(१) प्रोफ़ेसर पी.एन.ओक की मूल मराठी पुस्तक (जो कि इन्दिरा गाँधी द्वारा प्रतिबन्धित कर दी गई थी) की PDF फ़ाईल यहाँ क्लिक करके प्राप्त की जा सकती है (साईज 25 MB है) ।

(२) प्रोफ़ेसर पीएन ओक के सवालों का हिन्दी अनुवाद यहाँ पर उपलब्ध है ।

(३) लाल किले और ताजमहल सम्बन्धी तस्वीरों वाले प्रमाण स्टीफ़न नैप की साईट पर (यहाँ क्लिक करें) उपलब्ध हैं ।

ताजमहल पर जारी मूर्खता

Written by बुधवार, 13 जून 2007 16:31

ताजमहल को लेकर हमारे देश में एक मुहिम चलाई जा रही है, एसएमएस भेजो, ईमेल करो, रैली निकालो, तस्वीरें छपवाओ, अपीलें जारी करो, और भी ना जाने क्या-क्या । जिससे कि ताज को सात आश्चर्यों में शामिल करवाया जा सके । अव्वल तो यह शायद ही हो, और मान लो चलो ताज सात आश्चर्यों में आ भी गया, तो उससे क्या होगा ? समर्थक कहते हैं - इससे पर्यटन बढेगा, ताज के संरक्षण के लिये विदेशी मदद मिलेगी, देश का गौरव बढेगा... आदि-आदि...

एक फ़ुसफ़ुसाता सा मधुर गीत...

Written by मंगलवार, 12 जून 2007 11:06

यह गीत कुछ अलग हट कर है, क्योंकि इस गीत में संवादों की अधिकता तो है ही, लेकिन संगीत भी बहुत ही मद्धिम है और संवादों के अलावा जो गीत के बोल हैं वे भी लगभग बोलचाल के अन्दाज में ही हैं । यह गीत इतने धीमे स्वरों में गाया गया है कि आश्चर्य होता है कि इतने नीचे सुरों में भी रफ़ी साहब इतने सुरीले और मधुर कैसे हो सकते हैं (यही तो रफ़ी-लता की महानता है)। यह गीत एक तो कम बजता है और जब भी बजता है तो बहुत ध्यान से सुनना पडता है...।

भारत में हर साल औसतन (सभी भाषाओं को मिलाकर) लगभग एक हजार फ़िल्में बनती हैं, जो कि विश्व में सर्वाधिक हैं (Hindi Films in India)। जाहिर है कि फ़िल्में हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गई हैं और जैसा कि मैंने "फ़िल्मी मौत : क्या सीन है" में कहा था कि हम हिन्दी फ़िल्मों से प्यार करते हैं । वे अच्छी हो सकती हैं, बुरी हो सकती हैं, लेकिन आम जन के जीवन और समाज पर उनके सकारात्मक या नकारात्मक प्रभावों को खारिज नहीं किया जा सकता है ।

येसुदास के दो मधुर गीत

Written by गुरुवार, 07 जून 2007 10:36

दक्षिण भारत के एक और महान गायक डॉ. के.जे.येसुदास (KJ Yesudas) के दो अनमोल गीत यहाँ पेश कर रहा हूँ । पहला गीत है फ़िल्म "आलाप" का - बोल हैं "कोई गाता मैं सो जाता...", गीत लिखा है हरिवंशराय बच्चन ने, संगीत है जयदेव का । यह एक बेहतरीन गीत है और जयदेव जो कि कम से कम वाद्यों का प्रयोग करते हैं, इस गीत में भी उन्होंने कमाल किया है । प्रस्तुत दोनों गीत यदि रात के अँधेरे में अकेले में सुने जायें तो मेरा दावा है कि अनिद्रा के रोगी को भी नींद आ जायेगी ।

फ़िल्मी मौत : क्या सीन है !

Written by रविवार, 03 जून 2007 11:02

हिन्दी फ़िल्मों से हम प्यार करते हैं वे कैसी भी हों, हम देखते हैं, तारीफ़ करते हैं, आलोचना करते हैं लेकिन देखना नहीं छोडते, इसी को तो प्यार कहते हैं । हमारी हिन्दी फ़िल्मों में मौत को जितना "ग्लैमराईज" किया गया है उतना शायद और कहीं नहीं किया गया होगा । यदि हीरो को कैन्सर है, तो फ़िर क्या कहने, वह तो ऐसे मरेगा कि सबकी मरने की इच्छा होने लगे और यदि उसे गोली लगी है

दो जून को महान शोमैन राजकपूर की पुण्यतिथि है, और इस अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए मैं उनकी फ़िल्म "मेरा नाम जोकर" का एक असाधारण गीत प्रस्तुत करना चाहता हूँ, जो कई बार सुनाई दे जाता है, लेकिन अधिकतर लोग उसे सुनते वक्त "इग्नोर" कर देते हैं, दरअसल यह गीत भी अक्सर रेडियो पर पूरा नहीं बजाया जाता.. पहली बार में सुनते वक्त तो यह एक साधारण सा गीत लगता है, लेकिन गीतकार ने इसमें खोखली होती पूरी जीवन शैली को उघाडकर रख दिया है ।

पंडित भरत व्यास हमारी हिन्दी फ़िल्मों के एक वरिष्ठ गीतकार रहे हैं । उनके गीतों में हमें हिन्दी के शब्दों की बहुतायत मिलती है और साथ ही उच्च कोटि की कविता का आनन्द भी । यह गीत उन्होंने फ़िल्म सती-सावित्री के लिये लिखा है, संगीतकार हैं लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल । यह गीत राग "यमन कल्याण" पर आधारित है, और गाया है स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने । पहले इस गीत की सुमधुर पंक्तियों पर नजर डाल लें....

भुतहा संयोग या कुछ और ?

Written by गुरुवार, 31 मई 2007 15:51

अब्राहम लिंकन कॉंग्रेस के लिये 1846 में चुने गये,
जॉन एफ़ केनेडी कॉंग्रेस के लिये 1946 में चुने गये..

किसी ने सच ही कहा है कि जिस देश को बरबाद करना हो सबसे पहले उसकी संस्कृति पर हमला करो और वहाँ की युवा पीढी को गुमराह करो (Cultural Brainwash) । जो समाज इनकी रक्षा नहीं कर सकता उसका पतन और सर्वनाश निश्चित हो जाता है । हमारे आसपास घटने वाली काफ़ी बातें समाज के गिरते नैतिक स्तर और खोखले होते सांस्कृतिक माहौल की ओर इशारा कर रही हैं, एक खतरे की घंटी बज रही है, लेकिन समाज और नेता लगातार इसकी अनदेखी करते जा रहे हैं । इसके लिये सामाजिक ढाँचे या पारिवारिक ढाँचे का पुनरीक्षण करने की बात अधिकतर समाजशास्त्री उठा रहे हैं, परन्तु मुख्यतः जिम्मेदार है हमारे आसपास का माहौल और लगातार तेज होती जा रही "भूख" । जी हाँ "भूख" सिर्फ़ पेट की नहीं होती, न ही सिर्फ़ तन की होती है, एक और भूख होती है "मन की भूख" । इसी विशिष्ट भूख को "बाजार" जगाता है, उसे हवा देता है, पालता-पोसता है और उकसाता है। यह भूख पैदा करना तो आसान है, लेकिन क्या हमारा समाज, हमारी राजनीति, हमारा अर्थतन्त्र इतना मजबूत और लचीला है, कि इस भूख को शान्त कर सके ।