मंदिरों को मुक्त करो :- द्रविड़ पार्टियों की लूट (भाग-४)

Written by मंगलवार, 26 दिसम्बर 2017 11:54

“यह जानकर हैरानी होती है कि राज्य का हिन्दू धार्मिक एवं चैरिटेबल एन्डावमेंट विभाग (HRCE Act), जो कि विभिन्न मंदिरों से जबरदस्त आय प्राप्त कर रहा है, वह कई महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक मंदिरों की देखभाल ठीक से नहीं कर पा रहा है और ना ही अमूल्य किस्म की प्राचीन मूर्तियों का संरक्षण और रक्षा कर पा रहा है.

राज्य में कई मंदिर ऐसे हैं जो 1500 वर्ष से भी अधिक पुराने हैं (Temples in South India), वे बर्बादी के कगार पर हैं. बहुत से मंदिरों में दैनिक पूजाकर्म तक संपन्न नहीं किए जा रहे हैं. कुछ मंदिरों में तो ताले भी लग चुके हैं और कई मंदिर ऐसे हैं जहां दीपक जलाने के लिए भी कोई पुजारी नहीं है...” – यह टिप्पणी किसी हिंदूवादी संगठन अथवा राजनैतिक दल की नहीं है, बल्कि मद्रास हाईकोर्ट के जज ने “शासकीय” HRCE बोर्ड के प्रबंधन को लताड़ते हुए कही हैं.

हिन्दू मंदिरों की सरकारी लूट के बारे में इस लेखमाला के तीन भाग प्रस्तुत किए जा चुके हैं... पहला भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें.... दूसरा भाग पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें... और तीसरा भाग इस लिंक पर उपलब्ध है... अब इस श्रृंखला का चौथा और अंतिम भाग पढ़िए. 

उल्लेखनीय है कि तमिलनाडु में सत्तर के दशक से जब द्रविड़ पार्टियों का उदय हुआ, और हिन्दी, हिन्दू विरोधी अभियान ने जड़ पकड़ी तभी से कांग्रेस जैसी पार्टी भी वहाँ के परिदृश्य से बाहर हो गयी. तमिलनाडु में ब्राह्मण विरोधी अभियान ने समाज में गहरी पकड़ बना ली और राज्य में आरक्षण का प्रतिशत 69% तक पहुँच चुका है, और सुप्रीम कोर्ट अथवा केंद्र सरकार भी इसे नहीं रोक सकती. इसी कालखण्ड में चोल साम्राज्य के दौरान बने हुए कई-कई ऐतिहासिक, पौराणिक एवं महत्त्वपूर्ण मंदिरों की दुर्दशा आरम्भ हो गयी. “तमिल विरासत” के नाम से राजनीति खेली गयी, लेकिन हिन्दुओं के मंदिरों को केवल इसलिए उपेक्षित अथवा लूटा गया क्योंकि यह सनातन संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं, उनका प्रतीक हैं. 31 मई 1984 (यानी आज से 33 वर्ष पूर्व) इण्डिया टुडे पत्रिका की एक रिपोर्ट में स्थिति की भयावहता का अंदाजा लगता है.

रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा गया है कि 1968 में DMK शासनकाल के दौरान तंजावूर के प्रसिद्ध शिव मंदिर (जो कि थिरुवावादुथुरई मठ के अंतर्गत आता था) की बीस एकड़ जमीन बिना किसी से पूछे, बिना अनुमति के एक हाउसिंग योजना के लिए ले ली गयी. मंदिर और मठ ने कानूनी लड़ाई लड़ी, अदालत में उस जमीन के दुरुपयोग का केस भी जीते, लेकिन अदालत के निर्देशों का पालन करवाने वाली सरकारी मशीनरी तो राज्य सरकार (यानी DMK) के पास थी, तो पालन कैसे होता. ऊपर से मंदिर/मठ की कोई राजनैतिक पहुँच या सुनवाई भी नहीं थी, इसलिए आज की तारीख में भी अदालत का वह निर्णय धूल खा रहा है और मंदिर की जमीन पर बनी वह अवैध हाउसिंग कालोनी वहीं मौजूद है. (मैं समझ रहा हूँ, आपको पाकिस्तान की घटनाओं की याद आ रही है). इससे एक वर्ष पहले यानी 1967 में DMK पार्टी के एक शक्तिशाली नेता ने इसी मठ की पत्तुकोत्ताई तहसील में स्थित एक गाँव की पूरी जमीन (जो कि मंदिर की संपत्ति थी) को अपनी सत्ता की ताकत और धमकी से मठ वालों से जबरन छीन कर लीज़ पर चढ़ा दी और ग्रामीणों से किराया वसूला. यह नेताजी खुद तो जमकर किराया वसूलते रहे, लेकिन मंदिर में उसके हिस्से की एक फूटी कौड़ी भी जमा नहीं करते थे. अपनी राजनैतिक दुकान की वृद्धि के चलते इन्होने किराया वसूली एक “छुटभैये DMK नेता” को दे दी, उसने भी मंदिर को एक पैसा भी नहीं चुकाया. हालाँकि आगे चलकर 1977 में जब AIADMK (एमजी रामचंद्रन) की पार्टी सत्ता में आई तब ये नेताजी वहाँ से भगाए गए. फिर भी जमीन और मकानों के किराए का नियंत्रण मंदिर को नहीं मिला, बल्कि वह एक लुटेरे के हाथ से निकलकर दूसरे लुटेरे के हाथ में पहुँच गया.

