शुक्रवार, 29 नवम्बर 2013 20:26
Shahzade Rahul Baba and Chaiwala Narendra Modi...
“शहज़ादे” की नींद हराम करता चायवाला...
“हत्यारा”, “रावण”, “हिटलर”, “मौत का
सौदागर”, “चाण्डाल”, “नरपिशाच”... आप
सोच रहे होंगे कि लेख की शुरुआत ऐसे शब्दों से??? लेकिन माफ कीजिए, उक्त शब्द मेरे
नहीं हैं, बल्कि कांग्रेस और अन्य सभी “तथाकथित सेकुलर, अनुशासित, लोकतांत्रिक”(???) पार्टियों के विभिन्न
नेताओं द्वारा समय-समय पर कहे गए हैं, और स्वाभाविक है कि ये सभी शब्द सिर्फ उसी
व्यक्ति के लिए कहे जा रहे हैं, जिस व्यक्ति ने अकेले लड़ते हुए, सभी बाधाओं को पार
करते हुए इन “सेकुलर
ढकोसलेबाज” नेताओं
की रीढ़ की हड्डी में कंपकंपी पैदा कर दी है... यानी “वन एंड ओनली नरेंद्र मोदी”. क्या
नरेंद्र मोदी ने कभी अपने भाषणों में ऐसे शब्दों का उपयोग किया है? मुझे तो याद
नहीं पड़ता. पिछले छह माह से नरेंद्र मोदी लगातार कांग्रेस पोषित मीडिया और “चैनलीय
कैमरेबाज नेताओं” के लिए
हर हफ्ते एक नया अध्याय लेकर आते हैं. सप्ताह, दो सप्ताह तक उस शब्द अथवा विषय पर
बहस होती है... उसके बाद अगला अध्याय दिया जाता है ताकि ड्रामेबाज सेकुलर
अपनी-अपनी खोल में बहस करते रहें, टाईम पास करते रहें...
नरेंद्र मोदी द्वारा काँग्रेसी और सेकुलरों की इस “ट्यूशन” की
शुरुआत हुई थी “गाड़ी के
नीचे आने वाले कुत्ते के पिल्ले” से, उसके बाद “सेकुलरिज्म का बुरका” इत्यादि से होते-होते
नेहरू-पटेल, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, खूनी पंजा, “माँ बीमार है” और “शहजादे” तक यह
अनवरत चली आ रही है. नरेंद्र मोदी द्वारा किये गए शब्दों के चयन का मुकाबला न कर
पाने की वजह से ही हताशा में ये “बुद्धिमान”(?) नेता नरेंद्र मोदी को उपरोक्त घटिया शब्दावली से
नवाजते हैं, उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर मोदी का मुकाबला कैसे करें?? जिस
तेजी से मोदी की लोकप्रियता बढ़ रही है, कांग्रेस के खिलाफ और मोदी के पक्ष में
जनता के बीच “अंडर-करंट” फैलता
जा रहा है उसने कांग्रेस सहित अन्य सभी क्षेत्रीय दलों के नेताओं के माथे पर शिकन
पैदा कर दी है. आखिर इन नेताओं में नरेंद्र मोदी को लेकर इतनी बेचैनी क्यों है?
जवाब सीधा सा है... सत्ता और कुर्सी हाथ से खिसकने का डर; मुस्लिम वोटों का रुझान किस तरफ होगा इस आशंका का डर; गुजरात से बराबरी न कर पाने की वजह से उनके राज्य के
युवाओं में फैलने वाली हताशा का डर; उनके
राज्यों से गुजरात जाकर पैसा कमाने वाले “मोदी के असली ब्राण्ड एम्बेसडरों” का डर; सोशल मीडिया से धीरे-धीरे रिसते हुए जमीन तक पहुँचने
वाली मोदी की मार्केटिंग का डर...
एक तरफ खुद काँग्रेस के भीतर राहुल गाँधी को लेकर बेचैनी है. राहुल
गाँधी के भाषणों में घटती भीड़ ने कांग्रेसियों की नींद उड़ा दी है. राहुल गाँधी की
भाषण शैली, उनमें मुद्दों की समझ का अभाव और महत्त्वपूर्ण राजनैतिक घटनाक्रम के
समय उनकी गुमशुदगी.. सभी कुछ कांग्रेसियों को अस्थिर करने के लिए काफी है. यह एक
तथ्य है कि काँग्रेसी उसी के साथ रहते हैं, जो उन्हें सत्ता दिलवा सकता हो, या
उसमें वैसी क्षमता हो. राहुल गाँधी के साथ काँग्रेसी उसी समय तक बने रहेंगे जब तक
उन्हें विश्वास होगा कि नरेंद्र मोदी को हराने में यह नेता सक्षम है, और यही
विश्वास अब शनैः-शनैः दरकने लगा है. दिल्ली की एक सभा में तो शीला दीक्षित को
खुलेआम मंच से गुहार लगानी पड़ी कि “बहनों, ठहर जाओ, दस मिनट रुक जाओ, राहुल जी को सुनते
जाओ...” उसके
बाद राहुल गाँधी सिर्फ सात मिनट बोलकर चलते बने. दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी को सुनने
के लिए बैंगलोर में दस-दस रूपए देकर साढ़े तीन लाख लोगों ने रजिस्ट्रेशन करवाया
जिससे पैंतीस लाख रूपए मिले, जो नरेंद्र मोदी ने सरदार पटेल की मूर्ति हेतु अर्पण
कर दिए. पैसा देकर भाषण सुनने का यह अमेरिकी प्रयोग भारत में सबसे पहले नरेंद्र
मोदी ने आरम्भ किया है, शुरुआत हैदराबाद से हुई थी, जहाँ पांच-पांच रूपए लिए गए
थे. उस समय कांग्रेसियों ने इस विचार की जमकर खिल्ली उडाई थी, लेकिन अब राहुल बाबा
की सभाओं में घटती भीड़ ने उनके माथे पर बल डाल दिए हैं. इसी तरह पिछले गुजरात
चुनावों में भी नरेंद्र मोदी थ्री-डी सभाओं द्वारा भाषण देते हुए मतदाताओं तक
पहुँचने की जो नई अवधारणा लेकर आए थे, उसका तोड़ भी काँग्रेस के पास नहीं था.
नरेंद्र मोदी में हमेशा नई तकनीक और नई सोच को लेकर जो आकर्षण रहा है उसी ने
उन्हें सोशल मीडिया में अग्रणी बना दिया है. जब तक विपक्षी नेता सोशल मीडिया की
ताकत को पहचान पाते या उसे भाँप सकते, उससे बहुत
पहले ही नरेंद्र मोदी उस क्षेत्र में दौड़ लगा चुके थे और अब वे बाकी लोगों
से मीलों आगे निकल चुके हैं.
गुजरात में सरदार वल्लभभाई पटेल की विशाल प्रतिमा स्थापित करने की
घोषणा और उसका भूमिपूजन करके तो मानो नरेंद्र मोदी ने काँग्रेस के ज़ख्मों पर नमक
छिडकने का काम ही कर दिया है. देश की सभी प्रमुख योजनाओं, प्रमुख संस्थानों के
अलावा बड़ी-बड़ी मूर्तियों-पार्कों-हवाई अड्डों इत्यादि पर अभी तक सिर्फ एक ही “विशिष्ट
और पवित्र परिवार” का
एकाधिकार होता था. नरेंद्र मोदी ने पिछले दस साल के दौरान गुजरात में जितनी भी
योजनाएँ चलाई हैं उनका नाम विवेकानंद, दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोगों के नाम पर रखा
है. बची-खुची कसर सरदार पटेल की इस विशालतम मूर्ति की घोषणा ने पूरी कर दी.
काँग्रेस को यह कतई सहन नहीं हो रहा है कि पटेल की विरासत को नरेंद्र मोदी हथिया
ले जाएँ, इसीलिए जो काँग्रेस अभी तक सरदार पटेल को लगभग भुला चुकी थी अचानक उसका
पटेल प्रेम जागृत हो गया. साथ-साथ आडवानी ने भी नरेंद्र मोदी के साथ कदमताल करते
हुए अपने ब्लॉग पर लगातार पटेल-नेहरू के संबंधों के बारे में लेख लिखते रहे और
काँग्रेस को अंततः चुप ही बैठना पड़ा.
जब से नरेंद्र मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित
किया है, तब से विपक्षियों में डर और बेचैनी और भी बढ़ गई है. हालांकि ऊपर-ऊपर वे
बहादुरी जताते हैं, दंभपूर्ण बयान देते हैं, मोदी की खिल्ली उड़ाते हैं, लेकिन अंदर
ही अंदर वे बुरी तरह से हिले हुए हैं. एक सामान्य सी समझ है कि अच्छा राजनीतिज्ञ
वही होता है, जो बदलती हुई राजनैतिक हवा को भाँपने का गुर जान जाता है. इसीलिए
जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, दिनोंदिन काँग्रेस का पतन होता जा रहा है
और वह गिने-चुने राज्यों में सिमटती जा रही है, वैसे-वैसे क्षेत्रीय दलों के सुर
बदलने लगे हैं. उन्हें पता है कि मई २०१४ में ऐसी स्थिति बन सकती है जब उन्हें
नरेंद्र मोदी के साथ सत्ता शेयर करनी पड़ सकती है. इसीलिए जयललिता, ममता बनर्जी और
पटनायक जैसे पुराने खिलाड़ी फूँक-फूँक कर बयान दे रहे हैं.
जबकि काँग्रेस अपनी उसी सामन्तवादी सोच से बाहर नहीं आ रही कि ईश्वर
ने सिर्फ गाँधी परिवार को ही भारत पर शासन करने के लिए भेजा है. ग्यारह साल पहले
गुजरात में हुए एक दंगे को लेकर नरेंद्र मोदी को घेरने की लगातार कोशिशें हुईं.
