विचार, प्रचार और राष्ट्रवादी बौद्धिक असफलताएँ : कारण और निवारण

Written by मंगलवार, 22 सितम्बर 2015 21:40

किसी भी समाज में विचार बरसों बरस के लिए कैसे स्थापित होते हैं इसको समझना है तो भारत में वामपंथ को समझिए , आज गंभीर "राष्ट्रवादियों" का एक बहुत बड़ा तबका वामपंथियों को कोसने में अपना समय खर्च करता है , क्यों ? क्या वामपंथी एक दो राज्य छोड़कर कहीं सत्ता में हैं ? क्या उनका कोई व्यापक जनाधार है ? क्या उनका काडर बेस है ? क्या यूवा उनके विचार की तरफ तरफ आकर्षित हैं ? नहीं , सबका जवाब नहीं में ही आएगा , ऐसा कुछ भी नहीं है फिर भी देश के केंद्र में और आधे राज्यों में राज करने वाली विचारधारा के लोग वामपंथ से भयाक्रांत हैं ? क्यों ?

जवाब है उस विचार को जीने वाले और उसके लिए माहौल बनाने वाले विचारक / प्रचारकों का "बौद्धिक विमर्श" (intellectual discourse) और सूचना की व्याख्या (interpretation of information ) करने वाली लगभग सभी प्रकार की संस्थाओं पर प्रभुत्व !! आगे बढ़ने से पहले ये भी बताना ज़रूरी है की एक प्रबुद्ध विचारक एक अच्छा प्रचारक भी सिद्ध हो ये ज़रूरी नहीं , खासकर वह जो समकालिक (contemporary ) विचारों को स्वीकारते हुए भी अपनी विचारधारा को समझा और फैला सके !!

दरअसल जब जब भी मैं वामपंथ को इस लेख में संदर्भित करूँ तब तब आप उसे समाजवाद , नेहरुवाद , जिहादवाद के साथ ही समझियेगा क्योंकि ये सब चचेरे ममेरे भाई हैं , सब एक दूसरे के पूरक हैं और एक दूसरे को बचाने समय समय पर आगे आते रहे हैं , यही पूरी बहस का सबसे रोचक पहलु भी है और सबसे दुःखद भी , क्योंकि राष्ट्रवाद इतना सहज और पवित्र विचार होते हुए भी अलग थलग दिखाई देता है , संघ परिवार के उद्भव के सौ साल बाद तक भी राष्ट्रवाद अकेला चल रहा है , लाखों करोड़ों की पैदल सेना है , पर प्रचारक रुपी किले नहीं है !! मैं बचपन से संघ के वातावरण में ही पला बढ़ा हूँ , सैकड़ों संत रुपी विचारनिष्ठ तपस्वियों और मनीषियों को बहुत करीब से देखा है , इसलिए ये कहना की संघ परिवार के पास विचारक ही नहीं है ये उस महान संगठन के ऊपर मेरे जैसे अल्पज्ञानी का दिया हुआ लांछन होगा !! पर याद रखें आप जनता का दिल जीत लें , पर राज्य तो किले जीतने वाले का ही कहलाता है , "राज्य" के संदर्भ यहाँ उस बौद्धिक विमर्श से है जिसमे हम हमेशा हारते आये हैं , पैदल की सेना रवीश कुमार पर गालियों की बौछार कर सकती है पर उसे हरा नहीं सकती , रवीश कुमार को हराने के लिए रवीश कुमार जैसे ही चाहिए ,रवीश कुमार महान भाषायी छलावे बाज हो , प्रोपगेंडिस्ट हो , पर लोग उसे सुनते हैं , सुनना चाहते हैं , और यही हमारी कुंठा का भी कारण है की हम उसे वैचारिक रूप से परास्त क्यों नहीं कर पा रहे ? उसी कुंठा से गालियां पैदा होती हैं !!

