हजारों वर्ष पहले से तारिणी पर्वत/कुमारी पर्वत/रत्नगिरी के ऊपर ब्रह्ममयी, आद्यशक्ति, द्वितीय महाविद्या व तारातारिणी के रूप में स्थापित है। पश्चिमी देशों में देवीतारा को उनके तिब्बतीय पहचान के लिए जानते है, लेकिन वे यह नहीं जानते कि देवीतारा हिंदू धर्म और तांत्रिक परंपरा की मुख्य देवी हैं। तांत्रिक उपासना की दस महाविद्याओं मंे से देवीतारा दूसरी महाविद्या हैं। कल्याण मयी देवी और कल्याणकारी ऋषिकुल्या नदी के कारण इस जगह को ‘कल्याणी धाम’ के रूप में भी जाना जाता है। पुराण, बौद्धतंत्र व हिंदू तंत्र शास्त्रों में इस स्थान के संबंध में अनेकों ऐतिहासिक तथ्य मिलते हैं। लोकमुख से इस पीठ के बारे में अनेक दंत कथाएं सुनने को मिलती हैं। इसकी ऐतिहासिकता के संदर्भ में एक संक्षिप्त विवेचना प्रस्तुत हैः-
तारातारिणी पीठ का इतिहास पुराण में वर्णित दक्ष प्रजापति के यज्ञ के साथ जुड़ा हुआ है। कालिका पुराण और शिवपुराण’ के अनुसार दक्षप्रजापति की इच्छा के विरूद्ध उनकी पूत्री देवी सती ने भगवान शिव के साथ विवाह किया। लेकिन योगीराज शिव शमशान में रहने के कारण दक्ष, शिव को देवता के रूप में नहीं मानते थे। इसलिए देवी सती के इस कार्य से दक्ष अपमानित हुए। कुछ दिन के बाद दक्षप्रजापति ने एक महायज्ञ का आयोजन किया, जिसमें सभी देवता व ऋषियों को आमंत्रित किया गया, लेकिन जानबूझकर शिव व सती को आमंत्रित नही किया गया। देवी सती ने देवऋषि नारद से यह बात सुनकर यज्ञ स्थल तक जाने के लिए शिव से अनुरोध किया। लेकिन बिना निमंत्रण वहां जाना ठीक नहीं होगा, सोचकर शिव वहां पर नहीं गए और सती को भी जाने की अनुमति नहीं दी। सती शिवाज्ञा नहीं मिलने के कारण क्रोधित हो गईं और उनके क्रोध से 10 महाविद्याएं उत्पन्न हुईं। तंत्र में इसके संबंध में कहा गया है कि --
‘काली तारा महाविद्या षोड़सि भुवनेश्वरी
भैरवी छिन्नमस्ता च् विद्या घुमावती तथा
बगला सिद्ध विद्या च् मातंगी कमलात्मिका
एतादशा महाविद्या सिद्धि विद्या नमोनमः’
मगर शिवाज्ञा नहीं मिलने के बावजूद देवी सती अपमानित, क्रोधित होकर यज्ञ स्थल पर गईं और पिता दक्ष से निमंत्रण न देने का कारण पूछा। दक्ष के द्वारा शिव के प्रति अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किए जाने पर देवी सती यह सहन नहीं कर पाई और हवन कुंड में कूद गईं। यज्ञ कुंड में प्रवेश करने के पश्चात् उनका पंचभूत का शरीर अर्द्धदग्ध हो गया। इसको देख कर शिवजी कोप में आ गए और माता सती के अर्द्धदग्ध शरीर को लेकर तांडव करने लगे। इस वजह से संसार प्रलय की ओर अग्रसर हो गया, तब शिवजी के कोप से सृष्टि को बचाने के लिए देवतागण श्रीहरि विष्णु की शरण में गए। देवताओं की चिंता सुनने के बाद श्रीहरि ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के अर्द्धदग्ध शरीर को विखंडित कर दिया। शरीर के विखंडित अंश विभिन्न स्थानों पर गिरे और शिवजी का कोप शांत हुआ, तांडव बंद हुआ और वे महासमाधि में चले गए। सती के शरीर के विभिन्न अंश से 52 मुख्य शक्ति पीठ सामने आए और उनमें चार को मुख्य शक्तिपीठ के रूप में मान्यता मिली। जो बाद में प्रसिद्ध शक्ति पीठ के रूप में विख्यात हुए। इस तथ्य को कालिका पुराण मान्यता देता है और इसमें वर्णित एक श्लोक में कहा गया है :
