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शुक्रवार, 30 जनवरी 2015 12:40
Why Islamists Love Communists
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लड़ाई से पहले कई गतिविधियाँ होती है. उसमें एक है शत्रु भूमि पर
अपने लिए कुछ अनुकूल मानसिकता तैयार करना. ताकि जब युद्ध की घोषणा हो तो सैनिकों
को शत्रुभूमि में प्रतिकार कम हो. इस के लिए कुछ अग्रिम दस्ते भेजे जाते हैं जो
शत्रु के लोगों में घुल मिल जाते हैं. या फिर स्थानिक हैं जिनको अपनी तरफ मोड़ा
जाता है. ये लोग प्रस्थापित सत्ता के प्रति असंतोष पैदा कर देते हैं ताकि जब युद्ध
शुरू हो तब स्थानिक प्रजा -कम से कम- प्रस्थापित सत्ता से सहकार्य तो न करें. इस से भी अधिक अपेक्षाएं होती हैं लेकिन
यह तो कम से कम.
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सत्ता की नींव कुरेद कुरेद कर खोखली करने में कम्युनिस्टों को महारत हासिल होती है. उनका एक ही नारा होता है – गरीबों का धन अमीरों की तिजोरियों में बंद है, आओ उन्हें तोड़ो, गरीबों में बांटो. बांटने के बाद नया कहाँ से लाये उसका उत्तर वे देते नहीं. रशिया और चाइना में कम्युनिज्म क्यों फेल हुआ उसका भी उत्तर उनके पास नहीं. खैर, मूल विषय से भटके नहीं, देखते हैं कि इस्लामिस्टों को कम्युनिस्ट क्यों अच्छे लगते हैं.
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सामाजिक विषमता को टार्गेट कर के कम्युनिस्ट अपने विषैले प्रचार से प्रस्थापित सत्ता के विरोध में जनमत तैयार करते हैं. चूंकि कम्युनिस्ट धर्महीन कहलाते हैं, उन्हें परधर्म कहकर उनका मुकाबला नहीं किया जा सकता. उनकी एक विशेषता है कि वे शत्रु का बारीकी से अभ्यास करते हैं, धर्म की त्रुटियाँ या प्रचलित कुरीतियाँ इत्यादि के बारे में सामान्य आदमी से ज्यादा जानते हैं. वाद में काट देते हैं. इनका धर्म न होने से श्रद्धा के परिप्रेक्ष्य से इन पर पलटवार नहीं किया जा सकता. इस तरह वे जनसमुदाय को एकत्र रखनेवाली ताक़त जो कि धर्म है, उसकी दृढ़ जडें काट देते हैं. समाज एकसंध नहीं रहता, बैर भाव में बिखरे खंड खंड हो जाते हैं.
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बिखरे समाज पर इस्लाम का खूंखार और सुगठित आक्रमण हो तो फिर प्रतिकार क्षीण पड़ जाता है. अगर यही इस्लाम सीधे धर्म पर आक्रमण करे तो धर्म के अनुयायी संगठित हो, लेकिन उन्हें बिखराने का काम यही कम्युनिस्ट कर चुके होते हैं. जो बिखरे हैं, उन्हें चुन चुन कर ख़त्म करना प्रमाण में आसान होता है.
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कम्युनिस्टों के वैचारिक सामर्थ्य को इस्लाम पहचानता है. इसलिए किसी इस्लामिक राष्ट्र में उन्हें रहने नहीं दिया जाता. जहाँ इस्लामी फंडामेंटालिस्टों ने सत्ता पायी वहां पहले इनका इस्तेमाल किया, और सत्ता में आते ही सब से पहले इनका ही सफाया किया .
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भारतीयों को अब सोचना है. वक़्त ज्यादा नहीं है. युवर टाइम डज नॉट स्टार्ट नॉऊ, इट हैज आलरेडी स्टार्टेड. लकीली, इट इज नॉट टू लेट . ACT NOW !
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सत्ता की नींव कुरेद कुरेद कर खोखली करने में कम्युनिस्टों को महारत हासिल होती है. उनका एक ही नारा होता है – गरीबों का धन अमीरों की तिजोरियों में बंद है, आओ उन्हें तोड़ो, गरीबों में बांटो. बांटने के बाद नया कहाँ से लाये उसका उत्तर वे देते नहीं. रशिया और चाइना में कम्युनिज्म क्यों फेल हुआ उसका भी उत्तर उनके पास नहीं. खैर, मूल विषय से भटके नहीं, देखते हैं कि इस्लामिस्टों को कम्युनिस्ट क्यों अच्छे लगते हैं.
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सामाजिक विषमता को टार्गेट कर के कम्युनिस्ट अपने विषैले प्रचार से प्रस्थापित सत्ता के विरोध में जनमत तैयार करते हैं. चूंकि कम्युनिस्ट धर्महीन कहलाते हैं, उन्हें परधर्म कहकर उनका मुकाबला नहीं किया जा सकता. उनकी एक विशेषता है कि वे शत्रु का बारीकी से अभ्यास करते हैं, धर्म की त्रुटियाँ या प्रचलित कुरीतियाँ इत्यादि के बारे में सामान्य आदमी से ज्यादा जानते हैं. वाद में काट देते हैं. इनका धर्म न होने से श्रद्धा के परिप्रेक्ष्य से इन पर पलटवार नहीं किया जा सकता. इस तरह वे जनसमुदाय को एकत्र रखनेवाली ताक़त जो कि धर्म है, उसकी दृढ़ जडें काट देते हैं. समाज एकसंध नहीं रहता, बैर भाव में बिखरे खंड खंड हो जाते हैं.
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बिखरे समाज पर इस्लाम का खूंखार और सुगठित आक्रमण हो तो फिर प्रतिकार क्षीण पड़ जाता है. अगर यही इस्लाम सीधे धर्म पर आक्रमण करे तो धर्म के अनुयायी संगठित हो, लेकिन उन्हें बिखराने का काम यही कम्युनिस्ट कर चुके होते हैं. जो बिखरे हैं, उन्हें चुन चुन कर ख़त्म करना प्रमाण में आसान होता है.
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कम्युनिस्टों के वैचारिक सामर्थ्य को इस्लाम पहचानता है. इसलिए किसी इस्लामिक राष्ट्र में उन्हें रहने नहीं दिया जाता. जहाँ इस्लामी फंडामेंटालिस्टों ने सत्ता पायी वहां पहले इनका इस्तेमाल किया, और सत्ता में आते ही सब से पहले इनका ही सफाया किया .
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भारतीयों को अब सोचना है. वक़्त ज्यादा नहीं है. युवर टाइम डज नॉट स्टार्ट नॉऊ, इट हैज आलरेडी स्टार्टेड. लकीली, इट इज नॉट टू लेट . ACT NOW !
[बिना किसी काट-छाँट और बदलाव के, Shri Anand Rajadhyaksh (श्री आनंद राजाध्यक्ष जी) की फेसबुक वाल से साभार कॉपी]
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ब्लॉग
शनिवार, 17 जनवरी 2015 12:06
Hawaizaada and Vaimaniki Shastra (Part 2)
हवाईजादा एवं वैमानिकी शास्त्र (भाग २)
पहले भाग (यहाँ क्लिक करके पढ़ें) से आगे जारी...
अमरांगण-सूत्रधार में 113 उपखंडों में इन
चारों विमान प्रकारों के बारे में पायलट ट्रेनिंग, विमान की उड़ान का मार्ग तथा इन
विशाल यंत्रों के भिन्न-भिन्न भागों का विवरण आदि बारीक से बारीक जानकारी दी गई
है. भीषण तापमान सहन कर सकने वाली सोलह प्रकार की धातुओं के बारे में भी इसमें
बताया गया है, जिसे चाँदी के साथ सही अनुपात में “रस” मिलाकर बनाया जाता है (इस “रस” शब्द के बारे में
किसी को पता नहीं है कि आखिर यह रस क्या है? कहाँ मिलता है या कैसे बनाया जाता
है). ग्रन्थ में इन धातुओं का नाम ऊष्णन्भरा, ऊश्नप्पा, राज्मालात्रित जैसे कठिन
नाम हैं, जिनका अंग्रेजी में अनुवाद अथवा इन शब्दों के अर्थ अभी तक किसी को समझ
में नहीं आए हैं. पश्चिम प्रेरित जो कथित बुद्धिजीवी बिना सोचे-समझे भारतीय
संस्कृति एवं ग्रंथों की आलोचना करते एवं मजाक उड़ाते हैं, उन्होंने कभी भी इसका
जवाब देने अथवा खोजने की कोशिश नहीं की, कि आखिर विमान शास्त्र के बारे में जो
इतना कुछ लिखा है क्या उसे सिर्फ काल्पनिकता कहकर ख़ारिज करना चाहिए?
1979 में आई एक और
पुस्तक “Atomic Destruction 2000”, जिसके लेखक
डेविड डेवनपोर्ट हैं, ने दावा किया कि उनके पास इस बात के पूरे सबूत हैं कि मोहन
जोदड़ो सभ्यता का नाश परमाणु बम से हुआ था. मोहन जोदड़ो सभ्यता पाँच हजार वर्ष
पुरानी सभ्यता थी, जो इतनी आसानी से खत्म होने वाली नहीं थी. लगभग डेढ़ किमी के
दायरे में अपनी खोज को जारी रखते हुए डेवनपोर्ट ने यह बताया कि यहाँ पर कोई न कोई
ऐसी घटना हुई थी जिसमें तापमान 2000 डिग्री तक पहुँच
गया था. मोहन जोदड़ो की खुदाई में मिलने वाले मानव अवशेष सीधे जमीन पर लेटे हुए
मिलते हैं, जो किसी प्राकृतिक आपदा की तरफ नहीं, बल्कि “अचानक आई हुई मृत्यु” की तरफ इशारा
करता है. मुझे पूरा विश्वास है कि यह परमाणु बम ही था. स्वाभाविक है कि जब पाँच
हजार साल पहले यह एक परमाणु बम आपदा थी, अर्थात उड़ने वाले कोई यंत्र तो होंगे ही.
डेवनपोर्ट आगे लिखते हैं कि चूँकि ऐसे प्रागैतिहासिक स्थानों पर उनकी गहन जाँच
करने की अनुमति आसानी से नहीं मिलती, इसलिए मुझे काम बन्द करना पड़ा, लेकिन
तत्कालीन रासायनिक विशेषज्ञों, भौतिकविदों तथा धातुविदों द्वारा मोहन जोदड़ो की और
गहन जाँच करना आवश्यक था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया और उस पर पर्दा डाल दिया गया.
एरिक वॉन डेनिकन अपनी बेस्टसेलर पुस्तक “चैरियट्स ऑफ गॉड्स (पृष्ठ 56-60) में लिखते हैं, “उदाहरण के तौर पर लगभग पाँच
हजार वर्ष पुरानी महाभारत के तत्कालीन कालखण्ड में कोई योद्धा किसी ऐसे अस्त्र के
बारे में कैसे जानता था, जिसे चलाने से बारह साल तक उस धरती पर सूखा पड़ जाता, ऐसा
कोई अस्त्र जो इतना शक्तिशाली हो कि वह माताओं के गर्भ में पलने वाले शिशु को भी
मार सके?” इसका अर्थ है कि
ऐसा कुछ ना कुछ तो था, जिसका ज्ञान आगे नहीं बढ़ाया गया, अथवा लिपिबद्ध नहीं हुआ और
गुम हो गया. यदि कुछ देर के लिए हम इसे “काल्पनिक” भी मान लें, तब भी महाभारत
काल में कोई योद्धा किसी ऐसे रॉकेटनुमा यंत्र के बारे में ही कल्पना कैसे कर सकता
है, जो किसी वाहन पर रखा जा सके और जिससे बड़ी जनसँख्या का संहार किया जा सके?
महाभारत के ही एक प्रसंग में ऐसे अस्त्र का भी उल्लेख है, जिसे चलाने के बाद धातु
की ढाल एवं वस्त्र भी पिघल जाते हैं, घोड़े-हाथी पागल होकर इधर-उधर दौड़ने लगते हैं,
रथों में आग लग जाती है और शत्रुओं के बाल झड़ने लगते हैं, नाखून गिरने लगते हैं.
