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सोमवार, 20 जून 2011 13:13

Rajiv Gandhi Foundation, Trusts, NGOs and Gandhi Family

सम्पत्ति का हिसाब माँगने का अधिकार सिर्फ़ कांग्रेस को है…(सन्दर्भ :- राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन)...... 

जब से बाबा रामदेव और अण्णा हजारे ने भ्रष्टाचार के नाम पर कांग्रेस की नाक में दम करना शुरु किया है, तभी से बाबा रामदेव कांग्रेस के विभिन्न मंत्रियों के निशाने पर हैं। आये दिन उन्हें “व्यापारी”, “ढोंगी”, “भ्रष्ट”, “ठग” इत्यादि विशेषणों से नवाज़ा जा रहा है। कांग्रेस के इस खेल में मीडिया का एक बड़ा हिस्सा और स्वयंभू बड़े पत्रकारों का वह दल भी शामिल है जिन्हें नियमित रूप से कांग्रेस द्वारा “हफ़्ता” पहुँचाया जाता है, कभी कागज के कोटे के रूप में, कभी प्रेस के लिये मुफ़्त (या सस्ती) जमीन के रूप में तो कभी “हो रहा भारत निर्माण…” के विज्ञापनों के नाम पर…


बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान ट्रस्ट (http://www.bharatswabhimantrust.org/bharatswa/)(Bharat Swabhiman Trust)और दिव्य योगपीठ (http://www.divyayoga.com/)(Divya Yog Mandir) के हिसाब-किताब और आय-व्यय का ब्यौरा माँगने में यह स्वनामधन्य और कथित “खोजी पत्रकार”(?) सबसे आगे रहे। इन पत्रकारों की “स्वामिभक्ति” को देखते हुए बाबा रामदेव ने अपने ट्रस्ट की सम्पत्ति घोषित कर दी, साथ ही यह भी बता दिया कि अन्य सभी जानकारी रजिस्ट्रार के दफ़्तर, आयकर विभाग एवं अन्य सभी सरकारी विभागों से प्राप्त की जा सकती है। ये बात और है कि “खोजी पत्रकारों” की, उन दफ़्तरों में जाकर कुछ काम-धाम करने की मंशा कभी नहीं थी, उनका असली काम था “कीचड़ उछालना”, “बदनाम करना” और “सनसनी फ़ैलाना”, इन तीनों कामों में बड़े-बड़े पत्रकार अपने करियर के शुरुआती दिनों से ही माहिर रहे हैं और उन्होंने अपने “मालिक” पर हुए हमले का करारा जवाब बाबा रामदेव को दिया भी… ठीक उसी प्रकार, जैसे उनके मालिक को जूता दिखाने भर से गुलामों ने उस बेचारे की धुनाई कर दी, जो बेचारा चाहता तो उतने समय में चार जूते मार भी सकता था। ऐसी प्रेस कान्फ़्रेंसों में अक्सर “गुलामों” को ही आगे-आगे बैठाया जाता है ताकि “असुविधाजनक” प्रश्नों को सफ़ाई से टाला (टलवाया) जा सके…।

खैर… बात हो रही थी सम्पत्ति का हिसाब माँगने की…। शायद इन बड़े पत्रकारों और स्वनामधन्य “सबसे तेज” चैनलों को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि वे कभी यह पता लगाएं कि आज की तारीख में सोनिया गाँधी कितने फ़ाउण्डेशनों, कितने ट्रस्टों, कितने फ़ण्डों की अध्यक्ष, “मानद अध्यक्ष”(?), “ट्रस्टी”, “बोर्ड सदस्य” अथवा लाभान्वितों में हैं। सोनिया गाँधी के “निजी मनोरंजन क्लब” (यानी http://nac.nic.in/ - National Advisory Commission – NAC) में जो एक से बढ़कर एक “NGO धुरंधर” बैठे हैं, कभी उनकी सम्पत्ति और उन्हें मिलने वाले देशी-विदेशी अनुदानों के बारे में जानकारी निकालें, तो आँखें फ़ट जाएंगी, दिमाग हिल जाएगा और कलेजा अन्दर धँस जाएगा। इन पत्रकारों(?) ने कभी यह जानने की ज़हमत नहीं उठाई कि सोनिया गाँधी “अप्रत्यक्ष रूप से” उनमें से कितने NGOs की मालकिन हैं, उन NGOs की सम्पत्ति कितनी है, उन्हें कितना सरकारी अनुदान, कितना निजी अनुदान और कितना विदेशी अनुदान प्राप्त होता है? लेकिन बाबा रामदेव की सम्पत्ति के बारे में चिल्लाचोट करना उनका फ़र्ज़ बनता था…