तमाम षडयंत्र रचे गए, मोहरे खड़े किये गए, NGOs के
माध्यम से नकली शपथ-पत्र दायर हुए... लेकिन न तो कानूनी रूप से और न ही राजनैतिक
रूप से काँग्रेस मोदी को कोई नुक्सान पहुंचा पाई. इसके बावजूद इस प्रकार की घटिया चालबाजियाँ अब भी जारी हैं. अपने सदाबहार
ओछे हथकंडे जारी रखते हुए काँग्रेस इस बार किसी पुराने जासूसी कांड को लेकर सामने
आई है. दिल्ली में महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं यह पूरा देश जानता है, लेकिन
काँग्रेस को गुजरात में एक महिला की जासूसी को लेकर अचानक घनघोर चिंता हो गई. इस
बार भी अमित शाह को निशाना बनाकर नरेंद्र मोदी को घेरने की कोशिशें जारी हैं. मान
लो राजकोट में पानी की समस्या है, तो “...मोदी प्रधानमंत्री पद के लायक नहीं हैं...”, यदि
सूरत में कोई सड़क खराब है, “...नरेंद्र मोदी इस्तीफ़ा दो...”, मुज़फ्फरनगर में भीषण दंगे हुए
तो इसके लिए केन्द्र की काँग्रेस सरकार अथवा राज्य की सपा सरकार जिम्मेदार नहीं
है, बल्कि “नरेंद्र
मोदी और अमित शाह ने मुज़फ्फरनगर में ये दंगे भड़काए हैं...” इस प्रकार की ऊटपटांग
बयानबाजी से काँग्रेस और अन्य दल खुद की ही हँसी उडवा रहे हैं. ऐसा लगता है कि वे
देश के युवाओं को मूर्ख समझते हैं. कभी-कभी तो मुझे शक होता है कि यदि किसी नेता
के किचन में रखा हुआ दूध बिल्ली आकर पी जाए, तब भी वे यही कहेंगे कि “इसके
पीछे नरेंद्र मोदी का हाथ है...”.
आज से दो वर्ष पहले तक मोदी विरोधी कहते थे, “भाजपा कभी भी मोदी को
प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करेगी...” यह तो हो गया. फिर कहते थे
कि “सोशल
मीडिया पर काबिज हिंदुत्ववादी युवाओं की टीम से कोई फर्क नहीं पड़ता..” अब खुद
उन्हें फर्क साफ़ दिखाई दे रहा है. यह भी कहते थे कि नरेंद्र मोदी कोई चुनौती नहीं
हैं... अब खुद इनके मंत्री स्वीकार करने लगे हैं कि हाँ मोदी एक गंभीर और तगड़ी
चुनौती हैं...| अर्थात पहले विरोधियों द्वारा उपेक्षा, फिर उनके द्वारा खिल्ली
उड़ाना... आगे चलकर विरोधियों के दिमाग में चिंता और अब रातों की नींद में भयानक
दुस्वप्न... वाकई में नरेंद्र मोदी ने बड़ा लंबा सफर तय कर लिया है.
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ब्लॉग
शनिवार, 23 मार्च 2013 13:55
Gujrat Electricity Companies Performance and Jyotiraditya Scindia
गुजरात की तरक्की और नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता से इतनी जलन और घबराहट??
भारत सरकार के ऊर्जा मंत्रालय ने, गुजरात
की बिजली कंपनियों की उत्तम कार्यकुशलता तथा शानदार वितरण प्रणाली को मिलने वाले
पुरस्कार के भव्य समारोह को ऐन मौके पर रद्द कर दिया, कि कहीं इस पुरस्कार के
राष्ट्रीय प्रसारण और प्रचार की वजह से नरेंद्र मोदी को राजनैतिक लाभ न मिल जाए.
असल में मामला यह है कि, समूचे भारत में
बिजली चोरी रोकने और उसके अधिकतम वितरण को सुनिश्चित और पुरस्कृत करने के लिए भारत
सरकार के ऊर्जा मंत्रालय ने गत वर्ष दो सुविख्यात रेटिंग एजेंसियों ICRA और CARE को यह काम
सौंपा था कि वे भारत की विभिन्न सरकारी विद्युत वितरण कंपनियों के कामकाज, विद्युत
की हानि और चोरी के बारे में विस्तार से एक रिपोर्ट बनाकर पेश करें, और उसी के
अनुसार उन बिजली बोर्डों या कंपनियों को रेटिंग प्रदान करें.
इस कवायद में भारत के बीस विभिन्न राज्यों
की 39 बिजली
कंपनियों को शामिल किया गया, तथा इनके कामकाज और नुक्सान के बारे में व्यापक सर्वे
किया गया. इस के नतीजों के अनुसार “दक्षिण गुजरात वीज
कम्पनी लिमिटेड (DGVCL)” को सर्वाधिक अंक 89% तथा “A+” की रेटिंग
प्राप्त हुई. इसी प्रकार “पश्चिम बंगाल स्टेट इलेक्ट्रिसिट कम्पनी” तथा “महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी
डिस्ट्रीब्यूशन कम्पनी” को 70% अंक और “A” ग्रेड मिला.
घटिया प्रदर्शन तथा बिजली चोरी के मामलों में कमी न ला सकने के लिए 11 अन्य कंपनियों
को “B+” की रेटिंग
मिली, जबकि 8 राज्यों की बिजली कंपनियों को और भी नीचे “C” और “C+” तक की ग्रेड
मिली. सूची में सबसे निचले स्थान पर रहने वाली बिजली कंपनियों में उत्तरप्रदेश और
बिहार की कम्पनियाँ रहीं.
इस प्रदर्शन सूची और रेटिंग में अव्वल
स्थान पर रहने वाली कंपनियों के प्रबंध निदेशकों को ऊर्जा मंत्रालय की तरफ से
मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया सम्मानित करने वाले थे, परन्तु जैसे ही उन्हें पता
चला कि इस सूची में “टॉप टेन” कंपनियों में
से नौ गुजरात से और एकमात्र महाराष्ट्र की हैं, तो सम्मान देने का यह कार्यक्रम
ताबड़तोड़ रद्द कर दिया गया. सूची में निचले चार स्थानों पर उत्तरप्रदेश और बिहार
की बिजली कम्पनियाँ हैं.
मंत्रालय के इस कार्यक्रम में गुजरात की
तीन कंपनियों द्वारा “पावर पाइंट
प्रेजेंटेशन” द्वारा यह समझाया जाना था कि उन्होंने बिजली
चोरी पर अंकुश कैसे लगाया, बिजली वितरण में होने वाले नुक्सान को कैसे रोका...
इत्यादि. उल्लेखनीय है कि बिजली कंपनियों का जो घाटा २००९-१० में 63,500 करोड़ था, वह
२०११-१२ में बढ़कर 80,000 करोड़ रूपए तक पहुँच गया है. इसीलिए ऊर्जा
मंत्रालय ने ICRA को २० कंपनियों तथा CARE संस्था को १९ कंपनियों का पूर्ण
लेखा-जोखा, जमीनी हकीकत, आर्थिक स्थिति इत्यादि के बारे में रिपोर्ट देने को कहा
था.
गुजरात और मोदी की सफलता से केन्द्र सरकार
इतनी आतंकित है कि इस रिपोर्ट के बारे में की गई प्रेस कांफ्रेंस में सिंधिया ने
दस सर्वाधिक मजबूत और सफल कंपनियों का नाम तक लेना जरूरी नहीं समझा, क्योंकि
शुरुआती दस में से नौ बिजली कम्पनियाँ तो गुजरात या भाजपा शासित राज्यों की ही
हैं, जबकि सिर्फ एक महाराष्ट्र की है. नरेंद्र मोदी लगातार केन्द्र पर तथ्यों और
आंकड़ों के साथ यह आरोप लगाते रहे हैं कि कोयला और प्राकृतिक गैस के आवंटन के मामले
में केन्द्र हमेशा गुजरात के साथ सौतेला व्यवहार करता आ रहा है. इसके बावजूद बिजली
चोरी रोकने, बकाया बिलों की वसूली एवं उत्तम वितरण में गुजरात की बिजली कम्पनियाँ
अव्वल आ रही हैं तो जलन इतनी बढ़ गई कि सम्मान समारोह ही रद्द कर दिया.
पावर फाइनेंस कार्पोरेशन द्वारा आयोजित
किए जाने वाले इस कार्यक्रम को रद्द किए जाने की सूचना भी एकदम अंतिम समय पर दी
गई, जब गुजरात की तीन बिजली कंपनियों के प्रबंध निदेशक, सर्वश्री एन श्रीवास्तव,
एचएस पटेल और एसबी ख्यालिया इस सम्मान को लेने दिल्ली भी पहुँच चुके थे. ऊर्जा
मंत्रालय ने उन्हें सूचित किया था कि उनका सम्मान किया जाएगा, परन्तु उलटे पाँव
लौटाकर उनका अपमान ही कर दिया, क्योंकि मंत्री जी नहीं चाहते थे कि मीडिया में यह
बात जोर-शोर से प्रसारित और प्रचारित हो कि नरेंद्र मोदी के गुजरात में बिजली
कम्पनियाँ उत्तम कार्यकुशलता दिखा रही हैं, जबकि खोखले विकास के दावे करने और
दिल्ली में विशेष राज्य के नाम पर “भीख का कटोरा” लिए खड़े नीतीश और अखिलेश यादव के राज्य बेहद घटिया बिजली कुप्रबंधन और
चोरी के शिकार हैं.
अब जबकि नरेंद्र मोदी ने मीडिया में
खुलेआम केन्द्र सरकार की धज्जियाँ उडानी शुरू कर दी हैं, श्रीराम कॉलेज तथा इंडिया
टुडे कान्क्लेव में दिए गए भाषणों से देश के निम्न-मध्यम वर्ग के बीच उनकी छवि और
कार्यकुशलता के चर्चे जोर पकड़ने लगे हैं, तो अगले एक साल में मोदी की छवि बिगाड़ने
के लिए (अथवा नहीं बनने देने हेतु) ऐसे कई कुत्सित प्रयास किए जाएंगे. गुजरात की
जनता तो जानती है कि वहाँ बिजली-पानी और सड़क की स्थिति कितनी शानदार है, परन्तु यह
बात भारत के अन्य राज्यों तक न पहुंचे इस हेतु न सिर्फ जोरदार प्रयास किए जाएंगे,
बल्कि मोदी द्वारा विकास को चुनावी मुद्दा बनाने की बजाय, काँग्रेस और सेकुलरों की
सुई २००२ के दंगों पर ही अटकी रहेगी.
