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शुक्रवार, 26 फरवरी 2010 12:14
हिन्दी ब्लॉगिंग, सचिन तेंडुलकर से प्रेरणा और उनके टिप्स… … Hindi Blogging and Sachin Tendulkar
किसी भी खेल में 20 वर्ष गुज़ारना और लगातार अच्छा प्रदर्शन करना किसी भी खिलाड़ी के लिये एक स्वप्न के समान ही है। हाल ही में मेरे (और पूरे विश्व के) सबसे प्रिय सचिन तेण्डुलकर ने अपने क्रिकेटीय जीवन के 20 साल पूरे किये। रिकॉर्ड्स की बात करना तो बेकार ही है, क्योंकि उनके कुछ रिकॉर्ड तो शायद अब कभी नहीं टूटने वाले… कल ग्वालियर में उन्होंने वन-डे में 200 रन बनाकर एक और शिखर छू लिया…। कोई सम्मान या कोई पुरस्कार अब सचिन के सामने बौना है, भारत रत्न को छोड़कर।
अब आप सोचेंगे कि सचिन का हिन्दी ब्लॉगिंग और ब्लॉग से क्या लेना-देना? असल में सचिन तेंडुलकर ने समय-समय पर जो टिप्स अपने साथी खिलाड़ियों को दिये हैं और अपने पूरे खेल जीवन में जैसा “कर्म”, “चरित्र” और “नम्रता” दिखाई, वह मुझ सहित सभी ब्लॉगरों के लिये एक प्रेरणास्रोत है…
ब्लॉगिंग और ब्लॉग के प्रति समर्पण, लगन रखना और मेहनत करना बेहद जरूरी है, खासकर “विचारधारा” आधारित ब्लॉग लिखते समय। तेंडुलकर ने अपने कैरियर की शुरुआत से जिस तरह क्रिकेट के प्रति अपना जुनून बरकरार रखा है, वैसा ही जुनून ब्लॉगिंग करते समय लगातार बनाये रखें…
जिस तरह तेंडुलकर ने अज़हरुद्दीन से लेकर महेन्द्रसिंह धोनी तक की कप्तानी में अपना नैसर्गिक खेल दिखाया, किसी कप्तान से कभी उनकी खटपट नहीं हुई, वे खुद भी कप्तान रहे लेकिन विवादों और मनमुटाव से हमेशा दूर रहे और अपने प्रदर्शन में गिरावट नहीं आने दी। हिन्दी ब्लॉगिंग जगत में भी प्रत्येक ब्लॉगर को गुटबाजी, व्यक्ति निंदा और आत्मप्रशंसा से दूर रहना चाहिये और चुपचाप अपना प्रदर्शन करते रहना चाहिये।
तेंडुलकर ने युवराज सिंह को यह महत्वपूर्ण सलाह दी है कि “लोगों को खुश करने के लिये मत खेलो, बल्कि अपने लक्ष्य पर निगाह रखो… लोग अपने आप खुश हो जायेंगे”। यह फ़ण्डा भी ब्लॉगर पर पूरी तरह लागू होता है। एक सीधा सा नियम है कि “आप सभी को हर समय खुश नहीं कर सकते…” इसलिये ब्लॉग लिखते समय अपने विचारों पर दृढ रहो, अपने विचार मजबूती से पेश करो, कोई जरूरी नहीं कि सभी लोग तुमसे सहमत हों, इसलिये सबको खुश करने के चक्कर में न पड़ो, अपना लिखो, मौलिक लिखो, बेधड़क लिखो… यदि किसी को पसन्द नहीं आता तो यह उसकी समस्या है, लेकिन तुम अपना लक्ष्य मत भूलो और उसे दिमाग में रखकर ही लिखो…
20 साल लगातार खेलने के बाद भी तेंडुलकर की रनों की भूख कम नहीं हुई है, इसी तरह ब्लॉगरों को अपनी जानकारी की भूख, लिखने की तड़प को बरकरार रखना चाहिये… अपनी ऊर्जा को भी बनाये रखें… जब लगे कि थक गये हैं बीच में कुछ दिन विश्राम लें और फ़िर ऊर्जा एकत्रित करके दोबारा लिखना शुरु करें, तभी लम्बे समय टिक पायेंगे।
मैं स्वयं भी अपनी ब्लॉगिंग में तेंडुलकर “सर” से ऐसे ही कुछ टिप्स लेता हूं।
1) कोशिश रहती है कि विचारधारा के प्रति पूरे समर्पण, लगन और मेहनत से लिखूं।
2) बगैर किसी गुटबाजी में शामिल हुए अपने विचार के प्रति दृढ रहने की कोशिश करता हूं,
3) अपना कप्तान एक ही है “विचारधारा”, उसका प्रदर्शन जारी रहना चाहिये, कोई कितने भी गुट (कप्तान) बना ले, जब तक कप्तान "विचारधारा" है तब तक मैं उसके साथ हूं… चाहे वह उम्र और अनुभव में मुझसे कितना भी छोटा हो… कोई इसे भी गुटबाजी समझता हो तो समझा करे…
4) किसी को खुश करने के लिये नहीं लिखता, सभी को खुश करना लगभग असम्भव है, इसलिये लोगों की फ़िक्र किये बिना “सर” की तरह अपना नैसर्गिक खेल खेलता हूं…
5) मेरी ब्लॉगिंग यात्रा उम्र के 42वें वर्ष से शुरु हुई है, हालांकि अभी तो मुझे भी ब्लॉगिंग में सिर्फ़ 3 साल ही हुए हैं, “रनों” की भूख तो अभी है ही। तेंडुलकर की तरह बीस साल गुज़ारने में अभी लम्बा समय है, जब 62 वर्ष का होऊंगा तब हिसाब लगाऊंगा कि 20 साल की ब्लॉगिंग के बाद भी क्या मुझमें ऊर्जा बची है?
6) तेंडुलकर से नम्रता भी सीखने की कोशिश करता हूं… कोशिश रहती है कि प्राप्त टिप्पणियों पर उत्तेजित न होऊं, प्रतिकूल विचारधारा वाला लेख दिखाई देने पर शान्ति से पढ़कर यदि आवश्यक हो तो ही टिप्पणी करूं, जहाँ तक हो सके दूसरे ब्लॉगरों के नाम के आगे “जी” लगाने की कोशिश करूं, टिप्पणी अथवा लेख का जवाबी लेख तैयार करते समय भी भाषा मर्यादित और संयमित रहे, तेंडुलकर की तरह। ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी कितना भी उकसायें, “सर” उनका जवाब अपने बल्ले से ही देते हैं, उसी तरह विपरीत विचारधारा वाले लोग चाहे कितना भी उकसायें, अपना जवाब अपने ब्लॉग पर लेख में अपने तरीके से देने की कोशिश कर रहा हूं…
कुल मिलाकर तात्पर्य यह है कि अभी तो हिन्दी ब्लॉगिंग की दुनिया में मेरे सीखने के दिन हैं, मुझे समीर लाल जी से सीखना है कि कैसे सबके प्रिय बने रहें… मुझे शिवकुमार जी से सीखना है कि व्यंग्य कैसे लिखा जाता है… मुझे रवि रतलामी जी से सीखना है कि निर्लिप्त और निर्विवाद रहकर चुपचाप अपना काम कैसे किया जाता है… मुझे बेंगानी बन्धुओं से सीखना है कि ब्लॉग और बिजनेस दोनों को एक साथ सफ़ल कैसे किया जाये… सीखने की कोई उम्र नहीं होती… आज भले ही मैं 45 वर्ष का हूं, लेकिन हिन्दी ब्लॉगिंग में तो अभी ठीक से खड़ा होना ही सीखा है, रास्ता बहुत लम्बा है, भगवान की कृपा रही तो अपने लक्ष्य तक अवश्य पहुँचेंगे, और ऐसे में “तेण्डुलकर सर” के ये टिप्स मेरे और आपके सदा काम आयेंगे…।
सभी मित्रों, पाठकों, स्नेहियों, शुभचिन्तकों को रंगों के त्यौहार होली की हार्दिक शुभकामनाएं… देश का माहौल और परिस्थिति कैसी भी हो, चटख रंगों की तरह अपना उल्लास बनाये रखें… लिखते रहें, पढ़ते रहें, सीखते रहें… छद्म-सेकुलरिज़्म का अन्त होना ही है, और भारत को एक दिन “असली” शक्ति बनना ही है…
अब अगला लेख मंगलवार को (होली का खुमार उतरने के बाद), तब तक तेण्डुलकर सर की जय हो… होली है भई होली है…
अब आप सोचेंगे कि सचिन का हिन्दी ब्लॉगिंग और ब्लॉग से क्या लेना-देना? असल में सचिन तेंडुलकर ने समय-समय पर जो टिप्स अपने साथी खिलाड़ियों को दिये हैं और अपने पूरे खेल जीवन में जैसा “कर्म”, “चरित्र” और “नम्रता” दिखाई, वह मुझ सहित सभी ब्लॉगरों के लिये एक प्रेरणास्रोत है…
1) खेल के प्रति समर्पण, लगन और मेहनत –
ब्लॉगिंग और ब्लॉग के प्रति समर्पण, लगन रखना और मेहनत करना बेहद जरूरी है, खासकर “विचारधारा” आधारित ब्लॉग लिखते समय। तेंडुलकर ने अपने कैरियर की शुरुआत से जिस तरह क्रिकेट के प्रति अपना जुनून बरकरार रखा है, वैसा ही जुनून ब्लॉगिंग करते समय लगातार बनाये रखें…
2) कप्तान कोई भी रहे, प्रदर्शन एक जैसा होना चाहिये –
जिस तरह तेंडुलकर ने अज़हरुद्दीन से लेकर महेन्द्रसिंह धोनी तक की कप्तानी में अपना नैसर्गिक खेल दिखाया, किसी कप्तान से कभी उनकी खटपट नहीं हुई, वे खुद भी कप्तान रहे लेकिन विवादों और मनमुटाव से हमेशा दूर रहे और अपने प्रदर्शन में गिरावट नहीं आने दी। हिन्दी ब्लॉगिंग जगत में भी प्रत्येक ब्लॉगर को गुटबाजी, व्यक्ति निंदा और आत्मप्रशंसा से दूर रहना चाहिये और चुपचाप अपना प्रदर्शन करते रहना चाहिये।
3) लोगों को खुश करने के लिये मत खेलो, लक्ष्य के प्रति समर्पित रहो –
तेंडुलकर ने युवराज सिंह को यह महत्वपूर्ण सलाह दी है कि “लोगों को खुश करने के लिये मत खेलो, बल्कि अपने लक्ष्य पर निगाह रखो… लोग अपने आप खुश हो जायेंगे”। यह फ़ण्डा भी ब्लॉगर पर पूरी तरह लागू होता है। एक सीधा सा नियम है कि “आप सभी को हर समय खुश नहीं कर सकते…” इसलिये ब्लॉग लिखते समय अपने विचारों पर दृढ रहो, अपने विचार मजबूती से पेश करो, कोई जरूरी नहीं कि सभी लोग तुमसे सहमत हों, इसलिये सबको खुश करने के चक्कर में न पड़ो, अपना लिखो, मौलिक लिखो, बेधड़क लिखो… यदि किसी को पसन्द नहीं आता तो यह उसकी समस्या है, लेकिन तुम अपना लक्ष्य मत भूलो और उसे दिमाग में रखकर ही लिखो…
4) रनों की भूख कम न हो और ऊर्जा बरकरार रहे –
20 साल लगातार खेलने के बाद भी तेंडुलकर की रनों की भूख कम नहीं हुई है, इसी तरह ब्लॉगरों को अपनी जानकारी की भूख, लिखने की तड़प को बरकरार रखना चाहिये… अपनी ऊर्जा को भी बनाये रखें… जब लगे कि थक गये हैं बीच में कुछ दिन विश्राम लें और फ़िर ऊर्जा एकत्रित करके दोबारा लिखना शुरु करें, तभी लम्बे समय टिक पायेंगे।
मैं स्वयं भी अपनी ब्लॉगिंग में तेंडुलकर “सर” से ऐसे ही कुछ टिप्स लेता हूं।
1) कोशिश रहती है कि विचारधारा के प्रति पूरे समर्पण, लगन और मेहनत से लिखूं।
2) बगैर किसी गुटबाजी में शामिल हुए अपने विचार के प्रति दृढ रहने की कोशिश करता हूं,
3) अपना कप्तान एक ही है “विचारधारा”, उसका प्रदर्शन जारी रहना चाहिये, कोई कितने भी गुट (कप्तान) बना ले, जब तक कप्तान "विचारधारा" है तब तक मैं उसके साथ हूं… चाहे वह उम्र और अनुभव में मुझसे कितना भी छोटा हो… कोई इसे भी गुटबाजी समझता हो तो समझा करे…
4) किसी को खुश करने के लिये नहीं लिखता, सभी को खुश करना लगभग असम्भव है, इसलिये लोगों की फ़िक्र किये बिना “सर” की तरह अपना नैसर्गिक खेल खेलता हूं…
5) मेरी ब्लॉगिंग यात्रा उम्र के 42वें वर्ष से शुरु हुई है, हालांकि अभी तो मुझे भी ब्लॉगिंग में सिर्फ़ 3 साल ही हुए हैं, “रनों” की भूख तो अभी है ही। तेंडुलकर की तरह बीस साल गुज़ारने में अभी लम्बा समय है, जब 62 वर्ष का होऊंगा तब हिसाब लगाऊंगा कि 20 साल की ब्लॉगिंग के बाद भी क्या मुझमें ऊर्जा बची है?
6) तेंडुलकर से नम्रता भी सीखने की कोशिश करता हूं… कोशिश रहती है कि प्राप्त टिप्पणियों पर उत्तेजित न होऊं, प्रतिकूल विचारधारा वाला लेख दिखाई देने पर शान्ति से पढ़कर यदि आवश्यक हो तो ही टिप्पणी करूं, जहाँ तक हो सके दूसरे ब्लॉगरों के नाम के आगे “जी” लगाने की कोशिश करूं, टिप्पणी अथवा लेख का जवाबी लेख तैयार करते समय भी भाषा मर्यादित और संयमित रहे, तेंडुलकर की तरह। ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी कितना भी उकसायें, “सर” उनका जवाब अपने बल्ले से ही देते हैं, उसी तरह विपरीत विचारधारा वाले लोग चाहे कितना भी उकसायें, अपना जवाब अपने ब्लॉग पर लेख में अपने तरीके से देने की कोशिश कर रहा हूं…
कुल मिलाकर तात्पर्य यह है कि अभी तो हिन्दी ब्लॉगिंग की दुनिया में मेरे सीखने के दिन हैं, मुझे समीर लाल जी से सीखना है कि कैसे सबके प्रिय बने रहें… मुझे शिवकुमार जी से सीखना है कि व्यंग्य कैसे लिखा जाता है… मुझे रवि रतलामी जी से सीखना है कि निर्लिप्त और निर्विवाद रहकर चुपचाप अपना काम कैसे किया जाता है… मुझे बेंगानी बन्धुओं से सीखना है कि ब्लॉग और बिजनेस दोनों को एक साथ सफ़ल कैसे किया जाये… सीखने की कोई उम्र नहीं होती… आज भले ही मैं 45 वर्ष का हूं, लेकिन हिन्दी ब्लॉगिंग में तो अभी ठीक से खड़ा होना ही सीखा है, रास्ता बहुत लम्बा है, भगवान की कृपा रही तो अपने लक्ष्य तक अवश्य पहुँचेंगे, और ऐसे में “तेण्डुलकर सर” के ये टिप्स मेरे और आपके सदा काम आयेंगे…।
सभी मित्रों, पाठकों, स्नेहियों, शुभचिन्तकों को रंगों के त्यौहार होली की हार्दिक शुभकामनाएं… देश का माहौल और परिस्थिति कैसी भी हो, चटख रंगों की तरह अपना उल्लास बनाये रखें… लिखते रहें, पढ़ते रहें, सीखते रहें… छद्म-सेकुलरिज़्म का अन्त होना ही है, और भारत को एक दिन “असली” शक्ति बनना ही है…
अब अगला लेख मंगलवार को (होली का खुमार उतरने के बाद), तब तक तेण्डुलकर सर की जय हो… होली है भई होली है…
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ब्लॉग
बुधवार, 24 फरवरी 2010 14:25
इस्लाम की छवि पूरी दुनिया में बुरी क्यों है… शायद ज़ाकिर नाईक जैसों के कारण?…… Zakir Naik, Islamic Propagandist, Indian Muslims & Secularism
एक इस्लामिक विद्वान(?) माने जाते हैं ज़ाकिर नाईक, पूरे भारत भर में घूम-घूम कर विभिन्न मंचों से इस्लाम का प्रचार करते हैं। इनके लाखों फ़ॉलोअर हैं जो इनकी हर बात को मानते हैं, ऐसा कहा जाता है कि ज़ाकिर नाईक जो भी कहते हैं या जो उदाहरण देते हैं वह “कुर-आन” की रोशनी में ही देते हैं। अर्थात इस्लाम के बारे में या इस्लामी धारणाओं-परम्पराओं के बारे में ज़ाकिर नाईक से कोई भी सवाल किया जाये तो वह “कुर-आन” के सन्दर्भ में ही जवाब देंगे। कुछ मूर्ख लोग इन्हें “उदार इस्लामिक” व्यक्ति भी मानते हैं, इन्हें पूरे भारत में खुलेआम कुछ भी कहने का अधिकार प्राप्त है क्योंकि यह सेकुलर देश है, लेकिन नीचे दिये गये दो वीडियो देखिये जिसमें यह आदमी “धर्म परिवर्तन” और “अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकार” के सवाल पर इस्लाम की व्याख्या किस तरह कर रहा है…
पहले वीडियो में उदारवादी(?) ज़ाकिर नाईक साहब फ़रमाते हैं कि यदि कोई व्यक्ति मुस्लिम से गैर-मुस्लिम बन जाता है तो उसकी सज़ा मौत है, यहाँ तक कि इस्लाम में आने के बाद वापस जाने की सजा भी मौत है…नाईक साहब फ़रमाते हैं कि चूंकि यह एक प्रकार की “गद्दारी” है इसलिये जैसे किसी देश के किसी व्यक्ति को अपने राज़ दूसरे देश को देने की सजा मौत होती है वही सजा इस्लाम से गैर-इस्लाम अपनाने पर होती है… है न कुतर्क की इन्तेहा… (अब ज़ाहिर है कि ज़ाकिर नाईक वेदों और कुर-आन के तथाकथित ज्ञाता हैं इसका मतलब कुर-आन में भी ऐसा ही लिखा होगा)। इसका एक मतलब यह भी है कि इस्लाम में “आना” वन-वे ट्रैफ़िक है, कोई इस्लाम में आ तो सकता है, लेकिन जा नहीं सकता (इसी से मिलता-जुलता कथन फ़िल्मों में मुम्बई का अण्डरवर्ल्ड माफ़िया भी दोहराता है), तो इससे क्या समझा जाये? सोचिये कि इस कथन और व्याख्या से कोई गैर-इस्लामी व्यक्ति क्या समझे? और जब कुर-आन की ऐसी व्याख्या मदरसे में पढ़ा(?) कोई मंदबुद्धि व्यक्ति सुनेगा तो वह कैसे “रिएक्ट” करेगा?
अब इसे कश्मीर के रजनीश मामले और कोलकाता के रिज़वान मामले से जोड़कर देखिये… दिमाग हिल जायेगा, क्योंकि ऐसा संदेह भी व्यक्त किया जा रहा है कि लक्स कोज़ी वाले अशोक तोड़ी ने रिज़वान को इस्लाम छोड़ने के लिये लगभग राजी कर लिया था, फ़िर संदेहास्पद तरीके से उसकी लाश पटरियों पर पाई गई और अब मामला न्यायालय में है, इसी तरह कश्मीर में रजनीश की थाने में हत्या कर दी गई, उसके द्वारा शादी करके लाई गई मुस्लिम लड़की अमीना को उसके घरवाले जम्मू से अपहरण करके श्रीनगर ले जा चुके… और उमर अब्दुल्ला जाँच का आश्वासन दे रहे हैं। यानी कि शरीयत के मुताबिक नाबालिग हिन्दू लड़की भी भगाई जा सकती है, लेकिन पढ़ी-लिखी वयस्क मुस्लिम लड़की किसी हिन्दू से शादी नहीं कर सकती। तात्पर्य यह है कि जब इस्लाम के तथाकथित विद्वान ज़ाकिर नाईक जब कुतर्कों के सहारे कुर-आन की मनमानी व्याख्या करते फ़िरते हैं तब “सेकुलर” सरकारें सोती क्यों रहती हैं? वामपंथी बगलें क्यों झाँकते रहते हैं? अब एक दूसरा वीडियो भी देखिये…
इस वीडियो में ज़ाकिर नाईक साहब फ़रमाते हैं कि मुस्लिम देशों में किसी अन्य धर्मांवलम्बी को किसी प्रकार के मानवाधिकार प्राप्त नहीं होने चाहिये, यहाँ तक कि किसी अन्य धर्म के पूजा स्थल भी नहीं बनाये जा सकते, सऊदी अरब और “etc.” का उदाहरण देते हुए वे कुतर्क देते रहते हैं, अपने सपनों में रमे हुए ज़ाकिर नाईक लगातार दोहराते हैं कि इस्लाम ही एकमात्र धर्म है, बाकी सब बेकार हैं, और मजे की बात यह कि फ़िर भी “कुर-आन” की टेक नहीं छोड़ते। ज़ाकिर नाईक के अनुसार मुस्लिम लोग तो किसी भी देश में मस्जिदें बना सकते हैं लेकिन इस्लामिक देश में चर्च या मन्दिर नहीं चलेगा। यदि कुर-आन में यही सब लिखा है तो समझ नहीं आता कि फ़िर काहे “शान्ति का धर्म” वाला राग अलापते रहते हैं? और जो भी मुठ्ठी भर शान्तिप्रिय समझदार मुसलमान हैं वह ऐसे “विद्वान”(?) का विरोध क्यों नहीं करते? वीडियो को पूरा सुनिये और सोचिये कि ज़ाकिर नाईक और तालिबान में कोई फ़र्क नज़र आता है आपको?
