भारतीय युवाओं की दिनचर्या बदलना नितांत जरूरी है

Written by गुरुवार, 15 अक्टूबर 2020 19:23

नैशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) ने पहली बार एक ऐसा सर्वे करवाया है जिससे पता चलता है कि देशवासी रोज के 24 घंटों में से कितना समय किन कार्यों में बिताते हैं। यह टाइम यूज सर्वे पिछले साल जनवरी से लेकर दिसंबर के बीच हुआ और इससे कई ऐसी महत्वपूर्ण जानकारियां सामने आईं जो आगे नीति निर्माण के साथ-साथ जीवनशैली को नियोजित करने में खासी उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं।

कोरोना महामारी ने हमारे जीने के तौर-तरीके को अस्तव्यस्त कर दिया है। हमारे द्वारा यह कामना करना अस्वाभाविक नहीं थी कि हमारे नष्ट हो गये आदर्श एवं संतुलित जीवन के गौरव को हम फिर से प्राप्त करेंगे और फिर एक बार हमारी जीवन-शैली में पूर्ण भारतीयता का सामंजस्य एवं संतुलन स्थापित होगा। किंतु कोरोना के जटिल सात माह के बीतने पर हालात का जायजा लें, तो हमारे सामाजिक, पारिवारिक और वैयक्तिक जीवन में जीवन-मूल्य एवं कार्यक्षमताएं खंड-खंड होते दृष्टिगोचर होते हैं। आंगण में दौड लगाकर पकड़-पकडाई, नदी-पहाड़ के खेल, लंगड़ी के दाम, अचार की बरनियां और चिप्स से भरी चादरें, खटिया पर धूप में औंधे पड़े टप-टप निचुड़ते कपड़े, बारिश के छपाकों की उड़ाने- तब जिन्दगी बेफ्रिक होती थी। हर व्यक्ति जीवन को उन्नत बनाना चाहता है, लेकिन उन्नति उस दिन अवरुद्ध होनी शुरु हो जाती है जिस दिन हम अपनी कमियों एवं त्रुटियों पर ध्यान देना बन्द कर देते हैं। यह स्थिति आदमी से ऐसे-ऐसे काम करवाती है, जो आगे चलकर उसी के लिए हानिकारक सिद्ध होते हैं। रही-सही कसर पूरी कर देती है हमारी त्रुटिपूर्ण जीवनशैली। असंतुलित जीवन है तो आदमी सकारात्मक चिंतन कर नहीं सकता। विचारणीय बात यह है कि किस उद्देश्य से जीवन जीया जाए? यह प्रश्न हर व्यक्ति के सामने होना चाहिए कि मैं क्यों जी रहा हूं? जीवन के उद्देश्य पर विचार करेंगे तो एक नई सचाई सामने आएगी और जीवन की शैली का प्रश्न भी सामने आएगा।

हम मनुष्य जीवन की मूल्यवत्ता और उसके तात्पर्य को समझें। वह केवल पदार्थ भोग और सुविधा भोग के लिए नहीं बल्कि कर्म करते रहने के लिये है। मनुष्य जन्म तो किन्हीं महान उद्देश्यों के लिए हुआ है। हम अपना मूल्य कभी कम न होने दें। प्रयत्न यही रहे कि मूल्य बढ़ता जाए। लेकिन यह बात सदा ध्यान में रहे कि मूल्य जुड़ा हुआ है जीवनमूल्यों के साथ। अच्छी सोच एवं अच्छे उद्देश्यों के साथ। हायमैन रिकओवर ने कहा कि अच्छे विचारों को स्वतः ही नहीं अपनाया जाता है। उन्हें पराक्रमयुक्त धैर्य के साथ व्यवहार में लाया जाना चाहिए।

