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रविवार, 30 मार्च 2014 20:22
Narendra Modi - The Magnet for Power and Coalition
मोदी
का जादू – मिल रहे हैं साथी, बढ़ रहा है कारवाँ...
जिस दिन
भाजपा ने नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनावों हेतु प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित
किया था, उसी दिन से लगातार तमाम चुनाव विश्लेषक और अकादमिक बुद्धिजीवी इस बात पर
कयास लगाते रहे थे कि ऐसा करने से भाजपा अलग-थलग पड़ जाएगी. इन सेक्युलर(?)
विश्लेषकों की निगाह में नरेंद्र मोदी अछूत हैं. यही वे बुद्धिजीवी थे जिन्होंने
भविष्यवाणी कर दी थी कि भाजपा कभी भी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का
उम्मीदवार घोषित नहीं करेगी, लेकिन न सिर्फ वैसा हुआ, बल्कि भाजपा ने मोदी को
प्रचार समिति की कमान सौंप दी. इसके अलावा जब टिकट वितरण की बारी आई, तब भी कुछेक
मामलों को छोड़कर नरेंद्र मोदी को लगभग फ्री-हैंड दिया गया. स्वाभाविक है कि ऐसा
होने पर इन चुनाव विश्लेषकों की सिट्टी-पिट्टी गुम होनी ही थी. इसलिए इन्होंने हार
ना मानते हुए “मोदी के रहते भाजपा को कोई सहयोगी नहीं मिलेगा” का राग दरबारी शुरू
किया. लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इनके दुर्भाग्य से नरेंद्र मोदी – अमित शाह की
जुगलबंदी ने इस राग दरबारी के सारे सुर बिगाड़ने की पूरी तैयारी कर ली है.
जैसा
कि सभी जानते हैं, लोकसभा चुनाव २०१४ में जीत के झंडे गाड़ने के लिए उत्तरप्रदेश और
बिहार यह दो राज्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं. मोदी-शाह की जोड़ी ने पिछले एक साल
से ही इस दिशा में कार्य करना शुरू कर दिया था. जिस दिन मोदी को कमान सौंपी गई,
उसी दिन अमित शाह को उत्तरप्रदेश का प्रभारी बनाने का निर्णय हो गया था. हालांकि
गुजरात और यूपी-बिहार की स्थानीय राजनीति में जमीन-आसमान का अंतर है, परन्तु फिर
भी अमित शाह जैसे व्यक्ति जिसने आज तक दर्जनों चुनाव जीते हों, एक भी चुनाव ना
हारा हो तथा बेहद कुशल रणनीतिकार हो... उसे यूपी का प्रभार देने से यह स्पष्ट हो
गया कि वे नरेंद्र मोदी के सबसे विश्वसनीय व्यक्ति हैं. नरेंद्र मोदी ने जब बिहार
पर अपना ध्यान केन्द्रित किया तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि रामविलास पासवान
भाजपा का दामन थाम लेंगे, परन्तु ऐसा हुआ. भले ही विश्लेषकों को इस समय यह लग रहा
हो कि भाजपा ने पासवान को सात और कुशवाहा को तीन सीटें देकर अपना नुक्सान कर लिया,
लेकिन वास्तव में इसे नरेंद्र मोदी का “मास्टर स्ट्रोक” ही कहा जाएगा. रामविलास
पासवान के भाजपा के साथ आने से दो फायदे हुए हैं. पहला तो यह कि “नरेंद्र मोदी
अछूत हैं”, “उनकी साम्प्रदायिक छवि के कारण कोई उनके साथ नहीं जाएगा”, जैसे मिथक
भरभराकर टूटे. पासवान के इस कदम से नीतीश कुमार, जिन्हें भाजपा चुनाव से पहले गठबंधन
तोड़कर “जोर का झटका धीरे से” दे चुकी थी, उन्हें एक और झटका लगा. मोदी के इस
मास्टर स्ट्रोक का सुनामी जैसा असर कांग्रेस-लालू गठबंधन पर पड़ा. कांग्रेस-लालू-पासवान
की तिकड़ी यदि समय रहते अपने मतभेद भुलाकर किसी समझौते पर पहुँच जाती तो यह भाजपा
के लिए बहुत नुकसानदेह होता. इन तीनों के वोट प्रतिशत एवं जातिगत गणित तथा नीतीश
कुमार के अति-पिछड़े एवं महा-दलित कार्ड का मुकाबला भाजपा सिर्फ नरेंद्र मोदी की
छवि और नीतीश के कुशासन से नहीं कर सकती थी. इसीलिए नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने परदे
के पीछे से रामविलास पासवान को लुभाने की कोशिशें जारी रखीं और इसमें सफलता भी
मिली. असल में नीतीश कुमार का दांव यह था कि वे भाजपा को दूर करके मुस्लिम वोटरों
तथा महादलित-अतिपिछडे के गणित के सहारे वैतरणी पार करना चाहते थे. परन्तु रामविलास
पासवान के भाजपा के साथ आने से जहां एक तरफ कांग्रेस-लालू खेमे में हड़कम्प मचा,
वहीं दूसरी और नीतीश के खेमे का गणित भी छिन्न-भिन्न हो गया और मजबूरी में नीतीश
को “बिहार स्पेशल पॅकेज” और “बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दो” जैसी राजनीति पर
उतरना पड़ा. अब बिहार में स्थिति यह है कि भाजपा-पासवान-कुशवाहा गठबंधन की 29-7-3 सीटों पर
पासवान-कुशवाहा के वोट भाजपा को ट्रांसफर होंगे, जबकि बाकी का काम नीतीश सरकार से
नाराजी और नरेंद्र मोदी की छवि और धुंआधार रैलियों से पूरा हो जाएगा.