पाकिस्तान और अन्य इस्लामिक देशों से लगातार खबरें आती हैं कि वहाँ अल्पसंख्यकों पर अत्याचार होते हैं, मलेशिया में हिन्दुओं पर ज़ुल्म होते हैं, पाकिस्तान में हिन्दू जनसंख्या घटते-घटते 2 प्रतिशत रह गई है, हिन्दू परिवारों की लड़कियों को जबरन उठा लिया जाता है और इन परिवारों से जज़िया वसूल किया जाता है और हाल ही में पाकिस्तान में तालिबान द्वारा दो सिखों के सर कलम कर दिये गये, क्योंकि उन्होंने इस्लाम कबूल करने से मना कर दिया था, ऐसा लगता है कि यह सब ज़ाकिर नाईक की शिक्षा और व्याख्यानों का असर है। ऐसे में भारतीय मुसलमानों द्वारा ऐसी घटनाओं की कड़ी निंदा तो दूर, इसके विरोध में दबी सी आवाज़ भी नहीं उठाई जाती, ऐसा क्यों होता है? लेकिन ज़ाकिर नाईक जैसे “समाज-सुधारक” और “व्याख्याता” मौजूद हों तब तो हो चुका उद्धार किसी समाज का…। बढ़ते प्रभाव (या दुष्प्रभाव) की वजह से आम लोगों को लगने लगा है कि सचमुच कहीं इस्लाम वैसा ही तो नहीं, जैसा अमेरिका, ब्रिटेन अथवा इज़राइल सारी दुनिया को समझाने की कोशिश कर रहे हैं… और पाकिस्तान, लीबिया, सोमालिया, जैसे देश उसे अमलीजामा पहनाकर दिखा भी रहे हैं…
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पहले वीडियो में उदारवादी(?) ज़ाकिर नाईक साहब फ़रमाते हैं कि यदि कोई व्यक्ति मुस्लिम से गैर-मुस्लिम बन जाता है तो उसकी सज़ा मौत है, यहाँ तक कि इस्लाम में आने के बाद वापस जाने की सजा भी मौत है…नाईक साहब फ़रमाते हैं कि चूंकि यह एक प्रकार की “गद्दारी” है इसलिये जैसे किसी देश के किसी व्यक्ति को अपने राज़ दूसरे देश को देने की सजा मौत होती है वही सजा इस्लाम से गैर-इस्लाम अपनाने पर होती है… है न कुतर्क की इन्तेहा… (अब ज़ाहिर है कि ज़ाकिर नाईक वेदों और कुर-आन के तथाकथित ज्ञाता हैं इसका मतलब कुर-आन में भी ऐसा ही लिखा होगा)। इसका एक मतलब यह भी है कि इस्लाम में “आना” वन-वे ट्रैफ़िक है, कोई इस्लाम में आ तो सकता है, लेकिन जा नहीं सकता (इसी से मिलता-जुलता कथन फ़िल्मों में मुम्बई का अण्डरवर्ल्ड माफ़िया भी दोहराता है), तो इससे क्या समझा जाये? सोचिये कि इस कथन और व्याख्या से कोई गैर-इस्लामी व्यक्ति क्या समझे? और जब कुर-आन की ऐसी व्याख्या मदरसे में पढ़ा(?) कोई मंदबुद्धि व्यक्ति सुनेगा तो वह कैसे “रिएक्ट” करेगा?
अब इसे कश्मीर के रजनीश मामले और कोलकाता के रिज़वान मामले से जोड़कर देखिये… दिमाग हिल जायेगा, क्योंकि ऐसा संदेह भी व्यक्त किया जा रहा है कि लक्स कोज़ी वाले अशोक तोड़ी ने रिज़वान को इस्लाम छोड़ने के लिये लगभग राजी कर लिया था, फ़िर संदेहास्पद तरीके से उसकी लाश पटरियों पर पाई गई और अब मामला न्यायालय में है, इसी तरह कश्मीर में रजनीश की थाने में हत्या कर दी गई, उसके द्वारा शादी करके लाई गई मुस्लिम लड़की अमीना को उसके घरवाले जम्मू से अपहरण करके श्रीनगर ले जा चुके… और उमर अब्दुल्ला जाँच का आश्वासन दे रहे हैं। यानी कि शरीयत के मुताबिक नाबालिग हिन्दू लड़की भी भगाई जा सकती है, लेकिन पढ़ी-लिखी वयस्क मुस्लिम लड़की किसी हिन्दू से शादी नहीं कर सकती। तात्पर्य यह है कि जब इस्लाम के तथाकथित विद्वान ज़ाकिर नाईक जब कुतर्कों के सहारे कुर-आन की मनमानी व्याख्या करते फ़िरते हैं तब “सेकुलर” सरकारें सोती क्यों रहती हैं? वामपंथी बगलें क्यों झाँकते रहते हैं? अब एक दूसरा वीडियो भी देखिये…
इस वीडियो में ज़ाकिर नाईक साहब फ़रमाते हैं कि मुस्लिम देशों में किसी अन्य धर्मांवलम्बी को किसी प्रकार के मानवाधिकार प्राप्त नहीं होने चाहिये, यहाँ तक कि किसी अन्य धर्म के पूजा स्थल भी नहीं बनाये जा सकते, सऊदी अरब और “etc.” का उदाहरण देते हुए वे कुतर्क देते रहते हैं, अपने सपनों में रमे हुए ज़ाकिर नाईक लगातार दोहराते हैं कि इस्लाम ही एकमात्र धर्म है, बाकी सब बेकार हैं, और मजे की बात यह कि फ़िर भी “कुर-आन” की टेक नहीं छोड़ते। ज़ाकिर नाईक के अनुसार मुस्लिम लोग तो किसी भी देश में मस्जिदें बना सकते हैं लेकिन इस्लामिक देश में चर्च या मन्दिर नहीं चलेगा। यदि कुर-आन में यही सब लिखा है तो समझ नहीं आता कि फ़िर काहे “शान्ति का धर्म” वाला राग अलापते रहते हैं? और जो भी मुठ्ठी भर शान्तिप्रिय समझदार मुसलमान हैं वह ऐसे “विद्वान”(?) का विरोध क्यों नहीं करते? वीडियो को पूरा सुनिये और सोचिये कि ज़ाकिर नाईक और तालिबान में कोई फ़र्क नज़र आता है आपको?
पाकिस्तान और अन्य इस्लामिक देशों से लगातार खबरें आती हैं कि वहाँ अल्पसंख्यकों पर अत्याचार होते हैं, मलेशिया में हिन्दुओं पर ज़ुल्म होते हैं, पाकिस्तान में हिन्दू जनसंख्या घटते-घटते 2 प्रतिशत रह गई है, हिन्दू परिवारों की लड़कियों को जबरन उठा लिया जाता है और इन परिवारों से जज़िया वसूल किया जाता है और हाल ही में पाकिस्तान में तालिबान द्वारा दो सिखों के सर कलम कर दिये गये, क्योंकि उन्होंने इस्लाम कबूल करने से मना कर दिया था, ऐसा लगता है कि यह सब ज़ाकिर नाईक की शिक्षा और व्याख्यानों का असर है। ऐसे में भारतीय मुसलमानों द्वारा ऐसी घटनाओं की कड़ी निंदा तो दूर, इसके विरोध में दबी सी आवाज़ भी नहीं उठाई जाती, ऐसा क्यों होता है? लेकिन ज़ाकिर नाईक जैसे “समाज-सुधारक” और “व्याख्याता” मौजूद हों तब तो हो चुका उद्धार किसी समाज का…। बढ़ते प्रभाव (या दुष्प्रभाव) की वजह से आम लोगों को लगने लगा है कि सचमुच कहीं इस्लाम वैसा ही तो नहीं, जैसा अमेरिका, ब्रिटेन अथवा इज़राइल सारी दुनिया को समझाने की कोशिश कर रहे हैं… और पाकिस्तान, लीबिया, सोमालिया, जैसे देश उसे अमलीजामा पहनाकर दिखा भी रहे हैं…
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सोमवार, 22 फरवरी 2010 13:25
राहुल गाँधी का ज्ञान, राजनीति और मार्केटिंग के फ़ण्डे … … Rahul Gandhi Indian Politics and Marketing
मार्केटिंग मैनेजमेण्ट के कुछ खास सिद्धान्त होते हैं, जिनके द्वारा जब किसी प्रोडक्ट की लॉंचिंग की जाती है तब उन्हें आजमाया जाता है। ऐसा ही एक प्रोडक्ट भारत की आम जनता के माथे पर थोपने की लगभग सफ़ल कोशिश हुई है। मार्केटिंग के बड़े-बड़े गुरुओं और दिग्विजय सिंह जैसे घाघ और चतुर नेताओं की देखरेख में इस प्रोडक्ट यानी राहुल गाँधी की मार्केटिंग की गई है, और की जा रही है। जब मार्केट में प्रोडक्ट उतारा जा रहा हो, (तथा उसकी गुणवत्ता पर खुद बनाने वाले को ही शक हो) तब मार्केटिंग और भी आक्रामक तरीके से की जाती है, बड़ी लागत में पैसा, श्रम और मानव संसाधन लगाया जाता है, ताकि घटिया से घटिया प्रोडक्ट भी, कम से कम लॉंचिंग के साथ कुछ समय के लिये मार्केट में जम जाये। (मार्केटिंग की इस रणनीति का एक उदाहरण हम “माय नेम इज़ खान” फ़िल्म के पहले भी देख चुके हैं, जिसके द्वारा एक घटिया फ़िल्म को शुरुआती तीन दिनों की ओपनिंग अच्छी मिली)। सरल भाषा में इसे कहें तो “बाज़ार में माहौल बनाना”, उस प्रोडक्ट के प्रति इतनी उत्सुकता पैदा कर देना कि ग्राहक के मन में उस प्रोडक्ट के प्रति लालच का भाव पैदा हो जाये। ग्राहक के चारों ओर ऐसा वातावरण तैयार करना कि उसे लगने लगे कि यदि मैंने यह प्रोडक्ट नहीं खरीदा तो मेरा जीवन बेकार है। हिन्दुस्तान लीवर हो या पेप्सी-कोक सभी बड़ी कम्पनियाँ इसी मार्केटिंग के फ़ण्डे को अपने प्रोडक्ट लॉंच करते समय अपनाती हैं। ग्राहक सदा से मूर्ख बनता रहा है और बनता रहेगा, ऐसा ही कुछ राहुल गाँधी के मामले में भी होने वाला है।
राहुल बाबा को देश का भविष्य बताया जा रहा है, राहुल बाबा युवाओं की आशाओं का एकमात्र केन्द्र हैं, राहुल बाबा देश की तकदीर बदल देंगे, राहुल बाबा यूं हैं, राहुल बाबा त्यूं हैं… हमारे मानसिक कंगाल इलेक्ट्रानिक मीडिया का कहना है कि राहुल बाबा जब भी प्रधानमंत्री बनेंगे (या अपने माता जी की तरह न भी बनें तब भी) देश में रामराज्य आ जायेगा, अब रामराज्य का तो पता नहीं, रोम-राज्य अवश्य आ चुका है (उदाहरण – उड़ीसा के कन्धमाल में यूरोपीय यूनियन के चर्च प्रतिनिधियों का दौरा)।
जब से मनमोहन सिंह दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं और राहुल बाबा ने अपनी माँ के श्रीचरणों का अनुसरण करते हुए मंत्री पद का त्याग किया है तभी से कांग्रेस के मीडिया मैनेजरों और “धृतराष्ट्र और दुर्योधन के मिलेजुले रूप” टाइप के मीडिया ने मिलकर राहुल बाबा की ऐसी छवि निर्माण करने का “नकली अभियान” चलाया है जिसमें जनता स्वतः बहती चली जा रही है। दुर्भाग्य यह है कि जैसे-जैसे राहुल की कथित लोकप्रियता बढ़ रही है, महंगाई भी उससे दोगुनी रफ़्तार से ऊपर की ओर जा रही है, गरीबी भी बढ़ रही है, बेरोज़गारी, कुपोषण, स्विस बैंकों में पैसा, काला धन, किसानों की आत्महत्या… सब कुछ बढ़ रहा है, ऐसे महान हैं हमारे राहुल बाबा उर्फ़ “युवराज” जो आज नहीं तो कल हमारी छाती पर बोझ बनकर ही रहेंगे, चाहे कुछ भी कर लो।
मजे की बात ये है कि राहुल बाबा सिर्फ़ युवाओं से मिलते हैं, और वह भी किसी विश्वविद्यालय के कैम्पस में, जहाँ लड़कियाँ उन्हें देख-देखकर, छू-छूकर हाय, उह, आउच, वाओ आदि चीखती हैं, और राहुल बाबा (बकौल सुब्रह्मण्यम स्वामी – राहुल खुद किसी विश्वविद्यालय से पढ़ाई अधूरी छोड़कर भागे हैं और जिनकी शिक्षा-दीक्षा का रिकॉर्ड अभी संदेह के घेरे में है) किसी बड़े से सभागार में तमाम पढे-लिखे और उच्च समझ वाले प्रोफ़ेसरों(?) की क्लास लेते हैं। खुद को विवेकानन्द का अवतार समझते हुए वे युवाओं को देशहित की बात बताते हैं, और देशहित से उनका मतलब होता है NSUI से जुड़ना। जनसेवा या समाजसेवा (या जो कुछ भी वे कर रहे हैं) का मतलब उनके लिये कॉलेजों में जाकर हमारे टैक्स के पैसों पर पिकनिक मनाना भर है। किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे पर आज तक राहुल बाबा ने कोई स्पष्ट राय नहीं रखी है, उनके सामान्य ज्ञान की पोल तो सरेआम दो-चार बार खुल चुकी है, शायद इसीलिये वे चलते-चलते हवाई बातें करते हैं। वस्तुओं की कीमतों में आग लगी हो, तेलंगाना सुलग रहा हो, पर्यावरण के मुद्दे पर पचौरी चूना लगाये जा रहे हों, मंदी में लाखों नौकरियाँ जा रही हों, चीन हमारी इंच-इंच ज़मीन हड़पता जा रहा हो, उनके चहेते उमर अब्दुल्ला के शासन में थाने में रजनीश की हत्या कर दी गई हो… ऐसे हजारों मुद्दे हैं जिन पर कोई ठोस बयान, कोई कदम उठाना, अपनी मम्मी या मनमोहन अंकल से कहकर किसी नीति में बदलाव करना तो दूर रहा… “राजकुमार” फ़ोटो सेशन के लिये मिट्टी की तगारी उठाये मुस्करा रहे हैं, कैम्पसों में जाकर कांग्रेस का प्रचार कर रहे हैं, विदर्भ में किसान भले मर रहे हों, ये साहब दलित की झोंपड़ी में नौटंकी जारी रखे हुए हैं… और मीडिया उन्हें ऐसे “फ़ॉलो” कर रहा है मानो साक्षात महात्मा गाँधी स्वर्ग (या नर्क) से उतरकर भारत का बेड़ा पार लगाने आन खड़े हुए हैं। यदि राहुल को विश्वविद्यालय से इतना ही प्रेम है तो वे तेलंगाना के उस्मानिया विश्वविद्यालय क्यो नहीं जाते? जहाँ रोज-ब-रोज़ छात्र पुलिस द्वारा पीटे जा रहे हैं या फ़िर वे JNU कैम्पस से चलाये जा रहे वामपंथी कुचक्रों का जवाब देने उधर क्यों नहीं जाते? लेकिन राहुल बाबा जायेंगे आजमगढ़ के विश्वविद्यालय में, जहाँ उनके ज्ञान की पोल भी नहीं खुलेगी और वोटों की खेती भी लहलहायेगी। अपने पहले 5 साल के सांसद कार्यकाल में लोकसभा में सिर्फ़ एक बार मुँह खोलने वाले राजकुमार, देश की समस्याओं को कैसे और कितना समझेंगे?
