desiCNN - Items filtered by date: अक्टूबर 2010
न्याय और सार्वजनिक शुचिता का सामान्य सिद्धान्त है कि सबसे ऊँचे पदों पर बैठे व्यक्तियों को ईमानदार और साफ़ छवि वाला होना चाहिये, इस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से यह अपेक्षा होती है कि वे नैतिकता और ईमानदारी के उच्चतम मानदंड न सिर्फ़ स्थापित करेंगे, बल्कि स्वयं भी उस पर कायम रहेंगे। भारत में न्यायाधीशों को एक "विशेष रक्षा कवच" मिला हुआ है जिसे "न्यायालय की अवमानना" कहते हैं, इसके तहत जजों अथवा उनके निर्णयों के खिलाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठती, सामान्य व्यक्ति अधिक से अधिक यह कर सकता है कि वह निचली अदालत के निर्णय को ऊपरी अदालत में चुनौती दे (यानी फ़िर से 10-20 साल बर्बाद), परन्तु यदि उच्चतम न्यायालय के जज के किसी निर्णय पर ही आपत्ति हो तो कोई क्या कर सकता है? कुछ नहीं…

लोकतन्त्र की इसी विडम्बना को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट के ही वरिष्ठ वकील श्री प्रशान्त भूषण ने इसके खिलाफ़ 20 साल तक लगातार लड़ाई लड़ी। इस विकट संघर्ष के चलते अन्ततः सितम्बर 2009 में सर्वोच्च न्यायालय ने जजों की सम्पत्ति की सार्वजनिक घोषणा करना अनिवार्य कर दिया, यह एक पहली बड़ी जीत थी। हालांकि इससे ऊपरी स्तर पर भ्रष्टाचार में कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ने वाला था, परन्तु फ़िर भी इसे "सफ़ाई" की दिशा में पहला कदम कहा जा सकता है। प्रशान्त भूषण जी ने इस बात पर जोर दिया कि न्यायाधीशों की जिम्मेदारियाँ भी तय होनी चाहिये और न्यायिक व्यवस्था में ऐसा सिस्टम निर्माण होना चाहिये जिससे भ्रष्टाचार में कमी हो। (यहाँ देखें…)



हाल ही में श्री शांतिभूषण ने सर्वोच्च न्यायालय में एक शपथ-पत्र दायर करके यह दावा करके तहलका मचा दिया है कि "सुप्रीम कोर्ट के पिछले 16 मुख्य न्यायाधीशों में से आधे भ्रष्ट हैं…"। भूषण ने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय की विश्वसनीयता कायम रखने के लिये यह जरुरी है कि इनकी विस्तृत जाँच हो। शांतिभूषण जी को "न्यायालय की अवमानना" के बारे में नोटिस दिया गया है, जिसके जवाब में उन्होंने एक और एफ़िडेविट दाखिल करके कहा है कि "उच्च पदों पर आसीन जजों के खिलाफ़ कागजी सबूत एकत्रित करना बेहद कठिन काम है, क्योंकि उनके खिलाफ़ पुलिस जाँच की इजाज़त नहीं है, यहाँ तक कि उनके खिलाफ़ पुलिस में FIR दर्ज करने के लिये भी पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से पूर्व-अनुमति लेना पड़ती है, ऐसे में कोई व्यक्ति सबूत कैसे लाये…"। शान्तिभूषण ने लिखित में कहा है कि 16 में से 8 जजों का आचरण, उनके द्वारा दिये गये निर्णय और उनके परिजनों की सम्पत्ति को सरसरी तौर पर देखा जाये तो निश्चित रुप से जाँच का प्राथमिक मामला तो बनता ही है, और "…यदि फ़िर भी यदि मुझे "न्यायालय की अवमानना" का दोषी पाया जाये और जेल में डाल दिया जाये तब भी मुझे खुशी होगी कि कम से कम मैंने भारत की न्याय-व्यवस्था में शीर्ष पर सफ़ाई के लिये कोशिश तो की…"।

एक अन्य पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री वीआर कृष्णन अय्यर ने भी समर्थन में कहा है कि यह एक सुनहरा अवसर है जब हम सर्वोच्च स्तर पर फ़ैले भ्रष्टाचार और कदाचार को खत्म कर सकते हैं। इसमें सबसे पहला कदम यह होना चाहिये कि जनहित में सभी सूचनाएं सार्वजनिक की जायें, शक-शुबहा की ज़रा सी भी गुंजाइश हो तो उसे जनता के बीच जानकारी के रुप में प्रसारित किया जाये, शायद तब सरकार और मुख्य न्यायाधीश पर जनदबाव बने कि वे इन मामलों की जाँच के आदेश जारी करें…

अतः आम जनता के हित में शान्तिभूषण और प्रशान्त भूषण के शपथ-पत्र में उल्लिखित कुछ जजों के नाम एवं उनकी गतिविधियों के बारे में जानकारी यहाँ भी दी जा रही है…

1) जस्टिस रंगनाथ मिश्र (25.09.1990 - 24.11.1991)


सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंगनाथ मिश्र को 1984 के सिख दंगों की जाँच आयोग में रखा गया था। कांग्रेस के कई प्रमुख नेताओं के इन दंगों और सिखों की हत्या में शामिल होने के पक्के सबूत होने के बावजूद उन्होंने कईयों को लगातार "क्लीन चिट" दी। 1984 के सिख कत्लेआम की जाँच पूरी होने के बाद उन्हें कांग्रेस की तरफ़ से राज्यसभा की सीट तोहफ़े में दी गई। जगदीश टाइटलर, सज्जन कुमार और HKL भगत वे बचा न सके, क्योंकि इन लोगों के खिलाफ़ कुछ ज्यादा ही मजबूत सबूत और न बिक सकने वाले, न दबने वाले गवाह थे। सीबीआई द्वारा की गई जाँच में भी दिल्ली के कई कांग्रेसी नेताओं के इन दंगों में लिप्त होने के सबूत मिले, लेकिन उन्हें भी सफ़ाई से दबा दिया गया। रिटायरमेण्ट के तुरन्त बाद कांग्रेस की तरफ़ से राज्यसभा सीट स्वीकार करना भी भ्रष्टाचार और अनैतिकता की श्रेणी में ही आता है। (ठीक उसी प्रकार जैसे एमएस गिल द्वारा चुनाव आयुक्त पद से रिटायर होते ही तड़ से राज्यसभा में और फ़िर खेल मंत्रालय में… ऐसा क्या "विशेष काम" किया था गिल साहब ने?)

2) जस्टिस के एन सिंह (25.11.1991 - 12.12.1991)

सिर्फ़ 18 दिन (जी हाँ, सिर्फ़ 18 दिन) के लिये सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बनने वाले केएन सिंह ने इतने कम समय में भी अपने गुल खिला दिये थे। रंगनाथ मिश्रा के नक्शेकदम पर चलते हुए इन्होंने तत्कालीन "जैन एक्सपोर्ट" और "जैन शुद्ध वनस्पति" नामक कम्पनी के पक्ष में धड़ाधड़-धड़ाधड़ फ़ैसले सुनाना शुरु कर दिया। ये साहब इतने "बड़े-वाले" निकले कि किसी दूसरे न्यायाधीश की बेंच पर सुनवाई हो रहे जैन वनस्पति मामले को जबरन सुप्रीम कोर्ट घसीट लाये और आदेश पारित कर दिये। अप्रैल 1991 और सिरम्बर 1991 में जस्टिस केएन सिंह ने जैन एक्सपोर्ट्स द्वारा कॉस्टिक सोडा के आयात मामले में दो फ़ैसले कम्पनी के पक्ष में दिये। 28 नवम्बर 1991 को जस्टिस सिंह ने केन्द्र सरकार बनाम जैन वनस्पति केस में सरकार के दावे को भी खारिज कर दिया। हालांकि इस निर्णय को बाद में 16 जुलाई 1993 को जस्टिस जेएस वर्मा और पीबी सावन्त की बेंच ने उलट दिया था, लेकिन सिंह साहब को जो "खेल" इस बीच करना था वे कर चुके थे। उन दिनों जैन वनस्पति एण्ड एक्सपोर्ट्स के पक्ष में ताबड़तोड़ दिये गये फ़ैसले चर्चा का विषय थे, परन्तु उंगली कौन उठाये? "न्यायालय की अवमानना" की ढाल जो मौजूद थी, "माननीय" के पास!!!

3) जस्टिस एएम अहमदी (25.10.1994 - 24.03.1997)


जस्टिस अहमदी ने जस्टिस वेंकटाचलैया से अपना कार्यभार ग्रहण किया था। भोपाल गैस काण्ड के मामले में अहमदी के दिये हुए फ़ैसले आज भी चर्चा का विषय बने हुए हैं। गैस लीक मामले में आपराधिक धाराओं को कमजोर करने और अभियुक्तों को बरी करने में अहमदी साहब ने बड़ी तत्परता दिखाई थी। भोपाल गैस त्रासदी की लम्बी सुनवाई के दौरान कुल 7 (सात) बार जजों की बेंच बदली, लेकिन आश्चर्यजनक रुप से हर बार प्रत्येक बेंच में जस्टिस अहमदी जरुर शामिल रहे (क्या गजब का संयोग है)। अहमदी साहब ने यूनियन कार्बाइड के साथ सरकार की डील को भी आसान बनाया, इसी प्रकार यूनियन कार्बाइड को "भोपाल मेमोरियल अस्पताल" बनाने के लिये 187 करोड़ रुपये भी रिलीज़ करवाये। रिटायरमेण्ट के तत्काल बाद अहमदी साहब, भोपाल मेमोरियल ट्रस्ट अस्पताल के "लाइफ़टाइम चेयरमैन" नियुक्त हो गये, यानी उसी कम्पनी के उसी अस्पताल में जिसकी सुनवाई उन्होंने चीफ़ जस्टिस रहते अपने कार्यकाल में बरसों तक की… (गजब का संयोग है, है ना?)