यह किस तरफ इशारा करता है? क्या इसके बारे में शोध नहीं किया जाना चाहिए था? आखिर
वेदव्यास को यह कल्पनाएँ कहाँ से सूझीं? आखिर संजय किस तकनीक के सहारे धृतराष्ट्र
को युद्ध का सीधा प्रसारण सुना रहा था? अभिमन्यु ने सुभद्रा के गर्भ में चक्रव्यूह
भेदने की तकनीक सुभद्रा के जागृत अवस्था में रहने तक ही क्यों सुनी? (यह तो अब
वैज्ञानिक रूप से भी सिद्ध हुआ है कि गर्भस्थ शिशु सुन-समझ सकता है, फिर प्राचीन
ग्रंथों की खिल्ली उड़ाने का हमें क्या अधिकार है?).
एक और पश्चिमी लेखक जीआर जोसियर ने अपने एक लेख (The Pilot is one who knows the secrets) में वैमानिकी
शास्त्र से संबद्ध एक अन्य ग्रन्थ “रहस्य लहरी” से उद्धृत किया है कि
प्राचीन भारतीय वैमानिकी शास्त्र में पायलटों को बत्तीस प्रकार के रहस्य ज्ञात
होना आवश्यक था. इन रहस्यों में से कुछ का नाम इस प्रकार है – गूढ़, दृश्य, विमुख,
रूपाकर्षण, स्तब्धक, चपल, पराशब्द ग्राहक आदि. जैसा कि इन सरल संस्कृत शब्दों से
ही स्पष्ट हो रहा है कि यह तमाम रहस्य या ज्ञान पायलटों को शत्रु विमानों से
सावधान रहने तथा उन्हें मार गिराने के लिए दिए जाते थे. “शौनक” ग्रन्थ के अनुसार अंतरिक्ष
को पाँच क्षेत्रों में बाँटा गया था – रेखापथ, मंडल, कक्षाय, शक्ति एवं केन्द्र.
इसी प्रकार इन पाँच क्षेत्रों में विमानों की उड़ान हेतु 5,19,800 मार्ग निर्धारित किए गए थे. यह विमान सात
लोकों में जाते थे जिनके नाम हैं – भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महालोक, जनोलोक,
तपोलोक एवं सत्यलोक. जबकि “धुंडीनाथ एवं वाल्मीकी गणित” के अनुसार विमानों
के उड़ान मार्ग 7,03,00,800 निर्धारित किए गए
थे, जिसमें से “मंडल” में 20,08,00200 मार्ग, कक्षाय में 2,09,00,300 मार्ग, शक्ति में 10,01,300 मार्ग तथा केन्द्र में 30,08,200 मार्ग निर्धारित किए हुए.
लेख में ऊपर एक स्थान पर यह बात आई है कि संस्कृत एवं कहीं-कहीं
दूसरी गूढ़ भाषाओं में लिखे ग्रंथों की भाषा एवं रहस्य समझ नहीं आते, इसलिए यह
बोझिल एवं नीरस लगने लगते हैं, परन्तु उन शब्दों का एक निश्चित अर्थ था. एक
संक्षिप्त उदाहरण देकर यह लेख समाप्त करता हूँ. हम लोगों ने बचपन में “बैटरी” (डेनियल सेल) के
बारे में पढ़ा हुआ है, उसके “आविष्कारक”(?) और एम्पीयर तथा वोल्ट को
ही हम इकाई मानते आए हैं, परन्तु वास्तव में “बैटरी” की खोज सप्तर्षियों में से
एक महर्षि अगस्त्य हजारों वर्ष पहले ही कर चुके हैं. महर्षि ने “अगस्त्य संहिता” नामक ग्रन्थ लिखा
है. इन संस्कृत ग्रंथों के शब्दों को ण समझ पाने की एक मजेदार सत्य घटना इस प्रकार
है. राव साहब
कृष्णाजी वझे ने १८९१ में पूना से इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की। भारत में
विज्ञान संबंधी ग्रंथों की खोज के दौरान उन्हें उज्जैन में दामोदर त्र्यम्बक जोशी
के पास “अगस्त्य
संहिता” के कुछ पन्ने मिले। इस संहिता के पन्नों में उल्लिखित
वर्णन को पढ़कर नागपुर में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे डा. एम.सी. सहस्रबुद्धे को
आभास हुआ कि यह वर्णन डेनियल सेल से मिलता-जुलता है। अत: उन्होंने नागपुर में
इंजीनियरिंग के प्राध्यापक श्री पी.पी. होले को वह दिया और उसे जांचने को कहा।
महर्षि अगस्त्य ने अगस्त्य संहिता में विधुत उत्पादन से सम्बंधित सूत्रों में लिखा
:
संस्थाप्य
मृण्मये पात्रे
ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्।
छादयेच्छिखिग्रीवेन
चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्॥
ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्।
छादयेच्छिखिग्रीवेन
चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्॥
अर्थात एक
मिट्टी का पात्र (Earthen pot) लें, उसमें ताम्र पट्टिका (copper sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगायें, ऊपर पारा (mercury) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को
मिलाएंगे तो, उससे “मित्रावरुणशक्ति” (अर्थात
बिजली) का उदय होगा। अब थोड़ी सी हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हुई | उपर्युक्त
वर्णन के आधार पर श्री होले तथा उनके मित्र ने तैयारी चालू की तो शेष सामग्री तो
ध्यान में आ गई, परन्तु शिखिग्रीवा समझ में नहीं आया। संस्कृत
कोष में देखने पर ध्यान में आया कि “शिखिग्रीवा” याने मोर की
गर्दन। अत: वे और उनके मित्र बाग में गए, तथा वहां के प्रमुख से पूछा, क्या आप बता सकते हैं, आपके बाग में मोर कब मरेगा, तो उसने नाराज होकर कहा क्यों? तब उन्होंने कहा,
एक
प्रयोग के लिए उसकी गरदन की आवश्यकता है। यह सुनकर उसने कहा ठीक है। आप एक अर्जी
दे जाइये। इसके कुछ दिन बाद प्रोफ़ेसर साहब की एक आयुर्वेदाचार्य से बात हो रही थी।
उनको यह सारा घटनाक्रम सुनाया तो वे हंसने लगे और उन्होंने कहा, यहां शिखिग्रीवा का अर्थ “मोर की गरदन” नहीं अपितु
उसकी गरदन के रंग जैसा पदार्थ अर्थात कॉपर सल्फेट है। यह जानकारी मिलते ही समस्या
हल हो गई और फिर इस आधार पर एक सेल बनाया और डिजीटल मल्टीमीटर द्वारा उसको नापा।
परिणामस्वरूप 1.138 वोल्ट तथा 23 mA धारा वाली विद्युत उत्पन्न हुई। प्रयोग सफल
होने की सूचना डा. एम.सी. सहस्रबुद्धे को दी गई। इस सेल का प्रदर्शन ७ अगस्त, १९९० को स्वदेशी विज्ञान संशोधन संस्था
(नागपुर) के चौथे वार्षिक सर्वसाधारण सभा में अन्य विद्वानों के सामने हुआ।
आगे महर्षि
अगस्त्य लिखते है :
अनने
जलभंगोस्ति प्राणो
दानेषु वायुषु।
एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत:॥
दानेषु वायुषु।
एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत:॥
अर्थात सौ
कुंभों की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेंगे, तो पानी अपने
रूप को बदल कर प्राण वायु (Oxygen) तथा उदान वायु
(Hydrogen) में परिवर्तित
हो जाएगा।
आगे लिखते है:
वायुबन्धकवस्त्रेण
निबद्धो यानमस्तके
उदान : स्वलघुत्वे बिभर्त्याकाशयानकम्। (अगस्त्य संहिता शिल्प शास्त्र सार)
वायुबन्धकवस्त्रेण
निबद्धो यानमस्तके
उदान : स्वलघुत्वे बिभर्त्याकाशयानकम्। (अगस्त्य संहिता शिल्प शास्त्र सार)
उदान वायु (H2) को वायु प्रतिबन्धक वस्त्र (गुब्बारा) में रोका
जाए तो यह विमान विद्या में काम आता है। राव साहब वझे, जिन्होंने भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथ और प्रयोगों
को ढूंढ़ने में अपना जीवन लगाया, उन्होंने
अगस्त्य संहिता एवं अन्य ग्रंथों में पाया कि विद्युत भिन्न-भिन्न प्रकार से
उत्पन्न होती हैं, इस आधार पर उसके भिन्न-भिन्न नाम रखे गयें है:
(१) तड़ित् - रेशमी वस्त्रों के घर्षण से
उत्पन्न।
(२) सौदामिनी - रत्नों के घर्षण से उत्पन्न।
(३) विद्युत - बादलों के द्वारा उत्पन्न।
(४) शतकुंभी - सौ सेलों या कुंभों से उत्पन्न।
(५) हृदनि - हृद या स्टोर की हुई बिजली।
(६) अशनि - चुम्बकीय दण्ड से उत्पन्न।
(२) सौदामिनी - रत्नों के घर्षण से उत्पन्न।
(३) विद्युत - बादलों के द्वारा उत्पन्न।
(४) शतकुंभी - सौ सेलों या कुंभों से उत्पन्न।
(५) हृदनि - हृद या स्टोर की हुई बिजली।
(६) अशनि - चुम्बकीय दण्ड से उत्पन्न।
अगस्त्य
संहिता में विद्युत् का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating)
के
लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर
पालिश चढ़ाने की विधि निकाली। अत: महर्षि अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) भी कहते हैं।
आगे लिखा है:
कृत्रिमस्वर्णरजतलेप: सत्कृतिरुच्यते। -शुक्र नीति
कृत्रिमस्वर्णरजतलेप: सत्कृतिरुच्यते। -शुक्र नीति
यवक्षारमयोधानौ
सुशक्तजलसन्निधो॥
आच्छादयति तत्ताम्रं
स्वर्णेन रजतेन वा।
सुवर्णलिप्तं तत्ताम्रं
शातकुंभमिति स्मृतम्॥ ५ (अगस्त्य संहिता)
आच्छादयति तत्ताम्रं
स्वर्णेन रजतेन वा।
सुवर्णलिप्तं तत्ताम्रं
शातकुंभमिति स्मृतम्॥ ५ (अगस्त्य संहिता)
अर्थात्- कृत्रिम
स्वर्ण अथवा रजत के लेप को सत्कृति कहा जाता है। लोहे के पात्र में सुशक्त जल
अर्थात तेजाब का घोल इसका सानिध्य पाते ही यवक्षार (सोने या चांदी का नाइट्रेट)
ताम्र को स्वर्ण या रजत से ढंक लेता है। स्वर्ण से लिप्त उस ताम्र को शातकुंभ अथवा
स्वर्ण कहा जाता है।
उपरोक्त विधि
का वर्णन एक विदेशी लेखक David Hatcher Childress ने अपनी
पुस्तक " Technology of the Gods: The Incredible
Sciences of the Ancients" में भी लिखा है । अब मजे की बात यह है कि हमारे
ग्रंथों को विदेशियों ने हम से भी अधिक पढ़ा है । इसीलिए दौड़ में आगे निकल गये और
सारा श्रेय भी ले गये। आज हम विभवान्तर की इकाई वोल्ट तथा धारा की एम्पीयर लिखते
है जो क्रमश: वैज्ञानिक Alessandro Volta तथा André-Marie Ampère के नाम पर रखी गयी है | जबकि इकाई
अगस्त्य होनी चाहिए थी... जो “गुलाम बुद्धिजीवियों” ने होने नहीं
दी.
अब सवाल उठता है कि, यदि
प्राचीन भारतीय ज्ञान इतना समृद्ध था तो वह कहाँ गायब हो गया? पश्चिम के लोग उसी
ज्ञान पर शोध एवं विकास करके अपने आविष्कार क्यों और कैसे बनाते रहे? संस्कृत
ज्ञान एवं शिक्षा के प्रति इतनी उदासीनता क्यों बनी रही? इसके जवाब निम्नलिखित हैं
-
(अ) पहला यह कि, भारतीय संस्कृति इतिहास की
सर्वाधिक “ज़ख़्मी सभ्यता” रही है. मशहूर लेखक वीएस नायपॉल ने भी
इसे “India: A Wounded Civilization” माना है. तुर्क, मुग़ल, अंग्रेज और फिर कांग्रेस। हम निरंतर हमलो
के शिकार हुए हैं. जिससे संस्कृत एवं प्राचीन वैज्ञानिक विरासतें व विज्ञान संभल
पाना बेहद मुश्किल रहा होगा.
