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सोमवार, 30 अगस्त 2010 12:13
यह गलती नौकरशाही की है या "विशिष्ट मानसिकता" की? (सन्दर्भ - विश्वनाथन आनन्द का अपमान)… Vishwanathan Anand Humiliation and Insult
विश्व के नम्बर एक शतरंज खिलाड़ी और भारत की शान समझे जाने वाले विश्वनाथन आनन्द क्या भारत के नागरिक नहीं हैं? बेशक हैं और हमें उन पर नाज़ भी है, लेकिन भारत की नौकरशाही और बाबूगिरी ऐसा नहीं मानती। इस IAS नौकरशाही और बाबूराज की आँखों पर भ्रष्टाचार और चाटुकारिता वाली मानसिकता की कुछ ऐसी चर्बी चढ़ी हुई है, कि उन्हें सामान्य ज्ञान, शिष्टाचार और देशप्रेम का बोध तो है ही नहीं, लेकिन उससे भी परे नेताओं के चरण चूमने की प्रतिस्पर्धा के चलते इन लोगों खाल गैण्डे से भी मोटी हो चुकी है।
विश्वनाथन आनन्द को एक अन्तर्राष्ट्रीय गणितज्ञ सम्मेलन में हैदराबाद विश्वविद्यालय द्वारा मानद उपाधि का सम्मान दिया जाना था, जिसके लिये उन्होंने अपने व्यस्त समय को दरकिनार करते हुए अपनी सहमति दी थी। लेकिन भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय ने विश्वनाथन आनन्द की "भारतीय नागरिकता" पर ही सवाल खड़े कर दिये, मंत्रालय के अधिकारियों का कहना था कि भले ही आनन्द के पास भारतीय पासपोर्ट हो, लेकिन वह अधिकतर समय स्पेन में ही रहते हैं। विश्वनाथन आनन्द की नागरिकता के सवालों(?) से उलझी हुई फ़ाइल जुलाई के पहले सप्ताह से 20 अगस्त तक विभिन्न मंत्रालयों और अधिकारियों के धक्के खाती रही। हैदराबाद विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट प्रदान करने के बारे में सारे पत्र-व्यवहार 2-2 बार फ़ैक्स किये, लेकिन नौकरशाही की कान पर जूं भी नहीं रेंगी। इन घनचक्करों के चक्कर में विश्वविद्यालय को यह सम्मान देरी से देने का निर्णय करना पड़ा, हालांकि पहले तय कार्यक्रम के अनुसार आनन्द को विश्व के श्रेष्ठ गणितज्ञों के साथ शतरंज भी खेलना था और उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि भी दी जाना थी। विवि के अधिकारियों और आनन्द, दोनों के सामने ही यह अपमानजनक स्थिति उत्पन्न हो गई क्योंकि उनकी नागरिकता पर ही संदेह जताया जा रहा था।
इस झमेले से निश्चित ही आनन्द ने भीतर तक अपमानित महसूस किया होगा, हालांकि वे इतने सज्जन, शर्मीले और भोले हैं कि उन्होंने अपनी पत्नी अरुणा से अपने पासपोर्ट की कॉपी मंत्रालय भेजने को कहा, जिसका मंत्रालय के अघाये हुए अधिकारियों-बाबुओं ने कोई जवाब नहीं दिया। एक केन्द्रीय विवि और विश्व के सर्वोच्च खिलाड़ी के इस अपमान के मामले की शिकायत जब राष्ट्रपति प्रतिभादेवी सिंह पाटिल को की गई तब कहीं जाकर कपिल सिब्बल साहब ने खुद विश्वनाथन आनन्द को फ़ोन करके उनसे माफ़ी माँगी और उन्हें हुई "असुविधा"(?) के लिए खेद व्यक्त किया। आनन्द तो वैसे ही भोले-भण्डारी हैं, उन्होंने भी तड़ से माफ़ी देते हुए सारे मामले का पटाक्षेप कर दिया। (जबकि हकीकत में विश्वनाथन आनन्द संसद में बैठे 700 से अधिक सांसदों से कहीं अधिक भारतीय हैं, एक "परिवार विशेष" से अधिक भारतीय हैं जिसके एक मुख्य सदस्य ने विवाह के कई साल बाद तक अपना इटली का पासपोर्ट नहीं लौटाया था, और किसी नौकरशाह ने उनकी नागरिकता पर सवाल नहीं उठाया…)
पूरे मामले को गौर से और गहराई से देखें तो साफ़ नज़र आता है कि -
1) नौकरशाही ने यह बेवकूफ़ाना कदम या तो "चरण वन्दना" के लिये किसी खास व्यक्ति को खुश करने अथवा किसी के इशारे पर उठाया होगा…
2) नौकरशाही में इतनी अक्ल, समझ और राष्ट्रबोध ही नहीं है कि किस व्यक्ति के साथ कैसे पेश आना चाहिये…
3) नौकरशाही में "व्यक्ति विशेष" देखकर झुकने या लेटने की इतनी गन्दी आदत पड़ चुकी है कि देश के "सम्मानित नागरिक" क्या होते हैं यह वे भूल ही चुके हैं…
4) इस देश में 2 करोड़ से अधिक बांग्लादेशी (सरकारी आँकड़ा) अवैध रुप से रह रहे हैं, इस नौकरशाही की हिम्मत नहीं है कि उन्हें हाथ भी लगा ले, क्योंकि वह एक "समुदाय विशेष का वोट बैंक" है…। बांग्लादेश से आये हुए "सेकुलर छोटे भाईयों" को राशन कार्ड, ड्रायविंग लायसेंस और अब तो UID भी मिल जायेगा, लेकिन आनन्द से उनका पासपोर्ट भी माँगा जायेगा…
5) इस देश के कानून का सामना करने की बजाय भगोड़ा बन चुका और कतर की नागरिकता ले चुका एक चित्रकार(?) यदि आज भारत की नागरिकता चाहे तो कई सेकुलर उसके सामने "लेटने" को तैयार है… लेकिन चूंकि विश्वनाथन आनन्द एक तमिल ब्राह्मण हैं, जिस कौम से करुणानिधि धुर नफ़रत करते हैं, इसलिये उनका अपमान किया ही जायेगा। (पाकिस्तानी नोबल पुरस्कार विजेता अब्दुस सलाम का भी अपमान और असम्मान सिर्फ़ इसलिये किया गया था कि वे "अहमदिया" हैं…)
6) दाऊद इब्राहीम भी कई साल से भारत के बाहर रहा है और अबू सलेम भी रहा था, लेकिन सरकार इस बात का पूरा खयाल रखेगी कि जब वे भारत आयें तो उन्हें उचित सम्मान मिले, 5 स्टार होटल की सुविधा वाली जेल मिले और सजा तो कतई न होने पाये… इसका कारण सभी जानते हैं…
7) विश्वनाथन आनन्द की एक गलती यह भी है कि, मोहम्मद अज़हरुद्दीन "सट्टेबाज" की तरह उन्होंने यह नहीं कहा कि "मैं एक अल्पसंख्यक ब्राह्मण हूं इसलिये जानबूझकर मेरा अपमान किया जा रहा है…, न ही वे मीडिया के सामने आकर ज़ार-ज़ार रोये…" वरना उन्हें नागरिकता तो क्या, मुरादाबाद से सांसद भी बनवा दिया जाता…
8) विश्वनाथन आनन्द की एक और गलती यह भी है कि उनमें "मदर टेरेसा" और "ग्राहम स्टेंस" जैसी सेवा भावना भी नहीं है, क्योंकि उनकी नागरिकता पर भी आज तक कभी कोई सवाल नहीं उठा…
असल में भारत के लोगों को और नौकरशाही से लेकर सरकार तक को, "असली हीरे" की पहचान ही नहीं है, जो व्यक्ति स्पेन में रहकर भी भारत का नाम ऊँचा हो इसलिये "भारतीय" के रुप में शतरंज खेलता है, उसके साथ तो ऐसा दुर्व्यवहार करते हैं, लेकिन भारत और उसकी संस्कृति को गरियाने वाले वीएस नायपॉल को नागरिकता और सम्मान देने के लिये उनके सामने बिछे जाते हैं। ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है, कि जहाँ विदेश में किसी भारतीय मूल के व्यक्ति ने अपनी प्रतिभा और मेहनत के बल पर कुछ मुकाम हासिल किया कि मूर्खों की तरह हें हें हें हें हें हें करते हुए उसके दरवाजे पर पहुँच जायेंगे कि "ये तो भारतीय है, ये तो भारतीय है, इनके वंशज तो भारत से आये थे…", सुनीता विलियम्स हों या बॉबी जिन्दल, उनका भारत से कोई लगाव नहीं है, लेकिन हमारे नेता और अधिकारी हैं कि उनके चरणों में लोट लगायेंगे… सानिया मिर्ज़ा शादी रचाकर पाकिस्तान चली गईं, लेकिन इधर के अधिकारी और नेता उसे कॉमनवेल्थ खेलों में "भारतीय खिलाड़ी" के रुप में शामिल करना चाहते हैं… यह सिर्फ़ चमचागिरी नहीं है, भुलाये जा चुके आत्मसम्मान की शोकांतिका है…।
स्पेन सरकार ने, विश्वनाथन आनन्द के लिये स्पेन की नागरिकता ग्रहण करने का ऑफ़र हमेशा खुला रखा हुआ है। एक और प्रसिद्ध शतरंज खिलाड़ी तथा आनन्द के मित्र प्रवीण ठिप्से ने बताया कि स्पेन ने विश्वनाथन आनन्द को "स्पेनिश" खिलाड़ी के रुप में विश्व शतरंज चैम्पियनशिप में खेलने के लिये "5 लाख डॉलर" का प्रस्ताव दिया था, जिसे आनन्द ने विनम्रता से ठुकरा दिया था कि "मैं भारत के लिये और भारतीय के नाम से ही खेलूंगा…" उस चैम्पियनशिप को जीतने पर विश्वनाथन आनन्द को भारत सरकार ने सिर्फ़ "5 लाख रुपये" दिये थे… जबकि दो कौड़ी के बॉलर ईशान्त शर्मा को IPL में सिर्फ़ 6 मैच खेलने पर ही 6 करोड़ रुपये मिल गये थे…
बहरहाल, आनन्द के अपमान के काफ़ी सारे "सम्भावित कारण" मैं गिना चुका हूं… अब अन्त में विश्वनाथन आनन्द के अपमान और उनके साथ हुए इस व्यवहार का एक सबसे मजबूत कारण देता हूं… नीचे चित्र देखिए और खुद ही समझ जाईये…। यदि आनन्द ने सोहराबुद्दीन, शहाबुद्दीन, पप्पू यादव, कलमाडी या पवार के साथ शतरंज खेली होती तो उनका ऐसा अपमान नहीं होता… लेकिन एक "राजनैतिक अछूत" व्यक्ति के साथ शतरंज खेलने की हिम्मत कैसे हुई आनन्द की?
भारत की "चरणचूम चापलूस-रीढ़विहीन" नौकरशाही आप सभी को मुबारक हो… जय हो।
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विश्वनाथन आनन्द को एक अन्तर्राष्ट्रीय गणितज्ञ सम्मेलन में हैदराबाद विश्वविद्यालय द्वारा मानद उपाधि का सम्मान दिया जाना था, जिसके लिये उन्होंने अपने व्यस्त समय को दरकिनार करते हुए अपनी सहमति दी थी। लेकिन भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय ने विश्वनाथन आनन्द की "भारतीय नागरिकता" पर ही सवाल खड़े कर दिये, मंत्रालय के अधिकारियों का कहना था कि भले ही आनन्द के पास भारतीय पासपोर्ट हो, लेकिन वह अधिकतर समय स्पेन में ही रहते हैं। विश्वनाथन आनन्द की नागरिकता के सवालों(?) से उलझी हुई फ़ाइल जुलाई के पहले सप्ताह से 20 अगस्त तक विभिन्न मंत्रालयों और अधिकारियों के धक्के खाती रही। हैदराबाद विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट प्रदान करने के बारे में सारे पत्र-व्यवहार 2-2 बार फ़ैक्स किये, लेकिन नौकरशाही की कान पर जूं भी नहीं रेंगी। इन घनचक्करों के चक्कर में विश्वविद्यालय को यह सम्मान देरी से देने का निर्णय करना पड़ा, हालांकि पहले तय कार्यक्रम के अनुसार आनन्द को विश्व के श्रेष्ठ गणितज्ञों के साथ शतरंज भी खेलना था और उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि भी दी जाना थी। विवि के अधिकारियों और आनन्द, दोनों के सामने ही यह अपमानजनक स्थिति उत्पन्न हो गई क्योंकि उनकी नागरिकता पर ही संदेह जताया जा रहा था।
इस झमेले से निश्चित ही आनन्द ने भीतर तक अपमानित महसूस किया होगा, हालांकि वे इतने सज्जन, शर्मीले और भोले हैं कि उन्होंने अपनी पत्नी अरुणा से अपने पासपोर्ट की कॉपी मंत्रालय भेजने को कहा, जिसका मंत्रालय के अघाये हुए अधिकारियों-बाबुओं ने कोई जवाब नहीं दिया। एक केन्द्रीय विवि और विश्व के सर्वोच्च खिलाड़ी के इस अपमान के मामले की शिकायत जब राष्ट्रपति प्रतिभादेवी सिंह पाटिल को की गई तब कहीं जाकर कपिल सिब्बल साहब ने खुद विश्वनाथन आनन्द को फ़ोन करके उनसे माफ़ी माँगी और उन्हें हुई "असुविधा"(?) के लिए खेद व्यक्त किया। आनन्द तो वैसे ही भोले-भण्डारी हैं, उन्होंने भी तड़ से माफ़ी देते हुए सारे मामले का पटाक्षेप कर दिया। (जबकि हकीकत में विश्वनाथन आनन्द संसद में बैठे 700 से अधिक सांसदों से कहीं अधिक भारतीय हैं, एक "परिवार विशेष" से अधिक भारतीय हैं जिसके एक मुख्य सदस्य ने विवाह के कई साल बाद तक अपना इटली का पासपोर्ट नहीं लौटाया था, और किसी नौकरशाह ने उनकी नागरिकता पर सवाल नहीं उठाया…)
पूरे मामले को गौर से और गहराई से देखें तो साफ़ नज़र आता है कि -
1) नौकरशाही ने यह बेवकूफ़ाना कदम या तो "चरण वन्दना" के लिये किसी खास व्यक्ति को खुश करने अथवा किसी के इशारे पर उठाया होगा…
2) नौकरशाही में इतनी अक्ल, समझ और राष्ट्रबोध ही नहीं है कि किस व्यक्ति के साथ कैसे पेश आना चाहिये…
3) नौकरशाही में "व्यक्ति विशेष" देखकर झुकने या लेटने की इतनी गन्दी आदत पड़ चुकी है कि देश के "सम्मानित नागरिक" क्या होते हैं यह वे भूल ही चुके हैं…
4) इस देश में 2 करोड़ से अधिक बांग्लादेशी (सरकारी आँकड़ा) अवैध रुप से रह रहे हैं, इस नौकरशाही की हिम्मत नहीं है कि उन्हें हाथ भी लगा ले, क्योंकि वह एक "समुदाय विशेष का वोट बैंक" है…। बांग्लादेश से आये हुए "सेकुलर छोटे भाईयों" को राशन कार्ड, ड्रायविंग लायसेंस और अब तो UID भी मिल जायेगा, लेकिन आनन्द से उनका पासपोर्ट भी माँगा जायेगा…
5) इस देश के कानून का सामना करने की बजाय भगोड़ा बन चुका और कतर की नागरिकता ले चुका एक चित्रकार(?) यदि आज भारत की नागरिकता चाहे तो कई सेकुलर उसके सामने "लेटने" को तैयार है… लेकिन चूंकि विश्वनाथन आनन्द एक तमिल ब्राह्मण हैं, जिस कौम से करुणानिधि धुर नफ़रत करते हैं, इसलिये उनका अपमान किया ही जायेगा। (पाकिस्तानी नोबल पुरस्कार विजेता अब्दुस सलाम का भी अपमान और असम्मान सिर्फ़ इसलिये किया गया था कि वे "अहमदिया" हैं…)
6) दाऊद इब्राहीम भी कई साल से भारत के बाहर रहा है और अबू सलेम भी रहा था, लेकिन सरकार इस बात का पूरा खयाल रखेगी कि जब वे भारत आयें तो उन्हें उचित सम्मान मिले, 5 स्टार होटल की सुविधा वाली जेल मिले और सजा तो कतई न होने पाये… इसका कारण सभी जानते हैं…
7) विश्वनाथन आनन्द की एक गलती यह भी है कि, मोहम्मद अज़हरुद्दीन "सट्टेबाज" की तरह उन्होंने यह नहीं कहा कि "मैं एक अल्पसंख्यक ब्राह्मण हूं इसलिये जानबूझकर मेरा अपमान किया जा रहा है…, न ही वे मीडिया के सामने आकर ज़ार-ज़ार रोये…" वरना उन्हें नागरिकता तो क्या, मुरादाबाद से सांसद भी बनवा दिया जाता…
8) विश्वनाथन आनन्द की एक और गलती यह भी है कि उनमें "मदर टेरेसा" और "ग्राहम स्टेंस" जैसी सेवा भावना भी नहीं है, क्योंकि उनकी नागरिकता पर भी आज तक कभी कोई सवाल नहीं उठा…
असल में भारत के लोगों को और नौकरशाही से लेकर सरकार तक को, "असली हीरे" की पहचान ही नहीं है, जो व्यक्ति स्पेन में रहकर भी भारत का नाम ऊँचा हो इसलिये "भारतीय" के रुप में शतरंज खेलता है, उसके साथ तो ऐसा दुर्व्यवहार करते हैं, लेकिन भारत और उसकी संस्कृति को गरियाने वाले वीएस नायपॉल को नागरिकता और सम्मान देने के लिये उनके सामने बिछे जाते हैं। ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है, कि जहाँ विदेश में किसी भारतीय मूल के व्यक्ति ने अपनी प्रतिभा और मेहनत के बल पर कुछ मुकाम हासिल किया कि मूर्खों की तरह हें हें हें हें हें हें करते हुए उसके दरवाजे पर पहुँच जायेंगे कि "ये तो भारतीय है, ये तो भारतीय है, इनके वंशज तो भारत से आये थे…", सुनीता विलियम्स हों या बॉबी जिन्दल, उनका भारत से कोई लगाव नहीं है, लेकिन हमारे नेता और अधिकारी हैं कि उनके चरणों में लोट लगायेंगे… सानिया मिर्ज़ा शादी रचाकर पाकिस्तान चली गईं, लेकिन इधर के अधिकारी और नेता उसे कॉमनवेल्थ खेलों में "भारतीय खिलाड़ी" के रुप में शामिल करना चाहते हैं… यह सिर्फ़ चमचागिरी नहीं है, भुलाये जा चुके आत्मसम्मान की शोकांतिका है…।
स्पेन सरकार ने, विश्वनाथन आनन्द के लिये स्पेन की नागरिकता ग्रहण करने का ऑफ़र हमेशा खुला रखा हुआ है। एक और प्रसिद्ध शतरंज खिलाड़ी तथा आनन्द के मित्र प्रवीण ठिप्से ने बताया कि स्पेन ने विश्वनाथन आनन्द को "स्पेनिश" खिलाड़ी के रुप में विश्व शतरंज चैम्पियनशिप में खेलने के लिये "5 लाख डॉलर" का प्रस्ताव दिया था, जिसे आनन्द ने विनम्रता से ठुकरा दिया था कि "मैं भारत के लिये और भारतीय के नाम से ही खेलूंगा…" उस चैम्पियनशिप को जीतने पर विश्वनाथन आनन्द को भारत सरकार ने सिर्फ़ "5 लाख रुपये" दिये थे… जबकि दो कौड़ी के बॉलर ईशान्त शर्मा को IPL में सिर्फ़ 6 मैच खेलने पर ही 6 करोड़ रुपये मिल गये थे…
बहरहाल, आनन्द के अपमान के काफ़ी सारे "सम्भावित कारण" मैं गिना चुका हूं… अब अन्त में विश्वनाथन आनन्द के अपमान और उनके साथ हुए इस व्यवहार का एक सबसे मजबूत कारण देता हूं… नीचे चित्र देखिए और खुद ही समझ जाईये…। यदि आनन्द ने सोहराबुद्दीन, शहाबुद्दीन, पप्पू यादव, कलमाडी या पवार के साथ शतरंज खेली होती तो उनका ऐसा अपमान नहीं होता… लेकिन एक "राजनैतिक अछूत" व्यक्ति के साथ शतरंज खेलने की हिम्मत कैसे हुई आनन्द की?