‘बिमल़ा पादखंडनच स्तनखंडनच तारिणी
कामाख्या योनिखंडनच मुखखंडनच कालिका
अंग प्रत्यंग संगेन विष्णुचक्र क्षेतेन्यच’
उन चार शक्तिपीठों में विमला में पादखंड, तारातारिणी में स्तनखंड, कामाख्या में योनिखंड और दक्षिण कालिका में मुख खंड पड़ने के कारण चारों पीठों को मुख्य शक्तिपीठ के रूप में पूजा जाता है। देवी भागवत के अनुसार श्रीहरि विष्णु अनुरोध पर शनि देवी के शरीर में प्रवेश किए और शरीर को 108 भाग में विभक्त कर दिया। और उनमें से कुछ भाग मुख्य पीठ के रूप में उभरे जानकार इन दानों पुराणों की तथ्य को सही मानते हैं।
इस शक्तिपीठ की सृष्टि को जानने के लिए विभिन्न पुराणों की सहायता ली जा सकती है, जिसमें महाभारत बहुत ही उपयोगी है। यहां से माता सती के अंग प्रत्यंग से उत्पन्न सभी शक्ति पीठों के समय के बारे में सूचना मिलती है।
पुराणों से पता चलता है कि देवी सती के शरीर का दाहिना पैर कुरूक्षेत्र के श्रीदेवी कुप में गिरा था। जो भद्रकाली के रूप में प्रसिद्ध है और भारत का एक प्रमुख शक्तिपीठ है। श्री व्यासदेव कृत महाभारत से पता चलता है कि महाभारत युद्ध शुरू होने से पहले पांडवांे की विजय के लिए भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन को इसी श्रीदेवी कुप (भद्रकाली) पीठ में पुजा करने का परामर्श दिया था। इसी से पता चलता है कि भद्रकाली की यह शक्ति पीठ महाभारत काल से बहुप्राचीन है। बीमला, तारातारणी, कामाख्या, दक्षिण कालिका इत्यादि मुख्य शक्तिपीठ भी सती के शरीर के अंश गिरने से प्रकट होने का उदाहरण व्यासदेव कृत सप्तसती मातृका सहित अन्य पुराणों से मिलता है। इसी से प्रमाणित होता है के सती के शरीर से प्रकट होने वाले भारत के सभी प्राचीन पीठ महाभारत समय से भी बहुत पुराने हैं।
विशिष्ट खगोल विज्ञानी तथा गणितज्ञ आर्यभट्ट के ‘काल गणना’ के अनुसार ईसा पूर्व 3102 साल पहले 20 फरवरी अपराह्न 2 घंटा 27 मिनट 30 सेकेंड पर सौरमंडल के समस्त ग्रह एक राशि में सम्मिलित हुए थे इसलिए इस दिन से कलियुग प्रारंभ होने की सूचना आर्यभट्ट के सिद्धांतों से पता चलती है।
आर्यभट्ट के इस सिद्धांत को यूरोप के प्रसिद्ध अंतरिक्ष विज्ञानी बेली ने भी समर्थन किया और हिंदू काल गणना को सही ठहराया। उनके शोध के अनुसार भी ईसा पूर्व 3102 में सौर मंडल के सभी ग्रह एक राशि में एकत्रित हुए थे(Stepping into 52nd Century, by R. P. Arya, Pub. Itihas Sankalan Yojana, New Delhi, P. 12) हम जानते हैं कि महाभारत युद्ध द्वापर के अंतिम समय में हुआ था। इसलिए महाभारत युद्ध के बाद कलियुग की शुरूआत तक होने वाली घटना के 500 साल का समय दे दिया जाये फिर भी 3102 BC + 2000 AD + 500 after the Mahabharat = 5602 साल पहले माता सती के शरीर से उत्पन्न सभी शक्ति पीठ जरूर रहे होंगे। इससे यह प्रमाणित होता है कि तारातारिणी शक्ति पीठ कम-से-कम 5602 साल पहले का इतिहास धारण करती है। मगर इसका सही समय निर्धारित करना सम्भव नहीं है।
