desiCNN - Items filtered by date: सितम्बर 2010
पिछले एक-दो महीने से सभी लोगों ने तमाम चैनलों के एंकरों को गला फ़ाड़ते, पैनलिस्ट बने बैठे फ़र्जी बुद्धिजीवियों को बकबकाते और अखबारों के पन्ने रंगे देखे होंगे कि अयोध्या के मामले में फ़ैसला आने वाला है हमें "न्यायालय के निर्णय का सम्मान"(?) करना चाहिये। चारों तरफ़ भारी शोर है, शान्ति बनाये रखो… गंगा-जमनी संस्कृति… अमन के लिये उठे हाथ… सुरक्षा व्यवस्था मजबूत… भौं-भौं-भौं-भौं-भौं-भौं… ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला… आदि-आदि। निश्चित ही सभी के कान पक चुके होंगे अयोध्या-अयोध्या सुनकर, मीडिया और सेकुलरों ने सफ़लतापूर्वक एक जबरदस्त भय और आशंका का माहौल रच दिया है कि (पहले 24 सितम्बर) अब 30 सितम्बर को पता नहीं क्या होगा? आम आदमी जो पहले ही महंगाई से परेशान है, उसने कमर टूटने के बावजूद अपने घर पर खाने-पीने के आईटमों को स्टॉक कर लिया।

प्रधानमंत्री की तरफ़ से पूरे-पूरे पेज के विज्ञापन छपवाये जा रहे हैं कि "यह अन्तिम निर्णय नहीं है…", "न्यायालय के निर्णय का पालन करना हमारा संवैधानिक और नैतिक कर्तव्य है"… "उच्चतम न्यायालय के रास्ते सभी के लिये खुले हैं…" आदि टाइप की बड़ी आदर्शवादी लफ़्फ़ाजियाँ हाँकी जा रही हैं, मानो न्यायालय न हुआ, पवित्रता भरी गौमूर्ति हो गई और देश के इतिहास में न्यायालय से सभी निर्णयों-निर्देशों का पालन हुआ ही हो…


प्रणब मुखर्जी और दिग्विजय सिंह जैसे अनुभवी नेता से लेकर "बुरी तरह के अनुभवहीन" मनीष तिवारी तक सभी हमें समझाने में लगे हुए हैं कि राम मन्दिर मामले के सिर्फ़ दो ही हल हैं, पहला - दोनों पक्ष आपस में बैठकर समझौता कर लें, दूसरा - सभी पक्ष न्यायालय के निर्णय का सम्मान करें, तीसरा रास्ता कोई नहीं है। यानी संसद जो देश की सर्वोच्च शक्तिशाली संस्था है वह "बेकार" है, संसद कुछ नहीं कर सकती, वहाँ बैठे 540 सांसद इस संवेदनशील मामले को हल करने के लिये कुछ नहीं कर सकते। यह सारी कवायद हिन्दुओं को समझा-बुझाकर मूर्ख बनाने और मामले को अगले और 50 साल तक लटकाने की भौण्डी साजिश है। क्योंकि शाहबानो के मामले में हम देख चुके हैं कि किस तरह संसद ने उच्चतम न्यायालय को लतियाया था, और वह कदम न तो पहला था और न ही आखिरी…।

अरुण शौरी जी ने 1992 में एक लेख लिखा था और उसमें बताया था कि किस तरह से देश की न्यायपालिका को अपने फ़ायदे के लिये नेताओं और सेकुलरों द्वारा जब-तब लताड़ा जा चुका है - गिनना शुरु कीजिये…

एक- यदि हम अधिक पीछे न जायें तो जून 1975 में इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय ने श्रीमती गांधी को चुनाव में भ्रष्‍ट आचरण का दोषी पाकर छह सालों के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्‍य ठहरा दिया था। न्यायालय के इस निर्णय के खिलाफ "प्रायोजित प्रदर्शन" करवाये गये। जज का पुतला जलाया गया। श्रीमती गांधी ने सर्वोच्‍च न्‍यायालय में फैसले के खिलाफ अपील की। उनके वकील ने न्‍यायालय से कहा, ‘’सारा देश उनके (श्रीमती गांधी के) साथ है। उच्‍च न्‍यायालय के निर्णय पर ‘स्‍टे’ नहीं दिया गया तो इसके गंभीर परिणाम होंगे।" सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने सशर्त ‘स्‍टे’ दिया। देश में आपात स्थिति लागू कर दी गई, हजारों लोगों को जेलों में बंद कर दिया गया। चुनाव-कानूनों में इस प्रकार परिवर्तन किया गया कि जिन मुद्दों पर श्रीमती गांधी को भ्रष्‍ट-आचरण का दोषी पाया गया था वे आपत्तिजनक नहीं माने गये, वह भी पूर्व-प्रभाव के साथ। कहा गया कि तकनीकी कारणों से जनादेश का उल्‍लंघन नहीं किया जा सकता। "तथाकथित प्रगतिशील" लोगों ने इसकी जय-जयकार की, उस समय किसी को न्यायपालिका के सम्मान की याद नहीं आई थी।

दो- कई वर्षों की मुकदमेबाजी तथा नीचे के न्‍यायालयों के कई आदेशों के बाद आखिरकार 1983 में सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने आदेश दिया कि वाराणसी में शिया-कब्रगाह में सुन्नियों की दो कब्रें हटा दी जायें। उत्तर प्रदेश के सुन्नियों ने इस निर्णय पर बवाल खड़ा कर दिया (जैसा कि वे हमेशा से करते आये हैं)। उत्तर प्रदेश की सरकार ने कहा कि न्यायालय का आदेश लागू करवाने पर राज्य की शांति, व्यवस्था को खतरा पैदा हो जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ही आदेश के कार्यान्वयन पर दस साल की रोक लगा दी। लेकिन संविधान के किसी "हिमायती"(?) ने जबान नहीं खोली।

तीन- 1986 में सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित किया कि, जिस मुस्लिम पति ने चालीस साल के बाद अपनी लाचार और बूढ़ी पत्नी को छोड़ दिया है, उसे पत्नी को गुजारा भत्ता देना चाहिये। इसके खिलाफ भावनाएँ भड़काई गईं। सरकार ने डर कर संविधान इस प्रकार बदल दिया कि न्यायालय का फैसला प्रभावहीन हो गया। राजीव भक्तों ने कहा कि यदि "ऐसा नहीं करते तो मुसलमान हथियार उठा लेते”। उस समय सभी सेकुलरवादियों ने वाह-वाह की, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को जूते लगाने का यह सबसे प्रसिद्ध मामला है।

चार-अक्तूबर 1990 में जब वी.पी.सिंह ने मण्डल को उछाला तो उनसे पूछा गया कि यदि न्यायालयों ने आरक्षण-वृद्धि पर रोक लगा दी तो क्या होगा? उन्होंने घोषणा की- हम इस बाधा को हटा देंगे, यानी संसद और विधानसभाओं में बहुमत के आधार पर न्यायालय के निर्णय को धक्का देकर गिरा देंगे, "प्रगतिशील"(?) लोगों ने उनकी पीठ ठोकी… न्यायालय के सम्मान की कविताएं गाने वाले दुबककर बैठे रहे…

पांच- 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने कावेरी जल विवाद पर अपना फैसला सुनाया-
"न्यायाधिकरण के आदेश मानने जरूरी हैं” परन्तु सरकार ने आदेश लागू नहीं करवाये। कभी कहा गया कर्नाटक जल उठेगा तो कभी कहा गया तमिलनाडु में आग लग जायेगी… न्यायपालिका के सम्मान की बात तो कभी किसी ने नहीं की?

छह- राज्यसभा में पूछे गये एक सवाल- कि रेल विभाग की कितनी जमीन पर लोगों ने अवैध कब्जा जमाया हुआ है? रेल राज्य मंत्री ने लिखित उत्तर में स्वीकार किया कि रेल्वे की 17 हजार एकड़ भूमि पर अवैध कब्जा है तथा न्यायालयों के विभिन्न आदेशों के बावजूद यह जमीन छुड़ाई नहीं जा सकी है क्योंकि गैरकानूनी ढंग से हड़पी गई जमीन को खाली कराने से "शांति भंग होने का खतरा"(?) उत्पन्न हो जायेगा… किसी सेकुलर ने, किसी वामपंथी ने, कभी नहीं पूछा कि "न्यायालय का सम्मान" किस चिड़िया का नाम है, और जो हरामखोर सरकारी ज़मीन दबाये बैठे हैं उन्हें कब हटाया जायेगा?


सात - अफ़ज़ल गुरु को सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ाँसी की सजा कब की सुना दी है, उसके बाद दिल्ली की सरकार (ज़ाहिर है कांग्रेसी) चार साल तक अफ़ज़ल गुरु की फ़ाइल दबाये बैठी रही, अब प्रतिभा पाटिल दबाये बैठी हैं… सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय और सम्मान(?) गया तेल लेने।

आठ - लाखों टन अनाज सरकारी गोदामों में सड़ रहा है, शरद पवार बयानों से महंगाई बढ़ाये जा रहे हैं, कृषि की बजाय क्रिकेट पर अधिक ध्यान है। सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि अनाज गरीबों में बाँट दो, लेकिन IMF और विश्व बैंक के "प्रवक्ता" मनमोहन सिंह ने कहा कि "…नहीं बाँट सकते, जो उखाड़ना हो उखाड़ लो… हमारे मामले में दखल मत दो"। कोई बतायेगा किस गोदाम में बन्द है न्यायपालिका का सम्मान?

ऐसी अनेक घटनाएं हैं, जिनमें सरेआम निचले न्यायालय से लेकर, विभिन्न अभिकरणों, न्यायाधिकरणों और सर्वोच्च न्यायालय तक के आदेशों, निर्देशों और निर्णयों को ठेंगा दिखाया गया है, इनमें जयपुर के ऐतिहासिक बाजारों में अवैध निर्माण को हटाने के न्यायालय के आदेशों से लेकर कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा एक "अवैध मस्जिद" को नष्ट करने के आदेशों तक की लम्बी श्रृंखला है, जिनकी अनुपालना "शांति भंग होने की आशंका"(?) से नहीं की गई, इसके उलट बंगाल की अवैध मस्जिद को तो नियमित ही कर दिया गया।


इनका पहला सबक है, कि सरकार और कानून एक खोखला मायाजाल है। जब शासक वर्ग श्रीमती गाँधी की तरह अपने स्वार्थों के लिये कानून को बदल देता है, जब न्यायालय आपात-स्थिति में दिए गये निर्णयों की तरह शासकों के भय से खुद कानून की हत्या कर देते हैं, जब सरकार शाहबानों मामले की तरह "एक वर्ग के भय"(?) से घुटने टेक देती है, जब सरकार आतंकवादियों की चुनौती का सामना करने में कमजोर साबित होती है तो दूसरे भी यह नतीजा निकालते हैं, कि सरकार को झुकाया जा सकता है- झुकाया जाना चाहिये, कि न्याय और कानून भी ताकतवर के कहे अनुसार चलते हैं, परन्तु राम मन्दिर के मामले में हिन्दुओं को लगातार नसीहतें, भाषण, सबक, सहिष्णुता के पाठ, नैतिकता की गोलियाँ, गंगा-जमनी संस्कृति के वास्ते-हवाले सभी कुछ दिया जा रहा है। कारण साफ़ है कि यह उस समुदाय से जुड़ा हुआ मामला है जो कभी वोट बैंक नहीं रहा, हजारों जातियों में टुकड़े-टुकड़े बँटा हुआ है, जिसका न तो कोई सांस्कृतिक स्वाभिमान है, और न ही जिसे इस्लामिक वहाबी जेहाद के खतरे तथा चर्च और क्रॉस की "मीठी गोलीनुमा" छुरी का अंदाज़ा है।