भारत की "चरणचूम चापलूस-रीढ़विहीन" नौकरशाही आप सभी को मुबारक हो… जय हो।
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ब्लॉग
गुरुवार, 26 अगस्त 2010 12:38
क्या वोटिंग मशीन धोखाधड़ी के उजागर होने से कांग्रेस सरकार भयभीत है?… EVM Hacking, Hari Prasad Arrested, Vulnerable Voting Machines
हैदराबाद के निवासी श्री हरिप्रसाद, जिन्होंने भारतीय इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में हैकिंग कैसे की जा सकती है और वोटिंग मशीनें सुरक्षित नहीं हैं इस बारे में विस्तृत अध्ययन किया है और उसका प्रदर्शन भी किया है… को मुम्बई पुलिस ने उनके हैदराबाद स्थित निवास से गिरफ़्तार कर लिया है। पुलिस ने उन पर आरोप लगाया है कि उन्होंने EVM की चोरी की है और चोरी की EVM से ही वे एक तेलुगू चैनल पर अपना प्रदर्शन कर रहे थे।
उल्लेखनीय है कि श्री हरिप्रसाद VETA (Citizens for Verifiability, Transparency and Accountability in Elections), के तकनीकी सलाहकार और शोधकर्ता हैं। हरिप्रसाद ने कई सार्वजनिक कार्यक्रमों और यू-ट्यूब पर बाकायदा इस बात का खुलासा किया है कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों को किसी एक खास पार्टी के पक्ष में "हैक" और "क्रैक" किया जा सकता है। हरिप्रसाद के साथ तकनीकी टीम में अमेरिकी विश्वविद्यालय के दो प्रोफ़ेसर और "एथिकल हैकर" शामिल हैं तथा इस बारे में चुनाव विशेषज्ञ (Safologist) श्री राव ने एक पूरी पुस्तक लिखी है (यहाँ देखें…)। इन खुलासों के बाद लगता है कि कांग्रेस सरकार जो कि युवराज की ताजपोशी की तैयारियों में लगी है, घबरा गई है… और उसने समस्या का सही और उचित निराकरण करने की बजाय एक निरीह तकनीकी व्यक्ति को डराने के लिये उसे चोरी के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया है।
मामले की शुरुआत तब हुई, जब तेलुगू चैनल पर एक कार्यक्रम के दौरान जब एक दर्शक ने उनके द्वारा प्रयोग करके दिखाई जा रही मशीन की वैधता पर सवाल किया तब उन्होंने उस मशीन का सीरियल नम्बर बता दिया। अब तक पिछले कुछ चुनावों में देश भर में लगभग 100 वोटिंग मशीनें चोरी हो चुकी हैं, लेकिन चुनाव आयोग ने कभी इतनी फ़ुर्ती से काम नहीं किया जितना हरिप्रसाद के मामले में किया। चुनाव आयोग ने तत्काल मुम्बई सम्पर्क करके उस सीरियल नम्बर की मशीन के बारे में पूछताछ की और पाया कि यह मशीन चोरी गई मशीनों में से एक है, तत्काल आंध्रप्रदेश पुलिस के सहयोग से मुम्बई पुलिस ने हरिप्रसाद को EVM चोरी के आरोप में उनके घर से उठा लिया। चुनाव आयोग सन् 2008 से ही हरिप्रसाद से खुन्नस खाये बैठा है, जब उन्होंने EVM के फ़ुलप्रूफ़ न होने तथा उसमे छेड़छाड़ और धोखाधड़ी की बातें सार्वजनिक रुप से प्रयोग करके दिखाना शुरु किया।
1) चुनाव आयोग ने पहले तो लगातार इस बात से इंकार किया कि ऐसा कुछ हो भी सकता है
2) फ़िर जब हरिप्रसाद की मुहिम आगे बढ़ी तो आयोग ने कहा कि हरिप्रसाद जो हैकिंग के करतब दिखा रहे हैं वह मशीनें विदेशी हैं
3) हरिप्रसाद ने चुनाव आयोग को चैलेंज किया कि उन्हें भारत की वोटिंग मशीनें उपलब्ध करवाई जायें तो वे उसमें भी गड़बड़ी करके दिखा सकते हैं
4) चुनाव आयोग ने भारतीय ब्यूरोक्रेसी का अनुपम उदाहरण देते हुए उनसे कहा कि वोटिंग मशीनें उन्हें नहीं दी जा सकती, क्योंकि वह गोपनीयता का उल्लंघन है, और (बिना किसी विशेषज्ञ समिति के) घोषणा की, कि चुनाव आयोग को भरोसा है कि भारतीय वोटिंग मशीनें पूरी तरह सुरक्षित हैं
5) और आज जब हरिप्रसाद ने किसी बेनामी सूत्रों के हवाले से एक भारतीय वोटिंग मशीन प्राप्त करके उसका भी सफ़लतापूर्वक हैकिंग कर दिखाया है तो चुनाव आयोग ने उन्हें मशीन चोरी के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया है (ये तो वही बात हुई कि भ्रष्टाचार उजागर करने वाले किसी स्टिंग ऑपरेशन के लिये, उस पत्रकार को ही जेल में ठूंस दिया जाये, जिसने उसे उजागर किया)।
हरिप्रसाद की गिरफ़्तारी चुनाव आयोग के उपायुक्त अशोक शुक्ला और EVM की गड़बड़ी जाँचने के लिये बनी समिति के चेयरमैन पीवी इन्द्रसेन के आश्वासन के बावजूद हुई। यह दोनों सज्जन वॉशिंगटन में आयोजित EVM टेक्नोलॉजी और इसकी विश्वसनीयता पर आधारित सेमिनार में 9 अगस्त को उपस्थित थे, जहाँ श्री हरिप्रसाद के साथ प्रोफ़ेसर एलेक्स हाल्डरमैन भी थे और उस सेमिनार में वोटिंग मशीनों की हैकिंग के प्रदर्शन के बाद इन्होंने कहा था कि वे इस बात की जाँच करवायेंगे कि इन मशीनों में क्या गड़बड़ी है, लेकिन इस आश्वासन के बावजूद हरिप्रसाद को गिरफ़्तार कर लिया गया। इस सेमिनार में हारवर्ड, प्रिंसटन, स्टेनफ़ोर्ड विश्वविद्यालयों के तकनीकी विशेषज्ञों के साथ ही माइक्रोसॉफ़्ट के अधिकारी भी मौजूद थे, और लगभग सभी इस बात पर सहमत थे कि इन मशीनों में गड़बड़ी और धोखाधड़ी की जा सकती है। (यहाँ देखें…) और (यहाँ भी देखें…)
(चित्र में हरिप्रसाद, एलेक्स हाल्डरमैन और रॉप गोन्ग्रिप…) (चित्र सौजन्य - गूगल)
हैदराबाद से मुम्बई ले जाये जाते समय श्री हरिप्रसाद ने अपने मोबाइल से जो संदेश दिया वह यह है -
श्री हरिप्रसाद की गिरफ़्तारी के समय का वीडियो…
एक अन्य ट्वीट में उन्होंने कहा है कि - "मैं यह अपने मोबाइल से लिख रहा हूं, पुलिस ने मुझे गिरफ़्तार किया है और पुलिस पर भारी ऊपरी दबाव है। हालांकि नये मुख्य चुनाव आयुक्त ने इस पूरे मामले को देखने का आश्वासन दिया है, लेकिन फ़िर भी मैं उस व्यक्ति का नाम ज़ाहिर नहीं कर सकता जिसने पूरे विश्वास से मुझे EVM मशीन सौंपी थी। मुझे अपने काम से पूरी सन्तुष्टि है और विश्वास है कि यह देशहित में है, मैं अपने देश से प्यार करता हूं और लोकतन्त्र को मजबूत करने के लिये जो भी किया जा सकता है, वह किया जाना चाहिये…"
डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी ने खुलेआम सोनिया गाँधी पर आरोप लगाया है कि उन्होंने 2009 के आम चुनाव में विदेशी हैकर्स को भारी पैसा देकर अनुबन्धित किया, जो दिल्ली के पाँच सितारा होटलों में बड़े-बड़े तकनीकी उपकरणों के साथ ठहरे थे, और इसकी गहन जाँच होनी चाहिये…। उल्लेखनीय है कि जब पुलिस ने हरिप्रसाद को गिरफ़्तार किया उस समय न तो उन्हें आरोप बताये गये और न ही कोई केस दर्ज किया गया। श्री हरिप्रसाद की गिरफ़्तारी 21 अगस्त को हुई थी और मैंने किसी बड़े मीडिया समूह या चैनलों पर इस खबर को प्रमुखता से नहीं देखा, आपने देखा हो तो बतायें। आखिर मीडिया सरकार से इतना क्यों डरता है? यह डर है या कुछ और? तथा ऐसे में एक आम आदमी जो कुशासन, भ्रष्टाचार और अव्यवस्था से लड़ने की कोशिश कर रहा हो, क्या उसकी हिम्मत नहीं टूटेगी? यह बात जरूर है कि हरिप्रसाद ने जिस अज्ञात व्यक्ति से सरकारी वोटिंग मशीन प्राप्त की है, वह एक अपराध की श्रेणी में आता है, क्योंकि वह निश्चित रुप से गोपनीयता कानून का उल्लंघन है, लेकिन चूंकि हरिप्रसाद की मंशा सच्ची है और वह लोकतन्त्र की मजबूती के पक्ष में है तो इसे माफ़ किया जा सकता है। एक बड़ा घोटाला उजागर करने के लिये यदि हरिप्रसाद ने छोटा-मोटा गुनाह किया भी है तो उसे नज़रअंदाज़ करके असली समस्या की तरफ़ देखना चाहिये, लेकिन सरकार "बाल की खाल" और खुन्नस निकालने की तर्ज़ पर काम कर रही है, और इससे शक और मजबूत हो जाता है। नीचे जो चित्र है, उसमें देखिये EVM एक सरकारी जीप में कैसे बिना किसी सुरक्षाकर्मी के रखी हुई हैं और इसे आसानी से कोई भी चुरा सकता है… लेकिन सरकार हरिप्रसाद जी के पीछे पड़ गई है…
जब चुनाव आयोग कह रहा है कि वह कुछ भी छिपाना नहीं चाहता, तब सरकार को हरिप्रसाद, हैकर्स और अन्य सॉफ़्टवेयर तकनीकी लोगों को एक साथ बैठाकर संशय के बादल दूर करना चाहिये, या किसी बेगुनाह शोधकर्ता को इस प्रकार परेशान करना चाहिये? आखिर चुनाव आयोग ऐसा बर्ताव क्यों कर रहा है? इन मशीनों को हरिप्रसाद ने सफ़लतापूर्वक चन्द्रबाबू नायडू, लालकृष्ण आडवाणी, ममता बनर्जी आदि नेताओं के सामने भी हैक करके दिखाया है, फ़िर भी विपक्ष की चुप्पी संदेह पैदा करने वाली है, कहीं विपक्षी नेता "कभी तो अपनी भी जुगाड़ लगेगी…" के चक्कर में चुप्पी साधे हुए हैं, यह भी हो सकता है कि उनकी भी ऐसी "जुगाड़" कुछ राज्यों के चुनाव में पहले से लग चुकी है? लेकिन लोकतन्त्र पर मंडराते खतरे का क्या? आम जनता जो वोटिंग के माध्यम से अपनी भावना व्यक्त करती है उसका क्या? पिछले 1 साल से जो तटस्थ गैर-राजनैतिक लोग वोटिंग मशीनों में हेराफ़ेरी और धोखाधड़ी की बात को सिरे से खारिज करते आ रहे थे, अब वे भी सोच में पड़ गये हैं।
सन्दर्भ -
http://www.thestatesman.net/index.php?id=338823&option=com_content&catid=35
Indian EVMs, EVMs are vulnerable, Indian EVM Hacking, Hariprasad and EVM, Hari Prasad Arrested EVM Hack, Indian Democracy and EVM, Indian Parliament and EVM, EVM Voting Fraud, भारतीय EVM वोटिंग मशीनें, वोटिंग मशीनों में हेराफ़ेरी और धोखाधड़ी, भारतीय लोकतन्त्र और EVM, भारतीय संसद और वोटिंग मशीनें, हरिप्रसाद और EVM हैकिंग, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
उल्लेखनीय है कि श्री हरिप्रसाद VETA (Citizens for Verifiability, Transparency and Accountability in Elections), के तकनीकी सलाहकार और शोधकर्ता हैं। हरिप्रसाद ने कई सार्वजनिक कार्यक्रमों और यू-ट्यूब पर बाकायदा इस बात का खुलासा किया है कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों को किसी एक खास पार्टी के पक्ष में "हैक" और "क्रैक" किया जा सकता है। हरिप्रसाद के साथ तकनीकी टीम में अमेरिकी विश्वविद्यालय के दो प्रोफ़ेसर और "एथिकल हैकर" शामिल हैं तथा इस बारे में चुनाव विशेषज्ञ (Safologist) श्री राव ने एक पूरी पुस्तक लिखी है (यहाँ देखें…)। इन खुलासों के बाद लगता है कि कांग्रेस सरकार जो कि युवराज की ताजपोशी की तैयारियों में लगी है, घबरा गई है… और उसने समस्या का सही और उचित निराकरण करने की बजाय एक निरीह तकनीकी व्यक्ति को डराने के लिये उसे चोरी के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया है।
मामले की शुरुआत तब हुई, जब तेलुगू चैनल पर एक कार्यक्रम के दौरान जब एक दर्शक ने उनके द्वारा प्रयोग करके दिखाई जा रही मशीन की वैधता पर सवाल किया तब उन्होंने उस मशीन का सीरियल नम्बर बता दिया। अब तक पिछले कुछ चुनावों में देश भर में लगभग 100 वोटिंग मशीनें चोरी हो चुकी हैं, लेकिन चुनाव आयोग ने कभी इतनी फ़ुर्ती से काम नहीं किया जितना हरिप्रसाद के मामले में किया। चुनाव आयोग ने तत्काल मुम्बई सम्पर्क करके उस सीरियल नम्बर की मशीन के बारे में पूछताछ की और पाया कि यह मशीन चोरी गई मशीनों में से एक है, तत्काल आंध्रप्रदेश पुलिस के सहयोग से मुम्बई पुलिस ने हरिप्रसाद को EVM चोरी के आरोप में उनके घर से उठा लिया। चुनाव आयोग सन् 2008 से ही हरिप्रसाद से खुन्नस खाये बैठा है, जब उन्होंने EVM के फ़ुलप्रूफ़ न होने तथा उसमे छेड़छाड़ और धोखाधड़ी की बातें सार्वजनिक रुप से प्रयोग करके दिखाना शुरु किया।
1) चुनाव आयोग ने पहले तो लगातार इस बात से इंकार किया कि ऐसा कुछ हो भी सकता है
2) फ़िर जब हरिप्रसाद की मुहिम आगे बढ़ी तो आयोग ने कहा कि हरिप्रसाद जो हैकिंग के करतब दिखा रहे हैं वह मशीनें विदेशी हैं
3) हरिप्रसाद ने चुनाव आयोग को चैलेंज किया कि उन्हें भारत की वोटिंग मशीनें उपलब्ध करवाई जायें तो वे उसमें भी गड़बड़ी करके दिखा सकते हैं
4) चुनाव आयोग ने भारतीय ब्यूरोक्रेसी का अनुपम उदाहरण देते हुए उनसे कहा कि वोटिंग मशीनें उन्हें नहीं दी जा सकती, क्योंकि वह गोपनीयता का उल्लंघन है, और (बिना किसी विशेषज्ञ समिति के) घोषणा की, कि चुनाव आयोग को भरोसा है कि भारतीय वोटिंग मशीनें पूरी तरह सुरक्षित हैं
5) और आज जब हरिप्रसाद ने किसी बेनामी सूत्रों के हवाले से एक भारतीय वोटिंग मशीन प्राप्त करके उसका भी सफ़लतापूर्वक हैकिंग कर दिखाया है तो चुनाव आयोग ने उन्हें मशीन चोरी के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया है (ये तो वही बात हुई कि भ्रष्टाचार उजागर करने वाले किसी स्टिंग ऑपरेशन के लिये, उस पत्रकार को ही जेल में ठूंस दिया जाये, जिसने उसे उजागर किया)।
हरिप्रसाद की गिरफ़्तारी चुनाव आयोग के उपायुक्त अशोक शुक्ला और EVM की गड़बड़ी जाँचने के लिये बनी समिति के चेयरमैन पीवी इन्द्रसेन के आश्वासन के बावजूद हुई। यह दोनों सज्जन वॉशिंगटन में आयोजित EVM टेक्नोलॉजी और इसकी विश्वसनीयता पर आधारित सेमिनार में 9 अगस्त को उपस्थित थे, जहाँ श्री हरिप्रसाद के साथ प्रोफ़ेसर एलेक्स हाल्डरमैन भी थे और उस सेमिनार में वोटिंग मशीनों की हैकिंग के प्रदर्शन के बाद इन्होंने कहा था कि वे इस बात की जाँच करवायेंगे कि इन मशीनों में क्या गड़बड़ी है, लेकिन इस आश्वासन के बावजूद हरिप्रसाद को गिरफ़्तार कर लिया गया। इस सेमिनार में हारवर्ड, प्रिंसटन, स्टेनफ़ोर्ड विश्वविद्यालयों के तकनीकी विशेषज्ञों के साथ ही माइक्रोसॉफ़्ट के अधिकारी भी मौजूद थे, और लगभग सभी इस बात पर सहमत थे कि इन मशीनों में गड़बड़ी और धोखाधड़ी की जा सकती है। (यहाँ देखें…) और (यहाँ भी देखें…)
(चित्र में हरिप्रसाद, एलेक्स हाल्डरमैन और रॉप गोन्ग्रिप…) (चित्र सौजन्य - गूगल)
हैदराबाद से मुम्बई ले जाये जाते समय श्री हरिप्रसाद ने अपने मोबाइल से जो संदेश दिया वह यह है -
श्री हरिप्रसाद की गिरफ़्तारी के समय का वीडियो…
एक अन्य ट्वीट में उन्होंने कहा है कि - "मैं यह अपने मोबाइल से लिख रहा हूं, पुलिस ने मुझे गिरफ़्तार किया है और पुलिस पर भारी ऊपरी दबाव है। हालांकि नये मुख्य चुनाव आयुक्त ने इस पूरे मामले को देखने का आश्वासन दिया है, लेकिन फ़िर भी मैं उस व्यक्ति का नाम ज़ाहिर नहीं कर सकता जिसने पूरे विश्वास से मुझे EVM मशीन सौंपी थी। मुझे अपने काम से पूरी सन्तुष्टि है और विश्वास है कि यह देशहित में है, मैं अपने देश से प्यार करता हूं और लोकतन्त्र को मजबूत करने के लिये जो भी किया जा सकता है, वह किया जाना चाहिये…"
डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी ने खुलेआम सोनिया गाँधी पर आरोप लगाया है कि उन्होंने 2009 के आम चुनाव में विदेशी हैकर्स को भारी पैसा देकर अनुबन्धित किया, जो दिल्ली के पाँच सितारा होटलों में बड़े-बड़े तकनीकी उपकरणों के साथ ठहरे थे, और इसकी गहन जाँच होनी चाहिये…। उल्लेखनीय है कि जब पुलिस ने हरिप्रसाद को गिरफ़्तार किया उस समय न तो उन्हें आरोप बताये गये और न ही कोई केस दर्ज किया गया। श्री हरिप्रसाद की गिरफ़्तारी 21 अगस्त को हुई थी और मैंने किसी बड़े मीडिया समूह या चैनलों पर इस खबर को प्रमुखता से नहीं देखा, आपने देखा हो तो बतायें। आखिर मीडिया सरकार से इतना क्यों डरता है? यह डर है या कुछ और? तथा ऐसे में एक आम आदमी जो कुशासन, भ्रष्टाचार और अव्यवस्था से लड़ने की कोशिश कर रहा हो, क्या उसकी हिम्मत नहीं टूटेगी? यह बात जरूर है कि हरिप्रसाद ने जिस अज्ञात व्यक्ति से सरकारी वोटिंग मशीन प्राप्त की है, वह एक अपराध की श्रेणी में आता है, क्योंकि वह निश्चित रुप से गोपनीयता कानून का उल्लंघन है, लेकिन चूंकि हरिप्रसाद की मंशा सच्ची है और वह लोकतन्त्र की मजबूती के पक्ष में है तो इसे माफ़ किया जा सकता है। एक बड़ा घोटाला उजागर करने के लिये यदि हरिप्रसाद ने छोटा-मोटा गुनाह किया भी है तो उसे नज़रअंदाज़ करके असली समस्या की तरफ़ देखना चाहिये, लेकिन सरकार "बाल की खाल" और खुन्नस निकालने की तर्ज़ पर काम कर रही है, और इससे शक और मजबूत हो जाता है। नीचे जो चित्र है, उसमें देखिये EVM एक सरकारी जीप में कैसे बिना किसी सुरक्षाकर्मी के रखी हुई हैं और इसे आसानी से कोई भी चुरा सकता है… लेकिन सरकार हरिप्रसाद जी के पीछे पड़ गई है…
जब चुनाव आयोग कह रहा है कि वह कुछ भी छिपाना नहीं चाहता, तब सरकार को हरिप्रसाद, हैकर्स और अन्य सॉफ़्टवेयर तकनीकी लोगों को एक साथ बैठाकर संशय के बादल दूर करना चाहिये, या किसी बेगुनाह शोधकर्ता को इस प्रकार परेशान करना चाहिये? आखिर चुनाव आयोग ऐसा बर्ताव क्यों कर रहा है? इन मशीनों को हरिप्रसाद ने सफ़लतापूर्वक चन्द्रबाबू नायडू, लालकृष्ण आडवाणी, ममता बनर्जी आदि नेताओं के सामने भी हैक करके दिखाया है, फ़िर भी विपक्ष की चुप्पी संदेह पैदा करने वाली है, कहीं विपक्षी नेता "कभी तो अपनी भी जुगाड़ लगेगी…" के चक्कर में चुप्पी साधे हुए हैं, यह भी हो सकता है कि उनकी भी ऐसी "जुगाड़" कुछ राज्यों के चुनाव में पहले से लग चुकी है? लेकिन लोकतन्त्र पर मंडराते खतरे का क्या? आम जनता जो वोटिंग के माध्यम से अपनी भावना व्यक्त करती है उसका क्या? पिछले 1 साल से जो तटस्थ गैर-राजनैतिक लोग वोटिंग मशीनों में हेराफ़ेरी और धोखाधड़ी की बात को सिरे से खारिज करते आ रहे थे, अब वे भी सोच में पड़ गये हैं।
सन्दर्भ -
http://www.thestatesman.net/index.php?id=338823&option=com_content&catid=35
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ब्लॉग
सोमवार, 23 अगस्त 2010 13:02
वामपंथी सेकुलरिज़्म का पाखण्ड और मीडिया का पक्षपाती रवैया फ़िर उजागर (सन्दर्भ : अब्दुल नासिर मदनी की गिरफ़्तारी)… Madni Arrest Issue, Communist Secularism and Media Bias
कुछ दिनों पहले देश की जनता ने मीडियाई जोकरों और सेकुलरों की जमात को गुजरात के गृहमंत्री अमित शाह की गिरफ़्तारी के मामले में "रुदालियाँ" गाते सुना है। एक घोषित खूंखार अपराधी को मार गिराने के मामले में, अमित शाह की गिरफ़्तारी और उसे नरेन्द्र मोदी से जोड़ने के लिये मीडियाई कौए लगातार 4-5 दिनों तक चैनलों पर जमकर कांव-कांव मचाये रहे, अन्ततः अमित शाह की गिरफ़्तारी हुई और "सेकुलरिज़्म" ने चैन की साँस ली…
जो लोग लगातार देश के घटियातम समाचार चैनल देखते रहते हैं, उनसे एक मामूली सवाल है कि केरल में अब्दुल नासिर मदनी की गिरफ़्तारी से सम्बन्धित "वामपंथी सेकुलर नौटंकी" कितने लोगों ने, कितने चैनलों पर, कितने अखबारों में देखी-सुनी या पढ़ी है? कितनी बार पढ़ी है और इस महत्वपूर्ण "सेकुलर" खबर (बल्कि सेकुलर शर्म कहना ज्यादा उचित है) को कितने चैनलों या अखबारों ने अपनी हेडलाइन बनाया है? इस सवाल के जवाब में ही हमारे 6M (मार्क्स, मुल्ला, मिशनरी, मैकाले, माइनो और मार्केट) के हाथों बिके हुए मीडिया की हिन्दू-विरोधी फ़ितरत खुलकर सामने आ जायेगी। जहाँ एक तरफ़ अमित शाह की गिरफ़्तारी को मीडिया ने "राष्ट्रीय मुद्दा" बना दिया था और ऐसा माहौल बना दिया था कि यदि अमित शाह की गिरफ़्तारी नहीं हुई तो कोई साम्प्रदायिक सुनामी आयेगी और सभी सेकुलरों को बहा ले जायेगी, वहीं दूसरी तरफ़ केरल में बम विस्फ़ोट का एक आरोपी खुलेआम कानून-व्यवस्था को चुनौती देता रहा, केरल के वामपंथी गृहमंत्री ने उसे बचाने के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगा डाला, आने वाले चुनावों मे हार से भयभीत वामपंथ ने मुस्लिमों को खुश करने के लिये केरल पुलिस का मनोबल तोड़ा… पूरे आठ दिन तक कर्नाटक पुलिस मदनी को गिरफ़्तार करने के लिये केरल में डेरा डाले रही तब कहीं जाकर उसे गिरफ़्तार कर सकी… लेकिन किसी हिन्दी न्यूज़ चैनल ने इस शर्मनाक घटना को अपनी तथाकथित "ब्रेकिंग न्यूज़" नहीं बनाया और ब्रेकिंग या मेकिंग तो छोड़िये, इस पूरे घटनाक्रम को ही ब्लैक-आउट कर दिया गया। यहाँ पर मुद्दा अमित शाह की बेगुनाही या अमित शाह से मदनी की तुलना करना नहीं है, क्योंकि अमित शाह और मदनी की कोई तुलना हो भी नहीं सकती… यहाँ पर मुद्दा है कि हिन्दुत्व विरोध के लिये मीडिया को कितने में और किसने खरीदा है? तथा वामपंथी स्टाइल का सेकुलरिज़्म मुस्लिम वोटों को खुश करने के लिये कितना नीचे गिरेगा?