बहस को थोड़ा सा अलग मोडते हुए , रवीश कुमार और उनके सोशल मीडिया छोड़ने की बहस के और भी पहलु हैं जिन्हे यहाँ बताना जरूरी है , उदाहरणतः , 2011 की कोई बहस हाल ही में यूट्यब पर देख रहा था जिसमे विनोद दुआ नरेंद्र मोदी के लिए ये शब्द इस्तेमाल करते हैं की " दस साल से ये आदमी गुजरात की जनता को टोपी पहना रहा है" , उसी दौर की ऐसी ही किसी बहस का मुझे याद है जिसमे रवीश कुमार मोदी के लिए कहते हैं " मजमा लगाकर चूरन बेचने और देश के लिए जान देने में फर्क है " , अब आप मुझसे इसपर बहस मत कीजियेगा की ये वाक्य किसी राज्य के निर्वाचित मुख्यमंत्री के लिए "अपशब्द" या गाली की श्रेणी में नहीं आते !! अब इन स्टूडियो मठाधीशों के अहंकार में खलल इसलिए पड़ गया की जो जनता इनके ऐसे कथन सुनकर घर के ड्राइंग रूम में गालियां देती थी वो अब टेक्नोलॉजी के माध्यम से इतनी सक्षम हो गयी है की आपकी फेसबुक वॉल पर आकर आपको गालियां दे सके और उसी से आपके अहम को चोट पहुँच रही है !! खैर , रवीश कुमार को हराना है तो गाली गलौच नहीं बल्कि अपनी तरफ के "रवीश कुमार" खड़े करने होंगे , आइये ये समझते हैं की इस विचारधारा की लड़ाई में ऐसे प्रचारक क्यों जरूरी हैं !!


प्रचारक रुपी किले क्यों जरूरी ?
----------
आप में से कई बी पी सिंघल साहब को जानते होंगे , अब स्वर्गीय हैं , भगवान उनकी आत्मा को शांति दे , 2010 से 2012 -13 तक लगातार भाजपा , संघ की तरफ से सांस्कृतिक मुद्दों की पैरवी करने टीवी चैनलों पर आते थे , पैरवी क्या करते थे एक तरफा जीता जिताया मुद्दा हरवा कर आ जाते थे आप में से कोई आज भी उनकी बहसें देखेगा तो सोचेगा की ये वैचारिक आत्महत्या जैसा काम भाजपा इतने सालों तक कैसे करती रही ? कैसे इतनी आत्म मुग्ध बनी रही की जनता ऐसे प्रवक्ताओं के बारे में क्या सोच रही है उसे पता ही नहीं चला ? आपको बता दूँ सिंघल साहब यूपी के रिटायर्ड डायरेक्टर जनरल थे , मतलब उनकी वैचारिक क्षमता पर टिप्पणी शायद नहीं की जा सकती , तो फिर कमी कहाँ थी ? इसका व्यतिरेक (contrast ) समझना हो तो आज राकेश सिन्हा जी को सुनिए , कितनी बुद्धिमत्ता और अकाट्य ऐतिहासिक सन्दर्भों से समकालिक होते हुए अपनी बात को रखते हैं , शायद रवीश कुमार का असली "तोड़" गाली गलौच नहीं बल्कि राकेश सिन्हा जैसे हज़ारों प्रभावी विचारक / प्रचारक इस देश में पैदा करना है !! इसके एक दूसरे पर बड़े पहलु पर जाते हैं , इस देश में JNU जैसी कई संस्थाएं हैं जहाँ संपादकों , पत्रकारों और साहित्यकारों का सृजन होता है , यही सब "बुद्धिजीवी" मिलकर जनमानस का सृजन करते हैं , ऐसी संस्थाओं पर अपनी विचारधारा का प्रभुत्व कैसे हो इस पर भी सोचना होगा , क्योंकि ये प्रभुत्व ही आपके विचारों की छाप नीचले पायदानों तक ले जाने का काम करेगा !!