सेकुलरिज़्म के पैरोकार और वामपंथ के भोंपू जिसे ‘हिन्दू कट्टरपंथी’ कहते हैं वह रातोंरात पैदा नहीं हो गया है, उन्होंने देखा है कि सामान्य निवेदनों पर जो न्यायालय और सरकार कान तक नहीं देते वे "संगठित समुदाय के एक धक्के" से दो सप्ताह में ही ध्यान से बात सुनने को तैयार हो जाते हैं। यह सबक अच्छा तो नहीं है, पर कांग्रेसी सरकारों और कछुआ न्यायालयों ने ही यह सबक उन्हें सिखाया है। कांग्रेस का छद्म सेकुलरिज़्म, वामपंथ का मुस्लिम प्रेम और हिन्दू विरोध, हुसैन और तसलीमा टाइप का सेकुलरिज़्म और कछुआ न्यायालय ये चारों ही हिन्दू कट्टरपंथ को जन्म देने वाले मुख्य कारक हैं…

रही मीडिया की बात, तो उसे विज्ञापन की हड्डी डालकर, ज़मीन के टुकड़े देकर, आसानी से खरीदा जा सकता है, खरीदा जा चुका है…। जहाँ मुस्लिम और सिख साम्प्रदायिकता ने लगातार सरकार से मनमानी करवाई है, हमारे समाचार-पत्रों और चैनलों ने दोहरे-मापदण्ड, और कुछ मामलों में तो "दोगलेपन" का सहारा लिया है। जम्मू के डेढ़ लाख शरणार्थियों की अनदेखी इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। क्योंकि यदि वे मुसलमान होते, तो क्या समाचार-पत्र और मानवाधिकार संगठन उनको इस तरह कभी नजर अन्दाज नहीं करते। मीडिया ने पिछले कुछ दिनों से जानबूझकर भय और आशंका का माहौल बना दिया है, ताकि आमतौर पर सहिष्णु और शान्त रहने वाला हिन्दू इस मामले से या तो घबरा जाये या फ़िर उकता जाये।

अयोध्या मामले में भी अखबारों और बिकाऊ चैनलों का यही रुख है। किसी अखबार ने यह नहीं लिखा, कि मध्य-पूर्व के देशों में सड़कें चौड़ी करने जैसे मामूली कारणों से सैंकड़ों मस्जिदें गिरा दी गई हैं। किसी अखबार ने नहीं लिखा कि सऊदी अरब की सरकार ने सामान्‍य नहीं, बल्कि पैगम्‍बर के साथियों की कब्रों और मकबरों तक को ध्‍वस्‍त किया है। जब यह दिखने लगा कि वि.हि.प. द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य वजनी हैं तो उनको अनदेखा किया गया, पुरातात्विक साक्ष्यों को मानने से इंकार कर दिया गया, फ़र्जी इतिहासकारों के जरिये तोड़-मरोड़कर पेश किया गया। इस दोगलेपन ने भी हिन्दुओं का गुस्सा उतना ही भड़काया है, जितना सरकार के मुस्लिम साम्प्रदायिकता के सामने घुटने टेकने ने। हिन्दुओं का यह वर्षों से दबा हुआ गुस्सा, बाबरी ढाँचे के विध्वंस या गुजरात दंगों के रुप में कभीकभार फ़ूटता है।

बकौल अरुण शौरी… "…इस दोगलेपन तथा वहाबी साम्प्रदायिकता और आतंकवाद के सामने घुटने-टेकू सरकारी नीति के कारण हिन्दू भावनाएँ जितनी उग्र हो गई है उनको कम समझना जबर्दस्त भूल होगी…"। संदेश साफ है, ”यदि आप शाहबानों के मामले में सरकार से समर्पण करा सकते हैं तो हम अयोध्या के मामले में ऐसा करेंगे। यदि आप 10 फीसदी का वोट बैंक बना रहे हैं, तो हम 80 प्रतिशत लोगों का वोट-बैंक बनायेंगे, चाहे उसके लिये कोई भी तरीका अपनाना पड़े"। न्यायालय का सम्मान तो हम-आप, सभी करते हैं, लेकिन उसे अमल में भी तो लाकर दिखाओ… सिर्फ़ हिन्दुओं को नसीहत का डोज़ पिलाने से कोई हल नहीं निकलेगा। शाहबानो और अफ़ज़ल गुरु के मामलों में उच्चतम न्यायालय की दुर्गति से सभी परिचित हो चुके हैं, "न्यायालय के सम्मान" के नाम पर हिन्दुओं को अब और बेवकूफ़ मत बनाईये… प्लीज़।

अयोध्या का राम मन्दिर आन्दोलन सात सौ साल पहले हुए एक "दुष्कर्म" का विरोध भर नहीं है, यह तो गत सत्तर सालों की नेहरुवादी-मार्क्सवादी राजनीति के विरोध का प्रतीक है, विशेष कर पिछले दस-बीस सालों की तुष्टीकरण, दलाली, दोमुंहेपन और वोट बैंक की राजनीति का, इसलिये अयोध्या विवाद का हल किसी ‘फारमूले’ में नहीं है। मानो यदि किसी हल पर सहमति हो भी जाती है लेकिन सेकुलर-वामपंथी राजनीति का घृणित स्वरूप ऐसा ही बना रहता है तो अयोध्या से भी बड़ा तथा उग्र आन्दोलन उठ खड़ा होगा।

फ़िर मामले का हल क्या हो??? सीधी बात है, न्यायालय की "टाइम-पास लॉलीपाप" मुँह में मत ठूंसो, संसद में आम सहमति(?) से प्रस्ताव लाकर, कानून बनाकर राम मन्दिर की भूमि का अधिग्रहण करके उस पर भव्य राम मन्दिर बनाने की पहल की जाये, सिर्फ़ और सिर्फ़ यही एक अन्तिम रास्ता है इस मसले के हल का… वरना अगले 60 साल तक भी ये ऐसे ही चलता रहेगा…


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यह प्रश्न सुनने में अजीब लगता है और सामान्यतः जवाब यही होगा कि देशसेवा के लिये शहीद होना निश्चित रुप से अच्छा है। लेकिन केरल के माननीय(?) मुख्यमंत्री वामपंथी श्री अच्युतानन्दन ऐसा नहीं सोचते, उनकी निगाह में जहरीली दारु पीकर मरने वाले की औकात, देश के एक जांबाज़ सैनिक से कहीं अधिक है… क्या कहा विश्वास नहीं होता? लेकिन ऐसा ही है साहब…। आपको तो याद ही होगा, पिछले साल जब ताज होटल के आतंकवादी हमले में शहीद हुए युवा कमाण्डो मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के घर पर जब अच्युतानन्दन जी उनके पिता के पास संवेदना व्यक्त करने (?) गए थे, उस समय मेजर के घर की चेकिंग खोजी कुत्तों द्वारा करवाई गई थी, जिस कारण बुरी तरह से भड़के हुए शोक-संतप्त पिता ने मुख्यमंत्री अच्युतानन्दन को दुत्कार कर अपने घर से भगा दिया था…। धिक्कारे जाने के बावजूद अच्युतानन्दन का बयान था कि "यदि वह घर संदीप का नहीं होता तो उधर कोई कुत्ता भी झाँकने न जाता…"। बाद में माकपा ने मामले की सफ़ाई से लीपापोती कर दी थी और मुख्यमंत्री ने शहादत का सम्मान(?) करते हुए, मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के परिजनों को केरल सरकार की तरफ़ से 3 लाख रुपए देने की घोषणा की थी (जो अब तक मिले या नहीं, पता नहीं चल सका है)।



अभी कुछ दिनों पहले केरल के मलप्पुरम जिले में जहरीली ताड़ी पीने से अब तक 26 लोगों की मौत हो चुकी है, और कुछ अंधे भी हुए हैं। वही राज्य, वही मुख्यमंत्री… लेकिन जहरीली शराब पीकर मरने वालों को "माननीय" ने 5 लाख रुपये प्रति व्यक्ति के मुआवज़े की घोषणा की है, जबकि अंधे होने वालों को 4 लाख रुपये एवं अन्य को एक लाख रुपये का मुआवज़ा देने की घोषणा की है। इसी के साथ सभी प्रभावितों का इलाज़ केरल सरकार के खर्च पर होगा।



अब आप ही सोचिये कि देशसेवा करते हुए शहीद होना ज्यादा फ़ायदे का सौदा है या जहरीली शराब पीकर मरना? यदि देशसेवा करते शहीद हुए, तो बूढ़े माता-पिता को सरकारी बाबुओं के धक्के खाने पड़ेंगे, मानो किसी मक्कार किस्म के मंत्री ने पेट्रोल पम्प देने की घोषणा कर भी दी तो वह इतनी आसानी से मिलने वाला नहीं है, जबकि पेंशन लेने के लिये भी दिल्ली के 10-15 चक्कर खाने पड़ेंगे सो अलग (हाल ही में खबर मिली है कि एक वीरता पदक प्राप्त सैनिक की विधवा को 70 रुपये… जी हाँ 70 रुपये मासिक, की पेंशन मिल रही है… सिर्फ़ 5 साल के लिये संसद में हल्ला मचाने के एवज़ में हजारों की पेंशन और सुविधाएं लेने वाले बतायें कि क्या 70 रुपये में वह विधवा एक किलो दाल भी खरीद सकेगी?)। इसकी बजाय परिवार के दो सदस्य जहरीली शराब पीकर मरें, तो दस लाख लो और मजे करो…

अब अच्युतानन्दन जी की इस "विलक्षण" सोच के पीछे की वजहों को समझने की कोशिश करते हैं। मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के माता-पिता को 3 लाख रुपये देने की घोषणा शायद इसलिये की होगी, कि उनका धकियाकर घर से बाहर किया जाना मीडिया की सुर्खियाँ बन चुका था, वरना शायद 3 लाख भी न देते, जबकि जहरीली शराब पीने वाले लोग पिछड़ी जातियों के "वोट बैंक" हैं इसलिये उन्हें 5 लाख दे दिये, वैसे भी उनकी जेब से क्या जाता है?