मुझे विश्वास है कि अभी भी कई पाठकों को इस "सुपर-सेकुलर" घटना के बारे में पूरी जानकारी नहीं होगी… उनके लिये संक्षिप्त में निम्न बिन्दु जान लेना बेहद आवश्यक है ताकि वे भी जान सकें कि ढोंग से भरा वामपंथ, घातक सेकुलरिज़्म और बिकाऊ मीडिया मिलकर उन्हें किस खतरनाक स्थिति में ले जा रहे हैं…
1) कोयम्बटूर बम धमाके का मुख्य आरोपी अब्दुल नासिर मदनी फ़िलहाल केरल की PDP पार्टी का प्रमुख नेता है।
2) कर्नाटक हाईकोर्ट ने दाखिल सबूतों के आधार पर मदनी को बंगलौर बम विस्फ़ोटों के मामले में गैर-ज़मानती वारण्ट जारी कर दिया, जिसमें गिरफ़्तारी होना तय था।
3) मदनी ने इसके खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई हुई है, लेकिन कर्नाटक पुलिस को मदनी को गिरफ़्तार करके उससे पूछताछ करनी थी।
4) कर्नाटक पुलिस केरल सरकार को सूचित करके केरल पुलिस को साथ लेकर मदनी को गिरफ़्तार करने गई, लेकिन केरल की वामपंथी सरकार अपने वादे से मुकर गई और कर्नाटक सरकार के पुलिस वाले वहाँ हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे, क्योंकि केरल पुलिस ने मदनी को गिरफ़्तार करने में कोई रुचि नहीं दिखाई, न ही कर्नाटक पुलिस से कोई सहयोग किया (ज़ाहिर है कि वामपंथी सरकार के उच्च स्तरीय मंत्री का पुलिस पर दबाव था)।
5) इस बीच अब्दुल नासेर मदनी अनवारसेरी के एक अनाथालय में आराम से छिपा बैठा रहा, लेकिन केरल पुलिस की हिम्मत नहीं हुई कि वह अनाथाश्रम में घुसकर मदनी को गिरफ़्तार करे, क्योंकि मदनी आराम से अनाथाश्रम के अन्दर से ही प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके राज्य सरकार को सरेआम धमकी दे रहा था कि "यदि उसे हाथ लगाया गया, तो साम्प्रदायिक दंगे भड़कने का खतरा है…"। 2-3 दिन इसी ऊहापोह में गुज़र गये, पहले दिन जहाँ मदनी के सिर्फ़ 50 कार्यकर्ता अनाथाश्रम के बाहर थे और पुलिस वाले 200 थे, वक्त बीतने के साथ भीड़ बढ़ती गई और केरल पुलिस जिसके हाथ-पाँव पहले ही फ़ूले हुए थे, अब और घबरा गई। इस स्थिति का भरपूर राजनैतिक फ़ायदा लेने की वामपंथी सरकार की कोशिश उस समय बेनकाब हो गई जब कर्नाटक के गृह मंत्री और गिरफ़्तार करने आये पुलिस अधीक्षक ने केरल के DGP और IG से मिलकर मदनी को गिरफ़्तार करने में सहयोग देने की अपील की और उन्हें कोर्ट के आदेश के बारे में बताया।
6) इतना होने के बाद भी केरल पुलिस ने अनाथाश्रम के दरवाजे पर सिर्फ़ एक नोटिस लगाकर कि "अब्दुल नासिर मदनी को पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर देना चाहिये, क्योंकि केरल पुलिस के पास ऐसी सूचना है कि अनाथाश्रम के भीतर भारी मात्रा में हथियार भी जमा हैं…" अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। अब्दुल नासिर मदनी लगातार कहता रहा कि सुप्रीम कोर्ट से निर्णय आने के बाद ही वह आत्मसमर्पण करेगा (यानी जब वह चाहेगा, तब उसकी मर्जी से गिरफ़्तारी होगी…)। मदनी ने रविवार (15 अगस्त) को कहा कि वह बेगुनाह हैं और बम विस्फोट की घटना में उसकी कोई भूमिका नहीं है। मदनी ने कहा, 'मैं एक धार्मिक मुसलमान हूं और कुरान लेकर कहता हूं कि बम विस्फोट के मामले में सीधे या परोक्ष किसी भी तरह की भूमिका नहीं है। यदि कर्नाटक पुलिस चाहती है कि वह मुझे गिरफ्तार किए बगैर वापस नहीं जाएगी तो वह ऐसा करने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन इसके बाद हालात अस्थिर हो जाएंगे।' (ऐसी ही धमकी पूरे भारत को कश्मीर की तरफ़ से भी दी जाती है कि अफ़ज़ल गुरु को फ़ाँसी दी तो ठीक नहीं होगा… और "तथाकथित महाशक्ति भारत" के नेता सिर्फ़ हें हें हें हें हें करते रहते हैं…)। खैर… केरल पुलिस (यानी सेकुलर सरकार द्वारा आदेशित पुलिस) ने भी सरेआम "गिड़गिड़ाते हुए" मदनी से कहा कि अदालत के आदेश को देखते हुए वह गिरफ़्तारी में "सहयोग"(?) प्रदान करे…।
7) अन्ततः केरल की वामपंथी सरकार ने दिल पर पत्थर रखकर आठ दिन की नौटंकी के बाद अब्दुल नासिर मदनी को कर्नाटक पुलिस के हवाले किया (वह भी उस दिन, जिस दिन मदनी ने चाहा…) और छाती पीट-पीटकर इस बात की पूरी व्यवस्था कर ली कि लोग समझें (यानी मुस्लिम वोटर समझें) कि अब्दुल नासिर मदनी एक बेगुनाह, बेकसूर, मासूम, संवेदनशील इंसान है, केरल पुलिस की मजबूरी(?) थी कि वह मदनी को कर्नाटक के हवाले करती… आदि-आदि।
चाहे पश्चिम बंगाल हो या केरल, वामपंथियों और सेकुलरों की ऐसी नग्न धर्मनिरपेक्षता (शर्मनिरपेक्षता) जब-तब सामने आती ही रहती है, इसके बावजूद कंधे पर झोला लटकाकर ऊँचे-ऊँचे आदर्शों की बात करना इन्हें बेहद रुचिकर लगता है। इस मामले में भी, केरल सरकार के उच्च स्तरीय राजनैतिक ड्रामे के बावजूद कानून-व्यवस्था का बलात्कार होते-होते बच गया…।
उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल का मुर्शिदाबाद जिला देश का सर्वाधिक घनी मुस्लिम आबादी वाला जिला है। यहाँ के जिला मजिस्ट्रेट (परवेज़ अहमद सिद्दीकी) के कार्यालय से चुनाव के मद्देनज़र मतदाता सूची का नवीनीकरण करने के लिये जो आदेश जारी हुए, उसमें सिर्फ़ पत्र के सब्जेक्ट में "मुर्शिदाबाद" लिखा गया, इसके बाद उस पत्र में कई जगह "मुस्लिमाबाद" लिखा गया है (सन्दर्भ - दैनिक स्टेट्समैन 29 जुलाई)। वह पत्र कम से कम चार-पाँच अन्य जूनियर अधिकारियों के हाथों हस्ताक्षर होता हुआ आगे बढ़ा, लेकिन किसी ने भी "मुर्शिदाबाद" की जगह "मुस्लिमाबाद" कैसे हुआ, क्यों हुआ… के बारे में पूछताछ करना तो दूर इस गलती(?) पर ध्यान तक देना उचित नहीं समझा।
जब कलेक्टर से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने बड़ी मासूमियत से कहा कि यह सिर्फ़ "स्पेलिंग मिस्टेक" है…। अब आप कितने ही बेढंगे और अनमने तरीके से "मुर्शिदाबाद" लिखिये, देखें कि वह "मुस्लिमाबाद" कैसे बनता है… चलिये हिन्दी न सही अंग्रेजी में ही Murshidabad को Muslimabad लिखकर देखिये कि क्या स्पेलिंग मिस्टेक से यह सम्भव है? आप कहेंगे कि यह तो बड़ी छोटी सी बात है, लेकिन थोड़ा गहराई से विचार करेंगे तो आप खुद मानेंगे कि यह कोई छोटी बात नहीं है। मुर्शिदाबाद में ही कुछ समय पहले एक धार्मिक संस्थान ने स्कूलों में बंगाल के नक्शे मुफ़्त बँटवाये थे, जिसमें मुर्शिदाबाद को स्वायत्त मुस्लिम इलाका प्रदर्शित किया गया था… तब भी प्रशासन ने कुछ नहीं किया था और अब भी प्रशासन चुप्पी साधे हुए है… बोलेगा कौन? वामपंथी शासन (और विचारधारा भी) पश्चिम बंगाल की 16 सीटों पर निर्णायक मतदाता बन चुके मुस्लिमों को खुश रखना चाहती है और ममता बनर्जी भी यही चाहती हैं… ठीक उसी तरह, जैसे केरल में मदनी से बाकायदा Request की गई थी कि "महोदय, जब आप चाहें, गिरफ़्तार हों जायें…"।
तात्पर्य यह है कि यदि आप किसी आतंकवादी (कसाब, अफ़ज़ल), किसी हिस्ट्रीशीटर (अब्दुल नासिर मदनी, सोहराबुद्दीन), किसी सताये हुए मुस्लिम (मकबूल फ़िदा हुसैन, इमरान हाशमी), बेगुनाह और मासूम मुस्लिम (रिज़वान, इशरत जहाँ) के पक्ष में आवाज़ उठायें तो आप सेकुलर, प्रगतिशील, मानवाधिकारवादी, संवेदनशील… और भी न जाने क्या-क्या कहलाएंगे, लेकिन जैसे ही आपने, बिना किसी ठोस सबूत के मकोका लगाकर जेल में रखी गईं साध्वी प्रज्ञा के पक्ष में कुछ कहा, कश्मीरी पण्डितों के बारे में सवाल किया, रजनीश (कश्मीर) और रिज़वान (पश्चिम बंगाल) की मौतों के बारे में तुलना की… तो आप तड़ से "साम्प्रदायिक" घोषित कर दिये जायेंगे…। 6M के हाथों बिका मीडिया, सेकुलरिस्ट, कांग्रेस-वामपंथी (यहाँ तक कि तूफ़ान को देखकर भी रेत में सिर गड़ाये बैठे शतुरमुर्ग टाइप के उच्च-मध्यमवर्गीय हिन्दू) सब मिलकर आपके पीछे पड़ जायेंगे…
बहरहाल, अब्दुल नासिर मदनी को कर्नाटक पुलिस गिरफ़्तार करके ले गई है, तो शायद दिग्विजयसिंह, सोनिया गाँधी को पत्र लिखकर इसके लिये चिदम्बरम और गडकरी को जिम्मेदार ठहरायेंगे, हो सकता है वे आजमगढ़ की तरह एकाध दौरा केरल का भी कर लें… शायद मनमोहन सिंह जी रातों को ठीक से सो न सकें…(जब भी किसी "मासूम" मुस्लिम पर अत्याचार होता है तब ऐसा होता है, चाहे वह भारत का मासूम हो या ऑस्ट्रेलिया का…), शायद केरल के वामपंथी, जो बेचारे बड़े गहरे अवसाद में हैं अब कानून बदलने की माँग कर डालें… सम्भव है कि ममता बनर्जी, मदनी के समर्थन में केरल में भी एकाध रैली निकाल लें… शायद शबाना आज़मी एकाध धरना आयोजित कर लें… शायद तीस्ता जावेद सीतलवाड इस "अत्याचार" के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट चली जायें (भले ही झूठ बोलने के लिये वहाँ से 2-3 बार लताड़ खा चुकी हों)… लगे हाथों महेश भट्ट भी "सेकुलर बयान की एक खट्टी डकार" ले लें… तो भाईयों-बहनों कुछ भी हो सकता है, आखिर एक "मासूम, अमनपसन्द, बेगुनाह, संवेदनशील… और भी न जाने क्या-क्या टाइप के मुस्लिम" का सवाल है बाबा…
सन्दर्भ - http://hindi.economictimes.indiatimes.com/articleshow/6319250.cms
http://expressbuzz.com/states/kerala/high-level-deal-struck-behind-curtains/198955.html
http://hindusamhati.blogspot.com/2010/08/murshidabad-now-muslimabad-impending.html
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जो लोग लगातार देश के घटियातम समाचार चैनल देखते रहते हैं, उनसे एक मामूली सवाल है कि केरल में अब्दुल नासिर मदनी की गिरफ़्तारी से सम्बन्धित "वामपंथी सेकुलर नौटंकी" कितने लोगों ने, कितने चैनलों पर, कितने अखबारों में देखी-सुनी या पढ़ी है? कितनी बार पढ़ी है और इस महत्वपूर्ण "सेकुलर" खबर (बल्कि सेकुलर शर्म कहना ज्यादा उचित है) को कितने चैनलों या अखबारों ने अपनी हेडलाइन बनाया है? इस सवाल के जवाब में ही हमारे 6M (मार्क्स, मुल्ला, मिशनरी, मैकाले, माइनो और मार्केट) के हाथों बिके हुए मीडिया की हिन्दू-विरोधी फ़ितरत खुलकर सामने आ जायेगी। जहाँ एक तरफ़ अमित शाह की गिरफ़्तारी को मीडिया ने "राष्ट्रीय मुद्दा" बना दिया था और ऐसा माहौल बना दिया था कि यदि अमित शाह की गिरफ़्तारी नहीं हुई तो कोई साम्प्रदायिक सुनामी आयेगी और सभी सेकुलरों को बहा ले जायेगी, वहीं दूसरी तरफ़ केरल में बम विस्फ़ोट का एक आरोपी खुलेआम कानून-व्यवस्था को चुनौती देता रहा, केरल के वामपंथी गृहमंत्री ने उसे बचाने के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगा डाला, आने वाले चुनावों मे हार से भयभीत वामपंथ ने मुस्लिमों को खुश करने के लिये केरल पुलिस का मनोबल तोड़ा… पूरे आठ दिन तक कर्नाटक पुलिस मदनी को गिरफ़्तार करने के लिये केरल में डेरा डाले रही तब कहीं जाकर उसे गिरफ़्तार कर सकी… लेकिन किसी हिन्दी न्यूज़ चैनल ने इस शर्मनाक घटना को अपनी तथाकथित "ब्रेकिंग न्यूज़" नहीं बनाया और ब्रेकिंग या मेकिंग तो छोड़िये, इस पूरे घटनाक्रम को ही ब्लैक-आउट कर दिया गया। यहाँ पर मुद्दा अमित शाह की बेगुनाही या अमित शाह से मदनी की तुलना करना नहीं है, क्योंकि अमित शाह और मदनी की कोई तुलना हो भी नहीं सकती… यहाँ पर मुद्दा है कि हिन्दुत्व विरोध के लिये मीडिया को कितने में और किसने खरीदा है? तथा वामपंथी स्टाइल का सेकुलरिज़्म मुस्लिम वोटों को खुश करने के लिये कितना नीचे गिरेगा?
मुझे विश्वास है कि अभी भी कई पाठकों को इस "सुपर-सेकुलर" घटना के बारे में पूरी जानकारी नहीं होगी… उनके लिये संक्षिप्त में निम्न बिन्दु जान लेना बेहद आवश्यक है ताकि वे भी जान सकें कि ढोंग से भरा वामपंथ, घातक सेकुलरिज़्म और बिकाऊ मीडिया मिलकर उन्हें किस खतरनाक स्थिति में ले जा रहे हैं…
1) कोयम्बटूर बम धमाके का मुख्य आरोपी अब्दुल नासिर मदनी फ़िलहाल केरल की PDP पार्टी का प्रमुख नेता है।
2) कर्नाटक हाईकोर्ट ने दाखिल सबूतों के आधार पर मदनी को बंगलौर बम विस्फ़ोटों के मामले में गैर-ज़मानती वारण्ट जारी कर दिया, जिसमें गिरफ़्तारी होना तय था।
3) मदनी ने इसके खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई हुई है, लेकिन कर्नाटक पुलिस को मदनी को गिरफ़्तार करके उससे पूछताछ करनी थी।
4) कर्नाटक पुलिस केरल सरकार को सूचित करके केरल पुलिस को साथ लेकर मदनी को गिरफ़्तार करने गई, लेकिन केरल की वामपंथी सरकार अपने वादे से मुकर गई और कर्नाटक सरकार के पुलिस वाले वहाँ हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे, क्योंकि केरल पुलिस ने मदनी को गिरफ़्तार करने में कोई रुचि नहीं दिखाई, न ही कर्नाटक पुलिस से कोई सहयोग किया (ज़ाहिर है कि वामपंथी सरकार के उच्च स्तरीय मंत्री का पुलिस पर दबाव था)।
5) इस बीच अब्दुल नासेर मदनी अनवारसेरी के एक अनाथालय में आराम से छिपा बैठा रहा, लेकिन केरल पुलिस की हिम्मत नहीं हुई कि वह अनाथाश्रम में घुसकर मदनी को गिरफ़्तार करे, क्योंकि मदनी आराम से अनाथाश्रम के अन्दर से ही प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके राज्य सरकार को सरेआम धमकी दे रहा था कि "यदि उसे हाथ लगाया गया, तो साम्प्रदायिक दंगे भड़कने का खतरा है…"। 2-3 दिन इसी ऊहापोह में गुज़र गये, पहले दिन जहाँ मदनी के सिर्फ़ 50 कार्यकर्ता अनाथाश्रम के बाहर थे और पुलिस वाले 200 थे, वक्त बीतने के साथ भीड़ बढ़ती गई और केरल पुलिस जिसके हाथ-पाँव पहले ही फ़ूले हुए थे, अब और घबरा गई। इस स्थिति का भरपूर राजनैतिक फ़ायदा लेने की वामपंथी सरकार की कोशिश उस समय बेनकाब हो गई जब कर्नाटक के गृह मंत्री और गिरफ़्तार करने आये पुलिस अधीक्षक ने केरल के DGP और IG से मिलकर मदनी को गिरफ़्तार करने में सहयोग देने की अपील की और उन्हें कोर्ट के आदेश के बारे में बताया।
6) इतना होने के बाद भी केरल पुलिस ने अनाथाश्रम के दरवाजे पर सिर्फ़ एक नोटिस लगाकर कि "अब्दुल नासिर मदनी को पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर देना चाहिये, क्योंकि केरल पुलिस के पास ऐसी सूचना है कि अनाथाश्रम के भीतर भारी मात्रा में हथियार भी जमा हैं…" अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। अब्दुल नासिर मदनी लगातार कहता रहा कि सुप्रीम कोर्ट से निर्णय आने के बाद ही वह आत्मसमर्पण करेगा (यानी जब वह चाहेगा, तब उसकी मर्जी से गिरफ़्तारी होगी…)। मदनी ने रविवार (15 अगस्त) को कहा कि वह बेगुनाह हैं और बम विस्फोट की घटना में उसकी कोई भूमिका नहीं है। मदनी ने कहा, 'मैं एक धार्मिक मुसलमान हूं और कुरान लेकर कहता हूं कि बम विस्फोट के मामले में सीधे या परोक्ष किसी भी तरह की भूमिका नहीं है। यदि कर्नाटक पुलिस चाहती है कि वह मुझे गिरफ्तार किए बगैर वापस नहीं जाएगी तो वह ऐसा करने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन इसके बाद हालात अस्थिर हो जाएंगे।' (ऐसी ही धमकी पूरे भारत को कश्मीर की तरफ़ से भी दी जाती है कि अफ़ज़ल गुरु को फ़ाँसी दी तो ठीक नहीं होगा… और "तथाकथित महाशक्ति भारत" के नेता सिर्फ़ हें हें हें हें हें करते रहते हैं…)। खैर… केरल पुलिस (यानी सेकुलर सरकार द्वारा आदेशित पुलिस) ने भी सरेआम "गिड़गिड़ाते हुए" मदनी से कहा कि अदालत के आदेश को देखते हुए वह गिरफ़्तारी में "सहयोग"(?) प्रदान करे…।
7) अन्ततः केरल की वामपंथी सरकार ने दिल पर पत्थर रखकर आठ दिन की नौटंकी के बाद अब्दुल नासिर मदनी को कर्नाटक पुलिस के हवाले किया (वह भी उस दिन, जिस दिन मदनी ने चाहा…) और छाती पीट-पीटकर इस बात की पूरी व्यवस्था कर ली कि लोग समझें (यानी मुस्लिम वोटर समझें) कि अब्दुल नासिर मदनी एक बेगुनाह, बेकसूर, मासूम, संवेदनशील इंसान है, केरल पुलिस की मजबूरी(?) थी कि वह मदनी को कर्नाटक के हवाले करती… आदि-आदि।
चाहे पश्चिम बंगाल हो या केरल, वामपंथियों और सेकुलरों की ऐसी नग्न धर्मनिरपेक्षता (शर्मनिरपेक्षता) जब-तब सामने आती ही रहती है, इसके बावजूद कंधे पर झोला लटकाकर ऊँचे-ऊँचे आदर्शों की बात करना इन्हें बेहद रुचिकर लगता है। इस मामले में भी, केरल सरकार के उच्च स्तरीय राजनैतिक ड्रामे के बावजूद कानून-व्यवस्था का बलात्कार होते-होते बच गया…।
खतरे की घण्टी बजाता एक और उदाहरण देखिये -
उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल का मुर्शिदाबाद जिला देश का सर्वाधिक घनी मुस्लिम आबादी वाला जिला है। यहाँ के जिला मजिस्ट्रेट (परवेज़ अहमद सिद्दीकी) के कार्यालय से चुनाव के मद्देनज़र मतदाता सूची का नवीनीकरण करने के लिये जो आदेश जारी हुए, उसमें सिर्फ़ पत्र के सब्जेक्ट में "मुर्शिदाबाद" लिखा गया, इसके बाद उस पत्र में कई जगह "मुस्लिमाबाद" लिखा गया है (सन्दर्भ - दैनिक स्टेट्समैन 29 जुलाई)। वह पत्र कम से कम चार-पाँच अन्य जूनियर अधिकारियों के हाथों हस्ताक्षर होता हुआ आगे बढ़ा, लेकिन किसी ने भी "मुर्शिदाबाद" की जगह "मुस्लिमाबाद" कैसे हुआ, क्यों हुआ… के बारे में पूछताछ करना तो दूर इस गलती(?) पर ध्यान तक देना उचित नहीं समझा।
जब कलेक्टर से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने बड़ी मासूमियत से कहा कि यह सिर्फ़ "स्पेलिंग मिस्टेक" है…। अब आप कितने ही बेढंगे और अनमने तरीके से "मुर्शिदाबाद" लिखिये, देखें कि वह "मुस्लिमाबाद" कैसे बनता है… चलिये हिन्दी न सही अंग्रेजी में ही Murshidabad को Muslimabad लिखकर देखिये कि क्या स्पेलिंग मिस्टेक से यह सम्भव है? आप कहेंगे कि यह तो बड़ी छोटी सी बात है, लेकिन थोड़ा गहराई से विचार करेंगे तो आप खुद मानेंगे कि यह कोई छोटी बात नहीं है। मुर्शिदाबाद में ही कुछ समय पहले एक धार्मिक संस्थान ने स्कूलों में बंगाल के नक्शे मुफ़्त बँटवाये थे, जिसमें मुर्शिदाबाद को स्वायत्त मुस्लिम इलाका प्रदर्शित किया गया था… तब भी प्रशासन ने कुछ नहीं किया था और अब भी प्रशासन चुप्पी साधे हुए है… बोलेगा कौन? वामपंथी शासन (और विचारधारा भी) पश्चिम बंगाल की 16 सीटों पर निर्णायक मतदाता बन चुके मुस्लिमों को खुश रखना चाहती है और ममता बनर्जी भी यही चाहती हैं… ठीक उसी तरह, जैसे केरल में मदनी से बाकायदा Request की गई थी कि "महोदय, जब आप चाहें, गिरफ़्तार हों जायें…"।
तात्पर्य यह है कि यदि आप किसी आतंकवादी (कसाब, अफ़ज़ल), किसी हिस्ट्रीशीटर (अब्दुल नासिर मदनी, सोहराबुद्दीन), किसी सताये हुए मुस्लिम (मकबूल फ़िदा हुसैन, इमरान हाशमी), बेगुनाह और मासूम मुस्लिम (रिज़वान, इशरत जहाँ) के पक्ष में आवाज़ उठायें तो आप सेकुलर, प्रगतिशील, मानवाधिकारवादी, संवेदनशील… और भी न जाने क्या-क्या कहलाएंगे, लेकिन जैसे ही आपने, बिना किसी ठोस सबूत के मकोका लगाकर जेल में रखी गईं साध्वी प्रज्ञा के पक्ष में कुछ कहा, कश्मीरी पण्डितों के बारे में सवाल किया, रजनीश (कश्मीर) और रिज़वान (पश्चिम बंगाल) की मौतों के बारे में तुलना की… तो आप तड़ से "साम्प्रदायिक" घोषित कर दिये जायेंगे…। 6M के हाथों बिका मीडिया, सेकुलरिस्ट, कांग्रेस-वामपंथी (यहाँ तक कि तूफ़ान को देखकर भी रेत में सिर गड़ाये बैठे शतुरमुर्ग टाइप के उच्च-मध्यमवर्गीय हिन्दू) सब मिलकर आपके पीछे पड़ जायेंगे…
बहरहाल, अब्दुल नासिर मदनी को कर्नाटक पुलिस गिरफ़्तार करके ले गई है, तो शायद दिग्विजयसिंह, सोनिया गाँधी को पत्र लिखकर इसके लिये चिदम्बरम और गडकरी को जिम्मेदार ठहरायेंगे, हो सकता है वे आजमगढ़ की तरह एकाध दौरा केरल का भी कर लें… शायद मनमोहन सिंह जी रातों को ठीक से सो न सकें…(जब भी किसी "मासूम" मुस्लिम पर अत्याचार होता है तब ऐसा होता है, चाहे वह भारत का मासूम हो या ऑस्ट्रेलिया का…), शायद केरल के वामपंथी, जो बेचारे बड़े गहरे अवसाद में हैं अब कानून बदलने की माँग कर डालें… सम्भव है कि ममता बनर्जी, मदनी के समर्थन में केरल में भी एकाध रैली निकाल लें… शायद शबाना आज़मी एकाध धरना आयोजित कर लें… शायद तीस्ता जावेद सीतलवाड इस "अत्याचार" के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट चली जायें (भले ही झूठ बोलने के लिये वहाँ से 2-3 बार लताड़ खा चुकी हों)… लगे हाथों महेश भट्ट भी "सेकुलर बयान की एक खट्टी डकार" ले लें… तो भाईयों-बहनों कुछ भी हो सकता है, आखिर एक "मासूम, अमनपसन्द, बेगुनाह, संवेदनशील… और भी न जाने क्या-क्या टाइप के मुस्लिम" का सवाल है बाबा…
सन्दर्भ - http://hindi.economictimes.indiatimes.com/articleshow/6319250.cms
http://expressbuzz.com/states/kerala/high-level-deal-struck-behind-curtains/198955.html
http://hindusamhati.blogspot.com/2010/08/murshidabad-now-muslimabad-impending.html
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शुक्रवार, 20 अगस्त 2010 16:45
सिर्फ़ विदेशी नहीं, बल्कि देशी कम्पनियाँ भी खनिज सम्पदा लूट रही हैं… (सन्दर्भ - उड़ीसा का खनन घोटाला)… Orissa Mining Scam, Aditya Birla and Vedanta
कर्नाटक के रेड्डी बन्धुओं द्वारा किये गये अरबों रुपये के खनन घोटाले के बारे में काफ़ी कुछ लिखा-पढ़ा जा चुका है, इसी प्रकार झारखण्ड के (भ्रष्टाचार में "यशस्वी") मुख्यमंत्री मधु कौड़ा के बारे में भी हंगामा बरपा हुआ था और उनके रुपयों के लेनदेन और बैंक खातों के बारे में अखबार रंगे गये हैं। लगता है कि भारत की खनिज सम्पदा, कोयला, लौह अयस्क इत्यादि कई-कई अफ़सरों, नेताओं, ठेकेदारों (और अब नक्सलियों और माओवादियों) के लिये भी अनाप-शनाप कमाई का साधन बन चुकी है, जहाँ एक तरफ़ नेताओं और अफ़सरों की काली कमाई स्विस बैंकों और ज़मीनों-सोने-कम्पनियों को खरीदने में लगती है, वहीं दूसरी तरफ़ नक्सली खनन के इस काले पैसे से हथियार खरीदना, अन्दरूनी आदिवासी इलाकों में अपने पठ्ठे तैयार करने और अपना सूचना तंत्र मजबूत करने में लगाते हैं।
ट्रांसपेरेंसी इण्टरनेशनल के एक सक्रिय कार्यकर्ता श्री बिस्वजीत मोहन्ती द्वारा सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार आदित्य बिरला और एस्सेल समूह द्वारा लगभग 2000 करोड़ रुपये से अधिक का अवैध उत्खनन किया गया है। इस जानकारी के अनुसार उड़ीसा प्रदूषण नियंत्रण मण्डल और उड़ीसा वन विभाग के उच्च अधिकारियों की कार्यशैली और निर्णय भी गम्भीर आशंकाओं के साये में हैं। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी कर्नाटक के येद्दियुरप्पा की तरह ईमानदार और साफ़ छवि के माने जाते हैं, लेकिन उनकी पीठ पीछे कम्पनियाँ और अधिकारी मिलकर जो खेल कर रहे हैं, वह अकल्पनीय है। ऐसा तो सम्भव ही नहीं है कि जिन नक्सलियों और माओवादियों का राज देश के एक-तिहाई हिस्से (जिसमें उड़ीसा का बड़ा इलाका शामिल है) में चलता हो और उन्हें इस अवैध उत्खनन के बारे में पता न हो।
असल में यह सारा खेल ठेकेदार-कम्पनियों और नक्सलियों का मिलाजुला होता है, सबका हिस्सा बँटा हुआ होता है, क्योंकि उस इलाके में सरकारों की तो कुछ चलती ही नहीं है। उदाहरण के तौर पर उड़ीसा के विजिलेंस विभाग ने 151 छोटी खदानों को पर्यावरण कानूनों और राजस्व के विभिन्न मामलों में केस दर्ज करके बन्द करवा दिया, लेकिन घने जंगलों में स्थित बड़ी कम्पनियों को लूट का खुला अवसर आज भी प्राप्त है। क्योंझर (डोलोमाइट), जिलिम्गोटा (लौह अयस्क) और कसिया (मैगनीज़) की एस्सेल और बिरला की खदानें 2001 से 2008 तक बेरोकटोक अवैध चलती रहीं हैं। इन कम्पनियों को सिर्फ़ 2,76,000 मीट्रिक टन का खनन करने की अनुमति थी, जबकि इन्होंने इस अवधि में 1,38,0391 मीट्रिक टन की खुदाई करके सरकार को सिर्फ़ 6 साल में 1178 करोड़ का चूना लगा दिया। संरक्षित वन क्षेत्र में अमूमन खुदाई की अनुमति नहीं दी जाती, लेकिन इधर वन विभाग भी मेहरबान है और उसने 127 हेक्टेयर के वन क्षेत्र में खदान बनाने की अनुमति दे डाली… और फ़िर भी अनुमति धरी रह गई अपनी जगह… क्योंकि जब वास्तविक स्थिति देखी गई तो "भाई" लोगों ने 127 की बजाय 242 हेक्टेयर वन क्षेत्र में खुदाई कर डाली। यदि पर्यावरण प्रेमी और सूचना के अधिकार वाले जागरुक लोग समय पर आवाज़ नहीं उठाते तो शायद ये कम्पनियाँ खुदाई करते-करते भुवनेश्वर तक पहुँच जातीं।
मजे की बात तो यह है कि इन कम्पनियों को पर्यावरण मंत्रालय और राज्य के खनन विभागों की अनुमति भी बड़ी जल्दी मिल जाती है… क्योंकि इन विभागों के उच्च अधिकारियों से लेकर वन-रक्षक के हाथ "रिश्वत के ग्रीज़" से चिकने बना दिये जाते हैं। सूचना के अधिकार कानून से भी क्या होने वाला है, क्योंकि सरकार ने अपने लिखित जवाब में बता दिया कि "आपकी शिकायत सही पाई गई है और उक्त खदान में खनन कार्य बन्द किया जा चुका है…" जबकि उस स्थान पर जाकर देखा जाये तो वह खदानें बाकायदा उसी गति से चल रही हैं, अब उखाड़ लो, जो उखाड़ सकते हो…।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एक विशेष पैनल ने अपनी सनसनीखेज़ रिपोर्ट में पाया है कि उड़ीसा में 215 खदानें ऐसी हैं, जिनके खनन लाइसेंस 20 साल पहले ही खत्म हो चुका है। पैनल ने कहा है कि घने जंगलों में ऐसी कई खदाने हैं जो अवैध रुप से चल रही हैं जिन्होंने न तो किसी प्रकार का पर्यावरण NOC लिया है न ही उनके लाइसेंस हैं (कोई बच्चा भी बता सकता है कि इस प्रकार की खदानों से किसकी कमाई होती होगी… पता नहीं नक्सलवादी नेता ऊँचे-ऊँचे आदर्शों की बातें क्यों करते हैं?)। इस लूट में कोल इंडिया लिमिटेड के उच्चाधिकारियों की मिलीभगत से महानदी कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड भी दोनों हाथों से अवैध खनन कर रही है। यह खेल "खनिज सम्पदा छूट कानून 1960" के नियम 24A(6) के तहत किया जा रहा है, जबकि इस कानून को इसलिये बनाया गया था ताकि कोई खदान सरकारी स्वीकृति मिलने की देरी होने पर भी चालू हालत में रखी जा सके। इस नियम के तहत जब तक लाइसेंस नवीनीकरण नहीं होता तब तक उसी खदान को अस्थायी तौर पर शुरु रखने की अनुमति दी जाती है। उड़ीसा में इन सैकड़ों मामलों में खदानों के लाइसेंस पूरे हुए 10, 15 या 20 साल तक हो चुके हैं, न तो नवीनीकरण का आवेदन किया गया, न ही खदान बन्द की गई…।
राष्ट्रीय वन्य जीव क्षेत्र (नेशनल पार्क) के आसपास कम से कम 2 किमी तक कोई खदान नहीं होनी चाहिये, लेकिन इस नियम की धज्जियाँ भी सरेआम उड़ीसा में उड़ती नज़र आ जाती हैं। अब सुप्रीम कोर्ट ने इन खदान मालिकों को आज के वर्तमान बाजार भाव के हिसाब से लीज़ का पैसा चुकाने को कहा है, और पिछली लूट को यदि छोड़ भी दें तब भी सरकार के खजाने में इस कदम से करोड़ों रुपये आयेंगे। उल्लेखनीय है कि जब खनन करने वाली कम्पनी को 5000 रुपये का फ़ायदा होता है तब सरकार के खाते में सिर्फ़ 27 रुपये आते हैं (रॉयल्टी के रुप में), लेकिन ये बड़ी कम्पनियाँ और इनके मालिक इतने टुच्चे और नीच हैं कि ये 27 रुपये भी सरकारी खजाने में जमा नहीं करना चाहते, इसलिये अवैध खनन के जरिये अफ़सरों, ठेकेदारों और नक्सलियों-माओवादियों की मिलीभगत से सरकार को (यानी प्रकारांतर से हमें भी) चूना लगता रहता है। आदित्य बिरला की कम्पनी पर आरोप है कि उसने लगभग 2000 करोड़ रुपये का अवैध खनन सिर्फ़ उड़ीसा में किया है। यदि सूचना का अधिकार न होता तो विश्वजीत मोहन्ती जैसे कार्यकर्ताओं की मेहनत से हमें यह सब कभी पता नहीं चलता…। वेदान्ता और पोस्को द्वारा की जा रही लूट के बारे में काफ़ी शोरगुल और हंगामा होता रहता है, लेकिन भारतीय कम्पनियों द्वारा खनन में तथा माओवादियों द्वारा जंगलों में अवैध वसूली और लकड़ी/लौह अयस्क तस्करी के बारे में काफ़ी कम बात की जाती है, जबकि सारे के सारे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं (कुछ झोलेवालों को यह मुगालता है कि नक्सलवादी या माओवादी किसी परम पवित्र उद्देश्य की लड़ाई लड़ रहे हैं…)। उधर रेड्डी बन्धुओं ने तो आंध्रप्रदेश और कर्नाटक की सीमा के चिन्ह भी मिटा डाले हैं ताकि जब जाँच हो, या कोई ईमानदार अधिकारी उधर देखने जाये तो उसे, कभी कर्नाटक तो कभी आंध्रप्रदेश की सीमा का मामला बताकर केस उलझा दिया जाये…
लेकिन सूचना के इस अधिकार से हमें सिर्फ़ घोटाले की जानकारी ही हुई है… न तो कम्पनियों का कुछ बिगड़ा, न ही अधिकारियों-ठेकेदारों का बाल भी बाँका हुआ, न ही मुख्यमंत्री या किसी अन्य मंत्री ने इस्तीफ़ा दिया … सूचना हासिल करके क्या उखाड़ लोगे? सजा दिलाने के लिये रास्ता तो थाना-कोर्ट-कचहरी-विधानसभा-लोकसभा के जरिये ही है, जहाँ इन बड़ी-बड़ी कम्पनियों के दलाल और शुभचिन्तक बैठे हैं। मध्यप्रदेश और राजस्थान के जिन IAS अधिकारियों के घरों से छापे में करोड़ों रुपये निकल रहे हैं, उन्हें सड़क पर घसीटकर जूतों से मारने की बजाय उन्हें उच्च पदस्थापनाएं मिल जाती हैं तो कैसा और क्या सिस्टम बदलेंगे हम और आप?