इसी से मिलता-जुलता काम मोदी-शाह की जोड़ी ने
यूपी में भी किया. अपने हिन्दू धर्म विरोधी बयानों एवं धर्मांतरण के समर्थक विचार
रखने वाले दलित नेता उदित राज को भाजपा के झंडे तले लाकर उन्हें दिल्ली से टिकट
देने का भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया. ज्ञातव्य है कि दलितों के एक बड़े वर्ग
में उदित राज की छवि एक पढ़े-लिखे सुलझे अधिकारी एवं विचारक की है. हालांकि उदित
राज को भाजपा में लाने पर भाजपा के कई वर्गों एवं संस्थाओं में बेचैनी महसूस की
गई, लेकिन चुनावी राजनीति की दृष्टि से तथा विभिन्न चैनलों पर बहस-मुबाहिसे तथा
लेखों की कीमत पर देखा जाए तो उदित राज
भाजपा के लिए फायदे का सौदा ही साबित होंगे. हालांकि उदित राज की हस्ती इतनी बड़ी
भी नहीं है कि वे मायावती को चुनौती दे सकें या उनके स्थानापन्न बन सकें, परन्तु
उदित राज के साथ आने से भाजपा की जो परम्परागत “ब्राह्मण-बनिया पार्टी” वाली छवि
थी उसमें थोड़ी दलित चमक आई, तथा विपक्षी हमलों की धार भोथरी हुई है. दिल्ली की
सुरक्षित सीट पर उदित राज, कृष्णा तीरथ एवं राखी बिडालान का मुकाबला करेंगे तो
स्वाभाविक है कि उसकी आतंरिक आंच यूपी की कुछ सीटों पर अपना प्रभाव जरूर छोड़ेगी. मोदी
का दलित कार्ड और गठबंधन सहयोगी बढ़ाओ अभियान यहीं तक सीमित नहीं रहा, वह
महाराष्ट्र में भी जा पहुंचा. रिपाई (रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इण्डिया) के रामदास
आठवले को भाजपा ने अपनी मदद से राज्यसभा में पहुंचाया और उनसे गठबंधन कर लिया, इस
तरह महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना-रिपाई का एक मजबूत ढांचा तैयार हो चूका है.
चूंकि राज ठाकरे भी मोदी लहर से अछूते नहीं रह सकते थे, इसीलिए उन्होंने चुनावों
से पहले ही घोषित कर दिया है कि वे चुनावों के बाद मोदी का समर्थन करेंगे. अलबत्ता
जिस तरह से शरद पवार लगातार शिवसेना में सेंधमारी कर रहे हैं, उसे देखते हुए लगता
है कि 2019 के आम चुनाव आते-आते
महाराष्ट्र में भाजपा बगैर गठबंधन के ही और भी मजबूत होकर उभरेगी. बहरहाल... यूपी
में मोदी-शाह की जोड़ी तथा संघ के पूर्ण समर्थन से एक और बड़ा मास्टर स्ट्रोक खेला
गया, और वह है नरेंद्र मोदी को वाराणसी सीट से चुनाव लड़वाना. कुछ मित्रों को याद
होगा कि मैंने गत वर्ष ही एक लेख में यह लिख दिया था कि यूपी-बिहार में अपने जीवन
का सबसे बड़ा दांव खेलने जा रहे नरेंद्र मोदी को लखनऊ अथवा बनारस से चुनाव लड़ना
चाहिए. बहरहाल इस मुद्दे पर चर्चा थोड़ी देर बाद... पहले दक्षिण की तरफ चलते हैं...
तेलंगाना के निर्माण के पश्चात उसका क्रेडिट
लेने के लिए बेताब कांग्रेस को सबसे पहला तगड़ा झटका टीआरएस ने ही दे दिया.
कांग्रेस यह मानकर चल रही थी कि टीआरएस-कांग्रेस का गठबंधन हो गया तो कम से कम
तेलंगाना में उसकी इज्जत बची रहेगी. लेकिन यहाँ चंद्रशेखर राव ने कांग्रेस को
ठेंगा दिखा दिया है और वे अकेले ही चुनाव लड़ेंगे. राव ने यह भी स्पष्ट कर दिया है
कि आम चुनावों के परिणामों के बाद हे वे अपनी अगली रणनीति तय करेंगे. ज़ाहिर है कि
यदि नरेंद्र मोदी अकेले दम पर 225 से अधिक सीटें ले आते हैं तो चंद्रशेखर राव को विशेष पॅकेज के नाम पर NDA में खींच लाना कतई
मुश्किल नहीं होगा. उधर सीमान्ध्र और रायलसीमा में कांग्रेस की दूकान तो पहले ही
लगभग बंद हो चुकी है. मुख्यमंत्री किरण कुमार ने अपनी नई क्षेत्रीय पार्टी बना ली
है, जबकि चंद्रबाबू नायडू दो बार नरेंद्र मोदी के साथ मंच पर आ चुके हैं और उनकी
आपसी सहमति एवं समझबूझ काफी विकसित हो चुकी है. इसके अलावा चिरंजीवी के भाई कमल की
नई पार्टी भले ही कुछ ख़ास न कर पाए, लेकिन कांग्रेस के ताबूत में कीलें ठोंकने का
काम बखूबी करेगी. अर्थात जो आँध्रप्रदेश यूपीए-२ के गठन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण
था, वहीं पर कांग्रेस अनाथ की स्थिति में पहुँच चुकी है. फिलहाल नए राज्य की
खुमारी में तेलंगाना की सभी सीटों पर TRS के जीतने के पूरे आसार हैं, जबकि सीमान्ध्र में
कांग्रेस दो-तीन सीटें भी ले आए तो बहुत है. अर्थात वहां पर भाजपा के पास खोने के
लिए कुछ नहीं है. इसीलिए नरेंद्र मोदी ने चंद्रशेखर राव और चंद्रबाबू नायडू दोनों
को बराबरी का महत्त्व दे रखा है. दोनों में से जो भी अधिक सीटें लाएगा उसे “स्पेशल
पॅकेज” मिलेगा और NDA में जगह भी. तमिलनाडु
में भी भाजपा ने पहली बार तीन क्षेत्रीय दलों को साथ मिलाने में सफलता हासिल कर ली
है. प्रख्यात अभिनेता विजयकांत की MDMK पार्टी सबसे बड़ी भागीदार रहेगी, इसके अलावा पीएमके को
भी उचित स्थान मिला है. जयललिता और करूणानिधि के सामने यह गठबंधन कुछ ख़ास कर
पाएगा, इसकी उम्मीद बहुत लोगों को नहीं है. परन्तु यह गठबंधन तमिलनाडु में कई
सीटों पर “खेल बिगाड़ने” की स्थिति में जरूर रहेगा. यदि टूजी घोटाले की वजह से तमिल
जनता का नज़ला करूणानिधि-राजा-कनिमोझी पर गिरा तो इस गठबंधन को चालीस में से
चार-पांच सीटें जरूर मिल सकती हैं. साथ ही उत्साहजनक बात यह भी है कि जयललिता कह
चुकी हैं कि वे यूपीए-३ की बजाय नरेंद्र
मोदी को प्राथमिकता देंगी. कर्नाटक में येद्दियुरप्पा के आने के पश्चात भाजपा को
किसी गठबंधन की जरूरत नहीं है, और केरल, जहाँ पार्टी ने अकेले लड़ने का फैसला किया
है, वहां भी वह कांग्रेस-मुस्लिम लीग अथवा वाम गठबंधन में से किसी एक का खेल
बिगाड़ने की स्थिति में रहेगी.