अब एक आश्चर्यजनक तथ्य भी जान लीजिये, जैसा कि सभी जानते हैं केरल देश का सर्वाधिक साक्षर प्रदेश है (साक्षरता दर लगभग 93% है), यही सबसे साक्षर प्रदेश आज की तारीख में सबसे बड़ा "बेवड़ा प्रदेश" बन चुका है। केरल में प्रति व्यक्ति शराब की खपत 8.3 लीटर हो चुकी है, अर्थात अमेरिका के बराबर और पोलैण्ड (8.1 लीटर) और इटली (8.0 लीटर) से भी अधिक (जबकि पंजाब का नम्बर दूसरा है - प्रति व्यक्ति खपत 7.9 लीटर)। पिछले साल केरल सरकार ने शराब पर टैक्स से 5040 करोड़ रुपये कमाए हैं, और यदि इस साल की पहली तिमाही के आँकड़ों को देखा जाये तो इस वर्ष लगभग 6500 करोड़ रुपये शराब से केरल सरकार को मिलने की सम्भावना है। यदि कोई व्यक्ति 100 रुपये की शराब खरीदता है तो लगभग 80 रुपये केरल सरकार की जेब में जाते हैं, 18 रुपये शराब निर्माता को और बाकी के 2 रुपये अन्य खर्चों के, यानी औसतन केरल का प्रत्येक व्यक्ति साल भर में 1340 रुपये की शराब पी जाता है… (कौन कहता है कि साक्षरता अच्छी बात होती है…?)।

लेकिन असली पेंच यहीं पर है… सोचिये कि जब आधिकारिक रुप से प्रतिवर्ष केरल सरकार को 5000 करोड़ रुपये मिल रहे हैं तो अनाधिकृत तरीके से नकली, जहरीली और अवैध शराब बेचने पर गिरोहबाजों को कितना मिलता होगा। मिथाइल अल्कोहल मिली हुई नकली और जहरीली शराब के रैकेट पर माकपा और कांग्रेस के कैडर का पूरा कब्जा है। अवैध शराब और ताड़ी की बिक्री से मिलने वाला करोड़ों रुपया जो शराब निर्माता की जेब में जाता है (राज्य सरकार को प्रति 100 रुपये की बिक्री पर मिलने वाले 80 रुपये), उसमें से एक मोटा टुकड़ा माकपा कैडर और नेताओं के पास पहुँचता है। कांग्रेस और वामपंथी दोनों पार्टियाँ मिलीभगत से अपना बँटवारा करती हैं, क्योंकि यही दोनों अदला-बदली करके केरल में सत्ता में आती रही हैं। कई बार, कई मौकों पर जहरीली शराब दुर्घटनाओं के बाद जाँच आयोग वगैरह की नौटंकी होती है, परन्तु फ़िर मामला ठण्डा पड़ जाता है। दारुकुट्टे और उनके परिजन मुआवज़ा लेकर चुप बैठ जाते हैं…

ऐसे में इस बार जहरीली शराब पीकर मरे हुए 26 लोगों के परिवार को 5 लाख रुपये देकर उनका मुँह बन्द करने की कोशिश की गई है, ताकि वे ज्यादा हल्ला न मचायें। (उल्लेखनीय है कि दुर्घटना के पहले दिन मुआवज़ा 1 लाख ही घोषित किया गया था, लेकिन जैसे ही हल्ला-गुल्ला अधिक बढ़ा, जाँच आयोग वगैरह की माँग होने लगी… तो अच्युतानन्दन ने इसे बढ़ाकर सीधे 5 लाख कर दिया…)

तात्पर्य यह कि शहीद संदीप उन्नीकृष्णन को 3 लाख रुपये का मुआवज़ा भले ही मजबूरी में दिया गया हो, लेकिन शराब से हुई इन 26 मौतों को 5 लाख रुपये का मुआवज़ा देना बहुत जरूरी था…वरना पोल खुलने का खतरा था। अब भले ही शहीद का मान और देश का सम्मान वगैरह जाये भाड़ में…
(सन्दर्भ : http://www.hindu.com/2010/09/09/stories/2010090958070400.htm)

हालांकि वर्तमान मामला "शहीद" और "बेवड़ों" के बीच मुआवज़े की तुलना का है, लेकिन कांग्रेसियों और वामपंथियों द्वारा मृतकों को मुआवज़े बाँटने में भी "सेकुलरिज़्म" का ध्यान रखा जाता है इसके दो उदाहरण हम पहले भी देख चुके हैं… यदि भूल गये हों तो याद ताज़ा कर लीजिये -

1) 17 अक्टूबर 2009 को कासरगौड़ जिले की ईरुथुंकादवु नदी में डुब जाने से चार बच्चों की मौत हो गई, जिनके नाम थे अजीत(12), अजीश(15), रतन कुमार(15) और अभिलाष(17), जो कि नीरचल के माहजन स्कूल के छात्र थे।

2) 3 नवम्बर 2009 को त्रिवेन्द्रम के अम्बूरी स्थित नेय्यर नदी में एक छात्र की डूब जाने की वजह से मौत हुई, जिसका नाम था साजो थॉमस(10)।

3) 4 नवम्बर 2009 को मलप्पुरम के अरीकोड में चेलियार नदी में आठ बच्चों की डूबने से मौत हुई, नाम हैं सिराजुद्दीन, तौफ़ीक, शमीम, सुहैल, शहाबुद्दीन, मोहम्मद मुश्ताक, तोइबा और शाहिद।

अर्थात केरल में एक माह के अन्तराल में 13 बच्चों की मौत एक जैसी वजह से हुई, ज़ाहिर सी बात है कि राज्य सरकार द्वारा मुआवज़े की घोषणा की गई, लेकिन त्रिवेन्द्रम और मलप्पुरम के हादसे में मारे गये बच्चों के परिजनों को 5-5 लाख का मुआवज़ा दिया गया, जबकि कासरगौड़ जिले के बच्चों के परिजनों को 1-1 लाख का… ऐसा क्यों हुआ, यह समझने के लिये अधिक दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है… (यहाँ पढ़ें…

इससे पहले भी पिछले साल एक पोस्ट में ऐसी ही ओछी और घटिया "सेकुलर" राजनीति पर एक माइक्रो पोस्ट लिखी थी (यहाँ देखें…) जिसमें बताया गया था कि समझौता एक्सप्रेस बम विस्फ़ोट में मारे गये प्रत्येक पाकिस्तानी नागरिक को दस-दस लाख रुपये दिये गये (सम्मानित-प्यारे-छोटे भाई टाइप के पड़ोसी हैं… इसलिये), जबकि इधर मालेगाँव बम विस्फ़ोट में मारे गये प्रत्येक मुसलमान को पाँच-पाँच लाख रुपये दिये गये, लेकिन अमरावती के दंगों में लगभग 75 करोड़ के नुकसान के लिये 137 हिन्दुओं को दिये गये कुल 20 लाख। धर्मनिरपेक्षता ऐसी ही होती है भैया…जो मौत-मौत में भी फ़र्क कर लेती है।

इसी प्रकार की धर्मनिरपेक्षता का घण्टा गले में लटकाये कई बुद्धिजीवी देश में घूमते रहते हैं… कभी नरेन्द्र मोदी को भाषण पिलाते हैं तो कभी हिन्दुत्ववादियों को नसीहतें झाड़ते हैं… लेकिन कभी खुद का वीभत्स चेहरा आईने में नहीं देखते…। काश, शहीद मेजर संदीप की एकाध गोली, कसाब के सीने को भी चीर जाती तो कम से कम हमारे टैक्स के करोड़ों रुपये बच गये होते… जो उसे पालने-पोसने में खर्च हो रहे हैं। टैक्स के इन्हीं पैसों को अपने "पूज्य पिता" का माल समझकर, नेता लोग इधर-उधर मुआवज़े बाँटते फ़िरते हैं… जबकि शहीद सैनिकों के बूढ़े माँ-बाप, विधवा और बच्चे धक्के खाते रहते हैं…


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दिल्ली में सम्पन्न हुई सर्वदलीय बैठक के बेनतीजा रहने के बाद मनमोहन सिंह, सोनिया गाँधी, अब्दुल्ला पिता-पुत्र तथा "सेकुलर देशद्रोही मीडिया" के दबाव में एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल ने कश्मीर जाकर सभी पक्षों से बात करने का फ़ैसला किया था। 20 सितम्बर को यह सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल श्रीनगर में अवतरित हुआ। इस प्रतिनिधिमण्डल के स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछाते हुए, अली शाह गिलानी ने इनसे बात करने से ही मना कर दिया और महबूबा मुफ़्ती की पार्टी PDP ने इनका बहिष्कार कर दिया। इधर के लोग भी कम नहीं थे, प्रतिनिधिमण्डल की इस फ़ौज में चुन-चुनकर ऐसे लोग भरे गए जो मुस्लिम वोटों के सौदागर रहे, एक चेहरा तो ऐसा भी था जिनके परिवार का इतिहास जेहाद और हिन्दू-विरोध से भरा पड़ा है। इस तथाकथित "मरहम-टीम" का शान्ति से कोई लेना-देना नहीं था, ये लोग विशुद्ध रुप से अपने-अपने क्षेत्र के मुस्लिम वोटों की खातिर आये थे, इस प्रतिनिधिमण्डल में जाने वालों के चुनाव का कोई पैमाना भी नहीं था।


महबूबा मुफ़्ती और लोन-गिलानी के अलगाववादी तेवर कोई नई बात नहीं है, इसलिये इसमें कोई खास आश्चर्य की बात भी नहीं है, आश्चर्य की बात तो यह थी कि प्रतिनिधिमंडल में गये हुए नेताओं की मुखमुद्रा, भावभंगिमा और बोली ऐसी थी, मानो भारत ने कश्मीर में बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो। शुरु से आखिर तक अपराधीभाव से गिड़गिड़ाते नज़र आये सभी के सभी। मुझे अभी तक समझ नहीं आया कि अरुण जेटली और सुषमा स्वराज जैसे लोग इस प्रतिनिधिमण्डल में शामिल हुए ही क्यों? रामविलास पासवान और गुरुदास दासगुप्ता  जैसे नेताओं की नज़र विशुद्ध रुप से बिहार और पश्चिम बंगाल के आगामी चुनावों के मुस्लिम वोटों पर थी। यह लोग गये तो थे भारत के सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल के रुप में, लेकिन उधर जाकर भी मुस्लिम वोटरों को लुभाने वाली भाषा से बाज नहीं आये। जहाँ एक ओर रामविलास पासवान के "नेतृत्व"(?) में एक दल ने यासीन मलिक के घर जाकर मुलाकात की, वहीं दूसरी तरफ़ दासगुप्ता ने मीरवायज़ के घर जाकर उनसे "बातचीत"(?) की। यासीन मलिक हों, अली शाह गिलानी हों या कथित उदारवादी मीरवायज़ हों, सभी के सभी लगभग एक ही सुर में बोल रहे थे जिसका मोटा और स्पष्ट मतलब था "कश्मीर की आज़ादी", यह राग तो वे कई साल से अलाप ही रहे हैं, लेकिन दिल्ली से गये वामपंथी नेता गुरुदास दासगुप्त और पासवान अपनी मुस्लिम भावनाओं को पुचकारने वाली गोटियाँ फ़िट करने के चक्कर में लगे रहे।