भई… जब देश की राजधानी में ऐन प्रधानमंत्री की नाक के नीचे कॉमनवेल्थ खेलों के नाम पर करोड़ों रुपये दिनदहाड़े लूट लिये जाते हों तो उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ के दूरदराज के घने जंगलों में देखने वाला कौन है… यह देश पूरी तरह लुटेरों की गिरफ़्त में है…कोई दिल्ली में लूट रहा है तो कोई क्योंझर या मदुरै या जैसलमेर में…
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ट्रांसपेरेंसी इण्टरनेशनल के एक सक्रिय कार्यकर्ता श्री बिस्वजीत मोहन्ती द्वारा सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार आदित्य बिरला और एस्सेल समूह द्वारा लगभग 2000 करोड़ रुपये से अधिक का अवैध उत्खनन किया गया है। इस जानकारी के अनुसार उड़ीसा प्रदूषण नियंत्रण मण्डल और उड़ीसा वन विभाग के उच्च अधिकारियों की कार्यशैली और निर्णय भी गम्भीर आशंकाओं के साये में हैं। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी कर्नाटक के येद्दियुरप्पा की तरह ईमानदार और साफ़ छवि के माने जाते हैं, लेकिन उनकी पीठ पीछे कम्पनियाँ और अधिकारी मिलकर जो खेल कर रहे हैं, वह अकल्पनीय है। ऐसा तो सम्भव ही नहीं है कि जिन नक्सलियों और माओवादियों का राज देश के एक-तिहाई हिस्से (जिसमें उड़ीसा का बड़ा इलाका शामिल है) में चलता हो और उन्हें इस अवैध उत्खनन के बारे में पता न हो।
असल में यह सारा खेल ठेकेदार-कम्पनियों और नक्सलियों का मिलाजुला होता है, सबका हिस्सा बँटा हुआ होता है, क्योंकि उस इलाके में सरकारों की तो कुछ चलती ही नहीं है। उदाहरण के तौर पर उड़ीसा के विजिलेंस विभाग ने 151 छोटी खदानों को पर्यावरण कानूनों और राजस्व के विभिन्न मामलों में केस दर्ज करके बन्द करवा दिया, लेकिन घने जंगलों में स्थित बड़ी कम्पनियों को लूट का खुला अवसर आज भी प्राप्त है। क्योंझर (डोलोमाइट), जिलिम्गोटा (लौह अयस्क) और कसिया (मैगनीज़) की एस्सेल और बिरला की खदानें 2001 से 2008 तक बेरोकटोक अवैध चलती रहीं हैं। इन कम्पनियों को सिर्फ़ 2,76,000 मीट्रिक टन का खनन करने की अनुमति थी, जबकि इन्होंने इस अवधि में 1,38,0391 मीट्रिक टन की खुदाई करके सरकार को सिर्फ़ 6 साल में 1178 करोड़ का चूना लगा दिया। संरक्षित वन क्षेत्र में अमूमन खुदाई की अनुमति नहीं दी जाती, लेकिन इधर वन विभाग भी मेहरबान है और उसने 127 हेक्टेयर के वन क्षेत्र में खदान बनाने की अनुमति दे डाली… और फ़िर भी अनुमति धरी रह गई अपनी जगह… क्योंकि जब वास्तविक स्थिति देखी गई तो "भाई" लोगों ने 127 की बजाय 242 हेक्टेयर वन क्षेत्र में खुदाई कर डाली। यदि पर्यावरण प्रेमी और सूचना के अधिकार वाले जागरुक लोग समय पर आवाज़ नहीं उठाते तो शायद ये कम्पनियाँ खुदाई करते-करते भुवनेश्वर तक पहुँच जातीं।
मजे की बात तो यह है कि इन कम्पनियों को पर्यावरण मंत्रालय और राज्य के खनन विभागों की अनुमति भी बड़ी जल्दी मिल जाती है… क्योंकि इन विभागों के उच्च अधिकारियों से लेकर वन-रक्षक के हाथ "रिश्वत के ग्रीज़" से चिकने बना दिये जाते हैं। सूचना के अधिकार कानून से भी क्या होने वाला है, क्योंकि सरकार ने अपने लिखित जवाब में बता दिया कि "आपकी शिकायत सही पाई गई है और उक्त खदान में खनन कार्य बन्द किया जा चुका है…" जबकि उस स्थान पर जाकर देखा जाये तो वह खदानें बाकायदा उसी गति से चल रही हैं, अब उखाड़ लो, जो उखाड़ सकते हो…।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एक विशेष पैनल ने अपनी सनसनीखेज़ रिपोर्ट में पाया है कि उड़ीसा में 215 खदानें ऐसी हैं, जिनके खनन लाइसेंस 20 साल पहले ही खत्म हो चुका है। पैनल ने कहा है कि घने जंगलों में ऐसी कई खदाने हैं जो अवैध रुप से चल रही हैं जिन्होंने न तो किसी प्रकार का पर्यावरण NOC लिया है न ही उनके लाइसेंस हैं (कोई बच्चा भी बता सकता है कि इस प्रकार की खदानों से किसकी कमाई होती होगी… पता नहीं नक्सलवादी नेता ऊँचे-ऊँचे आदर्शों की बातें क्यों करते हैं?)। इस लूट में कोल इंडिया लिमिटेड के उच्चाधिकारियों की मिलीभगत से महानदी कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड भी दोनों हाथों से अवैध खनन कर रही है। यह खेल "खनिज सम्पदा छूट कानून 1960" के नियम 24A(6) के तहत किया जा रहा है, जबकि इस कानून को इसलिये बनाया गया था ताकि कोई खदान सरकारी स्वीकृति मिलने की देरी होने पर भी चालू हालत में रखी जा सके। इस नियम के तहत जब तक लाइसेंस नवीनीकरण नहीं होता तब तक उसी खदान को अस्थायी तौर पर शुरु रखने की अनुमति दी जाती है। उड़ीसा में इन सैकड़ों मामलों में खदानों के लाइसेंस पूरे हुए 10, 15 या 20 साल तक हो चुके हैं, न तो नवीनीकरण का आवेदन किया गया, न ही खदान बन्द की गई…।
राष्ट्रीय वन्य जीव क्षेत्र (नेशनल पार्क) के आसपास कम से कम 2 किमी तक कोई खदान नहीं होनी चाहिये, लेकिन इस नियम की धज्जियाँ भी सरेआम उड़ीसा में उड़ती नज़र आ जाती हैं। अब सुप्रीम कोर्ट ने इन खदान मालिकों को आज के वर्तमान बाजार भाव के हिसाब से लीज़ का पैसा चुकाने को कहा है, और पिछली लूट को यदि छोड़ भी दें तब भी सरकार के खजाने में इस कदम से करोड़ों रुपये आयेंगे। उल्लेखनीय है कि जब खनन करने वाली कम्पनी को 5000 रुपये का फ़ायदा होता है तब सरकार के खाते में सिर्फ़ 27 रुपये आते हैं (रॉयल्टी के रुप में), लेकिन ये बड़ी कम्पनियाँ और इनके मालिक इतने टुच्चे और नीच हैं कि ये 27 रुपये भी सरकारी खजाने में जमा नहीं करना चाहते, इसलिये अवैध खनन के जरिये अफ़सरों, ठेकेदारों और नक्सलियों-माओवादियों की मिलीभगत से सरकार को (यानी प्रकारांतर से हमें भी) चूना लगता रहता है। आदित्य बिरला की कम्पनी पर आरोप है कि उसने लगभग 2000 करोड़ रुपये का अवैध खनन सिर्फ़ उड़ीसा में किया है। यदि सूचना का अधिकार न होता तो विश्वजीत मोहन्ती जैसे कार्यकर्ताओं की मेहनत से हमें यह सब कभी पता नहीं चलता…। वेदान्ता और पोस्को द्वारा की जा रही लूट के बारे में काफ़ी शोरगुल और हंगामा होता रहता है, लेकिन भारतीय कम्पनियों द्वारा खनन में तथा माओवादियों द्वारा जंगलों में अवैध वसूली और लकड़ी/लौह अयस्क तस्करी के बारे में काफ़ी कम बात की जाती है, जबकि सारे के सारे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं (कुछ झोलेवालों को यह मुगालता है कि नक्सलवादी या माओवादी किसी परम पवित्र उद्देश्य की लड़ाई लड़ रहे हैं…)। उधर रेड्डी बन्धुओं ने तो आंध्रप्रदेश और कर्नाटक की सीमा के चिन्ह भी मिटा डाले हैं ताकि जब जाँच हो, या कोई ईमानदार अधिकारी उधर देखने जाये तो उसे, कभी कर्नाटक तो कभी आंध्रप्रदेश की सीमा का मामला बताकर केस उलझा दिया जाये…
लेकिन सूचना के इस अधिकार से हमें सिर्फ़ घोटाले की जानकारी ही हुई है… न तो कम्पनियों का कुछ बिगड़ा, न ही अधिकारियों-ठेकेदारों का बाल भी बाँका हुआ, न ही मुख्यमंत्री या किसी अन्य मंत्री ने इस्तीफ़ा दिया … सूचना हासिल करके क्या उखाड़ लोगे? सजा दिलाने के लिये रास्ता तो थाना-कोर्ट-कचहरी-विधानसभा-लोकसभा के जरिये ही है, जहाँ इन बड़ी-बड़ी कम्पनियों के दलाल और शुभचिन्तक बैठे हैं। मध्यप्रदेश और राजस्थान के जिन IAS अधिकारियों के घरों से छापे में करोड़ों रुपये निकल रहे हैं, उन्हें सड़क पर घसीटकर जूतों से मारने की बजाय उन्हें उच्च पदस्थापनाएं मिल जाती हैं तो कैसा और क्या सिस्टम बदलेंगे हम और आप?
भई… जब देश की राजधानी में ऐन प्रधानमंत्री की नाक के नीचे कॉमनवेल्थ खेलों के नाम पर करोड़ों रुपये दिनदहाड़े लूट लिये जाते हों तो उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ के दूरदराज के घने जंगलों में देखने वाला कौन है… यह देश पूरी तरह लुटेरों की गिरफ़्त में है…कोई दिल्ली में लूट रहा है तो कोई क्योंझर या मदुरै या जैसलमेर में…
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सोमवार, 16 अगस्त 2010 13:02
क्या राष्ट्रीय मीडिया में "देशद्रोही" भरे पड़े हैं? सन्दर्भ - कश्मीर की स्वायत्तता… Kashmir Autonomy Proposal, Indian Media and Secularism
प्रधानमंत्री जी ने कश्मीर मुद्दे पर सभी दलों की जो बैठक बुलाई थी, उसमें उन्होंने एक बड़ी गम्भीर और व्यापक बहस छेड़ने वाली बात कह दी कि "यदि सभी दल चाहें तो कश्मीर को स्वायत्तता दी जा सकती है…", लेकिन आश्चर्य की बात है कि भाजपा को छोड़कर किसी भी दल ने इस बयान पर आपत्ति दर्ज करना तो दूर स्पष्टीकरण माँगना भी उचित नहीं समझा। प्रधानमंत्री द्वारा ऑफ़र की गई "स्वायत्तता" का क्या मतलब है? क्या प्रधानमंत्री या कांग्रेस खुद भी इस बारे में स्पष्ट है? या ऐसे ही हवा में कुछ बयान उछाल दिया? कांग्रेस वाले स्वायत्तता किसे देंगे? उन लोगों को जो बरसों से भारतीय टुकड़ों पर पल रहे हैं फ़िर भी अमरनाथ में यात्रियों की सुविधा के लिये अस्थाई रुप से ज़मीन का एक टुकड़ा देने में उन्हें खतरा नज़र आने लगता है और विरोध में सड़कों पर आ जाते हैं… या स्वायत्तता उन्हें देंगे जो सरेआम भारत का तिरंगा जला रहे हैं, 15 अगस्त को "काला दिवस" मना रहे हैं? किस स्वायत्तता की बात हो रही है मनमोहन जी, थोड़ा हमें भी तो बतायें।
इतने गम्भीर मुद्दे पर राष्ट्रीय मीडिया, अखबारों और चैनलों की ठण्डी प्रतिक्रिया और शून्य कवरेज भी आश्चर्य पैदा करने वाला है। प्रधानमंत्री के इस बयान के बावजूद, मीडिया क्या दिखा रहा है? 1) शाहरुख खान ने KKR के लिये पाकिस्तानी खिलाड़ी को खरीदा और पाकिस्तान के खिलाड़ियों का समर्थन किया… 2) राहुल गाँधी की लोकप्रियता में भारी उछाल…, 3) पीपली लाइव की लॉंचिंग… आदि-आदि-आदि। आप कहेंगे कि मीडिया तो बार-बार कश्मीर की हिंसा की खबरें दिखा रहा है… जी हाँ ज़रूर दिखा रहा है, लेकिन हेडलाइन, बाइलाइन, टिकर और स्क्रीन में नीचे चलने वाले स्क्रोल में अधिकतर आपको "कश्मीर में गुस्सा…", "कश्मीर का युवा आक्रोशित…", "कश्मीर में सुरक्षा बलों पर आक्रोशित युवाओं की पत्थरबाजी…" जैसी खबरें दिखाई देंगी। सवाल उठता है कि क्या मीडिया और चैनलों में राष्ट्रबोध नाम की चीज़ एकदम खत्म हो गई है? या ये किसी के इशारे पर इस प्रकार की हेडलाइनें दिखाते हैं?
कश्मीर में गुस्सा, आक्रोश? किस बात पर आक्रोश? और किस पर गुस्सा? भारत की सरकार पर? लेकिन भारत सरकार (यानी प्रकारान्तर से करोड़ों टैक्स भरने वाले) तो इन कश्मीरियों को 60 साल से पाल-पोस रहे हैं, फ़िर किस बात का आक्रोश? भारत की सरकार के कई कानून वहाँ चलते नहीं, कुछ को वे मानते नहीं, उनका झण्डा अलग है, उनका संविधान अलग है, भारत का नागरिक वहाँ ज़मीन खरीद नहीं सकता, धारा 370 के तहत विशेषाधिकार मिला हुआ है, हिन्दुओं (कश्मीरी पण्डितों) को बाकायदा "धार्मिक सफ़ाये" के तहत कश्मीर से बाहर किया जा चुका है… फ़िर किस बात का गुस्सा है भई? कहीं यह हरामखोरी की चर्बी तो नहीं? लगता तो यही है। वरना क्या कारण है कि 14-15 साल के लड़के से लेकर यासीन मलिक, गिलानी और अब्दुल गनी लोन जैसे बुज़ुर्ग भी भारत सरकार से, जब देखो तब खफ़ा रहते हैं।
जबकि दूसरी तरफ़ देखें तो भारत के नागरिक, हिन्दू संगठन, तमाम टैक्स देने वाले और भारत को अखण्ड देखने की चाह रखने वाले देशप्रेमी… जिनको असल में गुस्सा आना चाहिये, आक्रोशित होना चाहिये, नाराज़ी जताना चाहिये… वे नपुंसक की तरह चुपचाप बैठे हैं और "स्वायत्तता" का राग सुन रहे हैं? कोई भी उठकर ये सवाल नहीं करता कि कश्मीर के पत्थरबाजों को पालने, यासीन मलिक जैसे देशद्रोहियों को दिल्ली लाकर पाँच सितारा होटलों में रुकवाने और भाषण करवाने के लिये हम टैक्स क्यों दें? किसी राजदीप या बुरका दत्त ने कभी किसी कश्मीरी पण्डित का इंटरव्यू लिया कि उसमें कितना आक्रोश है? लाखों हिन्दू लूटे गये, बलात्कार किये गये, उनके मन्दिर तोड़े गये, क्योंकि गिलानी के पाकिस्तानी आका ऐसा चाहते थे, तो जिन्हें गुस्सा आया होगा कभी उन्हें किसी चैनल पर दिखाया? नहीं दिखाया, क्यों? क्या आक्रोशित होने और गुस्सा होने का हक सिर्फ़ कश्मीर के हुल्लड़बाजों को ही है, राष्ट्रवादियों को नहीं?
लेकिन जैसे ही "राष्ट्रवाद" की बात की जाती है, मीडिया को हुड़हुड़ी का बुखार आ जाता है, राष्ट्रवाद की बात करना, हिन्दू हितों की बात करना तो मानो वर्जित ही है… किसी टीवी एंकर की औकात नहीं है कि वह कश्मीरी पण्डितों की दुर्गति और नारकीय परिस्थितियों पर कोई कार्यक्रम बनाये और उसे हेडलाइन बनाकर जोर-शोर से प्रचारित कर सके, कोई चैनल देश को यह नहीं बताता कि आज तक कश्मीर के लिये भारत सरकार ने कितना-कुछ किया है, क्योंकि उनके मालिकों को "पोलिटिकली करेक्ट" रहना है, उन्हें कांग्रेस को नाराज़ नहीं करना है… स्वाभाविक सी बात है कि तब जनता पूछेगी कि इतना पैसा खर्च करने के बावजूद कश्मीर में बेरोज़गारी क्यों है? पिछले 60 साल से कश्मीर में किसकी हुकूमत चल रही थी? दिल्ली में बैठे सूरमा, खरबों रुपये खर्च करने बावजूद कश्मीर में शान्ति क्यों नहीं ला सके? ऐसे असुविधाजनक सवालों से "सेकुलरिज़्म" बचना चाहता है, इसलिये हमें समझाया जा रहा है कि "कश्मीरी युवाओं में आक्रोश और गुस्सा" है।
इधर अपने देश में गद्दार किस्म का मीडिया है, प्रस्तुत चित्र में देखिये "नवभारत टाइम्स अखबार" फ़ोटो के कैप्शन में लिखता है "कश्मीरी मुसलमान महिला" और "भारतीय पुलिसवाला", क्या मतलब है इसका? क्या नवभारत टाइम्स इशारा करना चाहता है कि कश्मीर भारत से अलग हो चुका है और भारतीय पुलिस(?) कश्मीरी मुस्लिमों पर अत्याचार कर रही है? यही तो पाकिस्तानी और अलगाववादी कश्मीरी भी कहते हैं… मजे की बात तो यह कि यही मीडिया संस्थान "अमन की आशा" टाइप के आलतू-फ़ालतू कार्यक्रम भी आयोजित कर लेते हैं। जबकि उधर पाकिस्तान में उच्च स्तर पर सभी के सभी लोग कश्मीर को भारत से अलग करने में जी-जान से जुटे हैं, इसका सबूत यह है कि हाल ही में जब संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान किं मून ने कश्मीर के सन्दर्भ में अपना विवादास्पद बयान पढ़ा था (बाद में उन्होंने कहा कि यह उनका मूल बयान नहीं है)... असल में बान के बयान का मजमून बदलने वाला व्यक्ति संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान का प्रवक्ता फ़रहान हक है, जिसने मूल बयान में हेराफ़ेरी करके उसमें "कश्मीर" जोड़ दिया। फ़रहान हक ने तो अपने देश के प्रति देशभक्ति दिखाई, लेकिन भारत के तथाकथित सेकुलरिज़्म के पैरोकार क्यों अपना मुँह सिले बैठे रहते हैं? जमाने भर में दाऊद इब्राहीम का पता लेकर घूमते रहते हैं… दाऊद यहाँ है, दाऊद वहाँ है, दाऊद ने आज खाना खाया, दाऊद ने आज पानी पिया… अरे भाई, देश की जनता को इससे क्या मतलब? देश की जनता तो तब खुश होगी, जब सरकार "रॉ" जैसी संस्था के आदमियों की मदद से दाऊद को पाकिस्तान में घुसकर निपटा दें… और फ़िर मीडिया भारत की सरकार का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर गुणगान करे… यह तो मीडिया और सरकार से बनेगा नहीं… इसलिये "अमन की आशा" का राग अलापते हैं…।
दिल्ली और विभिन्न राज्यों में एक "अल्पसंख्यक आयोग" और "मानवाधिकार आयोग" नाम के दो "बिजूके" बैठे हैं, लेकिन इनकी निगाह में कश्मीरी हिन्दुओं का कोई मानवाधिकार नहीं है, गलियों से आकर पत्थर मारने वाले, गोलियाँ चलाने वालों से सहानुभूति है, लेकिन अपने घर-परिवार से दूर रहकर 24 घण्टे अपनी ड्यूटी निभाने वाले सैनिक के लिये कोई मानवाधिकार नहीं? मार-मारकर भगाये गये कश्मीरी पण्डित इनकी निगाह में "अल्पसंख्यक" नहीं हैं, क्योंकि "अल्पसंख्यक" की परिभाषा भी तो इन्हीं कांग्रेसियों द्वारा गढ़ी गई है। मनमोहन सिंह जी को यह कहना तो याद रहता है कि "देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है…", लेकिन कश्मीरी पंडितों के दर्द और लाखों अमरनाथ यात्रियों के वाजिब हक के मुद्दे पर उनके मुँह में दही जम जाता है। वाकई में गाँधीवादियों, सेकुलरों और मीडिया ने मिलकर एकदम "बधियाकरण" ही कर डाला है देश का… देशहित से जुड़े किसी मुद्दे पर कोई सार्थक बहस नहीं, भारत के हितों से जुड़े मुद्दों पर देश का पक्ष लेने की बजाय, या तो विदेशी ताकतों का गुणगान या फ़िर देशविरोधी ताकतों के प्रति सहानुभूति पैदा करना… आखिर कितना गिरेगा हमारा मीडिया?
अब जबकि खरबों रुपये खर्च करने के बावजूद कश्मीर की स्थिति 20 साल पहले जैसी ही है, तो समय आ गया है कि हमें गिलानी-यासीन जैसों से दो-टूक बात करनी चाहिये कि आखिर किस प्रकार की आज़ादी चाहते हैं वे? कैसी स्वायत्तता चाहिये उन्हें? क्या स्वायत्तता का मतलब यही है कि भारत उन लोगों को अपने आर्थिक संसाधनों से पाले-पोसे, वहाँ बिजली परियोजनाएं लगाये, बाँध बनाये… यहाँ तक कि डल झील की सफ़ाई भी केन्द्र सरकार करवाये? उनसे पूछना चाहिये कि 60 साल में भारत सरकार ने जो खरबों रुपया दिया, उसका क्या हुआ? उसके बदले में पत्थरबाजों और उनके आकाओं ने भारत को एक पैसा भी लौटाया? क्या वे सिर्फ़ फ़ोकट का खाना ही जानते हैं, चुकाना नहीं?