अहमदी साहब की दास्तान यहीं खत्म नहीं होती… एक कारनामा और है जिसकी तरफ़ प्रशान्त भूषण जी ने अपने एफ़िडेविट में इशारा किया है। फ़रीदाबाद के बड़खल और सूरजकुण्ड झीलों के आसपास पर्यावरण सुरक्षा के लिहाज से मुख्य न्यायाधीश कुलदीप सिंह की खण्डपीठ ने 10 मई 1996 को झील के आसपास 5 किमी परिधि में सभी प्रकार के निर्माण कार्यों पर रोक लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश के बाद झील के आसपास चल रहे "कान्त एन्कलेव" नामक बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कम्पनी के सभी निर्माण कार्य रोक दिये गये, क्योंकि सूरजकुण्ड झील के पास की भूमि पंजाब लैण्ड एक्ट के तहत वन्य क्षेत्र घोषित कर दी गई थी। अब सोचिये, यह तो हो नहीं सकता कि न्यायिक क्षेत्र में इतने उच्च पद पर बैठे व्यक्ति को यह बात मालूम न हो, उन्हीं के एक सहयोगी द्वारा पर्यावरण चिंताओं के मद्देनज़र लगाये गये प्रतिबन्ध के बावजूद अहमदी साहब ने मुख्य न्यायाधीश रहते यहाँ प्लॉट खरीदे, न सिर्फ़ खरीदे, बल्कि उन पर अपने रहने के लिये मकान भी बना लिया। जैसे ही कुलदीप सिंह साहब रिटायर हुए और ये मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी पर काबिज हुए, इन्होंने सबसे पहले बड़खल/सूरजकुण्ड केस की पार्टी कान्त एनक्लेव की पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार करते हुए निर्माण पर रोक के निर्णय की समीक्षा के लिये एक बेंच का गठन कर दिया। 11 अक्टूबर 1996 को झील के आसपास 5 किलोमीटर परिधि में निर्माण पर प्रतिबन्ध की सीमा को घटाकर 1 किमी कर दिया गया (अंदाज़ा लगाईये कि 4 किमी की परिधि की अरबों-खरबों की ज़मीन में ठेकेदारों का कितना फ़ायदा हुआ होगा), अहमदी साहब यहीं नहीं रुके… 17 माच 1997 को कान्त एनक्लेव की एक और याचिका पर उन्होंने झील के इस क्षेत्र में निर्माण कार्य करने से पहले प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड की मंजूरी लेने का प्रावधान भी खत्म कर दिया।

कुल मिलाकर साफ़ तथ्य यह है कि जस्टिस अहमदी का कान्त एनक्लेव में बना हुआ बंगला पूरी तरह से अवैध, पर्यावरण मानकों के खिलाफ़ और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का उल्लंघन था… (आज तक, कान्त एनक्लेव कंसट्रक्शन कम्पनी और यूनियन कार्बाइड से अहमदी के विशेष प्रेम का खुलासा नहीं हो सका है)

4) जस्टिस एमएम पुंछी (18.01.1998 - 09.10.1998)



जस्टिस एमएम पुंछी का कार्यकाल भी सिर्फ़ दस महीने ही रहा। जस्टिस पुंछी के खिलाफ़ न्यायिक जवाबदेही समिति द्वारा महाभियोग चलाने के लिये प्रस्ताव तैयार किया गया था, लेकिन इस पर राज्यसभा के सिर्फ़ 25 सदस्यों के ही हस्ताक्षर हो सके, और संख्या कम होने की वजह से इन महोदय पर महाभियोग नहीं चलाया जा सका। महाभियोग चलाने की नौबत क्यों आई यह निम्न गम्भीर आरोपों से जाना जा सकता है-

अ) मुम्बई के एक व्यापारी केएन तापड़िया के धोखाधड़ी मामले में इन्होंने प्रावधान न होते हुए भी उसे जमानत दे दी, जबकि जिन धाराओं में केस लगा था उसमें तापड़िया को सम्बन्धित पार्टी से कोई सम्बन्ध या समझौता करने का अधिकार ही नहीं था।

ब) पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहते पुंछी साहब ने भजनलाल के खिलाफ़ रोहतक विवि के कुलपति डॉ रामगोपाल की याचिका बगैर किसी कारण के खारिज कर दी। याचिका में भजनलाल की दोनों बेटियों मधु और प्रिया को सरकारी कोटे से गुड़गाँव में करोड़ों के प्लॉट आबंटित करने के खिलाफ़ सुनवाई का आग्रह किया गया था।

भाग-2 में जारी रहेगा…

आम जनता की जानकारी हेतु जनहित में प्रस्तुत किया गया -

(डिस्क्लेमर - प्रस्तुत जानकारियाँ विभिन्न वेबसाईटों एवं प्रशान्त भूषण/शान्ति भूषण जी के एफ़िडेविट पर आधारित हैं, यदि इनसे किसी भी "माननीय" न्यायालय की अवमानना होती हो, तो "आधिकारिक आपत्ति" दर्ज करवायें… सामग्री हटा ली जायेगी…)


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इस समय पूरे देश में हिन्दुत्व के खिलाफ़ एक जोरदार षडयन्त्र चल रहा है, और केन्द्र सरकार समेत सभी मुस्लिम वोट सौदागर सिमी जैसे देशद्रोही और रा स्व संघ को एक तराजू पर रखने की पुरज़ोर कोशिशें कर रहे हैं। हिन्दुत्व और विकास के "आइकॉन" नरेन्द्र मोदी को जिस तरह मीडिया का उपयोग करके बदनाम करने और "अछूत" बनाने की कोशिशें चल रही हैं, इससे सम्बन्धित देशद्रोही सेकुलरों और गद्दार वामपंथियों द्वारा इस्लामिक उग्रवाद की अनदेखी की पोल खोलने की खबरें पाठक लगातार पढ़ते रहते हैं। केरल, पश्चिम बंगाल, कश्मीर, असम, नागालैण्ड में जिस तरह की देश विरोधी गतिविधियाँ चल रही हैं और दिल्ली में बैठकर जिस प्रकार मीडिया के बिकाऊ भाण्डों के जरिये हिन्दुत्व की छवि मलिन करने का प्रयास किया जा रहा है उसके बारे में पाठकों को सतत जानकारी प्रदान की जाती रही है, और यह आगे भी जारी रहेगा…

फ़िलहाल आज दो उत्साहवर्धक खबरें लाया हूं, जिसे 6M (मार्क्स, मुल्ला, मिशनरी, मैकाले, मार्केट, माइनो) के हाथों "बिका हुआ मीडिया" कभी हाइलाईट नहीं करेगा…

1) पहली खबर है नागपुर से -

कुछ "तथाकथित प्रगतिशील" लोग भले ही पुरोहिताई और कर्मकाण्ड को पिछड़ेपन की निशानी(?) मानते हों, लेकिन यह समाज की हकीकत और मानसिक/आध्यात्मिक शान्ति की जरुरत है, कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक कई-कई बार वेदपाठी, मंत्रोच्चार से ज्ञानी पंडितों-पुरोहितों की आवश्यकता पड़ती ही है। (यहाँ तक कि "घोषित रुप से नास्तिक" लेकिन हकीकत में पाखण्डी वामपंथी भी अपने घरों में पूजा-पाठ करवाते ही हैं)। आज के दौर में अपने आसपास निगाह दौड़ाईये तो आप पायेंगे कि यदि आपको किसी पुरोहित से छोटी सी सत्यनारायण की पूजा ही क्यों न करवानी हो, "पण्डित जी बहुत भाव खाते हैं"। पुरोहितों को भी पता है कि "डिमाण्ड-सप्लाई" में भारी अन्तर है और उनके बिना यजमान का काम चलने वाला नहीं है, साथ ही एक बात और भी है कि जिस तरह से धार्मिकता और कर्मकाण्ड की प्रथा बढ़ रही है, अच्छा और सही पुरोहित कर्म करने वालों की भारी कमी महसूस की जा रही है।

इसी को ध्यान में रखते हुए, विश्व हिन्दू परिषद ने महिलाओं को पुरोहिताई के क्षेत्र में उतारने और उन्हें प्रशिक्षित करने का कार्यक्रम चलाया है। सन 2000 से चल रहे इस प्रोजेक्ट में अकेले विदर्भ क्षेत्र में 101 पूर्ण प्रशिक्षित महिला पुरोहित बनाई जा चुकी हैं तथा 1001 महिलाएं अभी सीख रही हैं। महिला पुरोहितों का एक विशाल सम्मेलन हाल ही में नागपुर में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा रखा गया जिसकी अध्यक्षता श्रीमती जयश्री जिचकर (पूर्व कांग्रेसी नेता श्रीकान्त जिचकर की पत्नी) द्वारा की गई। इस अवसर पर विदर्भ क्षेत्र की सभी महिला पुरोहितों की एक डायरेक्ट्री का विमोचन भी किया गया ताकि आम आदमी को (यदि पुरुष पुरोहित ज्यादा भाव खायें) तो कर्मकाण्ड के लिये महिला पुरोहित उपलब्ध हो सकें।

