आज की आधुनिक पीढ़ी ने केवल अमेरिका की ग्वांतानामो बे जेल के बारे में सुना-पढ़ा है, जहां अल-कायदा के आतंकियों को टॉर्चर किया जाता था. अंडमान की सेल्युलर जेल भी इससे मिलती-जुलती ही है. आखिर ऐसा क्या था इस जेल में?? कैदी यहाँ आने से डरते क्यों थे??
इस जेल का निर्माण अंग्रेजों द्वारा 1906 में पूरा किया गया था और इस जेल में 14086 कैदियों को रखने की व्यवस्था थी. आपने ऑक्टोपस देखा ही होगा, जिस प्रकार उसके आठ पैर होते हैं जो एक सिर से जुड़े होते हैं, ठीक उसी प्रकार अंडमान की इस जेल में एक केन्द्रीय टावर के साथ सात लम्बी-ऊंची इमारतें बाहों की तरह बनाई गयी थीं, सात लम्बी-लम्बी पत्तियों वाले एक फूल की तरह इसके आकृति है. इस जेल का डिजाइन कुछ इस तरह बनाया गया था कि केन्द्रीय टावर से जुडी इन सभी सातों इमारतों पर एक स्थान निगरानी रखी जा सकती थी.
जेल की ये सातों इमारतें तीन मंजिला ऊंची थीं, जिसमें से 698 छोटे-छोटे कमरे ऐसे थे, जिनका नाम “सेल्युलर” था, क्योंकि इन कमरों की लम्बाई चौडाई केवल 4.1 x 1.9 मीटर की होती थी, जिसमें केवल एक कैदी केवल खड़ा रह सकता था या लेट सकता था. इन सातों इमारतों के जेल कोठरियों के आपस में मिलने का एकमात्र स्थान वह केन्द्रीय टावर ही था, इसके अलावा इन सभी इमारतों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं था. प्रत्येक अंडा सेल के अलग-अलग ताले होते थे जो दीवार के बाहर लगाए जाते थे, जहां तक कैदी का हाथ कभी न पहुँच सके. हालाँकि इस जेल से भाग सकने की संभावना नगण्य ही थी, फिर भी उस केन्द्रीय टावर से 21 वार्डन (एक इमारत पर निगाह रखने के लिए तीन वार्डन काफी थे) लगातार सभी कैदियों की निगरानी किया करते थे. कोई भी कैदी आपस में बात न कर सकें, इसलिए जेल का निर्माण ऐसा किया गया था कि, एक अंडा सेल और दूसरी अंडा सेल आमने-सामने नहीं, बल्कि एक दूसरे की तरफ पीठ किये होती थीं और इनकी मोटी दीवारों के बीच भी थोड़ा फासला रखा जाता था, ताकि एक सेल की आवाज, दूसरी सेल तक पहुँच ही न सके. अर्थात जो भी कैदी इस सेल्युलर कक्ष में जकड़ा जाता था, वह या तो पिटाई करने वाले वार्डन को देख सकता था या फिर एक खिड़की से आसमान देख सकता था. इसके अलावा कुछ नहीं. सावरकर बंधुओं ने इस स्थिति में कई वर्ष जेल में गुज़ारे, जहाँ कोई भी सामान्य व्यक्ति आठ दिन में ही पागल हो जाए.
सेल्युलर जेल में “डोरमेट्री” (अर्थात केन्द्रीय हॉल) जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी, कि कहीं कैदी भोजन के समय आपस में मिल सकें. जब भी कोई नया कैदी जेल में लाया जाता, तो सबसे पहले उसे छः माह के लिए एकांतवास में बंद कर दिया जाता था, ताकि उसके दिमाग से स्वतंत्रता और क्रान्ति का भूत पूरी तरह उतर जाए और वह एकदम दीन-हीन अवस्था में आकर अपना मनोबल खो दे. यानी सेल्युलर जेल अपने आप में एक जेल के अन्दर दूसरी जेल थी. मार्च 1868 में, जबकि जेल पूरी तरह बनी नहीं थी, 238 कैदियों ने यहाँ से भागने की कोशिश की, लेकिन सभी पकड़े गए. एक कैदी ने आत्महत्या की, 87 कैदियों को वार्डन जेम्स वॉकर ने फाँसी दे दी और बाकियों को मृत होने तक कालकोठरी में डाल दिया था. सावरकर बंधुओं (Savarkar Brothers) के एक साथी महावीर सिंह (जो कि लाहौर काण्ड में भगत सिंह के साथ सहयोगी थे) ने जेल में कैदियों को दिए जा रहे अमानवीय बर्ताव और अन्याय के खिलाफ भूख हड़ताल कर दी थी. अंग्रेजों ने महावीर सिंह की जमकर पिटाई की और जबरन मुँह में दूध ठूँसने का प्रयास किया. इस आपाधापी में दूध उनके फेफड़ों में चला गया और उनकी वहीं मौत हो गयी. महावीर सिंह के गले में भारी पत्थर बाँधकर उन्हें समुद्र में डुबो दिया गया.