कहा जाता है कि राहुल बाबा युवाओं से संवाद स्थापित कर रहे हैं? अच्छा? संवाद स्थापित करके अब तक उन्होंने युवाओं की कितनी समस्याओं को सुलझाया है? या प्रधानमंत्री बनने के बाद ही कौन सा गज़ब ढाने वाले हैं? जब उनके पिताजी कहते थे कि दिल्ली से चला हुआ एक रुपया गरीबों तक आते-आते पन्द्रह पैसा रह जाता है, तो गरीब सोचता था कि ये “सुदर्शन व्यक्ति” हमारे लिये कुछ करेंगे, लेकिन दूसरे सुदर्शन युवराज तो अब एक कदम आगे बढ़कर कहते हैं कि गरीबों तक आते-आते सिर्फ़ पाँच पैसा रह जाता है। यही बात तो जनता जानना चाहती है, कि राहुल बाबा ये बतायें कि 15 पैसे से 5 पैसे बचने तक उन्होंने क्या किया है, कितने भ्रष्टाचारियों को बेनकाब किया है? भ्रष्ट जज दिनाकरण के महाभियोग प्रस्ताव पर एक भी कांग्रेसी सांसद हस्ताक्षर नहीं करता, लेकिन राहुल बाबा ने कभी इस बारे में एक शब्द भी कहा? “नरेगा” का ढोल पीटते नहीं थकते, लेकिन क्या राजकुमार को यह पता भी है कि अरबों का घालमेल और भ्रष्टाचार इसमें चल रहा है? हाल के पंचायत चुनाव में अकेले मध्यप्रदेश में ही सरपंच का चुनाव लड़ने के लिये ग्रामीण दबंगों ने 1 करोड़ रुपये तक खर्च किये हैं (और ये हाल तब हैं जब मप्र में भाजपा की सरकार है, सोचिये कांग्रेसी राज्यों में “नरेगा” कितना कमाता होगा…), क्योंकि उन्हें पता है कि अगले पाँच साल में “नरेगा” उन्हें मालामाल कर देगा… कभी युवराज के मुँह से इस बारे में भी सुना नहीं गया। अक्सर कांग्रेसी हलकों में एक सवाल पूछा जाता है कि मुम्बई हमले के समय ठाकरे परिवार क्या कर रहा था, आप खुद ही देख लीजिये कि राहुल बाबा भी उस समय एक फ़ार्म हाउस पर पार्टी में व्यस्त थे… और वहाँ से देर सुबह लौटे थे… जबकि दिल्ली के सत्ता गलियारे में रात दस बजे ही हड़कम्प मच चुका था, लेकिन पार्टी जरूरी थी… उसे कैसे छोड़ा जा सकता था।
अरे राहुल भैया, आप शक्कर के दाम तक तो कम नहीं करवा सकते हो, फ़िर काहे देश भर में घूम-घूम कर गरीबों के ज़ख्मों पर नमक मल रहे हो? लेकिन यहाँ फ़िर वही मार्केटिंग का फ़ण्डा काम आता है कि प्रोडक्ट की कमियाँ ढँक कर रखो, उस प्रोडक्ट के “साइड इफ़ेक्ट” के बारे में जनता को मत बताओ, और यह काम करने के लिये टाइम्स ऑफ़ इंडिया, NDTV, द हिन्दू से लेकर तमाम बड़े-बड़े अखबारी-मीडिया-टीवी घराने (जिन्हें आजकल जनता “भाण्ड-गवैया” समझती है) लगे हुए हैं… लेकिन यह लोग एक बात भूल रहे हैं कि किसी प्रोडक्ट से अत्यधिक आशायें जगा देना भी बेहद खतरनाक होता है, क्योंकि जब वह प्रोडक्ट जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता तब हालात और बिगड़ जाते हैं। यदि प्रोडक्ट कोई निर्जीव पदार्थ हो तो ज्यादा से ज्यादा उस कम्पनी को नुकसान होगा, लेकिन राहुल गाँधी नामक नकली प्रोडक्ट जब फ़ेल होगा, तब सामाजिक स्तर पर क्या-क्या और कैसा नुकसान होगा…
जाते-जाते : ईमानदारी से बताईयेगा कि उड़ीसा में चर्च के प्रतिनिधियों के दौरे वाली शर्मनाक खबर के बारे में आपने पुण्यप्रसून वाजपेयी, रवीश कुमार, किशोर अजवाणी, विनोद दुआ, पंकज पचौरी, प्रणय “जेम्स” रॉय, राजदीप सरदेसाई, दिबांग आदि जैसे तथाकथित स्टार पत्रकारों से कोई “बड़ी खबर”, या कोई “सबसे तेज़” खबर, या कोई परिचर्चा, कोई “सामना”, कोई “मुकाबला”, कोई “सीधी बात”, कोई “हम लोग” जैसा कितनी बार सुना-देखा है? मेरा दावा है कि इस मुद्दे को दरी के नीचे खिसकाने में मीडिया ने अहम भूमिका निभाई है, और यह ऐसा कोई पहला मामला भी नहीं है, मीडिया हमेशा से ऐसा करता रहा है, और जब कहा जाता है कि मीडिया “पैसे के भूखे लोगों का शिकारी झुण्ड” है तो कुछ लोगों को मिर्ची लग जाती है। यही मीडिया परिवार विशेष का चमचा है, सम्प्रदाय विशेष का दुश्मन है, पार्टी विशेष के प्रति प्रेम भावना से आसक्त है…
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युवाओं से अनुरोध है कि इस लेख को अपने “राहुल भक्त” मित्रों को ट्वीट करें, ऑरकुट करें, फ़ॉरवर्ड करें… ताकि वे भी तो जान सकें कि जिस प्रोडक्ट को मार्केटिंग के जरिये उनके माथे पर ठेला जा रहा है, वह प्रोडक्ट कैसा है…
Marketing of Rahul Gandhi, Rahul Gandhi as a Product, Indian Politics and Gandhi Family, University Campus and Rahul Gandhi, Issues Before India, Telangana, Vidarbha and Rahul Gandhi, राहुल गाँधी की मार्केटिंग, राहुल गाँधी और भारतीय राजनीति, भारत की समस्याएं और गाँधी परिवार, तेलंगाना विदर्भ और राहुल गाँधी, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
राहुल बाबा को देश का भविष्य बताया जा रहा है, राहुल बाबा युवाओं की आशाओं का एकमात्र केन्द्र हैं, राहुल बाबा देश की तकदीर बदल देंगे, राहुल बाबा यूं हैं, राहुल बाबा त्यूं हैं… हमारे मानसिक कंगाल इलेक्ट्रानिक मीडिया का कहना है कि राहुल बाबा जब भी प्रधानमंत्री बनेंगे (या अपने माता जी की तरह न भी बनें तब भी) देश में रामराज्य आ जायेगा, अब रामराज्य का तो पता नहीं, रोम-राज्य अवश्य आ चुका है (उदाहरण – उड़ीसा के कन्धमाल में यूरोपीय यूनियन के चर्च प्रतिनिधियों का दौरा)।
जब से मनमोहन सिंह दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं और राहुल बाबा ने अपनी माँ के श्रीचरणों का अनुसरण करते हुए मंत्री पद का त्याग किया है तभी से कांग्रेस के मीडिया मैनेजरों और “धृतराष्ट्र और दुर्योधन के मिलेजुले रूप” टाइप के मीडिया ने मिलकर राहुल बाबा की ऐसी छवि निर्माण करने का “नकली अभियान” चलाया है जिसमें जनता स्वतः बहती चली जा रही है। दुर्भाग्य यह है कि जैसे-जैसे राहुल की कथित लोकप्रियता बढ़ रही है, महंगाई भी उससे दोगुनी रफ़्तार से ऊपर की ओर जा रही है, गरीबी भी बढ़ रही है, बेरोज़गारी, कुपोषण, स्विस बैंकों में पैसा, काला धन, किसानों की आत्महत्या… सब कुछ बढ़ रहा है, ऐसे महान हैं हमारे राहुल बाबा उर्फ़ “युवराज” जो आज नहीं तो कल हमारी छाती पर बोझ बनकर ही रहेंगे, चाहे कुछ भी कर लो।
मजे की बात ये है कि राहुल बाबा सिर्फ़ युवाओं से मिलते हैं, और वह भी किसी विश्वविद्यालय के कैम्पस में, जहाँ लड़कियाँ उन्हें देख-देखकर, छू-छूकर हाय, उह, आउच, वाओ आदि चीखती हैं, और राहुल बाबा (बकौल सुब्रह्मण्यम स्वामी – राहुल खुद किसी विश्वविद्यालय से पढ़ाई अधूरी छोड़कर भागे हैं और जिनकी शिक्षा-दीक्षा का रिकॉर्ड अभी संदेह के घेरे में है) किसी बड़े से सभागार में तमाम पढे-लिखे और उच्च समझ वाले प्रोफ़ेसरों(?) की क्लास लेते हैं। खुद को विवेकानन्द का अवतार समझते हुए वे युवाओं को देशहित की बात बताते हैं, और देशहित से उनका मतलब होता है NSUI से जुड़ना। जनसेवा या समाजसेवा (या जो कुछ भी वे कर रहे हैं) का मतलब उनके लिये कॉलेजों में जाकर हमारे टैक्स के पैसों पर पिकनिक मनाना भर है। किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे पर आज तक राहुल बाबा ने कोई स्पष्ट राय नहीं रखी है, उनके सामान्य ज्ञान की पोल तो सरेआम दो-चार बार खुल चुकी है, शायद इसीलिये वे चलते-चलते हवाई बातें करते हैं। वस्तुओं की कीमतों में आग लगी हो, तेलंगाना सुलग रहा हो, पर्यावरण के मुद्दे पर पचौरी चूना लगाये जा रहे हों, मंदी में लाखों नौकरियाँ जा रही हों, चीन हमारी इंच-इंच ज़मीन हड़पता जा रहा हो, उनके चहेते उमर अब्दुल्ला के शासन में थाने में रजनीश की हत्या कर दी गई हो… ऐसे हजारों मुद्दे हैं जिन पर कोई ठोस बयान, कोई कदम उठाना, अपनी मम्मी या मनमोहन अंकल से कहकर किसी नीति में बदलाव करना तो दूर रहा… “राजकुमार” फ़ोटो सेशन के लिये मिट्टी की तगारी उठाये मुस्करा रहे हैं, कैम्पसों में जाकर कांग्रेस का प्रचार कर रहे हैं, विदर्भ में किसान भले मर रहे हों, ये साहब दलित की झोंपड़ी में नौटंकी जारी रखे हुए हैं… और मीडिया उन्हें ऐसे “फ़ॉलो” कर रहा है मानो साक्षात महात्मा गाँधी स्वर्ग (या नर्क) से उतरकर भारत का बेड़ा पार लगाने आन खड़े हुए हैं। यदि राहुल को विश्वविद्यालय से इतना ही प्रेम है तो वे तेलंगाना के उस्मानिया विश्वविद्यालय क्यो नहीं जाते? जहाँ रोज-ब-रोज़ छात्र पुलिस द्वारा पीटे जा रहे हैं या फ़िर वे JNU कैम्पस से चलाये जा रहे वामपंथी कुचक्रों का जवाब देने उधर क्यों नहीं जाते? लेकिन राहुल बाबा जायेंगे आजमगढ़ के विश्वविद्यालय में, जहाँ उनके ज्ञान की पोल भी नहीं खुलेगी और वोटों की खेती भी लहलहायेगी। अपने पहले 5 साल के सांसद कार्यकाल में लोकसभा में सिर्फ़ एक बार मुँह खोलने वाले राजकुमार, देश की समस्याओं को कैसे और कितना समझेंगे?
कहा जाता है कि राहुल बाबा युवाओं से संवाद स्थापित कर रहे हैं? अच्छा? संवाद स्थापित करके अब तक उन्होंने युवाओं की कितनी समस्याओं को सुलझाया है? या प्रधानमंत्री बनने के बाद ही कौन सा गज़ब ढाने वाले हैं? जब उनके पिताजी कहते थे कि दिल्ली से चला हुआ एक रुपया गरीबों तक आते-आते पन्द्रह पैसा रह जाता है, तो गरीब सोचता था कि ये “सुदर्शन व्यक्ति” हमारे लिये कुछ करेंगे, लेकिन दूसरे सुदर्शन युवराज तो अब एक कदम आगे बढ़कर कहते हैं कि गरीबों तक आते-आते सिर्फ़ पाँच पैसा रह जाता है। यही बात तो जनता जानना चाहती है, कि राहुल बाबा ये बतायें कि 15 पैसे से 5 पैसे बचने तक उन्होंने क्या किया है, कितने भ्रष्टाचारियों को बेनकाब किया है? भ्रष्ट जज दिनाकरण के महाभियोग प्रस्ताव पर एक भी कांग्रेसी सांसद हस्ताक्षर नहीं करता, लेकिन राहुल बाबा ने कभी इस बारे में एक शब्द भी कहा? “नरेगा” का ढोल पीटते नहीं थकते, लेकिन क्या राजकुमार को यह पता भी है कि अरबों का घालमेल और भ्रष्टाचार इसमें चल रहा है? हाल के पंचायत चुनाव में अकेले मध्यप्रदेश में ही सरपंच का चुनाव लड़ने के लिये ग्रामीण दबंगों ने 1 करोड़ रुपये तक खर्च किये हैं (और ये हाल तब हैं जब मप्र में भाजपा की सरकार है, सोचिये कांग्रेसी राज्यों में “नरेगा” कितना कमाता होगा…), क्योंकि उन्हें पता है कि अगले पाँच साल में “नरेगा” उन्हें मालामाल कर देगा… कभी युवराज के मुँह से इस बारे में भी सुना नहीं गया। अक्सर कांग्रेसी हलकों में एक सवाल पूछा जाता है कि मुम्बई हमले के समय ठाकरे परिवार क्या कर रहा था, आप खुद ही देख लीजिये कि राहुल बाबा भी उस समय एक फ़ार्म हाउस पर पार्टी में व्यस्त थे… और वहाँ से देर सुबह लौटे थे… जबकि दिल्ली के सत्ता गलियारे में रात दस बजे ही हड़कम्प मच चुका था, लेकिन पार्टी जरूरी थी… उसे कैसे छोड़ा जा सकता था।
अरे राहुल भैया, आप शक्कर के दाम तक तो कम नहीं करवा सकते हो, फ़िर काहे देश भर में घूम-घूम कर गरीबों के ज़ख्मों पर नमक मल रहे हो? लेकिन यहाँ फ़िर वही मार्केटिंग का फ़ण्डा काम आता है कि प्रोडक्ट की कमियाँ ढँक कर रखो, उस प्रोडक्ट के “साइड इफ़ेक्ट” के बारे में जनता को मत बताओ, और यह काम करने के लिये टाइम्स ऑफ़ इंडिया, NDTV, द हिन्दू से लेकर तमाम बड़े-बड़े अखबारी-मीडिया-टीवी घराने (जिन्हें आजकल जनता “भाण्ड-गवैया” समझती है) लगे हुए हैं… लेकिन यह लोग एक बात भूल रहे हैं कि किसी प्रोडक्ट से अत्यधिक आशायें जगा देना भी बेहद खतरनाक होता है, क्योंकि जब वह प्रोडक्ट जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता तब हालात और बिगड़ जाते हैं। यदि प्रोडक्ट कोई निर्जीव पदार्थ हो तो ज्यादा से ज्यादा उस कम्पनी को नुकसान होगा, लेकिन राहुल गाँधी नामक नकली प्रोडक्ट जब फ़ेल होगा, तब सामाजिक स्तर पर क्या-क्या और कैसा नुकसान होगा…
जाते-जाते : ईमानदारी से बताईयेगा कि उड़ीसा में चर्च के प्रतिनिधियों के दौरे वाली शर्मनाक खबर के बारे में आपने पुण्यप्रसून वाजपेयी, रवीश कुमार, किशोर अजवाणी, विनोद दुआ, पंकज पचौरी, प्रणय “जेम्स” रॉय, राजदीप सरदेसाई, दिबांग आदि जैसे तथाकथित स्टार पत्रकारों से कोई “बड़ी खबर”, या कोई “सबसे तेज़” खबर, या कोई परिचर्चा, कोई “सामना”, कोई “मुकाबला”, कोई “सीधी बात”, कोई “हम लोग” जैसा कितनी बार सुना-देखा है? मेरा दावा है कि इस मुद्दे को दरी के नीचे खिसकाने में मीडिया ने अहम भूमिका निभाई है, और यह ऐसा कोई पहला मामला भी नहीं है, मीडिया हमेशा से ऐसा करता रहा है, और जब कहा जाता है कि मीडिया “पैसे के भूखे लोगों का शिकारी झुण्ड” है तो कुछ लोगों को मिर्ची लग जाती है। यही मीडिया परिवार विशेष का चमचा है, सम्प्रदाय विशेष का दुश्मन है, पार्टी विशेष के प्रति प्रेम भावना से आसक्त है…
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युवाओं से अनुरोध है कि इस लेख को अपने “राहुल भक्त” मित्रों को ट्वीट करें, ऑरकुट करें, फ़ॉरवर्ड करें… ताकि वे भी तो जान सकें कि जिस प्रोडक्ट को मार्केटिंग के जरिये उनके माथे पर ठेला जा रहा है, वह प्रोडक्ट कैसा है…
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ब्लॉग
गुरुवार, 18 फरवरी 2010 12:41
क्या शाहरुख खान का कोई “छिपा हुआ इस्लामिक एजेण्डा” है?...... My Name is Khan, Shahrukh, Islamic Agenda
बाल ठाकरे, मीडिया और जनता को मूर्ख बनाकर, कॉंग्रेस की तरफ़ से अगले लोकसभा चुनावों में अपना टिकट पक्का करने और अपनी फ़िल्म की सफ़ल अन्तर्राष्ट्रीय मार्केटिंग करने वाले शाहरुख खान अब दुबई से लौटकर अपने बंगले मन्नत में आराम फ़रमा रहे हैं। मीडिया को तो खैर इस “काम” के लिये पैसा मिला था और कांग्रेस को मुम्बई में लोकसभा की एक सीट के लिये अज़हरुद्दीन टाइप का सदाबहार “इस्लामिक आईकन” मिल गया, सबसे ज्यादा घाटे में रहे बाल ठाकरे और आम जनता। बाल ठाकरे के बारे में बाद में बात करेंगे, लेकिन जनता तो इस घटिया फ़िल्म को “मीडिया हाइप” की वजह से देखने गई और बेहद निराश हुई, वहीं दूसरी तरफ़ महंगाई और आतंकवाद जैसे मुद्दे 4-5 दिनों के लिये सभी प्रमुख चैनलों से गायब हो गये। इस सारे तमाशे में कुछ प्रमुख बातें उभरकर आईं, खासकर शाहरुख खान द्वारा खुद को इस्लामिक आईकॉन के रूप में प्रचारित करना।
राजनीति की बात बाद में, पहले बात करते हैं फ़िल्म की, क्योंकि फ़िल्म ट्रेड संवाददाताओं और आँकड़े जुटाने वाली वेबसाईटों को स्रोत मानें तो इस फ़िल्म का अब तक का कलेक्शन कमजोर ही रहा है। जब सारे “भारतीय समीक्षकों” ने इस 5 स्टार की रेटिंग दे रखी हो ऐसे में मुम्बई में रिलीज़ 105 थियेटरों में पहले शो की उपस्थिति सिर्फ़ 75% रही, जबकि मीडिया हाइप और उत्सुकता को देखते हुए इसे कम ही कहा जायेगा। करण जौहर की किसी भी फ़िल्म के प्रारम्भिक तीन दिन साधारणतः हाउसफ़ुल जाते हैं, लेकिन इस फ़िल्म में ऐसा तो हुआ नहीं, बल्कि सोमवार आते-आते फ़िल्म की कलई पूरी तरह खुल गई और जहाँ रविवार को दर्शक उपस्थिति 70-80% थी वह सोमवार को घटकर कहीं-कहीं 30% और कहीं-कहीं 15% तक रह गई। ज़ाहिर है कि शुरुआती तीन दिन तो बाल ठाकरे से खुन्नस के चलते, उत्सुकता के चलते, शाहरुख-काजोल की जोड़ी के चलते दर्शक इसे देखने गये, लेकिन बाहर निकलकर “निगेटिव माउथ पब्लिसिटी” के कारण इसकी पोल खुल गई, कि कुल मिलाकर यह एक बकवास फ़िल्म है। और हकीकत भी यही है कि फ़िल्म में शाहरुख खुद तो ओवर-एक्टिंग का शिकार हैं ही, उनकी महानता को दर्शाने वाले सीन भी बेहद झिलाऊ और अविश्वसनीय बन पड़े हैं… ऊपर से बात-बात में कुरान का “ओवरडोज़”…। अमेरिकी कम्पनी फ़ॉक्स स्टार ने इसे 100 करोड़ में खरीदा है, इस दृष्टि से इसे कम से कम 250 करोड़ का राजस्व जुटाना होगा, जो कि फ़िलहाल दूर की कौड़ी नज़र आती है (हालांकि भोंपू पत्रकार झूठे आँकड़े पेश करके इसे 3 इडियट्स से भी अधिक सफ़ल बतायेंगे)…हकीकत इधर देखें…
मीडियाई भोंपुओं द्वारा फ़ैलाया गया गर्द-गुबार बैठ गया है तो शान्ति से बैठकर सोचें कि आखिर हुआ क्या? सारे मामले की शुरुआत हुई शाहरुख के दो बयानों से कि - 1) IPL में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को लिया जाना चाहिये था और 2) पाकिस्तान हमारा एक “महान पड़ोसी” है। इस प्रकार के निहायत शर्मनाक और इतिहासबोध से परे बयान एक जेहादी व्यक्ति ही दे सकता है। पहले बयान की बात करें तो आज की तारीख में भी यह एक “खुला रहस्य” बना हुआ है कि आखिर शाहरुख खान ने अपनी टीम में पाकिस्तान के किसी खिलाड़ी को क्यों नहीं खरीदा? यह सवाल मीडियाई भाण्डों ने उनसे आज तक नहीं पूछा… और जब नहीं खरीदा तब बोली खत्म होने के बाद अचानक उनका पाकिस्तान प्रेम क्यों उमड़ पड़ा? रही-सही कसर बाल ठाकरे ने अपनी मूर्खतापूर्ण कार्रवाईयों के जरिये पूरी कर दी, और शाहरुख को खामखा एक बकवास फ़िल्म को प्रचारित करने का मौका मिल गया।
“महान पड़ोसी” वाला बयान तो निहायत ही बेवकूफ़ाना और उनके “इतिहास ज्ञान” का मखौल उड़ाने वाला है। क्या पाकिस्तान के निर्माण से लेकर आज तक भारत के प्रति उसके व्यवहार, लियाकत अली खान, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो, बेनज़ीर भुट्टो, ज़िया-उल-हक, मुशर्रफ़ और कियानी जैसों तथा तीन-तीन युद्धों के बारे में, शाहरुख खान नहीं जानते? यदि नहीं जानते तब तो वे मूर्ख ही हैं और जानते हैं फ़िर भी “महान पड़ोसी” कहते हैं तब तो वे “जेहादी” हैं और उनका कोई गुप्त एजेण्डा है। शाहरुख खान, या महेश भट्ट जैसे लोग जानते हैं कि “बाज़ार” में अपनी “घटिया चीज़” बेचने के लिये क्या-क्या करना पड़ता है, साथ ही ऐसे “उदारवादी” बयानों से पुरस्कार वगैरह कबाड़ने में भी मदद मिलती है, इसीलिये पाकिस्तान के साथ खेलने के सवाल पर सभी कथित गाँधीवादी, पाकिस्तान के प्रति नॉस्टैल्जिक बूढे और भेड़ की खाल में छुपे बैठे कुछ उदारवादी एक सुर में गाने लगते हैं कि “खेलों में राजनीति नहीं होना चाहिये… खेल इन सबसे ऊपर हैं…”। ऐसे वक्त में यह भूल जाते हैं कि चीन ने भी ओलम्पिक को अपनी “छवि बनाने” के लिये ही उपयोग किया, और “पैसा मिलने” पर “कुछ भी” करने के लिये तैयार आमिर और सैफ़ खान ने, तिब्बतियों, और यहाँ तक कि मुस्लिम उइगुरों के भी दमन के बावजूद, ओलम्पिक मशाल लेकर दौड़ने में कोई कोताही नहीं बरती, जबकि फ़ुटबॉल खिलाड़ी बाइचुंग भूटिया अधिक हिम्मत वाले और मजबूत रीढ़ की हड्डी वाले निकले, जिन्होंने चीन में बौद्धों के दमन के विरोध में ओलम्पिक मशाल नहीं थामी। कोई मूर्ख ही यह सोच सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय खेलों में राजनीति नहीं होती। IPL-3 ने जो कड़ा संदेश पाकिस्तान पहुँचाया था उसे शाहरुख खान ने तुरन्त धोने की कवायद कर डाली, लेकिन किसके इशारे पर? यह प्रश्न संदेह के घेरे में अनुत्तरित है।
बाल ठाकरे, जो पहले ही उत्तर भारतीयों पर निशाना साधने की वजह से जनता की सहानुभूति खो चुके थे, शाहरुख खान और इस्लामिक जगत की इस “इमेज-बनाऊ” “बाजारू चाल” को भाँप नहीं सके और उनके जाल में फ़ँस गये। उप्र-बिहार के निवासियों को नाराज़ करके “हिन्दुत्व आंदोलन” को पहले ही कमजोर कर चुके और उसी वजह से खुद भी कमजोर हो चुके बाल ठाकरे बेवकूफ़ बन गये। युवाओं ने बाल ठाकरे से खुन्नस के चलते मल्टीप्लेक्सों में जाकर इस थर्ड-क्लास फ़िल्म पर अपने पैसे लुटाये (और बाद में पछताये भी)। भाजपा ने युवाओं के इस रुख को भाँप लिया था और वह इससे दूर ही रही, लेकिन तब तक शाहरुख ने खुद को करोड़ों रुपये में खेलने के लिये ज़मीन तैयार कर ली। जबकि बाल ठाकरे यदि रिलीज़ से एक-दो दिन पहले इस फ़िल्म की पायरेटेड सीडी हजारों की संख्या में अपने कार्यकर्ताओं के जरिये आम जनता और युवाओं में बंटवाते तो वह विरोध अधिक प्रभावशाली होता तथा पहले तीन दिन जितने लोग मूर्ख बनने थियेटरों में गये, उनके पैसे भी बचते। ठाकरे के इस कदम का विरोध करना भी मुश्किल हो जाता क्योंकि पाकिस्तान में भारतीय फ़िल्मों और गानों की पाइरेसी से करोड़ों रुपये का फ़टका खाने के बावजूद इधर के मूर्ख कलाकार अभी भी पाकिस्तान का गुणगान किये ही जा रहे हैं।
कुछ पत्रकार बन्धुओं का शाहरुख प्रेम अचानक जागृत हो उठा है, शाहरुख के पिता ऐसे थे, दादाजी वैसे थे, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे, आजादी की लड़ाई में भाग भी लिया था… आदि-आदि-आदि किस्से हवा में तैरने लगे हैं, लेकिन वे लोग यह भूल जाते हैं कि शाहरुख शाहरुख हैं, अपने पिता और दादा नहीं…। शाहरुख ने तो “लव जेहाद” अपनाते हुए एक हिन्दू लड़की को भगाकर शादी की है, फ़िर उनकी तुलना स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी से कैसे की जा सकती है?
