ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं की बहस और मोदीजी की मंशा

Written by रविवार, 30 अप्रैल 2017 08:12

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ दिन पहले सूरत में ऐलान किया, कि डॉक्टर अपनी पर्ची पर केवल जेनरिक दवाओं का नाम लिखेंगे. इस ऐलान के साथ ही ज्यादातर लोग ये मान बैठे कि जेनरिक दवाएं मतलब सस्ती दवाएं... लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है.

दरअसल, ये मामला कमीशनखोरी का भी है जो इतनी आसानी से बंद नहीं होगा. तो कैसे बंद होगा? कैसे मिलेगी आपको सस्ती दवाएं? जेनेरिक दवा और दूसरी दवा में अंतर क्या है? सामान्य व्यक्ति ब्रांडेड और जेनेरिक दवाओं के बीच का अंतर नहीं समझता. यह लेख इसी बात को समझाने तथा समस्या की जड़ में जाने का एक छोटा प्रयास है.. एक कंपनी कोई भी दवा सालों की रिसर्च और टेस्टिंग के बाद बनाती है. इसके बाद कंपनी उस दवा को पेटेंट कराती है. अमूमन किसी दवा के लिए पेटेंट 10 से 15 साल के लिए होता है. पेटेंट एक तरह का लाइसेंस होता है जो कंपनी को ये अधिकार देता है कि जिस दवा का पेटेंट उसने हासिल किया है उसको बनाने और बेचने का अधिकार सिर्फ उसी को होगा. जितने साल के लिए कंपनी को पेटेंट मिलता है उतने साल वो खास दवा सिर्फ वही कंपनी बना सकती है.

थोड़ा और विस्तार से

मान लीजिए एक कंपनी 'ए' ने कई साल की मेहनत के बाद 'एक्स-वाई-जेड' दवा तैयार की और उसके लिए उसने 15 साल का पेटेंट हासिल कर लिया. इसका मतलब ये हुआ कि कंपनी 'ए' अपनी 'एक्सवाईजेड' दवा को 15 साल तक बना और बेच सकती है. इस दौरान अगर किसी दूसरी कंपनी ने 'एक्स-वाई-जेड' दवा बनाई या बेचने की कोशिश की तो उस कंपनी पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है. किसी दवा का पेटेंट हासिल करने वाली कंपनी को उसकी कीमत तय करने का भी अधिकार होता है और वो उसे अपने मुताबिक बाजार में उतार सकती है. 10 या 15 साल के बाद जब पेटेंट की अवधि समाप्त हो जाएगी, तब बाजार में मौजूद कोई भी कंपनी 'एक्सवाईजेड' दवा को बना और बेच सकती है. यानी पेटेंट खत्म होने के बाद 'एक्सवाईजेड' जेनरिक दवा हो गई. और अब उस दवा पर किसी एक कंपनी का अधिकार नहीं रह गया.

पेटेंट खत्म होते ही दवा सस्ती हो जाएगी?

किसी दवा का पेटेंट खत्म होने के बाद उसे जेनरिक कहा जाता है और चूंकि कई कंपनियां उसे बना और बेच सकती है, इसीलिए उसकी कीमत भी पहले से कम हो जाती है. आम तौर पर किसी दवा का पेटेंट खत्म होने के बाद कई कंपनियां उस दवा को बनाने और बेचने लगती हैं लेकिन हर कंपनी की दवा का नाम और दाम अलग-अलग होता है. ऐसी सूरत में वो दवा ब्रांडेड जेनरिक दवा के नाम से जानी जाती है. इसकी कीमत पेटेंट वाली दवा से तो कम होती है लेकिन शुद्ध रूप से जेनरिक दवा के मुकाबले ज्यादा होती है.

अभी भारत में जेनेरिक और पेटेंट दवाओं का क्या हाल है?