(आ)
दूसरा यह कि, भारतीय मनीषियों ने वेद आदि जो भी लिखे वह
श्रुति परम्परा के सहारे आगे बढ़ा. अब्राहमिक धर्मो की तरह “व्यवस्थित इतिहास लेखन” की परम्परा नहीं रही. यह भी एक कारण है
की हमारे नवोन्मेष/ आविष्कार नष्ट हो गये. इसलिए कुछ तो लिखित अवस्था में है, जबकि
कुछ सिर्फ कंठस्थ था, जो तीन-चार पीढ़ियों बाद स्वमेव नष्ट हो गया. रही-सही कसर
आक्रान्ताओं के हमलों, मंदिरों (जहाँ अधिकाँश ग्रन्थ रखे जाते थे) की लूटपाट एवं
नष्ट करने तथा नालन्दा जैसी विराट लाईब्रेरियों को जलाने आदि के कारण संभवतः यह
गायब हुए होंगे.
(इ)
तीसरा, सभी जानते हैं कि भारतीय समाज अध्यात्म उन्मुख रहा है. जिससे भौतिक
आविष्कारो के प्रति उदासीनता रही है. श्रेय लेना अथवा ज्ञान से “कमाई करना” स्वभाव में ही नहीं रहा.
(ई)
चौथा, जब सिर्फ 60 साल के सेकुलरी कांग्रेसी शासन में ही योग, संस्कृत, आयुर्वेद आदि विरासतों को दयनीय मुकाम पर
पहुंचाया जा सकता है, तो सैकड़ो वर्षों की विदेशी गुलामी की मारक
शक्ति का सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
(उ)
पांचवी बात - कॉपीराइट, पेटेंट जैसे चोंचलो से मुक्त होने के कारण
हमारी विरासतें यूरोप के मुल्को ने अपनी बपौती बना ली है. ये हालत आज भी है. (उदाहरण
हल्दी और नीम). सैकड़ो वर्षो पूर्व हमारे पूर्वजो ने कितना ज्ञान मुफ्त बांटा होगा
और कितना इन विदेशियो ने चुराया होगा वह कल्पना से परे है. सनातन सत्य ये है कि न तो पहले हमें
प्रतिभाओ की कदर थी, ना आज. वरना Brain Drain न होता!
कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि “वैमानिकी शास्त्र” एवं प्राचीन
ग्रंथों में भारतीय विमान विज्ञान की हँसी उड़ाने, खारिज करने एवं सत्य को
षड्यंत्रपूर्वक दबाने की कोशिशें बन्द होनी चाहिए एवं इस दिशा में गंभीर शोध
प्रयास किए जाने चाहिए. ज़ाहिर है कि यह कार्य पूर्वाग्रह से ग्रसित “गुलाम मानसिकता” वाले प्रगतिशील लेखक
नहीं कर सकते. इस विराट कार्य के लिए केन्द्र सरकार को ही महती पहल करनी होगी. जिन विद्वानों को भारतीय संस्कृति पर भरोसा है, संस्कृत में जिनकी आस्था है एवं जिनकी सोच अंग्रेजी अथवा मार्क्स की "गर्भनाल" से जुडी हुई ना हो, ऐसे लोगों के समूह बनाकर सभी प्रमुख ग्रंथों के बारे में शोध एवं तथ्यान्वेषण किया जाना चाहिए.
समाप्त...
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ब्लॉग
शुक्रवार, 16 जनवरी 2015 12:33
Hawaizaada and Vaimaniki Shastra - Ancient Indian Knowledge (Part 1)
“हवाईज़ादा” एवं वैमानिक
शास्त्र – कथित बुद्धिजीवियों में इतनी बेचैनी क्यों है?
(भाग - १)
जैसे ही यह निश्चित हुआ, कि मुम्बई में सम्पन्न होने वाली 102 वीं विज्ञान कांग्रेस में भूतपूर्व
फ्लाईट इंजीनियर एवं पायलट प्रशिक्षक श्री आनंद बोडस द्वारा भारतीय प्राचीन
विमानों पर एक शोधपत्र पढ़ा जाएगा, तभी यह तय हो गया था कि भारत में वर्षों से
विभिन्न अकादमिक संस्थाओं पर काबिज, एक “निहित स्वार्थी बौद्धिक समूह” अपने पूरे दमखम
एवं सम्पूर्ण गिरोहबाजी के साथ बोडस के इस विचार पर ही हमला करेगा, और ठीक वैसा ही
हुआ भी. एक तो वैसे ही पिछले बारह वर्ष से नरेंद्र मोदी इस “गिरोह” की आँखों में कांटे की तरह
चुभते आए हैं, ऐसे में यदि विज्ञान काँग्रेस का उदघाटन मोदी करने वाले हों, इस
महत्त्वपूर्ण आयोजन में “प्राचीन वैमानिकी
शास्त्र” पर आधारित कोई
रिसर्च पेपर पढ़ा जाने वाला हो तो स्वाभाविक है कि इस बौद्धिक गिरोह में बेचैनी
होनी ही थी. ऊपर से डॉक्टर हर्षवर्धन ने यह कहकर माहौल को और भी गर्मा दिया कि
पायथागोरस प्रमेय के असली रचयिता भारत के प्राचीन ऋषि थे, लेकिन उसका “क्रेडिट” पश्चिमी देश ले
उड़े हैं.
सेकुलरिज़्म, प्रगतिशीलता एवं वामपंथ के नाम पर चलाई जा रही यह “बेईमानी” कोई आज की बात
नहीं है, बल्कि भारत के स्वतन्त्र होने के तुरंत बाद से ही नेहरूवादी समाजवाद एवं
विदेशी सेकुलरिज़्म के विचार से बाधित वामपंथी इतिहासकारों, साहित्यकारों, लेखकों,
अकादमिक विशेषज्ञों ने खुद को न सिर्फ सर्वश्रेष्ठ के रूप में पेश किया, बल्कि
भारतीय इतिहास, आध्यात्म, संस्कृति एवं वेद-आधारित ग्रंथों को सदैव हीन दृष्टि से
देखा. चूँकि अधिकाँश पुस्तक लेखक एवं पाठ्यक्रम रचयिता इसी “गिरोह” से थे, इसलिए उन्होंने बड़े
ही मंजे हुए तरीके से षडयंत्र बनाकर, व्यवस्थित रूप से पूरी की पूरी तीन पीढ़ियों
का “ब्रेनवॉश” किया. “आधुनिक वैज्ञानिक
सोच”(?) के नाम पर प्राचीन
भारतीय ग्रंथों जैसे वेद, उपनिषद, पुराण आदि को पिछड़ा हुआ, अनगढ़, “कोरी गप्प” अथवा “किस्से-कहानी” साबित करने की
पुरज़ोर कोशिश चलती रही, जिसमें वे सफल भी रहे, क्योंकि समूची शिक्षा व्यवस्था तो
इसी गिरोह के हाथ में थी. बहरहाल, इस विकट एवं कठिन पृष्ठभूमि तथा हो-हल्ले एवं
दबाव के बावजूद यदि वैज्ञानिक बोडस जी विज्ञान काँग्रेस में प्राचीन वैमानिक
शास्त्र विषय पर अपना शोध पत्र प्रस्तुत कर पाए, तो निश्चित ही इसका श्रेय “बदली हुई सरकार” को देना चाहिए.
यहाँ पर सबसे पहला सवाल उठता है, कि क्या विरोधी पक्ष के इन “तथाकथित
बुद्धिजीवियों” द्वारा उस ग्रन्थ
में शामिल सभी बातों को, बिना किसी विचार के, अथवा बिना किसी शोध के सीधे खारिज
किया जाना उचित है? दूसरा पक्ष सुने बिना, अथवा उसके तथ्यों एवं तर्कों की
प्रामाणिक जाँच किए बिना, सीधे उसे नाकारा या अज्ञानी साबित करने की कोशिश में जुट
जाना “बौद्धिक
भ्रष्टाचार” नहीं है? निश्चित
है. यदि इन वामपंथी एवं प्रगतिशील लेखकों को ऐसा लगता है कि महर्षि भारद्वाज
द्वारा रचित “वैमानिकी शास्त्र” निहायत झूठ एवं
गल्प का उदाहरण है, तो भी कम से कम उन्हें इसकी जाँच तो करनी ही चाहिए थी. बोडस
द्वारा रखे गए विभिन्न तथ्यों एवं वैमानिकी शास्त्र में शामिल कई प्रमुख बातों को
विज्ञान की कसौटी पर तो कसना चाहिए था? लेकिन ऐसा नहीं किया गया. किसी दूसरे
व्यक्ति की बात को बिना कोई तर्क दिए सिरे से खारिज करने की “तानाशाही” प्रवृत्ति पिछले
साठ वर्षों से यह देश देखता आया है. “वैचारिक छुआछूत” का यह दौर बहुत लंबा चला है,
लेकिन अंततः चूँकि सच को दबाया नहीं जा सकता, आज भी सच धीरे-धीरे विभिन्न माध्यमों
से सामने आ रहा है... इसलिए इस “प्रगतिशील गिरोह” के दिल में असल बेचैनी इसी
बात की है कि जो “प्राचीन ज्ञान” हमने बड़े जतन से
दबाकर रखा था, जिस ज्ञान को हमने “पोंगापंथ” कहकर बदनाम किया था, जिन
विद्वानों के शोध को हमने खिल्ली उड़ाकर खारिज कर दिया था, जिस ज्ञान की भनक हमने
षडयंत्रपूर्वक नहीं लगने दी, कहीं वह ज्ञान सच्चाई भरे नए स्वरूप में दुनिया के
सामने न आ जाए. परन्तु इस वैचारिक गिरोह को न तो कोई शोध
मंजूर है, ना ही वेदों-ग्रंथों-शास्त्रों पर कोई चर्चा मंजूर है और संस्कृत भाषा
के ज़िक्र करने भर से इन्हें गुस्सा आने लगता है. यह गिरोह चाहता है कि “हमने जो कहा, वही सही है... जो हमने लिख दिया, या पुस्तकों में लिखकर बता
दिया, वही अंतिम सत्य है.. शास्त्रों या संस्कृत द्वारा इसे कोई चुनौती दी ही नहीं
जा सकती”. इतनी लंबी प्रस्तावना इसलिए
दी गई, ताकि पाठकगण समस्या के मूल को समझें, विरोधियों की बदनीयत को जानें और
समझें. बच्चों को पढ़ाया जाता है कि भारत की खोज वास्कोडिगामा ने की थी... क्यों?
क्या उससे पहले यहाँ भारत नहीं था? यह भूमि नहीं थी? यहाँ लोग नहीं रहते थे?
वास्कोडिगामा के आने से पहले क्या यहाँ कोई संस्कृति, भाषा नहीं थी? फिर
वास्कोडिगामा ने क्या खोजा?? वही ना, जो पहले से मौजूद था.
खैर... बात हो रही थी वैमानिकी शास्त्र की... सभी विद्वानों में कम से कम
इस बात को लेकर दो राय नहीं हैं कि महर्षि भारद्वाज द्वारा वैमानिकी शास्त्र लिखा
गया था. इस शास्त्र की रचना के कालखंड को लेकर विवाद किया जा सकता है, लेकिन इतना
तो निश्चित है कि जब भी यह लिखा गया होगा, उस समय तक हवाई जहाज़ का आविष्कार करने
का दम भरने वाले “राईट ब्रदर्स” की पिछली दस-बीस
पीढियाँ पैदा भी नहीं हुई होंगी. ज़ाहिर है कि प्राचीन काल में विमान भी था, दूरदर्शन भी था (महाभारत-संजय
प्रकरण), अणु बम (अश्वत्थामा प्रकरण) भी था, प्लास्टिक सर्जरी (सुश्रुत
संहिता) भी थी। यानी वह सब कुछ था, जो आज है, लेकिन सवाल तो यह
है कि वह सब कहां चला गया? ऐसा कैसे हुआ कि हजारों साल पहले जिन बातों की “कल्पना”(?) की गई थी, ठीक उसी प्रकार एक के बाद एक वैज्ञानिक आविष्कार हुए? अर्थात उस प्राचीन काल में उन्नत टेक्नोलॉजी तो मौजूद थी, वह किसी कारणवश लुप्त हो गई. जब तक इस बारे में पक्के प्रमाण सामने नहीं आते, उसे शेष विश्व द्वारा
मान्यता नहीं दी जाएगी. “प्रगतिशील एवं सेकुलर-वामपंथी गिरोह” द्वारा इसे वैज्ञानिक सोच
नहीं माना जाएगा, “कोरी गप्प” माना जाएगा... फिर सच्चाई जानने का तरीका क्या है? इन शास्त्रों का अध्ययन
हो, उस संस्कृत भाषा का प्रचार-प्रसार किया जाए, जिसमें ये शास्त्र या ग्रन्थ लिखे
गए हैं. चरक, सुश्रुत वगैरह की बातें किसी दूसरे लेख में करेंगे, तो आईये
संक्षिप्त में देखें कि महर्षि भारद्वाज लिखित “वैमानिकी शास्त्र” पर कम से कम विचार किया जाना आवश्यक क्यों है... इसको सिरे से खारिज क्यों
नहीं किया जा सकता.