जो विश्लेषक और बुद्धिजीवी नरेंद्र मोदी की
वजह से भाजपा को अछूत मानने या अस्पृश्य सिद्ध करने पर तुले हुए थे, वे यह देखकर
आश्चर्यचकित हैं कि ऐसा कैसे हो रहा है? और क्यों हो रहा है? इसका सीधा सा जवाब
यही है कि राजनीति का कच्चे से कच्चा जानकार भी बता सकता है कि कांग्रेस संभवतः 100 सीटों के आसपास सिमट
जाएगी, जबकि NDTV जैसे धुर भाजपा विरोधी
चैनल भी अपने सर्वे में भाजपा को 225 सीटें दे रहे हैं, तो स्वाभाविक है कि बहती हुई हवा के
लपेटे में सारे नए और बेहद छोटे क्षेत्रीय दल नरेंद्र मोदी के साथ जुड़ते चले जा
रहे हैं. बड़े क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करने के अपने नुकसान होते हैं.
उदाहरणार्थ जयललिता-ममता-पटनायक जैसी पार्टियों के साथ यदि चुनाव पूर्व या चुनाव
बाद का गठबंधन किया जाए तो इनकी शर्तें और नखरे इतने अधिक होते हैं कि ये लोग नाक
में दम कर देते हैं. बेचारे वाजपेयी जी ऐसे ही लालची क्षेत्रीय दलों की वजह से
अपने दोनों घुटने कमज़ोर करवा बैठे थे, लेकिन इनकी मांगें लगातार बढ़ती ही जातीं.
नरेंद्र मोदी इस स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ हैं, इसीलिए वे छोटे-छोटे दलों गठबंधन
कर रहे हैं. इसके अलावा ऐसे-ऐसे लोगों को (उदाहरणार्थ – सतपाल महाराज, जगदम्बिका
पाल, उदित राज इत्यादि) भाजपा में प्रवेश दे रहे हैं अथवा सीट शेयरिंग कर रहे हैं,
जिनके बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था. सेकुलरिज़्म की रतौंधी से युक्त पुरोधाओं को जम्मू-कश्मीर
से भी तगड़ा झटका लगा है, मुफ्ती मोहम्मद सईद ने भी कह दिया है कि कश्मीर की
समस्याओं के बारे में UPA की बजाय
NDA की सरकार में
अधिक समझ थी. अर्थात वे अभी से अगली NDA सरकार में अपनी “खिड़की” खुली रखना चाहते हैं. ज़ाहिर है कि नरेंद्र मोदी की बहती
हवा और NDA सरकार बनने की सर्वाधिक
संभावना देखते हुए बहुत सारी पार्टियाँ और ढेर सारे नेता अब जाकर धीरे-धीरे
नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई अत्यधिक कड़वी बात कहने से बच रहे हैं. सभी को दिखाई दे
रहा है कि अगली सरकार बगैर नरेंद्र मोदी की मर्जी के बगैर बनने वाली नहीं है. कहीं
भाजपा 250 सीटें पार कर गई तब तो
उसे किसी भी “ब्लैकमेलर” की जरूरत नहीं पड़ेगी.
परन्तु यदि जैसा कि भाजपा के कुछ भितरघाती तथा तीसरे मोर्चे(???) के कुछ अवसरवादी
अपनी यह इच्छा बलवती बनाए हुए हैं कि किसी भी तरह से काँग्रेस को सौ सीटों के
आसपास तथा भाजपा को 200 सीटों के आसपास रोक
लिया जाए तो पाँच साल के लिए उन लोगों की चारों उँगलियाँ घी में, सिर कढाई में और
पाँव मखमल पर आ जाएँगे. स्वाभाविक है कि गुजरात में अपनी शर्तों पर बारह साल तक
सत्ता चलाने वाले नरेंद्र मोदी इतने बेवकूफ तो नहीं हैं, कि वे इन “बैंगनों-लोटों” तथा सामने से
मुस्कुराकर पीठ में खंजर घोंपने को आतुर लोगों की घटिया चालें समझ ना सकें.
अब हम आते हैं नरेंद्र मोदी और भाजपा की
सबसे महत्त्वपूर्ण रणभूमि अर्थात यूपी-बिहार की तरफ. अगले प्रधानमंत्री का रास्ता
यहीं से होकर गुजरने वाला है. यह बात नरेंद्र मोदी और संघ-भाजपा सभी जानते हैं,
इसीलिए जैसा कि मैंने ऊपर लिखा, बनारस से नरेंद्र मोदी को लड़वाने का फैसला एक
मास्टर स्ट्रोक साबित होने वाला है. सामान्यतः सेकुलर सोच वाले बुद्धिजीवियों ने
सोचा था कि नरेंद्र मोदी गुजरात की किसी भी सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ेंगे, परन्तु
सभी को गलत साबित करते हुए नरेंद्र मोदी ने लखनऊ भी नहीं, सीधे वाराणसी को चुना. वाराणसी
सीट का अपना एक अलग महत्त्व है, ना सिर्फ राजनैतिक, बल्कि रणनीतिक और धार्मिक भी. काशी
से नरेंद्र मोदी के खड़े होने का जो “प्रतीकात्मक” महत्त्व है वह भाजपा
कार्यकर्ताओं के मन में गुदगुदी पैदा करने वाला तथा यूपी-बिहार में घुसे बैठे
जेहादियों के दिल में सुरसुरी पैदा करने वाला है. यहाँ के प्रसिद्द संकटमोचन मंदिर
में हुए बम विस्फोट की यादें अभी लोगों के दिलों में ताज़ा हैं, साथ ही काशी
विश्वनाथ मंदिर अपने-आप में एक विराट हिन्दू “आईकॉन” है ही. धार्मिक मुद्दे फिलहाल
इस चुनाव में इतने हावी नहीं हैं, परन्तु वाराणसी सीट का राजनैतिक महत्त्व बहुत
ज्यादा है. बिहार और पूर्वांचल की सीमा के पास स्थित होने के कारण नरेंद्र मोदी के
यहाँ से लड़ने का फायदा पूर्वांचल की लगभग तीस सीटों पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष
रूप से पड़ेगा. पिछले चुनावों में भाजपा इस इलाके में बहुत कमजोर साबित हुई थी.
