मिलिए अंडमान निकोबार द्वीप की अदभुत "अनुराधा" से...

Written by रविवार, 31 अक्टूबर 2021 12:22

एक ब्रिटिश खलासी डेनियल रौस के नाम पर इस द्वीप का नामकरण किए गया था. उस द्वीप पर एक देवी रहती हैं, जिसका नाम है “अनुराधा”. लेकिन मैं आपको इस अनुराधा की कहानी क्यों सुना रहा हूँ? पोर्ट ब्लेयर से मात्र दस मिनट की दूरी पर एक द्वीप है, जिसका नाम है “रौस द्वीप”. एक ब्रिटिश खलासी डेनियल रौस के नाम पर इस द्वीप का नामकरण किए गया था. उस द्वीप पर एक देवी रहती हैं, जिसका नाम है “अनुराधा”. लेकिन मैं आपको इस अनुराधा की कहानी क्यों सुना रहा हूँ? आखिर अनुराधा में ऐसा क्या खास है? यदि सरल शब्दों में कहूँ तो अनुराधा अंडमान की सबसे महत्त्वपूर्ण बात है. जिस तरह से स्वच्छ समुद्र किनारों और सेल्युलर जेल के बिना अंडमान का इतिहास नहीं बताया जा सकता, उससे भी महत्त्वपूर्ण है अनुराधा. 

अनुराधा के पिता रौस द्वीप के ही निवासी थे. उनकी मृत्यु के पश्चात जब अनुराधा इस द्वीप पर रहने आई, उस समय उनकी आयु मात्र तीन वर्ष थी. उन दिनों इस द्वीप पर खरगोश, हिरन, मोर, बुलबुल आदि पशु-पक्षियों की भरमार थी. परन्तु शासकीय कर्मचारी गाहे-बगाहे द्वीप पर आते, जानवरों का शिकार करते और पेड़ों को काटकर लकडियाँ ले जाते. जब भी कोई नेता या बड़ा अफसर अंडमान के दौरे पर आता तो हिरन का शिकार करके माँस की पार्टी की जाती. धीरे-धीरे इस द्वीप पर गिने-चुने प्राणी ही बच गए, वे भी ज़ख़्मी हालत में और भूखे-प्यासे. अनुराधा नाम की यह बच्ची चुपचाप सब देखती रहती और चिढती. एक बार उसने उन क्रूर सरकारी कर्मचारियों को रोकने का प्रयास भी किया, लेकिन उन्होंने अनुराधा को जमकर पीटा. बस उसी दिन से अनुराधा ने किसी भी व्यक्ति से बातचीत करना बन्द कर दिया. उसी द्वीप पर रहने वाले एक मछुआरे की सहानुभूति अनुराधा के साथ थी. उस बच्ची की दोस्ती उस मछुआरे से हो गई. यह छोटी सी बच्ची दिन भर उस मछुआरे के कन्धों पर चढ़कर पेड़ों के पत्ते तोड़कर दिन भर इधर-उधर भटकते हुए उन जानवरों को खिलाती. बिलकुल रोज़ाना नियम से वह जानवरों को पत्तियाँ-फल खिलाती. जहाज़ों से आने वाले खलासी अनुराधा को पागल समझने लगे. जब भी कोई अनुराधा से बात करने की कोशिश करता, तो वह पत्थर लेकर मारने दौडती. ऐसा करने से लोगों ने अनुराधा को पूरा पागल समझ लिया.

अनुराधा की यह दिनचर्या एक-दो वर्ष नहीं, पूरे बीस वर्ष तक चली. यह बीस वर्ष उसके जीवन के बेहद संघर्षमयी और कठोर थे. इन वर्षों में उसने कई लोगों के हाथों दर्जनों बार जमकर पिटाई खाई, एक-दो बार उसकी पसलियाँ भी टूटीं. इन बीस वर्षों में अनुराधा ने क्या कमाया?? अनुराधा की इस “एकल तपस्या” के कारण जिस द्वीप पर सिर्फ गिनती के जानवर बचे रह गए थे, आज उन प्राणियों की संख्या हजार से ऊपर हो गई है. 1987 में इस द्वीप को भारतीय सेना ने अपने कब्जे में ले लिया, और इसी के साथ अनुराधा के कष्ट भरे दिन समाप्त हुए. भारतीय सेना ने न सिर्फ अनुराधा की समस्त योजनाओं और कल्पनाओं को ध्यान से सुना, बल्कि मदद भी की. सिर्फ और सिर्फ अनुराधा के कारण यह द्वीप और इसकी प्रकृति एवं इसका पारिस्थितिकी संतुलन बचा रहा. आज अनुराधा 51 वर्ष की हो चुकी हैं और वे यहाँ की आधिकारिक स्थलदर्शी (यानी गाईड) हैं... और सबसे लोकप्रिय गाईड हैं. लेकिन अनुराधा की कहानी यहीं पर समाप्त नहीं हुई है...