एनएसओ का यह सर्वे सीमित नमूनों के आधार पर भारी-भरकम नतीजे देने वाला सर्वे नहीं था। इसमें 5947 गांवों और 3998 शहरी क्षेत्रों के 1,38,799 परिवार कवर किए गए। अंडमान निकोबार के ग्रामीण हिस्सों को छोड़कर लगभग पूरा देश इसकी जद में आ गया। इन तमाम परिवारों के छह साल से ऊपर के सभी सदस्यों से बातचीत की गई। सर्वे से पता चला कि एक हिंदुस्तानी हर रोज औसतन 552 मिनट यानी 9 घंटे 12 मिनट सोता है। ग्रामीण क्षेत्रों का पुरुष इस औसत से 2 मिनट ज्यादा। सोने में महिलाएं पुरुषों से थोड़ा आगे हैं। शहरी क्षेत्रों में लोगों को नींद कम नसीब होती है। सोने की कसर पुरुष खाने में निकाल देते हैं और इस मामले में महिलाओं से काफी आगे हैं। बहरहाल, नियमित अंतराल पर ये आंकड़े सामने आते रहें तो इनसे समाज और परिवार के अंदर के समीकरणों में हो रहे बदलावों की झलक मिल सकती है और इनके आधार पर हम जीवन में काम के बटवारे को लेकर सर्तक एवं सावधान हो सकते हैं।

हमारे घर-परिवारों में ऐसे-ऐसे खान-पान, जीने के तौर-तरीके और परिधान घर कर चले हैं कि हमारी संस्कृति और सांस्कृतिक पहचान ही धूमिल हो गई है। इंटरनेट एवं छोटे-परदे की आँधी ने समूची दुनिया को एक परिवार तो बना दिया है, लेकिन इस संस्कृति में भावना का रिश्ता, खून का रिश्ता या पारिवारिक संबंध जैसा कुछ दिखता ही नहीं है। यही नहीं इस जीवनशैली से अकर्मण्यता एवं उदासीनता भी पसर रही है। सभी अपने स्वार्थों के दीयों में तेल डालने में लगे हैं। संकीर्ण सोच के अँधेरे गलियारों में औंधे मुँह पड़े संबंध और मानवीय रिश्ते सिसक रहे हैं। रही बात परिवार के सदस्यों की देखभाल करने और उनका ख्याल रखने जैसे अवैतनिक कार्यों की, तो महिलाओं का काफी सारा वक्त इसमें जाता है। परिवार में परंपरा, टीवी जैसा मास मीडिया और खेलकूद से जुड़ी गतिविधियों में लगने वाला परिवार का औसत साझा समय है 165 मिनट। सोशलाइजिंग, बातचीत, सामूहिक सहभागिता वाले अन्य कार्यों और धार्मिक कार्यों में भी शहरी-ग्रामीण और महिला-पुरुष में थोड़ा-थोड़ा अंतर है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इन कार्यों में भी औसतन रोज 165 मिनट ही लगता है। ये आंकड़े कई लिहाज से इस दौर के हमारे सामाजिक और पारिवारिक जीवन का आईना हैं। भले ही हमारे देश की सांस्कृतिक परंपराएँ और आदर्श जीवन-मूल्य समृद्ध एवं सुदृढ़ रहे हैं किन्तु कोरोना महाव्याधि के प्रकोप की हवाओं ने हमारे जन-मानस में भावी जीवन के सन्दर्भ में भय एवं आशंकाओं का धुंधलका घोलकर हमारे रहन-सहन और आचार-विचार को असंतुलित किया है, और इससे हमारी संयुक्त परिवार, आदर्श जीवनशैली एवं प्रेरक संस्कृति की परंपरा बिखर रही है। ऐसे परिवार ढूँढ़ने पर भी मुश्किल से मिलते हैं, जो शांति और संतोष के साथ आनंदित जीवन जीते हैं।