जब भी कोई नया शोध या खोज होती है, तो उस आविष्कार का श्रेय
सबसे पहले उस “विचार” को दिया जाना
चाहिए, उसके बाद उस विचार से उत्पन्न हुई आविष्कार के सबसे पहले “प्रोटोटाइप” को महत्त्व दिया
जाना चाहिए. लेकिन राईट बंधुओं के मामले में ऐसा नहीं किया गया. शिवकर बापूजी
तलपदे ने इसी वैमानिकी शास्त्र का अध्ययन करके सबसे पहला विमान बनाया था, जिसे वे
सफलतापूर्वक 1500 फुट की ऊँचाई तक
भी ले गए थे, फिर जिस “आधुनिक विज्ञान” की बात की जाती है,
उसमें महर्षि भारद्वाज न सही शिवकर तलपदे को सम्मानजनक स्थान हासिल क्यों नहीं है?
क्या सबसे पहले विमान की अवधारणा सोचना और उस पर काम करना अदभुत उपलब्धि नहीं है?
क्या इस पर गर्व नहीं होना चाहिए? क्या इसके श्रेय हेतु दावा नहीं करना चाहिए? फिर
यह सेक्यूलर गैंग बारम्बार भारत की प्राचीन उपलब्धियों को लेकर शेष भारतीयों के मन
में हीनभावना क्यों रखना चाहती है?
अंग्रेज शोधकर्ता डेविड हैचर चिल्द्रेस ने अपने लेख Technology of the Gods – The Incredible Sciences of the
Ancients (Page 147-209) में लिखते हैं कि हिन्दू एवं बौद्ध
सभ्यताओं में हजारों वर्ष से लोगों ने प्राचीन विमानों के बारे सुना और पढ़ा है.
महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित “यन्त्र-सर्वस्व” में इसे बनाने की विधियों के
बारे में विस्तार से लिखा गया है. इस ग्रन्थ को चालीस उप-भागों में बाँटा गया है,
जिसमें से एक है “वैमानिक प्रकरण,
जिसमें आठ अध्याय एवं पाँच सौ सूत्र वाक्य हैं. महर्षि भारद्वाज लिखित “वैमानिक शास्त्र” की मूल प्रतियाँ
मिलना तो अब लगभग असंभव है, परन्तु सन 1952 में महर्षि
दयानंद के शिष्य स्वामी ब्रह्ममुनी परिव्राजक द्वारा इस मूल ग्रन्थ के लगभग पाँच
सौ पृष्ठों को संकलित एवं अनुवादित किया गया था, जिसकी पहली आवृत्ति फरवरी 1959 में गुरुकुल कांगड़ी से प्रकाशित हुई थी.
इस आधी-अधूरी पुस्तक में भी कई ऐसी जानकारियाँ दी गई हैं, जो आश्चर्यचकित करने
वाली हैं.
इसी लेख में डेविड हैचर लिखते हैं कि प्राचीन भारतीय विद्वानों
ने विभिन्न विमानों के प्रकार, उन्हें उड़ाने संबंधी “मैनुअल”, विमान प्रवास की
प्रत्येक संभावित बात एवं देखभाल आदि के बारे में विस्तार से “समर सूत्रधार” नामक ग्रन्थ में
लिखी हैं. इस ग्रन्थ में लगभग 230 सूत्रों एवं
पैराग्राफ की महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ हैं. डेविड आगे कहते हैं कि यदि यह सारी
बातें उस कालखंड में लिखित एवं विस्तृत स्वरूप में मौजूद थीं तो क्या ये कोरी गल्प
थीं? क्या किसी ऐसी “विशालकाय वस्तु” की भौतिक मौजूदगी
के बिना यह सिर्फ कपोल कल्पना हो सकती है? परन्तु भारत के परम्परागत इतिहासकारों
तथा पुरातत्त्ववेत्ताओं ने इस “कल्पना”(?) को भी सिरे से
खारिज करने में कोई कसर बाकी न रखी. एक और अंग्रेज लेखक एंड्रयू टॉमस लिखते हैं कि
यदि “समर सूत्रधार” जैसे वृहद एवं
विस्तारित ग्रन्थ को सिर्फ कल्पना भी मान लिया जाए, तो यह निश्चित रूप से अब तक की
सर्वोत्तम कल्पना या “फिक्शन उपन्यास” माना जा सकता है.
टॉमस सवाल उठाते हैं कि रामायण एवं महाभारत में भी कई बार “विमानों” से आवागमन एवं विमानों के
बीच पीछा अथवा उनके आपसी युद्ध का वर्णन आता है. इसके आगे मोहन जोदड़ो एवं हडप्पा
के अवशेषों में भी विमानों के भित्तिचित्र उपलब्ध हैं. इसे सिर्फ काल्पनिक कहकर
खारिज नहीं किया जाना चाहिए था. पिछले चार सौ वर्ष की गुलामी के दौर ने कथित
बौद्धिकों के दिलो-दिमाग में हिंदुत्व, संस्कृत एवं प्राचीन ग्रंथों के नाम पर ऐसी
हीन ग्रंथि पैदा कर दी है, उन्हें सिर्फ अंग्रेजों, जर्मनों अथवा लैटिनों का लिखा
हुआ ही परम सत्य लगता है. इन बुद्धिजीवियों को यह लगता है कि दुनिया में सिर्फ
ऑक्सफोर्ड और हारवर्ड दो ही विश्वविद्यालय हैं, जबकि वास्तव में हुआ यह था कि
प्राचीन तक्षशिला और नालन्दा विश्वविद्यालय जहाँ आक्रान्ताओं द्वारा भीषण
अग्निकांड रचे गए अथवा सैकड़ों घोड़ों पर संस्कृत ग्रन्थ लादकर अरब, चीन अथवा यूरोप
ले जाए गए. हाल-फिलहाल इन कथित बुद्धिजीवियों द्वारा बिना किसी शोध अथवा सबूत के
संस्कृत ग्रंथों एवं लुप्त हो चुकी पुस्तकों/विद्याओं पर जो हाय-तौबा मचाई जा रही
है, वह इसी गुलाम मानसिकता का परिचायक है.
इन लुप्त हो चुके शास्त्रों, ग्रंथों एवं अभिलेखों की पुष्टि
विभिन्न शोधों द्वारा की जानी चाहिए थी कि आखिर यह तमाम ग्रन्थ और संस्कृत की
विशाल बौद्धिक सामग्री कहाँ गायब हो गई? ऐसा क्या हुआ था कि एक बड़े कालखण्ड के कई
प्रमुख सबूत गायब हैं? क्या इनके बारे में शोध करना, तथा तत्कालीन ऋषि-मुनियों एवं
प्रकाण्ड विद्वानों ने यह “कथित कल्पनाएँ” क्यों की होंगी? कैसे की
होंगी? उन कल्पनाओं में विभिन्न धातुओं के मिश्रण अथवा अंतरिक्ष यात्रियों के
खान-पान सम्बन्धी जो नियम बनाए हैं वह किस आधार पर बनाए होंगे, यह सब जानना जरूरी
नहीं था? लेकिन पश्चिम प्रेरित इन इतिहासकारों ने सिर्फ खिल्ली उड़ाने में ही अपना
वक्त खराब किया है और भारतीय ज्ञान को बर्बाद करने की सफल कोशिश की है.
ऑक्सफोर्ड विवि के ही एक संस्कृत प्रोफ़ेसर वीआर रामचंद्रन दीक्षितार
अपनी पुस्तक “वार इन द
एन्शियेंट इण्डिया इन 1944” में लिखते हैं कि
आधुनिक वैमानिकी विज्ञान में भारतीय ग्रंथों का महत्त्वपूर्ण योगदान है. उन्होंने
बताया कि सैकड़ों गूढ़ चित्रों द्वारा प्राचीन भारतीय ऋषियों ने पौराणिक विमानों के
बारे में लिखा हुआ है. दीक्षितार आगे लिखते हैं कि राम-रावण के युद्ध में जिस “सम्मोहनास्त्र” के बारे में लिखा
हुआ है, पहले उसे भी सिर्फ कल्पना ही माना गया, लेकिन आज की तारीख में जहरीली गैस
छोड़ने वाले विशाल बम हकीकत बन चुके हैं. पश्चिम के कई वैज्ञानिकों ने प्राचीन
संस्कृत एवं मोड़ी लिपि के ग्रंथों का अनुवाद एवं गहन अध्ययन करते हुए यह निष्कर्ष
निकाला है कि निश्चित रूप से भारतीय मनीषियों/ऋषियों को वैमानिकी का वृहद ज्ञान
था. यदि आज के भारतीय बुद्धिजीवी पश्चिम के वैज्ञानिकों की ही बात सुनते हैं तो
उनके लिए चार्ल्स बर्लित्ज़ का नाम नया नहीं होगा. प्रसिद्ध पुस्तक “द बरमूडा ट्राएंगल” सहित अनेक
वैज्ञानिक पुस्तकें लिखने वाले चार्ल्स बर्लित्ज़ लिखते हैं कि, “यदि आधुनिक परमाणु
युद्ध सिर्फ कपोल कल्पना नहीं वास्तविकता है, तो निश्चित ही भारत के प्राचीन
ग्रंथों में ऐसा बहुत कुछ है जो हमारे समय से कहीं आगे है”. 400 ईसा पूर्व लिखित “ज्योतिष” ग्रन्थ में ब्रह्माण्ड में
धरती की स्थिति, गुरुत्वाकर्षण नियम, ऊर्जा के गतिकीय नियम, कॉस्मिक किरणों की
थ्योरी आदि के बारे में बताया जा चुका है. “वैशेषिका ग्रन्थ” में भारतीय विचारकों ने
परमाणु विकिरण, इससे फैलने वाली विराट ऊष्मा तथा विकिरण के बारे में अनुमान लगाया
है. (स्रोत :- Doomsday 1999 – By Charles Berlitz, पृष्ठ 123-124).
इसी प्रकार कलकत्ता संस्कृत कॉलेज के संस्कृत प्रोफ़ेसर दिलीप
कुमार कांजीलाल ने 1979 में Ancient Astronaut Society की म्यूनिख
(जर्मनी) में सम्पन्न छठवीं काँग्रेस के दौरान उड़ सकने वाले प्राचीन भारतीय
विमानों के बारे में एक उदबोधन दिया एवं पर्चा प्रस्तुत किया था (सौभाग्य से उस
समय वहाँ सतत खिल्ली उड़ाने वाले, आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवी नहीं थे). प्रोफ़ेसर
कांजीलाल के अनुसार ईसा पूर्व 500 में “कौसितकी” एवं “शतपथ ब्रह्मण” नामक कम से कम दो
और ग्रन्थ थे, जिसमें अंतरिक्ष से धरती पर देवताओं के उतरने का उल्लेख है.
यजुर्वेद में उड़ने वाले यंत्रों को “विमान” नाम दिया गया, जो “अश्विन” उपयोग किया करते
थे. इसके अलावा भागवत पुराण में भी “विमान” शब्द का कई बार उल्लेख हुआ
है. ऋग्वेद में “अश्विन देवताओं” के विमान संबंधी
विवरण बीस अध्यायों (1028 श्लोकों) में
समाया हुआ है, जिसके अनुसार अश्विन जिस विमान से आते थे, वह तीन मंजिला, त्रिकोणीय
एवं तीन पहियों वाला था एवं यह तीन यात्रियों को अंतरिक्ष में ले जाने में सक्षम
था. कांजीलाल के अनुसार, आधे-अधूरे स्वरूप में हासिल हुए वैमानिकी संबंधी इन
संस्कृत ग्रंथों में उल्लिखित धातुओं एवं मिश्रणों का सही एवं सटीक अनुमान तथा
अनुवाद करना बेहद कठिन है, इसलिए इन पर कोई विशेष शोध भी नहीं हुआ. “अमरांगण-सूत्रधार” ग्रन्थ के अनुसार
ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर एवं इंद्र के अलग-अलग पाँच विमान थे. आगे चलकर अन्य
ग्रंथों में इन विमानों के चार प्रकार रुक्म, सुंदरा, त्रिपुर एवं शकुन के बारे
में भी वर्णन किया गया है, जैसे कि “रुक्म” शंक्वाकार विमान था जो
स्वर्ण जड़ित था, जबकि “त्रिपुर विमान” तीन मंजिला था.
