विद्याधर वाव वडोदरा शहर के बाहरी हिस्से में गोत्री के पास सेवासी गांव में स्थित एक विशाल जल स्थापत्य के रूप में है। यह वाव वडोदरा शहर में ही है, फिर भी वडोदरा के लोग ही इससे अनजान हैं। गुजरात के अन्य लोगो की तो बात ही कहाँ करे? करीब 475 साल पुरानी यह वाव अभी उसके अस्तित्व का जंग समय के साथ लड़ रही है।

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मंगलवार, 19 मार्च 2013 11:23

Drought in Maharashtra - Government and Beer Companies

रोटी नहीं मिलती तो केक खाओ... जलसंकट है तो बियर पियो...


महाराष्ट्र में विदर्भ सहित कई हिस्सों में अभी से भीषण सूखा पड़ रहा है. पीने के पानी की भारी किल्लत के बीच नगरपालिका द्वारा मनमाड जैसे शहर में "बीस दिन" छोड़कर एक टाइम पानी दिया जा रहा है. गाँव के गाँव खाली हो रहे हैं, क्योंकि लगभग सभी जलस्रोत मार्च में ही सूख चुके हैं...

अब हम आते हैं किसानों की परम-हितैषी(?) महाराष्ट्र सरकार और "तथाकथित" कृषि मंत्री शरद पवार के राज्य की नीतियों पर... इतने भयानक जल संकट के बावजूद राज्य में कार्यरत बियर कंपनियों को नियमित रूप से पानी की सप्लाय में वृद्धि की जा रही है.("तथाकथित" कृषि मंत्री, इसलिए लिखा, क्योंकि खेती और किसानों की दशा सुधारने का काम छोड़कर पवार साहब बाकी सारे काम करते हैं, चाहे वह बिल्डरों के हित साधना हो या क्रिकेट के छिछोरेपन और इसमें शामिल काले धन को बढ़ावा देने का काम हो...)



अब देखते हैं... महाराष्ट्र सरकार की अजब-गजब नीतियों की एक झलक -

१) मिलेनियम बियर इंडिया लिमिटेड :- जनवरी २०१२ में 12880 मिलियन लीटर पानी दिया जा रहा था, जिसे नवंबर २०१२ तक बढ़ाकर 22140 मिलियन लीटर कर दिया गया...

२) फ़ॉस्टर इंडिया लि. :- जनवरी २०१२ में 8887मिलियन लीटर पानी मिलता था, आज इसे 10,100 मिलियन लीटर पानी दिया जा रहा है.

३) इंडो-यूरोपियन ब्रोअरीज :- जनवरी २०१२ में कंपनी को 2521 मिलियन लीटर पानी दिया जा रहा था, जो अब बढ़कर 4701 मिलियन लीटर तक पहुँच गया है...

४) औरंगाबाद ब्रुअरीज :- हाल ही में इस कंपनी को जारी पानी के कोटे को 14,000 से 14621 मिलियन लीटर कर दिया गया है...


तात्पर्य  यह है कि किसानों को देने के लिए पानी नहीं है...भूजल स्तर चार सौ फुट से भी नीचे जा चुका है... शहरों-गाँवों को पीने के लिए पानी नहीं है, परन्तु बियर कम्पनियाँ बंद न हो जाएँ इसकी चिंता सरकार को अधिक है. 

उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र विधानसभा में सेना-भाजपा-रिपब्लिकन के संयुक्त मोर्चा ने सूखे से सम्बन्धित हर बात के घोटालों को प्रमुखता से उठाया है, परन्तु चूँकि केन्द्र में भी काँग्रेस सरकार है और पवार इसके प्रमुख घटक हैं, इसलिए न सिर्फ अजित पवार का सिंचाई घोटाला सफाई से दबा दिया गया है, बल्कि अब सूखे की वजह से चारा घोटाला तथा नया-नवेला "टैंकर घोटाला" भी सामने आ गया है. 


(टैंकर घोटाला = महाराष्ट्र में विदर्भ तथा अन्य सूखाग्रस्त क्षेत्रों में जहाँ टैंकरों से पानी सप्लाय किया जा रहा है, उनमें से अधिकाँश टैंकर NCP और काँग्रेस के बड़े और छुटभैये नेताओं के हैं, जो जनता से मनमाना पैसा वसूल रहे हैं)

हाल ही में केन्द्र सरकार ने राज्य में सूखे से निपटने के लिए सत्रह सौ करोड़ रूपए का पॅकेज जारी किया है, लेकिन किसी को भी विश्वास नहीं है कि इसमें से सत्रह करोड़ रूपए भी वास्तविक किसानों और पानी के लिए मारामारी और हाहाकार कर रहे लोगों तक पहुँचेगी.