उधर हमारा “बिका हुआ सेकुलर मीडिया” जो पहले ही हिन्दुत्व और हिन्दू हित की खबरों को पीछे धकेल रखता है, हरिद्वार कुम्भ के शाही स्नान की प्रमुख खबरें छोड़कर, देश पर आई इस “सेकुलर आपदा” यानी खान की फ़िल्म रिलीज़ को कवरेज देता रहा (ऐसी ही भौण्डी कोशिश देश के स्वतन्त्रता दिवस के दिन भी हुई थी जब इस व्यक्ति को अमेरिका के हवाई अड्डे पर तलाशी के लिये रोका गया था, उस दिन भी मीडिया ने 15 अगस्त के प्रमुख कार्यक्रम छोड़कर इस छिछोरे पर हुए “कथित अन्याय” को कवरेज में पूरे तीन दिन खा लिये थे)। शाहरुख खान ने पाकिस्तान से मधुर सम्बन्ध की नौटंकी का पहला भाग अपनी फ़िल्म “मैं हूँ ना…” से पहले भी खेला था, अभी जो खेला गया, वह तीसरा भाग था, जबकि दूसरा भाग अमेरिकी हवाई अड्डे की तलाशी वाला था। इससे शक गहराना स्वाभाविक है कि शाहरुख का कोई गुप्त एजेण्डा तो नहीं है? इसी प्रकार फ़िल्म की रिलीज़ के पहले शाहरुख खान ने लन्दन एयरपोर्ट पर बॉडी स्कैनर द्वारा उसकी नग्न तस्वीरें खींचे जाने सम्बन्धी सरासर झूठ बोला, फ़िर उसके हवाले से खबर आई कि उसकी नग्न तस्वीरों पर लन्दन में लड़कियों ने ऑटोग्राफ़ भी लिये… ब्रिटिश कस्टम अधिकारियों के खण्डन के बावजूद (क्योंकि ऐसा नग्न स्कैन सम्भव नहीं है), चमचे पत्रकारों ने कुछ समय हंगामे में गुज़ार दिया… और अचानक तुरन्त ही इस्लामिक जगत की ओर से “फ़तवा” आ गया कि “कोई भी मुसलमान एयरपोर्ट पर अपना बॉडी स्कैनर न करवायें, क्योंकि यह गैर-इस्लामिक है…” ताबड़तोड़ दारुल उलूम ने भी इसका अनुमोदन कर दिया… क्या यह सिर्फ़ संयोग है कि शाहरुख के बयान के तुरन्त बाद फ़तवा आ गया? क्या यह भी संयोग है कि नायक का नाम रिज़वान है (कोलकाता में एक हिन्दू लड़की से शादी रचाने और मौत के बाद “सेकुलरों” द्वारा रोने-पीटने के मामले में भी “हीरो” रिज़वान ही था)। क्या यह भी सिर्फ़ संयोग है कि नायिका एक हिन्दू विधवा है? इतने सारे संयोग एक साथ? मामला कुछ गड़बड़ है भैया…
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इसी विवाद से सम्बन्धित एक और हिट लेख पढ़िये - क्या इन्हीं पाकिस्तानियों के लिये मरे जा रहे हैं शाहरुख खान…
My Name is Khan, Shahrukh Khan, IPL-3 and Pakistani Players, Shahrukh Khan and Islamic Agenda in Bollywood, Rizwan Khan Kolkata, Bal Thakrey and Secular Media, Indo-Pak Talks, माय नेम इज़ खान, शाहरुख खान, आईपीएल-3 पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी, शाहरुख खान और इस्लामिक एजेंडा, रिज़वान खान कोलकाता, बाल ठाकरे सेकुलर मीडिया, भारत पाकिस्तान वार्ता, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
राजनीति की बात बाद में, पहले बात करते हैं फ़िल्म की, क्योंकि फ़िल्म ट्रेड संवाददाताओं और आँकड़े जुटाने वाली वेबसाईटों को स्रोत मानें तो इस फ़िल्म का अब तक का कलेक्शन कमजोर ही रहा है। जब सारे “भारतीय समीक्षकों” ने इस 5 स्टार की रेटिंग दे रखी हो ऐसे में मुम्बई में रिलीज़ 105 थियेटरों में पहले शो की उपस्थिति सिर्फ़ 75% रही, जबकि मीडिया हाइप और उत्सुकता को देखते हुए इसे कम ही कहा जायेगा। करण जौहर की किसी भी फ़िल्म के प्रारम्भिक तीन दिन साधारणतः हाउसफ़ुल जाते हैं, लेकिन इस फ़िल्म में ऐसा तो हुआ नहीं, बल्कि सोमवार आते-आते फ़िल्म की कलई पूरी तरह खुल गई और जहाँ रविवार को दर्शक उपस्थिति 70-80% थी वह सोमवार को घटकर कहीं-कहीं 30% और कहीं-कहीं 15% तक रह गई। ज़ाहिर है कि शुरुआती तीन दिन तो बाल ठाकरे से खुन्नस के चलते, उत्सुकता के चलते, शाहरुख-काजोल की जोड़ी के चलते दर्शक इसे देखने गये, लेकिन बाहर निकलकर “निगेटिव माउथ पब्लिसिटी” के कारण इसकी पोल खुल गई, कि कुल मिलाकर यह एक बकवास फ़िल्म है। और हकीकत भी यही है कि फ़िल्म में शाहरुख खुद तो ओवर-एक्टिंग का शिकार हैं ही, उनकी महानता को दर्शाने वाले सीन भी बेहद झिलाऊ और अविश्वसनीय बन पड़े हैं… ऊपर से बात-बात में कुरान का “ओवरडोज़”…। अमेरिकी कम्पनी फ़ॉक्स स्टार ने इसे 100 करोड़ में खरीदा है, इस दृष्टि से इसे कम से कम 250 करोड़ का राजस्व जुटाना होगा, जो कि फ़िलहाल दूर की कौड़ी नज़र आती है (हालांकि भोंपू पत्रकार झूठे आँकड़े पेश करके इसे 3 इडियट्स से भी अधिक सफ़ल बतायेंगे)…हकीकत इधर देखें…
मीडियाई भोंपुओं द्वारा फ़ैलाया गया गर्द-गुबार बैठ गया है तो शान्ति से बैठकर सोचें कि आखिर हुआ क्या? सारे मामले की शुरुआत हुई शाहरुख के दो बयानों से कि - 1) IPL में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को लिया जाना चाहिये था और 2) पाकिस्तान हमारा एक “महान पड़ोसी” है। इस प्रकार के निहायत शर्मनाक और इतिहासबोध से परे बयान एक जेहादी व्यक्ति ही दे सकता है। पहले बयान की बात करें तो आज की तारीख में भी यह एक “खुला रहस्य” बना हुआ है कि आखिर शाहरुख खान ने अपनी टीम में पाकिस्तान के किसी खिलाड़ी को क्यों नहीं खरीदा? यह सवाल मीडियाई भाण्डों ने उनसे आज तक नहीं पूछा… और जब नहीं खरीदा तब बोली खत्म होने के बाद अचानक उनका पाकिस्तान प्रेम क्यों उमड़ पड़ा? रही-सही कसर बाल ठाकरे ने अपनी मूर्खतापूर्ण कार्रवाईयों के जरिये पूरी कर दी, और शाहरुख को खामखा एक बकवास फ़िल्म को प्रचारित करने का मौका मिल गया।
“महान पड़ोसी” वाला बयान तो निहायत ही बेवकूफ़ाना और उनके “इतिहास ज्ञान” का मखौल उड़ाने वाला है। क्या पाकिस्तान के निर्माण से लेकर आज तक भारत के प्रति उसके व्यवहार, लियाकत अली खान, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो, बेनज़ीर भुट्टो, ज़िया-उल-हक, मुशर्रफ़ और कियानी जैसों तथा तीन-तीन युद्धों के बारे में, शाहरुख खान नहीं जानते? यदि नहीं जानते तब तो वे मूर्ख ही हैं और जानते हैं फ़िर भी “महान पड़ोसी” कहते हैं तब तो वे “जेहादी” हैं और उनका कोई गुप्त एजेण्डा है। शाहरुख खान, या महेश भट्ट जैसे लोग जानते हैं कि “बाज़ार” में अपनी “घटिया चीज़” बेचने के लिये क्या-क्या करना पड़ता है, साथ ही ऐसे “उदारवादी” बयानों से पुरस्कार वगैरह कबाड़ने में भी मदद मिलती है, इसीलिये पाकिस्तान के साथ खेलने के सवाल पर सभी कथित गाँधीवादी, पाकिस्तान के प्रति नॉस्टैल्जिक बूढे और भेड़ की खाल में छुपे बैठे कुछ उदारवादी एक सुर में गाने लगते हैं कि “खेलों में राजनीति नहीं होना चाहिये… खेल इन सबसे ऊपर हैं…”। ऐसे वक्त में यह भूल जाते हैं कि चीन ने भी ओलम्पिक को अपनी “छवि बनाने” के लिये ही उपयोग किया, और “पैसा मिलने” पर “कुछ भी” करने के लिये तैयार आमिर और सैफ़ खान ने, तिब्बतियों, और यहाँ तक कि मुस्लिम उइगुरों के भी दमन के बावजूद, ओलम्पिक मशाल लेकर दौड़ने में कोई कोताही नहीं बरती, जबकि फ़ुटबॉल खिलाड़ी बाइचुंग भूटिया अधिक हिम्मत वाले और मजबूत रीढ़ की हड्डी वाले निकले, जिन्होंने चीन में बौद्धों के दमन के विरोध में ओलम्पिक मशाल नहीं थामी। कोई मूर्ख ही यह सोच सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय खेलों में राजनीति नहीं होती। IPL-3 ने जो कड़ा संदेश पाकिस्तान पहुँचाया था उसे शाहरुख खान ने तुरन्त धोने की कवायद कर डाली, लेकिन किसके इशारे पर? यह प्रश्न संदेह के घेरे में अनुत्तरित है।
बाल ठाकरे, जो पहले ही उत्तर भारतीयों पर निशाना साधने की वजह से जनता की सहानुभूति खो चुके थे, शाहरुख खान और इस्लामिक जगत की इस “इमेज-बनाऊ” “बाजारू चाल” को भाँप नहीं सके और उनके जाल में फ़ँस गये। उप्र-बिहार के निवासियों को नाराज़ करके “हिन्दुत्व आंदोलन” को पहले ही कमजोर कर चुके और उसी वजह से खुद भी कमजोर हो चुके बाल ठाकरे बेवकूफ़ बन गये। युवाओं ने बाल ठाकरे से खुन्नस के चलते मल्टीप्लेक्सों में जाकर इस थर्ड-क्लास फ़िल्म पर अपने पैसे लुटाये (और बाद में पछताये भी)। भाजपा ने युवाओं के इस रुख को भाँप लिया था और वह इससे दूर ही रही, लेकिन तब तक शाहरुख ने खुद को करोड़ों रुपये में खेलने के लिये ज़मीन तैयार कर ली। जबकि बाल ठाकरे यदि रिलीज़ से एक-दो दिन पहले इस फ़िल्म की पायरेटेड सीडी हजारों की संख्या में अपने कार्यकर्ताओं के जरिये आम जनता और युवाओं में बंटवाते तो वह विरोध अधिक प्रभावशाली होता तथा पहले तीन दिन जितने लोग मूर्ख बनने थियेटरों में गये, उनके पैसे भी बचते। ठाकरे के इस कदम का विरोध करना भी मुश्किल हो जाता क्योंकि पाकिस्तान में भारतीय फ़िल्मों और गानों की पाइरेसी से करोड़ों रुपये का फ़टका खाने के बावजूद इधर के मूर्ख कलाकार अभी भी पाकिस्तान का गुणगान किये ही जा रहे हैं।
कुछ पत्रकार बन्धुओं का शाहरुख प्रेम अचानक जागृत हो उठा है, शाहरुख के पिता ऐसे थे, दादाजी वैसे थे, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे, आजादी की लड़ाई में भाग भी लिया था… आदि-आदि-आदि किस्से हवा में तैरने लगे हैं, लेकिन वे लोग यह भूल जाते हैं कि शाहरुख शाहरुख हैं, अपने पिता और दादा नहीं…। शाहरुख ने तो “लव जेहाद” अपनाते हुए एक हिन्दू लड़की को भगाकर शादी की है, फ़िर उनकी तुलना स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी से कैसे की जा सकती है?
उधर हमारा “बिका हुआ सेकुलर मीडिया” जो पहले ही हिन्दुत्व और हिन्दू हित की खबरों को पीछे धकेल रखता है, हरिद्वार कुम्भ के शाही स्नान की प्रमुख खबरें छोड़कर, देश पर आई इस “सेकुलर आपदा” यानी खान की फ़िल्म रिलीज़ को कवरेज देता रहा (ऐसी ही भौण्डी कोशिश देश के स्वतन्त्रता दिवस के दिन भी हुई थी जब इस व्यक्ति को अमेरिका के हवाई अड्डे पर तलाशी के लिये रोका गया था, उस दिन भी मीडिया ने 15 अगस्त के प्रमुख कार्यक्रम छोड़कर इस छिछोरे पर हुए “कथित अन्याय” को कवरेज में पूरे तीन दिन खा लिये थे)। शाहरुख खान ने पाकिस्तान से मधुर सम्बन्ध की नौटंकी का पहला भाग अपनी फ़िल्म “मैं हूँ ना…” से पहले भी खेला था, अभी जो खेला गया, वह तीसरा भाग था, जबकि दूसरा भाग अमेरिकी हवाई अड्डे की तलाशी वाला था। इससे शक गहराना स्वाभाविक है कि शाहरुख का कोई गुप्त एजेण्डा तो नहीं है? इसी प्रकार फ़िल्म की रिलीज़ के पहले शाहरुख खान ने लन्दन एयरपोर्ट पर बॉडी स्कैनर द्वारा उसकी नग्न तस्वीरें खींचे जाने सम्बन्धी सरासर झूठ बोला, फ़िर उसके हवाले से खबर आई कि उसकी नग्न तस्वीरों पर लन्दन में लड़कियों ने ऑटोग्राफ़ भी लिये… ब्रिटिश कस्टम अधिकारियों के खण्डन के बावजूद (क्योंकि ऐसा नग्न स्कैन सम्भव नहीं है), चमचे पत्रकारों ने कुछ समय हंगामे में गुज़ार दिया… और अचानक तुरन्त ही इस्लामिक जगत की ओर से “फ़तवा” आ गया कि “कोई भी मुसलमान एयरपोर्ट पर अपना बॉडी स्कैनर न करवायें, क्योंकि यह गैर-इस्लामिक है…” ताबड़तोड़ दारुल उलूम ने भी इसका अनुमोदन कर दिया… क्या यह सिर्फ़ संयोग है कि शाहरुख के बयान के तुरन्त बाद फ़तवा आ गया? क्या यह भी संयोग है कि नायक का नाम रिज़वान है (कोलकाता में एक हिन्दू लड़की से शादी रचाने और मौत के बाद “सेकुलरों” द्वारा रोने-पीटने के मामले में भी “हीरो” रिज़वान ही था)। क्या यह भी सिर्फ़ संयोग है कि नायिका एक हिन्दू विधवा है? इतने सारे संयोग एक साथ? मामला कुछ गड़बड़ है भैया…
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इसी विवाद से सम्बन्धित एक और हिट लेख पढ़िये - क्या इन्हीं पाकिस्तानियों के लिये मरे जा रहे हैं शाहरुख खान…
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ब्लॉग
मंगलवार, 16 फरवरी 2010 12:55
कहीं मनमोहन का नोबेल, शाहरुख का निशान-ए-पाक और करण का ऑस्कर खतरे में न पड़ जाये… ... Nobel Prize, Nishan-E-Pakistan, Oscar
लीजिये साहब, आतंकवादियों को भी यही दिन मिला था पुणे में बम विस्फ़ोट करने के लिये? अभी तो इस्लाम के नये प्रवर्तक महागुरु (घंटाल) शाहरुख खान अपनी मार्केटिंग करके जरा सुस्ताने ही बैठे थे कि ये क्या हो गया…। आतंकवादियों को जरा भी अकल नहीं है, यदि 13 तारीख से इतना ही मोह था, तो 13 मार्च को कर लेते, होली भी उसी महीने पड़ रही है, एक होली खून की भी पड़ लेती तो क्या फ़र्क पड़ता? लेकिन नहीं, एक तरफ़ तो “हुसैन” ओबामा ने कान पकड़कर बातचीत की टेबल पर बैठा दिया है और इधर ये लोग बम फ़ोड़े जा रहे हैं, माना कि जनता कुछ नहीं बोलती, बस वोट देती ही जाती है, लेकिन इन हिन्दूवादियों का क्या करें? बड़ी मुश्किल से तो सारे चैनलों को सेट किया था कि भैया, चाहे प्रलय ही क्यों न आ जाये शाहरुख खान से अधिक महत्वपूर्ण कोई खबर नहीं बनना चाहिये 3-4 दिन तक, वैसा उन्होंने किया भी। सदी की इस सबसे बड़ी घटना अर्थात “फ़िल्म के रिलीज होने” के बाद “पेड-रिव्यू” (शुद्ध हिन्दी में इसे हड्डी-बोटी चबाकर या माल अंटी करके, लिखना कहते हैं) भी दनादन चेपे जाने लगे हैं। पत्रकारों और चैनल चलाने वालों को पहले ही बता दिया गया था कि "ऐसी फ़िल्म न पहले कभी बनी है, न आगे कभी बनेगी… शाहरुख खान ने इसमें बेन किंग्सले और ओमपुरी की भी छुट्टी कर दी है एक्टिंग में… और करण जौहर के सामने, रिचर्ड एटनबरो और श्याम बेनेगल की कोई औकात नहीं रह गई है"। अब ये क्या बात हुई कि दुबई से लौट रहे "खान भाई" को मुम्बई में लाल कालीन स्वागत मिले और उधर पुणे में भी सड़कें लाल कर दी जायें…
करण जौहर को “ऑस्कर”, शाहरुख खान को “निशान-ए-पाकिस्तान” और मनमोहन सिंह को “शान्ति का नोबल पुरस्कार” दिलवाने की पूरी मार्केटिंग, रणनीति, जोड़-तोड़, जुगाड़, व्यवस्था आदि तैयार कर ली गई थी (वैसे तो मनमोहन को नोबल मिल भी जाये तब भी वे उसे शाहरुख को दे देंगे, क्योंकि महानता की बाढ़ में बहते हुए वे पहले ही कह चुके हैं कि “देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है” और शाहरुख की ताज़ा फ़िल्म भी इसी पुरस्कार को ध्यान में रखकर बनाई गई है)… लेकिन इस लश्कर-ए-तोइबा का क्या किया जाये, हमारा ही खाते हैं और हमारे ही यहाँ बम विस्फ़ोट कर देते हैं। इनके भाईयों, कसाब और अफ़ज़ल को इतना संभालकर रखा है, फ़िर भी जरा सा अहसान नहीं मानते… कुछ दिन बाद फ़ोड़ देते। बड़ी मुश्किल से तो राहुल बाबा और शाहरुख खान का माहौल बनाया था। शाहरुख ने शाहिद अफ़रीदी को वेलेन्टाइन का “दोस्ताना” न्यौता दिया था (छी छी छी, गन्दी बात मन में न लायें), जवाब में पाकिस्तान ने भी पुणे में ओशो आश्रम के नज़दीक वेलेन्टाइन मनवा दिया।
खैर चलो जो हुआ सो हुआ… अब अगले कुछ दिनों तक बरसों पुराने आजमाए हुए इन मंत्रों का उच्चार करना है, ताकि बला फ़िलहाल टले –
1) सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी कर दी गई है (2-4 दिन के लिये)
2) आतंकवादियों को पकड़ने के लिये विशेष अभियान छेड़ा जायेगा (ताकि उन्हें चिकन-बिरयानी खिलाई जा सके)
3) हम इस आतंक का मुँहतोड़ जवाब देंगे (फ़िल्म रिलीज़ करने के राष्ट्रीय कर्तव्य से फ़ुर्सत मिलेगी, उसके बाद)
4) राष्ट्र मजबूत है और ((पुणे, जयपुर, वाराणसी, अहमदाबाद, कोयम्बटूर)) के निवासी इस कायराना हमले से नहीं घबरायेंगे (कोष्ठक में अगले बम विस्फ़ोट के समय उस शहर का नाम डाल लीजियेगा)
5) पाकिस्तान के साथ हमें अच्छे सम्बन्ध बनाना है (क्योंकि नोबल शांति पुरस्कार की जरूरत है)
6) आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता (ये भी नोबल जुगाड़ वाला वाक्य है)
तो कहने का मतलब ये, कि इस प्रकार के विभिन्न “सुरक्षा मंत्रों” का लगातार 108 बार जाप करने से बाधाएं निकट नहीं आतीं, इस मंत्र की शक्ति से पुरस्कार मिलने, आम जनता को %॰*^;% बनाने में प्रभावकारी मदद मिलती है…। आप भी जाप करें और खुश रहें…। राहुल बाबा कुछ दिनों बाद आजमगढ़ जायेंगे, क्योंकि इस देश में जातिवादी, मुस्लिमपरस्त, चर्चप्रायोजित सभी प्रकार की राजनीति की जा सकती है… सिर्फ़ “हिन्दू”, शब्द भड़काऊ और वर्जित है…। खैर आप भी कहाँ चक्कर में पड़े हैं, इन तीनों महान व्यक्तियों को तीनों पुरस्कार मिलें और देश की “शर्मनिरपेक्षता” बरकरार रहे, इसलिये मंत्र जाप जारी रखें…
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(मैं जानता हूं कि मुझे व्यंग्य लिखना नहीं आता, फ़िर भी कुछ “खालिस देशज शब्दों” को प्रयुक्त करने से बचने की कोशिश करते हुए जैसा ऊबड़-खाबड़ लिख सकता था, लिख दिया… जब इतनी सारी कांग्रेसी सरकारें झेल सकते हैं तो इस लेख को भी आप झेल ही जाईये)
विशेष नोट - "म", "भ", "ग" आदि अक्षरों से शुरु होने वाले देसी शब्द टिप्पणियों से हटाये जायेंगे
करण जौहर को “ऑस्कर”, शाहरुख खान को “निशान-ए-पाकिस्तान” और मनमोहन सिंह को “शान्ति का नोबल पुरस्कार” दिलवाने की पूरी मार्केटिंग, रणनीति, जोड़-तोड़, जुगाड़, व्यवस्था आदि तैयार कर ली गई थी (वैसे तो मनमोहन को नोबल मिल भी जाये तब भी वे उसे शाहरुख को दे देंगे, क्योंकि महानता की बाढ़ में बहते हुए वे पहले ही कह चुके हैं कि “देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है” और शाहरुख की ताज़ा फ़िल्म भी इसी पुरस्कार को ध्यान में रखकर बनाई गई है)… लेकिन इस लश्कर-ए-तोइबा का क्या किया जाये, हमारा ही खाते हैं और हमारे ही यहाँ बम विस्फ़ोट कर देते हैं। इनके भाईयों, कसाब और अफ़ज़ल को इतना संभालकर रखा है, फ़िर भी जरा सा अहसान नहीं मानते… कुछ दिन बाद फ़ोड़ देते। बड़ी मुश्किल से तो राहुल बाबा और शाहरुख खान का माहौल बनाया था। शाहरुख ने शाहिद अफ़रीदी को वेलेन्टाइन का “दोस्ताना” न्यौता दिया था (छी छी छी, गन्दी बात मन में न लायें), जवाब में पाकिस्तान ने भी पुणे में ओशो आश्रम के नज़दीक वेलेन्टाइन मनवा दिया।
खैर चलो जो हुआ सो हुआ… अब अगले कुछ दिनों तक बरसों पुराने आजमाए हुए इन मंत्रों का उच्चार करना है, ताकि बला फ़िलहाल टले –
1) सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी कर दी गई है (2-4 दिन के लिये)
2) आतंकवादियों को पकड़ने के लिये विशेष अभियान छेड़ा जायेगा (ताकि उन्हें चिकन-बिरयानी खिलाई जा सके)
3) हम इस आतंक का मुँहतोड़ जवाब देंगे (फ़िल्म रिलीज़ करने के राष्ट्रीय कर्तव्य से फ़ुर्सत मिलेगी, उसके बाद)
4) राष्ट्र मजबूत है और ((पुणे, जयपुर, वाराणसी, अहमदाबाद, कोयम्बटूर)) के निवासी इस कायराना हमले से नहीं घबरायेंगे (कोष्ठक में अगले बम विस्फ़ोट के समय उस शहर का नाम डाल लीजियेगा)
5) पाकिस्तान के साथ हमें अच्छे सम्बन्ध बनाना है (क्योंकि नोबल शांति पुरस्कार की जरूरत है)
6) आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता (ये भी नोबल जुगाड़ वाला वाक्य है)
तो कहने का मतलब ये, कि इस प्रकार के विभिन्न “सुरक्षा मंत्रों” का लगातार 108 बार जाप करने से बाधाएं निकट नहीं आतीं, इस मंत्र की शक्ति से पुरस्कार मिलने, आम जनता को %॰*^;% बनाने में प्रभावकारी मदद मिलती है…। आप भी जाप करें और खुश रहें…। राहुल बाबा कुछ दिनों बाद आजमगढ़ जायेंगे, क्योंकि इस देश में जातिवादी, मुस्लिमपरस्त, चर्चप्रायोजित सभी प्रकार की राजनीति की जा सकती है… सिर्फ़ “हिन्दू”, शब्द भड़काऊ और वर्जित है…। खैर आप भी कहाँ चक्कर में पड़े हैं, इन तीनों महान व्यक्तियों को तीनों पुरस्कार मिलें और देश की “शर्मनिरपेक्षता” बरकरार रहे, इसलिये मंत्र जाप जारी रखें…
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(मैं जानता हूं कि मुझे व्यंग्य लिखना नहीं आता, फ़िर भी कुछ “खालिस देशज शब्दों” को प्रयुक्त करने से बचने की कोशिश करते हुए जैसा ऊबड़-खाबड़ लिख सकता था, लिख दिया… जब इतनी सारी कांग्रेसी सरकारें झेल सकते हैं तो इस लेख को भी आप झेल ही जाईये)
विशेष नोट - "म", "भ", "ग" आदि अक्षरों से शुरु होने वाले देसी शब्द टिप्पणियों से हटाये जायेंगे
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बुधवार, 10 फरवरी 2010 14:36
JNU के प्रोफ़ेसर आरक्षण नहीं चाहते, वामपंथियों के पाखण्ड का एक और उदाहरण… … Reservation in JNU, JNU and Communists, Caste system and Communist
JNU की एकेडेमिक काउंसिल के 30 प्रोफ़ेसरों ने कुलपति बीबी भट्टाचार्य से लिखित में शिकायत की है कि विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर और असोसियेट प्रोफ़ेसरों के लिये 149 पदों के लिये आरक्षण नहीं होना चाहिये। यह सुनकर उन लोगों को झटका लग सकता है, जो वामपंथियों को प्रगतिशील मानते हों, जबकि हकीकत कुछ और ही है। अपने बयान में प्रोफ़ेसर बिपिनचन्द्र कहते हैं, “असिस्टेंट प्रोफ़ेसर से ऊपर के पद के लिये आरक्षण लागू करने से इस विश्वविद्यालय की शिक्षा का स्तर गिरेगा… और यह संस्थान थर्ड-क्लास संस्थान बन जायेगा…” (अर्थात प्रोफ़ेसर साहब कहना चाहते हैं कि आरक्षण की वजह से स्तर गिरता है, और जिन संस्थानों में आरक्षण लागू है वह तीसरे दर्जे के संस्थान बन चुके हैं)… एक और प्रोफ़ेसर साहब वायके अलघ फ़रमाते हैं, “जेएनयू का स्टैण्डर्ड बनाये रखने के लिये आरक्षण सम्बन्धी कुछ मानक तय करने ही होंगे, ताकि यह यूनिवर्सिटी विश्वस्तरीय बनी रह सके…” (हा हा हा हा, कृपया हँसिये नहीं, राजनीतिक अखाड़ा बनी हुई, भाई-भतीजावाद से ग्रस्त और भारतीय इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने वाली नकली थीसिसों की यूनिवर्सिटी पता नहीं कब से विश्वस्तरीय हो गई…)। अब दो मिनट के लिये कल्पना कीजिये, कि यदि यही बयान भाजपा-संघ के किसी नेता ने दिया होता तो मीडिया को कैसा “बवासीर” हो जाता। (खबर यहाँ पढ़ें… http://www.outlookindia.com/article.aspx?263782 )
जब भाजपा के नये अध्यक्ष गडकरी ने कार्यभार संभाला और नई टीम बनाई तो अखबारों, मीडिया और चैनलों पर इस बात को लेकर लम्बी-चौड़ी बहसें चलाई गईं कि भाजपा ब्राह्मणवादी पार्टी है और इसमें बड़े-बड़े पदों पर उच्च वर्ग के नेताओं का कब्जा है तथा अजा-जजा वर्ग को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। आईये जरा एक निगाह डाल लेते हैं वामपंथी नेतृत्व के खासमखास त्रिमूर्ति पर – प्रकाश करात (नायर क्षत्रिय), सीताराम येचुरी (ब्राह्मण), बुद्धदेब भट्टाचार्य (ब्राह्मण), अब बतायें कि क्या यह जातिवादी-ब्राह्मणवादी मानसिकता नहीं है? वामपंथियों के ढोंग और पाखण्ड का सबसे अच्छा उदाहरण केरल में देखा जा सकता है, जहाँ OBC (एझावा जाति) हमेशा से वामपंथियों का पक्का वोट बैंक और पार्टी की रीढ़ रही है, लेकिन जब-जब भी वहाँ पार्टी को बहुमत मिला है, तब-तब इन्हें पीछे धकेलकर किसी उच्च वर्ग के व्यक्ति को मुख्यमंत्री की कुर्सी दी गई है। केरल में कम्युनिस्ट आंदोलन की प्रमुख नेत्री केआर गौरी (जो सबसे अधिक समय विधानसभा सदस्या रहीं) मुख्यमंत्री पद के लिये कई बार उपयुक्त पाये जाने के बावजूद न सिर्फ़ पीछे कर दी गईं बल्कि उन्हें “पार्टी विरोधी गतिविधियों” के नाम पर पार्टी से भी निकाला गया। इसी प्रकार वर्तमान मुख्यमंत्री अच्युतानन्दन भी पिछड़ा वर्ग से (50 साल के कम्युनिस्ट शासन के पहले पिछड़ा वर्ग मुख्यमंत्री) हैं, लेकिन जिस दिन से उन्होंने पद संभाला है उस दिन से ही किसी बाहरी व्यक्ति नहीं, बल्कि पार्टी के सदस्यों ने ही उनकी लगातार आलोचना और नाक में दम किया गया है और उन्हें अपमानजनक तरीके से पोलित ब्यूरो से भी निकाला गया है, लेकिन फ़िर भी अकेली भाजपा ही ब्राह्मणवादी पार्टी है? मजे की बात तो यह है कि "धर्म को अफ़ीम" कहने वाले नास्तिक ढोंगियों (अर्थात वामपंथियों) की पोल इस मुद्दे पर भी कई बार खुल चुकी है, जब इनकी पार्टी के दिग्गज कोलकाता के पूजा पाण्डालों या अय्यप्पा स्वामी के मन्दिर में देखे गये हैं, फ़िर भी आलोचना भाजपा की ही करेंगे।
इसी प्रकार बंगाल के तथाकथित “भद्रलोक” कम्युनिस्टों को ही देख लीजिये, वहाँ कितने पिछड़ा वर्ग के मुख्यमंत्री हुए हैं? उच्च वर्ग हो या अजा-जजा वर्ग के बंगाली हों, बांग्लादेशी मुसलमानों द्वारा कम से कम 9 जिलों में लगातार उत्पीड़ित किये जा रहे हैं, लेकिन दूसरों को जातिवादी बताने वाले पाखण्डी वामपंथियों की कानों पर जूँ भी नहीं रेंगती। सन् 2008 में कम्युनिस्ट कैडर द्वारा पत्नी और बच्चों के सामने एक दलित युवक के गले में टायर डालकर उसे जला दिया गया था जिसकी कोई खबर किसी न्यूज़ चैनल या अखबार में प्रमुखता से नहीं दिखाई दी।
पिछले कुछ दिनों से मोहल्ला सहित 2-4 ब्लॉग्स पर वर्धा के हिन्दी विवि के प्रोफ़ेसर अनिल चमड़िया (जो कि बेहतरीन लिखते हैं, विचारधारा कुछ भी हो) को निकाले जाने को लेकर बुद्धिजीवियों(?) में घमासान मचा हुआ है… जिनमें से कुछ "नेतानुमा प्रोफ़ेसर" हैं, कुछ "पत्रकारनुमा नेता" हैं और कुछ “परजीवीनुमा बुद्धिजीवी” हैं… और हाँ कुछ वामपंथी है तो कुछ दलितों के कथित मसीहा भी… कुल मिलाकर ये कि उधर जमकर "भचर-भचर" हो रही है…(अच्छा हुआ कि मैं बुद्धिजीवी नहीं हूं), लेकिन जेएनयू (JNU) के प्रोफ़ेसर अपने संस्थान में आरक्षण नहीं चाहते… इस महत्वपूर्ण बात पर कोई बहस नहीं, कोई मीडिया चर्चा नहीं, किसी चैनल पर कोई इंटरव्यू नहीं… ऐसे होते हैं दोमुंहे और “कब्जाऊ-हथियाऊ” किस्म के वामपंथी…। सच बात तो यह है कि बरसों से जुगाड़, चमचागिरी और सेकुलरिज़्म के तलवे चाट-चाटकर जो प्रोफ़ेसर जेएनयू में कब्जा जमाये बैठे हैं उन्हीं को आरक्षण नहीं चाहिये। यदि यह बात किसी हिन्दू संगठन या भाजपा ने कही होती तो अब तक इन्ही सेकुलरों का पाला हुआ मीडिया "दलित विमर्श" को लेकर पता नहीं कितने सेमिनार करवा चुका होता… लेकिन मामला JNU का है जो कि झूठों का गढ़ है तो अब क्या करें…।
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एक अनुरोध - जब तक मीडिया का हिन्दुत्व विरोधी रवैया जारी रहेगा, जब तक मीडिया में हिन्दू हित की खबरों को पर्याप्त स्थान नहीं मिलता, ऐसी खबरों, कटिंग्स, ब्लॉग्स, लेखों आदि को अपने मित्रों को अधिकतम संख्या में फ़ेसबुक, ऑरकुट, ट्विटर आदि पर “सर्कुलेट” करके नकली सेकुलरिज़्म और वामपंथियों का “पोलखोल जनजागरण” अभियान सतत चलायें…
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जब भाजपा के नये अध्यक्ष गडकरी ने कार्यभार संभाला और नई टीम बनाई तो अखबारों, मीडिया और चैनलों पर इस बात को लेकर लम्बी-चौड़ी बहसें चलाई गईं कि भाजपा ब्राह्मणवादी पार्टी है और इसमें बड़े-बड़े पदों पर उच्च वर्ग के नेताओं का कब्जा है तथा अजा-जजा वर्ग को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। आईये जरा एक निगाह डाल लेते हैं वामपंथी नेतृत्व के खासमखास त्रिमूर्ति पर – प्रकाश करात (नायर क्षत्रिय), सीताराम येचुरी (ब्राह्मण), बुद्धदेब भट्टाचार्य (ब्राह्मण), अब बतायें कि क्या यह जातिवादी-ब्राह्मणवादी मानसिकता नहीं है? वामपंथियों के ढोंग और पाखण्ड का सबसे अच्छा उदाहरण केरल में देखा जा सकता है, जहाँ OBC (एझावा जाति) हमेशा से वामपंथियों का पक्का वोट बैंक और पार्टी की रीढ़ रही है, लेकिन जब-जब भी वहाँ पार्टी को बहुमत मिला है, तब-तब इन्हें पीछे धकेलकर किसी उच्च वर्ग के व्यक्ति को मुख्यमंत्री की कुर्सी दी गई है। केरल में कम्युनिस्ट आंदोलन की प्रमुख नेत्री केआर गौरी (जो सबसे अधिक समय विधानसभा सदस्या रहीं) मुख्यमंत्री पद के लिये कई बार उपयुक्त पाये जाने के बावजूद न सिर्फ़ पीछे कर दी गईं बल्कि उन्हें “पार्टी विरोधी गतिविधियों” के नाम पर पार्टी से भी निकाला गया। इसी प्रकार वर्तमान मुख्यमंत्री अच्युतानन्दन भी पिछड़ा वर्ग से (50 साल के कम्युनिस्ट शासन के पहले पिछड़ा वर्ग मुख्यमंत्री) हैं, लेकिन जिस दिन से उन्होंने पद संभाला है उस दिन से ही किसी बाहरी व्यक्ति नहीं, बल्कि पार्टी के सदस्यों ने ही उनकी लगातार आलोचना और नाक में दम किया गया है और उन्हें अपमानजनक तरीके से पोलित ब्यूरो से भी निकाला गया है, लेकिन फ़िर भी अकेली भाजपा ही ब्राह्मणवादी पार्टी है? मजे की बात तो यह है कि "धर्म को अफ़ीम" कहने वाले नास्तिक ढोंगियों (अर्थात वामपंथियों) की पोल इस मुद्दे पर भी कई बार खुल चुकी है, जब इनकी पार्टी के दिग्गज कोलकाता के पूजा पाण्डालों या अय्यप्पा स्वामी के मन्दिर में देखे गये हैं, फ़िर भी आलोचना भाजपा की ही करेंगे।
इसी प्रकार बंगाल के तथाकथित “भद्रलोक” कम्युनिस्टों को ही देख लीजिये, वहाँ कितने पिछड़ा वर्ग के मुख्यमंत्री हुए हैं? उच्च वर्ग हो या अजा-जजा वर्ग के बंगाली हों, बांग्लादेशी मुसलमानों द्वारा कम से कम 9 जिलों में लगातार उत्पीड़ित किये जा रहे हैं, लेकिन दूसरों को जातिवादी बताने वाले पाखण्डी वामपंथियों की कानों पर जूँ भी नहीं रेंगती। सन् 2008 में कम्युनिस्ट कैडर द्वारा पत्नी और बच्चों के सामने एक दलित युवक के गले में टायर डालकर उसे जला दिया गया था जिसकी कोई खबर किसी न्यूज़ चैनल या अखबार में प्रमुखता से नहीं दिखाई दी।