विशेष नोट :- जो भी काँग्रेस के साथ जब तक
रहता है, तब तक उसके सारे गुनाह माफ होते हैं वह महान भी कहलाता है. लेकिन जैसे ही
कोई काँग्रेस से मतभिन्नता रखता है या काँग्रेस को कोई गंभीर चुनौती पेश करता है
तो काँग्रेस तत्काल उसके साथ “खुन्नस” का व्यवहार पाल लेती है. DMK समर्थन वापसी का
मामला तो एकदम ताज़ा है, मैं यहाँ एक पुराना उदाहरण देना चाहूँगा :- एक समय पर
अमिताभ बच्चन, गाँधी परिवार के खासुलखास हुआ करते थे, राजीव गाँधी के बाल-सखा और
काँग्रेस के सक्रिय सदस्य. इलाहाबाद से चुनाव लड़ा, जीता भी... बोफोर्स कांड में
राजीव गाँधी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर मीडिया से लड़े... लेकिन राजीव की मौत के
बाद जैसे ही अमिताभ बच्चन और गाँधी परिवार के रिश्ते तल्ख़ हुए, तत्काल सोनिया
गाँधी की खुन्नस खुलकर सामने आ गई... अमिताभ बच्चन की माँ अर्थात तेजी बच्चन के अन्तिम संस्कार में गाँधी
परिवार का
एक भी सदस्य मौजूद नहीं था, जबकि
भैरोंसिंह शेखावत अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद इसमें शामिल हुए। तेजी बच्चन के स्व.इन्दिरा
गाँधी से व्यक्तिगत सम्बन्ध रहे और उन्होंने हमेशा राजीव गाँधी को अपने पुत्र के
समान माना और स्नेह दिया। अब तक तो यही देखने में आया है कि अमिताभ के खिलाफ़ आयकर
विभाग को सतत काम पर लगाया गया, जया बच्चन
की राज्यसभा सदस्यता “दोहरे लाभ
पद” वाले मामले में कुर्बान करनी पड़ी,
जबकि सोनिया गाँधी को इससे छूट देने के लिए जमीन-आसमान एक किए गए थे.
संक्षेप में
तात्पर्य यह है कि नरेंद्र मोदी से काँग्रेस की खुन्नस इतनी अधिक है कि अब गुजरात
में अच्छा काम करने वाली कंपनियों को सम्मानित करने में भी इन्हें झिझक महसूस होने
लगी है.
सन्दर्भ :-
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ब्लॉग
रविवार, 20 जनवरी 2013 11:17
Narendra Modi from Lucknow Seat - Game Changer...
लखनऊ सीट से नरेंद्र मोदी :- भारत और उत्तरप्रदेश के राजनीतिक गणित को बदल डालेगा...
यूपीए-२
द्वारा धीरे-धीरे खाद्य सुरक्षा बिल, कैश सब्सिडी जैसी लोकलुभावन योजनाओं की तरफ
बढ़ने से अब २०१४ के लोकसभा चुनावों की आहट सुनाई देने लगी है. जैसा कि सभी को
मालूम है कि आमतौर पर दिल्ली की सत्ता की चाभी उसी के पास होती है, जो पार्टी
उत्तरप्रदेश व बिहार में उम्दा प्रदर्शन करे. हालांकि यूपीए-२ की सरकार बगैर
उत्तरप्रदेश और बिहार के भी धक्के खाती हुई चल ही रही है, फिर भी जिस तरह आए दिन
कांग्रेस को मुलायम अथवा मायावती में से एक या दोनों की चिरौरी करनी पड़ती है, उनका
समर्थन हासिल करने के लिए कभी लालच, तो
कभी सीबीआई का सहारा लेना पड़ता है, उससे इन दोनों प्रदेशों (विशेषकर उप्र) की
महत्ता समझ में आ ही जाती है. संक्षेप में तात्पर्य यह है कि २०१४ के घमासान के
लिए उप्र-बिहार की १३० से अधिक सीटें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली हैं.
गुजरात
में नरेंद्र मोदी ने शानदार पद्धति से लगातार तीसरा चुनाव जीतकर सभी राजनैतिक
पार्टियों को सोचने पर मजबूर कर दिया है, क्योंकि अब सभी राजनैतिक पार्टियों को यह
पक्का पता है कि २०१४ के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी “एक प्रमुख भूमिका” निभाने जा
रहे हैं. हालांकि खुद भाजपा में ही इस बात को लेकर हिचकिचाहट है कि नरेंद्र मोदी
को पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करे या ना करे? यदि करे,
तो उसका टाइमिंग क्या हो? मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मेदवार घोषित करने से NDA के ढाँचे पर क्या फर्क पड़ेगा? इत्यादि...
हालांकि इन सवालों पर निरंतर मंथन चल रहा है, लेकिन यह तो निश्चित है कि अब
नरेंद्र मोदी के “दिल्ली-कूच” को रोकना लगभग असंभव है.
२०१४
के आम चुनावों में उप्र की सीटों की महत्ता को देखते हुए मेरा सुझाव यह है कि सबसे
पहले तो भाजपा अपनी “सेकुलर-साम्प्रदायिक” मानसिक दुविधा से मुक्ति पाकर, सबसे
पहले जल्दी से जल्दी नरेंद्र मोदी को “आधिकारिक” रूप से प्रधानमंत्री पद का
उम्मीदवार घोषित करे. चूंकि प्रत्येक पार्टी अपना उम्मीदवार चुनने के लिए
स्वतन्त्र है, इसीलिए भाजपा को NDA का
मुंह ताकने की जरूरत नहीं है. एक बार भाजपा की तरफ से यह आधिकारिक घोषणा होने के
बाद NDA में जो भी और जैसा भी आतंरिक
घमासान मचना है, उसे पूरी तरह से मचने देना चाहिए. इस काम में मीडिया भी भाजपा की
मदद ही करेगा, क्योंकि मोदी की उम्मीदवारी घोषित होते ही “तथाकथित सेकुलर मीडिया”
को हिस्टीरिया का दौरा पड़ना निश्चित है. गुजरात और नरेंद्र मोदी की छवि को देखते
हुए मीडिया मोदी के खिलाफ जितना दुष्प्रचार करेगा, वह भाजपा के लिए लाभकारी ही
सिद्ध होगा.
जब
भाजपा एक बार यह “पहला महत्वपूर्ण कदम” उठा लेगी, तो उसके लिए आगे का रास्ता और
रणनीति बनाना आसान सिद्ध होगा. मोदी को “प्रमं” पद का उम्मीदवार घोषित करते ही
स्वाभाविक रूप से बिहार में नीतीश कुमार अपना झोला-झंडा लेकर अलग घर बसाने निकल
पड़ेंगे, तो बिहार के मुसलमान वोटों के लिए नीतीश कुमार, लालूप्रसाद यादव और
कांग्रेस के बीच आपसी खींचतान मचेगी और भाजपा को अपने परम्परागत वोटरों पर ध्यान
देने का मौका मिलेगा. फिलहाल सुशील कुमार मोदी की वजह से बिहार में भाजपा, नीतीश की “चपरासी” लगती है, वह नीतीश के
अलग होने पर “अपनी दूकान-स्वयं मालिक” की स्थिति में आ जाएगी. मोदी की खुलेआम
उम्मीदवारी का यह तो हुआ सबसे पहला फायदा... अब आगे बढ़ते हैं और उत्तरप्रदेश चलते
हैं, जहाँ नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी से भाजपा को २०१४ के चुनावों में कैसे और
कितना फायदा होगा, यह समझते हैं.
१) नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद
का उम्मीदवार घोषित करके भाजपा उन्हें दो सीटों से चुनाव लडवाए... पहली गांधीनगर
और दूसरी लखनऊ. गांधीनगर में तो मोदी का जीतना तय है ही, परन्तु लखनऊ में नरेंद्र
मोदी के लोकसभा चुनाव में उतारते ही, उत्तरप्रदेश की राजनीति का माहौल ही बदल
जाएगा. लखनऊ और इसके आसपास रायबरेली, फैजाबाद, अमेठी, कानपुर सहित लगभग २० सीटों पर मोदी सीधा प्रभाव डालेंगे. चूंकि
नरेंद्र मोदी को प्रचार के लिए गांधीनगर में अधिक समय नहीं देना पड़ेगा, इसलिए
स्वाभाविक रूप से मोदी लखनऊ और बाकी उत्तरप्रदेश में चुनाव प्रचार में अधिक समय दे
सकेंगे. भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने में बाकी का काम खुद “सेकुलर मीडिया” कर
देगा. क्योंकि मोदी की उम्मीदवारी घोषित होते ही उत्तरप्रदेश में
सपा-बसपा-कांग्रेस के बीच मुस्लिम वोटों को रिझाने की ऐसी घमासान मचेगी, कि भाजपा
की कोशिश के बिना भी अपने-आप वोटों का ध्रुवीकरण शुरू हो जाएगा. चूंकि कल्याण सिंह
भाजपा में वापस आ ही चुके हैं, योगी आदित्यनाथ भी खुलकर नरेंद्र मोदी का साथ देने
की घोषणा पहले ही कर चुके हैं, तो इस स्थिति में यदि भाजपा “हिन्दुत्व” शब्द का
उच्चारण भी न करे, तब भी मीडिया और “सेकुलर”(?) पार्टियां जैसा “छातीकूट अभियान” चलाएंगी, वह भाजपा के पक्ष में
ही जाएगा.
२) मोदी को लखनऊ सीट से उतारने तथा
उत्तरप्रदेश में गहन प्रचार करवाने का दूसरा फायदा यह होगा कि इस कदम से उत्तप्रदेश
के जातिवादी नेताओं तथा जातिगत वोटों की राजनीति पर भी इसका असर पड़ेगा. जैसा कि
सभी जानते हैं नरेंद्र मोदी “घांची” समुदाय से आते हैं, जो कि “अति-पिछड़ी जाति”
वर्ग में आता है, तो स्वाभाविक है कि मोदी की उम्मीदवारी से एक तरफ भाजपा के खिलाफ
जारी “ब्राह्मणवाद” का नारा भी भोथरा हो जाएगा, दूसरी तरफ मुलायम से नाराज़ पिछड़े
वोटरों में सेंध लगाने में भी मदद मिलेगी.
