भारत को "राष्ट्रीय" भावना वाले विपक्ष की सख्त जरूरत

Written by मंगलवार, 10 नवम्बर 2020 18:06

राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अवधारणा के साथ भारत की शासनिक सत्ता पर भारतीय जनता पार्टी की धमक और उसके परिणामस्वरुप कांग्रेस व उसकी सहयोगी पार्टियों की हुई मरणासन्न हालत से देश में एक राष्ट्रीय विपक्ष की सख्त जरुरत महसूस होने लगी है । १६वीं लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा को मिले व्यापक जनमत के कारण कांग्रेस इस कदर सत्ता से बेदखल हो गई कि वह कायदे से एक अदद ‘विपक्ष’ का दर्जा भी हासिल नहीं कर सकी.  

उसकी सहयोगी पार्टियों की हालत उससे भी गई गुजरी हो गई , तब भी पूरे पांच वर्ष तक उन सब के द्वारा देश में भाजपा-विरोधी वातावरण ही बनाया जाता रहा, भाजपा के राष्ट्रवाद को वैचारिक स्पर्द्धा देने का विपक्षीय उपक्रम कहीं नहीं दिखा। ऐसा इस कारण हुआ , क्योंकि भाजपा-विरोधी कांग्रेस, राजद, बसपा, सपा, तृणमूल कांग्रेस, तेदेपा, द्रमुक, भाकपा, माकपा, आदि तमाम पार्टियां विरोधवाद को ही धार देने में लगी रहीं, राष्ट्र्वाद को तो किसी ने स्पर्श तक नहीं किया । जबकि, राष्ट्रवाद की अपनी अवधारणा के उफान से ही भाजपा सत्तासीन हो सकी थी । इस तथ्य को जानते हुए भी तमाम भाजपा-विरोधी पार्टियां उसके राष्ट्रवाद से स्पर्द्धा करने के बाजाय राष्ट्रवाद का विरोध करती रहीं और विरोध करते-करते राष्ट्रवादिता-विरोधी प्रवृति अख्तियार कर लीं ।

भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के बावत उसकी राष्ट्रवादी वैचारिकताओं-मान्यताओं के समानान्तर कोई छोटी-बडी लकीर खींचने के बाजाय राष्ट्रविरोधी विचारों-कार्यों को अंजाम देते रहने वाले छोटे-बडे समूहों-गिरोहों-संगठनों से कदमताम करती हुई गठबन्धन व महागठबन्धन बनाने में ही लगी रहीं । इस बीच भाजपा का राष्ट्रवाद राम-जन्मभूमि, धारा-३७०, समान नागरिक संहिता, गौवध-निषेध व तीन-तलाक बन्दी आदि विविध मुद्दों-मसलों के रुप में राष्ट्रीय धरातल पर प्रवाहित होता रहा । जबकि, भाजपा-विरोधी राजनीतिक पार्टियां राष्ट्रीयता के इस प्रवाह का मार्ग प्रशस्त करने अथवा इसे दिशा देने के बजाय इसके मार्ग में कण्टक डालने एवं इसे बाधित करने में लगी रहीं, या इससे टकराती रहीं और ऐसा करते हुए अनायास ही राष्ट्रीयता-विरोधी ‘अराष्ट्रीय’ चरित्र धारण कर लीं ।

नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रवाद को कोई वैचारिक प्रतिस्पर्द्धा नहीं मिलने से एक ओर उपरोक्त सभी राष्ट्रीय मुद्दे भाजपा की इस निश्चिन्तता के कारण कि अन्य कोई पार्टी इन्हें लपकेगी ही नहीं, अनसुलझे ही रह गए ; तो दूसरी ओर भाजपा-विरोध के नाम पर उसकी विरोधी पार्टियों द्वारा राष्ट्रवाद का भी विरोध किये जाते रहने से भारत राष्ट्र को कमजोर करने वाली शक्तियां-प्रवृतियां गैर-भाजपाई राजनीतिक गठबन्धन के संरक्षण में मजबूत होने को मचल रही हैं । आज भारत को टुकडे-टुकडे करने का नारा लगाने वाले गिरोह का सरगना भी भाजपा-विरोधी गठबन्धन का घटक बन कर न केवल चुनाव लड रहा है बल्कि खुलेआम घूम-घूम कर अपने पक्ष में जनमत निर्मित करता फिर रहा है । यह बात दीगर है कि राष्ट्रीयता से विमुख राजनीति अब भारतीय राष्ट्र्वाद के प्रवाह में कहीं टिक नहीं सकती, किन्तु यह भी सत्य है कि इस प्रवाह में राष्ट्र की नैया को खेने वाले खेवैयों का दल अगर एक ही हो तो सम्भव है वह सुखद शीतल हवा के झोंकों से मदमस्त हो कर चाल धीमी कर दे ; अतएव खेवनहारों का एक दूसरा प्रतिस्पर्द्धी दल होना भी बहुत आवश्यक है, जो यथा-समय उस दल को जगाता झकझोरता रहे अथवा उसके थक जाने पर उसी दिशा में नैया खेने के लिए सदैव तत्पर रहे ।

