संकीर्ण विचारधारा से टूटता हुआ भारत का सामाजिक ढाँचा

Written by गुरुवार, 15 अक्टूबर 2020 19:14

भारत वर्ष की समाजिक व्यवस्था सदियों से धार्मिक व सामाजिक सद्भाव व सौहार्द पर आधारित रही है। देश के ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जो हमें यह बताते आ रहे हैं कि किस तरह हमारे पूर्वजों ने सौहार्द की वह बुनियाद रखी जिस का अनुसरण आज तक हमारा देश और यहाँ के बहुसंख्य लोग करते आ रहे हैं।

उदाहरण के तौर पर मराठा शासक छत्रपति शिवाजी एक मुस्लिम सूफ़ी संत बाबा याक़ूत शहर वर्दी के बड़े मुरीद थे। शिवाजी ने बाबा याक़ूत को 653 एकड़ ज़मीन जागीर के रूप में भेंट कर वहाँ एक विशाल ख़ानक़ाह का निर्माण करवाया। शिवाजी जब भी युद्ध के लिए जाते थे तो अपनी विजय के लिए बाबा याक़ूत से आशीर्वाद लेकर जाते थे। इसी तरह अयोध्या सहित देश के अनेक स्थानों पर मुस्लिम शासकों द्वारा मंदिर निर्माण के लिए ज़मीनें दी गईं व पूजा हेतु वज़ीफ़े निर्धारित किये गए। भारतीय इतिहास के रहीम,रस खान व जायसी जैसे अनेक मुस्लिम कवि ऐसे हुए जिन्होंने अपनी रचनाएं हिन्दू देवी देवताओं की शान में ही समर्पित की हैं। स्वयं संत कबीर ने मुस्लिम परिवार की संतान होने के बावजूद रामानन्द संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी रामानन्दाचार्य के सानिध्य में रहकर ज्ञान हासिल किया तथा वहीं परवरिश पाई। इसी प्रकार आज तक देश में न जाने कितनी जगहें ऐसी हैं जहाँ मुस्लिम समुदाय के लोग मंदिरों की निगहबानी कर रहे हैं तो हिन्दू लोग दरगाहों व इमाम बारगाहों की देखरेख करने में स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। कहीं हिन्दू रोज़े रखते हैं तो कहीं मुसलमान गणेश चतुर्थी मनाते हैं। कहीं हिन्दू ताज़िया रखते हैं और शहीद -ए-करबला हज़रत इमाम हुसैन का मातम करते हैं तो कहीं मुसलमान, मंदिर निर्माण के लिए अपनी ज़मीन दान करते हैं।अयोध्या के मंदिर मस्जिद विवाद के बीच अभी ख़बर आई कि बाबरी मस्जिद के बदले अयोध्या के समीप बनने वाली मस्जिद में दान की पहली रक़म लखनऊ विश्वविद्यालय के एक हिन्दू प्रोफ़ेसर द्वारा भेंट की गयी। देश का इतिहास और वर्तमान ऐसी मिसालों से पटा पड़ा है। तभी इक़बाल ने कहा था – मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा।