३) मोदी की उत्तरप्रदेश से
उम्मीदवारी का तीसरा लाभ यह होगा कि “झगडालू बीबी” टाइप के उत्तरप्रदेश के जितने
भी भाजपा नेता हैं, उन पर एक अदृश्य नकेल कस जाएगी. इन नेताओं में से अधिकाँश
नेता(?) ऐसे हैं जो खुद को मुख्यमंत्री से कम समझते ही नहीं हैं, ये बात और है कि
इनमें से किसी ने भी उत्तरप्रदेश में भाजपा को उंचाई पर ले जाने के लिए कोई विशेष
योगदान नहीं दिया है. नरेंद्र मोदी जैसे कद्दावर नेता के उप्र के परिदृश्य पर आने
तथा मोदी को मिलने वाले अपार जनसमर्थन को देखते हुए, इन स्थानीय नेताओं को ज्यादा
कुछ बताने-समझाने की जरूरत नहीं रहेगी. इस सारी कवायद में सबसे अहम् रोल डॉक्टर
मुरलीमनोहर जोशी का होना चाहिए, जिन्हें अपना कुशल निर्देशन देना
होगा.
इस प्रकार हमने देखा
कि, नरेंद्र मोदी को उत्तरप्रदेश से चुनाव लड़वाने के तीन सीधे फायदे, और एक
अप्रत्यक्ष फायदा (नीतीश की अफसरी से छुटकारा) मिलेंगे. जयललिता, और बादल पहले ही मोदी के नेतृत्व
को स्वीकार कर चुके हैं, बालासाहेब ठाकरे अब रहे नहीं, इसलिए उद्धव ठाकरे को भी नरेंद्र मोदी सहज स्वीकार्य हो जाएंगे,
उत्तरप्रदेश में कल्याण सिंह की भाजपा में वापसी हो ही चुकी है, उमा भारती को भी उप्र में ही
सक्रिय रहते हुए मप्र से दूर रहने की
हिदायत दी जा चुकी है, नीतीश कुमार की परवाह करने की कोई जरूरत
नहीं है, यह बात भी अंदरखाने तो मान ही ली गयी है. यानी अब रह जाते
हैं ममता, पटनायक, और शरद पवार, तो ये लोग उसी पार्टी की तरफ हो लेंगे जिसके पास
२०० सीटों का जादुई आँकड़ा हो जाएगा. ऐसे में यदि नरेंद्र मोदी भाजपा को
उत्तरप्रदेश में लगभग ४० सीटें और बिहार में २५ सीटें भी दिलवाने में कामयाब हो
जाते हैं, और मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ को
मिलाकर भाजपा २०० सीटों के आसपास भी पहुँच जाती है तो “थाली के बैंगनों”” को भाजपा की तरफ
लुढकते देर नहीं लगेगी, तय जानिये कि इन “बैंगनों” और “बिना पेंदी के लोटों”
द्वारा इस स्थिति में “सेकुलरिज्म” की परिभाषा भी रातोंरात बदल दी जाएगी. वैसे भी जब मायावती खुल्लमखुल्ला दलित-कार्ड खेल सकती हैं, मुलायम भी खुल्लमखुल्ला "यादव-मुल्ला" कार्ड खेल सकते हैं, जब कांग्रेस मनरेगा-कैश सब्सिडी जैसी "मुफ्तखोरी" वाली वोट बैंक राजनीति खेल सकती है, तो भाजपा को "हिंदुत्व" का कार्ड खेलने मे कैसी शर्म?
अब लगे हाथों “बुरी
से बुरी स्थिति” पर भी विचार कर लिया जाए. यदि भाजपा की २०० सीटें आ भी जाएं तब भी
भाजपा को १९९८ वाली गलती नहीं दोहरानी चाहिए, जब वाजपेयी जी ने “२५ बैंगनों और
लोटों”” को मिलाकर
सरकार बनाने की जल्दबाजी कर ली, फिर उनकी नाजायज़ शर्तों और बेहिसाब मांगों के बोझ
तले दबकर उनके घुटने तक खराब हो गए थे. अबकी बार भाजपा को “अपनी शर्तों” व “अपने
घोषणापत्र” पर बिना शर्त समर्थन देने वाले दलों को ही साथ लेना चाहिए. यदि नरेंद्र
मोदी को उप्र में आगे करते हुए भाजपा किसी तरह २०० (या १८०) सीटें लाने में कामयाब
हो जाती है, और फिर भी पिछले २० साल से “सेकुलरिज्म” के नाम पर चलने वाला “गन्दा
खेल” इन क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस के पाले में धकेल देता है, तो सबसे बेहतर उपाय
यही होगा कि भाजपा नरेंद्र मोदी को नेता प्रतिपक्ष बनाकर २०१४ में विपक्ष में
बैठे, क्योंकि जो भी सरकार बनेगी, वह अधिक चलेगी नहीं. इसी बहाने नरेंद्र मोदी का नेता
प्रतिपक्ष के रूप में “एसिड टेस्ट” भी हो जाएगा, जो उससे अगले लोकसभा चुनाव में
काम आएगा, तथा जब एक बार भाजपा “अपनी शर्तों” पर अड़कर बात करेगी तो अन्य दल और आम
जनता भी पहले से अपनी “मानसिक तैयारी” बनाकर चलेंगे. गाँधी नगर में चुनाव जीतने में मोदी को विशेष दिक्कत नहीं होगी, लेकिन यदि नरेंद्र मोदी लखनऊ सीट से भी जीत जाते हैं, तो यह संकेत भी जाएगा कि अब "नरेंद्र मोदी का पाँव आडवाणी-वाजपेयी जी के जूते में बराबर फिट बैठने लगा है" जो कि बहुत गूढ़ और महत्वपूर्ण सन्देश और संकेत होगा.
संक्षेप
में कहें तो आम जनता अब कांग्रेस के घोटालों, नाकामियों और लूट से बुरी तरह परेशान
हो चुकी है, वह किसी “दबंग” किस्म के प्रधानमंत्री की राह तक रही है. गुजरात के
विकास को मॉडल बनाकर, नरेंद्र मोदी को उत्तरप्रदेश के लखनऊ से चुनाव में उतारने की
चाल तुरुप का इक्का साबित होगी. इस मुहिम में हमारा तथाकथित “राष्ट्रीय और सेकुलर
मीडिया”(?) ही भाजपा को सबसे अधिक लाभ पहुंचाएगा, क्योंकि जैसा कि मैंने पहले कहा,
मोदी की प्रधानमंत्री पद पर उम्मीदवारी की घोषणा मात्र से कई चैनलों व स्वयंभू
सेकुलरों को “हिस्टीरिया”, “मिर्गी”, “पेटदर्द” और “दस्त” की शिकायत हो
जाएगी, यह बात तय जानिये कि नरेंद्र मोदी
का “जितना और जैसा” विरोध किया जाएगा, वह भाजपा को फायदा ही पहुंचाएगा. अब यह
संघ-भाजपा नेतृत्व पर है कि वह कितनी जल्दी नरेंद्र मोदी को अपना “घोषित”
उम्मीदवार बनाते हैं, क्योंकि अब अधिक समय नहीं बचा है.
=======================
अंत
में एक मास्टर स्ट्रोक – स्वयं नरेंद्र मोदी को उचित समय देखकर एक घोषणा करनी
चाहिए, कि वे “निजी यात्रा” (जी हाँ, निजी यात्रा... जिसमे न कोई इन्टरव्यू होगा,
न कोई प्रेस विज्ञप्ति होगी), हेतु अयोध्या में राम मंदिर के दर्शनों के लिए जा रहे
हैं, बस!!! बाकी का काम तो मीडिया कर ही देगा... जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, राजनीति में "संकेत द्वारा दिया गया सन्देश" बहुत महत्वपूर्ण होता है, इसलिए मोदी की अयोध्या के राम मंदिर की "निजी धर्म यात्रा" के संकेत जहाँ पहुँचने चाहिए, वहाँ पहुँच ही जाएंगे, और नरेंद्र मोदी के "अंध-विरोध" से ग्रसित मीडिया की रुदालियों का फायदा भी भाजपा को ही मिलेगा...