ऐसा नहीं है कि अपने "क्षेत्राधिकार में अतिक्रमण"(?) को लेकर पुरुष पुरोहित चुप बैठे हों, ज़ाहिर सी बात है उनमें खलबली मची। अधिकतर पुरुष पुरोहितों ने बुलावे के बावजूद सम्मेलन से दूरी बनाकर रखी, संख्या में कम होने के कारण उनमें "एकता" दिखाई दी और किसी न किसी बहाने से उन्होंने महिला पुरोहित सम्मेलन से कन्नी काट ली। कुछ पुरोहितों को दूसरे पुरोहितों ने "अप्रत्यक्ष रुप से धमकाया" भी, फ़िर भी नागपुर के वरिष्ठ पुरोहित पण्डित श्रीकृष्ण शास्त्री बापट ने सम्मेलन में न सिर्फ़ भाग लिया, बल्कि पौरोहित्य सीख रही युवतियों और महिलाओं को आशीर्वचन भी दिये। बच्चे के जन्म, जन्मदिन, गृहप्रवेश, सत्यनारायण कथा, किसी उपक्रम की आधारशिला रखने, लघुरुद्र-महारुद्र का वाचन, शादी-ब्याह, अन्तिम संस्कार जैसे कई काम हैं जिसमें आये-दिन पुरोहितों की आवश्यकता पड़ती रहती है। हाल ही में पूर्व सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी की उपस्थिति में 1001 महिला पुरोहितों ने विशाल "जलाभिषेक" का सफ़लतापूर्वक संचालन किया था। महिलाओं को इस "उनके द्वारा अब तक अछूते क्षेत्र" में प्रवेश करवाने के लिये विश्व हिन्दू परिषद ने काफ़ी काम किया है, महिला पुरोहितों को ट्रेनिंग देने के लिये अकोला में भी एक केन्द्र बनाया गया है।

कुछ वर्ष पूर्व महाराष्ट्र के पुणे में महिलाओं द्वारा अन्तिम संस्कार और "तीसरे से लेकर तेरहवीं" तक के सभी कर्मकाण्ड सम्पन्न करवाने की शुरुआत की जा चुकी है, और निश्चित रुप से इस कार्य के लिये महिलाओं का उत्साहवर्धन किया जाना चाहिये। आजकल युवाओं में अच्छी नौकरी पाने की चाह, भारतीय संस्कृति से कटाव और अंग्रेजी शिक्षा के "मैकाले इफ़ेक्ट" की वजह से पुरोहिताई के क्षेत्र में अच्छी खासी "जॉब मार्केट" उपलब्ध है, यदि वाकई कोई गम्भीरता से इसे "करियर" (आजीविका) के रुप में स्वीकार करे तो यह काम काफ़ी संतोषजनक और पैसा कमाकर देने वाला है।

दूसरी बात "क्वालिटी" की भी है, समय की पाबन्दी, मंत्रों का सही और साफ़ आवाज़ में उच्चारण, उचित दक्षिणा जैसे सामान्य "बिजनेस एथिक्स" हैं जिन्हें महिलाएं ईमानदारी से अपनाती हैं, स्वाभाविक रुप से कर्मकाण्ड करवाने वाला यजमान यह भी नोटिस करेगा ही। अब चूंकि युवा इसमें आगे नहीं आ रहे तो महिलाओं के लिये यह क्षेत्र भी एक शानदार "अवसर" लेकर आया है। विश्व हिन्दू परिषद के कई अन्य प्रकल्पों की तरह यह प्रकल्प भी महिलाओं में काफ़ी लोकप्रिय और सफ़ल हो रहा है। कर्मकाण्ड और हिन्दू धर्म को लेकर लोग भले ही नाक-भौं सिकोड़ते रहें, पिछड़ापन बताते रहें, तमाम वैज्ञानिक तर्क-कुतर्क करते रहें, लेकिन यह तो चलेगा और खूब चलेगा, बल्कि बढ़ेगा भी, क्योंकि जैसे-जैसे लोगों के पास "पैसा" आ रहा है, उसी अनुपात में उनमें धार्मिक दिखने और कर्मकाण्डों पर जमकर खर्च करने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। इसे एक सीमित सामाजिक बुराई कहा जा सकता है, परन्तु "पौरोहित्य कर्म" जहाँ एक ओर घरेलू महिलाओं के लिये एक "अच्छा करियर ऑप्शन" लाता है, वहीं भारतीय संस्कृति-वेदों-मंत्रपाठ के संरक्षण और हिन्दुत्व को बढ़ावा देने के काम भी आता है, यदि विहिप का यह काम सेकुलरों-प्रगतिशीलों और वैज्ञानिकों की तिकड़ी को बुरा लगता है तो उसके लिये कुछ नहीं किया जा सकता।

2) दूसरी खबर कर्नाटक के बागलकोट से -



संघ परिवार की ही एक और संस्था "सेवा भारती" द्वारा कर्नाटक के बाढ़ पीड़ित गरीब दलितों के लिये 77 मकानों का निर्माण किया गया है और उनका कब्जा सौंपा गया। सेवा भारती द्वारा बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित 13 गाँवों को गोद लेकर मकानों का निर्माण शुरु किया गया था। 18 अक्टूबर 2010 को श्री सुदर्शन जी एवं अन्य संतों की उपस्थिति में पहले गाँव के 77 मकानों का कब्जा सौंपा गया। 12 अन्य गाँवों में भी निर्माण कार्य तेजी से प्रगति पर है, इस प्रकल्प में अनूठी बात यह रही कि मकान बनाते समय बाढ़ पीड़ितों को ही मजदूरी पर रखकर उन्हें नियमित भुगतान भी किया गया, और जैसे ही मकान पूरा हुआ उसी व्यक्ति को सौंप दिया गया, जिसने उसके निर्माण में अपना पसीना बहाया।



इन सभी 77 परिवारों के लिये एक सामुदायिक भवन और स्कूल भी बनवाया गया है, जहाँ सेवा भारती से सम्बद्ध शिक्षक अपनी सेवाएं मुफ़्त देंगे। सभी मकानों को जोड़ने वाली मुख्य सड़क का नामकरण "वीर सावरकर मार्ग" किया गया है (सेकुलरों को मिर्ची लगाने के लिये यह नाम ही काफ़ी है)। जल्दी ही अन्य 12 गाँवों के मकानों को भी गरीबों को सौंप दिया जायेगा। ("बिना किसी सरकारी मदद" के बने इन मकानों को किसी इन्दिरा-फ़िन्दिरा आवास योजना का नाम नहीं दिया गया है, यह मिर्ची लगने का एक और कारक बन सकता है)।

इस प्रकार के कई प्रकल्प संघ परिवार द्वारा हिन्दुत्व रक्षण के लिये चलाये जाते रहे हैं और आगे भी जारी रहेंगे। चूंकि संघ से जुड़े लोग बिना किसी प्रचार के अपना काम चुपचाप करते हैं, "मीडियाई गिद्धों" को अनुचित टुकड़े नहीं डालते, इसलिये यह बातें कभी जोरशोर से सामने नहीं आ पातीं…। वरना "एक परिवार के मानसिक गुलाम बन चुके" इस देश में 450 से अधिक प्रमुख योजनाएं उसी परिवार के सदस्यों के नाम पर हों और मीडिया फ़िर भी ही-ही-ही-ही-ही करके न सिर्फ़ देखता रहे, बल्कि हिन्दुत्व को गरियाता भी रहे… ऐसा सिर्फ़ भारत में ही हो सकता है।


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जैसा कि अब सभी जान चुके हैं, भारत में सेकुलरों और मानवाधिकारवादियों की एक विशिष्ट जमात है, जिन्हें मुस्लिमों का विरोध करने वाला व्यक्ति अथवा देश हमेशा से "साम्प्रदायिक" और "फ़ासीवादी" नज़र आते हैं, जबकि इन्हीं सेकुलरों को सभी आतंकवादी "मानवता के मसीहा" और "मासूमियत के पुतले नज़र आते हैं। कुछ ऐसे ही ढोंगी और नकली सेकुलरों द्वारा इज़राइल की गाज़ा पट्टी नीतियों के खिलाफ़ भारत से फ़िलीस्तीन तक रैली निकालने की योजना है। 17 एशियाई देशों के "जमूरे" दिसम्बर 2010 में फ़िलीस्तीन की गाज़ा पट्टी  में एकत्रित होंगे।

इज़राइल के ज़ुल्मों(?) से त्रस्त और अमेरिका के पक्षपात(?) से ग्रस्त "मासूम" फ़िलीस्तीनियों के साथ एकजुटता दिखाने के लिये इस कारवां का आयोजन रखा गया है। गाज़ा पट्टी में इज़राइल ने जो नाकेबन्दी कर रखी है, उसके विरोध में यह लोग 2 दिसम्बर से 26 दिसम्बर तक भारत, पाकिस्तान, ईरान, जोर्डन, सीरिया, लेबनान और तुर्की होते हुए गाज़ा पट्टी पहुँचेंगे और इज़राइल का विरोध करेंगे। इस दौरान ये सभी लोग प्रेस कांफ़्रेंस करेंगे, विभिन्न राजनैतिक व्यक्तित्वों से मिलेंगे, रोड शो करेंगे और भी तमाम नौटंकियाँ करेंगे…



