मंदिरों की प्राचीन व्यवस्था और आधुनिक लूट का अंतर

Written by शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017 08:02

हिंदू मंदिर सदा से ही समाज तथा भारतीय सभ्यता के केंद्रबिंदु के रूप में स्थापित रहे हैं। मंदिर आध्यात्मिक तथा अन्य धार्मिक गतिविधियों के साथ-साथ विविध प्रकार के समाजोपयोगी गतिविधियों के भी प्रमुख केंद्र रहे हैं।

इतिहास बताता है कि प्राचीन काल से लेकर अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी तक ये मंदिर ज्ञान-विज्ञान, कला आदि के साथ-साथ महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियों के संचालक तथा नियामक थे। भारत के आर्थिक इतिहास में मंदिरों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह तो हम आज भी देख सकते हैं कि हमारे मंदिर अकूत धन-सम्पदा के भंडार हैं। तिरूपति मंदिर की वार्षिक आय की बात हो या फिर प्राचीन पद्मनाभ मंदिर से मिला खजाना हो, मंदिरों में धन का प्रवाह तब से लेकर आज तक अविरल चलता आ रहा है।

प्राचीन तथा मध्यकाल में मंदिर बैंक की भूमिका भी निभाते रहे हैं। लोग मंदिरों में अपनी बहुमूल्य वस्तुएं तथा पैसा जमा करते थे। मंदिरों के प्रति अगाध निष्ठा तथा मंदिर के न्यासियों के द्वारा अपनी भूमिका का समुचित निर्वहन के कारण लोग अपनी जमा-पूंजी को वहां सबसे अधिक सुरक्षित समझते थे। व्यापारिक निगम भी मंदिरों के रख-रखाव तथा सुचारू रूप से सञचालन के लिए नियमित अंतराल पर दान देते रहते थे। राजा भी अपने कोष को मंदिर में सुरक्षित रखते थे तथा आपातकाल में मंदिरों से उधार भी लिया करते थे। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में देवताध्यक्ष का विधान किया है तथा मंदिरों की सम्पदा को राज सम्पदा के रूप में रखा है। आपातकाल में राजा उस सम्पदा का प्रयोग कर सकता था। (सिर्फ आपातकाल में)... मंदिर कृषि-विकास सिंचाई आदि के महत्वपूर्ण स्तम्भ थे। चोल और विजयनगर साम्राज्य में कृषि-विकास तथा सिंचाई योजना के लिए अलग से विभाग नहीं थे। ऐसी योजनायें मंदिरों तथा अन्य स्वतंत्रा इकाइयों द्वारा संचलित की जाती थी। इसी दौरान स्थानीय क्षेत्रों के विकास में मंदिरों द्वारा भूमिका निभाए जाने का वर्णन हमें अभिलेखों से प्राप्त होता है।

के वी रमण श्री वरदराजस्वामी मंदिर, कांची पर वर्ष 1975 के अपने शोध पत्रा में मंदिर को जमींदार के रूप में तथा निर्धनों को राहत पहुंचाने वाली संस्था के रूप में भी स्थापित करते हैं। बड़े मंदिर सैकड़ों लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान करते रहे हैं। के वी रमण अपने शोध पत्र में मंदिर से जुड़े राजमिस्त्री, कुम्हार, गाड़ीवान, मशालवाहक, रसोइयों तथा लुहारों की जुड़े रहने की बात करते हैं। सहस्रबाहु मंदिर से प्राप्त अभिलेख बड़े स्तर पर लकड़ी के काम करने वाले, अभियंताओं तथा अनेक प्रकार के लोगो की नियुक्ति को प्रमाणित करते हैं। इसी प्रकार आर नागास्वामी अपने शोधपत्र में दक्षिण भारतीय मंदिरों को प्रमुख नियोक्ता के रूप में स्थापित करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मंदिरों में केवल पूजा-पाठ ही नहीं हुआ करता थे, अन्य आर्थिक गतिविधियां भी चलती थीं। सिंथिया टैलबोट अपने शोधपत्र में दक्षिण भारतीय मंदिरों को शिल्पियों तथा कलाकारों को रोजगार प्रदान करने वाली तथा किसानों और चरवाहों को जमीन और ऋण प्रदान करने वाली संस्था के रूप में स्थापित करते हैं। मंदिरों की आय के प्रमुख स्रोत राजाओं, व्यापारियों तथा किसानों से प्राप्त होने वाला दान रहा है।