अलबत्ता मूल मुद्दे और पानी में भ्रष्टाचार से ध्यान भटकाने के लिए आसाराम बापू द्वारा भक्तों के साथ सिर्फ चार टैंकरों से खेली गई होली को मुद्दा बनाकर NCP और कांग्रेसी नेता अपनी छाती कूट रहे हैं...

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कुल मिलाकर यह कि सरकार का सन्देश स्पष्ट है...

- रोटी नहीं मिल रही, तो केक खाओ... जलसंकट के कारण पानी नहीं मिल रहा, तो बियर पियो...

महाराष्ट्र के कफ़न-खसोट नेताओं पर जितनी भी लानत भेजी जाए वह कम ही होगी.. 
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शनिवार, 17 मार्च 2007 20:04

Save Water, Save Environment, Green Man in India

हरित मानव का पुनरागमन


लापोडिया (राजस्थान) में विगत वर्ष बहुत ही अल्प बारिश हुई । गाँव में वैसे तो तीन विशाल आकार के तालाब, जिनका नामकरण सौन्दर्यशास्त्र के आधार पर अन्नासागर, देवसागर और फ़ूलसागर... खाली पडे़ हुए थे । परन्तु, लापोडिया, जो सूरज की तीव्रता से झुलसता हुआ एक छोटी सी बस्ती वाला गाँव है और जयपुर से ८० किलोमीटर दूरी पर दक्षिण-पश्चिम मे स्थित है, में ना तो झुलसती हुई धरती को शांत करने के लिये कोई यज्ञ आयोजित किये गये और ना ही पानी के अतिरिक्त टैंकरों की जरूरत महसूस की गई । जो थोडे लोग गाँव छोडकर गये वे भी जयपुर में रोजगार की तलाश में गये थे ।

लेकिन आज अन्य गाँवों से भिन्न लापोडिया के कुँए पानी से लबालब भरे हुए हैं । खेत के किनारे हरी पत्तियों वाली साग-सब्जी, पालक, मैथी, आलू, मूली आदि से पटे हैं । हर परिवार के पास अलग से अतिरिक्त स्थान है, जिसमें उन्होंने पशु आहार के लिये ताजा हरा चारा उगा रखा है । गाँव से प्रतिदिन १६ हजार लीटर दूध का विक्रय होता है । यहाँ पर वृक्ष जैसे - नीम, पीपल, पान, खैर, देशी बबूल आदि की बहार है और पूरा गाँव सैकडों अजनबी पक्षियों की चहचहाहट से रोमांचित हो उठता है, जिसे एक पक्षी प्रेमी ही समझ सकता है । यह सारा दृश्य एक पक्षी अभयारण्य का रूप अख्तियार कर लेता है ।

लापोडिया को कोई दैवीय आशीर्वाद प्राप्त नहीं हो गया है, यह सब चमत्कार है श्री लक्ष्मण सिंह की बाजीगरी का । एक ऐसा ग्रामीण व्यक्ति, जो किसी महाविद्यालय में अध्ययन के लिये नहीं गया, किन्तु उसने दिन-प्रतिदिन के अपने अनुभवों एवं पारम्परिक ज्ञान को गूँथकर जल-संग्रहण की एक अनूठी पद्धति विकसित की । जिसका नाम उसने "चोका" रखा - जो एक छोटे बाँध के स्वरूप में जटिल ग्रिड वाली संरचना है, जिसमें पानी की हर बूँद जो धरा के ऊपर और भीतर मौजूद है, को संग्रहीत किया जाता है । पूर्व में जो पानी ऊपर मौजूद था, वह या तो खपत हो जाता था या सूख जाता था, किन्तु भूमिगत जल जो धरती के अन्दर है, छुपा ही रहता था । इस पानी में गाँव के १०३ कुँए कभी नहीं सूखने देने की क्षमता मौजूद थी । लक्ष्मणसिंह की इस ठेठ देशी सोच नेण दूर तक बसे लोगों का ध्यान आकर्षित किया । दो वर्ष पूर्व सूखे से झुलसते हुए अफ़गानिस्तान का एक प्रथिनिधिमण्डल पूर्वी राजस्थान के इस गाँव में लक्ष्मणसिंह से जल संग्रहण की इस तकनीक को करीब से जानने-समझने के उद्देश्य से आया था । मध्यप्रदेश शासन ने भी एक अध्ययन दल भेजा, राजस्थान सरकार भी लापोडिया के उदाहरण को लेकर एक "हैण्डबुक" निकालने जा रही है । किन्तु इन सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अडोस-पडो़स के कई गाँवों जैसे जयपुर जिले के मेत, चापियाँ एवं ईटनखोई तथा टोंक जिले के बालापुरा, सेलसागर और केरिया में "चोका पद्धति" सफ़लतापूर्वक अंगीकार की गई है ।