चैनलों पर हमने कांग्रेस के शाहिद सिद्दीकी और वामपंथी गुरुदास दासगुप्ता के साथ मीरवायज़ की बात सुनी और देखी। मीरवायज़ लगातार इन दोनों महानुभावों को कश्मीर में मारे गये नौजवानों के चित्र दिखा-दिखाकर डाँट पिलाते रहे, जबकि गुरुदास जैसे वरिष्ठ नेता "वुई आर शेमफ़ुल फ़ॉर दिस…", "वुई आर शेमफ़ुल फ़ॉर दिस…" कहकर घिघियाते-मिमियाते रहे। मीरवायज़ का घर हो या गिलानी का अथवा यासीन मलिक का, वहाँ मौजूद इस सेकुलर प्रतिनिधिमण्डल के एक भी सदस्य की हिम्मत नहीं हुई कि वह यह पूछे कि कश्मीर से जब हिन्दू खदेड़े जा रहे थे, तब ये सब लोग कहाँ थे? क्या कर रहे थे? आतंकवादियों और हत्यारों से अस्पताल जा-जाकर मुलाकातें की गईं, पत्थरबाजों से सहानुभूति दर्शाई गई, पासवान ने बिहार के चुनाव और गुरुदास ने बंगाल के चुनाव के मद्देनज़र आज़ाद कश्मीर की माँग करने वाले सभी को जमकर तेल लगाया… लेकिन किसी ने भी नारकीय परिस्थिति में रह रहे जम्मू के पण्डितों और हिन्दुओं के ज़ख्मों के बारे में एक शब्द नहीं कहा… किसी भी नेता(?) में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह उन आतंकवादियों से पूछे कि धारा 370 खत्म क्यों न की जाये? मुफ़्त की खाने के लिये अरबों का पैकेज चाहिये तो हिन्दुओं को फ़िर से घाटी में बसाने के लिये उनकी क्या योजना है? कुछ भी नहीं… एक शब्द भी नहीं… क्योंकि कश्मीर में पिटने वाला हिन्दू है, मरने-कटने वाला अपना घर-बार लुटाकर भागने वाला हिन्दू है… ऐसे किसी प्रतिनिधिमण्डल का हिस्सा बनकर जेटली और सुषमा को जरा भी शर्म नहीं आई? उन्होंने इसका बहिष्कार क्यों नहीं किया? जब कश्मीर से हिन्दू भगाये जा रहे थे, तब तो गुरुदास ने कभी नहीं कहा कि "वुई आर शेमफ़ुल…"?

"पनुन कश्मीर" संगठन के कार्यकर्ताओं को बैठक स्थल से खदेड़ दिया गया, इसके नेताओं से जम्मू क्षेत्र को अलग करने, पण्डितों के लिये एक होमलैण्ड बनाने, पर्याप्त मुआवज़ा देने, दिल्ली के शरणार्थी बस्तियों में मूलभूत सुविधाओं को सुधारने जैसे मुद्दों पर कोई बात तक नहीं की गई, उन्हें चर्चा के लिये बुलाया तक नहीं। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि 1947 में पाकिस्तान से भागकर भारत आये हुए सैकड़ों लोगों को अभी तक भारत की नागरिकता नहीं मिल सकी है, जबकि पश्चिम बंगाल में लाखों घुसपैठिये बाकायदा सारी सरकारी सुविधाएं भोग रहे हैं… कभी गुरुदास ने "वुई आर शेमफ़ुल…" नहीं कहा।




वामपंथियों और सेकुलरों से तो कोई उम्मीद है भी नहीं, क्योंकि ये लोग तो सिर्फ़ फ़िलीस्तीन और ईराक में मारे जा रहे "बेकसूरों"(?) के पक्ष में ही आवाज़ उठाते हैं, हिन्दुओं के पक्ष में आवाज़ उठाते समय इन्हें मार्क्स के तमाम सिद्धान्त याद आ जाते हैं, लेकिन जेटली और सुषमा से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि ये लोग पासवान जैसे व्यक्ति (जो खुलेआम घुसपैठिए बांग्लादेशियों की पैरवी करता हो) के साथ खड़े होकर तस्वीर खिंचवाएं, या फ़िर असदुद्दीन ओवैसी जैसे घोर साम्प्रदायिक हैदराबादी (जिनका इतिहास हिन्दुओं के साथ खूंरेज़ी भरा है) के साथ हें-हें-हें-हें करते हुए एक "मक्खनमार बैण्ड" में शामिल होकर फ़ोटो खिंचवायें…। लानत है इन पर… अपने "मूल" स्टैण्ड से हटकर "शर्मनिरपेक्ष" बनने की कोशिश के चलते ही भाजपा की ऐसी दुर्गति हुई है लेकिन अब भी ये लोग समझ नहीं रहे। जब नरेन्द्र मोदी के साथ दिखाई देने में, फ़ोटो खिंचवाने में देशद्रोही सेकुलरों को "शर्म"(?) आती है, तो फ़िर भाजपा के नेता क्यों ओवैसी-पासवान और सज्जन कुमार जैसों के साथ खड़े होने को तैयार हो जाते हैं? इनकी बजाय तो कश्मीर की स्थानीय कांग्रेस इकाई ने खुलेआम हिम्मत दिखाई और मांग की कि सबसे पहले इन अलगाववादी नेताओं को तिहाड़ भेजा जाए… लेकिन सेकुलर प्रतिनिधिमण्डल के किसी सदस्य ने कुछ नहीं कहा।

अब एक सवाल भाजपा के नेताओं से (क्योंकि सेकुलरों-कांग्रेसियों-वामपंथियों और देशद्रोहियों से सवाल पूछने का कोई मतलब नहीं है), सवाल काल्पनिक है लेकिन मौजूं है कि - यदि कश्मीर से भगाये गये, मारे गये लोग "मुसलमान" होते तो? तब क्या होता? सोचिये ज़रा… तीस्ता जावेद सीतलवाड कितने फ़र्जी मुकदमे लगाती? कांग्रेसी और वामपंथी जो फ़िलीस्तीन को लेकर छाती कूटते हैं वे कश्मीर से भगाये गये मुस्लिमों के लिये कितने मातम-गीत गाते? यही है भारत की "धर्मनिरपेक्षता"…

जो लोग कश्मीर की समस्या को राजनैतिक या आर्थिक मानते हैं वे निरे बेवकूफ़ हैं… यह समस्या विशुद्ध रुप से धार्मिक है… यदि भारत सरकार गिलानी-लोन-शब्बीर-महबूबा-यासीन जैसों को आसमान से तारे तोड़कर भी ला देगी, तब भी कश्मीर समस्या जस की तस बनी रहेगी… सीधी सी बात है कि एक बहुसंख्यक (लगभग 100%) मुस्लिम इलाका कभी भी भारत के साथ नहीं रह सकता, न खुद चैन से रहेगा, न भारत को रहने देगा… निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा (अल्लाह के शासन) से कुछ भी कम उन्हें कभी मंजूर नहीं होगा, चाहे जितने पैकेज दे दो, चाहे जितने प्रोजेक्ट दे दो…।

इस आग में घी डालने के लिये अब जमीयत उलेमा-ए-हिन्द (JUH) ने भी तैयारी शुरु कर दी है। जमीयत ने अगले माह देवबन्द में मुस्लिमों के कई समूहों और संगठनों की एक बैठक बुलाई है, जिसमें कश्मीर में चल रही हिंसा और समग्र स्थिति पर विचार करने की योजना है। JUH  की योजना है कि भारत के तमाम प्रमुख मुस्लिम संगठन एक प्रतिनिधिमण्डल लेकर घाटी जायें… हालांकि जमीयत की इस योजना का आन्तरिक विरोध भी शुरु हो गया है, क्योंकि ऐसे किसी भी कदम से कश्मीर समस्या को खुल्लमखुल्ला "मुस्लिम समस्या" के तौर पर देखा जाने लगेगा। 4 अक्टूबर को देवबन्द में जमीयत द्वारा सभी प्रमुख शिया, सुन्नी, देवबन्दी, बरेलवी संगठनों के 10000 नुमाइन्दों को बैठक के लिये आमंत्रित किया गया है। क्या "जमीयत" इस सम्मेलन के जरिये कश्मीर समस्या को "मुस्लिम नरसंहार" के रुप में पेश करना चाहती है? लगता तो ऐसा ही है, क्योंकि जमीयत के प्रवक्ता फ़ारुकी के बयान में कहा गया है कि "कश्मीर में हालात बेहद खराब हैं, वहाँ के "मुसलमान" (जी हाँ, सिर्फ़ मुसलमान ही कहा उन्होंने) कई प्रकार की समस्याएं झेल रहे हैं, ऐसे में मुस्लिम समुदाय मूक दर्शक बनकर नहीं रह सकता…", अब वामपंथियों और कांग्रेसियों को कौन समझाये कि ऐसा बयान भी "साम्प्रदायिकता" की श्रेणी में ही आता है और जमीयत का ऐसा कदम बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। सम्मेलन में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमात-ए-इस्लामी, ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशवारत तथा ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल जैसे कई संगठनों के भाग लेने की उम्मीद है। भगवान (या अल्लाह) जाने, कश्मीर के "फ़टे में टाँग अड़ाने" की इन्हें क्या जरुरत पड़ गई? और जब पड़ ही गई है तो उम्मीद की जानी चाहिये कि देवबन्द के सम्मेलन में माँग की जायेगी की कश्मीर से भगाये गये हिन्दुओं को पुनः घाटी में बसाया जाये और सदभाव बढ़ाने के लिये कश्मीर का मुख्यमंत्री किसी हिन्दू को बनाया जाये… (ए ल्ललो… लिखते-लिखते मैं सपना देखने लगा…)।

सुन रहे हैं, जेटली जी और सुषमा जी? "शर्मनिरपेक्षता" के खेल में शामिल होना बन्द कर दीजिये… ये आपका फ़ील्ड नहीं है… खामख्वाह कपड़े गंदे हो जायेंगे… हाथ कुछ भी नहीं लगेगा…। आधी छोड़, पूरी को धाये, आधी भी जाये और पूरी भी हाथ न आये… वाली स्थिति बन जायेगी…। जब सभी राजनैतिक दल बेशर्मी से अपने-अपने वोट बैंक के लिये काम कर रहे हैं तो आप काहे को ऐसे सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल में जाकर अपनी भद पिटवाते हैं? क्या कोई मुझे बतायेगा, कि असदुद्दीन ओवैसी  को इसमें किस हैसियत से शामिल किया गया था और औचित्य क्या है? क्या सपा छोड़कर कांग्रेसी बने शाहिद सिद्दीकी इतने बड़े नेता हो गये, कि एक राष्ट्रीय प्रतिनिधिमण्डल में शामिल होने लायक हो गये? सवाल यही है कि चुने जाने का आधार क्या है?

बहरहाल, ऊपर दिया हुआ मेरा प्रश्न भले ही भाजपा वालों से हो, लेकिन "सेकुलर"(?) लोग चाहें तो इसका जवाब दे सकते हैं कि - कल्पना करो, कश्मीर से भगाये गये लोग पण्डितों की बजाय मुस्लिम होते… तब समस्या की, उस पर उठाये गये कदमों की और राजनीतिबाजों की क्या स्थिति होती?