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार लगभग 2300 साल पहले मौर्य सम्राट अशोक के कलिंग आक्रमण से राजधानी सम्पा (समपा) का पतन हो गया। सम्पा से 4 किमी दूरी पर रहने के कारण कुछ इतिहासविद्वों का मानना है कि तारातारिणी पीठ को कलिंग राज्य की इष्ट देवी के रूप में भी माना जाता था। राज्य का पतन होने के बाद कलिंग में बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में बौद्ध धर्म की महायान शाखा के ग्रंथों से पता चलता है कि प्रारम्भ के दिनों में महायान बौद्ध ‘तारा’ को देवी के रूप में पूजा करते थे। उल्लेखनीय है कि बौद्ध धर्म में इससे पहले शक्ति पूजा की परंपरा नहीं थी। बौद्ध तांत्रिक ग्रंथों के अनुसार इस पीठ में तारातारिणी को बौद्ध तारा के रूप में सदियों तक पूजा की जाती रही। कालांतर में यह ‘तारापुजा’ की परंपरा समस्त विश्व में फैल गई, जिसकी शुरूआत यही से हुई थी। जब बौद्ध धर्म में वज्रयानियों का वर्चस्व हुआ तो उन्होंने इस तारातारिणी पीठ को बौद्ध तंत्र के मुख्य पीठ बना दिये और तारातारिणी को तंत्र शास्त्र में मुख्य देवी के रूप में प्रतिष्ठित किया।
ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी से पहले यह कहना संभव नहीं था कि कब बौद्ध धर्म में तंत्र पूजा की परंपरा प्रारम्भ हुई। चीन, तिब्बत, श्रीलंका, नेपाल और भारत के कुछ प्राचीन साहित्य और अन्य धर्म ग्रंथों से इसके बारे में कुछ तथ्य प्राप्त होते हैं। तथा इन ग्रंथों में सम्राट कनिष्क के समय में बुलाए गए महाबौद्ध सम्मेलन से पहले घटित हुए तथ्यों की सूचना नहीं मिलती हैं। मगर इस सम्मेलन में बौद्ध रूढि़वादी से भिन्न अन्य जिन संप्रदायों का उत्थान हुआ उनके बारे में विचार महासंघीयों द्वारा करने की सूचना विभिन्न बौद्ध गं्रथों से मिलती है। बौद्ध सम्मेलन के समसामयिक रचित ‘महावास्तु’ ग्रंथ में महायान बौद्धों के उत्थान के बारे में विस्तृत वर्णन है। जिन्होंने हिंदू और बौद्ध धर्मों के अलावा दोनों की संस्कृति, संस्कार तथा जीवन मूल्यों को अपने धर्म में समाहित किया था। इन महायानियों ने हिंदू धर्म के ऐतिहासिक, सामाजिक और दार्शनिक तथ्यों को ग्रहण करने के साथ-साथ हिंदू तंत्र शास्त्र, जिसमें देवी की पूजा और मुख्यतः 10 महाविद्याओं की पूजा मुख्य मानी जाती है, उसको भी अपने धर्म में समाहित किया था।