जब हम अनुराधा से भेंट करने रौस द्वीप पहुँचे तो वे इस द्वीप के इतिहास और प्रकृति के बारे में जानकारी देने लगीं. इतने में एक हिरन दिखाई दिया, उसे देखते ही अनुराधा ने जोर से पुकारा, “ए राजू... इधर आ”. हमारे आश्चर्य की उस समय सीमा नहीं थी, जब वह हिरन इतने सारे मनुष्यों की भीड़ के बावजूद चुपचाप अनुराधा के पास आकर खड़ा हो गया. अनुराधा उस हिरन से बातें करने लगी. सभी पर्यटक अनुराधा के साथ-साथ आगे चलने लगे और समूह बढ़ता गया. हमारे समूह में हिरन तो थे ही, खरगोश और मोर भी आए, कुछ पक्षी भी आए... अनुराधा उन सभी से आराम से बात करते चली जा रही थीं. जिस प्रकार हम अपने मित्रों-रिश्तेदारों के बारे में बताते हैं, ठीक वैसे ही अनुराधा उन पशु-पक्षियों की आदतों और स्वभाव के बारे में हमें बताने लगी. चलते-चलते बीच में ही उसने एक मोरनी को आवाज़ दी, “रेशमा, तेरा बच्चा तो बीमार था ना? किधर है दिखा?” और वह मोरनी अपने बच्चे को लेकर आई. अनुराधा ने मोर के बच्चे को टटोलकर देखा और कहा, “अरे? यह तो ज़ख़्मी है, जा उस वाले पेड़ के पत्ते का रस लगा दे”... घोर आश्चर्य कि सचमुच वह मोरनी इंगित पेड़ के पास गई और उसके पत्ते चबाने लगी. अचानक हमारी भीड़ के सिर के ऊपर से बुलबुलों का एक बड़ा सा झुण्ड उड़ता हुआ निकला. अनुराधा ने उन्हें भी एक विशिष्ट आवाज़ देकर बुलाया. कुछ पक्षी हमारे आजू-बाजू एकत्रित हो गए. फिर से अनुराधा ने कहा “जाओ, जा के बाकी दोस्तों को भी बुला लाओ, उनसे कहो अम्मा बुला रही है”. तत्काल दो पक्षी उड़े और आसपास से लगभग डेढ़ सौ बुलबुलों को लेकर आए. सारे पक्षी चुपचाप बैठे रहे तब अनुराधा ने उनसे कहा, “अभी ये नए लोग हैं, इन्होंने तुम्हें कभी नजदीक से देखा नहीं है... ये लोग तुम्हारे फोटो लेंगे, डरना नहीं हँ...” और तमाम देशी-विदेशी पर्यटकों को चमत्कृत करते हुए हम ने सभी पक्षियों को आराम से छुआ और एकदम पास से उनकी फोटो खींची.

ऐसी हैं अंडमान की अनुराधा, जितने पशु-पक्षी उसके आसपास मंडरा रहे थे, उनमें से किसी को भी उसने कोई प्रशिक्षण नहीं दिया है. परन्तु उनका आपसी “पारिवारिक बंधन” इतना मजबूत है कि वह उनकी भाषा समझती है और वे जानवर भी इसकी हिन्दी-अंग्रेजी समझ लेते हैं. सुनामी में अनुराधा का पूरा परिवार खत्म हो गया, तब से यही मोर-हिरन-खरगोश-बुलबुल ही उसका परिवार हैं. कम से कम पच्चीस बार ऐसा हुआ है कि इन पशु-पक्षियों को बचाने के लिए अनुराधा ने अपने प्राण खतरे में डाले हैं और अक्सर घायल हुई हैं. अनुराधा के कई ऑपरेशन हो चुके हैं, परन्तु उनकी इस दिनचर्या में एक दिन का भी खलल नहीं आया.

मैंने पूछा, “इतनी खराब तबियत के बावजूद आप यह कैसे कर लेती हैं?”