इस "कारवाँ टू फ़िलीस्तीन" कार्यक्रम को अब तक भारत से 51 संगठनों और कुछ "छँटे हुए" सेकुलरों का समर्थन हासिल हो चुका है जो इनके साथ जायेंगे। इनकी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि ये लोग सताये हुए फ़िलीस्तीनियों के लिये नैतिक समर्थन के साथ-साथ, आर्थिक, कूटनीतिक और "सैनिक"(?) समर्थन के लिये प्रयास करेंगे। हालांकि फ़िलहाल इन्होंने अपने कारवां के अन्तिम चरण की घोषणा नहीं की है कि ये किस बन्दरगाह से गाज़ा की ओर कूच करेंगे, क्योंकि इन्हें आशंका है कि इज़राइल उन्हें वहीं पर जबरन रोक सकता है। इज़राइल ने फ़िलीस्तीन में जिस प्रकार का "जातीय सफ़ाया अभियान" चला रखा है उसे देखते हुए स्थिति बहुत नाज़ुक है… ("जातीय सफ़ाया", यह शब्द सेकुलरों को बहुत प्रिय है, लेकिन सिर्फ़ मासूम मुस्लिमों के लिये, यह शब्द कश्मीर, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि में हिन्दुओं के लिये उपयोग करना वर्जित है)। एक अन्य सेकुलर गौतम मोदी कहते हैं कि "इस अभियान के लिये पैसों का प्रबन्ध कोई बड़ी समस्या नहीं है…" (होगी भी कैसे, जब खाड़ी से और मानवाधिकार संगठनों से भारी पैसा मिला हो)। आगे कहते हैं, "इस गाज़ा कारवां  में प्रति व्यक्ति 40,000 रुपये खर्च आयेगा" और जो विभिन्न संगठन इस कारवां को "प्रायोजित" कर रहे हैं वे यह खर्च उठायेंगे… (सेकुलरिज़्म की तरह का एक और सफ़ेद झूठ… लगभग एक माह का समय और 5-6 देशों से गुज़रने वाले कारवां में प्रति व्यक्ति खर्च सिर्फ़ 40,000 ???)। कुछ ऐसे ही "अज्ञात विदेशी प्रायोजक" अरुंधती रॉय  और गिलानी जैसे देशद्रोहियों की प्रेस कांफ़्रेंस दिल्ली में करवाते हैं, और "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता"(?) के नाम पर भारत जैसे पिलपिले नेताओं से भरे देश में सरेआम केन्द्र सरकार को चाँटे मारकर चलते बनते हैं। वामपंथ और कट्टर इस्लाम हाथ में हाथ मिलाकर चल रहे हैं यह बात अब तेजी से उजागर होती जा रही है। वह तो भला हो कुछ वीर पुरुषों का, जो कभी संसद हमले के आरोपी जिलानी के मुँह पर थूकते हैं और कभी गिलानी पर जूता फ़ेंकते हैं, वरना अधिसंख्य हिन्दू तो कब के "गाँधीवादी नपुंसकता" के शिकार हो चुके हैं।

कारवाँ-ए-फ़िलीस्तीन के समर्थक, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य मौलाना अब्दुल वहाब खिलजी कहते हैं कि "भारत के लोग फ़िलीस्तीन की आज़ादी के पक्ष में हैं और उनके संघर्ष के साथ हैं…" (इन मौलाना साहब की हिम्मत नहीं है कि कश्मीर जाकर अब्दुल गनी लोन और यासीन मलिक से कह सकें कि पंडितों को ससम्मान वापस बुलाओ और उनका जो माल लूटा है उसे वापस करो, अलगाववादी राग अलापना बन्द करो)। फ़िलीस्तीन जा रहे पाखण्डी कारवां में से एक की भी हिम्मत नहीं है कि पाकिस्तान के कबीलाई इलाके में जाकर वहाँ दर-दर की ठोकरें खा रहे प्रताड़ित हिन्दुओं के पक्ष में बोलें। सिमी के शाहनवाज़ अली रेहान और "सामाजिक कार्यकर्ता"(?) संदीप पाण्डे ने इस कारवां को अपना नैतिक समर्थन दिया है, ये दोनों ही बांग्लादेश और मलेशिया जाकर यह कहने का जिगर नहीं रखते कि "वहाँ हिन्दुओं पर जो अत्याचार हो रहा है उसे बन्द करो…"।

"गाज़ा कारवां" चलाने वाले फ़र्जी लोग इस बात से परेशान हैं कि रक्षा क्षेत्र में भारत की इज़राइल से नज़दीकियाँ क्यों बढ़ रही हैं (क्या ये चाहते हैं कि हम चीन पर निर्भर हों? या फ़िर सऊदी अरब जैसे देशों से मित्रता बढ़ायें जो खुद अपनी रक्षा अमेरिकी सेनाओं से करवाता है?)। 26/11 हमले के बाद ताज समूह ने अपने सुरक्षाकर्मियों को प्रशिक्षण के लिये इज़राइल भेजा, तो सेकुलर्स दुखी हो जाते हैं, भारत ने इज़राइल से आधुनिक विमान खरीद लिये, तो सेकुलर्स कपड़े फ़ाड़ने लगते हैं। मुस्लिम पोलिटिकल काउंसिल के डॉ तसलीम रहमानी ने कहा - "हमें फ़िलीस्तीनियों के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करना चाहिये और उनके साथ खड़े होना चाहिये…" (यानी भारत की तमाम समस्याएं खत्म हो चुकी हैं… चलो विदेश में टाँग अड़ाई जाये?)।

गाज़ा कारवां के "झुण्ड" मे कई सेकुलर हस्तियाँ और संगठन शामिल हैं जिनमें से कुछ नाम बड़े दिलचस्प हैं जैसे -

"अमन भारत"

"आशा फ़ाउण्डेशन"

"अयोध्या की आवाज़"(इनका फ़िलीस्तीन में क्या काम?)

"बांग्ला मानवाधिकार मंच" (पश्चिम बंगाल में मानवाधिकार हनन नहीं होता क्या? जो फ़िलीस्तीन जा रहे हो…)

"छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा" (नक्सली समस्या खत्म हो गई क्या?)

"इंडियन फ़ेडरेशन ऑफ़ ट्रेड यूनियन" (मजदूरों के लिये लड़ने वाले फ़िलीस्तीन में काहे टाँग फ़ँसा रहे हैं?)

"जमीयत-उलेमा-ए-हिन्द" (हाँ… ये तो जायेंगे ही)

"तीसरा स्वाधीनता आंदोलन" (फ़िलीस्तीन में जाकर?)

"ऑल इंडिया मजलिस-ए-मुशवारत" (हाँ… ये भी जरुर जायेंगे)

अब कुछ "छँटे हुए" लोगों के नाम भी देख लीजिये जो इस कारवां में शामिल हैं -

आनन्द पटवर्धन, एहतिशाम अंसारी, जावेद नकवी, सन्दीप पाण्डे (इनमें से कोई भी सज्जन गोधरा ट्रेन हादसे के बाद कारवां लेकर गुजरात नहीं गया)

सईदा हमीद, थॉमस मैथ्यू (जब ईसाई प्रोफ़ेसर का हाथ कट्टर मुस्लिमों द्वारा काटा गया, तब ये सज्जन कारवां लेकर केरल नहीं गये)

शबनम हाशमी, शाहिद सिद्दीकी (धर्मान्तरण के विरुद्ध जंगलों में काम कर रहे वयोवृद्ध स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या होने पर भी ये साहब लोग कारवाँ लेकर उड़ीसा नहीं गये)… कश्मीर तो खैर इनमें से कोई भी जाने वाला नहीं है… लेकिन ये सभी फ़िलीस्तीन जरुर जायेंगे।

तात्पर्य यह है कि अपने "असली मालिकों" को खुश करने के लिये सेकुलरों की यह गैंग, जिसने कभी भी विश्व भर में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार और जातीय सफ़ाये के खिलाफ़ कभी आवाज़ नहीं उठाई… अब फ़िलीस्तीन के प्रति भाईचारा दिखाने को बेताब हो उठा है। इन्हीं के "भाईबन्द" दिल्ली-लाहौर के बीच "अमन की आशा" जैसा फ़ूहड़ कार्यक्रम चलाते हैं जबकि पाकिस्तान के सत्ता संस्थान और आतंकवादियों के बीच खुल्लमखुल्ला साँठगाँठ चलती है…। कश्मीर समस्या पर बात करने के लिये पहले मंत्रिमण्डल का समूह गिलानी के सामने गिड़गिड़ाकर आया था परन्तु उससे मन नहीं भरा, तो अब तीन विशेषज्ञों(?) को बात करने(?) भेज रहे हैं, लेकिन पिलपिले हो चुके किसी भी नेता में दो टूक पूछने / कहने की हिम्मत नहीं है कि "भारत के साथ नहीं रहना हो तो भाड़ में जाओ… कश्मीर तो हमारा ही रहेगा चाहे जो कर लो…"।

(सिर्फ़ हिन्दुओं को) उपदेश बघारने में सेकुलर लोग हमेशा आगे-आगे रहे हैं, खुद की फ़टी हुई चड्डी सिलने की बजाय, दूसरे की धोने में सेकुलरों को ज्यादा मजा आता है…और इसे वे अपनी शान भी समझते हैं। कारवाँ-ए-फ़िलीस्तीन भी कुछ-कुछ ऐसी ही "फ़ोकटिया कवायद" है, इस कारवाँ के जरिये कुछ लोग अपनी औकात बढ़ा-चढ़ाकर बताने लगेंगे, कुछ लोग सरकार और मुस्लिमों की "गुड-बुक" में आने की कोशिश करेंगे, तो कुछ लोग एकाध अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार की जुगाड़ में लग जायेंगे… न तो फ़िलीस्तीन में कुछ बदलेगा, न ही कश्मीर में…। ये फ़र्जी कारवाँ वाले, इज़राइल का तो कुछ उखाड़ ही नहीं पायेंगे, जबकि गिलानी-मलिक-शब्बीर-लोन को समझाने कभी जायेंगे नहीं… मतलब "फ़ोकटिया-फ़ुरसती" ही हुए ना?