बौद्ध धर्म के अन्य ग्रंथों से पता चलता है कि बौद्ध धर्म में मूर्ति पूजा और मातृ शक्ति पूजा की परंपरा नहीं थी। पहली बार महायानी बौद्धों ने प्रथम शताब्दी ईसवी के बाद मातृ शक्ति परंपरा को ग्रहण किया और देवी तारा की बौद्ध देवी के रूप में पूजा करने लगे। कहा जाता है कि सम्राट अशोक के कलिंग आक्रमण के बाद बौद्धों ने यह तारा पूजा की परंपरा तारातारिणी से सीखी थी।
बौद्ध वज्रयानियों के कब्जे में यह पीठ सैकड़ों वर्ष तक रहा। इसलिए कुछ इतिहासविद मानते हैं कि देवी‘तारा’ मुख्यतः बौद्ध धर्म से जुड़ी हुई देवी है। बौद्ध धर्म में पहले देवी के रूप में देवी ‘तारा’ को मान्यता मिली और तारिणी हिंदू धर्म से जुड़ी हुई है। परंतु बौद्ध व हिंदू धर्म के मुख्यपीठ के रूप में प्रायः हजारों वर्ष तक पूजे जाने के बाद दोनों तारातारिणी मिल गए और बाद में दोनों को हिंदू देवी के रूप में मान्यता मिली। तारातारिणी मंदिर में अभी भी गौतम बुद्ध की प्रतिमा की पूजा की जाती है और यह उन बातों की पुष्टि करती हैं। कुछ इतिहासकार यह प्रमाणित करने की कोशिश करते है कि हिंदू तारा और तिब्बती तारा एक-दूसरे से अलग हैं। हिंदू तंत्र शास्त्र ‘तंत्र-राजतंत्र’ में देवी तारा के मंत्र दिए गए हैं।
‘ओउम् तारे तुतारे तुरे स्वाहा’।
इसी मंत्र से पता चलता है कि यह सम्पूर्ण हिंदू मंत्र नहीं, इस मंत्र में तिब्बती शब्दों का प्रयोग हुआ है। तिब्बत में देवी को ‘तारा व सग्रोल- मां’ (रक्षा करने वाली) के रूप मंे पुजा जाता है। तंत्र राजतंत्र में दिया गया मंत्र ‘ओम मंणी पद्मे हूम्म्’ के बाद द्वितीय लोकप्रिय और प्रचलित मंत्र है। इसी से यह पता चलता है कि भारत की देवीतारा और तिब्बत की तारा अलग नहीं, बल्कि एक हैं।
जापान के धर्म ग्रंथों से पता चलता है कि देवी तारा को बोद्धिसत्व (तारणी बोट्सु) के रूप में पुजा जाता है और धर्म में देवी को उच्च मान्यता दिया गया है। तारणी तिब्बतियन श्वेततारा, हरा तारा की समष्टि को दर्शाता है। यह गौर करने की बात है कि तारणी जैसे शब्द जापानी भाषा में व्यवहार नहीं होते ये अनुमान लगया जा सकता है कि बौद्धतंत्र शास्त्रियों ने दोनों तारा और तारणी को तंत्र शास्त्र के मुख्य देवी के रूप में शामिल किए जो भारत से बाहर जाने के बाद थोड़ा सा अपभ्रंश हो के जापान में तारणी बन गया है। यहां से स्पष्ट होता है बौद्धों ने तारा और तारणी को देवी के रूप में बौद्ध धर्म में मान्यता दी थी। बाद में तारिणी तिब्बत, मंगोलिया, नेपाल और श्रीलंका जैसे देश में सिर्फ तारा बनकर रह गई जबकि जापान में तारणी के नाम से पूजी जा रही है। यह स्पष्ट है कि दोनों तारा और तारणी सिर्फ हिन्दू धर्म के इसी पावन धाम में ही पुजा जाता था। जिसको सम्पूर्ण रूप से बौद्धतंत्र शास्त्रियों ने एक देवी के रूप में ग्रहण किया और तारा तारिणी को मुख्य देवी के रूप में मान्यता दी।
कई हिंदू शास्त्रों में वर्णित मंत्र, श्लोेक और पूजा पद्धति से यह सूचना मिलती है कि तारातारिणी अलग नहीं, बल्कि एक ही देवी है, जो एक व अभिन्न है। तारा मुख्य देवी है। तारणी उनकी मुख्य शक्ति है। पुराणों से उद्धृत एक श्लोक, जिसमें देवी तारा के स्वरूप वर्णित है, वह इस तर्क की पुष्टि करता है।