हिन्दू विरोधी पेरियार प्रणीत द्रविड़ आन्दोलन ने राज्य के सभी मंदिरों की संपत्ति को जमकर लूटा खसोटा. इस मामले में DMK (करूणानिधि) अधिक कट्टर थी, लेकिन AIADMK भी सिर्फ उन्नीस ही थी, उसने भी सत्ता में आने के बाद वही किया. AIADMK ने तमिलनाडु के शासकीय नियंत्रित लगभग सभी प्रमुख मंदिरों में ट्रस्टियों के रूप में पार्टी के पदाधिकारियों को बैठा दिया, जबकि निचले पदों पर, जैसे चपरासी, सफाईकर्मी, अकाउंटेंट इत्यादि पदों पर पार्टी के निचले स्तर के कार्यकर्ताओं को नियुक्त कर दिया. जब भी तमिलनाडु की सत्ता में अदला-बदली होती, तो DMK भी अपने आदमियों को मंदिरों की लूट के लिए खुल्ला छोड़ देती थी. यह सिलसिला पिछले पैंतीस वर्षों से आज भी निरंतर जारी है. (कांची कामकोटि के शंकराचार्य की गिरफ्तारी और उनकी झूठी बदनामी करने का मामला भी इसी घटिया मानसिकता से जुड़ा हुआ है). उन दिनों जब द्रविड़ पार्टियों में सत्ता का घमण्ड सिर चढ़कर बोलता था, उन दिनों DMK और AIADMK नेताओं के ये दो बयान बहुत गूँजे थे, पहला – “जब भगवान को भूख नहीं लगती, जब उनकी मूर्ति कुछ खाती नहीं है, तो फिर उन्हें प्रसाद और भोग लगाने की क्या जरूरत है? इन मंदिरों को भूमि दान क्यों चाहिए? इनसे यह छीन ली जानी चाहिए...” और दूसरा, “कभी न कभी वह दिन आएगा, जब हम चिदंबरम स्थित भगवान नटराज और तिरुवारंगम स्थित श्रीरंग भगवान् की मूर्तियों को तोप से उड़ा देंगे....”.

अब आप खुद ही सोच सकते हैं कि ऐसी ब्राह्मण विरोधी, हिन्दू विरोधी, सनातन विरोधी शक्तियों के हाथों में सत्ता और मंदिरों का नियंत्रण आने के बाद क्या हुआ होगा. इन दोनों ही द्रविड़ पार्टियों ने सोची-समझी पद्धति से मंदिरों की पवित्रता को नष्ट करना शुरू किया, संपत्ति को चूना लगाना आरम्भ किया और प्राचीन से प्राचीन मंदिरों में आने वाले चढ़ावे का उपभोग “मुग़ल बादशाहों” की तरह किया, लेकिन मंदिरों की देखरेख, प्रबंधन, रखरखाव और पुनर्निर्माण वगैरह पर कतई ध्यान नहीं दिया. इस विकट परिस्थिति से दुखी कुछ ईमानदार अफसरों के इस “राजनैतिक माफिया” के खिलाफ आवाज़ उठाई भी, लेकिन उसका कोई ख़ास फायदा नहीं हुआ. 1980 में तिरुचेंदूर के मुरुगा मंदिर के “आभूषण वेरिफिकेशन अधिकारी” सी.सुब्रह्मण्य पिल्लई ने जब मंदिर को दान में मिले हुए सोने-हीरे के आभूषणों के नकली होने और वजन में कमी के बारे में अपनी रिपोर्ट पेश करना चाहा तो उनकी हत्या कर दी गयी. इसी प्रकार 1983 में श्रीरंगम मंदिर के ऑडिट अफसर पी.वेंकटचलम की भी रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत्यु हो गयी, जब उन्होंने मंदिर की धनराशि के गबन के बारे में अपना मुँह खोलना चाहा. चूंकि राज्य में DMK और AIADMK के अलावा तीसरी कोई शक्ति थी नहीं, इसलिए मंदिरों की इस लूट में दोनों का हिस्सा बना रहा और दोनों एक-दूसरे के खिलाफ चुप रहे.