नरेंद्र मोदी की उपस्थिति से कार्यकर्ताओं का मनोबल भी उछाल मार रहा है. विरोधियों
में कैसा हडकंप मचा हुआ है, यह इसी बात से साबित हो जाता है कि इसी घोषणा के बाद
मुलायम सिंह को भी अपनी रणनीति बदलते हुए मैनपुरी के साथ-साथ आजमगढ़ से चुनाव लड़ने
की घोषणा करनी पड़ी. मुलायम के आजमगढ़ से मैदान में उतरने का फायदा जहाँ एक तरफ सपा
के यादव-मुस्लिम वोट बैंक को हो सकता है, वहीं उनके लिए खतरा यह भी है कि आजमगढ़ की
“विशिष्ट छवि” के कारण पूर्वांचल में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की
संभावनाएं भी बढ़ जाएँगी, जो मोदी-भाजपा के लिए फायदे का सौदा ही होंगी. उधर लालू
भी अपने सदाबहार अंदाज़ में “साम्प्रदायिक शक्तियों(???) को रोकने के नाम पर ताल
ठोंकने लगे हैं. जबकि अनुमान यह लगाया जा रहा है कि बिहार में लालू की पार्टी इन
चुनावों में तीसरे स्थान पर रह सकती है. नरेन्द्र मोदी के वाराणसी में उतरने के
कारण बहुतों की योजनाएं गड़बड़ा गई हैं, सभी को उसी के अनुसार फेरबदल करना पड़ रहा
है. परन्तु इतना तो तय है कि यूपी-बिहार 120 सीटों में से यदि भाजपा साठ सीटें नहीं जीत पाई, तो
उसके लिए दिल्ली का रास्ता मुश्किल सिद्ध होगा. इसीलिए नरेंद्र मोदी ने हिम्मत
दिखाते हुए बनारस से लड़ने का फैसला किया है, जबकि यहाँ से मुरलीमनोहर जोशी पिछला
चुनाव बमुश्किल 17,000 वोटों से ही जीत सके
थे. लेकिन यह जुआ खेलना बहुत जरूरी था, क्योंकि वाराणसी से मोदी की जीत भविष्य में
बहुत से सेकुलरों-बुद्धिजीवियों और विश्लेषकों का मुँह सदा के लिए बंद कर देगी.
क्रिकेट की भाषा में अक्सर भाजपा को “दक्षिण अफ्रीका” की टीम कहा जाता है, जो
बड़े ही दमदार तरीके से जीतते हुए फाईनल तक तो पहुँचती है, परन्तु फाईनल में आकर
उसे पता नहीं क्या हो जाता है और उसके खिलाड़ी अचानक खराब खेलकर टीम हार जाती है.
कुछ-कुछ ऐसा ही इस आम चुनाव में भी हो रहा है. चार विधानसभा में तीन में सुपर-डुपर
जीत तथा दिल्ली में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद एवं नरेंद्र मोदी की लगातार जारी
धुँआधार रैलियों और काँग्रेस पर हमले की वजह से आज भाजपा “फ्रंट-रनर” के रूप में सामने है, लेकिन टीम के कुछ “गरिष्ठ खिलाड़ियों” को कैप्टन के निर्णय पसंद नहीं आ रहे हैं. कुछ
खिलाड़ी सीधे सामने आकर, जबकि कुछ खिलाड़ी परदे के पीछे से लगातार इस कोशिश में लगे
हुए हैं कि किसी भी तरह फाईनल में यह टीम “200 रन” के आसपास ही उलझकर रह जाए, ताकि मैच के अंतिम ओवरों में
विपक्षी टीम के कुछ अन्य “खिलाड़ियों” के साथ मिलकर मैच फिक्सिंग करते हुए जीत की वाहवाही भी लूटी जा सके.
नरेंद्र मोदी इस बात को समझते हैं कि विरोधी खेमे में भगदड़ का फायदा उठाने
वाली इस रणनीति का सिर्फ तात्कालिक फायदा है, और वह है किसी भी सूरत में भाजपा
(एवं NDA) को 272+ तक ले जाना. यदि
उत्तर-पश्चिम भारत में मोदी का जादू मतदाताओं के सर चढ़कर बोला और अकेले भाजपा अपने
दम पर 225-235 तक भी ले आती है, तो
निश्चित जानिये कि ढेर सारे “थाली के बैंगन” और “बिन पेंदे के लोटे” तैयार बैठे
मिलेंगे, जो मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए खुद अपनी तरफ से जी-जान लगा देंगे,
आखिर सत्ता ही सबसे बड़ी मित्र होती है, और वक्त की दीवार पर साफ़-साफ़ लिखा है कि
नरेंद्र मोदी सत्ता में आ रहे हैं. गुजरात दंगों को लेकर पिछले बारह साल से जो “गाल-बजाई” चल रही थी, उसका अंत
होने ही वाला है. जिस तरह “सेकुलर गिरोह” ने 1996 में वाजपेयी को अछूत बनाकर घृणित चाल चली थी, ठीक उसी प्रकार या कहें कि
उससे भी अधिक घृणित चालें चलकर मुस्लिमों को डराकर, सेकुलरिज़्म के नाम पर मीडिया
और NGOs की गैंग की मदद से
नरेंद्र मोदी को लगातार “राजनैतिक अछूत” बनाने की असफल कोशिश की गई. इस अभियान में नीतीश कुमार
से लेकर दिग्विजयसिंह सभी ने अपनी-अपनी आहुतियाँ डालीं लेकिन नरेंद्र मोदी शायद
किसी और ही मिट्टी के बने हुए हैं, डटकर अकेले मुकाबला करते रहे और अब जीत उनके करीब
है. महाभारत वाला अभिमन्यु तो बहादुरी से लड़ते हुए चक्रव्यूह में मारा गया था,
लेकिन नरेंद्र मोदी नामक यह आधुनिक अभिमन्यु इस “कुटिल चक्रव्यूह” को तोड़कर न सिर्फ बाहर
निकल आया है, बल्कि अब तो सभी कथित महारथियों को धूल चटाते हुए हस्तिनापुर पर शासन
भी करेगा.
