बंगाल के सत्रह जिलों में हिन्दू-मुस्लिम जनसंख्या संतुलन बहुत तेजी से मुस्लिमों के पक्ष में झुका चला जा रहा है, और जिन जिलों में 1971 की जनगणना के समय मुस्लिम आबादी केवल 2-3% थी, उन जिलों में भी अब मुस्लिम आबादी कहीं-कहीं 40-45% तक पहुँच चुकी है. इतिहास बताता है कि जिस इलाके में मुस्लिम आबादी 30% से अधिक हो जाती है, वहां अन्य धर्मों, जातियों के साथ क्या सलूक किया जाता है. तृणमूल कांग्रेस के सांसद लोकसभा में अनावश्यक चीख रहे हैं कि उन्हें ट्विटर पर गाली दी जाती है, धमकियाँ दी जाती हैं, क्योंकि सच्चाई तो यही है कि ट्विटर पर मिलने वाली गालियाँ केवल “आभासी” हैं, उनसे किसी का कुछ नहीं बिगड़ता, लेकिन तृणमूल के हिंसक गुण्डे जो आए दिन बंगाल के दूरदराज गाँवों में मुस्लिमों के साथ मिलकर हिन्दुओं पर कहर ढा रहे हैं, वह आभासी नहीं बल्कि असली है. कई जिलों में गाँव के गाँव में हिन्दुओं की संख्या लगभग साफ़ कर दी गई है. संघ-भाजपा नेताओं पर हमले, उन्हें धमकियाँ दिया जाना, गरीब दलित हिन्दुओं के घर जलाना जैसे दुष्कृत्य बंगाल में आम हो चले हैं. स्वाभाविक है कि इन्हें पुलिस प्रश्रय भी मिला हुआ है, क्योंकि पुलिस भी जानती है कि सत्ता किसके साथ है. हैदराबाद को जब निजाम से छीना गया था, उस वहां के रज़ाकारों ने जमकर बवाल मचाया था. आज तृणमूल के कार्यकर्ता भी उन्हीं रज़ाकारों की तरह ही बर्ताव कर रहे हैं. जब भी ममता बनर्जी को धूलागढ़ जैसे दंगों (इसे दंगा कहना उचित नहीं है, यह केवल नरसंहार है क्योंकि इन घटनाओं में 37 दलित ही मारे गए हैं मुस्लिम एक भी नहीं) के बारे में बताया जाता है तो उनका एक ही जवाब होता है कि “किछु होएनी” (कुछ नहीं हुआ है), ये केवल भाजपा वालों का दुष्प्रचार है. जिस तरह रज़ाकारों ने हैदराबाद के विलय को नामंजूर कर दिया था और सरदार पटेल एवं हिन्दुओं के खिलाफ एक तरह से जंग छेड़ दी थी, उसी प्रकार आज बंगाल में मुमताज़ बानो (उर्फ़ ममता बनर्जी) की शह और नेतृत्व में तृणमूल के कार्यकर्ता आए दिन केंद्र सरकार के खिलाफ ज़हर उगलते रहते हैं और ग्रामीण इलाकों से हिन्दुओं को भगाने, उन्हें प्रताड़ित करने के नित नए तरीके खोजते रहते हैं. शहरों में तो हिन्दुओं की थोड़ी-बहुत सुनवाई हो भी जाती है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में स्थिति एकदम ख़त्म हो चली है. अब तो स्कूलों में सरस्वती पूजन के लिए भी मुमताज़ बनर्जी से अनुमति लेनी पड़ती है. सरस्वती पूजा करने वाले मासूम बच्चों की पिटाई बिना किसी आदेश के खुद पुलिस ही कर देती है.
भारत में खुद को प्रगतिशील और दलित चिन्तक कहने वाले कई बुद्धिजीवी हैं जो विदेशों से फंडिंग प्राप्त करते रहते हैं और तमाम तरह के सेमिनारों में भाग लेते हैं, मोदी सरकार के खिलाफ लिखते-बोलते रहते हैं. लेकिन इनमें से किसी भी दलित चिन्तक ने अभी तक बंगाल में मुस्लिमों द्वारा ग्रामीण इलाकों में दलित हिन्दुओं की दुर्दशा और उनकी हत्याओं पर अपना मुंह नहीं खोला है. इनके लिए मुस्लिमों द्वारा दलितों की हत्या किया जाना एक सामान्य घटना की तरह है और इसलिए वे दलितों का ध्यान भटकाने के लिए लगातार “ब्राह्मणवाद” के नारे लगाते हैं, जबकि बंगाल और केरल में खुद इनके वामपंथी मित्र, मुस्लिमों के साथ मिलकर दलितों पर अत्याचार मचाए हुए हैं. सारधा अथवा रोज्वैली चिटफंड घोटाले में सर्वाधिक पीड़ित गरीब ग्रामीण दलित ही हैं, ब्राह्मण नहीं. परन्तु आज तक किसी दलित चिन्तक की कलम से इन लुटे-पिटे दलितों के पक्ष में अथवा मुमताज़ बनर्जी के इस्लामिक गुण्डों के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा-लिखा गया.
जैसा कि सभी जानते हैं, बांग्लादेश की सरकार ने 1971 के समय जिन इस्लामिक मुल्ला-मौलवियों ने बंगाली हिन्दुओं के खिलाफ हिंसा की थी, नरसंहार किए थे उन्हें न्यायालयीन प्रक्रिया के तहत बाकायदा फाँसी दी हैं. कई-कई दिग्गज मुल्ले, जो सोचते थे कि इस्लाम उनकी रक्षा कर लेगा उन्हें भी बांग्लादेश की सरकार ने निसंकोच फाँसी पर चढ़ा दिया है. संक्षेप में बात यह है कि बंगाल को तत्काल एक “सर्जरी” की आवश्यकता है, अन्यथा अगले पाँच वर्ष में ही स्थिति हाथ से निकल जाएगी. कुछ और नहीं तो मोदी सरकार को डोनाल्ड ट्रम्प के त्वरित निर्णयों अथवा बांग्लादेश की सरकार से सीख लेनी चाहिए.