उल्लेखनीय है कि भारत कृषि और वाणिज्यप्रधान देश होने के साथ-साथ धर्मप्रधान देश भी है। यहाँ हर महीने कुछ ऐसे व्रत-त्यौहार होते हैं जिनमे सब लोग अपने सामर्थ्य के अनुरूप दान करते हैं। प्रख्यात आर्थिक इतिहासकार एग्नस मेडीसन के अनुसार प्राचीन काल से अट्ठारहवीं शताब्दी तक भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थअव्यवस्था रहा है। भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता रहा है। भारत में एक प्रचलित कहावत है ‘सबै भूमि गोपाल की’ अर्थात यहाँ लोग अपने को सम्पति का मालिक नहीं बल्कि उसका न्यासी अथवा देख रेख करने वाला मानते रहे हैं और अपनी इसी वृति के कारण दान भी बहुत उदारता से करते रहे हैं। इसके कारण मंदिरों में अकूत संपत्ति जमा होती गई।

मंदिरों को मिलने वाले दान में मुख्यतः जमीन, स्वर्ण आदि आभूषण तथा अनाज रहे हैं। साहित्य के अलावा अभिलेखों से भी हमें मंदिरों को मिलाने वाले दान की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। एम जी एस नारायणन और केशव वेलुठाट के अनुसार दक्षिण भारतीय मंदिर स्वर्ण, रजत तथा अन्य बहुमूल्य धातुओं के गोदाम बन चुके थे। राजा मंदिरों को दानस्वरुप जमीन या गाँव प्रदान करते थे जो मंदिरों की नियमित आय के साधन थे। दक्षिण भारत के एक-एक मंदिर के पास 150 से 300 गावों की जमींदारी थी। मंदिर प्रबंधन जमीन को किसानो को खेती करने के लिए जमीन देता था और उपज का एक निश्चित भाग हर फसल की उपज के बाद किसान से ले लेता था। यही मंदिरों की आय का एक नियमित तथा महत्वपूर्ण भाग था। भारतीय मंदिर अपने आय का बहुतांश कृषि विकास, सिंचाई योजनाओं तथा अन्य आर्थिक क्रियाओं में निवेश करते थे। तिरुपति मंदिर इसका एक प्रमुख उदहारण है जिसने विजयनगर साम्राज्य के काल में अनुदान के रूप में प्राप्त संसाधनों का प्रयोग कृषि के विकास के लिए किया था। तिरुपति मंदिर द्वारा सिंचाई योजनाओं को सुचारु रूप से चलाने में विजयनगर साम्राज्य से प्राप्त राजकीय अनुदान का महत्वपूर्ण योगदान था। वर्ष 1429 के एक अभिलेख के अनुसार विजयनगर सम्राट देवराय द्वितीय ने विक्रमादित्यमंगला नामक गाँव तिरुपति मंदिर को दान किया था जिसके राजस्व से मंदिर के धार्मिक कार्य सुचारू रूप से चलते रहे। बाद में 1495 में के रामानुजम अयंगार ने अपने कुल अनुदान 65 हजार पन्नम में से तेरह हजार पांच सौ पन्नम विक्रमादित्यमंगलम गाँव में सिंचाई योजना पर काम करने लिए दिया था।

इस प्रकार हम पाते हैं कि सिंचाई योजनाओं के माध्यम से कृषि योग्य भूमि का विकास भारतीय मंदिरों विशेषकर दक्षिण भारतीय मंदिरों के अनेक आर्थिक क्रियाकलापों में से एक था। अपने प्रभाव क्षेत्रा में हर मंदिर एक महत्वपूर्ण आर्थिक संस्था होता था। प्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार नीलकंठ शास्त्री के अनुसार मंदिर एक जमींदार, नियोक्ता, वस्तुओं तथा सेवाओं का उपभोक्ता तथा एक बैंक की भूमिका निभाता था। ग्यारहवीं सदी के एक अभिलेख के अनुसार शिक्षकों और पुजारियों के अतिरिक्त तंजौर मंदिर में 609 कर्मचारी कार्यरत थे। एक अन्य अभिलेख के अनुसार विजयनगर सम्राज्य के काल में तुलनात्मक रूप से एक छोटे मंदिर में 370 कर्मचारी कार्यरत थे। मंदिर स्थानीय उत्पादों के बड़े उपभोक्ता भी थे। अनेक अभिलेखों में इस बात के वर्णन हैं कि मंदिर व्यक्तिविशेष या ग्राम समाज को ऋण भी उपलब्ध कराता था तथा बदले में उनकी जमीन बंधक के रूप में रखता था। उसकी उपज ब्याज के रूप में प्रयोग करता था। इस प्रकार हम पाते हैं कि मंदिरों के अन्य स्थानीय इकाइयों से भी गहरे आर्थिक संबध थे, न केवल दान प्राप्तकर्ता के रूप में बल्कि जमींदार, नियोक्ता, उपभोक्ता, तथा ऋण प्रदान करने वाली एक सुदृढ़ आर्थिक संस्था के रूप में भी। मंदिर धार्मिक केंद्र होने के साथ-साथ मजबूत आर्थिक केंद्र भी थे। 