अनुराधा बोलीं – “वो जो ऊपर बैठा है ना, उससे मेरा बहुत बड़ा झगड़ा चल रहा है. मैंने उसे बोल दिया है कि अगर ये जानवर जिन्दा रखने हैं, तो मुझे मेरे पैरों पर खड़ा रहने दे, वर्ना बेशक मार दे मुझे... मेरा क्या है? आगे-पीछे कोई रोनेवाला नहीं है. मगर इन बेजुबानों का कोई नहीं है मेरे सिवा. बस तब से भगवान मुझे मारता नहीं... बचा ही लेता है कैसे भी..”  वहाँ से निकलते समय हमने उसे पाँच सौ रूपए दिए तो उसने थैंक्यू बोलकर चुपचाप रख लिए. हमारी देखादेखी, अन्य लोग भी उसे कुछ न कुछ देने लगे, तो उसने किसी से एक रुपया भी नहीं लिया, बोली – “इतने ज्यादा पैसे मैं नहीं ले सकती, पाँच सौ काफी हैं मेरे लिए.” कई बार तो मैं टूरिस्टों से पैसा लेती भी नहीं, हाँ, लेकिन कोई एमपी-एमेले आए तो छोडती नहीं साले को. गाईड बनके मनमर्जी के पैसे वसूल करती हूँ. हरामी रोज लूटते हैं हमें, कभी तो उनकी भी जेब ढीली करूँ..”  

पिछले महीने वो तुम्हारे ठाकरे का बच्चा आया था मुझसे मिलने के वास्ते... उसके पहले ही उसका PA आ धमका मेरे पास. बोलने लगा कि, - सुना है तुम किसी भी मिनिस्टर और पॉलिटिशियन को जो मन में आए बोल देती हो? हमारे साहब के सामने ऐसा मत करना हाँ!... मैं बोली, क्यूँ ना करु? अगर वह कुछ ग़लत बोलेगा तो मैं उसे नहीं छोडूँगी! बाद में जब उसका साहब आया तो मैंने उससे पूछा, तेरा पीए ऐसा बोल रहा था. तो वह बत्तीस दाँत दिखा के हँसने लगा! बोला, नहीं अम्मा जो तुमको ठीक लगे वहीं बोलो. छोडा नहीं मैंने उसको भी...

अपने जीवन के भूतकाल की कटु यादों के कारण अनुराधा सभी राजनेताओं की बातों पर उखड़ जाती है. हालाँकि वह एकदम मुंहफट है, परन्तु फिर भी एक व्यक्ति के लिए उसके मन में अगाध श्रद्धा भरी है. महाराष्ट्र से हजारों किमी दूर रहते हुए भी अनुराधा हमें बता रही थीं, कि – “जब दुनिया का अंत होता है ना, तब नई संस्कृति पनपती है... वे लोग जमीन खोदते हैं तो पिछली सभ्यता के कुछ बर्तन मिलते हैं, मूर्तियां मिलती हैं... वो लोग उन्हीं को भगवान मानकर पूजा करने लगते हैं. जब हमारी नस्ल खत्म हो जाएगी ना, तब आनेवाली नस्ल भी ऐसी ही खुदाई करेगी. उस मिट्टी से पता है कौन सा भगवान निकलेगा?? उस मिट्टी से निकलने वाले भगवान होंगे “वीर विनायक दामोदर सावरकर...”. जब वह नस्ल सावरकर जी को भगवान मानना शुरू कर देगी, बस तभी से धरती का स्वर्ग बनना शुरू हो जाएगा...

जिन सावरकर के गृहराज्य में ही उनकी ब्राह्मण जाति देखकर उनसे घृणा करने वाले नराधम रहते हों, वहाँ से हजारों किमी दूर एक द्वीप पर रहने वाली यह अनुराधा नाम की औरत सावरकर को भगवान मानते हुए हमें उनकी महिमा सुना रही थी. हमारी आँखों से आँसू निकलने लगे और कान सुन्न हो गए. उस क्षण हमें लगा कि हम कितने अज्ञानी हैं और यह संघर्षशील महिला कितनी महान आत्मा है... यह सामान्य मानव नहीं हो सकती, यह तो “द्वीपशिखा” है. अगली बार जब भी आप लोग अंडमान के दौरे पर जाएँ तो वहाँ अनुराधा और उसके “विशाल परिवार” से जरूर-जरूर मिलें... यह अदभुत अनुभव आप कभी भुला नहीं पाएँगे...

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(इस अदभुत सत्य घटना के मराठी में मूल लेखक हैं श्री विक्रम श्रीराम एडके. आप अहमदनगर (महाराष्ट्र) निवासी लेखक एवं व्याख्यानकार हैं...)

मूल मराठी लेख श्री विक्रम श्रीराम एडके के सौजन्य से...
(हिन्दी अनुवाद – सुरेश चिपलूणकर)

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