किन्तु उस प्रवाह के विरुद्ध चलने या उस नैया की दिशा बदल देने अथवा उसे डूबो देने की मंशा रखने वाला दल इस दायित्व का निर्वाह कतई नहीं कर सकता । मेरे कहने का मतलब यह है कि भारतीय राजनीति में विपक्ष को भी राष्ट्रवादी होना होगा या यों कहिए कि राष्ट्रवाद को अंगीकार कर के ही कोई पार्टी कायदे से विपक्ष का दर्जा पा सकती है । इस हेतु भाजपा-विरोधी पार्टियों को राष्ट्रवाद का विरोध त्यागना होगा, क्योंकि भारतीय राजनीति के तेवर और स्वर बदल चुके हैं । इसके केन्द्र में हिन्दुत्व स्थापित हो चुका है तथा इसके मुख से राष्ट्रीयता का स्वर राष्ट्रवाद के रुप में मुखरित होने लगा है । मालूम हो कि स्वामी विवेकानन्द ने ‘हिन्दुत्व’ को ही भारत की राष्ट्रीयता कहा है, तो महर्षि अरविन्द के शब्दों में सनातन धर्म ही भारत की राष्ट्रीयता है । हिन्दुत्व और सनातन धर्म दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं, जबकि ये दोनों ही भारतीय राष्ट्रीयता को अभिव्यक्त व परिपुष्ट करते हैं । भारतीय राष्ट्रीयता की यह अभिव्यक्ति व परिपुष्टि ही भारतीय राष्ट्रवाद है । भारत में किसी भी राजनीतिक पार्टी का राष्ट्रवाद इससे इतर नहीं हो सकता है । फिर वह भाजपा का राष्ट्रवाद हो, या शिवसेना का । शेष पार्टियों को तो इस राष्ट्रवाद से चीढ ही है, जबकि भारत का राष्ट्रवाद इससे भिन्न कुछ हो ही नहीं सकता । इस राष्ट्रवाद का मतलब यह कतई नहीं है कि भारत में ईसाइयत या इस्लाम का कोई स्थान नहीं हो अथवा इन दोनों मजहबों के लोग दोयम दर्जे के नागरिक माने जाएं । मानव-मानव के बीच भेदभाव तो मजहबी मान्यता है, जो सनातन धर्म की धार्मिकता के विरुद्ध है । सनातन धर्म की धार्मिकता तो एकात्मता के विविध आयामों में सन्निहित है । 

विविध मतों पंथों सम्प्रदायों मजहबों का सह-अस्तित्व सनातनधर्मी भारत में ही कायम रहा है और आगे भी रहेगा, अन्यथा इस दुनिया के दो प्रमुख मजहब तो अपने से भिन्न मजहब-धर्म वालों का अस्तित्व मिटा देने पर सदियों से आमदा हैं , जिसके कारण ही आतंक जन्मा है । इन मजहबों का अस्तित्व कायम होने के लाखों वर्ष पूर्व से भारत राष्ट्र सनातन धर्म को धारण किये हुए है और इसी कारण यह स्वयं भी सनातन है । भारत की राष्ट्रीयता और सनातन धर्म की धार्मिकता दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं , जिसे अभिव्यक्त करता है ‘हिन्दुत्व’ । यही हिन्दुत्व भारतीय राजनीति के केन्द्र में स्थापित हो चुका है, जो भाजपा की राजनीतिक धुरी है । दूसरी पार्टियों को भी इसी धुरी को अपनी राजनीति के केन्द्र में स्थापित करना होगा, तभी शासनिक सत्ता में सशक्त राष्ट्रीय विपक्ष का निर्माण हो सकता है । भारतीय राष्ट्रवाद की वकालत करती रही भाजपा यद्यपि भारत की राष्ट्रीयता अर्थात सनातन धर्म के रक्षण-संवर्द्धन की दिशा में अभी तक कुछ नहीं कर सकी है , किन्तु वह चूंकि सनातन-विरोधी नहीं है, इस कारण भारत के बहुसंख्यक समाज ने उसे जनादेश प्रदान किया हुआ है । दूसरी कोई भी पार्टी उससे आगे बढ कर उसके राष्ट्रवाद से स्पर्द्धा करते हुए सनातन धर्म के अनुकूल साम्प्रदायिक तुष्टिकरण-मुक्त राजनीति को धारण कर न केवल एक सशक्त राष्ट्रीय विपक्ष की भूमिका में आ सकती है , बल्कि देर-सबेर सत्तासीन भी हो सकती है ।

भारत को भारतीय राष्ट्रीयता से युक्त एक राष्ट्रीय विपक्ष की सख्त जरुरत है, क्योंकि इसके अभाव में एक ओर जहां राष्ट्रवादी राजनीति स्वस्थ विमर्श व उत्त्कर्ष को प्राप्त नहीं कर सकती, वहीं दूसरी ओर भाजपा की कार्यशैली के प्रति असहमति के ‘मत’ ‘नोटा’ में तो कम ही तब्दील होंगे, राष्ट्र-विरोधी समूहों के संवर्द्धन में ज्यादा सहायक होंगे । अर्थात विपक्ष के राष्ट्रीय नहीं होने से अराष्ट्रीय शक्तियां-प्रवृतियां मजबूत होती रहेंगी ।

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