प्रभावी प्रचारकों की कमी क्यों ?
------
शीर्षक गलत है दरअसल , प्रभावी प्रचारकों की कमी नहीं बल्कि उन्हें मौके देने की कमी महसूस होती है , संघ जैसे अनुशासित संगठन में ऐसा होना प्राकृतिक सा लगता है , ऐसा होता है की "आधिकारिक लाइन" एक होती है और उसे भी व्यक्त करने वाले बहुत चुनिंदा लोग होते हैं , इसलिए विचारों की उन्निस्सी बीसी संभव ही नहीं होती , सेना की तरह स्वयंसेवक "विचारवान" होते हुए भी उस लाइन से अलग नहीं जाते , और जब लगातार पालन करते हुए ये एक परम्परा बन गयी तो लाइन से अलग बोलने लिखने वालों को अनुशासनहीन माना जाने लगा और छिठक दिया गया, गोविंदाचार्य जैसे उदाहरण हमारे पास हैं !! तो होता ये है की जब शीर्ष स्तर पर विचारों का तरलीकरण (dilution) सम्भव नहीं होता तो नीचे की पैदल सेना तक भी वही बात निर्मित होती है जिसमे लीक से एक प्रतिशत हटकर बात करने की भी कोई गुंजाईश ही नहीं होती , और यहीं से शुरू होता है "राष्ट्रवाद" का एकाकीपन , अब ये तो सब ही मानते हैं की संघ ही भारत में राष्ट्रवाद का ध्वजवाहक या ब्रांड एम्बेसेडर है , इसीलिये राष्ट्रवाद के चिंतन में सबसे ज्यादा अपेक्षाएं भी संघ से ही होनी चाहिए , एक उदाहरण देता हूँ , किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे पर हमारा स्वर सबसे ऊंचा और प्रभावी तो होता है पर इकलौता होता है , पर "सुर से सुर" मिलाने वाली ना प्रवृत्ति होती है ना ऐसे लोग हमारे साथ होते हैं , वो आवश्यक वृंदगान (chorus ) नहीं बनता जिससे उस मुद्दे पर जनभावना और जनजागृती और तीव्र हो उठे !! जैसे वामपंथी और नेहरूवादी विचारकों का उदाहरण लेते हैं , इस्लामिक आतंकवाद या वोटबैंक की राजनीती के मुद्दे पर मौलवियों को या इस्लामिक बुद्धिजीवियों को अकेले अपनी पैरवी नहीं करनी पड़ती , ये स्टूडियो में आस पास बैठे , अख़बारों में स्तम्भ लिखने वाले तथाकथित विचारक उस वृंदगान का निर्माण कर देते हैं जिससे उस मुद्दे के खिलाफ प्रभावी तरीके से लड़ा जा सके , इधर हम अकेले थे और पूरे देश पर सत्तासीन होते हुए भी अकेले ही हैं !! तो ये वृंदगान कैसे बने , कैसे हमारे विचारों के करीब वाले लोग (दस बीस प्रतिशत इधर या उधर वाले या कहें उन्नीसे बीसे ) हम से जुड़ें और हमारे विचार को और मजबूत बनायें इसको हम नीचे समझेंगे , पर उससे पहले ये शंका दूर करना जरूरी है की सरकार बन जाना ही विचारधारा की जीत है क्या !!


क्या सरकार बन जाना ही विचारधारा की जीत है ?
------------------------

कई लोगों को ये भ्रान्ति है की सरकार में निर्वाचित होना उस विचारधारा का जनता द्वारा अनुमोदन है , ये उतना ही गलत है जितना ये सोचना की दिल्ली के लोगों ने केजरीवाल को इसलिए चुना क्योंकि उन्होंने भ्र्ष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी !! 2014 के लोकसभा चुनाव में दरअसल कांग्रेस हारी है और एक व्यक्ति जीता है जिसका नाम है नरेंद्र मोदी। विचारधारा ने उस व्यक्ति के लिए संघर्ष किया होगा , कहीं कहीं उत्प्रेरक का काम भी किया होगा पर इसे ब्रांड "हिंदुत्व" को भारतीय जनमानस का अनुमोदन समझने की भूल ना करें , कहीं अंतर्मन में उसके लिए सहानुभूति और प्रेम हो पर अनुमोदन तो कतई नहीं है , यही घर वापसी जैसे मुद्दों पर जनता की प्रतिक्रिया के रूप में हम देख भी चुके हैं !! इसके उलट, इतिहास में केंद्र और राज्यों की भाजपा शासित सरकारों ने भी ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे ये लगे की वे इसे जनता का अनुमोदन मानकर काम कर रहे हैं , उन्होंने ठीक वैसे काम किया जैसे राजनीतिक दल सामान्यतः काम करते हैं , अंग्रेजी में कहें तो performative या symbolic aspect अलग (की हाँ हम भी इस विचारधारा के लिए कटिबद्ध हैं ) और कार्यशैली निरीह सामान्य , हाँ थोड़ी बहुत ईमानदारी वाला प्रशासन जरूर दिखता रहा है !! इस विषय पर भी जिम्मेदार लोग दो तरह की बातें करते हैं , एक तरफ तो कहते हैं की सरकार बन जाने से विचारधारा जीती है और दूसरी और चुनाव के वक्त सुनाई पड़ता है की " हमारे लिए विधायक या सांसद सिर्फ एक हाथ है जो संसद में वोटिंग के समय बटन दबायेगा , इसलिए हम इसकी ज्यादा चिंता नहीं करते" , कहीं सुनाई पड़ता है की " राजनीती में जीतना किसी भी हाल में जरूरी है" और उसी तर्क पर कांग्रेस से आये दलबदलूओं को लगे हाथ सत्ता की चाबी दी जाती है , आश्चर्य नही की फिर यही "हाथ" जब स्मार्टफोन पकडे विधानसभा में पोर्न फिल्म देखते हैं तो बिचारी विचारधारा ओंधे मुह धड़ाम गिरती सी दिखती है !! इसलिए एक विचार पर सहमत होना जरूरी है , सरकार बनने से विचारधारा की जीत है या नहीं है ?