"अपने" लोगों को लतियाकर, दूसरे के घर पोंछा लगाने जाने वालों की साइट का पता यह है : http://www.asiatogaza.net/


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कोलकाता में बजबज इलाके के चिंगरीपोटा क्षेत्र में रहने वाले एक व्यवसायी श्री प्रशान्त दास ने अपने घर की बाउंड्रीवाल के प्रवेश द्वार पर बजरंग बली की मूर्ति लगा रखी है। 14 अगस्त की रात को बजबज पुलिस स्टेशन के प्रभारी राजीव शर्मा इनके घर आये और इन्हें वह मूर्ति तुरन्त हटाने के लिये धमकाया। पुलिस अफ़सर ने यह कृत्य बिना किसी नोटिस अथवा किसी आधिकारिक रिपोर्ट या अदालत के निर्देश के बिना मनमानी से किया। पुलिस अफ़सर का कहना है कि उनके मुख्य द्वार पर लगी बजरंग बली की मूर्ति से वहाँ नमाज़ पढ़ने वाले मुस्लिमों की भावनाएं आहत होती हैं।

पुलिस अफ़सर ने उन्हें "समझाया"(?) कि या तो वह बजरंग बली की मूर्ति का चेहरा घर के अन्दर की तरफ़ कर लें या फ़िर उसे हटा ही लें। स्थानीय मुसलमानों ने (मौखिक) शिकायत की है कि नमाज़ पढ़ते समय इस हिन्दू भगवान की मूर्ति को देखने से उनका ध्यान भंग होता है और यह गैर-इस्लामिक भी है। उल्लेखनीय है कि उक्त मस्जिद प्रशान्त दास के मकान के पास स्थित प्लॉट पर अवैध रुप से कब्जा करके बनाई गई है, यह प्लॉट दास का ही था, लेकिन कई वर्षों तक खाली रह जाने के दौरान उस पर कब्जा करके अस्थाई मस्जिद बना ली गई है और अब उनकी निगाह दास के मुख्य मकान पर है इसलिये दबाव बनाने की कार्रवाई के तहत यह सब किया जा रहा है।


श्री दास का कहना है कि पवनपुत्र उनके परिवार के आराध्य देवता हैं और यह उनकी मर्जी है कि वे अपनी सम्पत्ति में हनुमान की मूर्ति कहाँ लगायें या कहाँ न लगायें। मूर्ति मेरे घर में लगी है न कि कहीं अतिक्रमण करके लगाई गई है, इसलिये एक नागरिक के नाते यह मेरा अधिकार है कि अपनी प्रापर्टी में मैं कोई सा भी पोस्टर अथवा मूर्ति लगा सकता हूं, बशर्ते वह अश्लीलता की श्रेणी में न आता हो। परन्तु पुलिस अफ़सर ने लगातार दबाव बनाये रखा है, क्योंकि उस पर भी शायद ऊपर से दबाव है।

पश्चिम बंगाल जिस तेजी से इस्लामी रंग में रंगता जा रहा है उसके कई उदाहरण आते रहे हैं, परन्तु आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए सभी पार्टियाँ मुस्लिम वोट बैंक के पालन-पोषण में जोर-शोर से लगी हैं, हाल ही में ममता बनर्जी ने रेल्वे के एक उदघाटन समारोह के सरकारी पोस्टर में खुद को नमाज़ पढ़ते दिखाया था। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि बजबज इलाके के माकपा कार्यालय को हनुमान की मूर्ति हटाने के अनाधिकृत आदेश के बारे में जानकारी न हो, परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से वामपंथ और इस्लाम एक दूसरे से हाथ मिलाते जा रहे हैं, उस स्थिति में बंगाल और केरल के हिन्दुओं की कोई सुनवाई होने वाली नहीं है। फ़िलहाल प्रशान्त दास ने अदालत की शरण ली है कि वह पुलिस को धमकाने से बाज आने को कहे, पर लगता है अब पश्चिम बंगाल में कोई अपने घर में ही हिन्दू भगवानों की मूर्ति नहीं लगा सकता, क्योंकि इससे वहाँ अवैध रुप से नमाज़ पढ़ रहे मुस्लिमों की धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं, मजे की बात तो यह है कि यही "कमीनिस्ट" लोग खुद को सबसे अधिक धर्मनिरपेक्ष कहते नहीं थकते…

अब दो तस्वीरें इन्हीं कमीनिस्ट इतिहासकारों और उन रुदालियों के लिये जो बाबरी ढाँचा टूटने और अयोध्या के अदालती निर्णय आने के बाद ज़ार-ज़ार रो रही हैं और अपने कपड़े फ़ाड़ रही हैं…

पहली तस्वीर 1989 में कश्मीर में स्थित एक शिव मन्दिर की है… 



यह दूसरी तस्वीर उसी मन्दिर की है 2009 की, जिसमें शिवलिंग तो गायब ही है, जलाधरी और गर्भगृह की दीवार भी टूटी हुई साफ़ दिखाई दे रही है…


अमन की आशा कार्यक्रम चलाने वाले बिकाऊ, कश्मीर पर समितियाँ बनाने वाले नादान, अलगाववादियों के आगे गिड़गिड़ाने वाले पिलपिले नेता, आतंकवादियों को मासूम बताने वाले पाखण्डी, अयोध्या निर्णय आने के बाद एक फ़र्जी मस्जिद के लिये आँसू बहाने वाले मगरमच्छ… सभी सेकुलर, कांग्रेसी और वामपंथी अब कहीं दुबके बैठे होंगे… उन्हें यह तस्वीरें देखकर उनके सबसे निकटस्थ पोखर में डूब मरना चाहिये…। अब सोचिये, इस जगह पर पाकिस्तान से मोहम्मद हाफ़िज़ सईद आकर एक मस्जिद बना दे, उसमें नमाज़ पढ़ी जाने लगे, फ़िर 400 साल बाद फ़र्जी वामपंथी इतिहासकार इसे "पवित्र मस्जिद" बताकर अपनी छाती कूटें तो क्या होगा? जी हाँ सही पहचाना आपने… उस समय भी गाँधीवादियों द्वारा हिन्दुओं को ही उपदेश पिलाना जारी रहेगा…

ताज़ा खबरों के अनुसार पश्चिम बंगाल के देगंगा इलाके के 500 हिन्दू परिवारों ने उनके साल के सबसे बड़े त्योहार दुर्गापूजा को नहीं मनाने का फ़ैसला किया है, आसपास के सभी गाँवों की पूजा समितियों ने इस मुहिम में साथ आने का फ़ैसला किया है, क्योंकि देगंगा में सितम्बर माह में हुए भीषण दंगों (यहाँ पढ़ें…) के बावजूद किसी प्रमुख उपद्रवी की गिरफ़्तारी नहीं हुई है, न ही तृणमूल सांसद नूर-उल-इस्लाम के खिलाफ़ कोई कार्रवाई की गई है। 1946-47 में भी इसी तरह नोआखाली में नृशंस जातीय सफ़ाये के विरोध में हिन्दुओं ने "काली दीपावली" मनाई थी, जब वध किये जाने से पहले एक "तथाकथित शान्ति का मसीहा" उपवास पर बैठ गया था। आज इतने सालों बाद भी देगंगा के हिन्दू… मीडिया की बेरुखी और मुस्लिम वोटों के बेशर्म सौदागरों की वजह से "काला दशहरा" मनाने को मजबूर हैं…
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विशेष नोट - मेरे नियमित पाठक वर्धा सम्बन्धी मेरी पिछली पोस्ट को "इग्नोर" करें, उसे "बकवास निरुपित करने" और "इससे हमें क्या मतलब?" जैसे मंतव्य वाले कुछ शिकायती ईमेल भी प्राप्त हुए हैं…। प्रिय पाठक निश्चिन्त रहें जल्दी ही "वैसी" पोस्टों के लिये एक अलग ब्लॉग शुरु करने की योजना है। बीच में 3-4 दिन वर्धा ब्लॉगर सम्मेलन के कारण टिप्पणियों को प्रकाशित करने में देरी हो गई, इसके लिये भी क्षमाप्रार्थी हूं…


कश्मीर सम्बन्धी दोनों चित्र - श्री पवन दुर्रानी के सौजन्य से (via Twitter)

अन्य स्रोत -
http://southbengalherald.blogspot.com/2010/10/bajrangbali-banned-in-bengal.html



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कुछ साल पहले ही कलर्स नामक चैनल ने "बालिका वधू" सीरियल लाकर बाकी चैनलों की हवा निकाल दी थी। बालिका वधू घर-घर में महिलाओं और युवाओं में खासा लोकप्रिय हुआ, सीरियल भले ही कैसा भी हो, लेकिन उसमें बाल-विवाह जैसी सामाजिक बुराई के खिलाफ़ एक स्पष्ट संदेश तो था ही। उस सीरियल ने TRP के कई नए रिकॉर्ड कायम किये और स्टार टीवी पर "एकता कपूर छाप" सीरियलों को दर्शकों का सूखा झेलने की नौबत आ गई। एक और चैनल है "सब टीवी" जो फ़िलहाल "तारक मेहता का उलटा चश्मा" सहित कई अन्य हास्य-व्यंग्य(?) कार्यक्रमों के जरिये कम से कम फ़िलहाल "बाजारूपन" से बचा हुआ है।

जिस समय बिग-बॉस भाग-4 की घोषणा हुई थी और कहा गया कि सलमान खान इसमें बिग बॉस बनेंगे, उसी समय आशंका होने लगी थी कि इस भाग में "गिरावट की एक नई पहल" देखने को मिलेगी… यह आशंका उस समय सच हो गई जब बिग बॉस भाग-4 के सभी 14 प्रतिभागियों के नामों की लिस्ट सामने आई। हालांकि बिग बॉस के पहले तीन भाग भी कोई नैतिकता की प्रतिमूर्ति नहीं थे, और तथाकथित रियलिटी शो के नाम पर जितनी गंदगी बिग बॉस ने फ़ैलाई है शायद किसी और कार्यक्रम ने नहीं फ़ैलाई होगी।

अंग्रेजों के कार्यक्रम की भौण्डी नकल के नाम पर "सेलेब्रिटी" कहकर जिन्हें इस कार्यक्रम में शामिल किया जाता है वे चेहरे जानबूझकर ऐसे चुने जाते हैं जो खासे विवादास्पद हों, सामाजिक जीवन में उन्होंने कोई अनैतिक काम या चोरी-चकारी की हो, राहुल महाजन जैसे नशेलची हों, या राजा चौधरी जैसे बीबी को पीटने वाले दारुबाज हों… ऐसे लोगों को जमकर महिमामण्डित किया जाता है, इनके किस्से चटखारे ले-लेकर अखबारों को छापने के लिये दिये जाते हैं (अखबार यह सब छापते भी हैं), और तीन महीने तक इन तथाकथित सेलेब्रिटीज़ को, इनके कारनामों को, इनकी गिरी हुई हरकतों को देश के कोने-कोने में घर-घर तक पहुँचाया जाता है।