‘ध्याये कोटि दिवाकर, द्यूतिनिभाम्
बालेेन्दु युक शेखराम्
रक्तांगि रसनाम् सुरक्त बसनाम्
पुर्णंेदु बिंबाधराम्
पाशम् कत्रु महांकुसादि दधति
दोरति चतुर्भि युताम्
नाना भरणम् भूसिताम् भगवती
ताराम् जगतारिणीम्।’
इससे स्पष्ट होता है कि तारा और तारिणी में कोई अंतर नहीं है। यह मानना है कि बौद्धों का तारा पूजा से पहले हिंदू तंत्र शास्त्र के दस महाविद्या में से दूसरे महाविद्या तारा और हिंदू देवी तारिणी को हजारों वर्ष पहले से मान्यता मिल चुकी थी। हिन्दू धर्म में तारातारिणी स्तनफिट होने के कारण दया, करूणा तथा वात्सल्यमयी देवी के रूप में पुजा जाता है। उसी प्रकार बौद्ध धर्म ग्रंथों के अनुसार तिब्बती तारा और जापान तारणी बोट्सु को भी दया, करूणा और शांति की देवी के रूप में पुजा जाता है। इसलिए तारातारिणी बौद्धों की देवी नहीं बल्कि हिंदू देवी हैं यह स्पष्ट प्रमाणित होता है। महाभारत से पूर्व इसकी प्रतिष्ठा होने के कारण यह मंदिर आर्याें या अनार्यों का है, यह विषय भी तर्क से ऊपर रहता है। हजारों वर्ष पहले प्रतिष्ठा होने के कारण उस समय मूर्ति पूजा का प्रचलन नहीं था, इसलिए प्रतीकात्मक मूर्ति पूजा यहां पर होती है।
इसके अलावा प्राचीन समुद्र यात्रा के इतिहास से भी पता चलता है कि यात्रा करने वाले इस देवी की पूजा करते थे। यहां यह सूचित करना उचित होगा कि विश्व इतिहास में सबसे बड़े कुछ बंदरगाह जो 2000 साल पहले ‘पालुर‘ (चिलका झील के पास), दंतपूर (गोपालपुर), कलिंगपाटना के नाम से विख्यात थे और जिनको टोलेमी जैसे विदेशी परिव्राजक देखकर भौचक्के रह गए थे और उन्होंने अपनी यात्रा इतिहास में लिखा कि ‘मैं पालूर जैसा बंदरगाह आज तक नहीं देखा हूं और यह रोम के बंदरगाह से कई गुना बड़ा है।’ यह सभी बंदरगाह इसी प्राचीन शक्तिपीठ से 30-40 किलोमीटर की परिसीमा के अंदर स्थित हैं। मुकंदपुर के पास खुदाई से ऋषिकुल्या नदी के अंदर से मिले ऐतिहासिक अवशेष से यह पता चलता है कि नदी के कुछ अंश नौयात्रा के लिए इस्तेमाल किये जाते थे। यह स्थान इस देवी पीठ से 200 मीटर की दूरी पर स्थित है। सालोसाल तक समुद्री यात्रा करने वाले यात्री और व्यापारी अपने यात्रा के सुखद समापन के लिए इस देवी की पूजा किया करते थे। इस तथ्य से इस मंदिर की प्राचीनता के बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है।
इसके अलावा मंदिर के पास एक प्राचीन गुफा का मिलना और उसके अंदर से पुरातत्व विभाग के परीक्षायोग्य चीजों का मिलना इसकी प्राचीनता साबित करता है। कलाशास्त्र की प्राचीन पद्धति से की गई खुदाई में देवी की मूर्तियां, जो इस पर्वत के निचले हिस्से में, जैसे सोमेश्वर महादेव मंदिर में मिलती हैं और कुछ मूर्तियां तारातारिणी के मुख्य मंदिर में मिलती हैं, जिनको कम से कम 1500 साल पहले होने का अनुमान लगाया जाता है, यह सभी प्रामाणिक तथ्यों से भी इस शक्तिपीठ की प्राचीनता के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है।