Published in
ब्लॉग
रविवार, 02 मार्च 2014 12:06
Congress - A Sinking Titanic....
डूबता “टाईटैनिक” : भगदड़, बदहवासी और गलतियाँ...
टाईटैनिक जैसे विशाल जहाज
के बारे में कहा जाता था कि वह इतना विशाल और सुरक्षित है कि कभी डूब नहीं सकता,
लेकिन बर्फ की एक चट्टान से टकराने भर से उसमें जो छेद हुआ, वह उसके डूबने के लिए
पर्याप्त रहा. जब टाईटैनिक डूबा तो उसका कप्तान निराश, असहाय अवस्था में चुपचाप
अपने केबिन में जा बैठा था... टाईटैनिक जहाज के हश्र को देखकर 2014 के आम चुनावों में जाने
वाली काँग्रेस की याद आ जाती है. हालांकि अभी लोकसभा के आम चुनाव लगभग तीन माह दूर
हैं, परन्तु काँग्रेस नामक टाईटैनिक जहाज के कप्तान मनमोहन सिंह ने पार्टी की
शोकांतिका पिछले माह ही लिख दी थी. अपनी “दुर्लभ किस्म की” पत्रकार वार्ता में हताश
दिखाई दे रहे मनमोहन सिंह ने अपना विदाई भाषण भी पढ़ दिया और यह भी साफ़ कर दिया कि
अगले आम चुनावों के बाद वे राजनैतिक परिदृश्य पर दिखाई नहीं देंगे.
जापान की एक निजी जनसंपर्क
एवं विज्ञापन कंपनी “देन्त्सू” जब राहुल गाँधी को यह सलाह
देती है कि उन्हें काँग्रेस का घोषणापत्र जारी करने के लिए आम जनता के बीच जाना
चाहिए, तो कभी वे कुलियों के बीच पहुँच जाते हैं तो कभी भोपाल की महिलाओं के बीच.
परन्तु राहुल गाँधी के इस “स्टंट” को ठीक तरीके से निभाने के
लिए उनमें जो प्रतिभा और वाकचातुर्य होना चाहिए, उसका उनमें सख्त अभाव है.
देन्त्सू कंपनी ने “कट्टर सोच नहीं, युवा जोश” के नाम से तमाम शहरों के
होर्डिंग्स, चैनलों, अखबारों एवं वेबसाईटों पर जो विज्ञापन अभियान समय से पहले ही
आरम्भ कर दिया है, जनता में उसकी बहुत ठंडी प्रतिक्रिया मिली. खासकर जब हसीबा अमीन
जैसी युवा काँग्रेस कार्यकर्ता को राहुल गाँधी के साथ दिखाया गया तो भाजपा की सोशल
मीडिया टीम ने तत्काल हसीबा अमीन के पुराने अस्थि-पंजर खोलकर उसके तमाम घोटालों की
लिस्ट जनता के सामने रख दी. जल्दी ही हसीबा अमीन की विदाई कर दी गई, और उसके स्थान
पर दूसरे युवाओं को जगह दी गई, लेकिन जब खुद कप्तान ने ही टाईटैनिक में इतने छेद
कर दिए हों, तो नए-नवेले कप्तान के भरोसे इतना बड़ा जहाज कैसे संभलेगा?
महँगाई और भ्रष्टाचार ये दो
इतने बड़े-बड़े छेद हैं कि दस साल से लगातार भारी होते जा रहे यूपीए के जहाज को
डुबोने के लिए काफी हैं. फिर इसके अलावा इस सरकार के मंत्रियों (जैसे कपिल सिब्बल,
सलमान खुर्शीद, मनीष तिवारी आदि) का अहंकारी रवैया, काँग्रेस के प्रवक्ताओं की “पाँच रूपए थाली”, “बारह रूपए में भरपेट भोजन” जैसी ऊलजलूल बयानबाजी तथा
लगातार नरेंद्र मोदी और गुजरात को कोसने-गरियाने की वजह से आम चुनावों में
काँग्रेस का सूपड़ा साफ़ होना लगभग तय है. कोयला, २जी, हेलीकॉप्टर और कॉमनवेल्थ ये
चार दाग ही इतने बड़े-बड़े हैं कि काँग्रेस अपनी चादर किसी भी कोने में छिपाने की कोशिश
करे, दिख ही जाएँगे. साथ ही आर्थिक नीतियों को लेकर अनिर्णय और मंत्रालयों की आपसी
खींचतान ने काँग्रेस के “जयन्ती नटराजन टैक्स” को जन्म दिया है.
उद्योगपतियों को अपनी योजनाओं की मंजूरी हेतु पर्यावरण मंत्रालय के चक्कर कटवाए जा
रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ अपने चहेतों को पिछले दरवाजे से पुरस्कृत किया जा रहा है.
विदेश नीति पर विभिन्न देशों के हाथों सतत हो रही पिटाई की वजह से देश के मतदाता
के मन में एक क्रोध का भाव है. बची-खुची कसर भाजपा की “चायवाला” रणनीति एवं तेलंगाना बिल
ने पूरी कर ही दी है. जब मणिशंकर अय्यर ने अपनी चिर-परिचित हेकड़ी और सनक वाले
अंदाज़ में नरेंद्र मोदी को “चाय बेचने वाला कभी देश का
प्रधानमंत्री नहीं बन सकता” कहा होगा, उस समय तो वे
खुद को अपनी हाईकमान की निगाहों में हीरो बना हुए समझ रहे होंगे... लेकिन मणिशंकर
अय्यर को अनुमान नहीं था कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी
इसी मुद्दे को लेकर अपनी प्रचार रणनीति में ऐसा नया मसाला ले आएँगे कि काँग्रेस के
“राजकुमार” तक को मजबूरी में कहना
पड़ेगा कि “चायवाले की इज्जत करो”. विभिन्न राज्यों के
लोकसभा इलाकों में लगने वाले चाय के “नमो टी स्टॉल” तथा भाजपा की “चाय पर चर्चा” नामक विज्ञापन रणनीति ने
काँग्रेस में उच्च स्तर पर होश फाख्ता कर दिए हैं. इस हडकंप का अंदाजा इसी बात से
लगाया जा सकता है कि खुद राहुल गाँधी और अहमद पटेल तक को मैदान में उतरना पड़ा.