महर्षि भारद्वाज रचित “वैमानिकी शास्त्र” में यात्रियों के
लिए “अभ्रक युक्त” (माएका) कपड़ों के
बारे में बताया गया है, और जैसा कि हम जानते हैं आज भी अग्निरोधक सूट में माईका
अथवा सीसे का उपयोग होता है, क्योंकि यह ऊष्मारोधी है.
भारत के मौजूदा मानस पर पश्चिम का रंग कुछ इस कदर चढ़ा है कि हममें से
अधिकांश अपनी खोज या किसी रचनात्मक उपलब्धि पर विदेशी ठप्पा लगते देखना चाहते हैं.
इसके बाद हम एक विशेष गर्व अनुभव करते हैं. ऐसे लोगों के लिए मैं प्राचीन भारतीय
विमान के सन्दर्भ में एरिक वॉन डेनिकेन की खोज के बारे में बता रहा हूँ उससे पहले
एरिक वॉन डेनिकेन का परिचय जरुरी है. 79 वर्षीय डेनिकेन एक
खोजी और बहुत प्रसिद्ध लेखक हैं. उनकी लिखी किताब 'चेरिएट्स ऑफ़ द गॉड्स' बेस्ट सेलर रही
है. डेनिकेन की खूबी हैं कि उन्होंने प्राचीन इमारतों और स्थापत्य कलाओं का गहन अध्ययन
किया और अपनी थ्योरी से साबित किया है कि पूरे विश्व में प्राचीन काल में एलियंस
(परग्रही) पृथ्वी पर आते-जाते रहे हैं. एरिक वॉन डेनिकेन 1971 में भारत में कोलकाता गए थे. वे अपनी 'एंशिएंट एलियंस थ्योरी' के लिए वैदिक संस्कृत में कुछ तलाशना चाहते
थे. डेनिकेन यहाँ के एक संस्कृत कालेज में गए. यहाँ उनकी मुलाकात इन्हीं प्रोफ़ेसर
दिलीप कंजीलाल से हुई थी. प्रोफ़ेसर ने प्राचीन भारतीय ग्रंथों का आधुनिकीकरण किया
है. देवताओं के विमान यात्रा वृतांत ने वोन को खासा आकर्षित किया. वोन ने माना कि
ये वैदिक विमान वाकई में नटबोल्ट से बने असली एयर क्राफ्ट थे. उन्हें हमारे
मंदिरों के आकार में भी विमान दिखाई दिए. उन्होंने जानने के लिए लम्बे समय तक शोध
किया कि भारत में मंदिरों का आकार विमान से क्यों मेल खाता है? उनके मुताबिक भारत
के पूर्व में कई ऐसे मंदिर हैं जिनमे आकाश में घटी खगोलीय घटनाओ का प्रभाव साफ़
दिखाई देता है. वॉन के मुताबिक ये खोज का विषय है कि आख़िरकार मंदिर के आकार की
कल्पना आई कहाँ से? इसके लिए विश्व के पहले मंदिर की खोज जरुरी हो जाती है और उसके
बाद ही पता चल पायेगा कि विमान के आकार की तरह मंदिरों के स्तूप या शिखर क्यों
बनाये गए थे? हम आज उसी उन्नत तकनीक की तलाश में जुटे हैं जो कभी भारत के पास हुआ
करती थी.
चूँकि यह लेख एक विस्तृत विषय पर है, इसलिए इसे दो भागों में पेश करने जा रहा हूँ... शेष दूसरे भाग में... जल्दी ही... नमस्कार.
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ब्लॉग
बुधवार, 07 जनवरी 2015 13:37
Non-Translatable Sanskrit Words of Indian Culture
संस्कृत शब्दों का अनुचित अंग्रेजी अनुवाद
डॉक्टर राजीव मल्होत्रा की एक अतिशय उम्दा पुस्तक है "Being Different", अर्थात "विभिन्नता". संक्षेप में कहूँ तो "हम अलग हैं" (अथवा सनातन धर्म दूसरों से अलग क्यों है) को इसमें बेहतरीन पद्धति से समझाया गया है. सौभाग्य से इस पुस्तक के अनुवाद का मौका मुझे मिल सका. चूँकि राजीव जी की पुस्तक बेहद विस्तृत मंच पर, गहन शोध एवं अध्ययन पर आधारित है, ज़ाहिर है कि कहीं-कहीं भाषा क्लिष्ट हो गई है. परन्तु लगभग उसी "थीम" से सम्बन्धित आनंद कुमार जी का यह फेसबुक नोट, नए विद्यार्थियों को सनातन शब्दों के मूल अर्थ समझाने के लिए आसान है... संस्कृत के कई शब्दों का अंग्रेजी अनुवाद किया ही नहीं जा सकता. इसे पढ़िए और समझिए कि Why we are DIFFERENT...
किसी विदेशी को कभी रसगुल्ले का स्वाद समझाने बैठ जाइये | क्या समझायेंगे ? मीठा होता है | वो पूछेगा कैसा मीठा ? चीनी जैसा, केक जैसा, सेब जैसा ? फिर आप समझायेंगे छेना एक चीज़ होती है जो दूध से बनाते है वैसा | वो फिर परेशान होगा, पनीर जैसा, चीज़ जैसा, बटर जैसा? ऐसे में समझाने का एक ही तरीका होता है की आप उसे रसगुल्ला चखा दें | बताने में रसगुल्ले का अनुभव खो जाता है | रसगुल्ला मुलायम है ये आप छु के महसूस करते हैं उसका स्वाद फिर महसूस करते हैं किसी दूसरी इन्द्रिय से | अगर एक तीसरी ही इन्द्रिय यानि की सुनने के जरिये आप दो – दो का काम लेना चाहेंगे तो काम जरा मुश्किल होगा |
ऐसा ही कुछ हमारे धर्म के साथ है | धर्म का अनुवाद हो जाता है Religion, जो की धर्म को आधा अधूरा सा समझाता है | जैसे धर्म पिता भी कहना हिंदी में सही होगा, लेकिन इसका अनुवाद Religious Father तो नहीं कर सकते ? वैसे ही किसी धार्मिक व्यक्ति को religious कह देने से किसी कर्म – कांडी तिलक लगाये ब्राम्हण वाली सी तस्वीर आती है दिमाग में, यहाँ Pious कहना थोड़ा ज्यादा सही अर्थ समझाता है | कमी फिर भी रह जाती है, जैसा सौम्य, हँसता मुस्कुराता सा धार्मिक व्यक्ति मन में आता है वैसा Religious या Pious नहीं होता | यहीं से असली समस्या हमारे रीती-रिवाज़ों और धार्मिक मान्यताओं को समझने की शुरू होती है |
कुछ 200 साल पहले जब संस्कृत ग्रंथों का अंग्रेजी अनुवाद शुरू हुआ तो संस्कृत के शब्दों के लिए अंग्रेजी के सबसे करीबी शब्द इस्तेमाल कर लिए गए | ये तरीका ही गलत था, या तो संस्कृत के शब्दों का ही सीधा इस्तेमाल होना चाहिए था या फिर नए शब्द बनाये जाने थे इनके लिए | आगे के लेखक और उन्ही अनुवादों को पढ़कर बने तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग के लिए गलत सीखना एक नियति बन गई |
जैसे की विद्या हमेशा से भारत में दान की वस्तु रही है, अब दान शब्द को भीख या Alms, Charity, Donation जैसे शब्दों से समझा ही नहीं जा सकता | दान के साथ सबसे महत्वपूर्ण होता है की ये उचित पात्र को दिया जाए | जो वस्तु दी जा रही है उसमे किसी किस्म की कमी या कोई खोटनहीं हो | आप अपना पुराना स्वेटर या पुराने कपड़े किसी को दे कर उसे दान नहीं कह सकते | ऐसे ही अगर हम अपने मित्रों या अन्य रिश्तेदारों को भगवतगीता दे दें और उनकी उसे पढ़ने में रूचि ही न हो तो भी उसे दान नहीं कहेंगे | दान में गाय देने की परंपरा का यही कारण रहा है की दान पाने वाला व्यक्ति एक तो दूध से लाभ पाए लेकिन साथ ही गाय को पालने के लिए श्रम भी करे | फिर एक पूज्य मानने की परंपरा रही है गाय को, तो दान में मिली गाय का उचित सम्मान भी होगा | संस्कृत भी ऐसे ही दान स्वरुप अन्य भाषाविदों को सिखाई गई होगी | भाषा का उचित सम्मान हुआ या नहीं इसे बाद की चर्चा के लिए छोड़ते हुए आइये कुछ और शब्दों को देखते हैं |
एक और शब्द जो अध्यात्म में अक्सर प्रयुक्त होता है वो है “आत्मा” | अजर, अमर, अविनाशी, आदि विशेषण इसके साथ अक्सर ही जुड़े हुए पाए जायेंगे | इसके लिए जो अंग्रेजी शब्द प्रयोग किया जाता है, वो है Soul जो की गलत है | Soul शब्द से प्राण कहने जैसा अनुभव तो आएगा, लेकिन उस से आत्मा का बोध नहीं होता | जैसे हम अपने प्रिय सभी लोगों को “आत्मीय” कह सकते हैं लेकिन अंग्रेजी का Soul mate सिर्फ़ पति-पत्नी ही एक दुसरे के लिए इस्तेमाल करेंगे| “आत्मा” की तरह Soul अनेक जन्मों तक अपने कर्म का बोझ भी नहीं ढोती, जैसे ही इस शरीर से मुक्त हुए Soul का काम भी ख़त्म हो गया |
भारत के तैतीस करोड़ देवी देवताओं के होने का भेद भी यहाँ से देखा जा सकता है | “सप्त कोटि बुद्ध” को मान्यता देने की परंपरा बौद्ध धर्म के अनुयायियों में रही है | जब बौद्ध धर्म चीन में पहुंचा और वहां बाद में अंग्रेजी में भी अनुवादित होने लगा तो वहां भी Seven Crore Buddha की समस्या आई थी | लेकिन तिब्बत प्रान्त वहां पास ही था और चीनी हमारी तरह सहिष्णु भी नहीं होते | उसके अलावा उन्होंने उतनी लम्बी गुलामी नहीं झेली थी जितनी की भारतियों ने, इसलिए तुरंत ही इसका विरोध हुआ और आज सात करोड़ बुद्ध नहीं “सप्त कोटि बुद्ध” ही मान्य है | भारत में प्रबुद्ध बुद्धिजीवी वर्ग अपनी दास मानसिकता को कभी त्याग नहीं पाया | बारह आदित्य, ग्यारह रूद्र, आठवसु इन्हें उत्पन्न करने वाले प्रजापति ब्रह्म और सर्वशक्तिमान परमेश्वर को मिलाकर तैंतीस अलग अलग कोटि यानि की श्रेणी दी गई हैं जिसमे अपने कृत्यों के अनुसार पूजनीय का वर्गीकरण किया जाता है (Satapatha-brahmana 4.5.7.2) | ये लेकिन अभी भी 33 करोड़ कहकर ही भारतीय देवताओं की गिनती की जाती है |
नाम की बात आई है तो “शिव” को विनाश का, “ब्रह्मा” को जन्म देने का और “विष्णु” का पालन का कर्तव्य निर्धारित है | लेकिन यहाँ भी अर्थ में भेद होता है | हर एक अलग अलग समय में अलग अलग कोटि में चला जाता है | जैसे शिव के डमरू के स्वर से ही “माहेश्वरसूत्र” निकले है, जिन पर पूरा व्याकरण आधारित है | नृत्य और संगीत की शुरुआत भी नटराज से ही हुई मानी जाती है | दरअसल Deconstruction भौतिकी (Physics) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है, इसका अर्थ छोटे हिस्सों में तोड़कर किसी चीज़ को समझना होता है | हर बार विनाश उद्देश्य नहीं होता लेकिन आज शिव को आप विनाश का देवता मानते हैं | जबकि शिव शब्द ही “शव” और “ई” से बना है, इनका क़रीबी मतलब होता है Mass और Energy जो सबसे करीब से “Physics is science dealing with mass and energy and the phenomena related to it” के जरिये समझा जा सकता है | सीधा कोई करीबी अंग्रेजी शब्द उठा कर विनाश का देवता बना देने पर होने वाली बड़ी गलती !