लोक कथा अनुसार लगभग 8वीं सदी में जब आदिगुरू शंकराचार्य ने पूरे भारत की यात्रा की, उस समय शक्ति का यह पीठ लोगों के सामने वर्तमान रूप में नहीं था। आदिगुरू शंकराचार्य के प्रयासों से ज्ञात हुआ कि पुराण प्रसिद्ध यह शक्ति पीठ बौद्ध तांत्रिकों के कब्जे में है। आदिगुरू शंकराचार्य ने इस पीठ को बौद्धों के कब्जे से मुक्त कराकर फिर से हिंदुओं को सौंपा। परंतु बौद्ध धर्म के प्रमाण स्वरूप अभी भी मंदिर में भगवान बुद्ध की प्रतिमा की पूजा की जाती है। आदिगुरू शंकराचार्य के प्रयास के बाद भी यह मंदिर सैकड़ों वर्षों तक लोगों की दृष्टि से दूर रहा है।
17 वीं सदी तक लोगों की दृष्टि से ओझल रहने के बाद मां तारातारिणी, लोक कथा अनुसार निःसंतान वसु प्रहराज (जो उस समय के विख्यात पंडित तथा माता के परम भक्त के रूप में माने जाते थे) के घर में दो बेटी बन कर अचानक एक दिन आए और रहने लगी। वसु प्रहराज निःसंतान होने के कारण उनको बेटी के रूप मंे ग्रहण कर लिए। भक्त वसु प्रहराज के घर में कुछ वर्ष रहने के पश्चात अचानक एक दिन दोनों बहनें अंर्तध्यान हो गयीं। गांव वालों के अनुसार ये दोनों बहनें एक पर्वत, जो तारीणी पर्वत/कुमारी पर्वत/रत्नगिरी के नाम से (तारिणी पर्वत) प्रसिद्ध था, में विलीन हो गईं। इस घटना से वसु प्रहराज बहुत दुखी हुए। कुछ दिनों बाद वसु प्रहराज को स्वप्नादेश हुआ कि ‘‘जो उसकी बेटी बनकर रहती थीं, वे तारातारिणी देवी थीं। उनकी भक्ति तथा निःसंतान होने के कारण देवी उनकी बेटी बनकर रहती थीं। परंतु अब समय आ चुका है कि तुम मेरे मंदिर की पुनस्र्थापना करो और वहां पूजा-अर्चना की व्यवस्था करो।’’
स्वप्नादेश के पश्चात वसु प्रहराज बहुत प्रसन्न हुए और तन-मन-धन से मंदिर का पुनः निर्माण करवाया और पूजा-अर्चना की व्यवस्था की। पर्वत पर स्थित होने तथा जंगल व नदी से घिरे होने के कारण मंदिर तक पहंुचने में भक्तों को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। इस कठिनाई को दूर करने के लिए वसु प्रहराज ने अनेक प्रकार की व्यवस्थाएं की। तब से यह शक्ति पीठ अपने प्रभाव के कारण निरंतर लोकप्रिय होता गया।
देव भूमि भारत का पुराण प्रसिद्ध यह शक्तिपीठ सिर्फ शक्ति उपासना की ही नहीं, अपितु पंचदेव उपासना (वैष्णव, शैव, शाक्य, गाणपत्य और सौर्य) के मुख्य पीठ हैं। यहां पर देवी महाकाली के स्वरूप होते हुए भी वात्सल्यमयी, करूणामयी के रूप में माता विराजित हैं। अन्य शक्तिपीठों से अलग यहां पर शांत मूर्ति के रूप में देवी पूजी जाती हैं। इसलिए भक्त पूजा से नहीं, बल्कि छोटे बच्चों की तरह हठ करके देवी मां की कृपा पा सकता है।