गलती पूरी तरह से उनकी भी नहीं है, नेहरु ने अपनी गलतियों से जिस कश्मीर को हमारी छाती पर बोझ बना दिया था, उसे ढोने में सभी सरकारें लगी हुई हैं… जो वर्ग विशेष को खुश करने के चक्कर में कश्मीरियों की परवाह करती रहती हैं। ये जो बार-बार मीडियाई भाण्ड, कश्मीरियों का गुस्सा, युवाओं का आक्रोश जैसी बात कर रहे हैं, यह आक्रोश और गुस्सा सिर्फ़ "पाकिस्तानी" भावना रखने वालों के दिल में ही है, बाकियों के दिल में नहीं, और यह लोग मशीनगनों से गोलियों की बौछार खाने की औकात ही रखते हैं जो कि उन्हें दिखाई भी जानी चाहिये…, उलटे यहाँ तो सेना पूरी तरह से हटाने की बात हो रही है। अलगाववादियों से सहानुभूति रखने वाला देशभक्त हो ही नहीं सकता, उन्हें जो भी सहानुभूति मिलेगी वह विदेश से…। चीन ने जैसे थ्येन-आनमन चौक में विद्रोह को कुचलकर रख दिया था… अब तो वैसा ही करना पड़ेगा। कश्मीर को 5 साल के लिये पूरी तरह सेना के हवाले करो, अलगाववादी नेताओं को गिरफ़्तार करके जेल में सड़ाओ या उड़ाओ, धारा 370 खत्म करके जम्मू से हिन्दुओं को कश्मीर में बसाना शुरु करो और उधर का जनसंख्या सन्तुलन बदलो…विभिन्न प्रचार माध्यमों से मूर्ख कश्मीरी उग्रवादी नेताओं और "भटके हुए नौजवानों"(?) को समझाओ कि भारत के बिना उनकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं है… क्योंकि यदि वे पाकिस्तान में जा मिले तो नर्क मिलेगा और उनकी बदकिस्मती से "आज़ाद कश्मीर"(?) बन भी गया तो अमेरिका वहाँ किसी न किसी बहाने कदम जमायेगा…, अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी की परवाह मत करो… पाकिस्तान जब भी कश्मीर राग अलापे, पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर का मुद्दा जोरशोर से उठाओ…ऐसे कई-कई कदम हैं, जो तभी उठ पायेंगे, जब मीडिया सरकार का साथ दे और "अमन की आशा" जैसी नॉस्टैल्जिक उलटबाँसियां न करे…।
लेकिन अमेरिका क्या कहेगा, पाकिस्तान क्या सोचेगा, संयुक्त राष्ट्र क्या करेगा, चीन से सम्बन्ध खराब तो नहीं होंगे जैसी "मूर्खतापूर्ण और डरपोक सोचों" की वजह से ही हमने इस देश और कश्मीर का ये हाल कर रखा है… कांग्रेस आज कश्मीर को स्वायत्तता देगी, कल असम को, परसों पश्चिम बंगाल को, फ़िर मणिपुर और केरल को…? इज़राइल तो बहुत दूर है… हमारे पड़ोस में श्रीलंका जैसे छोटे से देश ने तमिल आंदोलन को कुचलकर दिखा दिया कि यदि नेताओं में "रीढ़ की हड्डी" मजबूत हो, जनता में देशभक्ति का जज़्बा हो और मीडिया सकारात्मक रुप से देशहित में सोचे तो बहुत कुछ किया जा सकता है…
क्लिक करके कश्मीर से सम्बन्धित लेखक निम्न लेख अवश्य पढ़ें…
http://blog.sureshchiplunkar.com/2010/03/umar-abdullah-kashmir-stone-pelters.html
http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/09/compensation-to-criminal-and-pension-to.html
http://blog.sureshchiplunkar.com/2008/07/kashmir-drastic-liability-on-india.html
http://blog.sureshchiplunkar.com/2008/07/kashmir-issue-india-pakistan-secularism.html
Kashmir Autonomy Proposal, Manmohan Singh and Kashmir Issue, Jammu Kashmir and Pakistan Politics, Aman ki Aasha and Indian Media, Subsidy to Jammu and Kashmir, Indian Government Projects in Kashmir, Dal Lake and Srinagar, Stone Pelting in Kashmir, Freedom Agitation in Kashmir, कश्मीर को स्वायत्तता, कश्मीर की आज़ादी और भारतीय मीडिया, कश्मीर को सब्सिडी और सहायता, कश्मीर में पत्थरबाजी, कश्मीर का आंदोलन, अमरनाथ यात्रा, अमन की आशा और भारतीय मीडिया, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
इतने गम्भीर मुद्दे पर राष्ट्रीय मीडिया, अखबारों और चैनलों की ठण्डी प्रतिक्रिया और शून्य कवरेज भी आश्चर्य पैदा करने वाला है। प्रधानमंत्री के इस बयान के बावजूद, मीडिया क्या दिखा रहा है? 1) शाहरुख खान ने KKR के लिये पाकिस्तानी खिलाड़ी को खरीदा और पाकिस्तान के खिलाड़ियों का समर्थन किया… 2) राहुल गाँधी की लोकप्रियता में भारी उछाल…, 3) पीपली लाइव की लॉंचिंग… आदि-आदि-आदि। आप कहेंगे कि मीडिया तो बार-बार कश्मीर की हिंसा की खबरें दिखा रहा है… जी हाँ ज़रूर दिखा रहा है, लेकिन हेडलाइन, बाइलाइन, टिकर और स्क्रीन में नीचे चलने वाले स्क्रोल में अधिकतर आपको "कश्मीर में गुस्सा…", "कश्मीर का युवा आक्रोशित…", "कश्मीर में सुरक्षा बलों पर आक्रोशित युवाओं की पत्थरबाजी…" जैसी खबरें दिखाई देंगी। सवाल उठता है कि क्या मीडिया और चैनलों में राष्ट्रबोध नाम की चीज़ एकदम खत्म हो गई है? या ये किसी के इशारे पर इस प्रकार की हेडलाइनें दिखाते हैं?
कश्मीर में गुस्सा, आक्रोश? किस बात पर आक्रोश? और किस पर गुस्सा? भारत की सरकार पर? लेकिन भारत सरकार (यानी प्रकारान्तर से करोड़ों टैक्स भरने वाले) तो इन कश्मीरियों को 60 साल से पाल-पोस रहे हैं, फ़िर किस बात का आक्रोश? भारत की सरकार के कई कानून वहाँ चलते नहीं, कुछ को वे मानते नहीं, उनका झण्डा अलग है, उनका संविधान अलग है, भारत का नागरिक वहाँ ज़मीन खरीद नहीं सकता, धारा 370 के तहत विशेषाधिकार मिला हुआ है, हिन्दुओं (कश्मीरी पण्डितों) को बाकायदा "धार्मिक सफ़ाये" के तहत कश्मीर से बाहर किया जा चुका है… फ़िर किस बात का गुस्सा है भई? कहीं यह हरामखोरी की चर्बी तो नहीं? लगता तो यही है। वरना क्या कारण है कि 14-15 साल के लड़के से लेकर यासीन मलिक, गिलानी और अब्दुल गनी लोन जैसे बुज़ुर्ग भी भारत सरकार से, जब देखो तब खफ़ा रहते हैं।
जबकि दूसरी तरफ़ देखें तो भारत के नागरिक, हिन्दू संगठन, तमाम टैक्स देने वाले और भारत को अखण्ड देखने की चाह रखने वाले देशप्रेमी… जिनको असल में गुस्सा आना चाहिये, आक्रोशित होना चाहिये, नाराज़ी जताना चाहिये… वे नपुंसक की तरह चुपचाप बैठे हैं और "स्वायत्तता" का राग सुन रहे हैं? कोई भी उठकर ये सवाल नहीं करता कि कश्मीर के पत्थरबाजों को पालने, यासीन मलिक जैसे देशद्रोहियों को दिल्ली लाकर पाँच सितारा होटलों में रुकवाने और भाषण करवाने के लिये हम टैक्स क्यों दें? किसी राजदीप या बुरका दत्त ने कभी किसी कश्मीरी पण्डित का इंटरव्यू लिया कि उसमें कितना आक्रोश है? लाखों हिन्दू लूटे गये, बलात्कार किये गये, उनके मन्दिर तोड़े गये, क्योंकि गिलानी के पाकिस्तानी आका ऐसा चाहते थे, तो जिन्हें गुस्सा आया होगा कभी उन्हें किसी चैनल पर दिखाया? नहीं दिखाया, क्यों? क्या आक्रोशित होने और गुस्सा होने का हक सिर्फ़ कश्मीर के हुल्लड़बाजों को ही है, राष्ट्रवादियों को नहीं?
लेकिन जैसे ही "राष्ट्रवाद" की बात की जाती है, मीडिया को हुड़हुड़ी का बुखार आ जाता है, राष्ट्रवाद की बात करना, हिन्दू हितों की बात करना तो मानो वर्जित ही है… किसी टीवी एंकर की औकात नहीं है कि वह कश्मीरी पण्डितों की दुर्गति और नारकीय परिस्थितियों पर कोई कार्यक्रम बनाये और उसे हेडलाइन बनाकर जोर-शोर से प्रचारित कर सके, कोई चैनल देश को यह नहीं बताता कि आज तक कश्मीर के लिये भारत सरकार ने कितना-कुछ किया है, क्योंकि उनके मालिकों को "पोलिटिकली करेक्ट" रहना है, उन्हें कांग्रेस को नाराज़ नहीं करना है… स्वाभाविक सी बात है कि तब जनता पूछेगी कि इतना पैसा खर्च करने के बावजूद कश्मीर में बेरोज़गारी क्यों है? पिछले 60 साल से कश्मीर में किसकी हुकूमत चल रही थी? दिल्ली में बैठे सूरमा, खरबों रुपये खर्च करने बावजूद कश्मीर में शान्ति क्यों नहीं ला सके? ऐसे असुविधाजनक सवालों से "सेकुलरिज़्म" बचना चाहता है, इसलिये हमें समझाया जा रहा है कि "कश्मीरी युवाओं में आक्रोश और गुस्सा" है।
इधर अपने देश में गद्दार किस्म का मीडिया है, प्रस्तुत चित्र में देखिये "नवभारत टाइम्स अखबार" फ़ोटो के कैप्शन में लिखता है "कश्मीरी मुसलमान महिला" और "भारतीय पुलिसवाला", क्या मतलब है इसका? क्या नवभारत टाइम्स इशारा करना चाहता है कि कश्मीर भारत से अलग हो चुका है और भारतीय पुलिस(?) कश्मीरी मुस्लिमों पर अत्याचार कर रही है? यही तो पाकिस्तानी और अलगाववादी कश्मीरी भी कहते हैं… मजे की बात तो यह कि यही मीडिया संस्थान "अमन की आशा" टाइप के आलतू-फ़ालतू कार्यक्रम भी आयोजित कर लेते हैं। जबकि उधर पाकिस्तान में उच्च स्तर पर सभी के सभी लोग कश्मीर को भारत से अलग करने में जी-जान से जुटे हैं, इसका सबूत यह है कि हाल ही में जब संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान किं मून ने कश्मीर के सन्दर्भ में अपना विवादास्पद बयान पढ़ा था (बाद में उन्होंने कहा कि यह उनका मूल बयान नहीं है)... असल में बान के बयान का मजमून बदलने वाला व्यक्ति संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान का प्रवक्ता फ़रहान हक है, जिसने मूल बयान में हेराफ़ेरी करके उसमें "कश्मीर" जोड़ दिया। फ़रहान हक ने तो अपने देश के प्रति देशभक्ति दिखाई, लेकिन भारत के तथाकथित सेकुलरिज़्म के पैरोकार क्यों अपना मुँह सिले बैठे रहते हैं? जमाने भर में दाऊद इब्राहीम का पता लेकर घूमते रहते हैं… दाऊद यहाँ है, दाऊद वहाँ है, दाऊद ने आज खाना खाया, दाऊद ने आज पानी पिया… अरे भाई, देश की जनता को इससे क्या मतलब? देश की जनता तो तब खुश होगी, जब सरकार "रॉ" जैसी संस्था के आदमियों की मदद से दाऊद को पाकिस्तान में घुसकर निपटा दें… और फ़िर मीडिया भारत की सरकार का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर गुणगान करे… यह तो मीडिया और सरकार से बनेगा नहीं… इसलिये "अमन की आशा" का राग अलापते हैं…।
दिल्ली और विभिन्न राज्यों में एक "अल्पसंख्यक आयोग" और "मानवाधिकार आयोग" नाम के दो "बिजूके" बैठे हैं, लेकिन इनकी निगाह में कश्मीरी हिन्दुओं का कोई मानवाधिकार नहीं है, गलियों से आकर पत्थर मारने वाले, गोलियाँ चलाने वालों से सहानुभूति है, लेकिन अपने घर-परिवार से दूर रहकर 24 घण्टे अपनी ड्यूटी निभाने वाले सैनिक के लिये कोई मानवाधिकार नहीं? मार-मारकर भगाये गये कश्मीरी पण्डित इनकी निगाह में "अल्पसंख्यक" नहीं हैं, क्योंकि "अल्पसंख्यक" की परिभाषा भी तो इन्हीं कांग्रेसियों द्वारा गढ़ी गई है। मनमोहन सिंह जी को यह कहना तो याद रहता है कि "देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है…", लेकिन कश्मीरी पंडितों के दर्द और लाखों अमरनाथ यात्रियों के वाजिब हक के मुद्दे पर उनके मुँह में दही जम जाता है। वाकई में गाँधीवादियों, सेकुलरों और मीडिया ने मिलकर एकदम "बधियाकरण" ही कर डाला है देश का… देशहित से जुड़े किसी मुद्दे पर कोई सार्थक बहस नहीं, भारत के हितों से जुड़े मुद्दों पर देश का पक्ष लेने की बजाय, या तो विदेशी ताकतों का गुणगान या फ़िर देशविरोधी ताकतों के प्रति सहानुभूति पैदा करना… आखिर कितना गिरेगा हमारा मीडिया?
अब जबकि खरबों रुपये खर्च करने के बावजूद कश्मीर की स्थिति 20 साल पहले जैसी ही है, तो समय आ गया है कि हमें गिलानी-यासीन जैसों से दो-टूक बात करनी चाहिये कि आखिर किस प्रकार की आज़ादी चाहते हैं वे? कैसी स्वायत्तता चाहिये उन्हें? क्या स्वायत्तता का मतलब यही है कि भारत उन लोगों को अपने आर्थिक संसाधनों से पाले-पोसे, वहाँ बिजली परियोजनाएं लगाये, बाँध बनाये… यहाँ तक कि डल झील की सफ़ाई भी केन्द्र सरकार करवाये? उनसे पूछना चाहिये कि 60 साल में भारत सरकार ने जो खरबों रुपया दिया, उसका क्या हुआ? उसके बदले में पत्थरबाजों और उनके आकाओं ने भारत को एक पैसा भी लौटाया? क्या वे सिर्फ़ फ़ोकट का खाना ही जानते हैं, चुकाना नहीं?
गलती पूरी तरह से उनकी भी नहीं है, नेहरु ने अपनी गलतियों से जिस कश्मीर को हमारी छाती पर बोझ बना दिया था, उसे ढोने में सभी सरकारें लगी हुई हैं… जो वर्ग विशेष को खुश करने के चक्कर में कश्मीरियों की परवाह करती रहती हैं। ये जो बार-बार मीडियाई भाण्ड, कश्मीरियों का गुस्सा, युवाओं का आक्रोश जैसी बात कर रहे हैं, यह आक्रोश और गुस्सा सिर्फ़ "पाकिस्तानी" भावना रखने वालों के दिल में ही है, बाकियों के दिल में नहीं, और यह लोग मशीनगनों से गोलियों की बौछार खाने की औकात ही रखते हैं जो कि उन्हें दिखाई भी जानी चाहिये…, उलटे यहाँ तो सेना पूरी तरह से हटाने की बात हो रही है। अलगाववादियों से सहानुभूति रखने वाला देशभक्त हो ही नहीं सकता, उन्हें जो भी सहानुभूति मिलेगी वह विदेश से…। चीन ने जैसे थ्येन-आनमन चौक में विद्रोह को कुचलकर रख दिया था… अब तो वैसा ही करना पड़ेगा। कश्मीर को 5 साल के लिये पूरी तरह सेना के हवाले करो, अलगाववादी नेताओं को गिरफ़्तार करके जेल में सड़ाओ या उड़ाओ, धारा 370 खत्म करके जम्मू से हिन्दुओं को कश्मीर में बसाना शुरु करो और उधर का जनसंख्या सन्तुलन बदलो…विभिन्न प्रचार माध्यमों से मूर्ख कश्मीरी उग्रवादी नेताओं और "भटके हुए नौजवानों"(?) को समझाओ कि भारत के बिना उनकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं है… क्योंकि यदि वे पाकिस्तान में जा मिले तो नर्क मिलेगा और उनकी बदकिस्मती से "आज़ाद कश्मीर"(?) बन भी गया तो अमेरिका वहाँ किसी न किसी बहाने कदम जमायेगा…, अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी की परवाह मत करो… पाकिस्तान जब भी कश्मीर राग अलापे, पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर का मुद्दा जोरशोर से उठाओ…ऐसे कई-कई कदम हैं, जो तभी उठ पायेंगे, जब मीडिया सरकार का साथ दे और "अमन की आशा" जैसी नॉस्टैल्जिक उलटबाँसियां न करे…।
लेकिन अमेरिका क्या कहेगा, पाकिस्तान क्या सोचेगा, संयुक्त राष्ट्र क्या करेगा, चीन से सम्बन्ध खराब तो नहीं होंगे जैसी "मूर्खतापूर्ण और डरपोक सोचों" की वजह से ही हमने इस देश और कश्मीर का ये हाल कर रखा है… कांग्रेस आज कश्मीर को स्वायत्तता देगी, कल असम को, परसों पश्चिम बंगाल को, फ़िर मणिपुर और केरल को…? इज़राइल तो बहुत दूर है… हमारे पड़ोस में श्रीलंका जैसे छोटे से देश ने तमिल आंदोलन को कुचलकर दिखा दिया कि यदि नेताओं में "रीढ़ की हड्डी" मजबूत हो, जनता में देशभक्ति का जज़्बा हो और मीडिया सकारात्मक रुप से देशहित में सोचे तो बहुत कुछ किया जा सकता है…
क्लिक करके कश्मीर से सम्बन्धित लेखक निम्न लेख अवश्य पढ़ें…
http://blog.sureshchiplunkar.com/2010/03/umar-abdullah-kashmir-stone-pelters.html
http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/09/compensation-to-criminal-and-pension-to.html
http://blog.sureshchiplunkar.com/2008/07/kashmir-drastic-liability-on-india.html
http://blog.sureshchiplunkar.com/2008/07/kashmir-issue-india-pakistan-secularism.html
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बुधवार, 11 अगस्त 2010 13:43
बराक हुसैन ओबामा भी "इंडियन स्टाइल सेकुलरवाद" की राह पर??…… Obama India Tour American Secularism
जैसा सभी जानते हैं कि भारत की तथाकथित "सेकुलर" सरकारें पिछले 60 साल से लगातार "छद्म-सेकुलरवाद" की राह पर चलती आई हैं, जहाँ सेकुलरिज़्म का मतलब किसी अंग्रेजी की डिक्शनरी से नहीं, बल्कि मुस्लिम वोटों को अपनी तरफ़ खींचने की बेशर्मी का दूसरा नाम रहा है। जॉर्ज बुश भले ही पूरी इस्लामिक दुनिया में खलनायक की छवि रखते हों, लेकिन उनके उत्तराधिकारी बराक "हुसैन" ओबामा धीरे-धीरे भारत की तमाम राजनैतिक पार्टियों वाले "सेकुलर पाखण्ड" को अपनाते जा रहे हैं, तर्क दिया जा रहा है कि हमें "मुस्लिमों का दिल जीतना…" है। भारत से तुलना इसलिये कर रहा हूं, क्योंकि ठीक यहाँ की तरह, वहाँ भी "भाण्डनुमा मीडिया" बराक हुसैन की हाँ में हाँ मिलाते हुए "सेकुलरिज़्म" का फ़टा हुआ झण्डा लहराने से बाज नहीं आ रहा।
ताज़ा मामला यह है कि इन दिनों अमेरिका में जोरदार बहस चल रही है कि 9/11 के हमले में ध्वस्त हो चुकी "ट्विन टावर" की खाली जगह (जिसे वे ग्राउण्ड जीरो कहते हैं) पर एक विशालकाय 13 मंजिला मस्जिद बनाई जाये अथवा नहीं? स्पष्ट रुप से इस मुद्दे पर दो धड़े आपस में बँट चुके हैं, जिसमें एक तरफ़ आम जनता है, जो कि उस खाली जगह पर मस्जिद बनाने के पक्ष में बिलकुल भी नहीं है, जबकि दूसरी तरफ़ सत्ता-तन्त्र के चमचे अखबार, कुछ "पोलिटिकली करेक्ट" सेकुलर नेता और कुछ "सेकुलरिज़्म" का ढोंग ओढ़े हुए छद्म बुद्धिजीवी इत्यादि हैं, यानी कि बिलकुल भारत की तरह का मामला है, जहाँ बहुसंख्यक की भावना का कोई खयाल नहीं है।
जिस जगह पर और जिस इमारत के गिरने पर 3000 से अधिक लोगों की जान गई, जिस मलबे के ढेर में कई मासूम जानों ने अपना दम तोड़ा, कई-कई दिनों तक अमेरिकी समाज के लोगों ने इस जगह पर आकर अपने परिजनों को भीगी पलकों से याद किया, आज उस ग्राउण्ड जीरो पर मस्जिद का निर्माण करने का प्रस्ताव बेहद अजीबोगरीब और उन मृतात्माओं तथा उनके परिजनों पर भीषण किस्म का मानसिक अत्याचार ही है, लेकिन बराक हुसैन ओबामा और पोलिटिकली करेक्ट मीडिया को कौन समझाये? ग्राउण्ड जीरो पर मस्जिद बनाने का बेहूदा प्रस्ताव कौन लाया यह तो अभी पता नहीं चला है लेकिन भारतीय नेताओं के सिर पर बैठा हुआ "सेकुलरिज़्म का भूत" अब ओबामा के सिर भी सवार हो गया लगता है। जब से ओबामा ने कार्यभार संभाला है तब से सिलसिलेवार कई घटनाएं हुई हैं जो उनके "इंडियन स्टाइल सेकुलरिज़्म" से पीड़ित होने का आभास कराती हैं।
यह तो सभी को याद होगा कि जब ओबामा पहली बार मिस्त्र के दौरे पर गये थे, तब उन्होंने भाषण का सबसे पहला शब्द "अस्सलामवलैकुम" कहा था और जोरदार तालियाँ बटोरी थीं, उसके बाद से लगातार कम से कम नौ मौकों पर सार्वजनिक रुप से ओबामा ने "I am a Moslem...American Moslem" कहा है, जिस पर कई अमेरिकियों और ईसाईयों की भृकुटि तन गई थी। चलो यहाँ तक तो ठीक है, "अस्सलामवलैकुम" वगैरह कहना या वे किस धर्म को मानते हैं यह घोषित करना, यह कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन सऊदी अरब और जापान के दौरे के समय जिस तरीके से ओबामा ने सऊदी के शाह और जापान के राजकुमार से हाथ मिलाते समय अपनी कमर का 90 डिग्री का कोण बनाया उससे वे हास्यास्पद और कमजोर अमेरिकी राष्ट्रपति नज़र आये थे…(यहाँ देखें...)।
बहरहाल, बात हो रही है बराक हुसैन ओबामा के मुस्लिम प्रेम और उनके सेकुलर(?) होने के झुकाव की…। आगामी नवम्बर में ओबामा का भारत दौरा प्रस्तावित है, जहाँ एक तरफ़ भारत की "सेकुलर" सरकार उनकी इस यात्रा की तैयारी में लगी है, वहीं दूसरी तरफ़ अमेरिकी सरकार भी इस दौरे का उपयोग अपनी "सेकुलर" (बल्कि पोलिटिकली करेक्ट) होने की छवि को मजबूत करने के लिये करेगी। विगत 6 माह के भीतर अमेरिका के सर्वोच्च अधिकारियों की टीम में से एक, श्री राशिद हुसैन ने मुम्बई की माहिम दरगाह का दो बार दौरा किया है, इस वजह से अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि बराक हुसैन माहिम की दरगाह पर फ़ूल चढ़ाने जायेंगे। दरगाह के ट्रस्टी सुहैल खाण्डवानी ने कहा कि ओबामा भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति जानने के लिये उत्सुक हैं। ध्यान दीजिये… पहले भी अमेरिका का एक दस्ता USCIRF के नाम से उड़ीसा में ईसाईयों की स्थिति जानने के लिये असंवैधानिक तौर पर आया था, और अब ओबामा भी अल्पसंख्यकों (यानी मुस्लिमों) की भारत में स्थिति जानने आ रहे हैं… भारत की सरकार पहले भी USCIRF के सामने लाचार दिखी थी, और अब भी यही होगा। ये हाल तब हैं, जबकि अमेरिका को अपने कबाड़ा हो चुके परमाणु रिएक्टर भारत को बेचने हैं, और मनमोहन सरकार नवम्बर से पहले ओबामा को खुश करने के लिये विधेयक पारित करके रहेगी।
खैर… अमेरिकी अधिकारी रशद हुसैन ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का भी दो बार दौरा किया है और हो सकता है कि भारत सरकार भी उन्हें वहाँ ले जाने को उत्सुक हो, क्योंकि "मुस्लिमों का दिल जीतना है…"(?)। हालांकि माहिम दरगाह के ट्रस्ट ने कहा है कि ओबामा की सुरक्षा से सम्बन्धित खोजी कुत्तों द्वारा जाँच, दरगाह के अन्दर नहीं की जायेगी। रशद हुसैन के पूर्वज बिहार से ही हैं और वे इस्लामिक मामलों के जानकार माने जाते हैं इसीलिये ओबामा ने भारत की यात्रा में उन्हें अपने साथ रखने का फ़ैसला किया है। रशद हुसैन जल्दी ही अलीगढ़, मुम्बई, हैदराबाद और पटना का दौरा करेंगे, तथा मुस्लिम बुद्धिजीवियों और सरकारी अधिकारियों से मुस्लिमों का दिल जीतने के अभियान के तहत, चर्चा करेंगे…। रशद हुसैन के साथ कुरान के कुछ जानकार भी आ रहे हैं, जो विभिन्न मंत्रणा करने के साथ, बराक हुसैन ओबामा को कुछ "टिप्स"(?) भी देंगे।
उधर अमेरिका में 9/11 के ग्राउण्ड जीरो पर मस्जिद बनाने के प्रस्ताव पर भारी गर्मागर्मी शुरु हो चुकी है। कई परम्परावादी और कट्टर ईसाई इस प्रस्ताव को मुस्लिम आक्रांताओं के बढ़ते कदम के रुप में प्रचारित कर रही है। एक ईरानी मूल की मुस्लिम लड़की ने भी ओबामा को पत्र लिखकर मार्मिक अपील की है और कहा है कि उसकी अम्मी की पाक रुह इस स्थान पर आराम फ़रमा रही है और वह एक मुस्लिम होते हुए भी अमेरिकी नागरिक होने के नाते इस जगह पर मस्जिद बनाये जाने का पुरज़ोर विरोध करती है। इस लड़की ने मस्जिद को कहीं और बनाये जाने की अपील की है और कहा है कि उस खाली जगह पर कोई यादगार स्मारक बनाया जाना चाहिये जहाँ देश-विदेश से पर्यटक आयें और इस्लामिक आतंकवाद का खौफ़नाक रुप महसूस करें।