ऐसे ही हिंदी या संस्कृत में इस्तेमाल होने वाले साधू, संत, ऋषि, सन्यासी या योगी के लिए Prophet या फिर Saint शब्द का इस्तेमाल होता है | Saint रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा दी जाने वाली एक उपाधी की तरह है | हमारे धर्म में किसी को संत, या योगी घोषित कर देने की कोई परंपरा नहीं है, ना ही कोई संस्था है जो ऐसा कर सके | Saint बीमारों को किसी दैवीय शक्ति द्वारा ठीक कर देने के लिए भी जाने जाते हैं, अगस्त्य, विश्वामित्र, सप्त ऋषि कोई भी ऐसे चमत्कारों के लिए नहीं जाने जाते | योगी भी बरसों की योग साधना से व्यक्ति अपने आप को बनाता है, आप किसी को योगी की उपाधी नहीं दे सकते | जैसे सीधा चर्च से बह के Religion एक धारा की तरह आ जाती है वैसे हमारे पास नहीं होता | अलग अलग स्थान, अलग अलग परिवेश से उठकर कोई भी स्थापित परम्पराओं को चुनौती दे सकता है | अष्टावक्र भी होते हैं, व्यास भी, नारद भी यहाँ भक्ति सिखाते हैं तो ऐतरेय भी ब्राम्हणों की रचना करते हैं |
आज की अंग्रेजी देखें तो ऐसे शब्दों का समावेश होने लगा है | Pundit का सीधा सीधा अंग्रेजी में मतलब होता है किसी विषय का विशेषज्ञ, पुरानी अंग्रेजी में किसी पोंगा पंथी को पण्डित कह दिया करते थे | अवतार के अर्थों में कभी नबी तो कभी Jeasus भी कह दिया जाता था | आज Avatar अंग्रेजी का भी एक शब्द है, और निराकार को एक रूप, शरीर की सीमाओं में बांधना उसका अर्थ निकलता है |
एक जगह जहाँ काम अभी भी बाकि रहता है वो है जाति या वर्ण को Caste कह देना | इस से भारतीय समाज का जितना नुकसान हुआ है वो शायद ही किसी अन्य शब्द ने किया होगा| वर्ण का एक अर्थ रंग भी होता है, लेकिन भारतीय समाज में रंग के आधार पर भेद भाव का कोई प्रमाण अभी तक प्रस्तुत नहीं किया जा सका है | तो वर्ण व्यवस्था को किसी किस्म के भेदभाव का आधार मान लेना अनुचित होगा | ऐसे ही जाति को सीधा सीधा अंग्रेजी का caste कहना भी ठीक नहीं है | किसी और समय में किसी और समाज में ये किसी और तरीके से प्रयोग में लायी जा रही थी | इसके अधकचरे ज्ञान को एक शब्द में ढाल कर भारतीय समाज के चेहरे पे कालिख मल दी गई है |
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साभार :- आनंद कुमार
Published in
ब्लॉग
शनिवार, 03 जनवरी 2015 12:26
Secular and Sanatan Haveli
जर्जर होती सनातन "हवेली"
गाँव में एक बहुत बड़ी हवेली थी , या यूं कहें हवेली बसी उसके बाद ही पूरा गाँव बसा , हवेली के दूरदृष्टा पूर्वजों ने पूरे गाँव में महान परम्पराएँ बसाई , भाषाएँ विकसित की , इंसानों जैसा जीना सिखाया , वैज्ञानिक सोच दी , पर जैसे हर गाँव में होता है , दो चार घर काले धंधे कर बढे हो गए , मंजिलें चढ़ गयीं , मोटर साइकल आई , ट्रेक्टर आया , फ़ोन आ गया , पर पैसे से कभी अकल आते देखि है ? वो वहीँ की वहीँ रही, सोच वही दकियानूसी कबीलाई , हवेली अब इन "नवधनाढ्यों" को आँखों में चुभने लगी , "जब तक ये हवेली रहेगी तब तक गाँव हमारा इतिहास याद रखेगा " , ऐसी भावना घर करने लगी , गाँव में वर्चस्व स्थापित करने का एक ही रास्ता है , हवेली को ख़त्म करो , बर्बाद करो !!
अब साजिशें शुरू हुईं , बच्चों के खेलने के नाम पर पहले हवेली की बाउंड्री वाल तोड़ी गयी , हवेली में थोड़ी बहस हुई तो बड़ों ने कहा "हम इतने दकियानूस हो गए हैं की बच्चों को खेलने की जगह भी ना दे सकें ? जब बाउंड्री वॉल टूट गयी तो आहिस्ता से मनचलों ने हवेली का पिछला चबूतरा जुआ खेलने का अड्डा बना लिया , बहस हुई तो निष्कर्ष ये निकला की " हमारे बच्चों के संस्कार क्या इतने कमज़ोर हैं की जुए खेलते देख बिगड़ जाएँ , बाहर जो करता है करने दो , अपना ध्यान खुद रखो " , हवेली का एक कमरा जो बरसों पहले परदादा ने एक असहाय की मदद के लिए किराये से दिया था उसपर उसके एहसान फरामोश बच्चों ने कब्ज़ा कर लिया, घर में खूब कलह हुई तो बाबूजी ने शांति और अहिंसा का सन्देश देकर चुप करा दिया , कहा "एक कमरे के जाने से हवेली बर्बाद नहीं हो जाएगी" !! हवेली के बुजुर्गों में एक अजीब सा नशा था हवेली के रुद्बे को लेकर , उसके इतिहास को लेकर , अपने पुरखों की जंग लगी बन्दूक रोज़ देखते पर अपने बच्चों को कभी उसे छूने ना देते , हम बहुत महान थे पर क्यों थे और आगे कैसे बने रह सकते हैं ये कभी नहीं बताते , शायद उन्हें ही ना पता हो , इधर चौराहे पर हवेली की हंसी उड़ती , चुटकुले सुनाये जाते , इन्ही बुजुर्गों की खिल्ली उड़ाई जाती !! यही क्रम चलता रहा और हवेली चारों और से बर्बाद होती रही !!
आज हालत ये है की हवेली की चारों दीवारों पर आजकल पूरा गाँव पेशाब करता है , दीवार गाँव की पेशाब से सिलसिलकर "ऐतिहासिक" हो गयी है , अमोनिया की "सहिष्णुता" से भरी खुशबु पूरी हवेली को सुगन्धित कर रही हैं पर घर के बड़े बूढ़े मानने को तैयार नहीं है , बार बार किसी मानसिक विक्षिप्त की तरह "सनातन हवेली" "सनातन हवेली" जैसा शब्द रटते रहते हैं , कहते हैं कुछ नहीं बिगड़ेगा , अजीबोगरीब बहाने ढूंढ लियें हैं अपनी कायरता को छुपाने के , कह रहे हैं अमोनिया की खुशबु सूंघने से बाल काले रहेंगे , ये तो हमारे भले के लिए ही है !! कल वहीँ असलम मियां अपनी कलात्मकता का प्रदर्शन करते हुए जलेबिनुमा पेशाब कर रहे थे तो हवेली के बच्चे ने पत्थर फेंक दिया , असलम मियां ने बाबूजी से शिकायत की और उस बच्चे के कट्टरपंथी हो जाने का खतरा बताया , तब से बाबूजी ने बड़े भैया को दीवार के पास ही तैनात कर दिया है ताकि कोई पेशाब करे तो उसे कोई रोके टोके ना , बेइज्जती ना हो , उसके लोकतान्त्रिक अधिकारों का हनन ना हो !!
किसी को पान की पीक करते , किसी को पेशाब करते , किसी को मैदान में तम्बू गाड़ते , किसी को पीछे की शीशम की खिड़की उखाड़ते बच्चे रोज़ देखते हैं , हवेली रोज़ बिक रही है , खुद रही हैं , नेस्तनाबूत हो रही है , आँखों से खून आता है , मुट्टीयाँ भींच कर चुप रहना पड़ता है , सहिष्णु बाबूजी हैं , कायर भाई हैं , सेक्युलर भाभियाँ हैं , हवेली महान है , हवेली सनातन है !!
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(झकझोरने वाला यह शानदार लेख फेसबुक पर लिखा है श्री गौरव शर्मा जी ने... मैंने यहाँ साभार ग्रहण किया है... उनके प्रोफाईल पर जाकर कुछ ऐसे ही अन्य "आँखें खोलने वाले" लेखों का आनंद भी उठाएँ... लिंक यह है... https://www.facebook.com/gaurav.bindasbol?fref=ufi )
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शुक्रवार, 02 जनवरी 2015 13:46
Huge Corruption and Scams in Odisha
घोटालों
के चक्रव्यूह में पटनायक का ओडिशा...
यदि कोई
राज्य अथवा कोई राजनेता मुख्यधारा की मीडिया में अधिक दिखाई-सुनाई नहीं देता है,
तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि उस राज्य में सब कुछ सही चल रहा है. बल्कि इसका मतलब
यह होता है कि हमारा “तथाकथित” मुख्यधारा के मीडिया की आँखें और कान सिर्फ
चुनिंदा और उसकी व्यावसायिक एवं राजनैतिक पसंद के अनुरूप ही खुलते हैं. अव्वल तो
हमारा कथित नॅशनल मीडिया सिर्फ दिल्ली और उसके आसपास के कवरेज तक ही सीमित रहता
है, या फिर उसे भाजपा एवं हिंदुत्व-मोदी की आलोचना करने से ही फुर्सत नहीं मिलती.
अपने “नामचीन”(??) संवाददाताओं को दूरस्थ
तमिलनाडु अथवा मेघालय भेजने की “रिस्क” वे नहीं उठाते, क्योंकि उन्हें लगता है कि दिल्ली और NCR ही “पूरा देश” है अथवा भोपाल-मुम्बई-जयपुर जैसे
शहरों से किसी “किराए के” फर्जी संवाददाता से दो मिनट की बाईट अथवा चार सेंटीमीटर की
खबर छापकर वे स्वयं को “राष्ट्रीय स्तर” का अखबार या चैनल मानने लगते हैं. असल में “रामजादे” शब्द में जो TRP है, वह ओडिशा के घोटालों में कहाँ?
जैसी पीत-पत्रकारिता आसाराम बापू अथवा गोड़से की मूर्ति पर की जा सकती है, वैसी
पत्रकारिता(?) ओडिशा के चिटफंड घोटाले की ख़बरों में कैसे की जा सकती हैं. मीडिया
की ऐसी ही “सिलेक्टिव” उपेक्षा एवं घटिया रिपोर्टिंग का शिकार है ओडिशा राज्य और
इसके मुख्यमंत्री नवीन पटनायक. पाठकों, ज़रा याद करने की कोशिश कीजिए कि आपने “राष्ट्रीय” कहे जाने वाले कितने चैनलों अथवा अखबारों में ओडिशा में
जारी भ्रष्टाचार पर दो-चार दिन कोई बहस सुनी अथवा रिपोर्ट देखी?? आए दिन भाजपा के
दूसरी-तीसरी पंक्ति के नेताओं के मुँह में माईक घुसेड़कर बाईट्स लेने वाले कितने
कथित पत्रकारों को आपने नवीन पटनायक से सवाल-जवाब करते देखा है? मुझे पूरा विश्वास
है कि देश के अधिकाँश “जागरूक”(?) लोगों को तो पिछले पन्द्रह साल से ओडिशा के मुख्यमंत्री
रहे नवीन पटनायक का पूरा और ठीक नाम तक नहीं मालूम होगा. बहुत से लोगों को ये भी
नहीं पता होगा कि मयूरभंज और बालासोर जिलों का भी नाम है और वे ओडिशा में हैं.
कहने का
तात्पर्य यह है कि जब देश का प्रमुख मीडिया काँग्रेस-भाजपा में ही व्यस्त हो, तमाम
“अ-मुद्दों” पर बकबकाहट और आपसी जूतमपैजार व थुक्का-फजीहत जारी हो, ऐसे
में ओडिशा जैसे राज्यों के भ्रष्टाचार की ख़बरें बड़ी आसानी से छिप जाती हैं, दबा दी
जाती हैं. आज भी यही हो रहा है. यदि पश्चिम बंगाल में सारधा चिटफंड समूह का महाकाय
घोटाला उजागर नहीं होता, तो आज भी ओडिशा की तरफ लोगों का ध्यान तक नहीं जाता.
लेकिन इसे पटनायक का दुर्भाग्य कहिये या फिर जाँच एजेंसियों का संयोग कहिये, “सारधा घोटाले” के उजागर होते ही एक के बाद एक परतें खुलती गईं और इसकी
आँच ओडिशा, असम व बांग्लादेश तक जा पहुँची. जो बातें मुख्यधारा का मीडिया बड़ी सफाई
से छिपा लेता है, वह सोशल मीडिया पर “जमीनी” लोग बिना अपना नाम ज़ाहिर किए चुपके से उजागर कर देते हैं.