पिछले कुछ दिनों से मोहल्ला सहित 2-4 ब्लॉग्स पर वर्धा के हिन्दी विवि के प्रोफ़ेसर अनिल चमड़िया (जो कि बेहतरीन लिखते हैं, विचारधारा कुछ भी हो) को निकाले जाने को लेकर बुद्धिजीवियों(?) में घमासान मचा हुआ है… जिनमें से कुछ "नेतानुमा प्रोफ़ेसर" हैं, कुछ "पत्रकारनुमा नेता" हैं और कुछ “परजीवीनुमा बुद्धिजीवी” हैं… और हाँ कुछ वामपंथी है तो कुछ दलितों के कथित मसीहा भी… कुल मिलाकर ये कि उधर जमकर "भचर-भचर" हो रही है…(अच्छा हुआ कि मैं बुद्धिजीवी नहीं हूं), लेकिन जेएनयू (JNU) के प्रोफ़ेसर अपने संस्थान में आरक्षण नहीं चाहते… इस महत्वपूर्ण बात पर कोई बहस नहीं, कोई मीडिया चर्चा नहीं, किसी चैनल पर कोई इंटरव्यू नहीं… ऐसे होते हैं दोमुंहे और “कब्जाऊ-हथियाऊ” किस्म के वामपंथी…। सच बात तो यह है कि बरसों से जुगाड़, चमचागिरी और सेकुलरिज़्म के तलवे चाट-चाटकर जो प्रोफ़ेसर जेएनयू में कब्जा जमाये बैठे हैं उन्हीं को आरक्षण नहीं चाहिये। यदि यह बात किसी हिन्दू संगठन या भाजपा ने कही होती तो अब तक इन्ही सेकुलरों का पाला हुआ मीडिया "दलित विमर्श" को लेकर पता नहीं कितने सेमिनार करवा चुका होता… लेकिन मामला JNU का है जो कि झूठों का गढ़ है तो अब क्या करें…।
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एक अनुरोध - जब तक मीडिया का हिन्दुत्व विरोधी रवैया जारी रहेगा, जब तक मीडिया में हिन्दू हित की खबरों को पर्याप्त स्थान नहीं मिलता, ऐसी खबरों, कटिंग्स, ब्लॉग्स, लेखों आदि को अपने मित्रों को अधिकतम संख्या में फ़ेसबुक, ऑरकुट, ट्विटर आदि पर “सर्कुलेट” करके नकली सेकुलरिज़्म और वामपंथियों का “पोलखोल जनजागरण” अभियान सतत चलायें…
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ब्लॉग
सोमवार, 08 फरवरी 2010 12:10
क्या इन्हीं पाकिस्तानियों के लिये मरे जा रहे हैं शाहरुख खान…?? Paki Players, IPL, Shahrukh Khan, Aman ki Asha, year after 26/11
शाहरुख खान को पाकिस्तानी खिलाड़ियों को न लिये जाने पर भारी निराशा हुई है (भले ही खुद ने न खरीदा हो)। अच्छे सम्बन्ध बनाने के नाम पर भारत की “नॉस्टैल्जिक फ़ौज” और धंधेबाज अखबार “अमन की आशा” के नाम थूक-चाट अभियान भी चलाये हुए हैं… लेकिन पाकिस्तान के खिलाड़ी इस बारे में क्या सोचते हैं, अथवा भारत की टीम के साथ खेल के दौरान वे लोग जिस तरह से गाली-गलौज करते हैं, उसे देखते हुए कोई बेशर्म या मूर्ख ही होगा जो उनसे मधुर सम्बन्ध की अपेक्षा रखे…। आईये देखते हैं कुछ यू-ट्यूब वीडियो… (जिन पाठकों के पास तेज गति इंटरनेट नहीं है उनकी सुविधा के लिये डायरेक्ट लिंक भी दिया है, आराम से बफ़र कर लीजिये और बाद में देखिये…)
पहले वीडियो में सोहेल तनवीर से इंटरव्यू लिया जा रहा है, जिसमें वह कहता है “हिन्दुस्तानियों की नीयत ही खराब है”, जबकि एंकर और कोई जोकरनुमा विशेषज्ञ कहता है “हिन्दुओं की आदत रही है मुंह में राम और बगल में छुरी रखने की…”। सोहेल के कथन को तौला जाये तो उससे एक बात उभरकर सामने आती है कि उसकी परवरिश जिस माहौल में हुई है उसमें वह हर भारतीय को “हिन्दू” ही मानता है, और जब राजस्थान रॉयल्स से खेलकर लाखों रुपये कमाये थे तब उसे हिन्दुओं की नीयत खराब नहीं दिख रही थी, जब भिखारियों के पिछवाड़े पर लात पड़ गई तो राम और छुरी याद आने लगे। एक और नोट करने लायक बात है कि पाकिस्तान का कम से कम एक चैनल तो है जो खुलेआम भारत के विरोध और बहिष्कार की बात कर रहा है, हमारे यहाँ का मिशनरी के हाथों बिका और मुल्लाओं की तरफ़दारी करने वाला “सेकुलर मीडिया” इस मामले पर मुँह में दही जमाकर बैठा है, उलटा शाहरुख का पक्ष लेकर बाल ठाकरे से भिड़ गया है (यदि किसी व्यक्ति के पास किसी भारतीय चैनल का कोई वीडियो हो जिसमें वह खुलेआम कह रहा हो कि “इन पाकिस्तानियों की औकात ही ऐसी है और ये लोग इसी लायक हैं और हमें तब तक इनके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखने चाहिये जब तक ये लोग खुद अपने यहाँ आतंकवादियों का खात्मा न कर दें…” ऐसी कोई लिंक हो तो टिप्पणी में अवश्य दें। यह है मानसिकता का अन्तर… पहले वीडियो देखिये, फ़िर आगे बात करते हैं…
Direct link : http://www.youtube.com/watch?v=_2IL-6YaCk0
आजकल शाहरुख खान अपनी छत पर नमाज़ पढ़ते हैं, बार-बार "सलाम" और "इंशाअल्लाह" शब्दों का प्रयोग करने लगे हैं, यह सब वे अपनी फ़िल्म के प्रमोशन के लिये कर रहे हैं अथवा उनका कोई छिपा हुआ एजेण्डा है यह तो वही जानें। लेकिन शक होता है कि शाहरुख खान उस शोएब मलिक को अपनी टीम में लेने के लिये क्यों बेचैन हैं जिसने टी-20 विश्व कप फ़ाइनल में हारने के बाद मंच से कहा था कि “मैं समूचे इस्लामी जगत से माफ़ी माँगता हूं कि हम हिन्दुस्तान से नहीं जीत पाये…” (यानी T-20 की हार को वह नालायक आदमी इस्लामी जगत की हार से जोड़ रहा था, और शाहरुख उसका बचाव कर रहा था), या क्यों इस सोहेल तनवीर को लेने के लिये शाहरुख मरे जा रहे हैं जो भारत को “हिन्दू” कहकर पुकार रहा है, या क्यों धोखेबाज अफ़रीदी को भारत में खिलाने के लिये बेताब हो रहे हैं, जिसे खाना नहीं मिला इसलिये गेंद ही चबा रहा है… वीडियो देखिये…
डायरेक्ट लिंक : http://www.youtube.com/watch?v=NAuElcY3gfg
पाकिस्तानी, ऑस्ट्रेलियन और इंग्लिश खिलाड़ी हमेशा से ही खेल में धोखेबाजी, चालबाजी और गालीगलौज करते रहे हैं… इसी शाहिद अफ़रीदी को भारत में खिलाने की योजना है “सेकुलरों” की…। अब एक और महोदय हो देखिये… जन्म से नशे की गोलियों के आदी व्यक्ति जैसी आँखों वाले शोएब अख्तर (इस नशेलची की आँखें संजय दत्त से मिलती-जुलती हैं)…। इस शोएब अख्तर को शाहरुख ने पहले IPL ने अपनी टीम में लिया था… यह शोएब अख्तर नाम की बीमारी, भारत के हमारे प्रिय खिलाड़ी इरफ़ान पठान को कैसी भद्दी-भद्दी गालियाँ दे रहा है (वैसे भी पाक में रहने वाले मुस्लिम भारत के मुस्लिमों को नीची निगाह से देखते हैं, विभाजन के समय इधर से गये उनके भाई-बन्दों को ही “मुहाजिर” बताकर भारी ज़ुल्म करते हैं), खुद देख लीजिये…
http://www.youtube.com/watch?v=p7v0lP7VpXQ
हम और आप सिर्फ़ महसूस कर सकते हैं, कि सचिन तेंडुलकर को उसके कैरियर की शुरुआत में इन पाकिस्तानियों ने कितनी गालियाँ दी होंगी… हालांकि बाद में भौंक-भौंककर शान्त हो गये होंगे, क्योंकि उन्हें पता चल गया होगा कि गालियाँ देने के बाद तेंडुलकर अपने बल्ले से उनका पिछवाड़ा लाल कर डालता है… ऐसा ही एक पुराना वीडियो है जिसमें घमण्डी आमिर सोहेल को वेंकटेश प्रसाद ने करारा जवाब दिया, लेकिन अपनी गेंदबाजी से… इसे देखिये…
http://www.youtube.com/watch?v=OpsSe_zvaoU
हालांकि इनसे निपटने का गौतम गम्भीर वाला तरीका भी एकदम सही है… इसे देखिये… इसमें गौतम गम्भीर ने शाहरुख खान के चहेते को कैसी “भिट्टी” मारी…
http://www.youtube.com/watch?v=ZU7cUU-71dk
कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे खिलाड़ी भी जनता के बीच से ही आते हैं, नेताओं और धंधेबाजों के बीच से नहीं… वे धोखेबाज पाकिस्तानियों और घमण्डी ऑस्ट्रेलियाईयों से निपटना अच्छी तरह जानते हैं… लेकिन हमारा मीडिया और सरकार उन्हें सहयोग करने को राजी नहीं होती…। सरकार के पास सदा-सर्वदा “शान्ति-फ़ार्मूला” तैयार होता है, जबकि मीडिया भी वही राग गाता है जिसकी धुन कांग्रेस उसे बनाकर देती है, वरना पाकिस्तान की औकात है ही कितनी, उसके कराची के पूरे स्टॉक एक्सचेंज को अकेले मुकेश अम्बानी सात बार पूरा खरीद लें तब भी उनके पास पैसा बचा रहेगा… हम हर बात में पाक से कोसों आगे हैं, फ़िर उसके सामने यह गिड़गिड़ाना और बेशर्मी भरा तथाकथित गाँधीवाद किसलिये?
अब इस वीडियो को देखिये, कश्मीर की आज़ादी के लिये एकता प्रदर्शित करने यह रैली बुलाई गई है, जिसे हाफ़िज़ मोहम्मद सईद समेत सभी ने कश्मीर के लिये लड़ने का संकल्प लिया, हिन्दुओं और हिन्दुस्तान को गरियाया गया (पाकिस्तान से आने वाले किसी भी इंटरव्यू को सुनिये, वे लोग कभी “भारत” नहीं बोलते, हमेशा “हिन्दुस्तान” बोलते हैं… कहने को ये छोटी-छोटी बातें हैं लेकिन इनके अर्थ गहरे होते हैं)।
ऐ हिन्दू तुझे लश्कर के जूते पड़े…
http://www.youtube.com/watch?v=lQXcsmlqmFM
Reference… : http://neerajdiwan.wordpress.com/2010/02/06/kashmir-day-celebrated-in-pok
श्रीनगर के लाल चौक पर इस वर्ष 19 साल बाद पहली बार तिरंगा नहीं फ़हराया गया, यानी कांग्रेस और अब्दुल्ला परिवार मान चुका है कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं रहेगा…, राहुल के मुम्बई दौरे की तरह ही, चिदम्बरम का पाकिस्तान जाना भी एक “मीडिया इवेंट” बनकर रहेगा, क्योंकि हमारा मीडिया सिर्फ़ अल-कायदा, लादेन और जवाहिरी के वीडियो टेप दिखाकर देश की जनता को डराना जानता है, राष्ट्रवादी सोच, देशभक्ति का जज़्बा और तनकर खड़े होने की फ़ितरत तो कब की खत्म हो चुकी…। मुम्बई हमले के बाद “मोमबत्ती ब्रिगेड” घर चली गई है या फ़िर दारू पीकर फ़ुटपाथ पर सोये गरीबों पर गाड़ियाँ चढ़ाने में मशगूल है, इधर 26/11 के मृतकों-शहीदों का “वर्षश्राद्ध” निपट गया, पाकिस्तान का तो कुछ उखाड़ नहीं पाये, अब श्राद्ध का भोजन खाने के बाद दोबारा जूते खाने की तैयारी है…
(यदि यह लेख पसन्द आया हो तो इसे पढ़कर भूल न जायें, बल्कि अपने मित्रों को फ़ॉरवर्ड करें, ऑरकुट, फ़ेसबुक, ट्विटर आदि जहाँ-जहाँ भी लिंक दिया जा सकता है, दीजिये…, सिर्फ़ आपके जानने से क्या होगा… बाकियों को भी शाहरुख खान और कांग्रेस का असली चेहरा जानने का मौका दीजिये…)
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पहले वीडियो में सोहेल तनवीर से इंटरव्यू लिया जा रहा है, जिसमें वह कहता है “हिन्दुस्तानियों की नीयत ही खराब है”, जबकि एंकर और कोई जोकरनुमा विशेषज्ञ कहता है “हिन्दुओं की आदत रही है मुंह में राम और बगल में छुरी रखने की…”। सोहेल के कथन को तौला जाये तो उससे एक बात उभरकर सामने आती है कि उसकी परवरिश जिस माहौल में हुई है उसमें वह हर भारतीय को “हिन्दू” ही मानता है, और जब राजस्थान रॉयल्स से खेलकर लाखों रुपये कमाये थे तब उसे हिन्दुओं की नीयत खराब नहीं दिख रही थी, जब भिखारियों के पिछवाड़े पर लात पड़ गई तो राम और छुरी याद आने लगे। एक और नोट करने लायक बात है कि पाकिस्तान का कम से कम एक चैनल तो है जो खुलेआम भारत के विरोध और बहिष्कार की बात कर रहा है, हमारे यहाँ का मिशनरी के हाथों बिका और मुल्लाओं की तरफ़दारी करने वाला “सेकुलर मीडिया” इस मामले पर मुँह में दही जमाकर बैठा है, उलटा शाहरुख का पक्ष लेकर बाल ठाकरे से भिड़ गया है (यदि किसी व्यक्ति के पास किसी भारतीय चैनल का कोई वीडियो हो जिसमें वह खुलेआम कह रहा हो कि “इन पाकिस्तानियों की औकात ही ऐसी है और ये लोग इसी लायक हैं और हमें तब तक इनके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखने चाहिये जब तक ये लोग खुद अपने यहाँ आतंकवादियों का खात्मा न कर दें…” ऐसी कोई लिंक हो तो टिप्पणी में अवश्य दें। यह है मानसिकता का अन्तर… पहले वीडियो देखिये, फ़िर आगे बात करते हैं…
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आजकल शाहरुख खान अपनी छत पर नमाज़ पढ़ते हैं, बार-बार "सलाम" और "इंशाअल्लाह" शब्दों का प्रयोग करने लगे हैं, यह सब वे अपनी फ़िल्म के प्रमोशन के लिये कर रहे हैं अथवा उनका कोई छिपा हुआ एजेण्डा है यह तो वही जानें। लेकिन शक होता है कि शाहरुख खान उस शोएब मलिक को अपनी टीम में लेने के लिये क्यों बेचैन हैं जिसने टी-20 विश्व कप फ़ाइनल में हारने के बाद मंच से कहा था कि “मैं समूचे इस्लामी जगत से माफ़ी माँगता हूं कि हम हिन्दुस्तान से नहीं जीत पाये…” (यानी T-20 की हार को वह नालायक आदमी इस्लामी जगत की हार से जोड़ रहा था, और शाहरुख उसका बचाव कर रहा था), या क्यों इस सोहेल तनवीर को लेने के लिये शाहरुख मरे जा रहे हैं जो भारत को “हिन्दू” कहकर पुकार रहा है, या क्यों धोखेबाज अफ़रीदी को भारत में खिलाने के लिये बेताब हो रहे हैं, जिसे खाना नहीं मिला इसलिये गेंद ही चबा रहा है… वीडियो देखिये…
डायरेक्ट लिंक : http://www.youtube.com/watch?v=NAuElcY3gfg
पाकिस्तानी, ऑस्ट्रेलियन और इंग्लिश खिलाड़ी हमेशा से ही खेल में धोखेबाजी, चालबाजी और गालीगलौज करते रहे हैं… इसी शाहिद अफ़रीदी को भारत में खिलाने की योजना है “सेकुलरों” की…। अब एक और महोदय हो देखिये… जन्म से नशे की गोलियों के आदी व्यक्ति जैसी आँखों वाले शोएब अख्तर (इस नशेलची की आँखें संजय दत्त से मिलती-जुलती हैं)…। इस शोएब अख्तर को शाहरुख ने पहले IPL ने अपनी टीम में लिया था… यह शोएब अख्तर नाम की बीमारी, भारत के हमारे प्रिय खिलाड़ी इरफ़ान पठान को कैसी भद्दी-भद्दी गालियाँ दे रहा है (वैसे भी पाक में रहने वाले मुस्लिम भारत के मुस्लिमों को नीची निगाह से देखते हैं, विभाजन के समय इधर से गये उनके भाई-बन्दों को ही “मुहाजिर” बताकर भारी ज़ुल्म करते हैं), खुद देख लीजिये…
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हम और आप सिर्फ़ महसूस कर सकते हैं, कि सचिन तेंडुलकर को उसके कैरियर की शुरुआत में इन पाकिस्तानियों ने कितनी गालियाँ दी होंगी… हालांकि बाद में भौंक-भौंककर शान्त हो गये होंगे, क्योंकि उन्हें पता चल गया होगा कि गालियाँ देने के बाद तेंडुलकर अपने बल्ले से उनका पिछवाड़ा लाल कर डालता है… ऐसा ही एक पुराना वीडियो है जिसमें घमण्डी आमिर सोहेल को वेंकटेश प्रसाद ने करारा जवाब दिया, लेकिन अपनी गेंदबाजी से… इसे देखिये…
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हालांकि इनसे निपटने का गौतम गम्भीर वाला तरीका भी एकदम सही है… इसे देखिये… इसमें गौतम गम्भीर ने शाहरुख खान के चहेते को कैसी “भिट्टी” मारी…
http://www.youtube.com/watch?v=ZU7cUU-71dk
कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे खिलाड़ी भी जनता के बीच से ही आते हैं, नेताओं और धंधेबाजों के बीच से नहीं… वे धोखेबाज पाकिस्तानियों और घमण्डी ऑस्ट्रेलियाईयों से निपटना अच्छी तरह जानते हैं… लेकिन हमारा मीडिया और सरकार उन्हें सहयोग करने को राजी नहीं होती…। सरकार के पास सदा-सर्वदा “शान्ति-फ़ार्मूला” तैयार होता है, जबकि मीडिया भी वही राग गाता है जिसकी धुन कांग्रेस उसे बनाकर देती है, वरना पाकिस्तान की औकात है ही कितनी, उसके कराची के पूरे स्टॉक एक्सचेंज को अकेले मुकेश अम्बानी सात बार पूरा खरीद लें तब भी उनके पास पैसा बचा रहेगा… हम हर बात में पाक से कोसों आगे हैं, फ़िर उसके सामने यह गिड़गिड़ाना और बेशर्मी भरा तथाकथित गाँधीवाद किसलिये?