-
सुरेश चिपलूनकर
Published in
ब्लॉग
बुधवार, 02 जनवरी 2013 19:45
Narendra Modi Phenomenon : Hindutva Leader Increasing Impact (Part-5)
नरेन्द्र मोदी "प्रवृत्ति" का उद्भव एवं विकास... भाग-५ (अंतिम भाग)
=============
२००१ में नरेंद्र मोदी को गुजरात भेजा गया. २००२ में गोधरा में ट्रेन की बोगी जलाई गई और ५६ हिन्दू जिन्दा जल गए. इस घटना के खिलाफ गुजरात में जो आक्रोश पैदा हुआ, उसने गुजरात के दंगों को जन्म दिया. हालांकि गुजरात के लिए दंगे कोई नई घटना नहीं थी. २००२ से पहले गुजरात में प्रतिवर्ष ८-१० दंगे होना मामूली बात थी. लेकिन २००२ के इन दंगों में जिस तरह नरेंद्र मोदी ने “दंगाई मुसलमानों” के खिलाफ कठोर रुख अपनाया, उसने १९८४ से हिंदुओं के लगातार धधकते और खौलते मन को थोड़ी राहत पहुंचाई और वह नरेंद्र मोदी की कार्यशैली का दीवाना होने लगा. रही-सही कसर “तथाकथित सेकुलर मीडिया” ने पूरी कर दी, जिसने लगातार नरेंद्र मोदी के खिलाफ दुष्प्रचार का अभियान चलाया. भारतीय “सेकुलर”(???) मीडिया का व्यवहार, कवरेज और रिपोर्टिंग ऐसी थी मानो २००२ के गुजरात के दंगों से पहले और बाद में समूचे भारत में कोई दंगा हुआ ही नहीं. नरेंद्र मोदी के विरोध (इसे मुसलमान वोटों को खुश करने पढ़ा जाए) में “पेड” मीडिया, कांग्रेस, कथित सेकुलर बुद्धिजीवी, NGO चलाने वाले कई “गैंग्स” इतने नीचे गिरते चले गए कि उन्होंने गुजरात की छवि को पूरी तरह से नकारात्मक पेश करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी. हिन्दू वोटर जो पहले से ही शाहबानो, रूबिया सईद, मस्त गुल, कंधार विमान अपहरण तथा वाजपेयी की सरकार गिराने के लिए की गई “सेकुलर गिरोहबाजी” से त्रस्त और आहत था, वह नरेंद्र मोदी को अकेले मुकाबला करते देख और भी मजबूती से उनके पीछे खड़ा हो गया. नरेंद्र मोदी ने भी इस “विशाल हिन्दू मानस” को निराश नहीं किया, और उन्होंने अपनी ही शैली में इस बिकाऊ मीडिया को मुंहतोड जवाब दिया, साथ ही नरेंद्र मोदी गुजरात में विकास की लहर उत्पन्न करने में भी सफल रहे. २००२ के चुनावों पर दंगों की छाया थी, जबकि २००७ में भी कांग्रेस ने वही “गंदा धार्मिक खेल” खेलने की कोशिश की, नरेंद्र मोदी को “मौत का सौदागर” तक कहा गया, लेकिन २००२ में भी “तथाकथित धर्मनिरपेक्ष” भांडों ने मुँह की खाई, २००७ में भी नरेंद्र मोदी ने अकेले ही उन्हें पछाड़ा. इस बीच हिन्दू युवा ने अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा संसद पर हमले के बाद पाकिस्तान को दी गई गीदड-भभकी भी देखी जब वाजपेयी ने सेना का एक गंभीर मूवमेंट पाकिस्तान की सीमा तक कर दिया. सेना के इस विशाल मूवमेंट पर भारी खर्च हुआ, लेकिन वाजपेयी उस समय भी पाकिस्तान को "अच्छा-खासा" सबक सिखाने की हिम्मत न जुटा सके, और सेना को बेरंग वापस अपनी-अपनी बैरकों में लौटा दिया गया. जले पर नमक छिड़कने के तौर पर वाजपेयी ने कारगिल के खलनायक मुशर्रफ को भी आगरा में शिखरवार्ता के लिए ससम्मान बुला लिया... वे वाजपेयी ही थे, जिन्होंने नरेंद्र मोदी को "राजधर्म" निभाने की सलाह भी दी थी. यह सब देखकर "मन ही मन खदबदाता" हिन्दू युवा NDA की सरकार से निराश और हताश हो चला था. परन्तु ऐसे विपरीत समय में भी नरेंद्र मोदी अपनी अक्खड़ शैली, मीडिया के सांड को सींग से पकड़कर पटकने और सेकुलरों को मुंहतोड जवाब देते हुए लगातार गुजरात में डटे रहे, सभी हिन्दू-विरोधी ताकतों की नाक पर मुक्का जमाते हुए उन्होंने एक के बाद दूसरा चुनाव भी जीता, और वे हिन्दू युवाओं के दिलों पर छा गए.
===============
२००१ में नरेंद्र मोदी को गुजरात भेजा गया. २००२ में गोधरा में ट्रेन की बोगी जलाई गई और ५६ हिन्दू जिन्दा जल गए. इस घटना के खिलाफ गुजरात में जो आक्रोश पैदा हुआ, उसने गुजरात के दंगों को जन्म दिया. हालांकि गुजरात के लिए दंगे कोई नई घटना नहीं थी. २००२ से पहले गुजरात में प्रतिवर्ष ८-१० दंगे होना मामूली बात थी. लेकिन २००२ के इन दंगों में जिस तरह नरेंद्र मोदी ने “दंगाई मुसलमानों” के खिलाफ कठोर रुख अपनाया, उसने १९८४ से हिंदुओं के लगातार धधकते और खौलते मन को थोड़ी राहत पहुंचाई और वह नरेंद्र मोदी की कार्यशैली का दीवाना होने लगा. रही-सही कसर “तथाकथित सेकुलर मीडिया” ने पूरी कर दी, जिसने लगातार नरेंद्र मोदी के खिलाफ दुष्प्रचार का अभियान चलाया. भारतीय “सेकुलर”(???) मीडिया का व्यवहार, कवरेज और रिपोर्टिंग ऐसी थी मानो २००२ के गुजरात के दंगों से पहले और बाद में समूचे भारत में कोई दंगा हुआ ही नहीं. नरेंद्र मोदी के विरोध (इसे मुसलमान वोटों को खुश करने पढ़ा जाए) में “पेड” मीडिया, कांग्रेस, कथित सेकुलर बुद्धिजीवी, NGO चलाने वाले कई “गैंग्स” इतने नीचे गिरते चले गए कि उन्होंने गुजरात की छवि को पूरी तरह से नकारात्मक पेश करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी. हिन्दू वोटर जो पहले से ही शाहबानो, रूबिया सईद, मस्त गुल, कंधार विमान अपहरण तथा वाजपेयी की सरकार गिराने के लिए की गई “सेकुलर गिरोहबाजी” से त्रस्त और आहत था, वह नरेंद्र मोदी को अकेले मुकाबला करते देख और भी मजबूती से उनके पीछे खड़ा हो गया. नरेंद्र मोदी ने भी इस “विशाल हिन्दू मानस” को निराश नहीं किया, और उन्होंने अपनी ही शैली में इस बिकाऊ मीडिया को मुंहतोड जवाब दिया, साथ ही नरेंद्र मोदी गुजरात में विकास की लहर उत्पन्न करने में भी सफल रहे. २००२ के चुनावों पर दंगों की छाया थी, जबकि २००७ में भी कांग्रेस ने वही “गंदा धार्मिक खेल” खेलने की कोशिश की, नरेंद्र मोदी को “मौत का सौदागर” तक कहा गया, लेकिन २००२ में भी “तथाकथित धर्मनिरपेक्ष” भांडों ने मुँह की खाई, २००७ में भी नरेंद्र मोदी ने अकेले ही उन्हें पछाड़ा. इस बीच हिन्दू युवा ने अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा संसद पर हमले के बाद पाकिस्तान को दी गई गीदड-भभकी भी देखी जब वाजपेयी ने सेना का एक गंभीर मूवमेंट पाकिस्तान की सीमा तक कर दिया. सेना के इस विशाल मूवमेंट पर भारी खर्च हुआ, लेकिन वाजपेयी उस समय भी पाकिस्तान को "अच्छा-खासा" सबक सिखाने की हिम्मत न जुटा सके, और सेना को बेरंग वापस अपनी-अपनी बैरकों में लौटा दिया गया. जले पर नमक छिड़कने के तौर पर वाजपेयी ने कारगिल के खलनायक मुशर्रफ को भी आगरा में शिखरवार्ता के लिए ससम्मान बुला लिया... वे वाजपेयी ही थे, जिन्होंने नरेंद्र मोदी को "राजधर्म" निभाने की सलाह भी दी थी. यह सब देखकर "मन ही मन खदबदाता" हिन्दू युवा NDA की सरकार से निराश और हताश हो चला था. परन्तु ऐसे विपरीत समय में भी नरेंद्र मोदी अपनी अक्खड़ शैली, मीडिया के सांड को सींग से पकड़कर पटकने और सेकुलरों को मुंहतोड जवाब देते हुए लगातार गुजरात में डटे रहे, सभी हिन्दू-विरोधी ताकतों की नाक पर मुक्का जमाते हुए उन्होंने एक के बाद दूसरा चुनाव भी जीता, और वे हिन्दू युवाओं के दिलों पर छा गए.
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जैसी कि उम्मीद थी, २०१२
के गुजरात के चुनाव परिणामों ने ठीक वही रुख दिखाया है. एक अकेले व्यक्ति नरेंद्र
मोदी ने अपनी लोकप्रियता, रणनीति और वाकचातुर्य के जरिए उनके खिलाफ चुनाव लड़ रहे
मुख्यधारा(?) के मीडिया, NGOवादी गैंग के गुर्गों, अपनी ही पार्टी के कुछ विघ्नसंतोषियों, और
कांग्रेस को जिस तरह चूल चटाई वह निश्चित रूप से काबिले-तारीफ़ है. इस सूची में
मैंने कांग्रेस को सबसे अंत में इसलिए रखा क्योंकि इस चुनाव में गुजरात में
कांग्रेस चुनाव लड़ ही नहीं रही थी, वह तो कहीं मुकाबले में थी ही नहीं. गुजरात में
कांग्रेस की दुर्गति के दो-तीन उदाहरण दिए जा सकते हैं – पहला तो यह कि पिछले दस
साल में नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस एक ठीक-ठाक सा
कांग्रेसी तक तैयार नहीं कर सकी और उसे संदिग्ध आचरण वाले पुलिस अफसर संजीव भट्ट
की पत्नी को मोदी के खिलाफ उतारना पड़ा, दूसरा यह कि मोदी के खिलाफ चुनाव जीतने के
लिए जिन दो प्रमुख व्यक्तियों पर कांग्रेस निर्भर थी, अर्थात केशुभाई पटेल और
शंकरसिंह वाघेला, दोनों ही RSS के पूर्व स्वयंसेवक हैं, और चुनाव से पहले ही हार मान लेने का गिरता
कांग्रेसी मनोबल तीसरे कारण में दिखाई देता है कि देश के इतिहास में यह ऐसा पहला
चुनाव था जिसमें समूचे गुजरात में जो पोस्टर लगाए गए थे उनमें से किसी में भी
गांधी परिवार के किसी सदस्य की फोटो तक नहीं लगाईं गई. इन्हीं तीनों कारणों से पता
चलता है कि वास्तव में कांग्रेस चुनाव से पहले ही हार मान चुकी थी, इसीलिए उनके
स्टार(?) प्रचारक राहुल गांधी ने १८२ सीटों में से सिर्फ ७ पर प्रचार किया.