फिलहाल भारत के बाजार में मिलने वाली सिर्फ 9 फीसदी दवाएं पेटेंट है और 70 फीसदी से ज्यादा दवाएं ब्रैंडेड जेनरिक है. आईएमए यानी इंडियन मेडिकल एसोशिएशन के सचिव आर एन टंडन के मुताबिक जेनरिक दवाओं के दाम में 100 से 1000 फीसदी तक का मार्जिन होता है. इसी वजह से जेनरिक दवाएं पेटेंट दवाओं के मुकाबले सस्ती जरूर होती हैं, लेकिन ब्रांडेड जेनरिक होने की वजह से वो बहुत सस्ती भी नहीं होतीं. तो फिर भारत सरकार क्या कर रही है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब कहा कि सरकार ऐसा कानून लाने जा रही है जिससे डॉक्टरों को सस्ती मरीज के पर्चे पर जेनरिक दवाएं लिखना अनिवार्य हो जाएगा. तब लोगों को लगा कि अब देश में सस्ती दवाएं मिलेंगी, इलाज का खर्च कम होगा. क्या इतने भर से दवा सस्ती हो जाएगी? नहीं... थोड़ा सा फर्क पड़ सकता है, लेकिन पूरी तरह नहीं. जिन बीमारियों के लिए पेटेंट दवाएं ही बाजार में मौजूद है उनका इलाज तो किसी भी हाल में सस्ता नहीं होने वाला. इतना ही नहीं जब डॉक्टर अपनी पर्ची पर किसी जेनरिक दवा का नाम लिखेगा तो उसको बनाने वाली एक नहीं कई कंपनियां होंगी.

तो कमीशन का क्या होगा?

अभी तक दवा कंपनियां डॉक्टरों को अपनी दवा लिखने के लिए कमीशन देती हैं. अगर ये सरकारी नियम लागू हो जाता है तो डॉक्टरों तो जेनेरिक दवा लिखेंगे. लेकिन ये दुकानदार पर निर्भर करेगा कि वो जेनरिक दवा के नाम पर आपको किस कंपनी की दवा देता है. दवा की दुकान वाला तय करेगा कि वो मरीज को 10 फीसदी की प्रॉफिट मार्जिन वाली कंपनी की दवा देता है कि जेनरिक दवा देता है या फिर 1000 फीसदी प्रॉफिट मार्जिन वाली.

तो क्या है उपाय?

केमिस्ट और मेडिकल स्टोर वाले लोगों को धोखा न दे सकें, इसके लिए सरकार ने नया रास्ता निकाला है- जन औषधि केन्द्र. जन औषधि केंद्र यानी वो मेडिकल स्टोर जहां सस्ती जेनरिक दवाएं मिलेंगी. प्रधानमंत्री जन औषधि योजना के तहत जन औषधि केंद्र पर दिल, डायबिटीज, बुखार, दर्द और कैंसर सहित करीब 600 से ज्यादा दवाइयां मिलेंगी. इसके अलावा डेढ़ सौ से ज्यादा सर्जिकल सामान भी मिलेगा.

सरकार कितनी दवा दुकानें खोलेगी?

सरकार की योजना के तहत पहले चरण में पूरे देश में ऐसे 100 जन औषधि केंद्र खोले जाएंगे. दूसरे चरण में तकरीबन 3000 जन औषधि केंद्र खोलने की योजना है. इसका एकमात्र उद्देश्य यह है कि कम कीमत पर गरीब और सामान्य परिवार के लोगों को सही दवा मिले. आंकड़ों के मुताबिक किसी बीमारी में सबसे अधिक 60 फीसदी खर्च दवाओं पर ही होता है. ऐसे में साफ है कि सरकार का ये प्रयास लोगों के लिए बड़ी राहत साबित हो सकता है.

प्रस्तावित कानून क्या कहता है?

केंद्र सरकार ने हाल ही में अपनी बेवसाइट पर एक ड्राफ्ट नोटिफिकेशन जारी कर कहा है कि दवाई बनाने वाली कंपनी को हर दवा के उपर उसका जेनरिक नाम लिखना अनिवार्य होगा. वो भी अपनी कंपनी के ब्रांड के नाम से दो फॉन्ट साइज बड़े अक्षरों में. सरकार की इस पहला का मकसद ये है कि लोगों के बीच हर दवा का जेनेरिक नाम जल्द से जल्द पहुंचे और दवाओं के नाम को लेकर ब्रांड का तिलिस्म तोड़ा जाए. क्योंकि लोग दवाओं के जेनरिक नाम जान जाएंगे तो उन्हें खरीदारी करने में आसानी होगी और उनके पैसे भी बचेंगे.

क्या है डॉक्टरों की राय

जेनरिक दवा के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान के बाद से डॉक्टरों में हड़कंप सा मचा हुआ है. वैसे तो डाक्टरों की संस्था आईएमए यानी इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने बयान जारी कर प्रधानमंत्री के बयान की सराहना की है, लेकिन ये कहने से भी नहीं चूकी कि केवल डॉक्टरों पर डंडा चलाने से काम नहीं चलेगा. आईएमए ने जेनरिक दवाओं के मुद्दे पर सरकार को अपने कुछ सुझाव भी दिए हैं. मसलन जिस तरह से सरकार ने दिल में लगने वाले स्टेंट को एनएलईएम यानी नेशनल लिस्ट ऑफ एसेंशियल मेडिसन में लाकर दाम तय कर दिए हैं उसी तरह से बाकी जरूरी दवाओं के लिए भी सरकार यही रास्ता अख्तियार कर सकती है.