अब इस वीडियो को देखिये, कश्मीर की आज़ादी के लिये एकता प्रदर्शित करने यह रैली बुलाई गई है, जिसे हाफ़िज़ मोहम्मद सईद समेत सभी ने कश्मीर के लिये लड़ने का संकल्प लिया, हिन्दुओं और हिन्दुस्तान को गरियाया गया (पाकिस्तान से आने वाले किसी भी इंटरव्यू को सुनिये, वे लोग कभी “भारत” नहीं बोलते, हमेशा “हिन्दुस्तान” बोलते हैं… कहने को ये छोटी-छोटी बातें हैं लेकिन इनके अर्थ गहरे होते हैं)।
ऐ हिन्दू तुझे लश्कर के जूते पड़े…
http://www.youtube.com/watch?v=lQXcsmlqmFM
Reference… : http://neerajdiwan.wordpress.com/2010/02/06/kashmir-day-celebrated-in-pok
श्रीनगर के लाल चौक पर इस वर्ष 19 साल बाद पहली बार तिरंगा नहीं फ़हराया गया, यानी कांग्रेस और अब्दुल्ला परिवार मान चुका है कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं रहेगा…, राहुल के मुम्बई दौरे की तरह ही, चिदम्बरम का पाकिस्तान जाना भी एक “मीडिया इवेंट” बनकर रहेगा, क्योंकि हमारा मीडिया सिर्फ़ अल-कायदा, लादेन और जवाहिरी के वीडियो टेप दिखाकर देश की जनता को डराना जानता है, राष्ट्रवादी सोच, देशभक्ति का जज़्बा और तनकर खड़े होने की फ़ितरत तो कब की खत्म हो चुकी…। मुम्बई हमले के बाद “मोमबत्ती ब्रिगेड” घर चली गई है या फ़िर दारू पीकर फ़ुटपाथ पर सोये गरीबों पर गाड़ियाँ चढ़ाने में मशगूल है, इधर 26/11 के मृतकों-शहीदों का “वर्षश्राद्ध” निपट गया, पाकिस्तान का तो कुछ उखाड़ नहीं पाये, अब श्राद्ध का भोजन खाने के बाद दोबारा जूते खाने की तैयारी है…
(यदि यह लेख पसन्द आया हो तो इसे पढ़कर भूल न जायें, बल्कि अपने मित्रों को फ़ॉरवर्ड करें, ऑरकुट, फ़ेसबुक, ट्विटर आदि जहाँ-जहाँ भी लिंक दिया जा सकता है, दीजिये…, सिर्फ़ आपके जानने से क्या होगा… बाकियों को भी शाहरुख खान और कांग्रेस का असली चेहरा जानने का मौका दीजिये…)
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ब्लॉग
शुक्रवार, 05 फरवरी 2010 13:13
तिरंगे में सफ़ेद रंग “क्रिश्चियनिटी” का होता है और “जन-गण-मन” की धुन पर पोप की प्रार्थना…… Mockery of National Flag, National Anthem by Missionary
[डिस्क्लेमर – मुझे मलयालम नहीं आती, इसलिये प्रस्तुत पोस्ट एक मलयाली मित्र द्वारा दी गई सूचनाओं पर आधारित है… जिसे मलयालम आती हो, कृपया इसकी पुष्टि करें…]
बचपन से मैंने तो यही पढ़ा था कि देश के तिरंगे में भगवा रंग त्याग और बलिदान का, सफ़ेद रंग शान्ति का तथा हरा रंग हरियाली और पर्यावरण का होता है। लेकिन हाल ही में केरल में “गोस्पेल चर्च” (जो कि धर्मांतरण के लिये कुख्यात है और जिसे “वर्तमान देशमाता” और “युवराज” का पूर्ण वरदहस्त प्राप्त है) के एक कार्यक्रम में एक जोकरनुमा व्यक्ति ने “जानबूझकर” देश के तिरंगे का पूरा देशद्रोही विवरण प्रस्तुत किया और न तो केरल सरकार, न ही किसी हिन्दू संगठन, न ही किसी मानवाधिकार/NGO संगठन ने इस पर आपत्ति उठाई… और तो और कार्यक्रम समाप्ति के बाद भी किसी ने इस जोकर के खिलाफ़ तिरंगे के अपमान को लेकर पुलिस केस रजिस्टर नहीं करवाया।
मेरे मलयाली मित्र द्वारा किये गये वर्णन के अनुसार – प्रस्तुत वीडियो में तिरुवल्ला के शैरोन फ़ेलोशिप चर्च में केए अब्राहम नामक व्यक्ति कॉमेडी शो(?) प्रस्तुत कर रहा है। इसमें यह बताता है कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज में “भगवा” रंग आक्रामकता का प्रतीक है, जबकि हरा रंग मुस्लिमों की बढ़ती आर्थिक खुशहाली (खाड़ी के पैसे द्वारा आई हुई) का प्रतीक है, लेकिन सबसे पवित्र है “सफ़ेद रंग” जो कि ईसाईयत का प्रतीक है, क्योंकि सफ़ेद रंग शांति का प्रतीक है (ईसाईयत = शान्ति)। और आगे अपना ज्ञान बखान करते हुए वह बताता है कि शक्तिशाली अशोक चक्र का मतलब है “अ-शोक” (अर्थात कोई दुख नहीं) और इस “अ-शोक” को सफ़ेद रंग के अन्दर इसलिये रखा गया है क्योंकि ईसाईयत में आने के बाद मनुष्य को कोई शोक नहीं होता। इसलिये जो भी दुखी और असहाय हैं, सफ़ेद रंग में रंग जायें, यानी ईसाईयत स्वीकार करें। तिरंगे की ऐसी व्याख्या कभी देखी-सुनी है आपने? लेकिन “सेकुलरिज़्म” को दूध पिलाने की सजा तो भुगतनी ही पड़ेगी, क्योंकि अब इसका “फ़न” धीरे-धीरे फ़ुंफ़कारे मारने लगा है।
Direct Link : http://www.youtube.com/watch?v=ohpo2xDabqg
अब यह वीडियो देखिये (सुनिये), एक स्कूल में हमारे राष्ट्रीय गान “जन-गण-मन” की धुन पर पोप जॉन पॉल (द्वितीय) का गुणगान और जीसस की प्रार्थना की जा रही है। इन दोनों का गुणगान करना गलत बात नहीं है, लेकिन राष्ट्रीय गीत की धुन और तर्ज पर इसे गाकर क्या साबित करने की और कैसा संदेश देने की कोशिश की जा रही है, यह मुझे देशभक्तों को समझाने की आवश्यकता नहीं है, हाँ छद्म-सेकुलरों को समझाना जरूरी है, क्योंकि मेरी नज़र में “छद्म-सेकुलर” *%$%*&#*$*॰ हैं…
Direct Link : http://www.youtube.com/watch?v=zDpIn03gEi8
इस दूसरे वीडियो में भी छोटी-छोटी बच्चियाँ “जन-गण-मन” की धुन पर पोप की प्रार्थना कर रही हैं। इन बेचारी बच्चियों को क्या मालूम कि इनके दिमाग का कैसा ब्रेन-वॉश किया जा रहा है…और जाने-अनजाने वे अपनी मातृभूमि से गद्दारी का पाठ पढ़ रही हैं… और यदि वाकई ऐसे हथकण्डों से प्रभु यीशु धरती पर शान्ति ला सकते, तो फ़िलीस्तीन और यरुशलम में सबसे पहले शान्ति आ जाती, जहाँ उनका जन्म हुआ, लेकिन उधर तो उन्हें “क्रूसेड” और “जेहाद” से ही फ़ुरसत नहीं है।
Direct Link : Janaganama praising Pope http://www.youtube.com/watch?v=5bO21MQ1LtI
इस चालबाजी का मिलाजुला रूप झारखण्ड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के दूरस्थ आदिवासी इलाकों में देखा जा सकता है, जहाँ झोंपड़ियों में स्थित चर्च को “भगवा” रंग से रंगा गया है, मदर मेरी और यीशु की मूर्तियों और छवियों को भी हिन्दू देवी-देवताओं से मिलता-जुलता रूप दिया गया है, ताकि भोले-भाले आदिवासियों को आसानी से मूर्ख बनाया जा सके, और मौका मिलते ही “धर्मान्तरण” करवा लिया जाता है। तिरंगे झण्डे, राष्ट्रीय गान का मजाक उड़ाना, वन्देमातरम का विरोध करना, नाबालिग लड़की को भगा ले जाने को धार्मिक बताना और देश के नक्शे से छेड़छाड़ आदि कामों को सिर्फ़ “बकवास” अथवा “गलती” कहकर खारिज़ नहीं किया जा सकता, यह एक दीर्घकालीन रणनीति के तहत हो रहा है।
इस प्रकार दीमक की तरह “एवेंजेलिस्ट” ज़मीन खोखली करते जा रहे हैं, और इधर “सेकुलरिज़्म” नाम का साँप मोटा होते-होते अजगर बन गया है और मूर्ख हिन्दू सोये हुए हैं और ऐसे ही नींद में गाफ़िल रहते ही मारे भी जायेंगे। इस स्थिति के लिये मिशनरी और कट्टर मुल्लाओं का दोष तो है लेकिन “छद्म-सेकुलरवादियों” और “बेसुध हिन्दुओं” के मुकाबले में कम है…। जब तक “हिन्दू” एक इकाई बनकर राजनैतिक रूप से संगठित नहीं होते, तब तक यह देश टुकड़े-टुकड़े होने को अभिशप्त ही रहेगा… रही-सही कसर राज ठाकरे-बाल ठाकरे टाइप के लोग पूरी कर रहे हैं जो “हिन्दुत्व” को कमजोर कर रहे हैं, और उनकी इस हरकत से “बाहरी” लोग खुश हो रहे हैं कि उनका काम अपने-आप आसान हो रहा है। वर्तमान दौर सेकुलरिज़्म का नंगा रूप देखने और सहनशील हिन्दुओं की परीक्षा का कठिन दौर है…
जैसा कि केरल में बढ़ते मिशनरीकरण और इस्लामीकरण के बारे में पहले भी कुछ पोस्ट में लिख चुका हूं, केरल में हिन्दुओं, हिन्दुत्व और भारतीय संस्कृति को गरियाने का दौर धीरे-धीरे मुखर होता जा रहा है, और इस बार तो सीधे देश के झण्डे तिरंगे की ही मनमानी व्याख्या सुनाई जा रही है। इस्लामी जेहादी तो सीधे-सीधे बम फ़ोड़ते हैं या “घेट्टो” (Ghetto) बनाकर हमले करते हैं जैसा कश्मीर से पंडितों को भगाने के मामले में किया, लेकिन मिशनरी और एवेंजेलिस्ट चालाक हैं, चुपके से काम करते हैं और मौका मिलते ही पीठ में छुरा घोंपते हैं (यह हम मिजोरम और उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों तथा कश्मीर में देख रहे हैं, देख चुके हैं)। अब आप कहेंगे कि ऐसी खबरें हमारे “सबसे तेज़” न्यूज़ चैनलों पर क्यों नहीं आतीं? जवाब एक ही है – कि इन चैनलों में “बिना रीढ़ के लोग” काम करते हैं जो अपने पाँच-M (मार्क्स-मुल्ला-मिशनरी-मैकाले-माइनो) पोषित आकाओं के इशारे पर रेंगते हैं… और “सेकुलर” पार्टियों द्वारा इन्हें “पाला” जाता है… ऐसी खबरें आपको सिर्फ़ ब्लॉग्स पर ही मिलेंगी…
विषय से सम्बन्धित कुछ अन्य मिलती-जुलती पोस्ट अवश्य पढ़िये -
1) http://blog.sureshchiplunkar.com/2010/01/ysr-family-evangelism-church-in-andhra.html
2) http://blog.sureshchiplunkar.com/2010/01/shariat-islamic-personal-law-e-ahmed.html
3) http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/10/kcbc-newsletter-kerala-love-jihad.html
4) http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/08/why-indian-media-is-anti-hindutva.html
5) http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/04/talibanization-kerala-congress-and_13.html
Indian Flag, Indian National Anthem, Mockery and Denigration of National Flag and National Anthem, Missionery, Gospel Church, Conversion in Backward Areas of India, Adivasis and Christian Missionery, भारत का राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का अपमान और उपहास, मिशनरी की चालें, आदिवासी और धर्मान्तरण, आदिवासी और मिशनरी, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
बचपन से मैंने तो यही पढ़ा था कि देश के तिरंगे में भगवा रंग त्याग और बलिदान का, सफ़ेद रंग शान्ति का तथा हरा रंग हरियाली और पर्यावरण का होता है। लेकिन हाल ही में केरल में “गोस्पेल चर्च” (जो कि धर्मांतरण के लिये कुख्यात है और जिसे “वर्तमान देशमाता” और “युवराज” का पूर्ण वरदहस्त प्राप्त है) के एक कार्यक्रम में एक जोकरनुमा व्यक्ति ने “जानबूझकर” देश के तिरंगे का पूरा देशद्रोही विवरण प्रस्तुत किया और न तो केरल सरकार, न ही किसी हिन्दू संगठन, न ही किसी मानवाधिकार/NGO संगठन ने इस पर आपत्ति उठाई… और तो और कार्यक्रम समाप्ति के बाद भी किसी ने इस जोकर के खिलाफ़ तिरंगे के अपमान को लेकर पुलिस केस रजिस्टर नहीं करवाया।
मेरे मलयाली मित्र द्वारा किये गये वर्णन के अनुसार – प्रस्तुत वीडियो में तिरुवल्ला के शैरोन फ़ेलोशिप चर्च में केए अब्राहम नामक व्यक्ति कॉमेडी शो(?) प्रस्तुत कर रहा है। इसमें यह बताता है कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज में “भगवा” रंग आक्रामकता का प्रतीक है, जबकि हरा रंग मुस्लिमों की बढ़ती आर्थिक खुशहाली (खाड़ी के पैसे द्वारा आई हुई) का प्रतीक है, लेकिन सबसे पवित्र है “सफ़ेद रंग” जो कि ईसाईयत का प्रतीक है, क्योंकि सफ़ेद रंग शांति का प्रतीक है (ईसाईयत = शान्ति)। और आगे अपना ज्ञान बखान करते हुए वह बताता है कि शक्तिशाली अशोक चक्र का मतलब है “अ-शोक” (अर्थात कोई दुख नहीं) और इस “अ-शोक” को सफ़ेद रंग के अन्दर इसलिये रखा गया है क्योंकि ईसाईयत में आने के बाद मनुष्य को कोई शोक नहीं होता। इसलिये जो भी दुखी और असहाय हैं, सफ़ेद रंग में रंग जायें, यानी ईसाईयत स्वीकार करें। तिरंगे की ऐसी व्याख्या कभी देखी-सुनी है आपने? लेकिन “सेकुलरिज़्म” को दूध पिलाने की सजा तो भुगतनी ही पड़ेगी, क्योंकि अब इसका “फ़न” धीरे-धीरे फ़ुंफ़कारे मारने लगा है।
Direct Link : http://www.youtube.com/watch?v=ohpo2xDabqg
अब यह वीडियो देखिये (सुनिये), एक स्कूल में हमारे राष्ट्रीय गान “जन-गण-मन” की धुन पर पोप जॉन पॉल (द्वितीय) का गुणगान और जीसस की प्रार्थना की जा रही है। इन दोनों का गुणगान करना गलत बात नहीं है, लेकिन राष्ट्रीय गीत की धुन और तर्ज पर इसे गाकर क्या साबित करने की और कैसा संदेश देने की कोशिश की जा रही है, यह मुझे देशभक्तों को समझाने की आवश्यकता नहीं है, हाँ छद्म-सेकुलरों को समझाना जरूरी है, क्योंकि मेरी नज़र में “छद्म-सेकुलर” *%$%*&#*$*॰ हैं…
Direct Link : http://www.youtube.com/watch?v=zDpIn03gEi8
इस दूसरे वीडियो में भी छोटी-छोटी बच्चियाँ “जन-गण-मन” की धुन पर पोप की प्रार्थना कर रही हैं। इन बेचारी बच्चियों को क्या मालूम कि इनके दिमाग का कैसा ब्रेन-वॉश किया जा रहा है…और जाने-अनजाने वे अपनी मातृभूमि से गद्दारी का पाठ पढ़ रही हैं… और यदि वाकई ऐसे हथकण्डों से प्रभु यीशु धरती पर शान्ति ला सकते, तो फ़िलीस्तीन और यरुशलम में सबसे पहले शान्ति आ जाती, जहाँ उनका जन्म हुआ, लेकिन उधर तो उन्हें “क्रूसेड” और “जेहाद” से ही फ़ुरसत नहीं है।
Direct Link : Janaganama praising Pope http://www.youtube.com/watch?v=5bO21MQ1LtI
इस चालबाजी का मिलाजुला रूप झारखण्ड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के दूरस्थ आदिवासी इलाकों में देखा जा सकता है, जहाँ झोंपड़ियों में स्थित चर्च को “भगवा” रंग से रंगा गया है, मदर मेरी और यीशु की मूर्तियों और छवियों को भी हिन्दू देवी-देवताओं से मिलता-जुलता रूप दिया गया है, ताकि भोले-भाले आदिवासियों को आसानी से मूर्ख बनाया जा सके, और मौका मिलते ही “धर्मान्तरण” करवा लिया जाता है। तिरंगे झण्डे, राष्ट्रीय गान का मजाक उड़ाना, वन्देमातरम का विरोध करना, नाबालिग लड़की को भगा ले जाने को धार्मिक बताना और देश के नक्शे से छेड़छाड़ आदि कामों को सिर्फ़ “बकवास” अथवा “गलती” कहकर खारिज़ नहीं किया जा सकता, यह एक दीर्घकालीन रणनीति के तहत हो रहा है।
इस प्रकार दीमक की तरह “एवेंजेलिस्ट” ज़मीन खोखली करते जा रहे हैं, और इधर “सेकुलरिज़्म” नाम का साँप मोटा होते-होते अजगर बन गया है और मूर्ख हिन्दू सोये हुए हैं और ऐसे ही नींद में गाफ़िल रहते ही मारे भी जायेंगे। इस स्थिति के लिये मिशनरी और कट्टर मुल्लाओं का दोष तो है लेकिन “छद्म-सेकुलरवादियों” और “बेसुध हिन्दुओं” के मुकाबले में कम है…। जब तक “हिन्दू” एक इकाई बनकर राजनैतिक रूप से संगठित नहीं होते, तब तक यह देश टुकड़े-टुकड़े होने को अभिशप्त ही रहेगा… रही-सही कसर राज ठाकरे-बाल ठाकरे टाइप के लोग पूरी कर रहे हैं जो “हिन्दुत्व” को कमजोर कर रहे हैं, और उनकी इस हरकत से “बाहरी” लोग खुश हो रहे हैं कि उनका काम अपने-आप आसान हो रहा है। वर्तमान दौर सेकुलरिज़्म का नंगा रूप देखने और सहनशील हिन्दुओं की परीक्षा का कठिन दौर है…
जैसा कि केरल में बढ़ते मिशनरीकरण और इस्लामीकरण के बारे में पहले भी कुछ पोस्ट में लिख चुका हूं, केरल में हिन्दुओं, हिन्दुत्व और भारतीय संस्कृति को गरियाने का दौर धीरे-धीरे मुखर होता जा रहा है, और इस बार तो सीधे देश के झण्डे तिरंगे की ही मनमानी व्याख्या सुनाई जा रही है। इस्लामी जेहादी तो सीधे-सीधे बम फ़ोड़ते हैं या “घेट्टो” (Ghetto) बनाकर हमले करते हैं जैसा कश्मीर से पंडितों को भगाने के मामले में किया, लेकिन मिशनरी और एवेंजेलिस्ट चालाक हैं, चुपके से काम करते हैं और मौका मिलते ही पीठ में छुरा घोंपते हैं (यह हम मिजोरम और उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों तथा कश्मीर में देख रहे हैं, देख चुके हैं)। अब आप कहेंगे कि ऐसी खबरें हमारे “सबसे तेज़” न्यूज़ चैनलों पर क्यों नहीं आतीं? जवाब एक ही है – कि इन चैनलों में “बिना रीढ़ के लोग” काम करते हैं जो अपने पाँच-M (मार्क्स-मुल्ला-मिशनरी-मैकाले-माइनो) पोषित आकाओं के इशारे पर रेंगते हैं… और “सेकुलर” पार्टियों द्वारा इन्हें “पाला” जाता है… ऐसी खबरें आपको सिर्फ़ ब्लॉग्स पर ही मिलेंगी…
विषय से सम्बन्धित कुछ अन्य मिलती-जुलती पोस्ट अवश्य पढ़िये -
1) http://blog.sureshchiplunkar.com/2010/01/ysr-family-evangelism-church-in-andhra.html
2) http://blog.sureshchiplunkar.com/2010/01/shariat-islamic-personal-law-e-ahmed.html
3) http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/10/kcbc-newsletter-kerala-love-jihad.html
4) http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/08/why-indian-media-is-anti-hindutva.html
5) http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/04/talibanization-kerala-congress-and_13.html
Indian Flag, Indian National Anthem, Mockery and Denigration of National Flag and National Anthem, Missionery, Gospel Church, Conversion in Backward Areas of India, Adivasis and Christian Missionery, भारत का राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का अपमान और उपहास, मिशनरी की चालें, आदिवासी और धर्मान्तरण, आदिवासी और मिशनरी, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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ब्लॉग
सोमवार, 01 फरवरी 2010 13:35
भाषाई विवादों को पीछे छोड़ते और “राज ठाकरेवाद” को सबक देते दो युवा कलाकार… ... Zee Marathi Saregamapa, Rahul Saxena, Abhilasha Chellam, Urmila Dhangar
क्या आप राहुल सक्सेना को जानते हैं? जानते तो होंगे लेकिन अब याद करने के लिये दिमाग पर थोड़ा ज़ोर लगाना पड़ेगा, चलिये मैं ही याद दिला देता हूं… भारत के पहले सबसे अधिक लोकप्रिय रियलिटी शो इंडियन आइडल (प्रथम), जिसमें अमित साना को हराकर, धारावी की झोपड़पट्टी में रहने वाले प्रतिभाशाली गायक अभिजीत सावन्त विजेता बने थे, उसी प्रतियोगिता में नौंवे क्रमांक पर रहने वाले एक प्रतियोगी हैं राहुल सक्सेना। आप कहेंगे इसमें कौन सी बड़ी बात है, ऐसे कई कलाकार, कई-कई शो में निचले क्रमांकों पर रहकर गुमनामी के अंधेरों में खो जाते हैं, लेकिन राहुल सक्सेना उनमें से नहीं हैं।