५१ वर्षीय लक्ष्मणसिंह जो अपना स्वयं का एक एनजीओ "ग्राम विकास नवयुवक मण्डल" चलाते हैं, का कहना है कि अन्या गाँवों में भी इस काम को बखूबी अंजाम दे रहे हैं" । २०० परिवारों की बस्ती वाला यह गाँव पहले कभी ऐसा नहीं था । लापोडिया का शाब्दिक अर्थ है "झक्की लोग" जो एक सन्देहपूर्ण नाम इसके झगडालू प्रवृत्ति वाले लोगों के कारण मिला होगा । लक्ष्मण सिंह जी के पिता एक जमींदार थे, कहते हैं कि वे सब कुछ बदल देना चाहते है, जो लोग इस गाँव के बारे में धारणा बनाये हुए हैं । एक दिन टोंक जिले के समीप स्थित पारले गाँव का भ्रमण करते हुए वे एक "बुण्ड" (कच्ची मिट्टी की दीवारें) के सम्पर्क में आये । सिंह कहते हैं कि इनको देखकर ही उनके मस्तिष्क में "चोका पद्धति" को विकसित करने के बीज अंकुरित हुए । अगले पाँच वर्ष तक वे "बुण्ड" के आसपास के वातावरण का अवलोकन करते रहे और जल संरक्षण की इस तकनीक को विकसित करने में जुट गये ।

इसकी आधारभूत संरचना काफ़ी सरल है, इसमें बारिश का पानी जो धरती द्वारा सोख जाता है वाष्प बनकर उड़ता नहीं है और यदि रोका जाये तो इसका उपयोग जब जरूरत हो तब किया जा सकता है । इस तरह से धरती के भीतर मौजूद पानी की हर बूँद को संरक्षित किया जा सकता है । सिंह इस दिशा एवं विचार पर काम करना शुरू किया, और वे कहते हैं कि "मैं जिला अधिकारियों के पास सहायता के लिये गया, किन्तु वे मुझ पर हँसे और उन्होंने मुझसे कहा कि यह सम्भव नहीं है, और पूछा कि तुम किस महाविद्यालय मे अध्ययन के लिये गये हो ?" वर्ष १९९४ के लगभग सिंह ने एक "चोका मॉडल" विकसित कर लिया था । अब इसका लाभ स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है, यह सब आँखों के सामने है । नंगी आँखों से चरागाह सूखे दिखाई पडते हैं, लेकिन यह छोटी घास से भरे पडे हैं, जिसमें पालतू पशु चरते हैं । विगत आठ वर्षों से बारिश नियमित नहीं है किन्तु कुँए भरे हुए हैं । गाँव वालों ने सामूहिक पद्धति और सहमति रखकर ५०% भूमि पर ही खेती-बाडी़ करने का निर्णय ले रखा है । इसी तरह कुँए भी सिंचाई के लिये सुबह के वक्त ही उपयोग में लिये जाते हैं ।
सिंह कहते हैं कि "हमें प्रकृति से वही लेना चाहिये जो वह हमें गर्व से और सहर्ष दे, यदि आप जोर-जबर्दस्ती से कुछ छीनना चाहेंगे तो प्रकृति स्वयं की संपूर्ति और आपकी आपूर्ति नहीं कर सकती" । 

परिणामस्वरूप आज लापोडिया में पक्षी बिना भय के चहचहाते हैं और खेत-खलिहान में हरियाली बिछी हुई है ।

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