अर्थोपार्जन से जुड़ी गतिविधियों का हिसाब तो जीडीपी में आ जाता है, लेकिन देशवासियों का जो समय गैरआर्थिक गतिविधियों में लगता है, उसका अंदाजा लेने की कोई कोशिश सरकारी स्तर पर नहीं की गई थी। अगर ऐसा ही सर्वे लॉकडाउन के दौरान होता तो इस सामान्य और अनौपचारिक ऑब्जर्वेशन की सटीक पड़ताल हो पाती कि पुरुषों के घर में रहने से कैसे महिलाओं की दोपहर की नींद गायब हो गई है। घरेलू महिलाओं के कामकाज एवं श्रम का मूल्यांकन कभी होता ही नहीं, यदि ऐसा आकलन हो तो जीडीपी में उनका योगदान कम नहीं है।
जन्मदिवस पर केक काटने और मोमबत्तियाँ जलाने और बुझाने की जगह अब हम दीपक कोरोना महामारी को भगानेे के लिये जलाते हैं, ताली भी उसी के विरुद्ध अपने संकल्प को दृढ़ करने के लिये बजाते हैं। रीति-रिवाजों के ही साथ नृत्य-संगीत की भी बात की जा सकती है। जन्मदिवस पर, विवाह समारोहों पर, खुशी के अन्य अवसरों पर मन की प्रसन्नता की अभिव्यक्ति कहां कर पा रहे हैं? हमारे यहाँ सारे विश्व को देने व सिखाने के लिए दीपक जलाने, ताली बजाने, लोकगीत, लोकनृत्य, शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय नृत्य आदि की अति समृद्ध परंपरा है, जिनसे हमने विश्व को रू-ब-रू किया है। गरभा, भाँगड़ा, घूमर, भरतनाट्यम, कथक, कुचिपुड़ी एवं भारतीय नृत्यों को प्रोत्साहन दें। यह देश तानसेन व बैजूबावरा का देश है। इस देश को कर्ण कटु एवं तेज-कर्कश संगीत उधार लेने की आवश्यकता क्यों है? हमारे नृत्य-संगीत सत्यम-शिवम्-सुंदरम के साक्षात् स्वरूप हैं। हमारी जीवनशैली में इनके लिये समय का नियोजन जरूरी है, क्योंकि ये हमारी समृद्धि, स्वास्थ्य एवं विकास के प्रेरक है।

समस्या यही है कि हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं, जीवन हमारा असन्तुलित एवं त्रुटिपूर्ण बना हुआ है। इस जीवन की सबसे बड़ी बाधा है जीवन में कार्यों एवं परम्पराओं के लिये समय का असंतुलित बंटवारा, असंतोष की मनोवृत्ति और अतृप्ति। जब मन की चंचलता बनी हुई है, तो मनोबल नहीं बढ़ सकता। मनोबल की साधना ही नहीं है तो संकल्पबल मजबूत कैसे होगा? मन में तो तरह-तरह की तरंगे उठ रही हैं। क्षण भर के लिए भी मन स्थिर होने के लिए तैयार नहीं है। तृप्ति कहीं नहीं है। देश के नम्बर एक औद्योगिक घरानों में गिने जाने वाले टाटा, बिड़ला, रिलायंस अब सब्जी-भाजी बेच रहे हैं। बड़े शहरों में इनके डिपार्टमेंटल स्टोर हैं। जिनमें तेल, लूण और रोज के काम में आने वाले सारी चीजें शामिल हैं। छोटे दुकानदार की रोजी-रोटी तो अब वे लोग हथिया रहे हैं। तृप्ति है कैसे? शांति, संतोष और तृप्ति का एक ही साधन है और वह है योग। श्रीकृष्ण अर्जुन से इसीलिए कहा हैं कि अब तुम तृप्त होकर योगी बन जाओ। तृप्त होने के बाद तुम उस स्थिति को प्राप्त हो जाओगे, जो होना चाहते हो। तृप्त होने के बाद न मोह रहेगा, न आकांक्षा शेष रहेगी। इसी तृप्ति में जीवन की समृद्धि का स्रोत समाहित है, इसलिये दैनिक जीवन में योग का समावेश जरूरी है।

प्राचीन ऋषियों ने भी एक सूत्र दिया था-संतोषः परमं सुखं। संतोष परम सुख है और असंतोष का कहीं अंत नहीं है। जब तक इस सूत्र पर अमल होता रहा, स्थिति नियंत्रण में रही। जैसे ही संतोष की डोर कमजोर होना शुरू हुई, स्थिति तनावपूर्ण होती गई। यह बात व्यक्ति ही नहीं, समाज, राष्ट्र एवं विश्व व्यवस्था पर भी लागू होती है। महामात्य चाणक्य को राजनीति का द्रोणाचार्य माना जाता है। उनका दिया हुआ सूूत्र है-शासन को इन्द्रियजयी होना चाहिए। बात शासन से पहले व्यक्ति की है। व्यक्ति का जीवन ही राष्ट्र का निर्माण है। इसलिये प्रयास वही ंसे शुरु होने चाहिए।

-ललित गर्ग –

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