इन दोनों द्रविड़ पार्टियों ने जनता को मूर्ख बनाने और अपनी लूट को और विस्तार देने के लिए “कुम्भ-अभिषेकम” नामक कार्यक्रम शुरू किया. इस कार्यक्रम में जो पार्टी सत्ता में होती थी, वह मंदिरों के पुनर्निर्माण के नाम पर “कुम्भ-अभिषेक” चलाती थी. इस प्रक्रिया से जानबूझकर वास्तु विशेषज्ञों को दूर रखा जाता था, और नौसिखियों के हाथों मंदिरों की दीवारों पर केमिकल पेंट करवाया जाता, या फिर घातक रसायनों से युक्त एसिड से धुलाई की जाती थी. इसके चलते मंदिरों की दीवारों पर मौजूद बहुत से पौराणिक एवं वास्तु कला के शानदार नमूने नष्ट हो गए. मंदिरों पर पूर्ण नियंत्रण होने और राजनैतिक दादागिरी में माहिर होने के कारण मंदिर के परिसर में जो ढेरों मूर्तियाँ रहती थीं उन्हें भी रखरखाव और रिपेयरिंग के नाम पर इधर-उधर करते हुए धीरे से मूर्ति तस्करों के साथ मिलकर गायब करवा दिया जाता और करोड़ों रूपए के वारे-न्यारे कर लिए जाते थे. मद्रास हाईकोर्ट ने इनकी यह गड़बड़ी पकड़ ली थी, और कठोर टिप्पणी भी की, लेकिन अदालत के निर्णय को लागू करवाएगा कौन? जब लुटेरे खुद ही सत्ता में बैठे हों...

न्यायालयों के विपरीत निर्णयों और मीडिया में निरंतर हो रही छीछालेदार से बचने के लिए इन द्रविड़ पार्टियों ने HRCE Act क़ानून की आड़ ले ली और HRCE बोर्ड के गठन में अपने चाटुकार (लेकिन निकम्मे और भ्रष्ट) IAS अधिकारियों को नियुक्त करना शुरू कर दिया. यानी पहले केवल नेता और उनके चमचे मंदिरों की संपत्ति लूटते थे, अब IAS अफसर और नौकरशाही भी इसमें शामिल हो गए.... इस बीच भोलेभाले (बल्कि मूर्ख) हिन्दू मंदिरों में श्रद्धाभाव से पैसा चढाते, आभूषण चढाते, जमीनें दान में देते रहते थे. उधर मंदिरों की सांस्कृतिक विरासत और धन-संपत्ति धीरे-धीरे गायब होती रही लेकिन इसका दोष ब्राह्मणों और पुजारियों के माथे मढ़ा गया, जबकि उनके हिस्से में उनकी मेहनत का पैसा तक पूरा नहीं आता था.

कुम्भकोणं का नाम सभी ने सुना है, इस नगर का मनामपाडी मंदिर चोल साम्राज्य (राजा राजेन्द्र चोला) की महत्त्वपूर्ण वास्तुकला का एक शानदार नमूना है. इस मंदिर में बिखरी पड़ी कई कलाकृतियाँ धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व की हैं. इस मंदिर को UNESCO ने भी धरोहरों में शामिल किया हुआ है, परन्तु HRCE Act और कुप्रबंधन/अव्यवस्था और लूट के चलते यह मंदिर पत्थरों का एक ढेर मात्र रह गया है. हिंदुओं का विरोध करने वाले अक्सर ये सवाल पूछते हैं कि जब चर्च और मस्जिद वाले अपने पंथ के लोगों की बेहतरी के लिए इतना पैसा खर्च करते हैं, तो मंदिर क्यों नहीं करते. परन्तु यह लेखमाला पढ़कर आप समझ ही गए होंगे कि मंदिर अपनी मर्जी से पैसा खर्च कर ही नहीं सकते. मंदिरों की आवक और संपत्ति पर तो सरकार का नियंत्रण होता है. दूसरी बात ये है कि इस “काले क़ानून” के तहत हिंदुओं और मंदिरों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों तथा अस्पतालों के खर्च, प्रबंधन और स्टाफ नियुक्ति तक में सरकारी दखल है... जबकि चर्च और वक्फ द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों-अस्पतालों-मदरसों पर शासन का कोई नियंत्रण नहीं है. यानी दोहरी मार.

तात्पर्य यह है कि दुनिया में ऐसा कोई भी देश नहीं है, जहाँ धार्मिक आधार पर “बहुसंख्यकों” के धार्मिक स्थलों एवं चैरिटेबल संस्थाओं के साथ भेदभाव, विश्वासघात और सरेआम लूट की जाती हो.... परन्तु हिंदुओं की धार्मिक-राजनैतिक समझ इतनी न्यूनतम है कि उन्हें पता भी नहीं चलता और वर्षों से उनकी पीठ में छुरा घोंपा जाता रहा है. उन्हीं के दान किए गए पैसों पर नेता-अफसर-विधर्मी पलते रहे हैं. वर्तमान मोदी सरकार से HRCE Act तथा RTE (शिक्षा के अधिकार क़ानून) की विसंगतियों और लूट रोकने की दिशा में तेजी से कदम उठाने की अपेक्षा थी, परन्तु फिलहाल कोई विशेष हलचल दिखी नहीं है. 

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