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विगत 5 सितम्बर की शाम से पश्चिम बंगाल के उत्तरी चौबीस परगना जिले के अल्पसंख्यक हिन्दू परिवार भय, असुरक्षा और आतंक के साये में रह रहे हैं। ये अल्पसंख्यक हिन्दू परिवार पिछले कुछ वर्षों से इस प्रकार की स्थिति लगातार झेल रहे हैं, लेकिन इस बार की स्थिति अत्यंत गम्भीर है। सन् 2001 की जनगणना के मुताबिक देगंगा ब्लॉक में मुस्लिम जनसंख्या 69% थी (जो अब पता नहीं कितनी बढ़ चुकी होगी)। पश्चिम बंगाल का यह इलाका, बांग्लादेश से बहुत पास पड़ता है। यहाँ जितने हिन्दू परिवार बसे हैं उनमें से अधिकतर या तो बहुत पुराने रहवासी हैं या बांग्लादेश में मुस्लिमों द्वारा किये गये अत्याचार से भागकर यहाँ आ बसे हैं। उत्तरी 24 परगना से वर्तमान में तृणमूल कांग्रेस से हाजी नूर-उल-इस्लाम सांसद है, और तृणमूल कांग्रेस से ही ज्योतिप्रिया मलिक विधायक है। 24 परगना जिले में भारत विभाजन के समय से ही विस्थापित हिन्दुओं को बसाया गया था, लेकिन पिछले 60-65 साल में इस जिले के 8 ब्लॉक में मुस्लिम जनसंख्या 75% से ऊपर, जबकि अन्य में लगभग 40 से 60 प्रतिशत हो चुकी है, जिसमें से अधिकतर बांग्लादेशी हैं और तृणमूल और माकपा के वोटबैंक हैं।



5 तारीख (सितम्बर) को देगंगा के काली मन्दिर के पास खुली ज़मीन, जिस पर दुर्गा पूजा का पंडाल विगत 40 वर्ष से लग रहा है, को लेकर जेहादियों ने आपत्ति उठाना शुरु किया और उस ज़मीन की खुदाई करके एक नहर निकालने की बात करने लगे ताकि पूजा पाण्डाल और गाँव का सम्पर्क टूट जाये जिससे उस ज़मीन पर अवैध कब्जे में आसानी हो, उस वक्त स्थानीय पुलिस ने उस समूह को समझा-बुझाकर वापस भेज दिया। 6 सितम्बर की शाम को इफ़्तार के बाद अचानक एक उग्र भीड़ ने मन्दिर और आसपास की दुकानों पर हमला बोल दिया। (चित्र - खाली पड़ी सरकारी भूमि जहाँ से विवाद शुरु किया गया)

माँ काली की प्रतिमा तोड़ दी गई, कई दुकानों को चुन-चुनकर लूटा गया और धारदार हथियारों से लोगों पर हमला किया गया। चार बसें जलाई गईं और बेराछापा से लेकर कदमगाछी तक की सड़क ब्लॉक कर दी गई। भीड़ बढ़ती ही गई और उसने कार्तिकपुर के शनि मन्दिर और देगंगा की विप्लबी कालोनी के मन्दिरों में भारी तोड़फ़ोड़ की। 

देगंगा पुलिस थाने के मुख्य प्रभारी अरुप घोष इस हमले में बुरी तरह घायल हुए और उनके सिर पर चोट तथा हाथों में फ़्रेक्चर हुआ है (चित्र - जलाये गये मकान और हिन्दू संतों की तस्वीरें)। जमकर हुए बेकाबू दंगे में 6 सितम्बर को 25 लोग घायल हुए। 7 सितम्बर को भी जब हालात काबू में नहीं आये तब रैपिड एक्शन फ़ोर्स और सेना के जवानों को लगाना पड़ा, उसमें भी तृणमूल कांग्रेस की नेता रत्ना चौधरी ने पुलिस पर दबाव बनाया कि वह मुस्लिम दंगाईयों पर कोई कठोर कार्रवाई न करे, क्योंकि रमज़ान का महीना चल रहा है, जबकि सांसद हाजी नूर-उल-इस्लाम भीड़ को नियंत्रित करने की बजाय उसे उकसाने में लगा रहा।


बेलियाघाट के बाज़ार में RAF के 6-7 जवानों को दंगाईयों की भीड़ ने एक दुकान में घेर लिया और बाहर से शटर गिराकर पेट्रोल से आग लगाने की कोशिश की, हालांकि अन्य जवानों के वहाँ आने से उनकी जान बच गई (चित्र - सांसद नूरुल इस्लाम)। 7 सितम्बर की शाम तक दंगाई बेलगाम तरीके से लूटपाट, छेड़छाड़ और हमले करते रहे, कुल मिलाकर 245 दुकानें लूटी गईं और 120 से अधिक व्यक्ति घायल हुए। प्रशासन ने आधिकारिक तौर पर माना कि 65 हिन्दू परिवार पूरी तरह बरबाद हो चुके हैं और उन्हें उचित मुआवज़ा दिया जायेगा।

जैसी कि आशंका पहले ही जताई जा रही थी कि बंगाल के आगामी चुनावों को देखते हुए माकपा और तृणमूल कांग्रेस में मुस्लिम वोट बैंक हथियाने की होड़ और तेज़ होगी, और ऐसी घटनाओं में बढ़ोतरी होना तय है। घटना के तीन दिन बाद तक भाजपा के एक प्रतिनिधिमण्डल को छोड़कर अन्य किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता या नेता ने वहाँ जाना उचित नहीं समझा, क्योंकि सभी को अपने वोटबैंक की चिंता थी। राष्ट्रीय अखबारों में सिर्फ़ पायनियर और स्टेट्समैन ने इन खबरों को प्रमुखता से छापा, जबकि "राष्ट्रीय" कहे जाने वाले भाण्ड चैनल दिल्ली की फ़र्जी बाढ़, तथा दबंग और मुन्नी की दलाली (यानी प्रमोशन) के पुनीत कार्य में लगे हुए थे। यहाँ तक कि पश्चिम बंगाल में भी स्टार आनन्द जैसे प्रमुख बांग्ला चैनल ने पूरे मामले पर चुप्पी साधे रखी।

राष्ट्रीय मीडिया की ऐसी ही "घृणित और नपुंसक चुप्पी" हमने बरेली के दंगों के समय भी देखी थी, जहाँ लगातार 15 दिनों तक भीषण दंगे चले थे और हेलीकॉप्टर से सुरक्षा बलों को उतारना पड़ा था। उस वक्त भी "तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों" और "फ़र्जी सबसे तेज़" चैनलों ने पूरी खबर को ब्लैक आउट कर दिया था…। यहाँ सेना के फ़्लैग मार्च और RAF की त्वरित कार्रवाई के बावजूद आज एक सप्ताह बाद भी मीडिया ने इस खबर को पूरी तरह से दबा रखा है। 24 सितम्बर को आने वाले अयोध्या के निर्णय की वजह से मीडिया को अपना "सेकुलर" रोल निभाने के कितने करोड़ रुपये मिले हैं यह तो पता नहीं, अलबत्ता "आज तक" ने संतों के स्टिंग ऑपरेशन को "हे राम" नाम का शीर्षक देकर अपने "विदेश में बैठे असली मालिकों" को खुश करने की भरपूर कोशिश की है।


ऐसी ही एक और भद्दी लेकिन "सेकुलर" कोशिश ममता बैनर्जी ने भी की है जब उन्होंने हिज़ाब में नमाज़ पढ़ते हुए अपनी फ़ोटो, रेल्वे की एक परियोजना के उदघाटन समारोह के विज्ञापन हमारे टैक्स के पैसों पर छपवाई है और पश्चिम बंगाल के मुसलमानों से अघोषित वादा किया है कि "यह रेल तुम्हारी है, रेल सम्पत्ति तुम्हारी है, मैं नमाज़ पढ़ रही हूं, मुझे ही वोट देना, माकपा को नहीं…"। फ़िर बेचारी अकेली ममता को ही दोष क्यों देना, जब वामपंथी बरसों से केरल और बंगाल में यही गंदा खेल जारी रखे हुए हैं और मनमोहन सिंह खुद कह चुके हैं कि "देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है…", तब भला 24 परगना स्थित देगंगा ब्लॉक के गरीब हिन्दुओं की सुनवाई कौन और कैसे करेगा? उन्हें तो मरना और पिटना ही है…।

जिस प्रकार सोनिया अम्मा कह चुकी हैं कि भोपाल गैस काण्ड और एण्डरसन पर चर्चा न करें (क्योंकि उससे राजीव गाँधी का निकम्मापन उजागर होता है), तथा गुजरात के दंगों को अवश्य याद रखिए (क्योंकि भारत के इतिहास में अब तक सिर्फ़ एक ही दंगा हुआ है)… ठीक इसी प्रकार मनमोहन सिंह, दिग्विजय सिंह, ममता बनर्जी, वामपंथी सब मिलकर आपसे कह रहे हैं कि, बाकी सब भूल जाईये, आपको सिर्फ़ यह याद रखना है कि हिन्दुओं को एकजुट करने की कोशिश को ही "साम्प्रदायिकता" कहते है…


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खबर केरल के कन्नूर से है, जहाँ वामपंथियों की स्टूडेण्ट्स ब्रिगेड DYFI ने एक जूता बेचने वाले की दुकान पर हमला किया, दुकानदार को धमकाया और दुकान को तहस-नहस कर दिया। कारण? वामपंथियों के आराध्य देवता(?) चे ग्वेवारा की तस्वीरों वाले जूतों की बिक्री…। उल्लेखनीय है कि कार्ल मार्क्स, लेनिन, माओ, चे ग्वेवारा, फ़िदेल कास्त्रो (यानी सब के सब विदेशी) कुछ ऐसे लोग हैं जिनकी पूजा वामपंथी करते हैं (भले ही वे खुद को नास्तिक कहते हैं, लेकिन असल में ये सारे शख्स इनके लिये पूजनीय हैं और इनकी किताबें वामपंथियों के लिये रामायण-गीता के समान हैं)। जब केरल में इन्होंने चे ग्वेवारा की तस्वीरों को जूतों पर देखा तो इनका माथा घूम गया और उस दुकानदार की शामत आ गई जो दिल्ली से यह जूते मंगवाकर बेच रहा था, उस बेचारे को तो ये भी पता नहीं होगा कि चे ग्वेवारा कौन थे और क्या बेचते थे?