बराक हुसैन ओबामा फ़िलहाल इस पर विचार करना नहीं चाहते और वह मुस्लिमों का दिल जीतने की मुहिम लगे हुए हैं। सवाल उठता है, कि क्या ऐसा करने से वाकई मुस्लिमों का दिल जीता जा सकता है? हो सकता है कि चन्द नेकदिल और ईमानपसन्द मुस्लिमों इस कदम से खुश भी हो जायें, लेकिन कट्टरपंथी मुस्लिमों का दिल ऐसे टोटकों से जीतना असम्भव है। बल्कि 9/11 के "ग्राउण्ड जीरो" पर मस्जिद बन जाने को वे अपनी "जीत" के रुप में प्रचारित करेंगे। महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ के मन्दिरों से लूटे गये जवाहरात और मूर्तियों को काबुल की मस्जिदों की सीढ़ियों पर लगाया गया था… हिन्दुओं के दिल में पैबस्त लगभग वैसा ही मंज़र, ग्राउण्ड जीरो पर मस्जिद बनाने को लेकर अमेरिकी ईसाईयों के दिल में रहेगा, इसीलिये इसका जोरदार विरोध भी हो रहा है, लेकिन ओबामा के कानों पर जूं नहीं रेंग रही।
मुस्लिम विश्वविद्यालयों में जाना, मज़ारों पर चादरें और फ़ूल चढ़ाना, जालीदार टोपी पहनकर उलेमाओं के साथ तस्वीर खिंचवाना, रमज़ान के महीने में मुस्लिम मोहल्लों में जाकर हें-हें-हें-हें करते हुए दाँत निपोरते इफ़्तार पार्टियाँ देना इत्यादि भारतीय नेताओं के ढोंग-ढकोसले हैं, समझ नहीं आता कि बराक हुसैन ओबामा इन चक्करों में कैसे पड़ गये, ऐसी "सेकुलर" गुलाटियाँ खाने से मुस्लिमों का दिल कैसे जीता जा सकता है? नतीजतन सिर्फ़ एक साल के भीतर ही ओबामा की लोकप्रियता में जबरदस्त गिरावट आई है, और अमेरिकी लोग जैसा "मजबूत" और दूरदृष्टा राष्ट्रपति चाहते हैं, ओबामा अब तक उस पर खरे नहीं उतरे हैं।
अफ़गानिस्तान में जॉर्ज बुश ने अपने ऑपरेशन का नाम दिया था, "ऑपरेशन इनफ़िनिट जस्टिस" (अर्थात ऑपरेशन "अनन्त न्याय") लेकिन ओबामा ने उसे बदलकर "ऑपरेशन एन्ड्यूरिंग फ़्रीडम" (अर्थात ऑपरेशन "स्थायी स्वतंत्रता") कर दिया, क्योंकि मुस्लिमों के एक समूह को आपत्ति थी कि "इन्फ़िनिट जस्टिस" (अनन्त न्याय) सिर्फ़ अल्लाह ही दे सकता है…। किसी को "झुकने" के लिये कहा जाये और वह लेट जाये, ऐसी फ़ितरत तो भारत की सरकारों में होती है, अमेरिकियों में नहीं। स्वाभाविक तौर पर मस्जिद बनाने की इस मुहिम से कट्टरपंथी ईसाई और परम्परागत अमेरिकी समाज आहत और नाराज़ है, बराक हुसैन ओबामा दोनों समुदायों को एक साथ साधकर नहीं रख सकते।
इसी नाराजी और गुस्से का परिणाम है, डव वर्ल्ड आउटरीच सेंटर के वरिष्ठ पादरी डॉक्टर टेरी जोंस द्वारा आगामी 9/11 के दिन आव्हान किया गया "कुरान जलाओ दिवस" (Burn a Koran Day)। टेरी जोंस के इस अभियान (यहाँ देखें…) को ईसाई और अन्य पश्चिमी समाज में जोरदार समर्थन मिल रहा है, और जैसा कि हटिंगटन और बुश ने "जेहाद" और "क्रूसेड" की अवधारणा को हवा दी, उसी के छोटे स्वरूप में कुछ अनहोनी होने की सम्भावना भी जताई जा रही है। डॉक्टर टेरी जोंस का कहना है कि वे अपने तरीके से 9/11 की मृतात्माओं को श्रद्धांजलि देने का प्रयास कर रहे हैं। डॉ जोंस ने कहा है कि चूंकि ओसामा बिन लादेन ने इस्लाम का नाम लेकर ट्विन टावर ढहाये हैं, इसलिये यह उचित है। मामला गर्मा गया है, इस्लामी समूहों द्वारा यूरोप के देशों में इस मुहिम के खिलाफ़ प्रदर्शन शुरु हो चुके हैं, भारत में भी इसके खिलाफ़ उग्र प्रदर्शन हो रहे हैं। यदि बराक हुसैन ओबामा वाकई इस्लामिक कट्टरपंथियों से निपटना चाहते हैं तो उन्हें बहुसंख्यक उदारवादी मुस्लिमों को बढ़ावा देना चाहिये, उदारवादी मुस्लिम निश्चित रूप से संख्या में बहुत ज्यादा हैं, लेकिन चूंकि उन्हें सरकारों का नैतिक समर्थन नहीं मिलता इसलिये कट्टरपंथियों द्वारा वे पीछे धकेल दिये जाते हैं। ज़रा कल्पना कीजिये कि यदि तीन-चौथाई बहुमत से जीते हुए राजीव गाँधी, शाहबानो मामले में आरिफ़ मोहम्मद खान के समर्थन में डटकर खड़े हो जाते तो न सिर्फ़ मुस्लिम महिलाओं के दिल में उनके प्रति छवि मजबूत होती, बल्कि कट्टरपंथियों के हौसले भी पस्त हो जाते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बराक हुसैन ओबामा को भी विश्व के उदारवादी मुस्लिम नेताओं को साथ लेकर अलगाववादी तत्वों पर नकेल कसनी होगी, लेकिन वे उल्टी दिशा में ही जा रहे हैं…
कुल मिलाकर सार यह है कि बराक हुसैन ओबामा "इंडियन स्टाइल" के सेकुलरिज़्म को बढ़ावा देकर नफ़रत के बीज बो रहे हैं, बहुसंख्यक अमेरिकियों की भावनाओं को ठेस पहुँचाकर वे दोनों समुदायों के बीच वैमनस्य को बढ़ावा दे रहे हैं…
(क्या कहा??? इस बात पर आपको भारत की महान पार्टी कांग्रेस की याद आ गई…? स्वाभाविक है…। लेकिन अमेरिका, भारत नहीं है तथा अमेरिकी ईसाई, हिन्दुओं जैसे सहनशील नहीं हैं… छद्म सेकुलरिज़्म और वोट बैंक की राजनीति का दंश अब केरल में वामपंथी भी झेल रहे हैं… इसलिये देखते जाईये कि ओबामा की ये कोशिशें क्या रंग लाती हैं और इस मामले में आगे क्या-क्या होता है…)।
==============
जाते-जाते एक हथौड़ा :- यदि कोई आपसे कहे कि 26/11 को यादगार बनाने और पाकिस्तान का दिल जीतने के लिये मुम्बई के ताज होटल की छत पर एक मस्जिद बना दी जाये, तो आपको जैसा महसूस होगा… ठीक वैसा ही इस समय अमेरिकियों को लग रहा है…
Reference : http://www.mid-day.com/news/2010/aug/040810-mahim-dargah-barack-obama-special-envoy-rashad-hussain.htm
Barak Hussain Obama, Obama Muslim Appeasement, Obama's India Tour, Obama's Indonesia Tour, Rashad Hussain Aligarh Muslim University Tour, Mahim Dargah and Obama, US President and Moslems, Church and Islam, Christianity and Islam Confrontation, Burn a Kuran Day, 9/11 Ground Zero and Mosque, बराक हुसैन ओबामा, अमेरिका का मुस्लिम प्रेम, ओबामा की भारत यात्रा, ओबामा माहिम दरगाह और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, 9/11 ग्राउंड जीरो और मस्जिद, ईसाईयत और इस्लाम संघर्ष, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
ताज़ा मामला यह है कि इन दिनों अमेरिका में जोरदार बहस चल रही है कि 9/11 के हमले में ध्वस्त हो चुकी "ट्विन टावर" की खाली जगह (जिसे वे ग्राउण्ड जीरो कहते हैं) पर एक विशालकाय 13 मंजिला मस्जिद बनाई जाये अथवा नहीं? स्पष्ट रुप से इस मुद्दे पर दो धड़े आपस में बँट चुके हैं, जिसमें एक तरफ़ आम जनता है, जो कि उस खाली जगह पर मस्जिद बनाने के पक्ष में बिलकुल भी नहीं है, जबकि दूसरी तरफ़ सत्ता-तन्त्र के चमचे अखबार, कुछ "पोलिटिकली करेक्ट" सेकुलर नेता और कुछ "सेकुलरिज़्म" का ढोंग ओढ़े हुए छद्म बुद्धिजीवी इत्यादि हैं, यानी कि बिलकुल भारत की तरह का मामला है, जहाँ बहुसंख्यक की भावना का कोई खयाल नहीं है।
जिस जगह पर और जिस इमारत के गिरने पर 3000 से अधिक लोगों की जान गई, जिस मलबे के ढेर में कई मासूम जानों ने अपना दम तोड़ा, कई-कई दिनों तक अमेरिकी समाज के लोगों ने इस जगह पर आकर अपने परिजनों को भीगी पलकों से याद किया, आज उस ग्राउण्ड जीरो पर मस्जिद का निर्माण करने का प्रस्ताव बेहद अजीबोगरीब और उन मृतात्माओं तथा उनके परिजनों पर भीषण किस्म का मानसिक अत्याचार ही है, लेकिन बराक हुसैन ओबामा और पोलिटिकली करेक्ट मीडिया को कौन समझाये? ग्राउण्ड जीरो पर मस्जिद बनाने का बेहूदा प्रस्ताव कौन लाया यह तो अभी पता नहीं चला है लेकिन भारतीय नेताओं के सिर पर बैठा हुआ "सेकुलरिज़्म का भूत" अब ओबामा के सिर भी सवार हो गया लगता है। जब से ओबामा ने कार्यभार संभाला है तब से सिलसिलेवार कई घटनाएं हुई हैं जो उनके "इंडियन स्टाइल सेकुलरिज़्म" से पीड़ित होने का आभास कराती हैं।
यह तो सभी को याद होगा कि जब ओबामा पहली बार मिस्त्र के दौरे पर गये थे, तब उन्होंने भाषण का सबसे पहला शब्द "अस्सलामवलैकुम" कहा था और जोरदार तालियाँ बटोरी थीं, उसके बाद से लगातार कम से कम नौ मौकों पर सार्वजनिक रुप से ओबामा ने "I am a Moslem...American Moslem" कहा है, जिस पर कई अमेरिकियों और ईसाईयों की भृकुटि तन गई थी। चलो यहाँ तक तो ठीक है, "अस्सलामवलैकुम" वगैरह कहना या वे किस धर्म को मानते हैं यह घोषित करना, यह कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन सऊदी अरब और जापान के दौरे के समय जिस तरीके से ओबामा ने सऊदी के शाह और जापान के राजकुमार से हाथ मिलाते समय अपनी कमर का 90 डिग्री का कोण बनाया उससे वे हास्यास्पद और कमजोर अमेरिकी राष्ट्रपति नज़र आये थे…(यहाँ देखें...)।
बहरहाल, बात हो रही है बराक हुसैन ओबामा के मुस्लिम प्रेम और उनके सेकुलर(?) होने के झुकाव की…। आगामी नवम्बर में ओबामा का भारत दौरा प्रस्तावित है, जहाँ एक तरफ़ भारत की "सेकुलर" सरकार उनकी इस यात्रा की तैयारी में लगी है, वहीं दूसरी तरफ़ अमेरिकी सरकार भी इस दौरे का उपयोग अपनी "सेकुलर" (बल्कि पोलिटिकली करेक्ट) होने की छवि को मजबूत करने के लिये करेगी। विगत 6 माह के भीतर अमेरिका के सर्वोच्च अधिकारियों की टीम में से एक, श्री राशिद हुसैन ने मुम्बई की माहिम दरगाह का दो बार दौरा किया है, इस वजह से अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि बराक हुसैन माहिम की दरगाह पर फ़ूल चढ़ाने जायेंगे। दरगाह के ट्रस्टी सुहैल खाण्डवानी ने कहा कि ओबामा भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति जानने के लिये उत्सुक हैं। ध्यान दीजिये… पहले भी अमेरिका का एक दस्ता USCIRF के नाम से उड़ीसा में ईसाईयों की स्थिति जानने के लिये असंवैधानिक तौर पर आया था, और अब ओबामा भी अल्पसंख्यकों (यानी मुस्लिमों) की भारत में स्थिति जानने आ रहे हैं… भारत की सरकार पहले भी USCIRF के सामने लाचार दिखी थी, और अब भी यही होगा। ये हाल तब हैं, जबकि अमेरिका को अपने कबाड़ा हो चुके परमाणु रिएक्टर भारत को बेचने हैं, और मनमोहन सरकार नवम्बर से पहले ओबामा को खुश करने के लिये विधेयक पारित करके रहेगी।
खैर… अमेरिकी अधिकारी रशद हुसैन ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का भी दो बार दौरा किया है और हो सकता है कि भारत सरकार भी उन्हें वहाँ ले जाने को उत्सुक हो, क्योंकि "मुस्लिमों का दिल जीतना है…"(?)। हालांकि माहिम दरगाह के ट्रस्ट ने कहा है कि ओबामा की सुरक्षा से सम्बन्धित खोजी कुत्तों द्वारा जाँच, दरगाह के अन्दर नहीं की जायेगी। रशद हुसैन के पूर्वज बिहार से ही हैं और वे इस्लामिक मामलों के जानकार माने जाते हैं इसीलिये ओबामा ने भारत की यात्रा में उन्हें अपने साथ रखने का फ़ैसला किया है। रशद हुसैन जल्दी ही अलीगढ़, मुम्बई, हैदराबाद और पटना का दौरा करेंगे, तथा मुस्लिम बुद्धिजीवियों और सरकारी अधिकारियों से मुस्लिमों का दिल जीतने के अभियान के तहत, चर्चा करेंगे…। रशद हुसैन के साथ कुरान के कुछ जानकार भी आ रहे हैं, जो विभिन्न मंत्रणा करने के साथ, बराक हुसैन ओबामा को कुछ "टिप्स"(?) भी देंगे।
उधर अमेरिका में 9/11 के ग्राउण्ड जीरो पर मस्जिद बनाने के प्रस्ताव पर भारी गर्मागर्मी शुरु हो चुकी है। कई परम्परावादी और कट्टर ईसाई इस प्रस्ताव को मुस्लिम आक्रांताओं के बढ़ते कदम के रुप में प्रचारित कर रही है। एक ईरानी मूल की मुस्लिम लड़की ने भी ओबामा को पत्र लिखकर मार्मिक अपील की है और कहा है कि उसकी अम्मी की पाक रुह इस स्थान पर आराम फ़रमा रही है और वह एक मुस्लिम होते हुए भी अमेरिकी नागरिक होने के नाते इस जगह पर मस्जिद बनाये जाने का पुरज़ोर विरोध करती है। इस लड़की ने मस्जिद को कहीं और बनाये जाने की अपील की है और कहा है कि उस खाली जगह पर कोई यादगार स्मारक बनाया जाना चाहिये जहाँ देश-विदेश से पर्यटक आयें और इस्लामिक आतंकवाद का खौफ़नाक रुप महसूस करें।
बराक हुसैन ओबामा फ़िलहाल इस पर विचार करना नहीं चाहते और वह मुस्लिमों का दिल जीतने की मुहिम लगे हुए हैं। सवाल उठता है, कि क्या ऐसा करने से वाकई मुस्लिमों का दिल जीता जा सकता है? हो सकता है कि चन्द नेकदिल और ईमानपसन्द मुस्लिमों इस कदम से खुश भी हो जायें, लेकिन कट्टरपंथी मुस्लिमों का दिल ऐसे टोटकों से जीतना असम्भव है। बल्कि 9/11 के "ग्राउण्ड जीरो" पर मस्जिद बन जाने को वे अपनी "जीत" के रुप में प्रचारित करेंगे। महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ के मन्दिरों से लूटे गये जवाहरात और मूर्तियों को काबुल की मस्जिदों की सीढ़ियों पर लगाया गया था… हिन्दुओं के दिल में पैबस्त लगभग वैसा ही मंज़र, ग्राउण्ड जीरो पर मस्जिद बनाने को लेकर अमेरिकी ईसाईयों के दिल में रहेगा, इसीलिये इसका जोरदार विरोध भी हो रहा है, लेकिन ओबामा के कानों पर जूं नहीं रेंग रही।
मुस्लिम विश्वविद्यालयों में जाना, मज़ारों पर चादरें और फ़ूल चढ़ाना, जालीदार टोपी पहनकर उलेमाओं के साथ तस्वीर खिंचवाना, रमज़ान के महीने में मुस्लिम मोहल्लों में जाकर हें-हें-हें-हें करते हुए दाँत निपोरते इफ़्तार पार्टियाँ देना इत्यादि भारतीय नेताओं के ढोंग-ढकोसले हैं, समझ नहीं आता कि बराक हुसैन ओबामा इन चक्करों में कैसे पड़ गये, ऐसी "सेकुलर" गुलाटियाँ खाने से मुस्लिमों का दिल कैसे जीता जा सकता है? नतीजतन सिर्फ़ एक साल के भीतर ही ओबामा की लोकप्रियता में जबरदस्त गिरावट आई है, और अमेरिकी लोग जैसा "मजबूत" और दूरदृष्टा राष्ट्रपति चाहते हैं, ओबामा अब तक उस पर खरे नहीं उतरे हैं।
अफ़गानिस्तान में जॉर्ज बुश ने अपने ऑपरेशन का नाम दिया था, "ऑपरेशन इनफ़िनिट जस्टिस" (अर्थात ऑपरेशन "अनन्त न्याय") लेकिन ओबामा ने उसे बदलकर "ऑपरेशन एन्ड्यूरिंग फ़्रीडम" (अर्थात ऑपरेशन "स्थायी स्वतंत्रता") कर दिया, क्योंकि मुस्लिमों के एक समूह को आपत्ति थी कि "इन्फ़िनिट जस्टिस" (अनन्त न्याय) सिर्फ़ अल्लाह ही दे सकता है…। किसी को "झुकने" के लिये कहा जाये और वह लेट जाये, ऐसी फ़ितरत तो भारत की सरकारों में होती है, अमेरिकियों में नहीं। स्वाभाविक तौर पर मस्जिद बनाने की इस मुहिम से कट्टरपंथी ईसाई और परम्परागत अमेरिकी समाज आहत और नाराज़ है, बराक हुसैन ओबामा दोनों समुदायों को एक साथ साधकर नहीं रख सकते।
इसी नाराजी और गुस्से का परिणाम है, डव वर्ल्ड आउटरीच सेंटर के वरिष्ठ पादरी डॉक्टर टेरी जोंस द्वारा आगामी 9/11 के दिन आव्हान किया गया "कुरान जलाओ दिवस" (Burn a Koran Day)। टेरी जोंस के इस अभियान (यहाँ देखें…) को ईसाई और अन्य पश्चिमी समाज में जोरदार समर्थन मिल रहा है, और जैसा कि हटिंगटन और बुश ने "जेहाद" और "क्रूसेड" की अवधारणा को हवा दी, उसी के छोटे स्वरूप में कुछ अनहोनी होने की सम्भावना भी जताई जा रही है। डॉक्टर टेरी जोंस का कहना है कि वे अपने तरीके से 9/11 की मृतात्माओं को श्रद्धांजलि देने का प्रयास कर रहे हैं। डॉ जोंस ने कहा है कि चूंकि ओसामा बिन लादेन ने इस्लाम का नाम लेकर ट्विन टावर ढहाये हैं, इसलिये यह उचित है। मामला गर्मा गया है, इस्लामी समूहों द्वारा यूरोप के देशों में इस मुहिम के खिलाफ़ प्रदर्शन शुरु हो चुके हैं, भारत में भी इसके खिलाफ़ उग्र प्रदर्शन हो रहे हैं। यदि बराक हुसैन ओबामा वाकई इस्लामिक कट्टरपंथियों से निपटना चाहते हैं तो उन्हें बहुसंख्यक उदारवादी मुस्लिमों को बढ़ावा देना चाहिये, उदारवादी मुस्लिम निश्चित रूप से संख्या में बहुत ज्यादा हैं, लेकिन चूंकि उन्हें सरकारों का नैतिक समर्थन नहीं मिलता इसलिये कट्टरपंथियों द्वारा वे पीछे धकेल दिये जाते हैं। ज़रा कल्पना कीजिये कि यदि तीन-चौथाई बहुमत से जीते हुए राजीव गाँधी, शाहबानो मामले में आरिफ़ मोहम्मद खान के समर्थन में डटकर खड़े हो जाते तो न सिर्फ़ मुस्लिम महिलाओं के दिल में उनके प्रति छवि मजबूत होती, बल्कि कट्टरपंथियों के हौसले भी पस्त हो जाते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बराक हुसैन ओबामा को भी विश्व के उदारवादी मुस्लिम नेताओं को साथ लेकर अलगाववादी तत्वों पर नकेल कसनी होगी, लेकिन वे उल्टी दिशा में ही जा रहे हैं…
कुल मिलाकर सार यह है कि बराक हुसैन ओबामा "इंडियन स्टाइल" के सेकुलरिज़्म को बढ़ावा देकर नफ़रत के बीज बो रहे हैं, बहुसंख्यक अमेरिकियों की भावनाओं को ठेस पहुँचाकर वे दोनों समुदायों के बीच वैमनस्य को बढ़ावा दे रहे हैं…
(क्या कहा??? इस बात पर आपको भारत की महान पार्टी कांग्रेस की याद आ गई…? स्वाभाविक है…। लेकिन अमेरिका, भारत नहीं है तथा अमेरिकी ईसाई, हिन्दुओं जैसे सहनशील नहीं हैं… छद्म सेकुलरिज़्म और वोट बैंक की राजनीति का दंश अब केरल में वामपंथी भी झेल रहे हैं… इसलिये देखते जाईये कि ओबामा की ये कोशिशें क्या रंग लाती हैं और इस मामले में आगे क्या-क्या होता है…)।
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जाते-जाते एक हथौड़ा :- यदि कोई आपसे कहे कि 26/11 को यादगार बनाने और पाकिस्तान का दिल जीतने के लिये मुम्बई के ताज होटल की छत पर एक मस्जिद बना दी जाये, तो आपको जैसा महसूस होगा… ठीक वैसा ही इस समय अमेरिकियों को लग रहा है…
Reference : http://www.mid-day.com/news/2010/aug/040810-mahim-dargah-barack-obama-special-envoy-rashad-hussain.htm
Barak Hussain Obama, Obama Muslim Appeasement, Obama's India Tour, Obama's Indonesia Tour, Rashad Hussain Aligarh Muslim University Tour, Mahim Dargah and Obama, US President and Moslems, Church and Islam, Christianity and Islam Confrontation, Burn a Kuran Day, 9/11 Ground Zero and Mosque, बराक हुसैन ओबामा, अमेरिका का मुस्लिम प्रेम, ओबामा की भारत यात्रा, ओबामा माहिम दरगाह और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, 9/11 ग्राउंड जीरो और मस्जिद, ईसाईयत और इस्लाम संघर्ष, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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ब्लॉग
गुरुवार, 05 अगस्त 2010 14:13
जी हाँ नरेन्द्र भाई मोदी… गुजरात एक "शत्रु राज्य" ही है, क्योंकि… … Narendra Modi, CBI, Amit Shah, Supreme Court
जिन लोगों ने गुजरात के गृहराज्य मंत्री अमित शाह की गिरफ़्तारी वाले दिन से अब तक टीवी चैनलों पर खबरें देखी होंगी, उन सभी ने एक बात अवश्य नोटिस की होगी… कि चैनलों पर "हिस्टीरिया" का दौरा अमूमन तभी पड़ता है, जब भाजपा-संघ-हिन्दुत्व से जुड़े किसी व्यक्ति के साथ कोई छोटी से छोटी भी घटना हो जाये। सोहराबुद्दीन के केस में तो मीडिया का "पगला जाना" स्वाभाविक ही था, जहाँ एक तरफ़ एंकर चीख रहे थे वहीं दूसरी तरफ़ हेडलाइन्स में और नीचे की स्क्रोल पट्टी में हमने क्या देखा… "अमित शाह गिरफ़्तार, क्या नरेन्द्र मोदी बचेंगे?…", "अमित शाह मोदी के खास आदमी, नरेन्द्र मोदी की छवि तार-तार हुई…", "क्या नरेन्द्र मोदी इस संकट से पार पा लेंगे…", "नरेन्द्र मोदी पर शिकंजा और कसा…" इत्यादि-इत्यादि-इत्यादि…
क्या इस केस से नरेन्द्र मोदी का अभी तक कोई भी, किसी भी प्रकार का सम्बन्ध उजागर हुआ है? क्या नरेन्द्र मोदी राज्य में होने वाली हर छोटी-मोटी घटना के लिये जिम्मेदार माने जायेंगे? एक-दो गुण्डों को एनकाउंटर में मार गिराने पर नरेन्द्र मोदी की जवाबदेही कैसे बनती है? लेकिन सोहराबुद्दीन के केस में जितने "मीडियाई रंगे सियार" हुंआ-हुंआ कर रहे हैं, उन्हें उनके "आकाओं" से इशारा मिला है कि कैसे भी हो नरेन्द्र मोदी की छवि खराब करो। कारण कई हैं - मुख्य है गुजरात का तीव्र विकास और हिन्दुत्व का उग्र चेहरा, देश-विदेश के कई शातिरों की आँखों की किरकिरी बना हुआ है। ज़रा इन आँकड़ों पर एक निगाह डाल लीजिये आप खुद ही समझ जायेंगे -
1) अब तक पिछले कुछ वर्षों में भारत में लगभग 5000 एनकाउंटर मौतें हुई हैं।
2) लगभग 1700 से अधिक एनकाउंटर के मामलों की सुनवाई और प्राथमिक रिपोर्ट देश के विभिन्न न्यायालयों और मानवाधिकार संगठनों के दफ़्तरों में धूल खा रही हैं।
3) पिछले दो दशक में अकेले उत्तरप्रदेश में 800 एनकाउंटर हुए।
4) यहाँ तक कि कांग्रेस शासित राज्य महाराष्ट्र में पिछले कुछ वर्षों में 400 एनकाउंटर हुए।
अब जो लोग जागरुक हैं और राजनैतिक खबरों पर ध्यान रखते हैं, वे बतायें कि इतने सैकड़ों मामलों में क्या कभी किसी ने, किसी राज्य के मुख्यमंत्री के खिलाफ़ मीडिया में ऐसा दुष्प्रचार और घटिया अभियान देखा है? इतने सारे एनकाउण्टर के मामलों में विभिन्न राज्यों में पुलिस के कितने उच्चाधिकारियों को सजा अथवा मुकदमे दर्ज हुए हैं? क्या महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश या आंध्रप्रदेश में हुए एनकाउण्टर के लिये वहाँ के मुख्यमंत्री से जवाब-तलब हुए, या "शिकंजा" कसा गया? नहीं… क्योंकि यदि ऐसा होता तो जिन राज्यों में केन्द्र के जिम्मे सुरक्षा व्यवस्था है उनमें जैसे जम्मू-कश्मीर, मणिपुर अथवा झारखण्ड (राष्ट्रपति शासन) आदि में होने वाले किसी भी एनकाउंटर के लिये मनमोहन-चिदम्बरम या प्रतिभा पाटिल को जिम्मेदार माना जायेगा? और क्या मीडिया वालों को उनसे जवाबतलब करना चाहिये? सुरक्षा बलों द्वारा वीरप्पन की हत्या के बाद, उसकी पत्नी ने भी CBI के विरुद्ध चेन्नई हाइकोर्ट में अपील की थी, लेकिन तब तो कर्नाटक-तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के खिलाफ़ मीडिया ने कुछ नहीं कहा था? तो फ़िर अकेले नरेन्द्र मोदी को क्यों निशाना बनाया जा रहा है?