सरकार तय करे जरूरी दवाओं के दाम

सरकार अपनी तरफ से जरूरी दवाओं के दाम तय कर सकती है. आईएमए ने सुझाव दिया कि सरकार जन औषधि केंद्र को भी एक ब्रांड के तौर पर विकसित करें. आईएमए के मुताबिक सरकारी कर्मचारियों को स्वास्थ्य भत्ते का भुगतान जन औषधि केंद्र से खरीदी गई दवाओं पर ही दिया जाए. आईएमए ने मेडिकल स्टोर वालों की मनमानी रोकने के लिए ज्यादा से ज्यादा ड्रग इंस्पेक्टर तैनात करने की भी मांग की ताकि नकली और मिलावटी दवाओं की बिक्री पर लगाम लगाई जा सके. कुल मिलाकर देखें तो ऐसा लगता है कि जेनरिक दवाओं के मामले में केंद्र सरकार फिलहाल एक हाथ से ताली बजाना चाहती है जो मौजूदा हालात में बेहद मुश्किल है. बेहतर तो यही होगा कि सरकार अपनी इस मुहिम में दवा कंपनियों, डॉक्टरों और दवा विक्रेताओं को भी जोड़े, तभी ये प्रयास सार्थक और टिकाऊ होगा. 

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जेनेरिक दवाई को लागू करने की सरकार की मंशा क्या है?

1) सस्ती दवाई आम जनता को मिले
2) नॉन एथिकल प्रैक्टिस पर रोकथाम
3) ईलाज के खर्चे में कमी
4) बेहतर स्वास्थ्य सेवा
5) बेहिसाब मुनाफाखोरी पर रोक

सस्ती दवाई आम जनता को मिले- यह मौजूदा दौर में असंभव है चूंकि भारत मे खुदरा व्यापार में वर्तमान ब्रांडेड जेनेरिक की अवधारणा है। अब यह ब्रांडेड जेनेरिक क्या होता है पहले यह समझते है.... किसी भी दवाई के मूल साल्ट को जेनेरिक बोला जाता है। मान लीजिए एसिडिटी के लिए ली जाने वाली एक दवा है पैंटोप... aristo कंपनी की.... इस दवा का मूल साल्ट है पैंटोपरज़ोल.... इस मूल साल्ट पैंटोपरज़ोल को जेनेरिक कहा जाता है... यही पैंटोपरज़ोल हजारों कंपनियां अलग अलग ब्रांड के नाम से प्रमोट करती है.... Pantop, Pan, Pantocid, Pantodac, Pantin, आदि आदि.... इन सबके अलग अलग मूल्य होते है, जबकि मूल साल्ट सबका एक ही होता है....चूंकि यह ब्रांड कंपनियां अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से एक बड़ी टीम के साथ प्रमोट करते है इसलिए इन्हें एथिकल ब्रांड कहा जाता है.... यहाँ तक हमने देखा कि जेनेरिक और एथिकल में क्या अंतर है....

आइये आगे बढ़े.....

अब होना यह चाहिए कि जेनेरिक में यदि पैंटोपरज़ोल उपलब्ध हो तो उस पर केवल पैंटोपरज़ोल लिखा होना चाहिए.... किंतु ऐसा होता नही है.... उपरोक्त सभी ब्रांड बनाने वाली कंपनियां और हजारो कंपनीया अपने अपने जेनेरिक को ब्रांड के नाम से बाज़ार में उतारती है.... जैसे Pantosec (Cipla), Alpan (Alkem), Pantopen (Morpen) जैसी कंपनियों के हजारो ब्रांड.... और इन्हें कहा जाता है ब्रांडेड जेनेरिक.... जो भारतीय बाज़ार में उपलब्ध है खुदरा व्यापार में....  यहां यह बताना आवश्यक है कि इन ब्रांडेड जेनेरिक की कीमत या तो एथिकल ब्रांड जितनी ही होती है या एथिकल से भी ज्यादा.... जैसे कि pantop की MRP यदि पांच रुपये के लगभग है तो जेनेरिक ब्रांड pantosec की MRP तकरीबन आठ रुपये....मतलब मरीज को जेनेरिक ज्यादा महंगा पड़ा क्योंकि जेनेरिक पर कहीं भी लिखा नही होता कि यह ब्रांड जेनेरिक है... अब डॉक्टरों तक के लिए यह जांचना मुश्किल हो जाता है, कि जेनेरिक ब्रांड कौन सा है और एथिकल कौन सा.... क्योंकि ना तो कीमत के आधार पर भेद कर सकते है और ना ही नाम के आधार पर.... अब डॉक्टर इसमे ऐसे भेद करते हैं कि जो कंपनी डॉक्टर से नियमित मिलती है, और प्रमोशनल एक्टिविटी करती है, उसका ब्रांड एथिकल.... और इसीलिए डॉक्टर अपने प्रिस्क्रिप्शन पर उस कंपनी का एथिकल ब्रांड ही लिखता है.... चूंकि भारतीय बाज़ार में 80% दवाई डॉ की सलाह या पर्चे पर बिकती है, इसलिए कंपनियां डॉक्टर के लिए बहुत सारी गतिविधियाँ प्रायोजित करती है.... और इस सबके लिए एक बड़ी मार्केटिंग टीम सभी कंपनियों में होती है.... इन सारे खर्चो की जिम्मेदारी संभालता है अंतिम उपभोक्ता, यानी कि मरीज की जेब.....