भाजपा ने विचारधारा को मजबूत करने के लिए क्या काम किया इसकी भी बात करेंगे पर पहले समझते हैं की हमारे विचार से निकटता रखने वालों को कैसे जोड़ा जाए !! (जो आपके ना होकर भी आपके मुद्दे पर सहमती का माहौल बनायें )


वृंदगान कैसे बने
-----
मेरे पाठक ज्यादातर सोशल मीडिया से हैं , उन्हें राजीव मल्होत्रा जी का नाम बताने की ज़रुरत नहीं है , इस एक मनीषी ने राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की जितनी सेवा है उसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं , पढ़े लिखे शहरी युवा या कहें बुद्धिजीवी वर्ग को एक मुख्यधारा (मुख्यधारा है मानवतावाद , धर्म निरपेक्षता ) से अलग विचार के लिए संतुष्ट करना बहुत टेढ़ी खीर होती है , मल्होत्रा जी ने ये जटिल काम एक बहुत बड़ी सफलता के साथ पूरा किया है !! एक बार किसी पत्रकार ने उनसे विश्व हिन्दू परिषद या संघ से जुड़ा कोई प्रश्न पूछा , उन्होंने सीधे कहा " उनसे जुड़े प्रश्न उनसे ही पूछिये " , इतना कहना समझने वालों के लिए काफी होगा की दूरियां किस कदर हैं , वृंदगान बनाना तो दूर की बात यहाँ लोग मौन स्वीकृति भी देना नहीं चाहते !! इसमें दोनों और के अहम को मैं दोष देना चाहूंगा , एक तरफ एक संगठन है जो सोचता है की हमारे विचार से उन्नीसे व्यक्ति से हमें कोई लेना देना नहीं , दूसरी और व्यक्ति हैं जिनका अपना "हठ" है , ये सब करीब आना तो दूर एक हॉल में एक साथ किसी मिलन समारोह में भी साथ नहीं बैठना चाहते !! पर ये बात याद रखी जानी चाहिए की वैचारिक लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती , खासकर तब जब आप को शत्रु के केम्प में कौन कौन है और किस किस भेस में बैठा है उसका भी ज्यादा भेद नहीं हो , आज पत्रकार , साहित्यकार , संपादक , यहाँ तक की फिल्म डाइरेक्टर और कलाकार तक भी किसी न किसी विचारधारा को आगे बढ़ाने एक "एजेंट" की भूमिका में है , सामान्य जनता ये न कभी समझी थी ना कभी समझेगी , इसलिए उन्हें लगातार बेनकाब करने के कुचक्र में फंसकर अपनी जगहंसाई और अपना समय और ऊर्जा बर्बाद करने में कोई बुद्धिमत्ता नहीं !! बुद्धिमत्ता इसमें है की आप भी ऐसे प्रचारक विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित कीजिये जो समय समय पर अलग अलग मुद्दों पर तटस्थ आवाज़ के तौर पर आपके साथ वृंदगान कर सकें !! इसके तीन उदाहरण देता हूँ , राम सेतु के मुद्दे पर हम सब भावनात्मक बचाव करते रहे , जबकि पर्यावरणविदों का एक बहुत बड़ा समूह भी राम सेतु को बचाने के पक्ष में था , पर दिक्कत ये थी की ना वे हमारे साथ खड़े होना चाहते थे ना हम उनके साथ , इसलिए वृंद बनने की सारी संभावनाएं होते हुए भी नहीं बन पाया , सोचिये अगर पर्यावरण संरक्षण जैसे क्षेत्र में जुड़े और हमारे विचार के निकट लोगों को हमने जोड़ने की कोशिश की होती तो माहौल क्या और अच्छा नहीं बनता ? दूसरा उदाहरण , साध्वी प्रज्ञा को कैंसर है , हमारे सारे संगठनों को जैसे लकवा मारा हुआ है , कोई कुछ बोलता ही नहीं , इस डर में की लांछन उनपर भी ना लग जाए , क्या कुछ मानवाधिकार संगठनों में हमारी पैठ होती या पांच दस हमारे पैसे से खड़े हुए संगठन होते तो हमें भी बोलने की ज़रुरत नहीं पड़ती और काम ज्यादा प्रभावी ढंग से सध जाता !! तीसरा उदाहरण , समान नागरिक संहिता की बात हम करते हैं तो वो सांप्रदायिक रंग ले लेती है , क्यों ना ये आवाज़ लोकतान्त्रिक नागरिक अधिकारों की बात करने वाला कोई एनजीओ उठाये ? क्या फर्क नहीं पड़ेगा ? क्या असर ज्यादा नहीं होगा ? सोचिये अगर ऐसा गैर राजनीतिक वृंदगान जनता में समान नागरिक संहिता के लिए लहर पैदा कर दे तो सरकार के लिए ये निर्णय लेना तो चुटकियों का काम हो जाये , पर सरकार भी किस किस्म की निठल्ली हैं इसको आगे समझते हैं , देखते हैं भाजपा की सरकारों ने आजतक विचारधारा के लिए क्या किया -


