अपनी दुकानें चला रहे हैं. यह दावा सरासर गलत है कि सूफी मौला, हिन्दू धर्म और इस्लाम के बीच पुल का काम करते थे. सच्चाई तो यह है कि अधिकांश सूफी इस्लाम के प्रचारक थे, जिन्होंने इस्लाम को फैलाने के लिए और हिन्दुओं का धर्मांतरण करने के लिए हर हथकंडा अपनाया. उनका हिन्दू धर्म या उनके दर्शन से कोई दूर-दर तक वास्ता नहीं था. यह बात दूसरी है कि उन्होंने हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए हिन्दवी भाषा का सहारा लिया. उनके खरीदे हुए गुलामों ने उनकी करामात के बारे में झूठे वायदे करके आस्थावान हिन्दुओं को उनकी ओर आकर्षित किया.

विडंबना यह भी है कि जिन सूफियों ने हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया और उनके पूजास्थलों को मिट्टी में मिलाया, उन्हीं की दरगाहों में हाजिरी देने वालों में 90 प्रतिशत मूर्ख हिन्दू होते हैं. इस तथ्य से कोई व्यक्ति इंकार नहीं कर सकता कि इन सूफियों ने जासूस के रूप में कार्य किया और मुस्लिम अक्रांताओं को हिन्दू राजाओं को पराजित करने के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाई. यदि यह सूफी भारत की बहुधर्मी संस्कृति में विश्वास करते थे, तो क्या उन्होंने एक भी मुसलमान को हिन्दू धर्म स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया? क्या उनमें से एक भी “कथित सन्त” ने मुस्लिम सुल्तानों द्वारा हिन्दू जनता के उत्पीड़न और उनके उपासना स्थलों को तबाह करने का कभी विरोध किया था? कभी नहीं... सच तो यह है कि इनकी दरगाहें इस्लाम के प्रचार का मुख्य केन्द्र बनीं रहीं. पंजाब में बाबा फरीदगंज शक्कर का नाम काफी श्रद्धा से लिया जाता है. गुरूग्रंथ साहिब तक में उनकी वाणी शामिल है. मगर नवीं शताब्दी की एक फारसी पुस्तक जिसका नाम है ‘मिरात-ए-फरीदी’ लेखक अहमद बुखारी में इस महान सूफी की पोल खोलकर रख दी गई है. लेखक के अनुसार इस सूफी ने पंजाब में 25 लाख हिन्दू जाटों का धर्मांतरण करवाया था। उनके दस हजार बुतखानों को ध्वस्त करवाया. इस पुस्तक में उनके इन कारनामों का बड़े विस्तृत रूप से जिक्र किया गया है.

अजमेर के हजरत गरीब नवाज मोईनुद्दीन चिश्ती के बारे में कुछ वर्ष पूर्व लाहौर के एक समाचारपत्र कोहिस्तान में कुछ फारसी पत्र प्रकाशित हुए थे, जो कि उन्होंने शाहबुद्दीन गौरी को लिखे थे. इन पत्रों में मोईनुद्दीन चिश्ती ने अजमेर के किले तारागढ़ को कैसे जीता जाये, इसके बारे में गौरी को कई सुझाव दिए थे. इनकी चार पत्नियां थीं जिनमें से एक पत्नी राजपूत थीं, जिसे किसी युद्ध में बंदी बनाया गया था. इसका जबरन धर्म परिवर्तन किया गया. इस राजपूत औरत से चिश्ती की एक पुत्री का जन्म हुआ था, जिसका नाम बीबी जमाल है और उसकी कब्र आज भी अजमेर स्थित दरगाह के परिसर में है. तत्कालीन फारसी इतिहासकारों ने इनके बारे में यह दावा किया है, कि उन्होंने दस लाख काफिरों (हिन्दू) को कुफ्र की जहालत से निकालकर इस्लामी के नूर से रोशन किया, अर्थात् उनका धर्मांतरण करवाया. इस सूफी की प्रेरणा से अजमेर और नागौर में अनेक मंदिरों को ध्वस्त किया गया. अजेमर स्थित “ढाई दिन का झोपड़ा” इसका ज्वलंत उदाहरण है... लेकिन भारत की नई पीढ़ी जिसका “सेकुलर ब्रेनवॉश” हो चुका है वह इस दरगाह पर अमिताभ बच्चन को सिर पर गुलाबों की टोकरी उठाए देखता है तो गदगद हो जाता है. यह पीढ़ी इस दरगाह के पीछे का खूनी इतिहास जानने में रूचि नहीं रखती... अंग्रेजी में इसे “Deadly Ignorance” (घातक अज्ञान) कहा जाता है. इसी प्रकार बंगाल के खूंखार और लड़ाके सूफियों में एक मुख्य नाम सिलहट के शेख जलाल का भी है. गुलजार-ए-अबरार नामक ग्रंथ के अनुसार इस सूफी ने राजा गौढ़ गोविन्द को हराया. शेख जलाल का अपने अनुयायियों को स्पष्ट आदेश था कि वह हिन्दुओं को इस्लाम कबूल करने की दावत दें और जो उससे इंकार करे उसे फौरन कत्ल कर दें.