अब जैसी की सरकार की मंशा है कि सभी डॉक्टर केवल जेनेरिक दवाई अर्थात साल्ट का नाम लिखे जिससे कि डॉक्टर और मार्केटिंग टीम के सहयोग से अपने ब्रांड को भारी मुनाफ़ा वसूली से बिकवाने वाली कंपनियों पर रोक लगे और मरीज को कम से कम कीमत में दवाई उपलब्ध हो.... यह मंशा है पवित्र किंतु धरातलीय नही है.... कारण यह है कि हमारे भारत मे चूंकि जेनेरिक दवाओं पर मूल्य आधारित कोई नीति नही है (जैसा कि मैंने बतलाया एथिकल ब्रांड 5/- का और जेनेरिक 8/- का) इसलिए ब्रांडेड जेनेरिक बेचने वाली सभी कंपनियां जिनका खर्च केवल उत्पादन में होता है (क्योंकि इन्हें ना तो डॉक्टर पर कुछ खर्चा करना है, और ना मार्केटिंग टीम पर) अपने ब्रांडेड जेनेरिक को न्यूनतम मूल्य में विक्रय कर (अंकित मूल्य से 80% कम पर) दुकानदार को आकर्षित करती है.... जिससे दुकानदार जेनेरिक दवाई ज्यादा से ज्यादा बेचे.... भारत मे चूंकि बिना प्रमोशन या दवा प्रतिनिधि के मिले बिना डॉक्टर दवाई नही लिखते और 80% दवा डॉक्टर के प्रिस्क्रिप्शन से ही बिकती है, इसलिए सभी कंपनी डॉक्टर पर केंद्रित होती है.... और ब्रांडेड जेनेरिक सारा मुनाफा दुकानदार को देती है, इसलिए ब्रांडेड जेनेरिक दुकानदार केंद्रित होती है.... मरीज के लिए कौन सा जेनेरिक है और कौन सा एथिकल यह जाँचना तो टेढ़ी खीर या कहे लगभग असंभव..... इसलिए सरकार के इस कदम से ना तो मरीज का कुछ भला होने वाला है और ना ही दवा कंपनियों का.... मरीज का भला करना हो तो सरकार को दवाओ का मूल्य निर्धारण पूर्ण रूप से अपनी निगरानी में रखना होगा अथवा ब्रांडेड जेनेरिक को बंद कर केवल जेनेरिक अर्थात मूल साल्ट का नाम ही पैकेट पर अंकित रहे यह अनिवार्य करना होगा....

संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि मोदी जी मंशा तो उत्तम है... परन्तु शक्तिशाली फार्मा उद्योग तथा डॉक्टर-मेडिकल स्टोर गठबंधन को साथ लिए बिना, उन्हें विश्वास में लिए बिना तथा कड़ी निगरानी प्रणाली बनाए बिना देश में सस्ती दवाओं के मिलने का मार्ग सुगम होने वाला नहीं है... अपने हितों पर कुठाराघात कोई नहीं चाहता, इसलिए "न खाऊँगा, न खाने दूँगा" सुनने में भले ही अच्छा लगे, परन्तु प्रशासनिक मशीनरी रिश्वत के तेल से ही चलती है, जो मोदीजी के प्रत्येक कार्यक्रम में, प्रत्येक योजना में नित-नए अड़ंगे लगाती रहेगी. फिलहाल मरीजों को जल्दी सस्ती दवाएँ मिलने के कोई आसार नहीं है, लेकिन हाँ!!! भविष्य में यह जरूर होगा क्योंकि इस सरकार ने शुरुआत तो कर ही दी है...

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