ऐसा नहीं है कि किसी ने भी सोनिया गाँधी के “मालिकाना हक” वाले इन फ़ाउण्डेशनों और ट्रस्टों के हिसाब-किताब और सम्पत्ति के बारे में जानने की कोशिश नहीं की। सूचना का अधिकार से सम्बन्धित बहुत से स्वयंसेवी समूहों, कुछ “असली खोजी पत्रकारों” एवं कुछ स्वतन्त्र पत्रकारों ने कोशिश की। परन्तु आपको यह जानकर हैरानी होगी कि पिछले 3-4 साल से “माथाफ़ोड़ी” करने के बावजूद अभी तक कोई खास जानकारी नहीं मिल सकी, कारण – केन्द्रीय सूचना आयुक्त ने यह निर्णय दिया है कि राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन (http://www.rgfindia.com/)(Rajiv Gandhi Foundation) तथा जवाहरलाल मेमोरियल फ़ण्ड (http://www.jnmf.in/)(Jawaharlal Memorial Fund) जैसे संस्थान “सूचना के अधिकार” कानून के तहत अपनी सूचनाएं देने के लिये बाध्य नहीं हैं। मामला अभी भी हाइकोर्ट तक पहुँचा है और RTI के सक्रिय कार्यकर्ताओं ने “सूचना आयुक्त के अड़ियल रवैये” के बावजूद हार नहीं मानी है। RGF के बारे में सूचना का अधिकार माँगने पर अधिकारी ने यह जवाब देकर आवेदनकर्ता को टरका दिया कि “राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन सूचना देने के लिये बाध्य नहीं है। यह फ़ाउण्डेशन एक “सार्वजनिक उपक्रम” नहीं माना जा सकता, क्योंकि इस फ़ाउण्डेशन को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कोई सरकारी अनुदान नहीं मिलता है, न ही सरकार की इसमें कोई भागीदारी है और न ही इसके ट्रस्टी बोर्ड के चयन/नियुक्ति में सरकार का कोई दखल होता है… अतः इसे सूचना का अधिकार के कार्यक्षेत्र से बाहर रखा जाता है…”। उल्लेखनीय है कि 21 जून 1991 को पूर्व प्रधानमंत्री के “आदर्शों एवं सपनों”(?) को साकार रूप देने तथा देशहित में इसका लाभ बच्चों, महिलाओं एवं समाज के वंचित वर्ग तक पहुँचाने के लिये राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन की स्थापना की गई थी।

RTI कार्यकर्ता श्री षन्मुगा पात्रो ने सिर्फ़ इतना जानना चाहा था कि RGF द्वारा वर्तमान में कितने प्रोजेक्ट्स और कहाँ-कहाँ पर जनोपयोगी कार्य किया जा रहा है? परन्तु श्री पात्रो को कोई जवाब नहीं मिला, तब उन्होंने सूचना आयुक्त के पैनल में अपील की। आवेदन पर विचार करने बैठी आयुक्तों की पूर्ण बेंच, जिसमें एमएम अंसारी, एमएल शर्मा और सत्यानन्द मिश्रा शामिल थे, ने इस बात को स्वीकार किया कि राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन (RGF) की कुल औसत आय में केन्द्र सरकार का हिस्सा 4% से कम है, लेकिन फ़िर भी इसे “सरकारी अनुदान प्राप्त” संस्था नहीं माना जा सकता। इस निर्णय के जवाब में अन्य RTI कार्यकर्ताओं ने तर्क दिया कि राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन की स्थापना की घोषणा केन्द्र सरकार के वित्त मंत्री द्वारा बजट भाषण में की गई थी। सरकार ने इस फ़ाउण्डेशन के समाजसेवा कार्यों के लिये अपनी तरफ़ से एक फ़ण्ड भी स्थापित किया था। इसी प्रकार राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन जिस इमारत से अपना मुख्यालय संचालित करता है वह भूमि भी उसे सरकार द्वारा कौड़ियों के मोल भेंट की गई थी। शहरी विकास मंत्रालय ने 28 दिसम्बर 1995 को इस फ़ाउण्डेशन के सेवाकार्यों(?) को देखते हुए जमीन और पूरी बिल्डिंग मुफ़्त कर दी, जबकि आज की तारीख में इस इमारत के किराये का बाज़ार मूल्य ही काफ़ी ज्यादा है, क्या इसे सरकारी अनुदान नहीं माना जाना चाहिये? परन्तु यह तर्क और तथ्य भी “खारिज” कर दिया गया।

इस सम्बन्ध में यह सवाल भी उठता है कि राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन को तो सरकार से आर्थिक मदद, जमीन और इमारत मिली है, फ़िर भी उसे सूचना के अधिकार के तहत नहीं माना जा रहा, जबकि ग्रामीण एवं शहरी स्तर पर ऐसी कई सहकारी समितियाँ हैं जो सरकार से फ़ूटी कौड़ी भी नहीं पातीं, फ़िर भी उन्हें RTI के दायरे में रखा गया है। यहाँ तक कि कुछ पेढ़ियाँ और समितियाँ तो आम जनता से सीधा सम्बन्ध भी नहीं रखतीं फ़िर भी वे RTI के दायरे में हैं, लेकिन राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन नहीं है। क्या इसलिये कि यह फ़ाउण्डेशन देश के सबसे “पवित्र परिवार”(???) से सम्बन्धित है?