बहराइच के गाजी मियां उर्फ सलार मसूद गाजी का नाम भी इस संदर्भ में उल्लेखनीय है. यह महमूद गजनवी का भांजा था, और इसी ने सोमनाथ के मंदिर को ध्वस्त करने के लिए अपने मामा को प्रेरित किया था. प्रारम्भ से ही उनका हिन्दुओं के सामने एक ही प्रस्ताव था - मौत या इस्लाम. बहराइच के समीप वीर हिन्दू महाराजा सोहेल देव की सेनाओं के हाथ वह अपने हजारों साथियों सहित मारा गया था, लेकिन सोहेल देव के हारने के पश्चात मोहम्मद तुगलक ने मसूद की मजार पर एक पक्का मकबरा बनवा दिया और ये “गाजी मियां” उर्फ बाले मियां उत्तर प्रदेश और बिहार में एक बेहद लोकप्रिय पीर के रूप में विख्यात् हो गए, जबकि इसे हराने और मारने वाले हिन्दू राजा सोहेलदेव इतिहास से गायब हो गए. “जिकर बाले मियां” नामक उर्दू पुस्तक के अनुसार, गाजी मसूद ने पांच लाख हिन्दुओं को मुसलमान बनाया और अपने अनुयायियों को यह आदेश दिया था कि वह हिन्दू महिलाओं से जबरन निकाह करें. इतिहासकारों के अनुसार मेरठ स्थित नवचंडी मंदिर को ध्वस्त करने वाले बाले मियां ही थे। बाले मियां के काले कारनामों का उल्लेख (ईलियट एण्ड डाउसनः हिस्ट्री आॅफ इण्डिया बाई इट्स ओन हिस्टोरियन्स, खण्ड-2, पेज-529-547) में विस्तृत रूप से किया गया है. कश्मीर का इस्लामीकरण करने में भी सूफियों का महत्वपूर्ण हाथ है. जाफर मिक्की ने “कश्मीर में इस्लाम” नामक फारसी पुस्तक में यह स्वीकार किया है, कि तुर्किस्तान से आने वाले 21 सूफियों ने नुरूद्दीन उर्फ नंदऋषि के नेतृत्व में कश्मीर के 12 लाख हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया था. इन सूफियों ने उन सभी पांच लाख हिन्दुओं का कत्ल कर दिया, जिन्होंने इस्लाम कबूल करने से इंकार कर दिया था. कश्मीर के कुख्यात् धर्मांध और कट्टरवादी मुस्लिम शासक सुल्तान सिकंदर बुतशिकन ने कश्मीर घाटी में स्थित सभी हिन्दू मंदिरों को तहस-नहस करवा दिया था। मार्तंड के विख्यात् सूर्य मंदिर के खंडहर आज भी इन सूफियों के जुल्मों की कहानी के साक्षी हैं. इस सुल्तान ने अवंतीपुर के विष्णु के भव्य मंदिर को भी तहस-नहस करवाया था, यह बात भी कश्मीर में बाकायदा लिखित स्वरूप में उपलब्ध है. वैसे तो सूफी शब्द के और भी दो तीन अर्थ निकलते हैं, लेकिन एक सर्वमान्य अर्थ है कि ऐसे सच्चे मुसलमान जो ऊन से बने वस्त्र पहनते थे. Suf से Sufi बनता है, और Suf का अर्थ Wool दिया गया है.

वैसे आप को शायद पता ही होगा कि इंग्लिश में एक मुहावरा है – “pulling wool over someone's eyes” . इसका लौकिकार्थ होता है, “किसी का भरोसा जीतकर उसे मूर्ख बनाना...”. Suf = Wool होता है, ये हम इस लेख में विस्तार से देख चुके हैं. आँखों में धूल झोंककर, स्वयं को आध्यात्मिक एवं मौलवी टाईप के स्वांग में रचकर भोलेभाले हिंदुओं को इस्लाम की तरफ खींचने की चाल अभी तक काफी सफल रही है, परन्तु अब उम्मीद करता हूँ कि गाँव-गाँव में हरी चादरें फैलाकर खैरात माँगने वाली टोली अथवा हाईवे एवं महत्त्वपूर्ण सामरिक ठिकानों के आसपास अथवा सड़क के दोनों तरफ रातोंरात अचानक उग आईं दरगाहों, मज़ारों और चमत्कारों का दावा करने वाली इन “लाशों” के बारे में, आप लोग गहरे पड़ताल तो करेंगे ही... हिन्दू नाम वाले किसी फ़िल्मी हीरो को किसी दरगाह पर चादर चढ़ाते हुए देखकर लहालोट भी नहीं होंगे. वास्तव में सूफ़ी मत, “इस्लामी ऑक्टोपस” की ही एक बांह भर है.

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(भाई तुफैल चतुर्वेदी जी की फेसबुक पोस्ट, एवं कमेंट्स में मामूली फेरबदल के साथ साभार).

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