दिक्कत यह है कि सोशल मीडिया की पहुँच बहुत ही सीमित है और प्रिंट मीडिया को भी
अक्सर “Political Correct” होने के कारण बहुत सी ख़बरों को सेंसर कर देना
होता है... बहरहाल, कुछ अपुष्ट एवं पुष्ट सूत्रों व स्थानीय अखबारों में जारी
रिपोर्टों के अनुसार, आईये देखते हैं ओडिशा में क्या-क्या गुल खिल रहे हैं.
पश्चिम बंगाल में ममता
बनर्जी के मंत्रियों एवं सांसदों एक कारनामे सामने आते जा रहे हैं और उनमें से कुछ
गिरफ्तार भी हुए हैं और कुछ सांसदों का लिंक बांग्लादेश के इस्लामी बैंक एवं सिमी
नेताओं के साथ भी निकले. जबकि ओडिशा के एक बीजू-जद सांसद महोदय गिरफ्तार हो चुके
हैं साथ ही बीजू-जद के चार विधायक महोदय भी सीबीआई की जाँच के घेरे में हैं.
हालाँकि बहुचर्चित कोयला और खनन घोटाले में भी ओडिशा के कई मंत्री और सांसद जाँच
के घेरे में रहे हैं, लेकिन उस समय भी मीडिया ने ओडिशा पर अधिक ध्यान नहीं दिया
था. फिलहाल ओडिशा में तो सारधा चिटफंड से जुड़े घोटालों में नित नई बातें सामने आ
रही हैं. सीबीआई द्वारा दाखिल चार्जशीट के अनुसार बीजू जनतादल के निलंबित विधायक
पर्वत त्रिपाठी ने “अर्थ-तत्त्व” नामक कंपनी से उसका पक्ष लेने व मामले को
दबाने में मदद के रूप में बयालीस लाख रूपए की रिश्वत ली थी. त्रिपाठी ने एटी
(अर्थ-तत्त्व) समूह के मालिक प्रदीप सेठी के तमाम काले कारनामों और अवैध धंधों का
संरक्षक बनने के एवज में यह रकम ग्रहण की थी. इन बयालीस लाख रुपयों के अलावा पर्वत
त्रिपाठी ने बांकी महोत्सव भी सेठी के द्वारा पूरा का पूरा फायनेंस करवा लिया था.
पर्वत त्रिपाठी ने अपने सत्ताधारी विधायक होने की दबंगई दिखाते हुए एटी
बहुउद्देशीय सहकारी समिति को पूर्व दिनाँक में रजिस्टर करने हेतु सहायक पंजीयक पर
दबाव बनाया और अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए समिति को रजिस्टर करवा भी लिया. बयालीस
लाख रुपयों के अहसान के बदले में पर्वत त्रिपाठी ने अर्थ तत्त्व कंपनी की साख
बढ़ाने हेतु सेठी को “सर्वोत्तम युवा
सहकारी उद्यमी” का अवार्ड भी दिलवा दिया, क्योंकि खुद
त्रिपाठी साहब ओडिशा राज्य की सहकारिता युनियन के अध्यक्ष थे, यानी आम के आम गुठलियों
के दाम तथा तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाता हूँ. फर्जी कम्पनी के मालिक
सेठी ने विधायक महोदय के साथ अपनी “युवा उद्यमी” वाली छवि की इन्हीं तस्वीरों को दिखा-दिखाकर
निवेशकों का विश्वास जीता और उन्हें ठग लिया.
नवीन
पटनायक सरकार के लिए फौरी राहत की बात यह रही, कि सीबीआई द्वारा दाखिल प्राथमिक
आरोपपत्र जिसमें विधायक पर्वत त्रिपाठी का नाम है, उन्हीं एक और विधायक महोदय
प्रणब बालाबंत्री बिलकुल बाल-बाल बचे, क्योंकि सीबीआई ने उनके और एटी समूह के
संदिग्ध रिश्तों को लेकर सोलह घंटे की पूछताछ के बाद गवाहों की सूची से उनका नाम
हटा दिया. प्रणब बलाबंत्री पहली बार विधायक बने हैं और वे राज्यसभा सांसद कल्पतरु
दास के बेटे हैं. प्रणब पर सीबीआई की तलवार उसी दिन से लटक रही थी, जिस दिन से
सीबीआई ने सांसद रामचंद्र हंसदा और सुबर्ना नायक को गिरफ्तार किया था. असल में
विधायक बालाबंत्री, उड़ीसा के एक बिल्डर धर्मेन्द्र बोथरा के साथ नज़दीकी के कारण
सीबीआई के स्कैनर में आए. प्रणब ने अपनी एक जमीन की पावर ऑफ अटॉर्नी बोथरा को दी
थी, जिसे बोथरा ने पचहत्तर लाख रूपए में एटी समूह के मालिक प्रदीप सेठी को बेची,
इससे प्रणब संदिग्धों की श्रेणी में आ गए. हालाँकि सीबीआई ने पूछताछ के बाद बिल्डर
बोथरा को एटी समूह के लिए फंड की हेराफेरी के आरोप में गहन पूछताछ पर लिया है. 233 पृष्ठों की
चार्जशीट के अनुसार बोथरा का सीधा सम्बन्ध तो स्थापित नहीं हो सका, पर एटी समूह
हेतु तीस लाख रूपए का हेरफेर करने का आरोप सही पाया गया है.
परन्तु जैसा कि आप पढ़ चुके हैं,
बंगाल से शुरू हुआ यह चिटफंड घोटाला इतना सरल तो है ही नहीं, उलटे इसमें प्रशासन
के सभी हिस्से शामिल होने के कारण इसकी जाँच में कई अडचनें आ रही हैं. ओडिशा की
पुलिस के एक और शर्मनाक वाकया तब हुआ, जब सीबीआई ने DSP रैंक
के अधिकारी प्रमोद पांडा से उनके अर्थ-तत्त्व के साथ रिश्तों को लेकर पूछताछ की और
गिरफ्तार कर लिया. १५ दिसम्बर को ओडिशा हाईकोर्ट ने प्राथमिक सबूतों के चलते पांडा
की अग्रिम जमानत खारिज कर दी. पुलिस अधिकारी पांडा साहब की भी सीबीआई ने दो घंटे
तक खिंचाई की क्योंकि प्रमोद पांडा एटी समूह के एक अन्य आरोपी और सीबीआई की हिरासत
में बैठे, जगबन्धु पांडा के नजदीकी रिश्तेदार बताए जाते हैं. सीबीआई ने कोर्ट से
समय माँगा है, ताकि दोनों पांडा बंधुओं के आपसी आर्थिक लेन-देन के बारे में और
जानकारी जुटाई जा सके. मजे की बात यह है कि राज्य की क्राईम ब्रांच ने 2009-10 में
सीबीआई के कोलकाता दफ्तर में “लायजनिंग ऑफिसर” के रूप में उस समय नियुक्त किया था, जिस समय बालासोर जिले
के एक चिटफंड मामले की जाँच चल रही थी, और उस मामले में बॉलीवुड के कलाकार नसीर
खान भी लिप्त पाए गए हैं. दिक्कत की बात यह है कि ना तो सीबीआई और ना ही ओडिशा
पुलिस इस बात की तस्दीक कर रही है कि क्या आज की तारीख में भी प्रमोद पांडा ओडिशा
की चवालीस चिटफंड कंपनियों की जाँच टीम में शामिल हैं या नहीं?? क्योंकि पांडा
साहब को इसी वर्ष फरवरी में निलंबित किया जा चुका है, क्योंकि उन्होंने चिटफंड
कंपनियों की जाँच हेतु कोर्ट में याचिका लगाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता आलोक जेना
को दिल्ली में धमकाया था. हालाँकि रहस्यमयी पद्धति से प्रमोद पांडा को पुनः नौकरी
में बहाल कर लिया गया था, और उन्हें नयागढ़ में DSP बनाया गया. इस मामले में संदेहास्पद
होने के कारण पांडा साहब, प्रदेश के ऐसे तीसरे पुलिस अफसर हैं, इनसे पहले नवंबर
में दो IPS अफसर राजेश कुमार (DIG उत्तर-मध्य रेंज) तथा सतीश गजभिये
(केंद्रपाड़ा के एसपी) भी सीबीआई के जाँच घेरे में हैं.
पिछले
एक वर्ष से जारी इस जाँच मैराथन में एक रोचक और सनसनीखेज मोड़ तब आया, जब एक कंपनी
माईक्रो फाईनेंस लिमिटेड के निदेशक दुर्गाप्रसाद मिश्रा को पुलिस ने गिरफ्तार
किया. पहले तो मिश्रा जी मार्च से लेकर दिसम्बर तक भूमिगत हो गए थे, पुलिस और
सीबीआई से बचते भागते रहे. फिर जब गिरफ्तार हुए तो तत्काल उनकी तबियत खराब हो गई
और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा. अस्पताल जाते-जाते मिश्रा जी ने कैमरों के सामने
चिल्लाया कि “मैं एकदम निर्दोष हूँ, मुझे जबरन फँसाया जा रहा
है. सभी लोगों ने मेरा “उपयोग” किया है, इसलिए यदि मैंने मुँह खोल दिया तो बड़े-बड़े लोग फँस
जाएँगे..” मुझे पता है, आपको बंगाल के सारधा समूह वाले
कुणाल बाबू याद आ गए होंगे, वे भी ठीक यही वाक्य चीखते हुए अस्पताल की वैन से
रवाना हुए थे. बहरहाल, मिश्रा जी को सीबीआई कोर्ट ने सात दिनों की रिमांड पर भेजा
तब उन्होंने किसी “बड़े आदमी” का नाम नहीं लिया. दुर्गाप्रसाद मिश्रा जी की कम्पनी ने
निवेशकों के पाँच सौ करोड़ रूपए से अधिक डुबा दिए हैं, और मिश्रा जी का नाम तब
सामने आया, जब ओडिशा पंचायती राज विभाग के अजय स्वैन को गिरफ्तार करके रगड़ा गया.
स्वैन ने ही बताया कि मिश्रा जी की सरकार में काफी ऊँची पहुँच और प्रभाव है और
लुटाए हुए निवेशक लगातार उनके दफ्तर के चक्कर काट रहे हैं लेकिन मिश्रा जी गायब
थे.
मिश्रा
जी ने अपनी कंपनी के पंख फैलाने के लिए पंचायती राज विभाग के अजय स्वैन को मोहरा
बनाया था. अजय स्वैन ने विभिन्न जिलों के कलेक्टर को आधिकारिक लेटरहेड पर पत्र
लिखकर बालासोर, भद्रक और मयूरभंज कलेक्टरों को निर्देश दिया कि मिश्रा जी की
कम्पनी को उन जिलों में “अबाधित” कार्य करने में सहयोग प्रदान करें. इस वर्ष मार्च में
शिकायत मिलने के बाद राज्य क्राईम ब्रांच ने पंचायती राज विभाग से स्वैन के अलावा
कंपनी के निदेशक बैकुंठ पटनायक को भी पकड़ा, जिसने स्वैन के साथ मिलकर कलेक्टरों पर
दबाव बनाने के लिए मिश्रा जी की पहुँच का इस्तेमाल किया. सीबीआई ने पाटिया स्थित
दुर्गाप्रसाद मिश्रा के निवास पर छापा मारा और इस घोटाले से सम्बन्धित ढेरों दस्तावेज
बरामद किये. इसके अलावा मिश्रा के पुत्र कालीप्रसाद मिश्रा से भी जमकर पूछताछ की
गई है.
ज़ाहिर
है कि इस घोटाले के तार प्रशासन की रग-रग में समाए हुए हैं. नवीन पटनायक को सिर्फ
भद्र पुरुष अथवा सौम्य व्यवहार वाले व्यक्ति होने के कारण संदेह से परे नहीं रखा
जा सकता. उनकी ईमानदार छवि पर दाग तो निश्चित रूप से लगा है और देश के लिए मनमोहन
सिंह टाईप के ईमानदार भी आखिर किस काम के??
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गुरुवार, 01 जनवरी 2015 12:43
Leela Samson - Secularism, Corruption and Politics
लीला सैमसन की सेकुलर एवं आर्थिक लीलाएँ...
