इस प्रोजेक्ट में IIT के वैज्ञानिक देशी गायों से निकले पंचगव्य में शामिल तत्वों की जांच और शोध करेंगे और यह पता लगाने की कोशिश करेंगे कि आखिर देशी गाय के इन उत्पादों को पवित्र क्यों माना जाता है? क्या इन उत्पादों में ज़हरीले केमिकल तथा घातक तत्वों को अवशोषित करने की क्षमता है? पश्चिम की जर्सी गायों और भारतीय देशी गायों के पंचगव्य और दूध में कितना और क्या-क्या अंतर है? अगले पाँच वर्ष में इस रिसर्च के ठोस और वैज्ञानिक परिणाम सामने आ जाएँगे तब उस प्राचीन भारतीय ज्ञान पर एक “तथाकथित आधुनिक वैज्ञानिक मुहर” लग जाएगी, जिसे हमारे ऋषि-मुनि कई वर्षों पहले से जानते और मानते रहे हैं.
इस प्रोजेक्ट के मुखिया डॉक्टर विजेंद्र कुमार विजय ने अपना करियर उदयपुर के कृषि विवि से 1988 में आरम्भ किया है. वहां पर ही उन्होंने शुरुआत में देशी गाय के गोबर और उससे बनने वाली गोबर गैस पर काफी काम किया, उसी दौरान वे कई ग्रामीणों के संपर्क में आए और उनमें पंचगव्य के गुणों के बारे में आकर्षण जागा. विजेंद्र कुमार 2014 में भी सुर्ख़ियों में आए थे, जब उन्होंने गोबर और नगरीय कचरे से बने हुए एक ऑर्गेनिक मटेरियल से कार चलाकर दिखाई थी. सितम्बर 2002 में IIT-Delhi में एक कांफ्रेंस थी, जिसमें डॉक्टर हर्षवर्धन अध्यक्ष थे और विजेंद्र जी वहाँ सचिव थे. इस कांफ्रेंस में देश भर से लगभग 1000 गौशाला मालिक शामिल हुए थे, तभी से इनके दिमाग में इस विषय पर एक विस्तृत रिसर्च करने की योजना बनने लगी थी. परन्तु उसके बाद सरकार बदल गई, और UPA-1 तथा UPA-2 सरकारों के दौरान किसी भी मंत्री या नौकरशाह ने विजेंद्र के इस प्रोजेक्ट में कोई रूचि नहीं दिखाई और इसे खारिज कर दिया, लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनते ही विजेंद्र ने पुनः इसके लिए प्रयास किया, आवेदन किया और पंचगव्य के बारे में समझाया तब जाकर इस पर पुनः काम शुरू हुआ. संसद में स्वास्थ्य मंत्री ने घोषणा की कि देशी गाय के दूध के “कैंसर निरोधी” तथा “इन्फेक्शन रोधी” गुणों की जांच के लिए IIT-Delhi में एक प्रोजेक्ट शुरू किया जाएगा... और तब इनकी गाडी आगे बढ़ी.
इस दौरान विजेंद्र हताश नहीं हुए, उन्होंने महात्मा गांधी ग्रामीण औद्योगिकीकरण संस्थान वर्धा में गौमूत्र को एक खाद के रूप में तथा मच्छर भगाने वाली दवा के रूप में विकसित करने का शोध कार्य जारी रखा. इन्होने गौ-विज्ञान अनुसंधान केंद्र नागपुर में भी काम किया और अब इनके द्वारा शोधित गौमूत्र विभिन्न आयुर्वेदिक अस्पतालों में दवा के रूप में मरीजों को दिया जा रहा है, जिसके नतीजे बेहद चौंकाने वाले रहे हैं. इस प्रोजेक्ट की संयोजक काव्या दशोरा कहती हैं कि केवल भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी पंचगव्य पर काम किया जा रहा है और अब भारत में IIT-Delhi के भी इसमें जुड़ जाने से भारत के इस परम्परागत ज्ञान के वैज्ञानिक पहलुओं को और उजागर करने में मदद मिलेगी. कुछ “प्रगतिशील” पत्रकारों ने विजेंद्र को छेड़ने की नीयत से यह सवाल भी उठाए हैं कि यदि गाय के मूत्र पर शोध किया जा सकता है तो फिर बकरी, बन्दर और गधे के मूत्र पर क्यों नहीं? इस पर विजेंद्र का कहना है कि जरूर ऐसा किया जा सकता है, लेकिन फिलहाल मेरा फोकस केवल इस बात पर है कि विदेशी जर्सी गायों और भारतीय देशी गायों के दूध में मूलरूप से गुणधर्म का क्या अंतर है तथा भारत की देशी गाय से निकले पंचगव्य के क्या-क्या वैज्ञानिक पहलू और लाभ हैं. फिलहाल इस प्रोजेक्ट के लिए IIT-Delhi में शोध टीम को एक प्रयोगशाला और सात एकड़ की जमीन दी गई है, ताकि वे कुछ जमीनी टेस्ट भी कर सकें. जबकि पंचगव्य की व्यवस्था के लिए इन्होने आसपास की दो-तीन गौशालाओं से संपर्क किया हुआ है, जो इन्हें नियमित रूप से देशी भारतीय गाय का पंचगव्य लाकर देते हैं.
चूँकि आजकल प्राचीन ज्ञान-विज्ञान-संस्कृति की खिल्ली उड़ाने का दौर है. वामपंथ पोषित नकली वैज्ञानिक ऊटपटांग तर्क देकर गलत बातों को सिद्ध करने की कोशिश करते रहते हैं, ऐसे में IIT-Delhi के वैज्ञानिकों का यह प्रयास निश्चित ही सराहनीय है. तथाकथित प्रगतिशील और बुद्धिजीवी गिरोह बिना किसी तथ्य और आँकड़ों के कोई बात मानता नहीं है, तो अब गौमूत्र, देशी गाय के दूध और पंचगव्य के बारे में यह रिसर्च उनका मुँह बंद कर देगा. जो बात ग्रामीण भारत के अनपढ़ ग्वाले को भी मालूम है, उसे सिद्ध करने के लिए IIT-Delhi में वैज्ञानिकों को पाँच वर्ष तक जूझना पड़ेगा, भारत में वामपंथी शिक्षा व्यवस्था ने हमें इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है.