तंत्रशास्त्र के अनुसार इसको परम तंत्र क्षेत्र के रूप में माना जाता है तथा ब्राह्मण व वेदों के मत में भी इसको परम वैष्णवी के रूप में देखा जाता है। इन्हीं सब कारणों से तारातारिणी पीठ सर्वतंत्र में स्वतंत्र मानी जाती है। इस पीठ के पाद भाग में प्रवाहित ‘ऋषि कल्याणी ऋषि कुल्या’ नदी जिसका वर्णन सभी वेद, वेदांत, महाभारत, भागवत तथा सभी पुराणों व शास्त्रों में ‘‘गंगायाः ज्येष्टाभग्नि, ऋषि कल्याणी सरस्वती’’ के रूप में है। इसके पवित्र जल में भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, परशुराम, पांडव व अनेक देवता, गंधर्व, ऋषि स्नान करके पवित्र होने का वर्णन विभिन्न शास्त्रों में मिलता है।
यह नदी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है, जो अपनी निर्मल धारा में ईश्वर की उपस्थिति को कण-कण में समाहित करके पवित्र हो गयी है, यह इस धाम की महिमा को बहुगुणित करती है। इसके अतिरिक्त भारत भूमि के समस्त संत, महात्मा तथा आदिगुरू शंकराचार्य, श्री चैतन्य, श्री नीलकंठी तथा समस्त संप्रदायों की अध्यक्षों की उपस्थिति इस शक्ति धाम/कल्याणी धाम के महात्म्यता का साक्षात् प्रमाण है। इसीलिए शास्त्र कहते हैं-
सर्वयज्ञ तपो दान तीर्थ स्नानेन यत फलम्
तत फलम् लभते नुनम धाम कल्याणी दर्शनात
वर्तमान स्वरूप में तारातारिणी
प्राकृतिक शोभा से भरपूर आदि प्राचीन शक्तिपीठ तारातारिणी भारत के पूर्व दिशा मंे बंगोप सागर के पास उड़ीसा प्रदेश के प्रमुख शहर ब्रह्मपुर से 25 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह स्थान जमीन से 700 फीट ऊपर तारीणी/रत्नगिरी पर्वत के ऊपर स्थापित है। मुख्य मंदिर तक जाने के लिए सुंदर शिलाओं से बनी हुई 999 पवित्र सीढियां चढ़नी पड़ती हैं। भक्तों का विश्वास है कि यह 999 सीढि़यों से जो गुजरता है उसको जन्म-जन्म के पापों से मुक्ति मिलती है।
सीढ़ी शुरू होने से पहले एक भव्य प्रवेश द्वार बनाया गया है। उसको सिंह द्वार कहते हैं। पत्थर की 999 सीढि़यां छोड़ के आधुनिक मनुष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए गाड़ी से ऊपर जाने के लिए भव्य रास्ते का निर्माण हुआ है। औरत, वृद्ध तथा अन्य लोगों के लिए ‘उड़न खटोला’ की भी व्यवस्था है। पर्वत के ऊपर पत्थर से बना हुआ एक भव्य मंदिर में माता का स्थान है। पत्थर से बने मनुष्य के सिर जैसी आकृति स्वर्ण व अलंकार से सजाया गया इस मंदिर की मुख्य देवी तारातारिणी का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके बीच धातु से बनाई गई दो सुंदर प्रतिमाएं देवी के चलन्ति प्रतिमा के रूप में उपस्थिति हैं। उनके पास एक अति प्राचीन बौद्ध मूर्ति की भी पूजा होती है। जहां से पर्वत के नीचे प्रवाहित ऋषिकल्याणी, ऋषिकुल्या नदी तथा चारों तरफ का प्राकृतिक दृश्य देखने के लिए मिलता है। लाखों श्रृद्धालु और भक्तों की आवश्यकताओं को ध्यान मंे रखते हुए मंदिर के अलावा खाने पीने की व्यवस्था विश्रामघर, स्वास्थ्य केन्द्र, मुंडन की व्यवस्था, रास्ते को चैडा करना, बाजार परिसर, सुलभ शौचाल्य, यात्री निवास, कल्याण मंडप, पार्किंग की