भाजपा का वैचारिक दामन
------------------
इस पूरी बहस में सबसे ज्यादा निराश भाजपा ने किया है , अगर आप किसी भाजपा शासित प्रदेश में रहते हैं और रोज़ अख़बार पढ़ते हैं तो आप देखते होंगे की मुख्यमंत्री के लिए हमेशा वहां के संपादकों और पत्रकारों की भाषा में एक नरम रुख रहेगा , कई बार तो उनका महिमामंडन और यश गान ही देखा जायेगा , पर हिंदुत्व , राष्ट्रवाद या फिर संघ के लिए वही जहर उगलू और प्रोपेगेंडा वाली भाषा रहेगी , समझने वाले समझ ही जाते हैं की पैसा कहाँ और किसके लिए लगा है !! इसका थोड़ा थोड़ा असर तो अब दिल्ली के मीडिया हाउसों में भी देखने को मिल रहा है , जहाँ प्रधानमंत्री का यश गान तो हो रहा है पर राष्ट्रवाद का ? क्या पता !! विचारधारा की रीढ़ तो दूर की कौड़ी है , किसी ज़माने में जब इस दल के शीर्षस्थ नेताओं के मुख्य सलाहकार बृजेश मिश्र और सुधींद्र कुलकर्णी जैसे राष्ट्रवाद से नफरत करने वाले लोग हों तो सोचना पड़ेगा की सत्ता में आने के बाद ये वैचारिक नपुंसकता का कारण क्या होता होगा !! वैसे हमें ये भी समझना होगा की बिना विचारकों और प्रचारकों की रीढ़ तैयार किये , बिना उनके सृजन केन्द्रों (जो हमने पहले खडं में समझा ) पर प्रभुत्व स्थापित किये विचारधारा का गुणगान इन कॉर्पोरेट दलालों से करवाना लगभग असंभव ही है !! एक उदाहरण देता हूँ , आपके राज में एक सरस्वती शिशु मंदिर का आचार्य अरबपति खनन कारोबारी बन गया , और ये तो सिर्फ एक उदाहरण है , ऐसे सेकड़ो व्यापारी , बिल्डर , उद्योगपति आपसे लाभान्वित होते हैं , क्या ऐसे धन्ना सेठ कोई अख़बार , कोई न्यूज़ चैनल खड़े नहीं कर सकते जिनका स्तर इन एनडीटीवी और टाइम्स नाउ से बेहतर हो और जो राष्ट्रवाद की अलख भी जगाये ?