1991 में राजीव गाँधी के निधन के पश्चात तत्कालीन उपराष्ट्रपति ने राजीव गाँधी के सपनों को साकार करने और लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये एक ट्रस्ट के गठन का प्रस्ताव दिया और जनता से इस ट्रस्ट को मुक्त-हस्त से दान देने की अपील की। 1991-92 के बजट भाषण में वित्तमंत्री ने इसकी घोषणा की और इस फ़ाउण्डेशन को अनुदान के रूप में 100 करोड़ रुपये दिये (1991 के समय के 100 करोड़, अब कितने हुए?)। इसी प्रकार के दो ट्रस्टों (फ़ण्ड) की स्थापना, एक बार आज़ादी के तुरन्त बाद 24 जनवरी 1948 को नेहरु ने “नेशनल रिलीफ़ फ़ण्ड” का गठन किया था तथा दूसरी बार चीन युद्ध के समय 5 नवम्बर 1962 को “नेशनल डिफ़ेंस फ़ण्ड” की स्थापना भी संसद में बजट भाषण के दौरान ही की गई और इसमें भी सरकार ने अपनी तरफ़ से कुछ अंशदान मिलाया और बाकी का आम जनता से लिया गया। आश्चर्य की बात है कि उक्त दोनों फ़ण्ड, अर्थात नेशनल रिलीफ़ फ़ण्ड और नेशनल डिफ़ेंस फ़ण्ड को “सार्वजनिक हित” का मानकर RTI के दायरे में रखा गया है, परन्तु राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन को नहीं…।

राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन को सरकार द्वारा नाममात्र के शुल्क पर 9500 वर्ग फ़ीट की जगह पर एक बंगला, दिल्ली के राजेन्द्र प्रसाद रोड पर दिया गया है। इस बंगले की न तो लाइसेंस फ़ीस जमा की गई है, न ही इसका कोई प्रापर्टी टैक्स भरा गया है। RGF को 1991 से ही FCRA (विदेशी मुद्रा विनियमन कानून 1976) के तहत छूट मिली हुई है, एवं इस फ़ाउण्डेशन को दान देने वालों को भी आयकर की धारा 80G के तहत छूट मिलती है, इसी प्रकार इस फ़ाउण्डेशन के नाम तले जो भी उपकरण इत्यादि आयात किये जाते हैं उन्हें भी साइंस एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च संगठन (SIRO) के तहत 1997 से छूट मिलती है एवं उस सामान अथवा उपकरण की कीमत पर कस्टम्स एवं सेण्ट्रल एक्साइज़ ड्यूटी में छूट का प्रावधान किया गया हैआखिर इतनी मेहरबानियाँ क्यों?

हालांकि गत 4 वर्ष के संघर्ष के पश्चात अब 2 मई 2011 को दिल्ली हाइकोर्ट ने इस सिलसिले में केन्द्र सरकार को नोटिस भेजकर पूछा है कि राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन को RTI के दायरे में क्यों न लाया जाए? उल्लेखनीय है कि हाल ही में मुम्बई में रिलायंस एनर्जी को भी RTI के दायरे में लाया गया है, इसके पीछे याचिकाकर्ताओं और आवेदन लगाने वालों का तर्क भी वही था कि चूंकि रिलायंस एनर्जी (http://www.rel.co.in/HTML/index.html)(Reliance Energy), आम जनता से सम्बन्धित रोजमर्रा के काम (बिजली सप्लाय) देखती है, इसे सरकार से अनुदान भी मिलता है, इसे सस्ती दरों पर ज़मीन भी मिली हुई है… तो यह जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिये। अन्ततः महाराष्ट्र सरकार ने जनदबाव में रिलायंस एनर्जी को RTI के दायरे में लाया, अब देखना है कि राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन और इस जैसे तमाम ट्रस्ट, जिस पर गाँधी परिवार कुण्डली जमाए बैठा है, कब RTI के दायरे में आते हैं। जब राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन सारी सरकारी मेहरबानियाँ, छूट, कर-लाभ इत्यादि ले ही रहा है तो फ़िर सूचना के अधिकार कानून के तहत सारी सूचनाएं सार्वजनिक करने में हिचकिचाहट क्यों?