बालिका वधू के रुप में कलर्स चैनल ने नई ऊँचाईयों को छुआ और अपनी विशिष्ट पहचान बनाई, लेकिन बिग बॉस भाग-4 की सूची देखकर लगता है कि यह चैनल बहुत जल्दी अपनी "असली चैनलिया औकात" पर उतर आया है, पहले आप इन 14 लोगों के नामों और उनके "पवित्र कामों" पर नज़र डालें -



1) पहला नाम है अज़मल कसाब के वकील SAG काज़मी का, शायद कसाब का केस लड़ने के उचित पैसे इन्हें नहीं मिले इसलिये अब ये बिग बॉस में दर्शन देंगे। बिग बॉस के घर में रहने से इन्हें नये-नये क्लाइंट मिलेंगे…

2) दूसरा नाम है समीर सोनी का - एक "बी" ग्रेड के मॉडल-अभिनेता, लेकिन कम से कम इनकी छवि तो थोड़ी साफ़-सुथरी है।


3) तीसरा नाम धमाकेदार है - भूतपूर्व डाकू रानी "सीमा परिहार", जिन पर 70 से अधिक हत्याओं के मुकदमे विभिन्न अदालतों में चल रहे हैं और इन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट से बिग बॉस में शामिल होने के लिये विशेष अनुमति याचिका दायर की है।

4) चौथी हैं श्वेता तिवारी - पिछले बिग बॉस में इसी का पति राजा चौधरी विजेता रहा था, अब दोनों अलग होने के बाद शायद श्वेता बिग बॉस में सबको बतायेगी कि राजा उसे कैसे और कब पीटता था…

5) पाँचवां नाम है अश्मित पटेल का - "अमीषा पटेल के भाई" होने से बढ़कर इसकी खुद की कोई पहचान नहीं है, दो-चार घटिया फ़िल्मों में काम करने के बाद अब ये साहब रिया सेन के साथ अपने अंतरंग MMS बनाते और उसे नेट पर डालते हैं।

6) छठा नाम सम्मानित है, ये हैं भोजपुरी फ़िल्मों के स्टार मनोज तिवारी। भोजपुरी फ़िल्मों में इनके प्रतिद्वंद्वी रवि किशन की हिन्दी में सफ़लता को देखकर शायद इनमें भी उत्साह जागा है और बिग बॉस भाग-4 में ये अपना "जलवा"(?) दिखायेंगे।

7) सातवें नम्बर पर एक और टीवी अभिनेत्री है, नाम है सारा खान जिसे दर्शकों ने "सपना बाबुल का" और "बिदाई" धारावाहिकों में देखा है… कोई खास उपलब्धि नहीं, कोई खास विवाद भी नहीं… (इसलिये जल्दी ही बिग बॉस से बाहर भी हो जायेगी)।

8) आठवें नम्बर पर एक पाकिस्तानी है, नाम है "वीना मलिक", जी हाँ सही समझे आप… मोहम्मद आसिफ़ जैसे "चरित्रवान" क्रिकेट खिलाड़ी की पूर्व प्रेमिका, जो जल्दी से अपनी "टेम्परेरी लोकप्रियता" को भुनाने के लिये बिग बॉस में चली आई है… पाकिस्तान में सी ग्रेड की मॉडल और विभिन्न अफ़ेयर्स की मारी हुई एक प्रतिभागी… बिग बॉस जैसे कार्यक्रम के लिये "एकदम फ़िट"।


9) नौंवे प्रतिभागी हैं महेश भट्ट के "सुपुत्र"(?) राहुल भट्ट (यानी बिग बॉस में एक और राहुल), इसके बारे में लगभग सभी लोग जानते हैं, लश्कर के डेविड कोलमेन हेडली के साथ इसके रिश्ते खुल्लमखुल्ला सामने आने के बावजूद संदेहास्पद तरीके से पुलिसिया पूछताछ से बरी किया हुआ "सेकुलर" है ये। जब तक अपने बाप की उमर तक पहुँचेगा, तब तक स्कैण्डल और छिछोरेपन में उससे दो कदम आगे निकल चुका होगा यह तय मानिये…। राहुल भट्ट ने कहा भी है कि वह डेविड हेडली को धन्यवाद देना चाहता है, जिसकी वजह से उसे बिग बॉस में जगह मिली…

10) दसवीं है साक्षी प्रधान नाम की एक और "सी" ग्रेड मॉडल जो छिछोरेपन में बिग बॉस के बाप, यानी MTV के स्प्लिट्ज़विला में नमूदार होती है और इन्हें भी अपने अश्लील MMS नेट पर डालने का शौक है।

11) ग्यारहवे हैं रिशांत गोस्वामी, जो 2004 के "ग्लैडरैग्स" मॉडल के विजेता हैं। फ़िलहाल विवादों से परे…

12) बारहवी हैं आँचल कुमार - "सेलेब्रिटी" के तौर पर इनकी पहचान(?) सिर्फ़ इतनी है कि ये युवराज सिंह की पूर्व प्रेमिका कही जाती हैं…

13) तेरहवाँ नाम "आश्चर्यजनक किन्तु सत्य" है - देवेन्दर सिंह उर्फ़ बंटी चोर का, दिल्ली में 500 से अधिक चोरियों में शामिल और 13 साल की जेल यात्रा करके लौटे हैं और अब बिग बॉस में पूरे देश के हीरो बनेंगे, क्योंकि चोर-उचक्कों का ही जमाना है अभी तो…(बिग बॉस-4 ने बंटी चोर को हीरो बनाने की शुरुआत भी कर दी है, क्योंकि उसे बिग बॉस की शुरुआत में ही बाहर कर दिया गया फ़िर चैनलों-अखबारों में "एक राष्ट्रीय बहस"(?) चलाई गई कि बंटी चोर को बाहर क्यों किया गया?)



14) चौदहवाँ नाम और भी उबकाई लाने वाला है, पाकिस्तान की टीवी टॉक शो होस्ट, बेगम नवाज़िश अली का… उबकाई लाने वाला इसलिये, क्योंकि इसे यही नहीं पता कि यह मर्द है या औरत या "बीच" का। यह अजीबोगरीब जीव, कभी "अली सलीम" के नाम से जनता के सामने "आता" है तो कभी बेगम नवाज़िश के नाम से "आती" है।

तो देखा आपने, कलर्स चैनल ने किस तरह से चोर-उचक्कों-डकैतों-देशद्रोहियों-उनके वकीलों और छिछोरों की फ़ौज खड़ी की है देश के "मनोरंजन"(?) के लिये। ऐसा नहीं है कि इन चैनलों से दर्शक किसी भारी-भरकम नैतिकता की उम्मीद करते हैं, सभी को यह बात पता है कि चैनल अपने कार्यक्रम "पैसा कमाने" के लिये बनाते-दिखाते हैं, परन्तु कलर्स चैनल की ऐसी कौन सी मजबूरी थी कि उसे बालिका वधू जैसा कमाई और उच्च TRP जैसा साफ़-सुथरा कार्यक्रम छोड़कर इस कीचड़ में उतरने की जरुरत आन पड़ी? क्या बालिका वधू या उस जैसे अन्य कार्यक्रमों से कमाई नहीं होती? या लोकप्रियता नहीं मिलती? बल्कि कलर्स की पहचान ही बालिका वधू  से बनी, तो फ़िर राहुल भट्ट, काज़मी, सीमा परिहार, बंटी चोर और बेगम जैसे विवादास्पद लोगों को देश के सामने पेश करके किस प्रकार की "कमाई" की जायेगी?

आजकल भारत के टीवी सीरियलों में पाकिस्तान के कलाकारों (कलाकारों??) को लेने की प्रवृति बढ़ चली है, बच्चों के एक गाने के कार्यक्रम में भी बाकायदा भारत-पाकिस्तान की टीमें बनाई गई हैं, जहाँ शुरुआत में भारत-पाकिस्तान की कथित एकता(?) के तराने जमकर गाये गये थे। यह बात और है कि "बड़ा भाई" बनने का शौक सिर्फ़ भारत को ही चर्राता है, पाकिस्तान तो भारत के कलाकारों को दरवाजे पर भी खड़े नहीं होने देता। परन्तु बिग बॉस-4 की बात अधिक गम्भीर है, यहाँ कसाब की पैरवी करने वाले काज़मी वकील मौजूद हैं, डेविड हेडली का दोस्त और सुपर-सेकुलर महेश भट्ट का बिगड़ैल नवाबज़ादा मौजूद है, बंटी चोर है, सीमा डकैत है, अश्लील MMS बनाने-दिखाने वाले एक दो "सी" ग्रेड के लोग मौजूद हैं… अब ये लोग अगले तीन माह तक विभिन्न अखबारों में अपने पक्ष में "माहौल" बनायेंगे, कुछ रोना-धोना मचाकर और कभी एक-दूसरे के कपड़े फ़ाड़कर शिल्पा शेट्टीनुमा सहानुभूति(?) भी अर्जित करेंगे… और यह सब होगा कभी "मनोरंजन" के नाम पर तो कभी "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता" के नाम पर। अर्थात जिन लोगों को जेल में होना चाहिये, वे कैमरों के सामने, आपके घरों में मौजूद होंगे…। एक सवाल ये भी उठ रहा है कि क्या भारत के सारे चोर-उचक्के-हिजड़े मर गये थे, जो अब पाकिस्तान से बुलाकर हमें दिखाये जा रहे हैं?