1942 में जापान ने अंग्रेजों को हराकर अंडमान द्वीप समूह पर कब्ज़ा कर लिया, और अंग्रेजों को वहाँ से भगा दिया. जेल की खतरनाक बनावट देखकर जापान ने अंग्रेज कैदियों को भी यहाँ रखना शुरू कर दिया. इसी कालखंड में सुभाषचंद्र बोस भी अंडमान पहुंचे थे. जापानी शासन के दौरान इस जेल की सात भुजाओं में से दो को ढहा दिया गया था. 1945 में दूसरा विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद अंग्रेजों ने फिर से अंडमान द्वीप समूह पर अपना कब्ज़ा जमा लिया और जापानियों को यहाँ से भागना पड़ा.
इस खतरनाक और डरावनी जेल में बाबाराव (यानी वीर सावरकर Vinayak Savarkar के भाई गणेश सावरकर Ganesh Savarkar) वर्षों तक कैद रहे. कईयों को यह आश्चर्य होता है और दुःख भी, कि दोनों भाई एक ही जेल में कुछ ही अंतर पर वर्षों तक कैद रहे, लेकिन न तो उन्हें इसके बारे में जानकारी थी और ना ही उन्हें मिलने दिया गया. सेल्युलर जेल में एक जॉन बैरी नामक क्रूर जेलर था, जिसकी सावरकर बंधुओं से खास खुन्नस थी (शायद उसे ऊपर से वैसे आदेश होंगे). जॉन बैरी ने जानबूझकर दोनों भाईयों को नारियल का तेल निकालने वाले कोल्हू में बाँध रखा था. दिन भर कोल्हू में बैल की तरह तेल निकालने के बाद शाम को इनके दोनों हाथ ऊपर करके दीवार में लगे हुक के सहारे बेडी से जकड़ दिया जाता. सेल्युलर जेल का खानसामा मुसलमान था और अंग्रेजों का मुखबिर भी था. वह जानबूझकर कैदियों के खाने में हल्का सा केरोसीन मिला देता था. ऐसा खाना खाने से कैसी कमज़ोर हो जाता था, उसका गला सूखता था और शौच में खून आने लगता था... (अंग्रेजों के पास टॉर्चर करने के एक से एक तरीके थे). जब कभी गणेशराव सावरकर हाथों में बंधी हथकड़ी की वजह से कोठरी में खड़े-खड़े ही शौच कर देते थे, तब जॉन बैरी उनकी जमकर पिटाई करता और उनसे ही सफाई भी करवाता था. इतने भीषण कष्ट सहने वाले सावरकर बंधुओं को जब कुछ अज्ञानी और मूर्ख लोग “अंग्रेजों का पिठ्ठू” बताते हैं तो हँसी नहीं, उनकी मानसिक स्थिति पर दया आती है.
जैसा कि ऊपर बताया, इस विशाल जेल की सात भुजाओं वाली इमारतों में से दो भुजाएँ जापानियों ने तोड़ दी थीं. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नेहरू के आदेश पर सेलुलर जेल की दो भुजाएँ और तोड़ दी गईं. इस प्रकार अब इस इमारत में केवल केन्द्रीय टावर और तीन भुजाओं वाली इमारत ही बची रह गई. नेहरू तो इस जेल को पूरी तरह खत्म कर देना चाहते थे, ताकि सावरकर बंधुओं सहित जिन हजारों लोगों ने अपने बलिदान दिए वह इतिहास ही मिटा दिया जाए. लेकिन इस जेल में समय बिता चुके सावरकर जैसे पूर्व कैदियों और जनता ने इसका कड़ा विरोध किया. इसके बाद 1969 में इस बची हुई इमारत को “राष्ट्रीय स्मारक” बनाया गया. इस जेल की सौंवी वर्षगाँठ 10 मार्च 2006 को मनाई गई.
मैं सभी देशप्रेमी भारतीयों से अनुरोध करता हूँ कि जिस प्रकार मुस्लिम लोग पूर्ण श्रद्धा के साथ मक्का जाते हैं या आप काशी यात्रा पर जाते हैं, वैसे ही जीवन में कम से कम एक बार अंडमान की इस सेल्युलर जेल के दर्शन अवश्य करें, ताकि आने वाली पीढियाँ याद रखें कि वे आज स्वतन्त्र, प्रसन्न और सम्पन्न इसलिए हैं, क्योंकि इस कुख्यात और खूँखार जेल में हजारों देशप्रेमी अपना बलिदान दे गए हैं...
सावरकर को भगवान की तरह पूजने वाली अंडमान द्वीप समूह पर रहने वाली अनुराधा की रोचक और हैरतनाक कहानी भी इस लिंक पर जरूर पढ़ें...