बहरहाल, काँग्रेस की
दुर्दशा से नरेंद्र मोदी की उपलब्धि कम नहीं हो जाती, बल्कि और भी बढ़ जाती है कि
पिछले १० साल में नरेंद्र मोदी ने अपनी “विकासवादी कार्यशैली” के कारण गुजरात से
विपक्ष को लगभग समाप्त कर दिया (भाजपा के अन्य मुख्यमंत्री इस से सबक लें).
हिंदुत्व के साथ विकास के मिश्रण का जो “कॉकटेल” नरेंद्र मोदी ने पेश किया है, यदि
भाजपा के मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्यों में तथा भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व समूचे
देश में लागू करने के बारे में जल्दी विचार करें, तभी २०१४ के आम चुनावों में
पार्टी की संभावनाएं काफी उज्जवल बन सकेंगी. वास्तव में नरेंद मोदी ने आधा चुनाव
तो उसी दिन जीत लिया था, जब सदभावना मिशन के तहत एक मंच पर उन्होंने एक मौलाना
द्वारा “सफ़ेद जालीदार टोपी” पहनने से इंकार कर दिया था. उसी दिन उन्होंने यह
सन्देश दे दिया था कि वे गुजरात में, इस “सेकुलर पाखण्ड” से भरी नौटंकी को नहीं
अपनाएंगे, बल्कि बिना किसी भेदभाव के “विकासवादी मुसलमानों” को साथ लेकर चलेंगे.
इसी का नतीजा रहा कि गुजरात की १२ मुस्लिम बहुल सीटों में से ९ सीटों पर भाजपा
विजयी हुई, इसमें से एक विधानसभा क्षेत्र जमालपुर खड़िया तो ८०% मुस्लिम आबादी वाला
है जहाँ से आज तक कोई हिन्दू उम्मीदवार नहीं जीता था, परन्तु वहाँ से भी मोदी की
पसंद के हिन्दू उम्मीदवार ने जीत दर्ज की. अर्थात नरेंद्र मोदी ने इस तथाकथित
“सेकुलर मिथक” को बुरी तरह तोड़-मरोड़ दिया है कि मुस्लिमों के साथ बहलाने-फुसलाने
की राजनीति ही चलेगी. उन्होंने दिखा दिया कि गुजरात के मुस्लिम भी “आम इन्सान” ही
हैं और उन्हें भी बिना किसी तुष्टिकरण के विकास की मुख्यधारा में लाया जा सकता
है.
अब सवाल उठता है कि आखिर गुजरात की जनता ने नरेंद्र मोदी में ऐसा
क्या देखा? जवाब है, त्वरित निर्णय लेने की क्षमता, उन निर्णयों को अमल में लाने
के लिए पूरी ताकत झोंक देना और भाषणों में, बैठकों में, सभाओं में, चालढाल में
उनकी विशिष्ट “दबंग स्टाइल”, जिसने युवा मतदाताओं को भारी आकर्षित किया. जिस समय
नरेंद्र मोदी मणिनगर में अपना मतदान करने जा रहे थे, तब उनके वाहन के चारों तरफ
जिस तरह से हजारों युवाओं की भारी भीड़ जमा थी, नारे लग रहे थे, खुशी में मुठ्ठियाँ
लहराई जा रही थीं उसे देखकर किसी “रॉक-स्टार” का आभास होता था. अर्थात जो
“नरेन्द्र मोदी प्रवृत्ति” १९८४ से अंकुरित होना शुरू हुई थी, १९९६ और २००२ में
पल्लवित हुई और २०१२ आते-आते वटवृक्ष बन चुकी थी.
चाहे नर्मदा के पानी को किसी भी कीमत पर सौराष्ट्र तक पहुंचाने की
बात हो, उद्योगों को बंजर भूमि दान करते हुए किसी क्षेत्र का विकास करना हो, या
फिर “विशाल सौर ऊर्जा पार्क” तथा नर्मदा नहरों के ऊपर सोलर-पैनल लगाकर बिजली
उत्पादन के नए-नए आइडिया लाने हों, नरेंद्र मोदी ने अपनी कार्यशैली से इसे पूरा कर
दिखाया. रही-सही कसर ३-डी प्रचार ने पूरी कर दी, ३-डी के जरिए प्रचार के आइडिये ने
कांग्रेस को पूरी तरह धराशायी कर दिया, उन्हें समझ ही नहीं आया कि इस अजूबे का
मुकाबला कैसे करें? जहाँ कांग्रेस के नेता एक दिन में ३-४ सभाएं ही कर पाते थे,
उतने ही खर्च में नरेंद्र मोदी अपने घर बैठे ३६ सभाओं को संबोधित कर देते थे. सोशल
नेट्वर्किंग पर फैले अपने हजारों फैन्स और कार्यकर्ताओं के जरिए उनकी बात पलक
झपकते लाखों लोगों तक पहुँच जाती थी. मुख्यधारा के मीडिया द्वारा किये गए
नकारात्मक प्रचार के बावजूद मोदी के सकारात्मक और विकास कार्यों को सोशल मीडिया ने
जनता तक पहुंचा ही दिया. आगे की राह आसान थी...
गुजरात के इन परिणामों ने जहाँ एक ओर विपक्षियों की नींद उडाई है,
वहीं दूसरी तरफ भाजपा के अंदर भी मंथन शुरू हो चुका है. निम्न-मध्यम और उच्च-मध्यम
वर्ग तथा युवाओं के बीच नरेंद्र मोदी ने जैसी छवि कायम की है, उसे देखते हुए शीर्ष
नेतृत्व मोदी की अगली भूमिका के बारे में गहराई से सोचने पर मजबूर हो गया है.
वास्तव में २०१४ के आम चुनावों में संघ-भाजपा को उत्तरप्रदेश और बिहार में प्रचार
के लिए नरेंद्र मोदी जैसा व्यक्ति ही चाहिए, जो मायावती और मुलायम को उन्हीं की
भाषा में, उन्हीं की शैली में ठोस जवाब दे सके, साथ ही जातिवाद और मुस्लिम
तुष्टिकरण के दलदल में फंसे इन राज्यों के भाजपा कैडर में संजीवनी फूंक सके. इस
भूमिका में नरेंद्र मोदी एकदम फिट बैठते हैं. उत्तरप्रदेश के हालिया निगम चुनावों
में कुछ उम्मीदवार मोदी के पोस्टर और स्टीकर लिए दिखाई दिए, सन्देश स्पष्ट है कि
चूंकि उत्तरप्रदेश के भाजपा नेता “झगड़ालू औरतों” की तरह सतत आपस में लड़ रहे हैं
तथा उनमे से कोई भी मुलायम-मायावती का विकल्प देने की स्थिति में नहीं दिखता इसलिए
मतदाता भाजपा को वोट नहीं देता, जिस दिन नरेंद्र मोदी वहाँ जाकर बिगुल फूँकेंगे,
उसी दिन से स्थिति बदलना शुरू हो जाएगी.
१९९१ से १९९९ तक उत्तरप्रदेश में भाजपा की
लगभग ५० सीटें आती थीं, लेकिन जब से भाजपा को सत्ता-प्रेम ने डस लिया और उसने
“हिंदुत्व” के मुद्दे को ताक पर रख दिया, उसी दिन से वह पतन की राह पर निकल पडी.
नरेंद्र मोदी की जो लोकप्रियता आज दिखाई दे रही है, वह उसी हिन्दू मन की दबी हुई
आहट है जो सेकुलरिज्म की विकृति और नापाक गठबंधन की राजनीति के चलते बलपूर्वक दबा
दी गयी थी. हिन्दू युवा पूछ रहा था कि जब मायावती दलित कार्ड खेल सकती हैं, मुलायम
यादव-मुस्लिम कार्ड खेल सकते हैं, ममता और नीतिश भी मुस्लिम कार्ड खेल सकते हैं,
यहाँ तक कि कांग्रेस भी “पैसा बाँटो और वोट खरीदो” की देश-डूबाऊ राजनीति कर सकती
है, तो आखिर भाजपा को हिंदुत्व की राजनीति करने में क्या परहेज़ है? इसका जवाब
नरेंद्र मोदी ने गुजरात में “हिंदुत्व को विकास” के साथ जोड़कर दिया है. लगातार
सेकुलरिज्म-सेकुलरिज्म का भजन करने वाले दलों तथा २००१ के दंगों को लेकर सदा
मीडिया ट्रायल चलाने वाले पत्रकारों को भी “मजबूरी में” २०१२ के चुनावों में इन
मुद्दों को दूर रखना पड़ा. यही “नरेंद्र मोदी प्रवृत्ति” की सफलता है, जिसे भाजपा
के केन्द्रीय नेतृत्व ने उत्तरप्रदेश में भुला दिया था. अब उत्तरप्रदेश और बिहार
के मुसलमानों को यह सोचना है कि क्या उन्हें “तथाकथित सेकुलर” पार्टियों का मोहरा
बनकर ही जीना है (जैसा कि पिछले ६० साल से होता आ रहा है), या फिर वे भी गुजरात के
मुसलमानों की तरह नरेंद्र मोदी का साथ देते हुए विकास के मार्ग पर चलेंगे, जहाँ
कोई तुष्टिकरण न हो, बल्कि सभी के लिए समान अवसर हों. नरेंद्र मोदी की
अन्तर्राष्ट्रीय छवि को देखते हुए उनमें यह क्षमता है कि वे यूपी-बिहार की किस्मत
सँवार सकते हैं, २०१४ में यह मौका होगा जब तय होगा कि क्या यूपी-बिहार जातिवाद के
दलदल से बाहर निकलेंगे?