बहरहाल, राखी सावन्त, राहुल महाजन, राजा चौधरी, पायल रोहतगी से होते-होते बिग बॉस ने गिरावट का लम्बा सफ़र(?) तय किया है और अब वह राहुल भट्ट, काज़मी, सीमा परिहार और बंटी चोर तक आ पहुँचा है, ऐसा ही जारी रहा तो शायद बिग बॉस के भाग-5 में हमें कसाब, अफ़ज़ल गुरु (अदालत की विशेष अनुमति से?), लादेन, जवाहिरी, हाफ़िज़ सईद, दाऊद इब्राहीम जैसे लोग भी देखने को मिल सकते हैं… कौन रोकेगा इन्हें? जो भी इनका विरोध करेगा, वह "साम्प्रदायिक"(?) कहलायेगा…। इस देश में "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता"(?) के नाम पर प्राइम टाइम में किसी चैनल पर "ब्लू फ़िल्म" भी दिखाई जा सकती है… पैसा कमाने के लिये किसी भी हद तक गिरने को तैयार हैं चैनल-अखबार वाले… यह बात वीना मलिक और राहुल भट्ट को "सेलेब्रिटी" कहकर पुकारे जाने से तथा देश में कई गम्भीर समस्याओं के होते हुए भी, बंटी चोर को बिग बॉस से बाहर करने को "राष्ट्रीय मुद्दा"(?) बनाने से साबित होती है…।

देश के अधिकतर लोग अभी भी मानते हों और किताबों में भले ही पढ़ाया जाता हो, कि "भलमनसाहत", "नैतिकता" और "ईमानदारी" से आपकी पहचान बनती है और आप जीवन में आगे बढ़ते हैं, लेकिन मीडिया चैनल और अखबार, गिरे से गिरे हुए लोगों को हेडलाइन्स और TRP का हिस्सा बनाकर साबित करना चाहता है कि आप भी ऐसे ही बनिए, वरना न तो आप "सेलेब्रिटी" बन सकेंगे और न ही आपके कामों को कोई "नोटिस" करेगा…। यदि कलर्स चैनल में थोड़ी भी शर्म बची हो तो उसे जल्दी से जल्दी, वकील काज़मी, वीना मलिक, बेगम नवाज़िश और राहुल भट्ट को बिग बॉस से बाहर कर देना चाहिये… पाकिस्तानियों और देशद्रोहियों के लिये भारत में कोई जगह नहीं होनी चाहिये… सीमा परिहार, बंटी चोर और अश्मित पटेल इन चारों से फ़िर भी थोड़े बेहतर हैं…


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अयोध्या पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का बहुप्रतीक्षित निर्णय आखिरकार मीडिया की भारी-भरकम काँव-काँव के बाद आ ही गया। अभी निर्णय की स्याही सूखी भी नहीं थी कि सदभावना-भाईचारा-अदालती सम्मान के जो नारे सेकुलर गैंग द्वारा लगाये जा रहे थे, 12 घण्टों के भीतर ही पलटी खा गये। CNN-IBN जैसे सुपर-बिकाऊ चैनल ने अदालत का नतीजा आने के कुछ घंटों के भीतर ही फ़्लैश चमकाना शुरु कर दिया था कि "मन्दिर तोड़कर नहीं बनाई थी मस्जिद…" मानो तीनो जजों से भी अधिक बुद्धिमान हो ये चैनल। हालांकि कांग्रेस द्वारा सभी चैनलों और अखबारों को बाकायदा शरीफ़ाना शब्दों में "धमकाया" गया था कि फ़ैसला चाहे जो भी आये, उसे ऐसे पेश करना है कि मुसलमानों को दुख न पहुँचे, जितना हो सके कोर्ट के निर्णय को "हल्का-पतला" करके दिखाना है, ताकि सदभावना बनी रहे और उनकी दुकानदारी भी चलती रहे।

परन्तु क्या चैनल, क्या अखबार, क्या सेकुलर बुद्धिजीवी और क्या वामपंथी लेखक… किसी का पेट-दर्द 8-10 घण्टे भी छिपाये न छिप सका और धड़ाधड़ बयान, लेख और टिप्पणियाँ आने लगीं कि आखिर अदालत ने यह फ़ैसला दिया तो दिया कैसे? सबूतों और गवाहों के आधार पर जजों ने उस स्थान को राम जन्मभूमि मान लिया, जजों ने यह भी मान लिया कि मस्जिद के स्थान पर कोई विशाल हिन्दू धार्मिक ढाँचा था (भले ही मन्दिर न हो), जजों ने यह भी फ़ैसला दिया कि वह मस्जिद गैर-इस्लामिक थी…और उस समूचे भूभाग के तीन हिस्से कर दिये, जिसमें से दो हिस्से हिन्दुओं को और एक हिस्सा मुसलमानों को दिया गया। (पूरा फ़ैसला यहाँ क्लिक करके पढ़ें… http://rjbm.nic.in/)

हिन्दू-विरोध की रोटी खाने वालों के लिये तो यह आग में घी के समान था, जो बात हिन्दू और हिन्दू संगठन बरसों से कहते आ रहे थे उस पर कोर्ट ने मुहर लगा दी तो वे बिलबिला उठे। मुलायम सिंह जैसे नेता उत्तरप्रदेश में सत्ता में वापसी की आस लगाये वापस अपने पुराने "मौलाना मुलायम" के स्वरूप में हाजिर हो गये, वहीं लालू और कांग्रेस की निराशा-हताशा भी दबाये नहीं दब रही। फ़ैसले के बाद सबसे अधिक कुण्ठाग्रस्त हुए वामपंथी और सेकुलर लेखक।



रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों के कान के नीचे अदालत ने जो आवाज़ निकाली है उसकी गूंज काफ़ी दिनों तक सुनाई देती रहेगी। अब उनके लगुए-भगुए इस निर्णय की धज्जियाँ अपने-अपने तरीके से उड़ाने में लगे हैं, असल में उनका सबसे बड़ा दुःख यही है कि अदालत ने हिन्दुओं के पक्ष में फ़ैसला क्यों दिया? जबकि यही लोग काफ़ी पहले से न्यायालय का सम्मान, अदालत की गरिमा, लोकतन्त्र आदि की दुहाई दे रहे थे (हालांकि इनमें से एक ने भी अफ़ज़ल की फ़ाँसी में हो रही देरी पर कभी मुँह नहीं खोला है), और अब जबकि साबित हो गया कि वह जगह राम जन्मभूमि ही है तो अचानक इन्हें इतिहास-भूगोल-अर्थशास्त्र सब याद आने लगा है। जब भाजपा कहती थी कि "आस्था का मामला न्यायालय तय नहीं कर सकती" तो ये लोग जमकर कुकड़ूं-कूं किया करते थे, अब पलटी मारकर खुद ही कह रहे हैं कि "आस्था का मामला हाईकोर्ट ने कैसे तय किया? यही राम जन्मभूमि है, अदालत ने कैसे माना?"…



अब उन्हें कौन समझाये कि हिन्दुओं ने तो कभी नहीं पूछा कि यरुशलम में ईसा का जन्म हुआ था या नहीं? ईसाईयों ने कहा, हमने मान लिया… हिन्दुओं ने तो कभी नहीं पूछा कि कश्मीर की हजरत बल दरगाह में रखा हुआ "बाल का टुकड़ा" क्या सचमुच किसी पैगम्बर का है… मुस्लिमों ने कहा तो हमने मान लिया। अब जब करोड़ों हिन्दू मानते हैं कि यही राम जन्मभूमि है तो बाकी लोग क्यों नहीं मानते? इसलिये नहीं मानते, क्योंकि हिन्दुओं के बीच सेकुलर जयचन्दों और विभीषणों की भरमार है… इनमें से कोई वोट-बैंक के लिये, कोई खाड़ी से आने वाले पैसों के लिये तो कोई लाल रंग के विदेशियों की पुस्तकों से "प्रभावित"(?) होकर अपना काम करते हैं, इन लोगों को भारतीय संस्कृति, भारतीय आध्यात्मिक चरित्रों और परम्परागत मान्यताओं से न कोई लगाव है और न कोई लेना-देना।

अब आते हैं इस फ़ैसले पर - जो व्यक्ति कानून का जानकार नहीं है, वह भी कह रहा है कि "बड़ा अजीब फ़ैसला है", एक आम आदमी भी समझ रहा है कि यह फ़ैसला नहीं है बल्कि बन्दरबाँट टाइप का समझौता है, क्योंकि जब यह मान लिया गया है कि वह स्थान राम जन्मभूमि है तो फ़िर ज़मीन का एक-तिहाई टुकड़ा मस्जिद बनाने के लिये देने की कोई तुक ही नहीं है। तर्क दिया जा रहा है कि वहाँ 300 साल तक मस्जिद थी और नमाज़ पढ़ी जा रही थी… इसलिये उस स्थान पर मुस्लिमों का हक है। यह तर्क इसलिये बोदा और नाकारा है क्योंकि वह मस्जिद ही अपने-आप में अवैध थी… अब वामपंथी बुद्धिजीवी पूछेंगे कि मस्जिद अवैध कैसे? इसका जवाब यह है कि बाबर तो अफ़गानिस्तान से आया हुआ एक लुटेरा था, उसने अपनी सेना के बल पर अयोध्या में जबरन कब्जा किया और वहाँ जो कुछ भी मन्दिरनुमा ढाँचा था, उसे तोड़कर मस्जिद बना ली… ऐसे में एक लुटेरे द्वारा जबरन कब्जा करके बनाई गई मस्जिद वैध कैसे हो सकती है? उसे वहाँ मस्जिद बनाने की अनुमति किसने दी?

कुछ तर्कशास्त्री कहते हैं कि वहाँ कोई मन्दिर नहीं था, चलो थोड़ी देर को मान लेते हैं कि मन्दिर नहीं था… लेकिन कुछ तो था… और कुछ नहीं तो खाली मैदान तो होगा ही… तब बाहर से आये हुए एक आक्रांता द्वारा अतिक्रमण करके स्थानीय राजा को जबरन मारपीटकर बनाई गई मस्जिद वैध कैसे हो गई? यानी जब शुरुआत ही गलत है तो वहाँ नमाज़ पढ़ने वाले किस आधार पर 300 साल नमाज पढ़ते रहे? अफ़गानिस्तान के गुंडों की फ़ौज द्वारा डकैती डाली हुई "खाली ज़मीन" (मान लो कि मन्दिर नहीं था) पर बनी मस्जिद में नमाज़ कैसे पढ़ी जा सकती है?