लेकिन पाखण्ड और सत्ता के अभिमान से भरे हुए वामपंथी कार्यकर्ताओं ने सभी जूतों को नष्ट कर दिया और दुकान से बाकी का माल दिल्ली वापस भेजने के निर्देश दे दिये। क्या कहा? पुलिस?…… जी हाँ पुलिस थी ना… दुकान के बाहर तमाशा देख रही थी। भई, जब माकपा का कैडर कोई "जरुरी काम" कर रहा हो तब भला पुलिस की क्या औकात है कि वह उसे रोक ले। कोडियेरी पुलिस ने गरीब दुकानदार पर "चे" के चित्र वाले जूते बेचने (भावनाएं भड़काने) के आरोप में उस पर केस दर्ज कर लिया। जब वहाँ उपस्थित संवाददाताओं ने पुलिस से दुकानदार के खिलाफ़ लगाई जाने वाली धाराओं के बारे में पूछा तो उन्हें कुछ भी पता नहीं था, और वे पुलिस के उच्चाधिकारियों से सलाह लेते रहे। जब दुकानदार से पूछा गया तो उसने भी कहा कि "मुझे नहीं पता था कि चे की तस्वीरों वाले जूते बेचना प्रतिबन्धित हो सकता है, क्योंकि मैंने कई मेट्रो शहरों में चे की तस्वीरों वाले टी-शर्ट, की-चेन, मोजे, बिल्ले और जूतों की बिक्री होते देखी है, और यह जूते भी मैंने घर पर नहीं बनाये हैं बल्कि दिल्ली से मंगाये हैं…"। (उसकी बात सही भी है, क्योंकि "चे" की तस्वीरें ऐसी-ऐसी वस्तुओं पर छपी हैं जिनकी फ़ोटो यहाँ दिखाना अश्लीलता होगी…)

सभी देशवासियों और पाठकों को याद होगा कि एक दो कौड़ी के चित्रकार द्वारा भारत माता, सरस्वती, दुर्गा, सीता आदि के नग्न और अश्लील चित्र बनाये जाने पर हिन्दूवादियों द्वारा उसे लतियाकर देश से बाहर करने के मामले में, तथाकथित प्रगतिशील वामपंथियों, सेकुलरों ने "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता" को लेकर जमकर रुदालियाँ गाई थीं… हिन्दू संगठनों को बर्बर, तानाशाह इत्यादि कहा गया… उस चित्रकार को (जिसने लन्दन-अमेरिका या नेपाल नहीं बल्कि एक धुर इस्लामी देश कतर की नागरिकता ली) को वापस बुलाने के लिये जमकर गुहार लगाई थी, और दुख में अपने कपड़े फ़ाड़े थे। उस चित्रकार को केरल सरकार ने "राजा रवि वर्मा" पुरस्कार भी प्रदान किया था, जो कि एक तरह से राजा रवि वर्मा का अपमान ही है। यही सारे कथित प्रगतिशील और वामपंथी तसलीमा नसरीन मामले में न सिर्फ़ दुम दबाकर बैठे रहे, बल्कि इस बात की पूरी कोशिश की कि तसलीमा पश्चिम बंगाल में न आ सके और न ही उसका वीज़ा नवीनीकरण हो सके।




लेकिन चे की तस्वीरों वाले जूतों पर हंगामे ने इनके पाखण्ड को उघाड़कर रख दिया है, इससे यह भी साबित हुआ है कि "भारतीय संस्कृति और जड़ों" से कटे हुए वामपंथी और प्रगतिशील ढोंगी हमेशा "विदेशी नायकों" को अपना हीरो मानते हैं, इनकी नज़र में चे ग्वेवारा की औकात भारत माता और सरस्वती से भी ज्यादा है। इनका संदेश है कि जूतों पर चे की तस्वीर को "अपमान" माना जायेगा, लेकिन भारत माता का नग्न चित्रण "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता" है… यह है विशुद्ध वामपंथी चरित्र…

(यहाँ इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि चे ग्वेवारा कितने बड़े क्रान्तिकारी थे या उनका संघर्ष कितना महान था… यहाँ मुख्य मुद्दा है वामपंथियों के दोहरे मापदण्ड…)

अब इस "देसी" वामपंथी चरित्र और सेकुलरिज़्म का एक और उदाहरण देख लीजिये… केरल में कुछ समय पहले एक प्रोफ़ेसर के हाथ जेहादियों ने काट दिये थे क्योंकि उसने कथित तौर पर परीक्षा में इस्लाम के खिलाफ़ अपमानजनक प्रश्न पूछ लिया था। हालांकि वह प्रोफ़ेसर ईसाई है और वह कॉलेज भी ईसाई संस्था (Newman College) द्वारा संचालित है (यहाँ देखें…), लेकिन फ़िर भी केरल सरकार का दबाव और मुस्लिम संगठनों का डर इतना हावी है कि कॉलेज प्रशासन ने उस अपंग हो चुके प्रोफ़ेसर जोसफ़ को "ईशनिंदा" के आरोप में बर्खास्त कर दिया [एमजी विश्वविद्यालय आचार संहिता अध्याय 45, धारा 73(7) भाग डी, ताकि प्रोफ़ेसर को किसी भी अन्य निजी कॉलेज में नौकरी न मिल सके], साथ ही बेशर्मी से यह भी कहा कि यदि मुस्लिम समाज उस प्रोफ़ेसर को माफ़ कर देता है, तभी वे उसे दोबारा नौकरी पर रखेंगे…। कॉलेज के इस कदम की विभिन्न मुस्लिम संगठनों ने प्रशंसा की है।

पहले प्रोफ़ेसर को धमकियाँ, फ़िर प्रोफ़ेसर का भूमिगत होना, इस कारण प्रोफ़ेसर के लड़के की थाने ले जाकर बेरहमी से पिटाई, दबाव में प्रोफ़ेसर का फ़िर से सार्वजनिक होना और अन्त में उसका हाथ काट दिया जाना… इस पूरे मामले पर केरल की वामपंथी सरकार का रुख वही है जो अब्दुल नासिर मदनी की गिरफ़्तारी के समय था, यानी गहन चुप्पी, वोट बैंक का नापतोल (ईसाई वोट और मुस्लिम वोटों की तुलना) और प्रशासन का पूरी तरह राजनीतिकरण…(यहाँ देखें…)।

मुस्लिम वोटों के लिए गिड़गिड़ाने, बिलखने और तलवे चाटने का यह घृणित उपक्रम हमें पश्चिम बंगाल के आगामी चुनावों में देखने को मिलेगा, जब मुस्लिम वोटों की सौदागरी के दो चैम्पियन तृणमूल और माकपा आमने-सामने होंगे… ये बात अलग है कि यही वे लोग हैं जो नरेन्द्र मोदी की आलोचना में सबसे आगे रहते हैं और हिन्दू वोट बैंक (यदि कोई हो) को हिकारत की निगाह से देखते हैं…
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चलते-चलते :- सेकुलर नेताओं ने अपने साथ-साथ प्रशासन को भी कैसा डरपोक और नपुंसक बना दिया है इसका उदाहरण मुम्बई की इस सड़क दुर्घटना मामले से लगाया जा सकता है जिसमें मरीन ड्राइव पुलिस ने कोर्ट में आधिकारिक रुप से कहा कि चूंकि टक्कर मारने वाला "हिन्दू" है और मरने वाला मोटरसाइकल सवार "मुस्लिम" है इसलिये उसे ज़मानत नही दी जाये, वरना क्षेत्र में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ने का खतरा है…। आश्चर्य हुआ ना? लेकिन रोज़ाना होने वाली सैकड़ों सड़क दुर्घटनाओं की तरह इस मामले को नहीं देखा गया, बल्कि पुलिस ने अपने बयान में लिखित में कहा कि सुशील कोठारी को पुलिस हिरासत में रखना जरूरी है, क्योंकि उसकी जमानत से शांति भंग हो सकती है…। अब इस मामले को उलटकर देखें और बतायें कि यदि मरने वाला हिन्दू होता और टक्कर मारने वाला मुस्लिम होता, क्या तब भी मुम्बई पुलिस ऐसा "सेकुलर" बयान देती?

खैर… आप तो केन्द्र सरकार को और ज्यादा टैक्स देने के लिये तैयार रहियेगा, क्योंकि पुणे की जर्मन बेकरी ब्लास्ट केस में दो और "मासूम-बेगुनाह-गुमराह" लोग पकड़ाये हैं, जो लम्बे समय तक जेल में चिकन-बिरयानी खाएंगे, क्योंकि नेहरुवादी सेकुलरिज़्म का ऐसा मानना है कि "मासूमों" को फ़ाँसी दिये जाने पर "साम्प्रदायिक अशांति" फ़ैलने का खतरा होता है… इसी से मिलते-जुलते विचार कार्ल मार्क्स की भारतीय संतानों के भी हैं…

देश में इस प्रकार की घटनाएं और व्यवहार इसलिये होते हैं क्योंकि वोट बैंक की राजनीति और नेहरुवादी सेकुलर शिक्षा का मैकालेकरण, प्रशासनिक-राजनैतिक व्यवस्था की रग-रग में बस चुका है…। सिर्फ़ एक बार "विशाल हिन्दू वोट बैंक" की अवधारणा की कल्पना कीजिये और उसे अमल में लाने का प्रयास कीजिए… फ़िर देखिये अपने-आप देश की रीतियाँ-नीतियाँ, परिस्थितियाँ, यहाँ तक कि मानसिकता भी… सब बदल जायेंगी…।


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सन्दर्भ -
http://expressbuzz.com/states/kerala/%E2%80%98chinese%E2%80%99-che-shoes-can-land-you-in-trouble!/202902.html

http://expressbuzz.com/cities/kochi/%E2%80%98will-reinstate-lecturer-if-muslims-pardon-him%E2%80%99/204046.html

http://www.indianexpress.com/news/mumbai-cops-reason-for-custody-victim-muslim-accused-hindu/676496/
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एक मोहतरमा हैं, नाम है "असिया अन्दराबी"। यह मोहतरमा कश्मीर की आज़ादी के आंदोलन की प्रमुख नेत्री मानी जाती हैं, एक कट्टरपंथी संगठन चलाती हैं जिसका नाम है "दुख्तरान-ए-मिल्लत" (धरती की बेटियाँ)। अधिकतर समय यह मोहतरमा अण्डरग्राउण्ड रहती हैं और परदे के पीछे से कश्मीर के पत्थर-फ़ेंकू गिरोह को नैतिक और आर्थिक समर्थन देती रहती हैं। सबसे तेज़ आवाज़ में कश्मीर की आज़ादी की मांग करने वाले बुज़ुर्गवार अब्दुल गनी लोन की खासुलखास सिपहसालारों में इनकी गिनती की जाती है। मुद्दे की बात पर आने से पहले ज़रा इनके बयानों की एक झलक देख लीजिये, जो उन्होंने विभिन्न इंटरव्यू  में दिये हैं- मोहतरमा फ़रमाती हैं,

1) मैं "कश्मीरियत" में विश्वास नहीं रखती, मैं राष्ट्रीयता में विश्वास करती हूं… दुनिया में सिर्फ़ दो ही राष्ट्र हैं, मुस्लिम और गैर-मुस्लिम…

(फ़िर पता नहीं क्यों आज़ादी के लिये लड़ने वाले कश्मीरी युवा इन्हें अपना आदर्श मानते हैं? या शायद कश्मीर की आज़ादी वगैरह तो बनावटी बातें हैं, उन्हें सिर्फ़ मुस्लिम और गैर-मुस्लिम की थ्योरी में भरोसा है?)