गुजरात चुनावों में मोदी की जीत के बाद एक SMS बहुत वितरित हुआ था कि,
“दबंग-२ से पहले गुजरात में सिंघम-३ रिलीज़ हो गई”... यह SMS आधुनिक भारत के युवा मन की
भावना को व्यक्त करता है, कि अब युवाओं को “दब्बू” और “अल्पभाषी” किस्म के तथा ऊपर
से थोपे गए “राजकुमार” टाइप के नेता स्वीकार्य नहीं हैं. भारत का युवा चाहता है कि
देश का नेतृत्व किसी निर्णायक किस्म के दबंग व्यक्ति के हाथों में होना चाहिए, जो पाकिस्तान
से उसी की भाषा में बात कर सके, जो त्वरित निर्णय ले, जो देशहित में नवीनतम तकनीक
का उपयोग करे, जिसके प्रति अफसरशाही के दिल में “भयमिश्रित सम्मान” हो... इन सभी
शर्तों पर नरेंद्र मोदी खरे उतरते हैं. २००१ से पहले नरेंद्र मोदी ने ३० साल तक एक
संघ प्रचारक-स्वयंसेवक के रूप में भाजपा की सेवा की, कभी कोई पद नहीं माँगा, कभी
कोई शिकायत नहीं की. सच्चा कार्यकर्ता ऐसा ही होता है. इसीलिए नरेंद्र मोदी ने
गुजरात प्रशासन को जनोन्मुख बनाया और विकास की सभी योजनाओं में जन-सुविधा का ख़याल
रखा. नतीजा सामने है कि नरेंद्र मोदी ने लगातार तीसरी बार दो तिहाई बहुमत से
गांधीनगर पर भगवा लहरा दिया है. इसे हम “नरेन्द्र मोदी प्रवृत्ति” का एक और सोपान
कह सकते हैं.
संक्षेप में तात्पर्य यह है कि नरेंद्र मोदी ने पहला चरण पार कर लिया
है, उनके लिए दिल्ली में मंच सज चुका है, संभवतः नरेंद्र मोदी अगले ६ माह या एक
वर्ष के भीतर ही भाजपा में किसी केन्द्रीय भूमिका में नज़र आ सकते हैं. हालांकि
विश्लेषक यह मान रहे हैं कि भाजपा के भीतर ही मोदी के लिए दिल्ली की राह इतनी आसान
नहीं है, परन्तु गुजरात और देश की जनता के मन में जैसा “मॉस हिस्टीरिया” नरेंद्र मोदी
ने पैदा किया है, उसका फिलहाल भाजपा में कोई मुकाबला नहीं है. संभावना तो यही बनती
है कि २०१४ के लोकसभा चुनावों में
“व्यक्तित्वों” का टकराव अवश्यम्भावी है. भाजपा में नरेंद्र मोदी जैसे “भीड़ खींचू”
नेता अब बिरले ही बचे हैं. सो, नरेंद्र मोदी का पहले भाजपा में, फिर NDA में और फिर प्रधानमंत्री
कार्यालय में अवतरित होना अब सिर्फ समय की बात है...
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ब्लॉग
गुरुवार, 22 नवम्बर 2012 17:07
Narendra Modi : Increasing Phenomenon (Part-4)
नरेन्द्र मोदी प्रवृत्ति का उदभव एवं विकास (भाग-4)
पिछले अंक से आगे… (पिछला भाग पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें... http://blog.sureshchiplunkar.com/2012/10/rise-of-narendra-modi-phenomena-part-3.html)
मित्रों… जैसा कि हम पिछले भागों में देख चुके हैं कि 1984 से लेकर 1998 तक
ऐसी तीन-चार प्रमुख घटनाएं और व्यवहार हुए जिन्होंने यह साबित किया कि देश में
मुस्लिम तुष्टिकरण न सिर्फ़ बढ़ रहा था, बल्कि वोट बैंक की घृणित राजनीति और “सेकुलरिज़्म” की विकृत परिभाषा ने
भाजपा-संघ-हिन्दुत्व को “अछूत” बना दिया।
1984 से 1998 की लोकसभा चुनाव तक का इतिहास हम देख चुके हैं, जिसमें शाहबानो
मामला, रूबिया सईद अपहरण मामला, चरार-ए-शरीफ़ और आतंकवादी मस्त गुल का मामला,
कश्मीर से षडयंत्रपूर्वक और धर्म के नाम पर हजारों कश्मीरी हिन्दुओं को यातनाएं
देकर भगाना और अपने ही देश में शरणार्थी का जीवन जीने को मजबूर करना… और 1998 में
सेकुलरिज़्म के नाम पर जिस तरह “सिर्फ़ एक वोट” से वाजपेयी जी की सरकार गिराई गई… ऐसी कई घटनाओं ने
हिन्दुओं के मन में आक्रोश भी भरा और उनके अंतःकरण को छलनी भी किया।
1999 के आम चुनावों में भी भाजपा का “प्रतिबद्ध वोटर” उसके साथ ही रहा और उसने 1998 की ही तरह भाजपा को 182
सीटें देकर पहले नम्बर पर ही रखा। जबकि कांग्रेस 114 सीटों के ऐतिहासिक न्यूनतम
संख्या पर पहुँच गई। ध्यान रहे कि इस समय तक जिस “प्रवृत्ति” की हम बात कर रहे हैं, वह नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय
परिदृश्य में कहीं भी नहीं थे, बल्कि मोदी का राष्ट्रीय स्तर पर प्रादुर्भाव 2002
में, अर्थात NDA सरकार बनने के तीन साल
बाद हुआ था, लेकिन हिन्दुओं के दिल में “मोदी प्रवृत्ति” का निर्माण तो शाहबानो मामले से ही हो गया था, जो
धीमे-धीमे बढ़ता जा रहा था।
बहरहाल, हम बात कर रहे थे 1999 के आम चुनावों की… भाजपा के प्रतिबद्ध हिन्दू
वोटरों का भाजपा की सरकार से पहली बार मोहभंग होना यहीं से शुरु हुआ। 182 सीटें
जीतने के बाद तथा लगातार दो बार (पहले 13 दिन और फ़िर 13 माह) की सरकारें गिर जाने
के बाद भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व यह साबित करना चाहता था कि वह भी गठबंधन सरकार
बनाकर कांग्रेस की ही तरह पूरे पाँच साल सरकार चला सकते हैं। इस गठबंधन सरकार को
बनाने (अर्थात कई सेकुलर दलों का समर्थन हासिल करने के लिए) भाजपा ने अपने तीन
प्रमुख मुद्दे (अर्थात राम मन्दिर निर्माण, कश्मीर से धारा 370 की समाप्ति की माँग
और समान नागरिक संहिता), जिनसे पार्टी की “पहचान” थी, उन्हीं को तिलांजलि दे डाली। इन तीनों ही मुद्दों को
भाजपा ने सत्ता हासिल करने और “कैसे भी हो पाँच साल सरकार चलाकर दिखाएंगे” की जिद की खातिर, ठण्डे बस्ते
में डाल दिया। हिन्दू वोटरों के दिल से भाजपा का विश्वास हिलने और “मोदी प्रवृत्ति” के विकास में इस “विश्वासघात” ने गहरा असर किया, क्योंकि अभी
तक (अर्थात 1998 तक) हिन्दुओं को लगता था कि जिस तरह अन्य पार्टियाँ अपने मुद्दों
पर ठोस स्वरूप में खड़ी रहती हैं, भाजपा भी वैसा ही करेगी, परन्तु जब उसने देखा कि
सिर्फ़ सरकार बनाने की जिद और पार्टी में धीरे-धीरे बढ़ते सत्ता-लोभ के कारण उसके
हृदय को छूने वाले तीनों प्रमुख मुद्दे ही पार्टी ने दरकिनार कर दिए हैं, तो उसका
दिल खट्टा हो गया। 1998 से पहले हिन्दुओं के दिल पर “गैरों” ने ठेस लगाई थी, 1999 की सरकार
बनाते समय पहले मजबूरी में आडवाणी की जगह अटल जी को लाने और बाद में इन तीनों
मुद्दों को त्यागने की वजह से पहली बार हिन्दू वोटरों का विश्वास भाजपा से हिल गया,
तब से लेकर आज तक पार्टी की फ़िसलन लगातार जारी है।
हालांकि पार्टी के बाहर से एक आम भाजपाई वोटर लगातार इस बात की पैरवी करता रहा
कि चूंकि भाजपा के पास 182 सीटें हैं और कांग्रेस के पास सिर्फ़ 114, तो ऐसी स्थिति
में भाजपा को अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के सामने इतना झुकने की आवश्यकता कतई नहीं
थी, क्योंकि उस स्थिति में भाजपा के बिना कोई भी सरकार बन ही नहीं सकती थी, पहले
करगिल युद्ध जीतने और कांग्रेस की छवि एकदम रसातल में पहुँच जाने के बाद यदि भाजपा
चाहती, तो उस समय इन तीनों मुद्दों पर अड़ सकती थी, लेकिन भाजपा के रणनीतिकारों को
क्षेत्रीय दलों से “सौदेबाजी” करना नहीं आया। उस समय भाजपा को
गठबंधन करना ही था तो “अपनी शर्तों” पर करना था, लेकिन हुआ उल्टा। सत्ता प्राप्त करने की जल्दी
में भाजपा ने अपने “कोर” मुद्दे तो छोड़ दिए, जबकि ममता
बनर्जी, चन्द्रबाबू नायडू जैसे क्षेत्रीय नायकों की “वसूली की कीमत” के आगे झुकती चली गई, जबकि यदि
भाजपा इस बात पर ज़ोर देती कि जो भी क्षेत्रीय दल इन तीनों मुद्दों पर हमारी बात
मानेगा, हम सिर्फ़ उसी का समर्थन लेंगे… तो मजबूरी में ही सही कई दलों को अपनी “सेकुलरिज़्म” की परिभाषा को सुविधानुसार
बदलने पर मजबूर होना ही पड़ता तथा भाजपा की छवि “अपने कोर वोटरों” के बीच चमकदार बनी रहती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, और धीरे-धीरे
1999 से 2004 के बीच पार्टी पर “प्रमोद महाजन टाइप” के लोगों का कब्जा होता चला गया… आडवाणी, कल्याण सिंह, उमा