बाबा रामदेव के पीछे तो सारी सरकारी एजेंसियाँ हाथ-पाँव-मुँह धोकर पड़ गई थीं, क्या राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन, जवाहरलाल मेमोरियल ट्रस्ट इत्यादि की आज तक कभी किसी एजेंसी ने जाँच की है? स्वाभाविक है कि ऐसा सम्भव ही नहीं है… क्योंकि जहाँ एक ओर दूसरों की सम्पत्ति का हिसाब मांगने का अधिकार सिर्फ़ कांग्रेस को है… वहीं दूसरी ओर अपनी सम्पत्ति को कॉमनवेल्थ, आदर्श, 2G और KG गैस बेसिन जैसे "पुण्य-कार्यों" के जरिये ठिकाने लगाने का अधिकार भी उसी के पास सुरक्षित है… पिछले 60 वर्षों से…
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नोट :- 
1) यह बात भी देखने वाली है कि बाबा रामदेव ने अपने कितने रिश्तेदारों को अपने ट्रस्ट में जोड़ा और लाभान्वित किया और राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन जैसे ट्रस्टों से गाँधी परिवार के कितने रिश्तेदार जुड़े और लाभान्वित हुए…

2) हाल ही में 8 जून से 11 जून 2011 तक गाँधी परिवार के सभी प्रमुख सदस्य, श्री सुमन दुबे एवं राजीव गाँधी फ़ाउण्डेशन के कुछ अन्य सदस्य स्विटज़रलैण्ड की यात्रा पर गये थे, जिनमें से कुछ ने खुद को "फ़ाइनेंशियल एडवाइज़र" घोषित किया था… है ना मजेदार बात?

3) श्री सुमन दुबे के पारिवारिक समारोह में शामिल होने ही राहुल गाँधी केरल गये थे जहाँ उन्हें सबरीमाला मन्दिर में हुई भगदड़ की सूचना मिली थी, लेकिन घायलों/मृतकों को देखने जाने की बजाय युवराज छुट्टी मनाने का आनन्द लेते रहे थे…
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पूर्वोत्तर में "शांति स्थापित करने"(?) के प्रयासों के लिए गुवाहाटी के आर्चबिशप थॉमस मेनमपरामपिल को एक लोकप्रिय "इटालियन मैग्जीन" बोलेटिनो सेल्सिआनो ने नोबल शांति पुरस्कार के लिए "नामांकित"(?) किया है। पत्रिका में बताया गया है कि उन्होंने पूर्वोत्तर में विभिन्न जातीय समुदायों के बीच शांति बनाए रखने के लिए कई बार पहल की।



उल्लेखनीय है कि कोई पत्रिका कभी नोबल पुरस्कार के उम्मीदवार नहीं चुनती। खबर में जानबूझकर "नामांकित" शब्द का उपयोग किया गया है ताकि भ्रम फ़ैलाया जा सके। इन आर्चबिशप महोदय ने पूर्वोत्तर के किन जातीय समुदायों में अशांति हटाने की कोशिश की इसकी कोई तफ़सील नहीं दी गई (यह बताने का तो सवाल ही नहीं उठता कि इन आर्चबिशप महोदय ने कितने धर्मान्तरण करवाए)। ध्यान रहे कि आज़ादी के समय मिज़ोरम, मेघालय और नागालैंड की आबादी हिन्दू बहुल थी, जो कि अब 60 साल में ईसाई बहुसंख्यक बन चुकी है। ज़ाहिर है कि "इटली" की किसी पत्रिका की ऐसी 'फ़र्जी अनुशंसा' उस क्षेत्र में धर्मांतरण के गोरखधंधे में लगे चर्च के पक्ष में हवा बांधने और देश के अन्य हिस्सों में सहानुभूति प्राप्त करने की भद्दी कोशिश है।