2) मैं अंदराबी हूं और हम सैयद रजवाड़ों के वंशज हैं… मैं कश्मीरी नहीं हूं मैं अरबी हूं… मेरे पूर्वज अरब से मध्य एशिया और फ़िर पाकिस्तान आये थे…

(इस बयान से तो लगता है कि वह कहना चाहती हैं, कि "मैं" तो मैं हूं बल्कि "हम और हमारा" परिवार-खानदान श्रेष्ठ और उच्च वर्ग का है, जबकि ये पाकिस्तानी-कश्मीरी वगैरह तो ऐरे-गैरे हैं…)

3) मैं खुद को पाकिस्तानी नहीं, बल्कि मुस्लिम कहती हूं…

4) दुख्तरान-ए-मिल्लत की अध्यक्ष होने के नाते मेरा ठोस विश्वास है कि पूरी दुनिया सिर्फ़ अल्लाह के हुक्म से चलने के लिये ही बनी है… इस्लामिक सिद्धांतों और इस्लामिक कानूनों की खातिर हम भारत से लड़ रहे हैं, और इंशा-अल्लाह हम एक दिन कश्मीर लेकर ही रहेंगे… हमें पूरी दुनिया में इस्लाम का परचम लहराना है…

खैर यह तो हुई इनके ज़हरीले और धुर भारत-विरोधी बयानों की बात… ताकि आप इनकी शख्सियत से अच्छी तरह परिचित हो सकें… अब आते हैं असली मुद्दे पर…

पिछले माह एक कश्मीरी अखबार को दिये अपने बयान में अन्दराबी ने कश्मीर के उन माता-पिताओं और पालकों को लताड़ लगाते हुए उनकी कड़ी आलोचना की, जिन्होंने पिछले काफ़ी समय से कश्मीर में चलने वाले प्रदर्शनों, विरोध और बन्द के कारण उनके बच्चों के स्कूल और पढ़ाई को लेकर चिंता व्यक्त की थी। 13 जुलाई के बयान में अन्दराबी ने कहा कि "कुछ ज़िंदगियाँ गँवाना, सम्पत्ति का नुकसान और बच्चों की पढ़ाई और समय की हानि तो स्वतन्त्रता-संग्राम का एक हिस्सा हैं, इसके लिये कश्मीर के लोगों को इतनी हायतौबा नहीं मचाना चाहिये… आज़ादी के आंदोलन में हमें बड़ी से बड़ी कुर्बानी के लिये तैयार रहना चाहिये…"।



यह उग्र बयान पढ़कर आपको भी लगेगा कि ओह… कश्मीर की आज़ादी के लिये कितनी समर्पित नेता हैं? लेकिन 30 अप्रैल 2010 को जम्मू-कश्मीर के उच्च न्यायालय में दाखिल दस्तावेजों के मुताबिक इस फ़ायरब्राण्ड नेत्री असिया अन्दराबी के सुपुत्र मोहम्मद बिन कासिम ने पढ़ाई के लिये मलेशिया जाने हेतु आवेदन किया है और उसे "भारतीय पासपोर्ट" चाहिये… चौंक गये, हैरान हो गये न आप? जी हाँ, भारत के विरोध में लगातार ज़हर उगलने वाली अंदराबी के बेटे को "भारतीय पासपोर्ट" चाहिये… और वह भी किसलिये? बारहवीं के बाद उच्च अध्ययन हेतु…। यानी कश्मीर में जो युवा और किशोर रोज़ाना पत्थर फ़ेंक-फ़ेंक कर, अपनी जान हथेली पर लेकर 200-300 रुपये रोज कमाते हैं, उन गलीज़ों में उनका "होनहार" शामिल नहीं होना चाहता… न वह खुद चाहती है, कि कहीं वह सुरक्षा बलों के हाथों मारा न जाये…। कैसा पाखण्ड भरा आज़ादी का आंदोलन है यह? एक तरफ़ तो मई से लेकर अब तक कश्मीर के स्कूल-कॉलेज खुले नहीं हैं जिस कारण हजारों-लाखों युवा और किशोर अपनी पढ़ाई का नुकसान झेल रहे हैं, पत्थर फ़ेंक रहे हैं… और दूसरी तरफ़ यह मोहतरमा लोगों को भड़काकर, खुद के बेटे को विदेश भेजने की फ़िराक में हैं…

अब सवाल उठता है कि "भारतीय पासपोर्ट" ही क्यों? जवाब एकदम सीधा और आसान है कि यदि असिया अंदराबी के पाकिस्तानी आका उसके बेटे को पाकिस्तान का पासपोर्ट बनवा भी दें तो विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों पर पाकिस्तानी पासपोर्ट को "एक घुसपैठिये" के पासपोर्ट की तरह शंका की निगाह और "गुप्त रोगी" की तरह से देखा जाता है, बारीकी से जाँच की जाती है, तमाम सवालात किये जाते हैं, जबकि "भारतीय पासपोर्ट" की कई देशों में काफ़ी-कुछ "इज्जत" बाकी है अभी… इसलिये अंदराबी भारत से नफ़रत(?) करने के बावजूद भारत का ही पासपोर्ट चाहती है। इसे कहते हैं धुर-पाखण्ड…

पिछले वर्ष जब मोहम्मद कासिम का चयन जम्मू की फ़र्स्ट क्लास क्रिकेट टीम में हो गया तो आसिया अंदराबी ने उसे कश्मीर वापस बुला लिया, कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि "मैं अपने बेटे को "हिन्दुस्तान" की टीम के लिये कैसे खेलने दे सकती थी? जो देश हमारा दुश्मन है, उसके लिये खेलना असम्भव है…" (लेकिन तथाकथित दुश्मन देश का पासपोर्ट लिया जा सकता है…)…

आसिया अंदराबी, यासीन मलिक, अब्दुल गनी लोन जैसे लोगों की वजह से आज हजारों कश्मीरी युवा मजबूरी में कश्मीर से बाहर भारत के अन्य विश्वविद्यालयों में अपनी पढ़ाई कर रहे हैं, अपने घरों और अपने परिजनों से दूर… जबकि कश्मीर से निकलने वाले उर्दू अखबार "उकाब" के सम्पादक मंज़ूर आलम ने लिखा है कि कश्मीर के उच्च वर्ग के अधिकांश लोगों ने अपने बच्चों को कश्मीर से बाहर भेज दिया है, जैसे कि एक इस्लामिक नेता और वकील मियाँ अब्दुल कय्यूम की एक बेटी दरभंगा में पढ़ रही है, जबकि दूसरी भतीजी जम्मू के डोगरा लॉ कॉलेज की छात्रा है, दो अन्य भतीजियाँ और एक भाँजी भी पुणे के दो विश्वविद्यालयों में पढ़ रही हैं…। जो लोग कश्मीर में मर रहे हैं, पत्थर फ़ेंक रहे हैं, गोलियाँ खा रहे हैं… वे या तो गरीब हैं और कश्मीर से बाहर नहीं जा सकते या फ़िर इन नेताओं की ज़हरीली लेकिन लच्छेदार धार्मिक बातों में फ़ँस चुके हैं…। अब उनकी स्थिति इधर कुँआ, उधर खाई वाली हो गई है, न तो उन्हें इस स्थिति से निकलने का कोई रास्ता सूझ रहा है, न ही अलगाववादी नेता उन्हें यह सब छोड़ने देंगे… क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो उनकी "दुकान" बन्द हो जायेगी…

आप सोच रहे होंगे कि आसिया अंदराबी का संगठन "दुख्तरान-ए-मिल्लत" करता क्या है? यह संगठन मुस्लिम महिलाओं को "इस्लामी परम्पराओं और शरीयत" के अनुसार चलने को "बाध्य" करता है। इस संगठन ने कश्मीर में लड़कियों और महिलाओं के लिये बुरका अनिवार्य कर दिया, जिस लड़की ने इनकी बात नहीं मानी उसके चेहरे पर तेज़ाब फ़ेंका गया, किसी रेस्टोरेण्ट में अविवाहित जोड़े को एक साथ देखकर उसे सरेआम पीटा गया, कश्मीर के सभी इंटरनेट कैफ़े को चेतावनी दी गई कि वे "केबिन" हटा दें और किसी भी लड़के और लड़की को एक साथ इंटरनेट उपयोग नहीं करने दें… कई होटलों और ढाबों में घुसकर इनके संगठन ने शराब की बोतलें फ़ोड़ीं (क्योंकि शराब गैर-इस्लामिक है)… तात्पर्य यह कि आसिया अंदराबी ने "इस्लाम" की भलाई के लिये बहुत से "पवित्र काम" किये हैं…।

अब आप फ़िर सोच रहे होंगे कि जो काम आसिया अंदराबी ने कश्मीर में किये, उसी से मिलते-जुलते, इक्का-दुक्का काम प्रमोद मुतालिक ने भी किये हैं… फ़िर हमारे सो कॉल्ड नेशनल मीडिया में प्रमोद मुतालिक से सम्बन्धित खबरें हिस्टीरियाई अंदाज़ में क्यों दिखाई जाती हैं, जबकि आसिया अंदराबी का कहीं नाम तक नहीं आता? कोई उसे जानता तक नहीं… कभी भी आसिया अंदराबी को "पिंक चड्डी" क्यों नहीं भेजी जाती? जवाब आपको मालूम है… न मालूम हो तो फ़िर बताता हूं, कि हमारा दो कौड़ी का नेशनल मीडिया सिर्फ़ हिन्दू-विरोधी ही नहीं है, बल्कि जहाँ "इस्लाम" की बात आती है, तुरन्त घिघियाए हुए कुत्ते की तरह इसकी दुम पिछवाड़े में दब जाती है। यही कारण है कि प्रमोद मुतालिक तो "नेशनल विलेन" है, लेकिन अंदराबी का नाम भी कईयों ने नहीं सुना होगा…।

मीडिया को अपनी जेब में रखने का ये फ़ायदा है… ताकि "भगवा आतंकवाद" की मनमानी व्याख्या भी की जा सके और किसी चैनल पर "उग्र हिन्दूवादियों की भीड़ द्वारा हमला" जैसी फ़र्जी खबरें भी गढ़ी जा सकें… जितनी पाखण्डी और ढोंगी आसिया अंदराबी अपने कश्मीर के आज़ादी आंदोलन को लेकर हैं उतना ही बड़ा पाखंडी और बिकाऊ हमारा सो कॉल्ड "सेकुलर मीडिया" है…

अक्सर आप लोगों ने मीडिया पर कुछ वामपंथी और सेकुलर बुद्धिजीवियों को कुनैन की गोलीयुक्त चेहरा लिये यह बयान चबाते हुए सुना होगा कि "कश्मीर की समस्या आर्थिक है, वहाँ गरीबी और बेरोज़गारी के कारण आतंकवाद पनप रहा है, भटके हुए नौजवान हैं, राज्य को आर्थिक पैकेज चाहिये… आदि-आदि-आदि"। अब चलते-चलते कुछ रोचक आँकड़े पेश करता हूं -

1) जम्मू-कश्मीर की प्रति व्यक्ति आय 17590 रुपये है जो बिहार, उप्र और मप्र से अधिक है)

2) कश्मीर को सबसे अधिक केन्द्रीय सहायता मिलती है, इसके बजट का 70% अर्थात 19362 करोड़ केन्द्र से (कर्ज़ नहीं) दान में मिलता है।

3) इसके बदले में ये क्या देते हैं, 2008-09 में कश्मीर में "शहरी सम्पत्ति कर" के रुप में कुल कलेक्शन कितना हुआ, सिर्फ़ एक लाख रुपये…