हमारे देश में आज भी सैकड़ों राम लीलाएं ऐसी होती हैं जिन्हें मुस्लिम लोग आयोजित करते हैं। इनमें अनेकानेक ऐसी हैं जिनमें मुस्लिम कलाकार हिस्सा लेते हैं। निर्देशन से लेकर मेक अप व कॉस्ट्यूम तक के काम मुसलमानों द्वारा किये जाते हैं। रावण के पुतले के निर्माण में तो मुस्लिम कारीगर देश में प्रथम स्थान रखते हैं। अयोध्या में सदियों से मुसलमान दर्ज़ी, देवी देवताओं की पोषक सीने से लेकर प्रशाद व अन्य पूजा संबंधी सामग्री बेचने तक का काम करते आ रहे हैं। परन्तु हमारे देश में सभी धर्मों में कुछ शक्तियां ऐसी भी सक्रिय हैं जिन्हें धार्मिक सद्भाव व सौहार्द पसंद नहीं। कूप मंडूक मानसिकता से ग्रसित ऐसे लोग अपनी ही संस्कारी व किताबी दुनिया में जीना चाहते हैं। किसी भी बात को यह लोग अपने संकीर्ण सांप्रदायिक व कट्टर धार्मिक नज़रिये से देखने की कोशिश करते हैं। और इनकी यही संकीर्णता समाज में खाई व वैमनस्य पैदा करती है। पिछले दिनों ऐसे ही संकीर्ण विचारों का एक मामला बंगला फ़िल्म अभिनेत्री व तृणमूल कांग्रेस की सासंद नुसरत जहां से जुड़ा हुआ सामने आया। नुसरत जहाँ पेशेवर कलाकार हैं और प्रसिद्ध सामाजिक शख़्सियत व निर्वाचित सांसद हैं। पिछले दिनों दुर्गाष्टमी व नवमी के मौक़े पर नुसरत ने ख़ूब ढोल बजाया और नृत्य किया। उनके इस सद्भावनापूर्ण कार्य की समाज में घोर प्रशंसा की गयी।सोशल मीडिया पर लाखों लोगों ने इसे सराहा व शेयर किया। परन्तु एक देव बंदी आलिम ने बिना किसी के पूछे ही यह ज्ञान बांटना ज़रूरी समझा कि-‘नाचना इस्लाम के अनुसार हराम है’. मुफ़्ती साहब ने यह सलाह भी दे डाली कि अगर नुसरत को ग़ैर मज़हबी काम करने हैं, तो वो अपना नाम बदल सकती हैं लेकिन मुसलमान और इस्लाम को बदनाम क्यों कर रही हैं ? इस ‘फ़तवे’ के जारी होने के बाद नुसरत जहां,को कहना ही पड़ा कि ‘मैं अपने धर्म का सम्मान करती हूं। और वो ताउम्र मुस्लिम रहेंगी. नुसरत ने कहा कि वो इसी धर्म में पैदा हुई हैं और इसकी बहुत इज़्ज़त भी करती हैं लेकिन उन्हें फ़तवा जैसी बातों से फ़र्क़ नहीं पड़ता और उन्होंने इस और ध्यान देना भी बंद कर दिया है। इसी प्रकार के फ़तवों व ग़ैर ज़रूरी बयानों से प्रेरित कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर नुसरत को जान से मारने की धमकी तक दे डाली है। पहले भी नुसरत को कट्टरपंथी तत्व धमकियाँ देते रहे हैं।

इन मुसलमानों को जो नृत्य व संगीत से नफ़रत करते हैं व इसे ग़ैर इस्लामी बताते हैं सबसे पहले इस्लाम के सूफ़ी मत में झाँकना चाहिए जहां नृत्य व संगीत दोनों को ही न केवल मान्यता हासिल है बल्कि यह इसके प्रमुख अंग भी हैं । कुछ समय पूर्व ऐसा ही एक बेहूदा फ़तवा यह भी सुनाई दिया था कि ‘मुस्लिम लड़कियाँ किसी बैंक कर्मचारी से शादी न करें क्योंकि उनकी कमाई हलाल की कमाई नहीं है’। मगर इन फ़तवेबाज़ों से कोई यह पूछे कि इन्होंने कभी ख़ान बहादुर हाजी अब्दुल्लाह हाजी क़ासिम साहब बहादुर का नाम भी सुना है? यह वही महान शख़्सियत थी जिनपर मुसलमान ही नहीं बल्कि पूरा देश गर्व करता है। इन्होंने ही कॉरपोरेशन बैंक की बुनियाद डाली थी। सोचने का विषय कि एक फ़तवेबाज़ मुफ़्ती अधिक दूरदर्शी मुसलमान हो सकता है या हाजी अब्दुल्लाह हाजी क़ासिम साहेब जैसे महान लोग ? हिन्दू धर्म से संबद्ध कुछ ऐसे ही तत्वों ने 2016 में फ़िल्म कलाकार नवाज़ुद्दीन को मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले में उनके अपने ही पैतृक गांव में रामलीला में मारीच की भूमिका निभाने से केवल इसी लिए रोक दिया था क्योंकि वे मुसलमान थे। ऐसी घटनाएँ देश में कहीं न कहीं कभी न कभी होती तो ज़रूर रहती हैं परन्तु इन्हें अपवाद के रूप में ही देखा जाना चाहिए। हम सभी उदारवादी व प्रगतिशील विचार रखने वालों को यह समझना चाहिए कि संकीर्ण मानसिकता के यह इक्का दुक्का लोग जो सभी धर्मों में पाए जाते हैं, यह दरअसल सामाजिक खाई पैदा करने व इसे निरंतर गहरा करते रहने के काम में ही व्यस्त रहते हैं जबकि उदारवाद व प्रगतिशीलता सामाजिक व धार्मिक सेतु का काम करती है।

तनवीर जाफ़री

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