इससे पहले भी मदर टेरेसा को शांति का नोबल और "संत"(?) की उपाधि से नवाज़ा जा चुका है, बिनायक सेन को कोरिया का "शांति पुरस्कार" दिया गया, अब इन आर्चबिशप महोदय का नामांकन भी कर दिया गया है…। मैगसेसे हो, नोबल हो या कोई अन्य शांति पुरस्कार हो… इनके कर्ताधर्ताओं के अनुसार सिर्फ़ "सेकुलर" व्यक्ति ही "सेवा"(?) और "शांति"(?) के लिए काम करते हैं, एक भी हिन्दू धर्माचार्य, हिन्दू संगठन, हिन्दू स्वयंसेवी संस्थाएं कुछ कामधाम ही नहीं करतीं। असली पेंच यहीं पर है, कि धर्मान्तरण के लिये विश्व भर में काम करने वाले "अपने कर्मठ कार्यकर्ताओं" को पुरस्कार के रूप में "सुपारी" और "मेहनताना" पहुँचाने के लिये ही इन पुरस्कारों का गठन किया जाता है, जब "कार्यकर्ता" अपना काम करके दिखाता है, तो उसे पहले मीडिया के जरिये "चढ़ाया" जाता है, "हीरो" बनाया जाता है, और मौका पाते ही "पुरस्कार" दे दिया जाता है, तात्पर्य यह कि इस प्रकार के सभी पुरस्कार एक बड़े मिशनरी अन्तर्राष्ट्रीय षडयन्त्र के तहत ही दिये जाते हैं… इन्हें अधिक "सम्मान" से देखने या "भाव" देने की कोई जरुरत नहीं है। मीडिया तो इन व्यक्तियों और पुरस्कारों का "गुणगान" करेगा ही, क्योंकि विभिन्न NGOs के जरिये बड़े मीडिया हाउसों में चर्च का ही पैसा लगा हुआ है।
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(नोट - रही बात शांति की, तो सेकुलरों को लगता है कि समूचे पूर्वोत्तर से हिन्दुओं को मार-मारकर भगाने और बाकी बचे-खुचे को धर्मान्तरित करने के बाद "शांति" तो आयेगी ही…, हालांकि हकीकत ये है कि शांति सर्वाधिक वहीं पर होती है, जहाँ हिन्दू बहुसंख्यक हैं…नगालैण्ड और कश्मीर में नहीं)
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बंगलोर के एक पॉश इलाके व्हाइटफ़ील्ड में स्थित सौख्य इंटरनेशनल होलिस्टिक सेंटर में एक वीआईपी मरीज का आयुर्वेदिक इलाज किया जा रहा है, उसे फ़ाइव स्टार श्रेणी की “पंचकर्म चिकित्सा” सुविधा दी जा रही है, ताकि वह जल्द से जल्द स्वस्थ हो सके। यह चिकित्सा उसे माननीय-माननीय (108 बार और जोड़ें) सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप प्रदान की जा रही है। यह वीआईपी मरीज कोई और नहीं, बल्कि कोयम्बटूर एवं बंगलोर बम धमाकों का प्रमुख आरोपी अब्दुल नासेर मदनी है। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (NIA) ने अब्दुल नासेर मदनी के लश्कर से सम्बन्धों की बात स्वीकार की है और जाँच जारी है, परन्तु इस आतंकवादी को बंगलोर के निकट पाँच सितारा स्पा सेण्टर में इलाज दिया जा रहा है, क्योंकि भारत एक “सेकुलर” देश है। ज़ाहिर है कि अब्दुल नासेर मदनी के 26 दिन के इस आयुर्वेदिक कोर्स का लगभग दस लाख का खर्च भारत के ईमानदार करदाताओं की जेब से ही जाएगा। (चित्र में मदनी का आलीशान सुईट)


सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के तहत अब्दुल नासेर मदनी को 7 जून को इस स्पा केन्द्र में भरती किया गया है, क्योंकि “मदनी बचाओ समिति” नाम की “सुपर-सेकुलर संस्था” ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष याचिका दायर करके बताया कि फ़िलहाल व्हील चेयर पर जीवन बिता रहे अब्दुल मदनी को डायबिटीज़, पीठ दर्द एवं न्यूराइटिस (तलवों में जलन) की वजह से चिकित्सा सहायता मुहैया करवाना आवश्यक है। कर्नाटक पुलिस अपना मन मसोसकर और खून जलाकर अब्दुल नासेर मदनी की सेवा में पाँच पुलिस वालों को दिन-रात लगाए हुए है, सोचिये कि पुलिसवालों की मनःस्थिति पर क्या गुज़रती होगी?

साध्वी प्रज्ञा भी मालेगाँव बम धमाकों के सिलसिले में मुम्बई पुलिस की हिरासत में हैं, उनके साथ जो सलूक हो रहा है वह आप यहाँ पढ़ सकते हैं (Sadhvi Pragya Hindu Terrorist??), परन्तु अब्दुल मदनी के इलाज की इस “सेकुलर” घटना से सबसे पहला सवाल तो यही खड़ा होता है कि क्या किसी आतंकवादी को इस प्रकार की पंचकर्म चिकित्सा दी जानी चाहिए? और चलो मान लो कि “गाँधीवादी नपुंसक इंजेक्शन” की वजह से “सेकुलर भारतवासी” इस आतंकवादी के अच्छे स्वास्थ्य की कामना कर भी लें तब भी इसका खर्च हमें क्यों उठाना चाहिए? सुप्रीम कोर्ट को यह निर्देश देना चाहिए था कि मदनी के इस इलाज का पूरा खर्च उसे और उसकी संस्थाओं को दुबई एवं केरल के मदरसों से मिलने वाले चन्दे से वसूला जाए।

एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी ने अपनी व्यथा ज़ाहिर करते हुए कहा कि “क्या पूरे देश के लाखों कैदियों में सिर्फ़ अब्दुल मदनी ही इन बीमारियों से पीड़ित है? फ़िर सिर्फ़ अकेले उसी को यह विशेष सुविधा क्यों दी जा रही है?”, परन्तु ऐसे सवाल पूछना बेकार है क्योंकि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने ही आदेश दिया है और मदनी को बचाने वाली संस्थाएं “सेकुलर” मानी जाती हैं, और वोट बैंक की इस “घृणित” राजनीति के कारण ही 2006 में केरल विधानसभा (जहाँ सिर्फ़ कांग्रेस और वामपंथी हैं) ने सर्वानुमति से एक प्रस्ताव पारित करके अब्दुल नासेर मदनी को रिहा करने की माँग की थी, और जब स्वयं प्रधानमंत्री भी हमें चेता चुके हैं कि संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है तो हमें स्वीकार कर लेना चाहिए…

अफ़ज़ल गुरु हो या अजमल कसाब, भारत सरकार से वीआईपी ट्रीटमेण्ट लेना उनका “पैदाइशी अधिकार” है। वैसे तो “सेकुलरिज़्म” अपने-आप में ही एक घटिया चीज है, लेकिन जब वह कांग्रेस और वामपंथियों के हाथ होती है, तब वह घृणित और बदबूदार हो जाती है… भाजपा भी उसी रास्ते पर चलने की कोशिश कर रही है। ऐसे में “राष्ट्रवादी तत्व” अपना सिर पटकने के लिये अभिशप्त हैं, जबकि “सिर्फ़ मैं और मेरा परिवार” मानसिकता के अधिसंख्य अज्ञानी हिन्दू पैसा कमाने और टैक्स चुकाने में मशगूल हैं, ताकि उस टैक्स के पैसों का ऐसा “सदुपयोग” हो सके…।

(सुप्रीम कोर्ट पर कोई भी टिप्पणी करते समय कृपया “माननीय X 108” शब्द का उपयोग अवश्य करें…)
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अब थोड़ा सा विषयांतर :
चलते-चलते :- बाबा रामदेव के आंदोलन को असफ़ल करने में एक प्रमुख भूमिका निभाने वाले अण्णा हजारे का एक रूप यह भी है, नीचे दी गई लिंक देखें… गाँधीवादी अण्णा, गैर-मराठियों को बाहर करने के मुद्दे पर राज ठाकरे का समर्थन कर रहे हैं…। मैंने पिछली पोस्ट में राज ठाकरे के साथ अण्णा का फ़ोटो दिया था, वह यही इशारा देने के लिए दिया था, कि अण्णा का कोई भरोसा नहीं, ये रामदेव बाबा-भगवाधारियों-संघ-भाजपा का विरोध करते हैं, लेकिन राज ठाकरे की तारीफ़ करते हैं…। महाराष्ट्र में इनके विरोधी इन्हें "सुपारीबाज अनशनकारी" कहते हैं, तो निश्चित ही कोई मजबूत कारण होगा, जो कि जल्दी ही सामने आ जायेगा…
http://newshopper.sulekha.com/hazare-backs-raj-thackeray-s-tirade-against-non-marathis_news_1024638.htm

अग्निवेश नामक “सेकुलर वामपंथी दलाल” को तो सभी लोग अच्छी तरह जानते हैं, इसलिये उसकी बात करना बेकार है…रही बात केजरीवाल और भूषणों की, वे भी जल्दी ही बेनकाब होंगे। रामदेव बाबा (यानी भगवाधारी) को "भ्रष्ट" और "कारोबारी" बताकर उनकी मुहिम का विरोध करने वाले, जल्दी ही सोच में पड़ने वाले हैं… :)
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जैसी कि उम्मीद थी, राजघाट पर अन्ना ने 8-10 घण्टे का "दिखावटी अनशन" करके वापस बाबा रामदेव के आंदोलन को पुनः हथियाने की कोशिश कर ली है। "टीम अन्ना"(?) के NGO सदस्यों ने अन्ना को समझा दिया था कि बाबा रामदेव के साथ "संघ-भाजपा" हैं इसलिये उन्हें उनके साथ मधुर सम्बन्ध नहीं बनाने चाहिए, रही-सही कसर साध्वी ॠतम्भरा की मंच पर उपस्थिति ने पूरी कर दी, इस वजह से अन्ना ने बाबा रामदेव के मंच पर साथ आने में टालमटोल जारी रखी…। 8 जून को भी राजघाट पर अन्ना के सहयोगियों ने अन्ना को “समझा” कर रखा था कि, वे सिर्फ “रामलीला मैदान की बर्बर घटना” का विरोध करें, रामदेव का समर्थन नहीं… (अप्रैल की घटनाएं सभी को याद हैं जब अन्ना हजारे ने बाबा रामदेव को लगभग उपेक्षित सा कर दिया था और मंच के पीछे स्थित भगवा ध्वज थामे भारत माता का चित्र, अखण्ड भारत का लोगो भी हटवा दिया था, क्योंकि वह चित्र "संघ" से जुड़ा हुआ है) यहाँ पढ़ें… http://blog.sureshchiplunkar.com/2011/04/anna-hazare-jan-lokpal-bill-secularism.html। अतः राजघाट पर अन्ना ने रामदेव के साथ हुए व्यवहार की घोर निंदा तो की, लेकिन रामदेव का समर्थन करने या न करने की बात से कन्नी काट ली।