protect hindu temples from govt control 3 638

मंदिरों की इस संपत्ति की बर्बादी उस समय से शुरू हुई, जब से इन्हें "लोकतंत्र" के अधीन शासकीय कर दिया गया. देश के सभी प्रमुख मंदिरों में एक शासकीय ट्रस्ट कार्य करता है, जिसमें राजनेता, व्यापारी, बिल्डर और सरकारी उच्चाधिकारियों का समूह होता है. मंदिरों की संपत्ति के बारे में निर्णय लेते समय जैसी तत्कालीन शासन की मंशा होती है, उसी प्रकार यह ट्रस्ट अपना "अँगूठा" लगाता है. यह भी आवश्यक नहीं है की मंदिरों के ट्रस्ट में केवल हिन्दू ही शामिल होंगे, इस कारण कई बार विधर्मी भी इन ट्रस्टों में घुसपैठ कर जाते हैं. राजनेताओं की निगाह तो सदैव मंदिरों के धन पर गड़ी ही रहती है, जबकि शासकीय अधिकारियों को परम्पराओं, संस्कृति और मंदिरों की पवित्रता एवं नियमों की परवाह भी नहीं होती. इस प्रकार होता यह है कि हिन्दू जनता अपने भक्तिभाव एवं श्रद्धा से मंदिरों में लाखों-करोड़ों रूपए दान तो देती है, लेकिन उस धन का उपयोग कहाँ और कैसे किया जाए, इस पर हिन्दुओं का कोई नियंत्रण नहीं होता. सरकार पुजारियों को वेतन देकर तथा मंदिरों के प्रबंधन लायक पैसा छोड़कर बाकी का धन अपनी मर्जी से उपयोग कर सकती है. इस प्रकार मंदिरों में प्राचीन काल की व्यवस्था और वर्तमान व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन आ चूका है. विधर्मी यह आरोप लगाते हैं की मंदिरों पर ब्राह्मणों का कब्जा है, जबकि वास्तविकता यह है कि मंदिरों की सारी संपत्ति और जमीन पर सरकार का कब्ज़ा है. मजे की बात यह है कि आरोप लगाने वाले विधर्मी यह कभी नहीं बताते की देश की मस्जिदें और चर्च सरकार के अधीन नहीं हैं. उनमें आने वाला पैसा, चंदा और दान पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है. चर्चों और मस्जिदों की प्रबंधकीय समिति में कभी किसी हिन्दू को नहीं लिया जाता. इसी से सिद्ध हो जाता है कि सेकुलरिज्म नामक हथियार केवल हिन्दुओं के खिलाफ उपयोग किया जाता है और मंदिरों की धन-संपत्ति को फालतू के कार्यों में खर्च किया जाता है.

शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की तरह एक देशव्यापी केन्द्रीय मंदिर संस्था या बोर्ड होना चाहिए, जो देश के सभी मंदिरों की देखभाल और प्रबंधन करे. इस संस्था के चुनाव प्रत्येक चार वर्ष में लोकतांत्रिक पद्धति से हों तथा स्वाभाविक रूप से इस मंदिर बोर्ड में केवल हिन्दुओं को प्रवेश मिले. इस प्रस्तावित मंदिर बोर्ड में किसी भी राजनेता अथवा शासकीय अधिकारी को चुनाव लड़ने की पात्रता नहीं होनी चाहिए, तभी हिन्दुओं के मंदिर सही ढंग से प्रबंधित होंगे और "हिन्दुओं के पैसों का, हिन्दुओं द्वारा, हिन्दुओं के लिए" सही उपयोग हो सकेगा. 

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