जवाब वही है, जो मैंने ऊपर दिया है… गुजरात के तीव्र विकास से "जलन" की भावना और "हिन्दुत्व के आइकॉन" को ध्वस्त करने की प्रबल इच्छा… तथा सबसे बड़ी बात "युवराज" की ताज़पोशी में बड़ा रोड़ा बनने जा रहे तथा भविष्य में कांग्रेस के लिये सबसे बड़ा राजनैतिक खतरा बने हुए नरेन्द्र भाई मोदी को खत्म करना। (ज़रा याद कीजिये राजेश पायलट, माधवराव सिंधिया, जीएमसी बालयोगी, पीआर कुमारमंगलम जैसे ऊर्जावान और युवा नेताओं की दुर्घटनाओं में मौत हुई है, क्योंकि ये सभी साफ़ छवि वाले व्यक्ति भविष्य में प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन सकते थे)। फ़िलहाल गुजरात में 20 साल से दुरदुराई हुई और सत्ता के दरवाजे से बाहर बैठी कांग्रेस CBI का उपयोग करके नरेन्द्र मोदी को "राजनैतिक मौत" मारना चाहती है, लेकिन जैसे पहले भी कई कोशिशें नाकामयाब हुई हैं, आगे भी होती रहेंगी, क्योंकि एक तो कांग्रेस की "नीयत" ठीक नहीं है और दूसरे वह ज़मीनी राजनैतिक लड़ाई लड़ने का दम नहीं रखती।
केन्द्र की कांग्रेस सरकारों द्वारा CBI का दुरुपयोग कोई नई बात नहीं है, षडयन्त्र, धोखाधड़ी, जालसाजी, पीठ पीछे से वार करना आदि कांग्रेस का पुराना चरित्र है, ज़रा याद कीजिये अमेठी के लोकप्रिय नेता संजय सिंह वाले केस को… एक समय कांग्रेस के अच्छे मित्रों में से एक संजय सिंह को जब कांग्रेस ने "खत्म" करने का इरादा किया तो बैडमिंटन खिलाड़ी सैयद मोदी की हत्या के केस में संजय सिंह को फ़ँसाया गया और मोदी की पत्नी अमिता और संजय सिंह के तथाकथित नाजायज़ सम्बन्धों के बारे में अखबारों में रोज़-दर-रोज़ नई-नई कहानियाँ "प्लाण्ट" की गईं, सैयद मोदी की हत्या को संजय-अमिता के रिश्तों से जोड़कर कांग्रेसी दरबार के चारण-भाट अखबारों ने चटखारेदार खबरें प्रकाशित कीं (गनीमत है कि उस समय आज की तरह कथित "निष्पक्ष" और सबसे तेज़ चैनल नहीं थे…)। आज 20 साल बाद क्या स्थिति है? वह केस न्यायालय में टिक नहीं पाया, CBI ने मामले की फ़ाइल बन्द कर दी, और कांग्रेस जिसे "बड़ा षडयंत्र" बता रही थी, वैसा कुछ भी साबित नहीं हो सका, तो क्या हुआ… संजय सिंह का राजनैतिक खात्मा तो हो गया।
राजनैतिक विश्लेषकों को बोफ़ोर्स घोटाले से ध्यान बँटाने के लिये और वीपी सिंह की उजली छवि को मलिन करने के लिये CBI की मदद और जालसाजी से रचा गया "सेंट किट्स काण्ड" भी याद होगा, जब कहा गया कि एक अनाम से द्वीप के एक अनाम से बैंक में वीपी सिंह और इनके बेटे के नाम लाखों डालर जमा हैं। लेकिन अन्त में क्या हुआ, जालसाजी उजागर हो गई, कांग्रेस बेनकाब हुई और चुनाव में हारी… ऐसे कई केस हैं, जहाँ CBI "कांग्रेस ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन" सिद्ध हुई है… और आज एक हिस्ट्री शीटर, जिसके ऊपर 60 से अधिक मामले हैं और जिसके घर के कुंए से 40 एके-47 रायफ़लें निकली हैं उस सोहराबुद्दीन की मौत पर कांग्रेस "घड़ियाली आँसू" बहा रही है, जो उसे बहुत महंगा पड़ेगा यह बात वह समझ नहीं रही।
अब एक नज़र डालते हैं हमारी "माननीय न्यायपालिका" पर (मैंने "माननीय" तो कह ही दिया है, आप इसमें 100 का गुणा कर लें… इतनी माननीय…। ताकि कोई मुझ पर न्यायालय की अवमानना का दावा न कर सके…)
- सोहराबुद्दीन के केस में "बड़े षडयन्त्र की जाँच" के आदेश "माननीय" जस्टिस तरुण चटर्जी ने अपने रिटायर होने की आखिरी तारीख को दिये (तरुण चटर्जी साहब को रिटायर होने के तुरन्त बाद असम और अरुणाचल प्रदेश के सीमा विवाद में मध्यस्थ के बतौर नियुक्ति मिल गई) (क्या गजब का संयोग है…)।
- इसी प्रकार SIT (Special Investigation Team) को नरेन्द्र मोदी से पूछताछ करने के आदेश सुप्रीम कोर्ट के "माननीय" न्यायाधीश अरिजीत पसायत ने भी अपनी नौकरी के अन्तिम दिन दिये (रिटायर होने के मात्र 6 दिनों के भीतर केन्द्र सरकार द्वारा पसायत साहब को CAT (Competition Appellate Tribunal) का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया) (ये भी क्या जोरदार संयोग है…)।
- भोपाल गैस काण्ड में कमजोर धाराएं लगाकर केस को मामूली बनाने वाले वकील जो थे सो तो थे ही, "माननीय" (फ़िर से माननीय) जस्टिस एएम अहमदी साहब भी रिटायर होने के बाद भोपाल मेमोरियल ट्रस्ट के अध्यक्ष बने, जो अब भोपाल पर हुए हल्ले-गुल्ले के बाद त्यागपत्र देकर शहीदाना अन्दाज़ में रुखसत हुए हैं… (यह भी क्या सॉलिड संयोग है…)।
खैर पुरानी बातें जाने दीजिये - अभी बात करते हैं "माननीय" जस्टिस तरुण चटर्जी की… CBI ने गाजियाबाद के GPF घोटाले में तरुण चटर्जी के साथ-साथ 23 अन्य न्यायाधीशों के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर करने की सिफ़ारिश की थी। जस्टिस चटर्जी साहब के खिलाफ़ पुख्ता केस इसलिये नहीं बन पाया, क्योंकि मामले के मुख्य गवाह न्यायालय के क्लर्क आशुतोष अस्थाना की गाजियाबाद के जेल में "संदिग्ध परिस्थितियों" में मौत हो गई। इस क्लर्क ने चटर्जी साहब समेत कई जजों के नाम अपने रिकॉर्डेड बयान में लिये थे। अस्थाना के परिवारवालों ने आरोप लगाये हैं कि "विशिष्ट और वीआईपी" व्यक्तियों को बचाने की खातिर अस्थाना को हिरासत में जहर देकर मार दिया गया। फ़िर भी मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन के आदेश पर सीबीआई ने जस्टिस चटर्जी से उनके कोलकाता के निवास पर पूछताछ की थी। इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक चटर्जी के सुपुत्र ने भी महंगे लैपटॉप और फ़ोन के "उपहार"(?) स्वीकार किये थे।
वैसे "माननीय" जस्टिस चटर्जी साहब ने सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपनी सम्पत्ति का खुलासा किया है जिससे पता चलता है कि वे बहुत ही "गरीब" हैं, क्योंकि उनके पास खुद का मकान नहीं है, उन्होंने सिर्फ़ 10,000 रुपये म्युचुअल फ़ण्ड में लगाये हैं और 10,000 की ही एक एफ़डी है, हालांकि उनके पास एक गाड़ी Tavera है जबकि दूसरी गाड़ी होण्डा सिएल के लिये उन्होंने बैंक से कर्ज़ लिया है। (वैसे एक बात बताऊं, मेरी दुकान के सामने, एक चाय का ठेला लगता है उसके मालिक ने कल ही मेरे यहाँ से उसकी 20,000 रुपये की एफ़डी की फ़ोटो कॉपी करवाई है) अब बताईये भला, इतने "गरीब" और "माननीय" न्यायाधीश कभी CBI और अपने पद का दुरुपयोग कर सकते हैं क्या? नहीं…नहीं… ज़रूर मुझे ही कोई गलतफ़हमी हुई होगी…
खैर जाने दीजिये, नरेन्द्र भाई मोदी… यदि आपको यह लगता है कि केन्द्र की निगाह में गुजरात एक "शत्रु राज्य" है, तो सही ही होगा, क्योंकि मुम्बई-भिवण्डी-मालेगाँव के दंगों के बावजूद सुधाकरराव नाईक या शरद पवार को कभी "हत्यारा" नहीं कहा गया… एक पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा दिल्ली में चुन-चुनकर मारे गये हजारों सिखों को कभी भी "नरसंहार" नहीं कहा गया… हमारे टैक्स के पैसों पर पलने वाले कश्मीर और वहाँ से हिन्दुओं के पलायन को कभी "Genocide" (जातीय सफ़ाया) नहीं कहा जाता… वारेन एण्डरसन को भागने में मदद करने वाले भी "मासूम" कहलाते हैं… यह सूची अनन्त है। लेकिन नरेन्द्रभाई, आप निश्चित ही "शत्रु" हैं, क्योंकि गुजरात की जनता लगातार भाजपा को वोट देती रहती है। आपको "हत्यारा", "तानाशाह", "अक्खड़", "साम्प्रदायिक", "मुस्लिम विरोधी" जैसा बहुत कुछ लगातार कहा जाता रहेगा… इसमें गलती आपकी भी नहीं है, गलती है गुजरात की जनता की… जो भाजपा को वोट दे रही है। एक तो आप किसी की कठपुतली नहीं हैं, ऊपर से तुर्रा यह कि लाखों-करोड़ों लोग आपको प्रधानमंत्री बनवाने का सपना भी देख रहे हैं…जो कि "योग्य युवराज"(?) के होते हुए एक बड़ा जुर्म माना जाता है… तो सीबीआई भी बेचारी क्या करे, वे भी तो किसी के "नौकर हैं ना… "आदेश" का पालन तो उन्हें करना ही पड़ेगा…।
जाते-जाते "एक हथौड़ा" और झेल जाईये… प्रस्तुत वीडियो में नरेन्द्र मोदी के घोर विरोधी रहे पूर्व कांग्रेसी यतीन ओझा ने रहस्योद्घाटन किया है, कि तीन साल पहले दिल्ली में अहमद पटेल के बंगले पर नरेन्द्रभाई मोदी को "फ़ँसाने" की जो रणनीति बनाई गई थी, वे उसके साक्षी हैं। उल्लेखनीय है कि यतीन ओझा वह व्यक्ति हैं जो नरेन्द्र मोदी के सामने उस समय चुनाव लड़े थे, जब कांग्रेस के सभी दिग्गजों ने पक्की हार को देखते हुए मोदी के सामने खड़े होने से इंकार कर दिया था…
डायरेक्ट लिंक http://www.youtube.com/watch?v=_U6zyHSvTYA
लेख के अन्य सन्दर्भ :
http://deshgujarat.com/2010/08/01/judge-who-ordered-cbi-probe-in-sohrab-case-himself-under-cbi-scanner-for-corruption/
http://indiatoday.intoday.in/site/Story/107058/India/cbi-for-action-against-24-judges-in-pf-scam.html
Gujrat Encounter Case, Sohrabuddin Amit Shah and Narendra Modi, Encounters in India, Deaths in Encounters and Police Custody, Justice Tarun Chatterji, Arijit Pasayat, Supreme Court and CBI in India, CBI and Politics in India, Development in Gujrat and Muslims, गुजरात एनकाउंटर केस, सोहराबुद्दीन, अमित शाह और नरेन्द्र मोदी, भारत में एनकाउंटर का इतिहास, जस्टिस तरुण चटर्जी, अरिजीत पसायत, सीबीआई का राजनैतिक उपयोग, गुजरात का विकास, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
क्या इस केस से नरेन्द्र मोदी का अभी तक कोई भी, किसी भी प्रकार का सम्बन्ध उजागर हुआ है? क्या नरेन्द्र मोदी राज्य में होने वाली हर छोटी-मोटी घटना के लिये जिम्मेदार माने जायेंगे? एक-दो गुण्डों को एनकाउंटर में मार गिराने पर नरेन्द्र मोदी की जवाबदेही कैसे बनती है? लेकिन सोहराबुद्दीन के केस में जितने "मीडियाई रंगे सियार" हुंआ-हुंआ कर रहे हैं, उन्हें उनके "आकाओं" से इशारा मिला है कि कैसे भी हो नरेन्द्र मोदी की छवि खराब करो। कारण कई हैं - मुख्य है गुजरात का तीव्र विकास और हिन्दुत्व का उग्र चेहरा, देश-विदेश के कई शातिरों की आँखों की किरकिरी बना हुआ है। ज़रा इन आँकड़ों पर एक निगाह डाल लीजिये आप खुद ही समझ जायेंगे -
1) अब तक पिछले कुछ वर्षों में भारत में लगभग 5000 एनकाउंटर मौतें हुई हैं।
2) लगभग 1700 से अधिक एनकाउंटर के मामलों की सुनवाई और प्राथमिक रिपोर्ट देश के विभिन्न न्यायालयों और मानवाधिकार संगठनों के दफ़्तरों में धूल खा रही हैं।
3) पिछले दो दशक में अकेले उत्तरप्रदेश में 800 एनकाउंटर हुए।
4) यहाँ तक कि कांग्रेस शासित राज्य महाराष्ट्र में पिछले कुछ वर्षों में 400 एनकाउंटर हुए।
अब जो लोग जागरुक हैं और राजनैतिक खबरों पर ध्यान रखते हैं, वे बतायें कि इतने सैकड़ों मामलों में क्या कभी किसी ने, किसी राज्य के मुख्यमंत्री के खिलाफ़ मीडिया में ऐसा दुष्प्रचार और घटिया अभियान देखा है? इतने सारे एनकाउण्टर के मामलों में विभिन्न राज्यों में पुलिस के कितने उच्चाधिकारियों को सजा अथवा मुकदमे दर्ज हुए हैं? क्या महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश या आंध्रप्रदेश में हुए एनकाउण्टर के लिये वहाँ के मुख्यमंत्री से जवाब-तलब हुए, या "शिकंजा" कसा गया? नहीं… क्योंकि यदि ऐसा होता तो जिन राज्यों में केन्द्र के जिम्मे सुरक्षा व्यवस्था है उनमें जैसे जम्मू-कश्मीर, मणिपुर अथवा झारखण्ड (राष्ट्रपति शासन) आदि में होने वाले किसी भी एनकाउंटर के लिये मनमोहन-चिदम्बरम या प्रतिभा पाटिल को जिम्मेदार माना जायेगा? और क्या मीडिया वालों को उनसे जवाबतलब करना चाहिये? सुरक्षा बलों द्वारा वीरप्पन की हत्या के बाद, उसकी पत्नी ने भी CBI के विरुद्ध चेन्नई हाइकोर्ट में अपील की थी, लेकिन तब तो कर्नाटक-तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के खिलाफ़ मीडिया ने कुछ नहीं कहा था? तो फ़िर अकेले नरेन्द्र मोदी को क्यों निशाना बनाया जा रहा है?
जवाब वही है, जो मैंने ऊपर दिया है… गुजरात के तीव्र विकास से "जलन" की भावना और "हिन्दुत्व के आइकॉन" को ध्वस्त करने की प्रबल इच्छा… तथा सबसे बड़ी बात "युवराज" की ताज़पोशी में बड़ा रोड़ा बनने जा रहे तथा भविष्य में कांग्रेस के लिये सबसे बड़ा राजनैतिक खतरा बने हुए नरेन्द्र भाई मोदी को खत्म करना। (ज़रा याद कीजिये राजेश पायलट, माधवराव सिंधिया, जीएमसी बालयोगी, पीआर कुमारमंगलम जैसे ऊर्जावान और युवा नेताओं की दुर्घटनाओं में मौत हुई है, क्योंकि ये सभी साफ़ छवि वाले व्यक्ति भविष्य में प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन सकते थे)। फ़िलहाल गुजरात में 20 साल से दुरदुराई हुई और सत्ता के दरवाजे से बाहर बैठी कांग्रेस CBI का उपयोग करके नरेन्द्र मोदी को "राजनैतिक मौत" मारना चाहती है, लेकिन जैसे पहले भी कई कोशिशें नाकामयाब हुई हैं, आगे भी होती रहेंगी, क्योंकि एक तो कांग्रेस की "नीयत" ठीक नहीं है और दूसरे वह ज़मीनी राजनैतिक लड़ाई लड़ने का दम नहीं रखती।
केन्द्र की कांग्रेस सरकारों द्वारा CBI का दुरुपयोग कोई नई बात नहीं है, षडयन्त्र, धोखाधड़ी, जालसाजी, पीठ पीछे से वार करना आदि कांग्रेस का पुराना चरित्र है, ज़रा याद कीजिये अमेठी के लोकप्रिय नेता संजय सिंह वाले केस को… एक समय कांग्रेस के अच्छे मित्रों में से एक संजय सिंह को जब कांग्रेस ने "खत्म" करने का इरादा किया तो बैडमिंटन खिलाड़ी सैयद मोदी की हत्या के केस में संजय सिंह को फ़ँसाया गया और मोदी की पत्नी अमिता और संजय सिंह के तथाकथित नाजायज़ सम्बन्धों के बारे में अखबारों में रोज़-दर-रोज़ नई-नई कहानियाँ "प्लाण्ट" की गईं, सैयद मोदी की हत्या को संजय-अमिता के रिश्तों से जोड़कर कांग्रेसी दरबार के चारण-भाट अखबारों ने चटखारेदार खबरें प्रकाशित कीं (गनीमत है कि उस समय आज की तरह कथित "निष्पक्ष" और सबसे तेज़ चैनल नहीं थे…)। आज 20 साल बाद क्या स्थिति है? वह केस न्यायालय में टिक नहीं पाया, CBI ने मामले की फ़ाइल बन्द कर दी, और कांग्रेस जिसे "बड़ा षडयंत्र" बता रही थी, वैसा कुछ भी साबित नहीं हो सका, तो क्या हुआ… संजय सिंह का राजनैतिक खात्मा तो हो गया।
राजनैतिक विश्लेषकों को बोफ़ोर्स घोटाले से ध्यान बँटाने के लिये और वीपी सिंह की उजली छवि को मलिन करने के लिये CBI की मदद और जालसाजी से रचा गया "सेंट किट्स काण्ड" भी याद होगा, जब कहा गया कि एक अनाम से द्वीप के एक अनाम से बैंक में वीपी सिंह और इनके बेटे के नाम लाखों डालर जमा हैं। लेकिन अन्त में क्या हुआ, जालसाजी उजागर हो गई, कांग्रेस बेनकाब हुई और चुनाव में हारी… ऐसे कई केस हैं, जहाँ CBI "कांग्रेस ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन" सिद्ध हुई है… और आज एक हिस्ट्री शीटर, जिसके ऊपर 60 से अधिक मामले हैं और जिसके घर के कुंए से 40 एके-47 रायफ़लें निकली हैं उस सोहराबुद्दीन की मौत पर कांग्रेस "घड़ियाली आँसू" बहा रही है, जो उसे बहुत महंगा पड़ेगा यह बात वह समझ नहीं रही।
अब एक नज़र डालते हैं हमारी "माननीय न्यायपालिका" पर (मैंने "माननीय" तो कह ही दिया है, आप इसमें 100 का गुणा कर लें… इतनी माननीय…। ताकि कोई मुझ पर न्यायालय की अवमानना का दावा न कर सके…)
- सोहराबुद्दीन के केस में "बड़े षडयन्त्र की जाँच" के आदेश "माननीय" जस्टिस तरुण चटर्जी ने अपने रिटायर होने की आखिरी तारीख को दिये (तरुण चटर्जी साहब को रिटायर होने के तुरन्त बाद असम और अरुणाचल प्रदेश के सीमा विवाद में मध्यस्थ के बतौर नियुक्ति मिल गई) (क्या गजब का संयोग है…)।
- इसी प्रकार SIT (Special Investigation Team) को नरेन्द्र मोदी से पूछताछ करने के आदेश सुप्रीम कोर्ट के "माननीय" न्यायाधीश अरिजीत पसायत ने भी अपनी नौकरी के अन्तिम दिन दिये (रिटायर होने के मात्र 6 दिनों के भीतर केन्द्र सरकार द्वारा पसायत साहब को CAT (Competition Appellate Tribunal) का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया) (ये भी क्या जोरदार संयोग है…)।
- भोपाल गैस काण्ड में कमजोर धाराएं लगाकर केस को मामूली बनाने वाले वकील जो थे सो तो थे ही, "माननीय" (फ़िर से माननीय) जस्टिस एएम अहमदी साहब भी रिटायर होने के बाद भोपाल मेमोरियल ट्रस्ट के अध्यक्ष बने, जो अब भोपाल पर हुए हल्ले-गुल्ले के बाद त्यागपत्र देकर शहीदाना अन्दाज़ में रुखसत हुए हैं… (यह भी क्या सॉलिड संयोग है…)।
खैर पुरानी बातें जाने दीजिये - अभी बात करते हैं "माननीय" जस्टिस तरुण चटर्जी की… CBI ने गाजियाबाद के GPF घोटाले में तरुण चटर्जी के साथ-साथ 23 अन्य न्यायाधीशों के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर करने की सिफ़ारिश की थी। जस्टिस चटर्जी साहब के खिलाफ़ पुख्ता केस इसलिये नहीं बन पाया, क्योंकि मामले के मुख्य गवाह न्यायालय के क्लर्क आशुतोष अस्थाना की गाजियाबाद के जेल में "संदिग्ध परिस्थितियों" में मौत हो गई। इस क्लर्क ने चटर्जी साहब समेत कई जजों के नाम अपने रिकॉर्डेड बयान में लिये थे। अस्थाना के परिवारवालों ने आरोप लगाये हैं कि "विशिष्ट और वीआईपी" व्यक्तियों को बचाने की खातिर अस्थाना को हिरासत में जहर देकर मार दिया गया। फ़िर भी मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन के आदेश पर सीबीआई ने जस्टिस चटर्जी से उनके कोलकाता के निवास पर पूछताछ की थी। इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक चटर्जी के सुपुत्र ने भी महंगे लैपटॉप और फ़ोन के "उपहार"(?) स्वीकार किये थे।
वैसे "माननीय" जस्टिस चटर्जी साहब ने सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपनी सम्पत्ति का खुलासा किया है जिससे पता चलता है कि वे बहुत ही "गरीब" हैं, क्योंकि उनके पास खुद का मकान नहीं है, उन्होंने सिर्फ़ 10,000 रुपये म्युचुअल फ़ण्ड में लगाये हैं और 10,000 की ही एक एफ़डी है, हालांकि उनके पास एक गाड़ी Tavera है जबकि दूसरी गाड़ी होण्डा सिएल के लिये उन्होंने बैंक से कर्ज़ लिया है। (वैसे एक बात बताऊं, मेरी दुकान के सामने, एक चाय का ठेला लगता है उसके मालिक ने कल ही मेरे यहाँ से उसकी 20,000 रुपये की एफ़डी की फ़ोटो कॉपी करवाई है) अब बताईये भला, इतने "गरीब" और "माननीय" न्यायाधीश कभी CBI और अपने पद का दुरुपयोग कर सकते हैं क्या? नहीं…नहीं… ज़रूर मुझे ही कोई गलतफ़हमी हुई होगी…
खैर जाने दीजिये, नरेन्द्र भाई मोदी… यदि आपको यह लगता है कि केन्द्र की निगाह में गुजरात एक "शत्रु राज्य" है, तो सही ही होगा, क्योंकि मुम्बई-भिवण्डी-मालेगाँव के दंगों के बावजूद सुधाकरराव नाईक या शरद पवार को कभी "हत्यारा" नहीं कहा गया… एक पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा दिल्ली में चुन-चुनकर मारे गये हजारों सिखों को कभी भी "नरसंहार" नहीं कहा गया… हमारे टैक्स के पैसों पर पलने वाले कश्मीर और वहाँ से हिन्दुओं के पलायन को कभी "Genocide" (जातीय सफ़ाया) नहीं कहा जाता… वारेन एण्डरसन को भागने में मदद करने वाले भी "मासूम" कहलाते हैं… यह सूची अनन्त है। लेकिन नरेन्द्रभाई, आप निश्चित ही "शत्रु" हैं, क्योंकि गुजरात की जनता लगातार भाजपा को वोट देती रहती है। आपको "हत्यारा", "तानाशाह", "अक्खड़", "साम्प्रदायिक", "मुस्लिम विरोधी" जैसा बहुत कुछ लगातार कहा जाता रहेगा… इसमें गलती आपकी भी नहीं है, गलती है गुजरात की जनता की… जो भाजपा को वोट दे रही है। एक तो आप किसी की कठपुतली नहीं हैं, ऊपर से तुर्रा यह कि लाखों-करोड़ों लोग आपको प्रधानमंत्री बनवाने का सपना भी देख रहे हैं…जो कि "योग्य युवराज"(?) के होते हुए एक बड़ा जुर्म माना जाता है… तो सीबीआई भी बेचारी क्या करे, वे भी तो किसी के "नौकर हैं ना… "आदेश" का पालन तो उन्हें करना ही पड़ेगा…।