वैसे तो पहले ही कांग्रेस, जन-लोकपाल के लिए गठित साझा समिति की बैठकों में अन्ना हजारे के साथियों को अपमानित करने लगी थी और फ़िर सरकार के अंदर साझा सहमति बन गयी थी कि पहले रामदेव बाबा को अन्ना हजारे के जरिये "माइनस" किया जाए, वही किया गया, मीडिया के जरिये अन्ना हजारे को "हीरो" बनाकर। फ़िर बारी आई रामदेव बाबा की, चार-चार मंत्रियों को अगवानी में भेजकर रामदेव बाबा को "हवा भरकर" फ़ुलाया गया, फ़िर मौका देखकर उन्हें रामलीला मैदान से भी खदेड़ दिया गया। भ्रष्टाचार और काले धन के मुद्दे पर घिरी तथा एक के बाद एक “प्रभावशाली” व्यक्तियों की “तिहाड़ यात्रा” की वजह से कांग्रेस “कुछ भी कर गुज़रने” पर आमादा है, अतः पहले अण्णा को मोहरा बनाकर आगे करने और फ़िर बाबा रामदेव को “संघ-भाजपा” की साजिश प्रचारित करने की इस “कुटिल योजना” में सरकार अब तक पूरी तरह से सफल भी रही है। ये बात और है कि "सेकुलरजन" यह बताने में हिचकिचाते हैं कि यदि इस आंदोलन के पीछे संघ का हाथ है तो इसमें बुराई क्या है? क्या संघ को भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का समर्थन करने का भी हक नहीं है???

वैसे कांग्रेस, मीडिया और NGO गैंग के हाथों की कठपुतली बनकर अण्णा हजारे ने रामदेव बाबा के आंदोलन को पलीता लगा दिया है। जनवरी-फ़रवरी में जब बाबा रामदेव ने अन्ना सहित सभी वर्गों को दिल्ली में एक मंच दिया था, तब उन्हें नहीं पता था कि यह अन्ना जिन्हें महाराष्ट्र के बाहर कोई पहचानता भी नहीं है, और जिसे "अत्यधिक भाव देकर" वे राष्ट्रीय मंच दिलवा रहे हैं, वही एक दिन पीठ में छुरा डालेंगे, लेकिन ऐसा ही हुआ। भले ही इसके जिम्मेदार व्यक्तिगत तौर पर अन्ना नहीं, बल्कि अग्निवेश और भूषण-केजरीवाल जैसे सेकुलर NGO वीर थे, जिन्होंने अन्ना को बरगला कर रामदेव के खिलाफ़ खड़ा कर लिया, परन्तु हकीकत यही है कि पिछले एक साल से पूरे देश में घूम-घूमकर बाबा रामदेव, जो जनजागरण चलाये हुए थे उस आंदोलन को सबसे अधिक नुकसान अन्ना हजारे (इसे "सेकुलर" सिविल सोसायटी पढ़ें) ने पहुँचाया है। ज़ाहिर है कि कांग्रेस अपने खेल में सफ़ल रही, पहले उसने अन्ना को मोहरा बनाकर बाबा के खिलाफ़ उपयोग किया, और अब बाबा को ठिकाने लगाने के बाद अन्ना का भी वही हश्र करेगी, यह तय जानिए। जैसा सिविल सोसायटी वाले चाहते हैं, वैसा जन-लोकपाल बिल अब कभी नहीं बनेगा… और काले धन की बात तो भूल ही जाईये, क्योंकि यह मुद्दा "भगवाधारी" ने उठाया है, और संघ-भाजपा-भगवा ब्रिगेड जब 2+2=4 कहती है तो निश्चित जानिये कि कांग्रेस और उसके लगुए-भगुए इसे 2+2=5 साबित करने में जी-जान से जुट जाएंगे…