भारती इत्यादि खबरों में तो रहे, लेकिन भाजपा को डस चुके “सेकुलरिज़्म” के नाग ने इन्हें दोबारा कभी भी
निर्णायक भूमिका में आने ही नहीं दिया। (नोट :- प्रमोद महाजन “टाइप” का अर्थ भी एक “विशिष्ट प्रवृत्ति” ही है, जिसने भाजपा को 1999 के
बाद अंदर से खोखला किया है, प्रमोद महाजन तो सिर्फ़ इस प्रवृत्ति का एक रूप भर हैं…
इस पर आगे किसी अन्य लेख में बात होगी… ठीक उसी प्रकार जैसे कि नरेन्द्र मोदी भी “मोदी प्रवृत्ति” का एक रूप भर हैं… अर्थात महाजन
न होते तो कोई और होता, और यदि मोदी न होते तो कोई और होता…)।
खैर… किसी तरह भाजपा ने NDA
नामक “कुनबा” जोड़-तोड़कर 1999 में सरकार बना
ली, और जिस “कोर” हिन्दू वोटर ने जिन मुद्दों पर
विश्वास करके भाजपा को वहाँ तक पहुँचाया था, वह बेचारा मन मसोसकर “सेकुलरिज़्म के ब्लैकमेल”, भाजपा के सत्ता प्रेम और अपने
ही मुद्दों को छोड़ने की “तथाकथित” मजबूरी को देखता-सहता रहा।
सन् 2000 के दिसम्बर में भाजपा नेतृत्व (अर्थात अटल-आडवाणी) को हिन्दू वोटरों
तथा समूचे देश के दिलों में अमिट छाप छोड़ने का एक अवसर मिला था, लेकिन अफ़सोसनाक और
शर्मनाक तरीके से वह भी गँवा दिया गया। जैसा कि हम सभी जानते हैं, दिसम्बर 2000 के
अन्तिम सप्ताह में IC-814 नामक फ़्लाइट का अपहरण
करके उसे कंधार ले जाया गया था, जहाँ पर भारत सरकार को पाँच खूंखार आतंकवादियों को
छोड़ना पड़ा था। हालांकि इस घटना के बारे में काफ़ी कुछ पहले ही लिखा जा चुका है,
परन्तु चूंकि मैं यहाँ भाजपा की गिरावट और “मोदी प्रवृत्ति” के उठाव के बारे में लिख रहा हूँ, इसलिए अधिक विस्तार से
इस घटना में न जाते हुए, संक्षेप में भाजपा पर पड़ने वाले इस घटना के दुष्परिणामों
के बारे में जानेंगे…
सन् 2000 आते-आते हमारे 24 घण्टे चलने वाले न्यूज़ चैनल और खबरों के प्रति उनकी
भूख और “लाइव तथा सबसे तेज” के प्रति उनकी अत्यधिक “वासना” के चलते, कंधार काण्ड में भी इस
मीडिया ने NDA सरकार (यानी
वाजपेयी-आडवाणी-जसवंत सिंह) को गहरे दबाव में ला दिया था। उस समय भी भारत के मीडिया ने लगातार इस विमान अपहरण के बारे
में “ब्रेकिंग न्यूज़” दे-देकर, विमान में सवार
यात्रियों के परिजनों के इंटरव्यू दिखा-दिखाकर और प्रधानमंत्री निवास के सामने
कैमरायुक्त धरने देकर, सरकार को इतना दबाव में ला दिया था कि सरकार ने पाँच बेहद
खतरनाक आतंकवादियों को छोड़ने का फ़ैसला कर लिया। हालांकि जो भाजपा का “कोर हिन्दू वोटर” था, उसका मन इसकी गवाही नहीं
देता था, लेकिन भाजपा ने तो उस वोटर के “साथ और सलाह” दोनों को कभी का त्याग दिया था, उस वोटर से पूछता ही कौन
था? अंततः बड़े ही अपमानजनक तरीके से एक रिटायर्ड फ़ौजी जसवन्त सिंह अपने साथ पाँच
खूंखार आतंकवादियों हवाई जहाज़ में बैठाकर कंधार ले गए, और वहाँ से उन “धनिकों और उच्चवर्गीय लोगों” को “छुड़ाकर”(???) लाए, जिन्होंने अपने जीवन
में शायद कभी भी भाजपा को वोट नहीं दिया होगा (ध्यान रहे कि सन 2000 में हवाई
यात्रा करने वाले अधिकांश लोग धन्ना सेठ और उच्चवर्गीय लोग ही होते थे), लेकिन जब
प्रधानमंत्री निवास के सामने रात-दिन इन धनवान लोगों ने रोना-पीटना मचा रखा हो,
तमाम चैनल लगातार वाजपेयी सरकार की असफ़लता(?) को गिनाए जा रहे हों, हर तरफ़ यह “डरपोक माहौल” बना दिया गया हो कि यदि
आतंकवादियों को नहीं छोड़ा तो “कयामत” का दिन नज़दीक आ जाएगा… इत्यादि के भौण्डे प्रदर्शन से कैसी
भी सरकार हो, दबाव में आ ही जाती। ऊपर से महबूबा मुफ़्ती अपहरण के समय छोड़े गए
आतंकवादियों का “अलौकिक
उदाहरण”(?) पहले से मौजूद था
ही, सो सारे तथाकथित पत्रकारों ने (जो खुद को देशभक्त बताते नहीं थकते थे) “आतंकवादियों को छोड़ो…
आतंकवादियों को छोड़ो… नागरिकों की जान बचाओ… यात्रियों को सकुशल वापस लाओ…” जैसा विधवा प्रलाप सतत 8 दिन तक
किए रखा।
ऐसे कठिन समय में देश के गृहमंत्री अर्थात आडवाणी से जिस कठोर मुद्रा की
अपेक्षा की जा रही थी, वह कहीं नहीं दिखाई दे रही थी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस
मुद्दे को मिलने वाले कवरेज के कारण लगातार हो रही जगहँसाई के सामने एक भी भाजपाई
नेता नहीं दिखा, जो तनकर खड़ा हो जाए और कह दे कि “हम आतंकवादियों की कोई माँग नहीं मानेंगे… उन्हें जो करना
हो कर लें”।
भाजपा का कोर हिन्दू वोटर जो एक मजबूत देश का मजबूत प्रधानमंत्री चाहता था, वह
अपेक्षित करता था कि वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी, व्लादिमीर पुतिन (चेचन्या के
आतंकवादियों द्वारा किया गया थियेटर बंधक काण्ड) की तरह ठोस और तत्काल निर्णय लेकर
या तो आतंकवादियों के सामने झुकने से साफ़ इंकार कर दे, या फ़िर इज़राइल की तरह
कमाण्डोज़ भेजकर उन्हें कंधार
में ही खत्म करवा दे… लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वाजपेयी-आडवाणी-जसवन्त की तिकड़ी ने 31
दिसम्बर 2000 को पाँच आतंकवादियों को रिहा कर दिया और हमारे तथाकथित “युवा” और “जोशीले” भारत ने बड़े ही पिलपिले,
शर्मनाक और लुँज-पुँज तरीके से 21वीं सदी में कदम रखा। उस दिन अर्थात 1 जनवरी 2001
को भारत के युवाओं और हताश-निराश भाजपा समर्थकों के मन में एक “दबंग” प्रधानमंत्री की लालसा जाग उठी
थी…। ध्यान रहे कि इस समय तक भी नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय परिदृश्य में कहीं नहीं
थे, परन्तु जैसी दबंगई नरेन्द्र मोदी ने, पिछले दस वर्षों में मीडिया, NGOs तथा निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा उनके खिलाफ़ चलाए जा रहे
अभियानों के दौरान दिखाई है… मध्यवर्गीय हिन्दू युवा इसी दबंगई के दीवाने हुए हैं
एवं “मोदी प्रवृत्ति” इसी का विस्तारित स्वरूप है।
कल्पना कीजिए कि यदि उस समय वाजपेयी-आडवाणी-जसवन्त सिंह कठोर निर्णय ले लेते, तो
आज भाजपा के माथे पर एक सुनहरा मुकुट होता तथा आतंकवाद से लड़ने की उसकी
प्रतिबद्धता के बारे में लोग उसे सर-माथे पर बैठाते… लेकिन भाजपा तो मुफ़्ती
मोहम्मद सईद और नरसिम्हाराव की कतार में जाकर बैठ गई, जिसने हिन्दू मानस को बुरी
तरह आहत किया…।
1998 से पहले तक, “पराए” शर्मनिरपेक्षों ने हिन्दू मन पर कई घाव दिए थे, लेकिन 1999
से 2001 के बीच जिस तरह से भाजपा के नेताओं ने “गठबंधन सरकार चलाने की मजबूरी”(?)(?) के नाम पर प्रमुख मुद्दों
से समझौते किए, उसे “अपनों
द्वारा ही, अपनों पर घाव” की तरह लिया गया… ज़ाहिर है कि जब कोई अपना चोट पहुँचाता है
तो तकलीफ़ अधिक होती है। इसलिए धीरे-धीरे हिन्दू कोर वोटर (जो आडवाणी की रथयात्रा
से उपजा था) जिसने भाजपा को 182 सीटों तक पहुँचाया था, भाजपा से छिटकने लगा और
भाजपा की ढलान शुरु हो गई, जो आज तक जारी है…। लेकिन हिन्दू दिलों में “नरेन्द्र मोदी प्रवृत्ति” का प्रादुर्भाव, जो कि 1985 में
“शाहबानो मसले” से शुरु हुआ था, वह 15 साल में “कंधार काण्ड” तथा खासकर “तीन कोर मुद्दों” को त्यागकर, सेकुलरिज़्म की राह
पकड़ने की कोशिशों की वजह से, मजबूती से जम चुका था…।
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मित्रों… 2001 से आगे हम अगले अंक में देखेंगे… क्योंकि 2002 में नरेन्द्र
मोदी का पहले गुजरात और फ़िर राष्ट्रीय परिदृश्य पर आगमन हुआ…। जबकि 2001 से 2004
के बीच भी NDA की सरकार के कार्यकाल
में कुछ और भी “कारनामे” हुए, जिसने अप्रत्यक्ष रूप से “दबंगई स्टाइल वाली मोदी
प्रवृत्ति” को
ही बढ़ावा दिया था।
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