आजकल पीके फिल्म की वजह से सेंसर बोर्ड की
वर्तमान अध्यक्षा लीला सैमसन ख़बरों में हैं. पीके फिल्म में हिन्दू धर्म और भगवान
शिव की खिल्ली उड़ाने जैसे कुछ दृश्यों पर मचे बवाल और कई संगठनों के विरोध के
बावजूद लीला सैमसन ने स्पष्ट कर दिया है कि वे पीके फिल्म से एक भी सीन नहीं
काटेंगी. ये बात और है कि कुछ समय पहले ही रिलीज़ हुई एक और फिल्म “कमाल धमाल
मालामाल” में एक ईसाई पादरी (असरानी) के नृत्य पर चर्च की आपत्ति के बाद उस दृश्य
को हटा दिया गया था. इससे पहले कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम के कुछ दृश्यों पर
मुस्लिम संगठनों की आपत्ति और हिंसक विरोध के बाद कुछ दृश्यों को हटाया गया था.
लीला सैमसन की ऐसी “सेकुलर मेहरबानियाँ” कोई नई बात नहीं है. बहरहाल एक यहूदी पिता
और कैथोलिक माता की संतान, लीला सैमसन का विवादों और काँग्रेस से पुराना गहरा नाता
रहा है.
चेन्नई स्थित अंतर्राष्ट्रीय भरतनाट्यम
संस्थान “कलाक्षेत्र” के छात्रा रही
लीला सैमसन इसी संस्थान में एकल नृत्यांगना, सदस्य एवं अध्यक्ष पद तक पहुँची थीं.
महान नृत्यांगना रुक्मणी देवी अरुंडेल द्वारा 1936 में स्थापित यह संस्थान एक महान परंपरा
का वाहक है. स्वयं रुक्मिणी जी के शब्दों में, “जब लीला को यहाँ भर्ती के लिए लाया गया,
तब उसकी कैथोलिक/यहूदी पृष्ठभूमि के कारण उसे प्रवेश देने में मुझे कुछ आपत्तियां
थीं, हालाँकि बाद में लीला को भर्ती कर लिया गया, वह नृत्यांगना तो अच्छी सिद्ध
हुई, परन्तु भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं के प्रति उसकी समझ एवं बौद्धिक विकास समुचित
नहीं हुआ, बल्कि कई बार दुर्भावनापूर्ण ही था”. तरक्की करते-करते सन 2005 में लीला सैमसन को कलाक्षेत्र का निदेशक
बना दिया गया. जल्दी ही, अर्थात 2006 में सैमसन ने भरतनाट्यम नृत्य कथानकों में
से “आध्यात्मिक जड़ों” को हटाना शुरू कर
दिया. सैमसन के “एवेंजेलिस्ट इरादे” तब ज़ाहिर होने
शुरू हुए, जब श्रीश्री रविशंकर ने कलाक्षेत्र के छात्रों को उनके “आर्ट ऑफ लिविंग” के स्वास्थ्य एवं आशीर्वाद संबंधी एक कार्यक्रम में
शामिल होने का निमंत्रण दिया. तमिल साप्ताहिक “आनंद विकतन” के अनुसार लीला सैमसन ने छात्रों को
इसमें भाग लेने से इसलिए मना कर दिया, क्योंकि यह श्रीश्री का यह समारोह हिन्दू
धर्म को महिमामंडित करता था. लीला सैमसन का अगला “सेकुलर कृत्य” था कलाक्षेत्र संस्थान में स्थित सभी
गणेश मूर्तियों को हटाने का फरमान. “तमिल हिन्दू वॉईस” अखबार के अनुसार जब इस निर्णय का कड़ा
विरोध हुआ एवं छात्रों ने भूख हड़ताल की धमकी दी, तब लीला सैमसन ने सिर्फ एक गणेश
मूर्ति को पुनः लगाने की अनुमति दी, लेकिन बाकी की मूर्तियां दोबारा नहीं लगने
दीं. लीला सैमसन का कहना था कि कलाक्षेत्र में सिर्फ दीप प्रज्ज्वलन करके
कार्यक्रम की शुरुआत होनी चाहिए, किसी देवी-देवता की पूजा से नहीं. लीला सैमसन ने
अपनी ही गुरु रुक्मिणी अरुंडेल की उस शिक्षा की अवहेलना की, जिसमें उन्होंने कहा
था कि जिस प्रकार भगवान नटराज जीवंत नृत्य का प्रतीक हैं, उसी प्रकार भगवान गणेश
भी प्रत्येक “शुभारंभ” के आराध्य हैं.
लेकिन लीला सैमसन को इन सबसे कोई मतलब नहीं था.
“कलाक्षेत्र” में होने वाली प्रभात प्रार्थनाओं के बाद
लीला सैमसन अक्सर छात्र-छात्राओं को मूर्तिपूजा अंधविश्वास है, एवं इस परंपरा को
कलाक्षेत्र संस्था में खत्म किया जाना चाहिए, इस प्रकार की चर्चाएँ करती थीं एवं
उनसे अपने विचार रखने को कहती थीं. उन्हीं दिनों लीला सैमसन के “चमचे” किस्म के
शिक्षकों ने “गीत–गोविन्द” नामक प्रसिद्ध
रचना को बड़े ही अपमानजनक तरीके से प्रस्तुत किया था, जिसे बाद में विरोध होने पर
मंचित नहीं किया गया. छात्राओं को भरतनाट्यम में पारंगत होने के बाद जो प्रमाणपत्र
दिया जाता है, उसमें रुक्मिणी अरुंडेल द्वारा भगवान शिव का “प्रतीक चिन्ह” लगाया था, जो लीला सैमसन के आने के बाद
हटा दिया गया. अभी जो सर्टिफिकेट दिया जाता है, उसमें किसी भगवान का चित्र नहीं
है. हिन्दू कथानकों एवं पौराणिक चरित्रों की भी लीला सैमसन द्वारा लगातार खिल्ली
उड़ाई जाती रही, वे अक्सर छात्रों के समक्ष प्रसिद्ध नाट्य “कुमार-संभव” को समझाते समय, हनुमान जी, पार्वती एवं
भगवान कृष्ण की तुलना वॉल्ट डिज्नी के “बैटमैन” तथा स्टार वार्स के चरित्रों से करती
थीं. तात्पर्य यह है कि लीला सैमसन के मन में हिंदुओं, हिन्दू धर्म, हिन्दू
आस्थाओं, भगवान एवं संस्कृति के प्रति “मिशनरी कैथोलिक” दुर्भावना शुरू से ही भरी पड़ी थी, ज़ाहिर
है कि ऐसे में पद्मश्री और सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष पद के लिए एंटोनिया माएनो उर्फ सोनिया
गाँधी की पहली पसंद लीला सैमसन ही थी. ऐसे में स्वाभाविक ही है कि फिल्म “कमाल धमाल मालामाल” में नोटों की
माला पहने हुए पादरी का दृश्य तो लीला को आपत्तिजनक लगा लेकिन फिल्म पीके में भगवान
शिव के प्रतिरूप को टायलेट में दौड़ाने वाले दृश्य पर उन्हें कोई दुःख नहीं हुआ. यहाँ
भी लीला सैमसन अपनी दादागिरी दिखाने से बाज नहीं आईं, सेंसर बोर्ड के अन्य सदस्यों
द्वारा अपना विरोध करवाने के बावजूद उन्होंने फिल्म PK को बिना किसी कैंची के जाने दिया. अपुष्ट
ख़बरों के अनुसार इस काम के लिए राजू हीरानी ने लीला सैमसन को चार करोड़ रूपए की रिश्वत
दी है, इसलिए इस आरोप की जाँच बेहद जरूरी हो गई है.
ऐसा भी नहीं कि लीला सैमसन ने सिर्फ “सेकुलर लीलाएँ” की हों, काँग्रेस
की परंपरा के अनुसार उन्होंने कुछ आर्थिक लीलाएँ भी की हैं. इण्डिया टुडे पत्रिका
में छपे हुए एक स्कैंडल की ख़बरों के अनुसार 2011 में लीला सैमसन ने “कलाक्षेत्र” संस्थान में बिना किसी टेंडर के, बिना
किसी सलाह मशविरे के कूथाम्बलम ऑडिटोरियम में आर्किटेक्चर तथा ध्वनि व्यवस्था
संबंधी बासठ लाख रूपए के काम अपनी मनमर्जी के ठेकेदार से करवा लिए और उसका कोई ठोस
हिसाब तक नहीं दिया. उन्हीं के सताए हुए एक कर्मचारी टी थॉमस ने जब एक RTI लगाई, तब जाकर इस “लीला” का खुलासा हुआ. पाँच वर्ष के कार्यकाल
में लीला सैमसन ने लगभग आठ करोड़ रूपए के काम ऐसे ही बिना किसी टेंडर एवं अनुमति के
करवाए गए, जिस पर तमिलनाडु के CAG ने भी गहरी आपत्ति दर्ज करवाई थी, परन्तु
“काँग्रेस की
महारानी” का वरदहस्त होने
की वजह से उनका बाल भी बाँका नहीं हुआ. इसके अलावा कलाक्षेत्र फाउन्डेशन की निदेशक
के रूप में सैमसन ने एक निजी कम्पनी मेसर्स मधु अम्बाट को अपनी गुरु रुक्मिणी
अरुंडेल के नृत्य कार्यों का समस्त वीडियो दस्तावेजीकरण करने का ठेका तीन करोड़
रूपए में बिना किसी से पूछे एवं बिना किसी अधिकार के दे दिया और ताबड़तोड़ भुगतान
भी करवा दिया. शिकायत सही पाए जाने पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस एस मोहन
ने सभी अनियमितताओं की जाँच की तब यह पाया गया कि जिस कंपनी को वीडियो बनाने का
ठेका दिया गया था, उसे ऐसे किसी काम का कोई पूर्व अनुभव भी नहीं था.
(अपनी गुरु रुक्मिणी अरुंडेल की मूर्ति के पास बैठीं लीला सैमसन)
दोनों ही घोटालों के बारे में जब CAG ने लीला सैमसन से पूछताछ एवं स्पष्टीकरण
माँगे, तब उन्होंने पिछली तारीखों के खरीदे हुए स्टाम्प पेपर्स पर उस ठेके का पूरा
विवरण दिया, जिसमें सिर्फ छह नाटकों का वीडियो बनाने के लिए नब्बे लाख के भुगतान
संबंधी बात कही गई. “दैनिक पायनियर” ने जब इस सम्बन्ध में जाँच-पड़ताल की तो पता चला कि ये स्टाम्प पेपर 03 सितम्बर 2006 को ही खरीद लिए गए थे, जिस पर 25 अक्टूबर 2006 को रजिस्ट्रेशन नंबर एवं अनुबंध लिखा गया,
ताकि जाँच एजेंसियों की आँखों में धूल झोंकी जा सके. (यह कृत्य गुजरात की कुख्यात
सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड से मेल खाता है, उसने भी ऐसे ही कई कोरे
स्टाम्प पेपर खरीद रखे थे और गवाहों को धमकाने के लिए उनसे हस्ताक्षर लेकर रखती
थी).
बहरहाल, तमाम आर्थिक अनियमितताओं की
शिकायत जस्टिस मोहन ने केन्द्रीय संस्कृति मंत्री अम्बिका सोनी को लिख भेजी,
परन्तु लीला सैमसन पर कोई कार्रवाई होना तो दूर रहा, उनसे सिर्फ इस्तीफ़ा लेकर
उन्हें और बड़ा पद अर्थात संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष पद से नवाज़ दिया गया. जैसा
कि सभी जानते हैं, अम्बिका सोनी एवं लीला सैमसन पक्की सखियाँ हैं, और दोनों ही एक “खुले रहस्य” की तरह सोनिया
गाँधी की करीबी हैं. ज़ाहिर है कि लीला सैमसन का कुछ बिगड़ना तो बिलकुल नहीं था,
उलटे आगे चलकर उन्हें सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष पद भी मिला...
तो मित्रों, अब आप समझ गए
होंगे कि PK फिल्म के बारे में इतना विरोध
होने, सेंसर बोर्ड के सदस्यों द्वारा विरोध पत्र देने के बावजूद लीला सैमसन इतनी
दादागिरी क्यों दिखाती आई हैं, क्योंकि उन्हें भरोसा है कि प्रशासन एवं बौद्धिक(?)
जगत में शामिल “सेकुलर गिरोह” उनके पक्ष में है. मोदी सरकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती प्रशासन
के हर स्तर पर फ़ैली हुई ऐसी ही “प्रगतिशील कीचड़युक्त गाद” को साफ़ करना है. देखना है कि
नरेंद्र मोदी में यह करने की इच्छाशक्ति और क्षमता है या नहीं.... वर्ना तब तक
आए-दिन हिंदुओं एवं हिन्दू संस्कृति का अपमान होता रहेगा और हिन्दू संगठन सिर्फ
विरोध दर्ज करवाकर “अगले अपमान” का इंतज़ार करते रहेंगे
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