अहमद पटेल ने बाकायदा बयान जारी करके झूठ बोलने की कोशिश की, कि नरेंद्र मोदी कभी
चाय नहीं बेचते थे, बल्कि कैंटीन के ठेकेदार थे. हालांकि काँग्रेस की प्रतिष्ठा
इतनी गिर चुकी है कि अहमद पटेल की बातों पर शायद ही किसी ने यकीन किया होगा. इस
बीच नरेंद्र मोदी ने अपनी आक्रामक शैली के चलते देश में चारों तरफ तूफानी दौरे करके
भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच जोश तो भर ही दिया है, साथ ही कई सीटों पर आरंभिक आकलन,
प्रत्याशियों की क्षमता तथा संगठन के बारे में जानकारी का पहला राउंड पूरा कर लिया
है. काँग्रेस को नरेंद्र मोदी की “चाय बेचने वाले” तथा “पिछड़ा वर्ग” इन दो तथ्यों की काट नहीं
मिल रही.
जैसा कि ऊपर ज़िक्र किया
काँग्रेस ने तेलंगाना और सीमान्ध्र जैसे 42 सीटों वाले महत्त्वपूर्ण
राज्य में अपने हाथों अपनी कब्र खुद ही खोद ली है. पाठकों को याद होगा कि जिस समय
राजशेखर रेड्डी जीवित थे, उन्होंने आंध्रप्रदेश में काँग्रेस को इतना मजबूत कर दिया
था कि यहीं के सांसदों के बल पर काँग्रेस केन्द्र में सत्तारूढ़ हुई थी. लेकिन
सोनिया गाँधी और उनके निकटस्थ चाटुकारों ने आंधप्रदेश व तेलंगाना में ऐसा बचकाना
और अनुभवहीन खेल खेला कि अब काँग्रेस को “न माया मिली, न राम” जैसे मुहावरे की याद आएगी.
दोनों हाथों में लड्डू रखनी की चाहत वाली सनातन काँग्रेसी रणनीति ने काँग्रेस का
बंटाधार करके रखा हुआ है. तेलंगाना और सीमान्ध्र में भी यही दुर्भाग्यपूर्ण
काँग्रेसी चाल चली गई और जहाँ अटल बिहारी वाजपेयी ने बड़े ही शांतिपूर्ण एवं
सामंजस्यपूर्ण तरीके से तीन राज्यों का गठन कर लिया, वहीं काँग्रेस को एक राज्य के
विभाजन में ही पसीने आ गए हैं जो आगामी लोकसभा चुनावों में उसे बहुत भारी पड़ेंगे.
भाजपा को इन दोनों राज्यों में अधिक नुक्सान इसलिए नहीं है क्योंकि यहाँ भाजपा
पहले से ही लगभग अदृश्य है और उसे चंद्रबाबू या जगनमोहन में से किसी एक को चुनना
भर बाकी है, जो कि नतीजों पर निर्भर करेगा.
मप्र-राजस्थान-गुजरात और छग
इन चारों राज्यों में भाजपा सर्वाधिक मजबूत है, हाल ही में शिवराज-रमण सिंह और
वसुंधरा राजे ने खासी सफलता अर्जित की है, इसलिए फिलहाल नरेंद्र मोदी के नाम पर
यहाँ से भाजपा को सीटें मिलना जितना आसान है, काँग्रेस के लिए उतना ही कठिन. इसलिए
काँग्रेस यहाँ कोई चमत्कार की उम्मीद लगाए ही बैठी रहेगी. उधर दिल्ली में AAP वालों ने पहले ही भाजपा से
अधिक काँग्रेस को नुक्सान पहुँचाया हुआ है, इसलिए वहाँ दावे से कुछ नहीं कहा जा
सकता. हरियाणा में जिस तरह आए दिन हुड्डा पर जूते फेंके जा रहे हैं या अस्थायी
शिक्षक उन्हें तमाचा मारने की जुगाड़ में लगे हुए हैं वहाँ भी काँग्रेस का भविष्य
कुछ उज्जवल नहीं दीखता. हिमाचल और उत्तराखंड में काँग्रेस की हालत इस बात पर
निर्भर करेगी कि हाल ही में सत्ता हासिल करने के बाद वीरभद्र सिंह ने कितना काम
किया है, तथा बहुगुणा को हटाने का कोई फायदा हुआ है कि नहीं. सत्ता हासिल करने की
दृष्टि से देश के दो सबसे प्रमुख राज्यों यूपी और बिहार में काँग्रेस की हालत
पिछले बीस वर्षों से खस्ता ही है, मई २०१४ में भी हालात में कोई विशेष परिवर्तन की
उम्मीद कम ही है. सपा-बसपा के परम्परागत जाति आधारित वोटों, मुज़फ्फरनगर के
बहुचर्चित दंगों की काली छाया तथा नरेंद्र मोदी के वाराणसी सीट से चुनाव लड़ने की
अटकलों ने पहले से ही काँग्रेस के दम-गुर्दे की हवा खराब कर रखी है. ऊपर से
काँग्रेसी खेमे में रीता बहुगुणा, प्रमोद तिवारी और पूनिया की आपसी खींचतान तथा
राहुल गाँधी के सामने “हवाहवाई” उम्मीदवार कुमार विश्वास
ने माहौल बिगाड़ने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है. काँग्रेस का यही हाल बिहार में भी
है, काँग्रेस को उम्मीद थी कि भाजपा से गठबंधन टूटने के बाद नीतीश पके हुए आम की
तरह अपने-आप उसकी झोली में आ गिरेंगे. लेकिन नीतीश फिलहाल अपने पत्ते खोलना नहीं
चाहते और उधर लालू-पासवान ने भी काँग्रेस पर दबाव बना रखा है. उम्मीद यही है कि
बिहार में असली मुकाबला काँग्रेस-लालू गठबंधन तथा भाजपा के बीच होगा, और पाँच साल
की शासन-विरोधी लहर एवं नरेंद्र मोदी के बढते प्रभाव की वजह से नीतीश सिर्फ
वोट-कटवा बनकर रह जाएँगे. झारखंड में भी काँग्रेस की हालत उतनी अच्छी नहीं कही जा
सकती, क्योंकि पहले भी और अब भी मधु कौड़ा के जेल जाने के बाद वहाँ कांग्रेस को
अक्सर झामुमो की पिछलग्गू बनकर ही रहना पड़ता है...| पश्चिम बंगाल में हाल ही में
सम्पन्न पंचायत चुनावों ने ममता की राजनैतिक पकड़ को और मजबूत किया है तथा काँग्रेस
और वाम मोर्चे को कोई मौका नहीं मिला है. सपा के मुलायम की तरह ही ममता भी चाहेंगी
कि आने वाली केन्द्र सरकार में सत्ता की चाभी उनके हाथ में हो. इसलिए उन्होंने
अन्ना हजारे पर सफलतापूर्वक डोरे डालकर उन्हें अपने पाले में कर लिया है. ज़ाहिर है
कि बंगाल में भी काँग्रेस बहुत अधिक की उम्मीद नहीं कर सकती. दूसरी तरफ बाबा
रामदेव नामक शख्स हैं, जो रामलीला मैदान से खदेड़ा जाना कतई भूले नहीं हैं. चाहे
कोई बड़बोले बाबा रामदेव को पसंद करे या ना करे, लेकिन उनकी बात मानने वाले लाखों
अनुयायी देश में मौजूद हैं. इसलिए बाबा रामदेव अपने संगठन “भारत स्वाभिमान” तथा पतंजलि दवाओं के
हजारों आऊटलेट के जरिये कभी फुसफुसाते हुए, तो कभी गरजते हुए, कभी डॉक्टर
सुब्रह्मण्यम स्वामी के साथ मंच साझा करते हुए काँग्रेस की जड़ों में बखूबी मठ्ठा
डाल रहे हैं. उत्तर भारत में निश्चित रूप से बाबा रामदेव कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य
छोड़ेंगे.