जाते-जाते "एक हथौड़ा" और झेल जाईये… प्रस्तुत वीडियो में नरेन्द्र मोदी के घोर विरोधी रहे पूर्व कांग्रेसी यतीन ओझा ने रहस्योद्घाटन किया है, कि तीन साल पहले दिल्ली में अहमद पटेल के बंगले पर नरेन्द्रभाई मोदी को "फ़ँसाने" की जो रणनीति बनाई गई थी, वे उसके साक्षी हैं। उल्लेखनीय है कि यतीन ओझा वह व्यक्ति हैं जो नरेन्द्र मोदी के सामने उस समय चुनाव लड़े थे, जब कांग्रेस के सभी दिग्गजों ने पक्की हार को देखते हुए मोदी के सामने खड़े होने से इंकार कर दिया था…
डायरेक्ट लिंक http://www.youtube.com/watch?v=_U6zyHSvTYA
लेख के अन्य सन्दर्भ :
http://deshgujarat.com/2010/08/01/judge-who-ordered-cbi-probe-in-sohrab-case-himself-under-cbi-scanner-for-corruption/
http://indiatoday.intoday.in/site/Story/107058/India/cbi-for-action-against-24-judges-in-pf-scam.html
Gujrat Encounter Case, Sohrabuddin Amit Shah and Narendra Modi, Encounters in India, Deaths in Encounters and Police Custody, Justice Tarun Chatterji, Arijit Pasayat, Supreme Court and CBI in India, CBI and Politics in India, Development in Gujrat and Muslims, गुजरात एनकाउंटर केस, सोहराबुद्दीन, अमित शाह और नरेन्द्र मोदी, भारत में एनकाउंटर का इतिहास, जस्टिस तरुण चटर्जी, अरिजीत पसायत, सीबीआई का राजनैतिक उपयोग, गुजरात का विकास, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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ब्लॉग
सोमवार, 02 अगस्त 2010 16:29
ये तय करना मुश्किल है कि राहुल महाजन अधिक छिछोरा है या हिन्दी न्यूज़ चैनल…… Rahul Mahajan, News Channels, Celebrity Media in India
विगत दो दिनों से जिसने भी भारतीय टीवी चैनलों (हिन्दी) को देखा होगा, उसने लगभग प्रत्येक चैनल पर स्वर्गीय प्रमोद महाजन के "सपूत"(?) राहुल महाजन और उसके द्वारा पीटी गई उसकी "बेचारी"(?) पत्नी डिम्पी गांगुली की तस्वीरें, खबरें, वीडियो इत्यादि लगातार देखे होंगे। राहुल महाजन ने ऐसा किया, राहुल महाजन ने वैसा किया, उसने अपनी बीवी को कब-कहाँ-कितना और कैसे पीटा? डिम्पी की जाँघों और पिंडलियों पर निशान कैसे थे? राहुल महाजन ऐसे हैं, राहुल महाजन वैसे हैं… आदि-आदि-आदि, ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला…
हालांकि वैसे तो पहले से ही भारतीय हिन्दी न्यूज़ चैनलों की मानसिक कंगाली जगज़ाहिर है, लेकिन जिस तरह से सारे चैनल "गिरावट" की नई-नई इबारतें लिख रहे हैं, वैसा कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा। भारत में लोकतन्त्र है, एक स्वतन्त्र प्रेस है, प्रेस परिषद है, काफ़ी बड़ी जनसंख्या साक्षर भी है… इसके अलावा भारत में समस्याओं का अम्बार लगा हुआ है फ़िर चाहे वह महंगाई, आतंकवाद, नक्सलवाद, खेती की बुरी स्थिति, बेरोजगारी जैसी सैकड़ों बड़े-बड़े मुद्दे हैं, फ़िर आखिर न्यूज़ चैनलों को इस छिछोरेपन पर उतरने क्या जरूरत आन पड़ती है? इसके जवाब में "मीडियाई भाण्ड" कहते हैं कि 24 घण्टे चैनल चलाने के लिये कोई न कोई चटपटी खबर चलाना आवश्यक भी है और ढाँचागत खर्च तथा विज्ञापन लेने के लिये लगातार "कुछ हट के" दिखाना जरूरी है।
चैनलों के लिये राहुल महाजन "इज्जत" से पुकारे जाने योग्य ऐसे-वैसे हैं, लेकिन मेरी ऐसी कोई मजबूरी नहीं है, क्योंकि वह आदमी इज्जत देने के लायक है ही नहीं। सवाल उठता है कि राहुल महाजन आखिर है क्या चीज़? क्या राहुल महाजन बड़ा खिलाड़ी हैं? क्या वह बड़ा अभिनेता है? क्या वह उद्योगपति है? क्या उसने देश के प्रति कोई महती योगदान दिया है? फ़िर उस नशेलची, स्मैकची, बिगड़ैल, पत्नियों को पीटने का शौक रखने वाले, उजड्ड रईस औलाद में ऐसा क्या है कि जीटीवी, आज तक, NDTV जैसे बड़े चैनल उसका छिछोरापन दिखाने के लिये मरे जाते हैं? (इंडिया टीवी को मैं न्यूज़ चैनल मानता ही नहीं, इसलिये लिस्ट में इस महाछिछोरे चैनल का नाम नहीं है)।
जिस समय प्रमोद महाजन की मौत हुई थी, तब शुरुआत में ऐसा लगा था कि राहुल महाजन की दारुबाजियों और अवैध हरकतों को मीडिया इसलिये कवरेज दे रहा है कि इससे प्रमोद महाजन की छवि को तार-तार किया जा सके, लेकिन धीरे-धीरे राहुल महाजन तो "पेज-थ्री" सेलेब्रिटी(?) बन गया। पहले बिग बॉस में उसे लिया गया और उस प्रतियोगी शो में भी राहुल महाजन पर ही कैमरा फ़ोकस किया गया, कि कैसे उसने स्वीमिंग पूल में फ़लाँ लड़की को छेड़ा, कैसे राहुल ने पायल रोहतगी (एक और "सी" ग्रेड की अभिनेत्री) के साथ प्यार की पींगें बढ़ाईं, इत्यादि-इत्यादि। माना कि "बिग बॉस" अपने-आप में ही एक छिछोरेपन वाला रियलिटी शो कार्यक्रम था, लेकिन और भी तो कई प्रतियोगी थे… अकेले राहुल महाजन को ऐसा कवरेज देना "फ़िक्सिंग" की आशंका पैदा करता है।
खैर जैसे-तैसे बिग बॉस खत्म हुआ, और फ़िर भी राहुल महाजन का भूत चैनलों के सर से नहीं उतरा। एक और टीवी चैनल इस "रंगीले रसिया" को स्वयंवर के लिये ले आया, इस चैनल ने एक बार भी नहीं सोचा कि अपनी बचपन की सहेली के साथ मारपीट करके घर से निकालने वाले इस "वीर-पुरुष" के सामने वह कई लड़कियों की "परेड" करवा रहे हैं। जहाँ एक तरफ़ बिग बॉस "छिछोरा" कार्यक्रम था, तो "राहुल दुल्हनिया ले जायेंगे" पूरी तरह से फ़ूहड़ था, जिसका विरोध नारी संगठनों ने आधे-अधूरे मन से किया, लेकिन मीडिया के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। (शायद "राहुल" नाम में ही कुछ खास बात है, कि "मीडियाई भाण्ड" इसके आगे बगैर सोचे-समझे नतमस्तक हो जाते हैं... आपको राहुल भट्ट याद ही होगा जो डेविड कोलमैन से रिश्तों के बावजूद आसानी से खुला घूम रहा है, जबकि प्रज्ञा ठाकुर रासुका में बन्द है…)
और अब जबकि एक और "राहुल" ने अपनी दूसरी बीबी को बुरी तरह पीटा है तो फ़िर से चैनल अपना-अपना कैमरा लेकर दौड़ पड़े हैं, उसकी बीबी की मार खाई हुई टांगें दिखा रहे हैं, फ़िर दोनों को मुस्कराते हुए साथ खाना खाते भी दिखा रहे हैं… ये कैसा "राष्ट्रीय मीडिया" है? दिल्ली और मुम्बई के बाहर क्या कोई महत्वपूर्ण खबरें ही नहीं हैं? लेकिन जब "पेज-थ्रीनुमा" फ़ोकटिया हरकतों की आदत पड़ जाती है तो चैनल दूरदराज की खबरों के लिये मेहनत क्यों करें, राखी सावन्त पर ही एक कार्यक्रम बना लें, या अमिताभ के साथ मन्दिर का चक्कर लगायें, या धोनी की शादी (जहाँ धोनी ने उन्हें अपने दरवाजे से बाहर खड़ा रखा था) की खबरें ही चलाएं। (एक चैनल तो इतना गिर गया था कि उसने धोनी की शादी और हनीमून हो चुकने के बाद, उस होटल का कमरा दिखाया था कि "धोनी यहाँ रुके थे, धोनी यहाँ सोए थे, धोनी इस कमरे में खाये थे… आदि-आदि), क्या हमारा तथाकथित मीडिया इतना मानसिक कंगाल हो चुका है? क्या लोग न्यूज़ चैनल इसलिये देखते हैं कि उन्हें देश के बारे में खबरों की बजाए किसी फ़ालतू से सेलेब्रिटी के बारे में देखने को मिले? इस काम के लिये तो दूसरे कई चैनल हैं।
चलो कुछ देर के लिये यह मान भी लें कि न्यूज़ चैनलों को कभीकभार ऐसे प्रोग्राम भी दिखाने पड़ते हैं, ठीक है… लेकिन कितनी देर? राहुल महाजन को "कितनी देर का कवरेज" मिलना चाहिये, क्या यह तय करने लायक दिमाग भी चैनल के कर्ताधर्ताओं में नहीं बचा है? राहुल महाजन जैसे "अनुत्पादक" व्यक्ति, जो न तो खिलाड़ी है, न अभिनेता, न उद्योगपति, न ही राजनेता… ऐसे व्यक्ति को चैनलों पर इतना समय? क्या देश में और कोई समस्या ही नहीं बची है? तरस आता है इन चैनल मालिकों की बुद्धि पर और उनके सामाजिक सरोकारों पर… क्योंकि एक और "राहुल" (गाँधी) द्वारा दिल्ली की सड़कों पर साइकल चलाना भी इनके लिये राष्ट्रीय खबर होती है।
भारत जैसे देश में "सेलेब्रिटी"(?) होना ही पर्याप्त है, एक बार आप सेलेब्रिटी बन गये तो फ़िर आप में अपने-आप ही कई गुण समाहित हो जायेंगे। सेलेब्रिटी बनने के लिये यह जरूरी नहीं है कि आप किसी क्षेत्र में माहिर ही हों, अथवा आप कोई बड़ा सामाजिक कार्य ही करें… सेलेब्रिटी बनने की एकमात्र क्वालिफ़िकेशन है "किसी बड़ी राजनैतिक हस्ती" से निकटता या सम्बन्ध होना… बस इसके बाद आपके चारों तरफ़ मीडिया होगा, चमचेनुमा सरकारी अधिकारी होंगे, NGO बनाकर फ़र्जी चन्दा लेने वालों की भीड़ होगी, किसी समिति-वमिति के सदस्य बनकर विदेश घूमने का मौका मिलेगा… यानी की बहुत कुछ मिलेगा।
उदाहरण के लिए मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा महिला प्रौढ़ शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिये जो ब्राण्ड एम्बेसेडर बनाये जाने वाले हैं, उनकी सूची ही देख लीजिये कि अधिकारियों ने किस मानसिकता के तहत उक्त नाम भेजे हैं - नीता अम्बानी, प्रियंका वढेरा (सॉरी, गाँधी), कनिमोझी और सुप्रिया सुले । अब आप अपना सिर धुनते रहिये, कि आखिर इन चारों महिलाओं ने सामाजिक क्षेत्र में ऐसे कौन से झण्डे गाड़ दिये कि इन्हें महिला प्रौढ़ शिक्षा का "ब्राण्ड एम्बेसेडर" बनाया जाये? इनमें से एक भी महिला ऐसी नहीं है जो "ज़मीनी हकीकत" से जुड़ी हुई हो, अथवा जिसकी अपनी "खुद की" बनाई हुई कोई पहचान हो। नीता अम्बानी जो भी हैं सिर्फ़ मुकेश अम्बानी और रिलायंस की वजह से, प्रियंका गाँधी के बारे में तो सभी जानते हैं कि यदि नाम में "वढेरा" लगाया जाये तो कोई पहचाने भी नहीं… सुप्रिया सुले की एकमात्र योग्यता(?) शरद पवार की बेटी होना और इसी तरह कनिमोझि की योग्यता करुणानिधि की बेटी होना है, अब इन्हें प्रौढ़ शिक्षा का ब्राण्ड एम्बेसेडर बनाने की सिफ़ारिश करना मंत्रालय के अधिकारियों की चमचागिरी का घटिया नमूना नहीं तो और क्या है? क्या इस सामाजिक काम के लिये देश में "असली सेलेब्रिटी" (जी हाँ असली सेलेब्रिटी) महिलाओं की कमी थी? साइना नेहवाल, मेरीकॉम, किरण बेदी, चंदा कोचर, शबाना आज़मी, मेधा पाटकर जैसी कई प्रसिद्ध लेकिन ज़मीन से जुड़ी हुई महिलाएं हैं, यहाँ तक कि मायावती और ममता बनर्जी की व्यक्तिगत उपलब्धियाँ और संघर्ष भी उन चारों महिलाओं से कहीं-कहीं अधिक बढ़कर है। लेकिन जैसा कि मैंने कहा, "मीडिया और चाटुकार" मिलकर पहले सेलेब्रिटी गढ़ते हैं, फ़िर उनके किस्से-कहानी गढ़ते हैं, फ़िर दिन-रात उनके स्तुतिगान गाकर जबरदस्ती जनता के माथे पर थोपते हैं।
हालांकि सच्चे अर्थों में संघर्ष करने वाले ज़मीनी लोग कैमरों की चकाचौंध से दूर समाजसेवा के क्षेत्र में अपना काम करते रहते हैं फ़िर भी मीडिया का यह कर्तव्य है कि वह ऐसे लोगों को जनता के सामने लाये… और उन पर भी अपना "बहुमूल्य"(?) समय खर्च करे…। हमारे मालवा में पूरी तरह से निकम्मे (Useless) व्यक्ति को "बिल्ली का गू" कहते हैं, यानी जो न लीपने के काम आये, न ही कण्डे बनाने के… जब भी, जहाँ भी गिरे गन्दगी ही फ़ैलाए…। टीवी पर बार-बार राहुल महाजन के कई एपीसोड देखने के बाद एक बुजुर्ग की टिप्पणी थी, "यो प्रमोद बाबू को छोरो तो बिल्ली को गू हे, अन ई चेनल वाला भी…"
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हालांकि वैसे तो पहले से ही भारतीय हिन्दी न्यूज़ चैनलों की मानसिक कंगाली जगज़ाहिर है, लेकिन जिस तरह से सारे चैनल "गिरावट" की नई-नई इबारतें लिख रहे हैं, वैसा कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा। भारत में लोकतन्त्र है, एक स्वतन्त्र प्रेस है, प्रेस परिषद है, काफ़ी बड़ी जनसंख्या साक्षर भी है… इसके अलावा भारत में समस्याओं का अम्बार लगा हुआ है फ़िर चाहे वह महंगाई, आतंकवाद, नक्सलवाद, खेती की बुरी स्थिति, बेरोजगारी जैसी सैकड़ों बड़े-बड़े मुद्दे हैं, फ़िर आखिर न्यूज़ चैनलों को इस छिछोरेपन पर उतरने क्या जरूरत आन पड़ती है? इसके जवाब में "मीडियाई भाण्ड" कहते हैं कि 24 घण्टे चैनल चलाने के लिये कोई न कोई चटपटी खबर चलाना आवश्यक भी है और ढाँचागत खर्च तथा विज्ञापन लेने के लिये लगातार "कुछ हट के" दिखाना जरूरी है।
चैनलों के लिये राहुल महाजन "इज्जत" से पुकारे जाने योग्य ऐसे-वैसे हैं, लेकिन मेरी ऐसी कोई मजबूरी नहीं है, क्योंकि वह आदमी इज्जत देने के लायक है ही नहीं। सवाल उठता है कि राहुल महाजन आखिर है क्या चीज़? क्या राहुल महाजन बड़ा खिलाड़ी हैं? क्या वह बड़ा अभिनेता है? क्या वह उद्योगपति है? क्या उसने देश के प्रति कोई महती योगदान दिया है? फ़िर उस नशेलची, स्मैकची, बिगड़ैल, पत्नियों को पीटने का शौक रखने वाले, उजड्ड रईस औलाद में ऐसा क्या है कि जीटीवी, आज तक, NDTV जैसे बड़े चैनल उसका छिछोरापन दिखाने के लिये मरे जाते हैं? (इंडिया टीवी को मैं न्यूज़ चैनल मानता ही नहीं, इसलिये लिस्ट में इस महाछिछोरे चैनल का नाम नहीं है)।
जिस समय प्रमोद महाजन की मौत हुई थी, तब शुरुआत में ऐसा लगा था कि राहुल महाजन की दारुबाजियों और अवैध हरकतों को मीडिया इसलिये कवरेज दे रहा है कि इससे प्रमोद महाजन की छवि को तार-तार किया जा सके, लेकिन धीरे-धीरे राहुल महाजन तो "पेज-थ्री" सेलेब्रिटी(?) बन गया। पहले बिग बॉस में उसे लिया गया और उस प्रतियोगी शो में भी राहुल महाजन पर ही कैमरा फ़ोकस किया गया, कि कैसे उसने स्वीमिंग पूल में फ़लाँ लड़की को छेड़ा, कैसे राहुल ने पायल रोहतगी (एक और "सी" ग्रेड की अभिनेत्री) के साथ प्यार की पींगें बढ़ाईं, इत्यादि-इत्यादि। माना कि "बिग बॉस" अपने-आप में ही एक छिछोरेपन वाला रियलिटी शो कार्यक्रम था, लेकिन और भी तो कई प्रतियोगी थे… अकेले राहुल महाजन को ऐसा कवरेज देना "फ़िक्सिंग" की आशंका पैदा करता है।
खैर जैसे-तैसे बिग बॉस खत्म हुआ, और फ़िर भी राहुल महाजन का भूत चैनलों के सर से नहीं उतरा। एक और टीवी चैनल इस "रंगीले रसिया" को स्वयंवर के लिये ले आया, इस चैनल ने एक बार भी नहीं सोचा कि अपनी बचपन की सहेली के साथ मारपीट करके घर से निकालने वाले इस "वीर-पुरुष" के सामने वह कई लड़कियों की "परेड" करवा रहे हैं। जहाँ एक तरफ़ बिग बॉस "छिछोरा" कार्यक्रम था, तो "राहुल दुल्हनिया ले जायेंगे" पूरी तरह से फ़ूहड़ था, जिसका विरोध नारी संगठनों ने आधे-अधूरे मन से किया, लेकिन मीडिया के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। (शायद "राहुल" नाम में ही कुछ खास बात है, कि "मीडियाई भाण्ड" इसके आगे बगैर सोचे-समझे नतमस्तक हो जाते हैं... आपको राहुल भट्ट याद ही होगा जो डेविड कोलमैन से रिश्तों के बावजूद आसानी से खुला घूम रहा है, जबकि प्रज्ञा ठाकुर रासुका में बन्द है…)
और अब जबकि एक और "राहुल" ने अपनी दूसरी बीबी को बुरी तरह पीटा है तो फ़िर से चैनल अपना-अपना कैमरा लेकर दौड़ पड़े हैं, उसकी बीबी की मार खाई हुई टांगें दिखा रहे हैं, फ़िर दोनों को मुस्कराते हुए साथ खाना खाते भी दिखा रहे हैं… ये कैसा "राष्ट्रीय मीडिया" है? दिल्ली और मुम्बई के बाहर क्या कोई महत्वपूर्ण खबरें ही नहीं हैं? लेकिन जब "पेज-थ्रीनुमा" फ़ोकटिया हरकतों की आदत पड़ जाती है तो चैनल दूरदराज की खबरों के लिये मेहनत क्यों करें, राखी सावन्त पर ही एक कार्यक्रम बना लें, या अमिताभ के साथ मन्दिर का चक्कर लगायें, या धोनी की शादी (जहाँ धोनी ने उन्हें अपने दरवाजे से बाहर खड़ा रखा था) की खबरें ही चलाएं। (एक चैनल तो इतना गिर गया था कि उसने धोनी की शादी और हनीमून हो चुकने के बाद, उस होटल का कमरा दिखाया था कि "धोनी यहाँ रुके थे, धोनी यहाँ सोए थे, धोनी इस कमरे में खाये थे… आदि-आदि), क्या हमारा तथाकथित मीडिया इतना मानसिक कंगाल हो चुका है? क्या लोग न्यूज़ चैनल इसलिये देखते हैं कि उन्हें देश के बारे में खबरों की बजाए किसी फ़ालतू से सेलेब्रिटी के बारे में देखने को मिले? इस काम के लिये तो दूसरे कई चैनल हैं।
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भारत जैसे देश में "सेलेब्रिटी"(?) होना ही पर्याप्त है, एक बार आप सेलेब्रिटी बन गये तो फ़िर आप में अपने-आप ही कई गुण समाहित हो जायेंगे। सेलेब्रिटी बनने के लिये यह जरूरी नहीं है कि आप किसी क्षेत्र में माहिर ही हों, अथवा आप कोई बड़ा सामाजिक कार्य ही करें… सेलेब्रिटी बनने की एकमात्र क्वालिफ़िकेशन है "किसी बड़ी राजनैतिक हस्ती" से निकटता या सम्बन्ध होना… बस इसके बाद आपके चारों तरफ़ मीडिया होगा, चमचेनुमा सरकारी अधिकारी होंगे, NGO बनाकर फ़र्जी चन्दा लेने वालों की भीड़ होगी, किसी समिति-वमिति के सदस्य बनकर विदेश घूमने का मौका मिलेगा… यानी की बहुत कुछ मिलेगा।
उदाहरण के लिए मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा महिला प्रौढ़ शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिये जो ब्राण्ड एम्बेसेडर बनाये जाने वाले हैं, उनकी सूची ही देख लीजिये कि अधिकारियों ने किस मानसिकता के तहत उक्त नाम भेजे हैं - नीता अम्बानी, प्रियंका वढेरा (सॉरी, गाँधी), कनिमोझी और सुप्रिया सुले । अब आप अपना सिर धुनते रहिये, कि आखिर इन चारों महिलाओं ने सामाजिक क्षेत्र में ऐसे कौन से झण्डे गाड़ दिये कि इन्हें महिला प्रौढ़ शिक्षा का "ब्राण्ड एम्बेसेडर" बनाया जाये? इनमें से एक भी महिला ऐसी नहीं है जो "ज़मीनी हकीकत" से जुड़ी हुई हो, अथवा जिसकी अपनी "खुद की" बनाई हुई कोई पहचान हो। नीता अम्बानी जो भी हैं सिर्फ़ मुकेश अम्बानी और रिलायंस की वजह से, प्रियंका गाँधी के बारे में तो सभी जानते हैं कि यदि नाम में "वढेरा" लगाया जाये तो कोई पहचाने भी नहीं… सुप्रिया सुले की एकमात्र योग्यता(?) शरद पवार की बेटी होना और इसी तरह कनिमोझि की योग्यता करुणानिधि की बेटी होना है, अब इन्हें प्रौढ़ शिक्षा का ब्राण्ड एम्बेसेडर बनाने की सिफ़ारिश करना मंत्रालय के अधिकारियों की चमचागिरी का घटिया नमूना नहीं तो और क्या है? क्या इस सामाजिक काम के लिये देश में "असली सेलेब्रिटी" (जी हाँ असली सेलेब्रिटी) महिलाओं की कमी थी? साइना नेहवाल, मेरीकॉम, किरण बेदी, चंदा कोचर, शबाना आज़मी, मेधा पाटकर जैसी कई प्रसिद्ध लेकिन ज़मीन से जुड़ी हुई महिलाएं हैं, यहाँ तक कि मायावती और ममता बनर्जी की व्यक्तिगत उपलब्धियाँ और संघर्ष भी उन चारों महिलाओं से कहीं-कहीं अधिक बढ़कर है। लेकिन जैसा कि मैंने कहा, "मीडिया और चाटुकार" मिलकर पहले सेलेब्रिटी गढ़ते हैं, फ़िर उनके किस्से-कहानी गढ़ते हैं, फ़िर दिन-रात उनके स्तुतिगान गाकर जबरदस्ती जनता के माथे पर थोपते हैं।
हालांकि सच्चे अर्थों में संघर्ष करने वाले ज़मीनी लोग कैमरों की चकाचौंध से दूर समाजसेवा के क्षेत्र में अपना काम करते रहते हैं फ़िर भी मीडिया का यह कर्तव्य है कि वह ऐसे लोगों को जनता के सामने लाये… और उन पर भी अपना "बहुमूल्य"(?) समय खर्च करे…। हमारे मालवा में पूरी तरह से निकम्मे (Useless) व्यक्ति को "बिल्ली का गू" कहते हैं, यानी जो न लीपने के काम आये, न ही कण्डे बनाने के… जब भी, जहाँ भी गिरे गन्दगी ही फ़ैलाए…। टीवी पर बार-बार राहुल महाजन के कई एपीसोड देखने के बाद एक बुजुर्ग की टिप्पणी थी, "यो प्रमोद बाबू को छोरो तो बिल्ली को गू हे, अन ई चेनल वाला भी…"
ताज़ा खबर दिखाई गई है कि "राहुल महाजन ने अपनी पिटाई की हुई बीबी के साथ सिद्धिविनायक के दर्शन किये…" यानी कि तीन दिन बाद भी राहुल महाजन मीडिया की हेडलाइन था, सो अब यह तय करना मुश्किल होता जा रहा है कि राहुल अधिक छिछोरा है या हमारा "सो कॉल्ड नेशनल मीडिया"…
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