व्यवस्था आदि का निर्माण व्यापक रूप से चल रहा है। परिवेश को ठीक रखने के लिए हर साल एक लाख पेड़ लगाना, बगीचे और औषधी पौधों का उद्यान बनाना। वृद्धाश्रम, विधवा आश्रम, अपाहिजों के लिए रहने की व्यवस्था, मुक्त स्वास्थ्य सेवा, गरीब बच्चों के लिए पढ़ने के लिए स्कूल के निर्माण इत्यादि काम ‘तारातारीणी डेवल्पमेंट बोर्ड’ (टीटीडीबी) की देखरेख में चल रहे हैं। जाति, वर्ण, धर्म से ऊपर कोई भी भक्त देवी के दर्शन सुबह 5 बजे से रात 10 बजे तक कर सकता है।
यहां के मुख्य पर्वों में चत्र पर्व प्रधान है। हिन्दू कलेन्डर के चैत्र महीना जो मार्च एवं अप्रैल में आता है। उस महीने को बड़ा पवित्र माना जाता है। भक्तों का मानना है कि इस महीने के प्रत्येक मंगलवार को देवी के दर्शन करने से मनुष्य की सभी इच्छाएं तथा आकांक्षाएं पूरी होती हैं। इसलिए मंगलवार को कम से कम 3 से 4 लाख श्रद्धालु भक्त यहां दर्शन के लिए आते हैं। इसी महीने के अंदर लाखों बच्चों का मुंडन भी करवाया जाता है। ये मान्यता है कि नवजात बच्चों का 1 साल पूरा होने के बाद यहां पर प्रथम मुण्डन करवाने से आयु, आरोग्य, अईसूर्य तथा बुद्धि मिलती है। इसके अतिरिक्त नवरात्र, दशहरा, साल के सभी मंगलवार, सक्रांति मुख्यपर्व के रूप में यहां पर मनाया जाता है।
पहुुंचने की व्यवस्था
ब्रह्मपुर शहर से यह जगह 25 कि.मी. की दूरी पर है। ब्रह्मपुर जो उड़ीसा का एक मुख्य शहरों है वो कोलकाता से चेन्नई जाने वाली राष्ट्रीय राजमार्ग 5, रायपुर से ब्रह्मपुर राष्ट्रीय राजमार्ग 217, कोलकाता से चेन्नई मुख्य रेलवे स्टेशन से संयुक्त है। इसको छोड़कर आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड एवं पश्चिम बंगाल से अच्छी सड़कों की व्यवस्था ब्रह्मपुर तक है। एक प्रमुख स्टेशन होने के कारण भारत के सभी बड़े शहर और मेट्रो को टेªन से आने-जाने की व्यवस्था उपलब्ध है। ब्रह्मपुर पहुंचने के बाद टैक्सी, आॅटो एवं बस से इस जगह तक पहुुंचा जा सकता है। भुवनेश्वर, विशाखापटनम और पुरी से भी टैक्सी सेवा उपलब्ध है।
भुवनेश्वर 170 कि.मी. और विशखापटनम 250 कि.मी. नजदीकी हवाईअड्डे है। व्यक्तिगत हैलीकोप्टर और चार्टर फ्लाईट उतरने की व्यवस्था ब्रह्मपुर हवाईअड्डे में उपलब्ध है।
रहने की व्यवस्था
तारातारीणी के पास रहने के लिए बहुत अच्छी व्यवस्था नहीं है। फिर भी दिगंत, आई.बी. और उड़ीसा पर्यटन विभाग का अतिथि भवन पर्वत के नीचे उपलब्ध है। इस जगह से 25 कि.मी. की दूरी पर ब्रह्मपुर और 35 कि.मी. की दूरी पर गोपालपुर- अन- सी (जो की एक प्रसिद्ध समुद्र तटीय शहर है) वहां सभी वर्ग के यात्रियों के लिए ठहरने की तथा खाने पीने की भी व्यवस्था उपलब्ध है।
प्राचीन शक्तिपीठ तारातारीणी के पास गोपालपुर (35 कि.मी.), तप्तपाणी 79 कि.मी., भैरवी 40 कि.मी., मौर्य सम्राट अशोक के शिलालेख जउगढ़ 4 कि.मी. तथा एशिया की सबसे बड़ी झील चिलका 40 कि.मी. इत्यादि मुख्य प्रयटन स्थल हैं।