अब आते हैं काँग्रेस के
सदैव मजबूत गढ़ रहे दक्षिण में. जैसा कि मैंने पहले ही अपने विश्लेषण में बताया कि
तेलंगाना और सीमान्ध्र में काँग्रेस को जितनी भी सीटें मिलेंगी वह एक तरह से उसके
लिए “बोनस” ही होगा, क्योंकि
विश्लेषकों का अनुमान है कि आंध्र-तेलंगाना की संयुक्त 42 सीटों में से काँग्रेस को
इस बार आठ-दस भी मिल जाएँ तो बहुत है. अतः आंध्रप्रदेश से होने वाली सीटों के
नुकसान की भरपाई काँग्रेस को कर्नाटक और महाराष्ट्र से करनी पड़ेगी. महाराष्ट्र में
शरद पवार पहले ही काँग्रेस पर आँखें तरेर रहे हैं और मोदी से मुलाक़ात करने की धमकी
भर से गठबंधन में उन्होंने पिछले चुनावों जितनी सीटें काँग्रेस से अपने खाते में
हथिया ली हैं. महाराष्ट्र में भाजपा ने RPI के अध्यक्ष रामदास आठवले
को राज्यसभा में पहुँचाकर पहले ही अपने गठबंधन की रूपरेखा तय कर दी है.
सेना-भाजपा-रिपाई का यह गठबंधन पिछले पन्द्रह साल से सत्तारूढ़ काँग्रेस के लिए
खासी मुश्किलें खड़ी करने वाला है. हालांकि दिल्ली में केजरीवाल की ही तरह
महाराष्ट्र में भी काँग्रेस राज ठाकरे को “वोट-कटवा” के रूप में तैयार कर रही
है, परन्तु आदर्श सोसायटी घोटाले के गहरे दाग तथा अजीत पवार द्वारा बांधों को
पेशाब से भरने जैसे फूहड़ बयान उसे निश्चित ही भारी पड़ेंगे. यह कहना मुश्किल है कि
आन्ध्र के नुक्सान की भरपाई महाराष्ट्र से आसानी से हो पाएगी. उड़ीसा में बीजद की
पकड़ ढीली नहीं हुई है. वह काँग्रेस-भाजपा को इतनी आसानी से पैर जमाने नहीं देगी.
इसी प्रकार तमिलनाडु में तो सिर्फ द्रविड़ पार्टियों का ही सिक्का चलता है, दोनों
राष्ट्रीय दल इनमें से जीते हुए दल के पिछलग्गू बनकर ही रहते हैं. अब भी यही होगा.
किंगमेकर कहलाने का जो सपना फिलहाल मुलायम, मायावती और ममता देख रहे हैं, ठीक वही
जयललिता भी देख रही हैं... प्रत्येक दल का सपना है किसी तरह से २५-३० सीटें आ जाएँ
तो बात बन जाए. लगभग सभी चुनावी पंडितों का अनुमान है कि 2014 में त्रिशंकु सरकार बनेगी.
ऐसे में केजरीवाल को भी बीस-पच्चीस सीटों का सपना देखने की पूरी छूट हासिल है. सभी
इसी कोशिश में रहेंगे कि जिस तरह NDA की पहली सरकार को चंद्रबाबू नायडू ने जमकर “दुहा” था, वैसा ही उसे भी दुहने
को मिल जाए, तो दो-चार पीढियाँ तर जाएँ... लेकिन सभी पार्टियाँ नरेंद्र मोदी के
प्रभाव और अदृश्य लहर को भाँपने में फिलहाल असमर्थ पाती हैं. नरेंद्र मोदी अकेले
के करिश्मे पर भाजपा को कितनी सीटें दिलवा पाते हैं, इसका अनुमान अभी कोई भी
सही-सही नहीं लगा पा रहा. यदि भाजपा का प्रत्याशी चयन अच्छा रहा तो चुनाव परिणाम
अप्रत्याशित भी हो सकते हैं. अभी भी आम चुनाव में लगभग दो-तीन माह बचे हैं,
नरेंद्र मोदी की सभाओं में उमड़ने वाली भीड़, तथा जनता के बीच बहता हुआ “अंडर-करंट” अभी और भी बढ़ेगा. नमो टी
स्टॉल लगाकर तथा RSS के समर्पित स्वयंसेवकों की
फ़ौज अब पूरी तरह से मोदी के पक्ष में अभियान चलाने में जुट गई है. आगामी दो माह
में यदि कोई बहुत बड़ी अप्रत्याशित घटना नहीं घटी, या काँग्रेस के पक्ष में “सहानुभूति लहर” चलने लायक कोई दुर्घटना
नहीं हुई, तो काँग्रेस का सफाया तय जानिये.