4) इतने कम टैक्स कलेक्शन के बावजूद जम्मू-कश्मीर राज्य पिछड़ा की श्रेणी में नहीं आता, क्योंकि यहाँ के निवासियों में से 37% का बैंक खाता है, 65% के पास रेडियो है, 41% के पास टीवी है, प्रति व्यक्ति बिजली खपत 759 किलोवाट है (बिहार, उप्र और पश्चिम बंगाल से अधिक), 81% प्रतिशत घरों में बिजली है सिर्फ़ 15% केरोसीन पर निर्भर हैं (फ़िर बिहार, उप्र, राजस्थान से आगे)। भारत के गाँवों में गरीबों को औसतन 241 ग्राम दूध उपलब्ध है, कश्मीर में यह मात्रा 353 ग्राम है, स्वास्थ्य पर खर्चा प्रति व्यक्ति 363 रुपये है (तमिलनाडु 170 रुपये, आंध्र 146 रुपये, उप्र 83 रुपये)। किसी भी मानक पर तुलना करके देख लीजिये कि जम्मू कश्मीर कहीं से भी आर्थिक या मानव सूचकांक रुप से पिछड़ा राज्य नहीं है। यदि सिर्फ़ आर्थिक पिछड़ापन, गरीबी, बेरोज़गारी ही अलगाववाद का कारण होता, तब तो सबसे पहले बिहार के भारत से अलग होने की माँग करना जायज़ होता, लेकिन ऐसा है नहीं… कारण सभी जानते हैं लेकिन भौण्डे तरीके से "पोलिटिकली करेक्ट" होने के चक्कर में सीधे-सीधे कहने से बचते हैं कि यह कश्मीरियत-वश्मीरियत कुछ नहीं है बल्कि विशुद्ध इस्लामीकरण है, और "गुमराह" "भटके हुए" या "मासूम" और कोई नहीं बल्कि धर्मान्ध लोग हैं और इनसे निपटने का तरीका भी वैसा ही होना चाहिये…बशर्ते केन्द्र में कोई प्रधानमंत्री ऐसा हो जिसकी रीढ़ की हड्डी मजबूत हो और कोई सरकार ऐसी हो जो अमेरिका को जूते की नोक पर रखने की हिम्मत रखे…

साफ़ ज़ाहिर है कि कश्मीर की समस्या विशुद्ध रुप से "धार्मिक" है, वरना लोन-मलिक जैसे लोग कश्मीरी पण्डितों को घाटी से बाहर न करते, बल्कि उन्हें साथ लेकर अलगाववाद की बातें करते। अलगाववादियों का एक ही मकसद है वहाँ पर "इस्लाम" का शासन स्थापित करना, जो लोग इस बात से आँखें मूंदकर बेतुकी आर्थिक-राजनैतिक व्याख्याएं करते फ़िरते हैं, वे निठल्ले शतुरमुर्ग हैं… और इनका बस चले तो ये आसिया अंदराबी को भी "सेकुलर" घोषित कर दें… क्योंकि ढोंग-पाखण्ड-बनावटीपन और हिन्दू विरोध तो इनकी रग-रग में भरा है… लेकिन जब केरल जैसी साँप-छछूंदर की हालत होती है तभी इन्हें अक्ल आती है…

सन्दर्भ :- http://www.thehindu.com/news/states/other-states/article574617.ece


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क्या आपने कभी ऐसा भिखारी देखा है जो भीख भी माँगता है और भीख देने वाले को न सिर्फ़ गालियाँ देता है, बल्कि दाता को नुकसान पहुँचाने की हरसम्भव कोशिश भी करता रहता है… दूसरी तरफ़ एक गाँधीवादी दाता भी है जो उस भिखारी से हमेशा बुरा-भला सुनता रहता है, वह भिखारी आये दिन उस दाता को लातें जमाता रहता है, दाता के घर में उसके घर की गन्दगी फ़ैलाता रहता है… फ़िर भी वह बेशर्म गाँधीवादी दाता हें हें हें हें हें हें हें करते हुए लगातार उस भिखारी के जूते खाता जाता है, खाता जाता है, खाता ही रहता है। न तो कभी पलटकर यह पूछता है कि "आखिर तू भिखारी क्यों रह गया? और इतने साल से भीख ही माँग रहा है तो आखिर वैसा कब तक बना रहेगा? क्या कभी अपने पैरों पर खड़ा होना भी सीखेगा?", और न ही उस भिखारी को दो लात जमाकर मोहल्ले से बाहर करता है, न ही उससे ये कहता है कि "…आगे से कभी मेरे दरवाजे पर मत खड़ा होना, मेरा-तेरा कोई सम्बन्ध नहीं…"।

इस प्रकार उस भिखारी की हमेशा मौज रहती है, वह गाँधीवादी दाता से अहसान जताकर पैसा तो लेता ही है, बाकी पूरे मोहल्ले से भी यह कहकर पैसा वसूल करता है कि "यदि तुम लोगों ने मुझे भीख नहीं दी तो मैं अपने बच्चों को तुम्हारे घर पर छोड़ दूंगा…" उल्लेखनीय है कि उस भिखारी द्वारा पाले-पोसे हुए बच्चे बुरी तरह से "एड्स" से पीड़ित हैं जिन्हें कोई अपने घर में देखना तक पसन्द नहीं करता, लेकिन भिखारी इसे भी अपना प्लस पाइंट समझकर पूरे मोहल्ले को धमकाता है कि "भीख दो, वरना मेरे बच्चे आयेंगे…"।

उस मोहल्ले का एक पहलवान है, वैसे तो वह भिखारी उस पहलवान से डरता है, क्योंकि वह पहलवान चाहे जब उस भिखारी को उसी के घर में घुसकर झापड़ रसीद करता रहता है, लेकिन पहलवान को भी उस भिखारी की जरुरत पड़ती है अपने उल्टे-सीधे काम करवाने के लिये,,,, सो वह उसे पुचकारता भी रहता है, खाने को भी देता है… उसके एड्स पीड़ित बच्चों की देखभाल भी करता है। मोहल्ले का पहलवान, उस गाँधीवादी को दबाने और धमकाने के लिये उस भिखारी का उपयोग गाहे-बगाहे करता रहता है, और चूंकि उस गाँधीवादी में आत्मसम्मान नाम की कोई चीज़ नहीं है, इसलिये वह पहलवान की लल्लो-चप्पो भी करता रहता है और भिखारी की भी खिदमत करता रहता है। हालांकि उस भिखारी के पाले-पोसे बच्चे पहलवान की नाक में भी दम किये हुए हैं, लेकिन पहलवान अपनी नाक ऊँची रखने के चक्कर में किसी को कुछ बताता नहीं, जबकि मोहल्ले के सभी लोग इस बात को जानते हैं।

असल में उस गाँधीवादी के घर के कुछ सदस्य अति-गाँधीवादी टाइप के भी हैं, और हमेशा सोचते रहते हैं कि कैसे उस भिखारी से मधुर सम्बन्ध बनाये जायें, वे लोग हरदम सोचते रहते हैं कि भिखारी उनका दोस्त बन सकता है, वे लोग भिखारी को अपने साथ, अपने बराबर बैठाने की जुगत में लगे रहते हैं… भले ही वह इन लोगों की बातों पर कान न देता हो और न ही गाँधीवादी के बराबर बैठने की उसकी औकात हो… फ़िर भी लगातार कोशिश जारी रहती है कि किस तरह भिखारी का "दिल जीता" जाये।

मजे की बात यह कि गाँधीवादी और वह भिखारी बरसों पहले एक ही मकान में रहते थे, फ़िर भिखारी अपने कर्मों की वजह से अलग रहने लगा, उसी समय गाँधीवादी ने दरियादिली दिखाते हुए उस भिखारी को गृहस्थी जमाने के लिये काफ़ी पैसा दिया था, लेकिन उस भिखारी की "शिक्षा-दीक्षा" और मानसिकता कुछ ऐसी थी कि वह हमेशा असन्तुष्ट रहता था, चाहे जितनी भीख मिले हमेशा आतिशबाजी में उड़ा देता था, "गलत-सलत शिक्षा-दीक्षा" के कारण उसके बच्चों को एड्स भी हो गया… लेकिन फ़िर भी वह बाज नहीं आता। वैसे एक बार जब पानी सिर से गुजर गया था तब गाँधीवादी ने उस भिखमंगे की जमकर ठुकाई की थी, लेकिन उसके बावजूद वह आये-दिन चोरी के इरादे से घुसपैठ करता रहता है, गाँधीवादी सिर्फ़ सहता रहता है।

कई बार बहुत "कन्फ़्यूजन" होता है कि आखिर दोनों में से "बड़ा लतखोर" कौन है? वह भिखारी या वह गाँधीवादी?
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खैर जाने दीजिये, कहानी बहुत हुई… अब दो खबरें असलियत के धरातल से भी पढ़ लीजिये…



1) पाकिस्तान ने बाढ़पीड़ितों के लिये भारत की दी हुई 50 लाख डालर की सहायता राशि लेने से इंकार कर दिया था… फ़िर कहा कि यह राशि उसे संयुक्त राष्ट्र के जरिये दी जाये… और "मेरा भारत महान" इसके लिये भी राजी है…। अब ताज़ा खबर ये है कि इस 50 लाख डालर की सहायता रकम को पाँच गुना बढ़ाकर 250 लाख डॉलर कर दिया गया है, ताकि हमारा "छोटा भाई" और अधिक हथियार खरीद सके, और अधिक कसाब-अफ़ज़ल भेज सके, कश्मीर में और अधिक आग भड़का सके… ("अमन की आशा" की जय हो…)। जबकि बाढ़ का फ़ायदा उठाकर अब मंगते पाकिस्तान ने चिल्लाना शुरु कर दिया है कि उस पर समूचे विश्व के देशों और वर्ल्ड बैंक का जितना भी कर्ज़ बाकी है वह माफ़ किया जाये, क्योंकि वह चुकाने में सक्षम नहीं है…।

मैने तो सुना था कि OPEC यानी पेट्रोल उत्पादक देशों का समूह जिसमें अधिकतर इस्लामिक देश ही शामिल हैं और जो मनमाने तरीके से पेट्रोल के भाव बढ़ाकर खून चूसने में माहिर है… वह पूरी दुनिया को खरीद सकते है, फ़िर पाकिस्तान के बाढ़पीड़ितों को गोद क्यों नहीं लेते? या OPEC ऐसा क्यों नहीं कहता कि पाकिस्तान हमारा "भाईजान" है और हम उसके सारे कर्जे चुका देंगे… लेकिन खुद इस्लामिक देशों को ही भरोसा नहीं है कि उनके दिये हुए पैसों का पाकिस्तान में "सही और उचित" उपयोग होगा। ये बात और है कि "जेहाद" और "ज़कात" के नाम पर चादर बिछाकर चन्दा लेने में यही सारे देश बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं… जबकि हकीकत में बाढ़पीड़ित गरीबों की मदद करना कोई नहीं चाहता और जो देश ऐसा चाहते हैं उन्हें पाकिस्तान पर भरोसा नहीं है…। फ़िर भी हम हैं कि 50 लाख डालर की जगह ढाई करोड़ डालर देकर ही रहेंगे… चाहे कुछ हो जाये।






2) इधर "अमन की आशा" के एक और झण्डाबरदार शाहरुख खान ने फ़िर से अपने पाकिस्तान प्रेम को जाहिर करते हुए IPL-4 में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को खिलाने की पैरवी की है… जबकि उधर इंग्लैण्ड में नशेलची मोहम्मद आसिफ़ के साथ 6 अन्य खिलाड़ी पाकिस्तान का राष्ट्रीय खेल (यानी "सट्टेबाजी") खेलने में लगे हैं…। शायद शाहरुख खान अब माँग करें कि उन सभी "मज़लूम, मासूम और बेगुनाह" खिलाड़ियों को भारत की "मानद नागरिकता" प्रदान की जाये, ताकि उन्हें किसी लोकसभा सीट से खड़ा करके संसद में पहुँचाया जा सके… (मुरादाबाद की तरह)

फ़िलहाल आप तो सेकुलरिज़्म और गाँधीवाद की जय बोलिये और अपने काम पर लगिये… क्योंकि भिखमंगों के साथ इन दोनों की फ़ूहड़ और आत्मघाती जुगलबन्दी तो 65 साल से चल ही रही है… आगे भी चलती रहेगी…


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