यह सब इसलिये भी हुआ है कि एक भगवाधारी को एक बड़ा आंदोलन खड़ा करते और संघ को पीछे से सक्रिय समर्थन देते देखकर कांग्रेस, वामपंथियों और "सो कॉल्ड सेकुलरों" को खतरा महसूस होने लगा था, और रामदेव बाबा के आंदोलन को फ़ेल करने के लिये एक "दूसरों के कहे पर चलने वाले गाँधीटोपीधारी ढपोरशंख" से बेहतर हथियार और क्या हो सकता था…। अब अण्णा हजारे को “निपटाने” की पूरी पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी है, अव्वल तो कांग्रेस अब अण्णा को वैसा “भाव” नहीं देगी जो उसने अप्रैल में दिया था, यदि जन-दबाव की वजह से मजबूरी में देना भी पड़ा तो जन-लोकपाल के रास्ते में ऐसे-ऐसे अड़ंगे लगाये जाएंगे कि अण्णा-केजरीवाल-भूषण के होश फ़ाख्ता हो जाएंगे, अग्निवेश तो “दलाल” है सो उसको तो “हिस्सा” मिल चुका होगा, इसलिये उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। (भगवा पहनने वालों का क्या हश्र होता है, यहाँ पढ़ें… http://blog.sureshchiplunkar.com/2011/04/sadhvi-pragya-malegaon-bomb-blast-sunil.html

बाबा रामदेव का विरोध करने वालों में अधिकतर इसलिये विरोध कर रहे थे, क्योंकि वे “भगवाधारी” हैं, जबकि कुछ इसलिये विरोध कर रहे थे कि उनके अनुसार बाबा भ्रष्ट हैं और वे भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन का नेतृत्व नहीं कर सकते।

पहली श्रेणी के “सेकुलर” तथा “भगवा-रतौंधी” के शिकार लोग दरअसल कांग्रेस को विस्थापित करना ही नहीं चाहते, वे यह बात भी जानते हैं कि वामपंथियों और कथित तीसरी शक्ति की हैसियत कभी भी ऐसी नहीं हो पाएगी कि वे कांग्रेस को विस्थापित कर सकें… परन्तु कांग्रेस ने “शर्मनिरपेक्षता” की चूसनी उनके मुँह में ऐसी ठूंस रखी है कि वे भाजपा-संघ-हिन्दूवादी ताकतों का कभी समर्थन नहीं करेंगे चाहे कांग्रेस देश को पूरा ही बेच खाए। जबकि दूसरी श्रेणी के लोग जो बाबा रामदेव का साथ इसलिये नहीं दे रहे क्योंकि वे उनको भ्रष्ट मानते हैं, वे जल्दी ही यह समझ जाएंगे कि अण्णा को घेरे हुए जो NGO गैंग है, वह कितनी साफ़-सुथरी है। यह लोग कभी नहीं बता पाएंगे कि कांग्रेस से लड़ने के लिये “राजा हरिश्चन्द्र” अब हम कहाँ से लाएं? बाबा की सम्पत्ति की जाँच करवाने वालों और उन पर धन बटोरने का आरोप लगाने वालों को संसद में शहाबुद्दीन, पप्पू यादव, फ़ूलन देवी जैसे लोग भी स्वीकार्य हैं, साथ ही शकर माफ़िया और क्रिकेट माफ़िया का मिलाजुला रूप शरद पवार, विदेशी नागरिक होते हुए भी सांसद बन जाने वाला एम सुब्बा और अमरसिंह जैसा लम्पट और दलाल किस्म का व्यक्ति भी स्वीकार्य है, परन्तु बाबा रामदेव के पीछे समर्थन में खड़े होने पर पेटदर्द उठता है।

रामदेव बाबा को निपटाने के बाद अब कांग्रेस अण्णा और सिविल सोसायटी को निपटाएगी…। फ़िर भी अण्णा के साथ वैसा “बुरा सलूक” नहीं किया जाएगा जैसा कि रामदेव बाबा के साथ किया गया, क्योंकि एक तो अण्णा हजारे “भगवा” नहीं पहनते, न ही वन्देमातरम के नारे लगाते हैं और साथ ही उन्होंने बाबा रामदेव के आंदोलन को भोथरा करने में कांग्रेस की मदद भी की है… सो थोड़ा तो लिहाज रखेगी।

यदि गलती से भविष्य में किसी “गाँधीटोपीधारी” या “वामपंथी नेतृत्व” में कांग्रेस के खिलाफ़ कोई बड़ा आंदोलन खड़ा होने की कोशिश करे (वैसे तो कोई उम्मीद नहीं है कि ऐसा हो, फ़िर भी) तो हमारा भी फ़र्ज़ बनता है कि उसे टंगड़ी मारकर गिराने में अपना योगदान दें…। क्योंकि यदि उन्हें “भगवा” से आपत्ति है तो हमें भी “लाल”, “हरे” और “सफ़ेद” रंग से आपत्ति करने का पूरा अधिकार है…। यदि उन्हें बाबा रामदेव भ्रष्ट और ढोंगी लगते हैं तो हमें भी उनके गड़े मुर्दे उखाड़ने, “सेकुलरिज़्म” के नाम चल रही दुकानदारी और देशद्रोहिता तथा उनकी कथित “ईमानदारी”(?) और “लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं” की असलियत जनता के सामने ज़ाहिर करने का हक है…
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