इसका व्यतिरेक देखना हो तो पश्चिम बंगाल के अख़बार उठाइये , ममता बेनर्जी के सत्ता में आने के इतने साल बाद भी वहां के लेख और ख़बरों में वामपंथ की बू आती है , बंगाल की आधी आबादी बिना कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बने वामपंथ की तरह सोचती समझती और सांस लेती है , आप आज जो ये हिंदुत्व पर विष वमन करते मुख्यधारा के पत्रकार , संपादक , फिल्म निर्देशक देखते हैं उनका अतीत टटोलियेगा , कहीं न कहीं बंगाल उनके बायोडाटा में होगा ही ,इसे अंग्रेजी में कहते हैं "ब्रेनवाश" या डीएनए मेनिपुलेशन !!

ये कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी की भाजपा तो विचारकों और प्रचारकों की ऐसी रीढ़ बनाना ही नहीं चाहती क्योंकि ऐसा हो गया तो ये रीढ़ और ये वैचारिक प्रचारक किले उनके ऑडिटर या ombudsmen की तरह हो जायेंगे जो ये सुनिश्चित करेंगे की पार्टी या सरकार विचारधारा से भटके नहीं और कोई एक सत्तारूढ़ व्यक्ति जो चाहे मन मुताबिक शासन कर सके और वही "परम सत्य" कहलाने लगे !! आजकल तो संघ का मार्गदर्शन भी कईयों को नागवार गुज़रता है , तभी तो वे दिन रात हिंदुत्व को गरियाने वाले राजदीप सरदेसाई की पुस्तक का विमोचन करने बेझिझक पहुँच पाते हैं , तभी तो वादे "जुमले" हो जाते हैं , तभी तो गजेन्द्र चौहान जैसे Yes Man से अच्छा व्यक्ति पूरे फिल्म जगत में उन्हें कोई मिल ही नहीं पाता , तभी तो नेताजी की फाइलें खुल ही नहीं पाती , तभी तो संघ के हस्तक्षेप से पहले तक वन रेंक वन पेंशन के वादे को डकारने का मूड बन जाता है ,तभी तो तरुण विजय , शेषाद्री चारी , अरुण शौरी जैसे विचारवान लोग हाशिये पर चले जाते हैं , तभी तो !!

अंत में
-------
हिंदुत्व कह लीजिये , राष्ट्रवाद कह लीजिये या भारतीयता कह लीजिये , इस विचार में अनंत संभावनाएं हैं , इस विचार में मानवता की सेवा की , विश्व कल्याण करने की अपार शक्ति है , आज के पाखंड से भरे मानवतावाद और सेक्युलरवाद धीरे धीरे फेल हो रहे हैं , लोग दूसरे विचारों की और देख रहे हैं , इसी के लिए आने वाले दिनों में समकालिक होते हुए , यूवा और आधुनिक सोच को आत्मसात किये हुए , राष्ट्रवाद का प्रबल और प्रभावी प्रस्तुतीकरण करने वाले हज़ारों विचारक - प्रचारक हमें चाहिए होंगे, उनका बड़े पैमाने पर सृजन कैसे हो उसकी चिंता हमें करनी होगी , हम पहले से ही देरी से चल रहे हैं , वृंद गान के लिए हज़ारों लोग सैकड़ों संगठनों से चाहिए होंगे जिनका हमारे संगठन से कोई सम्बन्ध न हो फिर भी वैचारिक रूप से हम और वे एक साथ खड़े दिखें , हम अकेले नहीं चल सकते , अगर चलते हैं तो ये हमारा अहंकार है , हम इस विचारधारा के ध्वजवाहक हैं , हमारे पीछे चल रहे लोग हमारे साथ वैचारिक तारतम्य में है की नहीं ये देखना भी हमारा कर्तव्य है !! जब तक ये नहीं होगा तब तक रिमोट चालित पैदल सेना ऐसे ही गाली गलौच से किले फतह करने की कोशिश करती रहेगी और चुनिंदा सत्तासीन अपने ड्राइंग रूम से इस नज़ारे के चटकारे उड़ाते रहेंगे !! लड़ाई बहुत भीषण है , लड़ाई सभ्यताओं की है , मोदी या राहुल या केजरीवाल की नहीं !! तैयार रहें !!

Read 3866 times Last modified on शुक्रवार, 20 जनवरी 2017 14:11