यानी समूचे परिदृश्य पर एक
बार संक्षिप्त निगाह डालें, तो काँग्रेस के पास अच्छी मात्र में सीटें दिलाने लायक
फिलहाल चार-पाँच राज्य ही हैं, हिमाचल, उत्तराखंड, हरियाणा, महाराष्ट्र और
कर्नाटक. जबकि पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, यूपी, तमिलनाडु, केरल, कश्मीर, झारखंड जैसे
राज्यों में तीसरा मोर्चा के बिखरे हुए खिलाड़ी बाजी मार सकते हैं. सिर्फ इन
राज्यों के भरोसे तो केन्द्र में काँग्रेस की सरकार बनेगी नहीं. ज़ाहिर है कि वह भी
चाहेगी कि तीसरा मोर्चा अधिक से अधिक सीटें लाए. इसीलिए वह परदे के पीछे से
केजरीवाल को हीरो बनाकर उसकी मदद कर रही है, जबकि राज ठाकरे को भी इसी पद्धति से
सेना-भाजपा के वोट काटने के लिए हीरो बना रही है. जिस प्रकार हारती हुई सेना वापस
जाते-जाते मारकाट, तबाही और लूट मचाते हुए जाती है, उसी प्रकार काँग्रेस भी आने
वाली सरकार के लिए विशाल राजकोषीय घाटे और महँगाई के रूप में दो राक्षस छोड़े जा
रही है. खाद्यान्न सुरक्षा बिल तथा स्ट्रीट वेंडर बिल वह पास करवा चुकी है क्योंकि
कोई भी दल उसका राजनैतिक रूप से विरोध करने की स्थिति में ही नहीं था. जबकि
साम्प्रदायिक हिंसा रोकथाम अधिनियम को भी वह सूची में ले आई है, ताकि मुस्लिम
वोटरों को लुभाया जा सके. इसके अलावा अल्पसंख्यक कल्याण, राजीव आवास योजना तथा
सब्सिडी वाले बारह गैस सिलेंडर करके वह निम्न-माध्यम वर्ग को लुभाने की पूरी
तैयारी कर चुकी है, इसमें भले ही देश की अर्थव्यवस्था चौपट ही क्यों ना हो जाए,
उसे कोई फर्क नहीं पड़ता.
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन
द्वारा वर्ष 2009-10 के आंकड़ों
के आधार पर जारी की
गई रिपोर्ट के अनुसार माध्यमिक स्तर की शिक्षा प्राप्त कर चुके ग्रामीण युवकों में
बेरोजगारी दर पांच प्रतिशत और युवतियों में करीब सात प्रतिशत रही। शहरी
क्षेत्रों के युवकों में बेरोजगारी दर 5.9 प्रतिशत और महिलाओं में 20.5 प्रतिशत है। अर्थात शहरी क्षेत्रों में
युवकों की अपेक्षा
युवतियों
में बेरोजगारी दर करीब चार गुना अधिक है। शहरी क्षेत्रों के युवकों में बेरोजगारी
दर 11 प्रतिशत और
युवतियों में 19 प्रतिशत
दर्ज की गयी। स्नातक या उससे आगे की पढ़ाई कर चुकी युवतियों में
बेरोजगारी दर युवकों की बेरोजगारी दर से लगभग दोगुनी है। ग्रामीण
क्षेत्र के स्नातक युवकों में बेरोजगारी दर 16.6 प्रतिशत और युवतियों में 30.4 प्रतिशत रही। शहरी क्षेत्रों के ऐसे युवकों में
बेरोजगारी दर 13.8 प्रतिशत और
युवतियों में 24.7 प्रतिशत
दर्ज की गई है। एक मोटे अनुमान के अनुसार आगामी लोकसभा चुनावों में शहरी और
ग्रामीण इलाकों में लगभग 35% मतदाता 25 वर्ष की आयु से कम
वाले होंगे, जबकि लगभग 15-18 प्रतिशत मतदाता 25 से 40 वर्ष की
आयु के होंगे. जरा सोचिये, राहुल गाँधी जो तथाकथित युवा नेता हैं, फिर भी देश के
युवाओं को आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं... उधर देश के युवा जो विज्ञान, उद्योग एवं
ज्ञान आधारित कार्यों में तेजी से आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्हें नरेंद्र मोदी अपने भाषणों
तथा गुजरात मॉडल से लुभाए चले जा रहे हैं. यह विशाल मतदाता वर्ग (इनमें से भी कई
युवा पहली बार लोकसभा चुनेंगे) जो बेरोजगारी और देश की हालत से त्रस्त है क्या वह
इतनी आसानी से काँग्रेस को बख्श देगा??
आम चुनावों को लेकर अभी से
विभिन्न संस्थाओं, चैनलों एवं अखबारों ने अपने-अपने स्तर पर चुनाव पूर्व सर्वे
आरम्भ कर दिए हैं. सी-वोटर हो या इण्डिया-टुडे हो अथवा जागरण समूह हो, लगभग सभी के
चुनाव-पूर्व सर्वे में दिखाया जा रहा है कि काँग्रेस इस बार अपने ऐतिहासिक निम्नतम
स्तर अर्थात सौ सीटों से भी नीचे सिमट जाएगी. दिसम्बर में हुए सर्वे के अनुसार
विश्लेषक लोग भाजपा को 150 सीटें दे रहे थे, लेकिन
फरवरी आते-आते दो सर्वे और हुए, जिसमें भाजपा को मिलने वाली सीटों की संख्या 200-210 तक आँकी जा रही है. इन
सर्वे के नतीजों पर “बहसियाने और बकबकाने वाले
अधिकाँश तथाकथित बुद्धिजीवी (लेकिन वास्तव में काँग्रेसी प्रवक्ता)” भी इन नतीजों से मोटे तौर
पर सहमत हैं. इसी से पता चलता है कि देश में काँग्रेस विरोधी एक लहर चल रही है,
जनता अब इनसे बुरी तरह उकता चुकी है, और पहला मौका पाते ही यूपीए को सत्ता से उखाड़
फेंकना चाहती है. मई २०१४ में देश का नया गैर-काँग्रेसी प्रधानमंत्री कौन होगा, यह
भविष्य के गर्भ में है.
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