चार साल पहले भी जिस वक्त इंडियन आईडल से वह बाहर हुए थे, उस समय भी फ़राह खान ने भीगी आँखों से कहा था कि SMS के जरिये वोटिंग अथवा अन्य तकनीकी वजहों से भले ही राहुल बाहर जा रहे हैं, लेकिन मुझे उनकी प्रतिभा पर पूरा यकीन है और मैं इस लड़के को अपनी फ़िल्म में गाने का मौका दूंगी (यह वादा उन्होंने फ़िल्म ओम शांति ओम में सक्सेना को मौका देकर निभाया भी)। राहुल सक्सेना की समूची शिक्षा-दीक्षा दिल्ली में हुई इंडियन आइडल से पहले जून 2004 में ही वे मुम्बई शिफ़्ट हुए…। चलिये अब भूमिका और प्रस्तावना बहुत हुई, मुद्दे की बात पर आते हैं…
जी मराठी का एक लोकप्रिय कार्यक्रम है हिन्दी की तर्ज़ पर चलने वाला “सारेगमप…”, जिसे पल्लवी जोशी संचालित करती हैं। वर्तमान में जारी इस मराठी सारेगमप के फ़ाइनलिस्ट तीन कलाकारों में से दो कलाकार “गैर-मराठी” हैं… जी हाँ, चौंकिये मत… राहुल सक्सेना (शुद्ध हिन्दी भाषी) और अभिलाषा चेल्लम (एक और प्रतिभाशाली तमिलभाषी लड़की) “मराठी” के इस कार्यक्रम में सारे महाराष्ट्र और मराठियों का दिल जीत रहे हैं और भरपूर SMS प्राप्त कर रहे हैं।
है न मजेदार और थोड़ा आश्चर्यजनक भी… कि जब देश भाषाई और क्षेत्रीय विवादों से जूझ रहा हो, ऐसे वक्त में दो कलाकार जिनकी मातृभाषा तो मराठी तो है ही नहीं, बल्कि वे मराठी बोलना भी नहीं जानते… ऐसे गायक-गायिका, मराठी के एक संगीत कार्यक्रम में फ़ाइनल में पहुँचे हैं। खास बात इसलिये भी है, कि संगीत, नाटक, अभिनय आदि की समालोचना मराठी लोग बड़ी ही सूक्ष्म दृष्टि से करते हैं और सच्चे अर्थों में उच्च दर्जे का कलाकार ही यहाँ टिक पाता है। हालांकि मराठियों के लिये यह बात कतई आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि महाराष्ट्र ने हमेशा भाषा, जाति, सम्प्रदाय से ऊपर उठकर “सच्चे कलाकार” और उसकी कला का सम्मान किया है उन्हें प्यार दिया है। ऐसे कई गैर-मराठी कलाकार हैं जिन्होंने मराठी फ़िल्मों-नाटकों में अपना उत्कृष्ट योगदान दिया है, वहीं दूसरी ओर लता मंगेशकर हों या आशा भोंसले दोनों ने हिन्दी में सफ़लतापूर्वक अपना साम्राज्य स्थापित किया है।
बहरहाल, बात हो रही थी, इन दो युवा कलाकारों की… राहुल सक्सेना से आपका परिचय हो गया है, अब जान लीजिये दूसरी चुलबुली, नटखट, दाक्षिणत्य सौन्दर्य से भरपूर अभिलाषा चेल्लम के बारे में…
पुणे में निवासरत तमिलभाषी चेल्लम अय्यर की पुत्री अभिलाषा ने 4 वर्ष की आयु से ही कर्नाटक संगीत की शिक्षा ली, और पुणे में आयोजित होने वाली विभिन्न गायन प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया। जब वह 8 वर्ष की थी उस समय सब टीवी पर आने वाले कार्यक्रम “आओ झूमें गायें” में फ़ाइनल तक पहुँची थी, लेकिन उम्र कम होने की वजह से वह दूसरे क्रमांक पर रही। इसलिये जब स्टार टीवी के “अमूल वॉइस ऑफ़ इंडिया” में उसे गाने का मौका मिला तब भी वह अन्तिम 12 प्रतिभागियों में स्थान बनाने में सफ़ल रही। इससे पहले भी कई प्रतियोगिताओं में अभिलाषा ने मन्ना डे, ज़ाकिर हुसैन, दुर्गा जसराज, मोहम्मद अज़ीज़ जैसे परीक्षकों के सामने बेधड़क गा चुकी है, और इस बार भी जी-मराठी के इस सारेगामापा में सुरेश वाडकर, जतिन-ललित और शंकर महादेवन समेत मराठी-हिन्दी के अनेक दिग्गजों ने इसकी आवाज़, संगीत की समझ और गाने के अन्दाज़ की दिल खोलकर तारीफ़ की है। अभिलाषा का सपना है कि उसे एक बार काजोल के लिये प्लेबैक करने का मौका मिले…
जब आप इन दोनों गायकों के उच्चारण सुनेंगे तो यह कतई महसूस नहीं होगा कि इन दोनों को मराठी नहीं आती, सिर्फ़ समझ सकते हैं। अभिलाषा तो पुणे की निवासी होने की वजह से टूटी-फ़ूटी मराठी बोल सकती हैं, लेकिन राहुल सक्सेना तो ठेठ दिल्ली के हैं और उन्हें मराठी बिलकुल नहीं आती। लेकिन “संगीत” को किसी भी भाषा, किसी राजनीति, किसी क्षेत्रवाद, किसी ठाकरेवाद में बाँधा नहीं जा सकता, और इस बात की पूरी सम्भावना है कि 31 जनवरी को होने वाले फ़ाइनल मुकाबले में अभिलाषा चेल्लम ही महाराष्ट्र की महागायिका बनकर उभरें। अभिलाषा की स्वर अदायगी, मराठी उच्चारण (गाने के दौरान), ताल की समझ बेहतरीन है और राहुल सक्सेना से उसकी काँटे की टक्कर होगी, तीसरी फ़ाइनलिस्ट मराठी है जिसका नाम है उर्मिला धनगर, लेकिन कोई भी उसे जीत का दावेदार नहीं मान रहा।
अपने काम से देर शाम घर पहुँचता हूँ तब दिन भर ब्लॉगिंग के नशे के बाद संगीत का नशा ही लेता हूं… जो सारे नशे पर भारी है… और जी मराठी के बेहतरीन संगीत और हास्य कार्यक्रमों की वजह से बिग बॉस के घटियापन, राखी-राहुल के फ़ूहड़ स्वयंवरों, पुनर्जन्म की नौटंकियों आदि से बचा रहता हूँ… हाँ न्यूज़ चैनलों को अवश्य 5-5 मिनट देखना पड़ता है कि किस चैनल पर कौन सा एंकर भाजपा-संघ-हिन्दुत्व को गरिया रहा है, और कौन सा एंकर राहुल बाबा के चरण स्पर्श कर रहा है…
इस कार्यक्रम के बारे में आप लोगों को देर से बताने के लिये माफ़ी चाहता हूँ… लेकिन इन दोनों कलाकारों के एक-दो यू-ट्यूब वीडियो आपके लिये सादर प्रस्तुत करता हूं… उधर एक और मराठी माणुस मोहन भागवत जी ने भी अपना संयम तोड़ते हुए ठाकरेद्वय को कल “मराठी मुम्बई” के बारे में खरी-खरी सुना दी है भले इससे भाजपा-सेना गठबंधन खतरे में आ जाये, लेकिन राजनीति की बात अगली पोस्ट में करेंगे, फ़िलहाल आप इन दोनों युवा कलाकारों का गाना सुनिये… जिन्हें मराठी जजों, मराठी दर्शकों और मराठियों के अधिकाधिक SMS ने फ़ाइनल में पहुँचाया है…। मेरी भी अभिलाषा है कि “अभिलाषा” ही जीते…
मी राधिका, मी प्रेमिका : http://www.youtube.com/watch?v=q0eHkNTRXiA
नटरंग फ़िल्म की एक मुश्किल लावणी… http://www.youtube.com/watch?v=PsIS_CREvAo
खेळ मांडला… http://www.youtube.com/watch?v=Ww9A0a8XKvw
करुया उदो-उदो अम्बाबाईचा… http://www.youtube.com/watch?v=yXY2jy02hJM
चलते-चलते : पूरी पोस्ट लिख चुकने के बाद, कल रात की खबर यह है कि इन दोनों प्रतियोगियों को पीछे छोड़कर उर्मिला धनगर ने अधिक SMS प्राप्त करने की वजह से यह मुकाबला जीत लिया है। आज सुबह से इस बात की सम्भावना जताई जा रही है कि जी-मराठी, आईडिया (प्रायोजक) और कार्यक्रम संचालकों पर कोई "बाहरी दबाव" था जिसकी वजह से काँटे की टक्कर वाले इस मुकाबले में अभिलाषा चेल्लम की जीत नहीं हो सकी। हालांकि मंच से इन दोनों प्रतियोगियों ने किसी प्रकार की नाखुशी व्यक्त नहीं की, लेकिन एक जज "अवधूत गुप्ते" (जिन्होंने ठाकरे परिवार पर आधारित हाल ही में एक फ़िल्म "झेण्डा" का निर्माण किया है) ने इशारों-इशारों में ही बहुत कुछ कह दिया।
वहीं दूसरी तरफ़ महाराष्ट्र के कुछ संगीतप्रेमियों को इस बात पर ऐतराज़ हैं कि राहुल और अभिलाषा के कई मराठी उच्चारण दोषों को नज़र-अंदाज़ करके कई प्रतिभाशाली प्रतियोगियों को कार्यक्रम की "इमेज" बनाने के लिये जानबूझकर बाहर कर दिया गया है। अब ये तो पता नहीं कि अन्तिम समय पर क्या हुआ या ऐसे कार्यक्रमों की अन्दरूनी राजनीति क्या और कैसी रही, लेकिन मेरे कुछ वर्षों के "कानसेन" अनुभव के आधार पर यदि मुझे इन तीनों में से किसी को चुनने का मौका मिलता तो मैं निश्चित ही अभिलाषा चेल्लम को अपना वोट देता…। पहले मैं सिर्फ़ राहुल और अभिलाषा के वीडियो ही लगाने वाला था, लेकिन अब उर्मिला धनगर के दो सुपरहिट और खूब पसन्द किये गये गाने भी लगा रहा हूं, उर्मिला धनगर की आवाज़ में भी एक विशिष्ट ग्रामीण एवं लोकगायक का टच है जो उसे बाकियों से अलग करता है। पसन्द अपनी-अपनी, खयाल अपना-अपना, अब आप लोग खुद ही सुनें और अपना मत बतायें…।
बहरहाल, दो गैर-मराठी युवा कलाकारों ने काफ़ी समय से मुम्बई में चल रहे "ठाकरेवाद" की हवा निकालने की सफ़ल कोशिश की है। जय भारत, जय हिन्द तथा "जय हो महाराष्ट्र की संगीत परम्परा"
कळिदार कपुरी पान : http://www.youtube.com/watch?v=7IcZ03_G1kQ
पिकलं ज़ाम्भुळ तोड़ू नका - http://www.youtube.com/watch?v=twKyRx5oRmk
Marathi Saregamapa, Sa re ga ma pa Pallavi Joshi, Non-Marathi Artists, Marathi Film Music, Marathi Natak Tradition, Rahul Saxena and Abhilasha Chellam, Raj Thakre, Marathi-Hindi Political Issue in Mumai, Natarang, राहुल सक्सेना, अभिलाषा चेल्लम, पल्लवी जोशी, मराठी सारेगमप, राज ठाकरे, हिन्दी मराठी राजनीति, मराठी फ़िल्म संगीत और गैर-मराठी कलाकार, नटरंग, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
चार साल पहले भी जिस वक्त इंडियन आईडल से वह बाहर हुए थे, उस समय भी फ़राह खान ने भीगी आँखों से कहा था कि SMS के जरिये वोटिंग अथवा अन्य तकनीकी वजहों से भले ही राहुल बाहर जा रहे हैं, लेकिन मुझे उनकी प्रतिभा पर पूरा यकीन है और मैं इस लड़के को अपनी फ़िल्म में गाने का मौका दूंगी (यह वादा उन्होंने फ़िल्म ओम शांति ओम में सक्सेना को मौका देकर निभाया भी)। राहुल सक्सेना की समूची शिक्षा-दीक्षा दिल्ली में हुई इंडियन आइडल से पहले जून 2004 में ही वे मुम्बई शिफ़्ट हुए…। चलिये अब भूमिका और प्रस्तावना बहुत हुई, मुद्दे की बात पर आते हैं…
जी मराठी का एक लोकप्रिय कार्यक्रम है हिन्दी की तर्ज़ पर चलने वाला “सारेगमप…”, जिसे पल्लवी जोशी संचालित करती हैं। वर्तमान में जारी इस मराठी सारेगमप के फ़ाइनलिस्ट तीन कलाकारों में से दो कलाकार “गैर-मराठी” हैं… जी हाँ, चौंकिये मत… राहुल सक्सेना (शुद्ध हिन्दी भाषी) और अभिलाषा चेल्लम (एक और प्रतिभाशाली तमिलभाषी लड़की) “मराठी” के इस कार्यक्रम में सारे महाराष्ट्र और मराठियों का दिल जीत रहे हैं और भरपूर SMS प्राप्त कर रहे हैं।
है न मजेदार और थोड़ा आश्चर्यजनक भी… कि जब देश भाषाई और क्षेत्रीय विवादों से जूझ रहा हो, ऐसे वक्त में दो कलाकार जिनकी मातृभाषा तो मराठी तो है ही नहीं, बल्कि वे मराठी बोलना भी नहीं जानते… ऐसे गायक-गायिका, मराठी के एक संगीत कार्यक्रम में फ़ाइनल में पहुँचे हैं। खास बात इसलिये भी है, कि संगीत, नाटक, अभिनय आदि की समालोचना मराठी लोग बड़ी ही सूक्ष्म दृष्टि से करते हैं और सच्चे अर्थों में उच्च दर्जे का कलाकार ही यहाँ टिक पाता है। हालांकि मराठियों के लिये यह बात कतई आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि महाराष्ट्र ने हमेशा भाषा, जाति, सम्प्रदाय से ऊपर उठकर “सच्चे कलाकार” और उसकी कला का सम्मान किया है उन्हें प्यार दिया है। ऐसे कई गैर-मराठी कलाकार हैं जिन्होंने मराठी फ़िल्मों-नाटकों में अपना उत्कृष्ट योगदान दिया है, वहीं दूसरी ओर लता मंगेशकर हों या आशा भोंसले दोनों ने हिन्दी में सफ़लतापूर्वक अपना साम्राज्य स्थापित किया है।
बहरहाल, बात हो रही थी, इन दो युवा कलाकारों की… राहुल सक्सेना से आपका परिचय हो गया है, अब जान लीजिये दूसरी चुलबुली, नटखट, दाक्षिणत्य सौन्दर्य से भरपूर अभिलाषा चेल्लम के बारे में…
पुणे में निवासरत तमिलभाषी चेल्लम अय्यर की पुत्री अभिलाषा ने 4 वर्ष की आयु से ही कर्नाटक संगीत की शिक्षा ली, और पुणे में आयोजित होने वाली विभिन्न गायन प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया। जब वह 8 वर्ष की थी उस समय सब टीवी पर आने वाले कार्यक्रम “आओ झूमें गायें” में फ़ाइनल तक पहुँची थी, लेकिन उम्र कम होने की वजह से वह दूसरे क्रमांक पर रही। इसलिये जब स्टार टीवी के “अमूल वॉइस ऑफ़ इंडिया” में उसे गाने का मौका मिला तब भी वह अन्तिम 12 प्रतिभागियों में स्थान बनाने में सफ़ल रही। इससे पहले भी कई प्रतियोगिताओं में अभिलाषा ने मन्ना डे, ज़ाकिर हुसैन, दुर्गा जसराज, मोहम्मद अज़ीज़ जैसे परीक्षकों के सामने बेधड़क गा चुकी है, और इस बार भी जी-मराठी के इस सारेगामापा में सुरेश वाडकर, जतिन-ललित और शंकर महादेवन समेत मराठी-हिन्दी के अनेक दिग्गजों ने इसकी आवाज़, संगीत की समझ और गाने के अन्दाज़ की दिल खोलकर तारीफ़ की है। अभिलाषा का सपना है कि उसे एक बार काजोल के लिये प्लेबैक करने का मौका मिले…
जब आप इन दोनों गायकों के उच्चारण सुनेंगे तो यह कतई महसूस नहीं होगा कि इन दोनों को मराठी नहीं आती, सिर्फ़ समझ सकते हैं। अभिलाषा तो पुणे की निवासी होने की वजह से टूटी-फ़ूटी मराठी बोल सकती हैं, लेकिन राहुल सक्सेना तो ठेठ दिल्ली के हैं और उन्हें मराठी बिलकुल नहीं आती। लेकिन “संगीत” को किसी भी भाषा, किसी राजनीति, किसी क्षेत्रवाद, किसी ठाकरेवाद में बाँधा नहीं जा सकता, और इस बात की पूरी सम्भावना है कि 31 जनवरी को होने वाले फ़ाइनल मुकाबले में अभिलाषा चेल्लम ही महाराष्ट्र की महागायिका बनकर उभरें। अभिलाषा की स्वर अदायगी, मराठी उच्चारण (गाने के दौरान), ताल की समझ बेहतरीन है और राहुल सक्सेना से उसकी काँटे की टक्कर होगी, तीसरी फ़ाइनलिस्ट मराठी है जिसका नाम है उर्मिला धनगर, लेकिन कोई भी उसे जीत का दावेदार नहीं मान रहा।
चित्र में तीनों फ़ाइनलिस्ट प्रख्यात गायिका अलका याग्निक के साथ
अपने काम से देर शाम घर पहुँचता हूँ तब दिन भर ब्लॉगिंग के नशे के बाद संगीत का नशा ही लेता हूं… जो सारे नशे पर भारी है… और जी मराठी के बेहतरीन संगीत और हास्य कार्यक्रमों की वजह से बिग बॉस के घटियापन, राखी-राहुल के फ़ूहड़ स्वयंवरों, पुनर्जन्म की नौटंकियों आदि से बचा रहता हूँ… हाँ न्यूज़ चैनलों को अवश्य 5-5 मिनट देखना पड़ता है कि किस चैनल पर कौन सा एंकर भाजपा-संघ-हिन्दुत्व को गरिया रहा है, और कौन सा एंकर राहुल बाबा के चरण स्पर्श कर रहा है…
इस कार्यक्रम के बारे में आप लोगों को देर से बताने के लिये माफ़ी चाहता हूँ… लेकिन इन दोनों कलाकारों के एक-दो यू-ट्यूब वीडियो आपके लिये सादर प्रस्तुत करता हूं… उधर एक और मराठी माणुस मोहन भागवत जी ने भी अपना संयम तोड़ते हुए ठाकरेद्वय को कल “मराठी मुम्बई” के बारे में खरी-खरी सुना दी है भले इससे भाजपा-सेना गठबंधन खतरे में आ जाये, लेकिन राजनीति की बात अगली पोस्ट में करेंगे, फ़िलहाल आप इन दोनों युवा कलाकारों का गाना सुनिये… जिन्हें मराठी जजों, मराठी दर्शकों और मराठियों के अधिकाधिक SMS ने फ़ाइनल में पहुँचाया है…। मेरी भी अभिलाषा है कि “अभिलाषा” ही जीते…
मी राधिका, मी प्रेमिका : http://www.youtube.com/watch?v=q0eHkNTRXiA
नटरंग फ़िल्म की एक मुश्किल लावणी… http://www.youtube.com/watch?v=PsIS_CREvAo
खेळ मांडला… http://www.youtube.com/watch?v=Ww9A0a8XKvw
करुया उदो-उदो अम्बाबाईचा… http://www.youtube.com/watch?v=yXY2jy02hJM
चलते-चलते : पूरी पोस्ट लिख चुकने के बाद, कल रात की खबर यह है कि इन दोनों प्रतियोगियों को पीछे छोड़कर उर्मिला धनगर ने अधिक SMS प्राप्त करने की वजह से यह मुकाबला जीत लिया है। आज सुबह से इस बात की सम्भावना जताई जा रही है कि जी-मराठी, आईडिया (प्रायोजक) और कार्यक्रम संचालकों पर कोई "बाहरी दबाव" था जिसकी वजह से काँटे की टक्कर वाले इस मुकाबले में अभिलाषा चेल्लम की जीत नहीं हो सकी। हालांकि मंच से इन दोनों प्रतियोगियों ने किसी प्रकार की नाखुशी व्यक्त नहीं की, लेकिन एक जज "अवधूत गुप्ते" (जिन्होंने ठाकरे परिवार पर आधारित हाल ही में एक फ़िल्म "झेण्डा" का निर्माण किया है) ने इशारों-इशारों में ही बहुत कुछ कह दिया।
वहीं दूसरी तरफ़ महाराष्ट्र के कुछ संगीतप्रेमियों को इस बात पर ऐतराज़ हैं कि राहुल और अभिलाषा के कई मराठी उच्चारण दोषों को नज़र-अंदाज़ करके कई प्रतिभाशाली प्रतियोगियों को कार्यक्रम की "इमेज" बनाने के लिये जानबूझकर बाहर कर दिया गया है। अब ये तो पता नहीं कि अन्तिम समय पर क्या हुआ या ऐसे कार्यक्रमों की अन्दरूनी राजनीति क्या और कैसी रही, लेकिन मेरे कुछ वर्षों के "कानसेन" अनुभव के आधार पर यदि मुझे इन तीनों में से किसी को चुनने का मौका मिलता तो मैं निश्चित ही अभिलाषा चेल्लम को अपना वोट देता…। पहले मैं सिर्फ़ राहुल और अभिलाषा के वीडियो ही लगाने वाला था, लेकिन अब उर्मिला धनगर के दो सुपरहिट और खूब पसन्द किये गये गाने भी लगा रहा हूं, उर्मिला धनगर की आवाज़ में भी एक विशिष्ट ग्रामीण एवं लोकगायक का टच है जो उसे बाकियों से अलग करता है। पसन्द अपनी-अपनी, खयाल अपना-अपना, अब आप लोग खुद ही सुनें और अपना मत बतायें…।
बहरहाल, दो गैर-मराठी युवा कलाकारों ने काफ़ी समय से मुम्बई में चल रहे "ठाकरेवाद" की हवा निकालने की सफ़ल कोशिश की है। जय भारत, जय हिन्द तथा "जय हो महाराष्ट्र की संगीत परम्परा"
कळिदार कपुरी पान : http://www.youtube.com/watch?v=7IcZ03_G1kQ
पिकलं ज़ाम्भुळ तोड़ू नका - http://www.youtube.com/watch?v=twKyRx5oRmk
Marathi Saregamapa, Sa re ga ma pa Pallavi Joshi, Non-Marathi Artists, Marathi Film Music, Marathi Natak Tradition, Rahul Saxena and Abhilasha Chellam, Raj Thakre, Marathi-Hindi Political Issue in Mumai, Natarang, राहुल सक्सेना, अभिलाषा चेल्लम, पल्लवी जोशी, मराठी सारेगमप, राज ठाकरे, हिन्दी मराठी राजनीति, मराठी फ़िल्म संगीत और गैर-मराठी कलाकार, नटरंग, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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