इसे दूसरे तरीके से एक काल्पनिक उदाहरण द्वारा समझते हैं - यदि अजमल कसाब ताज होटल पर हमला करता और किसी कारणवश या कमजोरीवश भारत के लोग अजमल कसाब को ताज होटल से हटा नहीं पाते, कसाब ताज होटल की छत पर चादर बिछाकर नमाज़ पढ़ने लगता, उसके दो-चार साथी भी वहाँ लगातार नमाज़ पढ़ते जाते… इस बीच 300 साल गुज़र जाते… तो क्या हमें ताज होटल का एक तिहाई हिस्सा मस्जिद बनाने के लिये दे देना चाहिये? सिर्फ़ इसलिये कि उस जगह पर कसाब और उसके वंशजों ने नमाज़ पढ़ी थी? मैं समझने को उत्सुक हूं कि आखिर बाबर और कसाब में क्या अन्तर है?

मूल सवाल यही है कि आखिर सन 1528 से पहले अयोध्या में उस जगह पर क्या था? क्या बाबर को अयोध्या के स्थानीय निवासियों ने आमंत्रण दिया था कि "आओ, हमें मारो-पीटो, एक मस्जिद बनाओ और हमें उपकृत करो…"? बाबर ने जो किया जबरन किया, किसी तत्कालीन राजा ने उसे मस्जिद बनाने के लिये ज़मीन आबंटित नहीं की थी, बाबर ने जो किया अवैध किया तो मस्जिद वैध कैसे मानी जाये? एक आक्रान्ता की निशानी को भारत के देशभक्त मुसलमान क्यों अपने सीने से चिपकाये घूम रहे हैं? हाईकोर्ट का निर्णय आने के बाद सबसे अधिक सदभावनापूर्ण बात तो यह होगी कि भारत के मुस्लिम खुद आगे आकर कहें कि हमें इस तथाकथित मस्जिद से कोई लगाव नहीं है और न ही हम ऐसी बलात कब्जाई हुई जगह पर नमाज़ पढ़ना चाहते हैं, अतः हिन्दुओं की भावनाओं की खातिर जो एक तिहाई हिस्सा कोर्ट ने दिया है हम उसका भी त्याग करते हैं और हिन्दू इस जगह पर भव्य राम मन्दिर का निर्माण करें, सभी मुस्लिम भाई इसमें सहयोग करेंगे… यह सबसे बेहतरीन हल है इस समस्या का, बशर्ते मुसलमानों को, सेकुलर और वामपंथी बुद्धिजीवी ऐसी कोई पहल करने दें और कोई ज़हर ना घोलें। ऐसी पहल शिया नेता कल्बे जव्वाद की शिया यूथ विंग "हुसैनी टाइगर" द्वारा की जा चुकी है, ज़ाहिर है कि कल्बे जव्वाद, "सेकुलर बुद्धिजीवियों" और "वामपंथी इतिहासकारों" के मुकाबले अधिक समझदार हैं… 

परन्तु ऐसा होगा नहीं, मुलायम-लालू-चिदम्बरम सहित बुरका दत्त, प्रणव रॉय, टाइम्स समूह जैसे तमाम सेकुलरिज़्म के पैरोकार अब मुसलमानों की भावनाओं को कभी सीधे, तो कभी अप्रत्यक्ष तौर पर भड़कायेंगे, इसकी शुरुआत भी फ़ैसले के अगले दिन से ही शुरु हो चुकी है। उधर पाकिस्तान में भी "मुस्लिम ब्रदरहुड" नामक अवधारणा(?) हिलोरें मारने लगी है (यहाँ देखें…) और उन्हें हमेशा की तरह इस निर्णय में भी "इस्लाम पर खतरा" नज़र आने लगा है, मतलब उधर से भी इस ठण्डी पड़ती आग में घी अवश्य डाला जायेगा… और डालें भी क्यों नहीं, जब इधर के मुसलमान भी "कश्मीर में मारे जा रहे मुसलमानों और उन पर हो रहे अत्याचारों"(?) के समर्थन में एक बैठक करने जा रहे हैं (यहाँ देखिये…)। क्या यह सिर्फ़ एक संयोग है कि भारत से अलग होने की माँग करने वाले अब्दुल गनी लोन ने भी उसी सुर में सुर मिलाते हुए कहा है कि "अयोघ्या का फ़ैसला मुसलमानों के साथ धोखा है…" (ठीक यही सुर मुलायम सिंह का भी है)… क्या इसका मतलब अलग से समझाना पड़ेगा?

अब चिदम्बरम जी कह रहे हैं कि बाबरी ढाँचा तोड़ना असंवैधानिक था और उसके दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा…। क्या हो गया है चिदम्बरम जी आपको? यदि कोई गुण्डा मेरे घर में घुस कर बरामदे में अपना पूजास्थल बना लेता है तो उसे तोड़ने का मुझे कोई हक नहीं है? चिदम्बरम जी के "कांग्रेसी तर्क" को अपना लिया जाये, तो क्यों न शक्ति स्थल के पास ही मुशर्रफ़ मस्जिद, याह्या खां मस्जिद बनाई जाये, या फ़िर नेहरु के शांतिवन के पास चाऊ-एन-लाई मेमोरियल बनाया जाये, ये लोग भी तो भारत पर चढ़ दौड़े थे, आक्रांता थे…

अब फ़ैसला तो वामपंथी और सेकुलरों को करना है कि वे किसके साथ हैं? भारत की संस्कृति के साथ या बाहर से आये हुए एक आक्रान्ता की "तथाकथित मस्जिद" के साथ?

अक्सर ऐसा होता है कि मीडिया जिस मुद्दे को लेकर भचर-भचर करता है उसमें हिन्दुत्व और हिन्दुओं का नुकसान ही होता है, क्योंकि उनकी मंशा ही ऐसी होती है… परन्तु इस बार इस मामले का सकारात्मक पक्ष यह रहा कि मीडिया द्वारा फ़ैलाये गये रायते, जबरन पैदा किये गये डर और मूर्खतापूर्ण हाइप की वजह से 1992 के बाद पैदा हुई नई पीढ़ी को इस मामले की पूरी जानकारी हो गई… हमें भी अपने नौनिहालों और टी-एजर्स को यह बताने में आसानी हुई कि बाबर कौन था? कहाँ से आया था? उसने क्या किया था? इतने साल से हिन्दू एक मन्दिर के लिये क्यों लड़ रहे हैं, जबकि कश्मीर में सैकड़ों मन्दिर इस दौरान तोड़े जा चुके हैं… आदि-आदि। ऐसे कई राजनैतिक-धार्मिक सवाल और कई मुद्दे जो हम अपने बच्चों को ठीक से समझा नहीं सकते थे, मीडिया और उसकी "कथित निष्पक्ष रिपोर्टिंग"(?) ने उन 17-18 साल के बच्चों को "समझा" दिये हैं। कश्मीरी पण्डितों की दुर्गति जानने के बाद, अब उन्हें अच्छी तरह से यह भी "समझ" में आ गया है कि भारत के मीडिया को कांग्रेस और मुस्लिमों का "दलाल" क्यों कहा जाता है। जैसे-जैसे आज की पीढ़ी इंटरनेट पर समय बिताएगी, ऑरकुट-फ़ेसबुक-मेल पर बतियाएगी और पढ़ेगी… खुद ही इन लोगों से सवाल करेगी कि आखिर इतने साल तक इस मुद्दे को किसने लटकाया? वे कौन से गिरे हुए बुद्धिजीवी हैं और किस प्रकार के घटिया इतिहासकार हैं, जो बाबर (या मीर बाकी) की बनाई हुई मस्जिद को "पवित्र" मानते रहे हैं…। नई पीढ़ी ये भी सवाल करेगी कि आखिर वे किस प्रकार के "धर्मनिरपेक्ष" अफ़सर और लेखक थे जिन्होंने राम और रामसेतु को काल्पनिक, तथा रामायण को एक नॉवेल बताया था…ये सभी लोग बामियान (अफ़गानिस्तान) में सादर आमंत्रित हैं…



अब देखना है कि भारत के मुसलमान इस अवैध मस्जिद को कब तक सीने से चिपकाये रखते हैं? पाकिस्तान, देवबन्द और उलेमा बोर्ड के भड़काने से कितने भड़कते हैं? अपने आपको सेकुलर कहने वाले मुलायम और वामपंथी लोगों के बहकावे में आते हैं या नहीं? दोहरी चालें चलने वाली कांग्रेस मामले को और लम्बा घसीटने के लिये कितने षडयन्त्र करती है? जो एक तिहाई हिस्सा उन्हें खामख्वाह मिल गया है क्या उसे सदभावना के तहत हिन्दुओं को सौंपते हैं? सब कुछ भविष्य के गर्भ में है… फ़िलहाल तो हिन्दू इस फ़ैसले से अंशतः नाखुश होते हुए भी इसे मानने को तैयार है… (भाजपा ने भी कहा कि विवादित परिसर से दूर एक विशाल मस्जिद बनाने में वह सहयोग कर सकती है), लेकिन कुछ "बुद्धिजीवी"(?) मुस्लिमों को भड़काने के अपने नापाक इरादों में लगे हुए हैं… अयोध्या फ़ैसले के बाद ये बुद्धिजीवी सदमे और सन्निपात की हालत में हैं और बड़बड़ा रहे हैं…। कहा नहीं जा सकता कि आगे क्या होगा, लेकिन अब गेंद मुसलमानों के पाले में है…। अभी समय है कि वे जमीन के उस एक-तिहाई हिस्से को हिन्दुओं को सौंप दें, ताकि मन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो सके…। कहीं ऐसा न हो कि सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के बाद वह एक तिहाई हिस्सा भी उनके हाथ से निकल जाये…


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