मिशनरी गेम :- सेवा के बहाने धर्मान्तरण, लूट और षड्यंत्र
१९ वीं सदी में दुनिया में विस्तार पाते यूरोपीय साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हुए अपनी पुस्तक ‘ग्लिम्पसेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में जवाहरलाल नेहरु बताते है कि ये वो समय था जब कहा जाता था कि आगे बढ़ती सेना के झंडे का अनुसरण उसके देश का व्यापार करता था. और कई बार तो ऐसा भी होता था कि बाइबिल आगे-आगे चलती थी, और सेना उसके पीछे- पीछे.
चर्च और ईसा मसीह के मूल सिद्धांत ध्वस्त करता हुआ तथ्य
जीसस के भारत आने का विषय (Christ in India) आजकल बड़ा चर्चा में है. कुछ लोग ये कहतें हैं कि ईसा के भारत आगमन की बात ईसाई मिशनरियों की वृहद् योजना का हिस्सा है, ताकि वो यहाँ मतान्तरण की फसल काट सकें. इसलिये आज दो बातों की तहकीकात आवश्यक हो जाती है. पहली ये कि ईसा को भारत से जोड़ना क्या मिशनरियों की किसी योजना का हिस्सा है?? और दूसरा ये कि मसीह के भारत आगमन (Jesus was in India) का प्रचार करने से फ़ायदा किसका हो रहा है? हमारा या मिशनरियों का?
जहाँ तक मेरी समझ है इसके अनुसार मसीह के भारत आगमन का विषय मिशनरियों के किसी योजना का हिस्सा नहीं है, बल्कि वो तो इससे चिढतें हैं और दूसरा ये कि उनको इस विषय से फायदे की जगह नुकसान ही हुआ है और आगे भी होगा. ऐसा कहने के पीछे का मेरा आधार है ईसाईयत का वह विश्वास, जो कि उनका मूल आधार (Basics of Christianity) है और जिसके अनुसार :-
1. ईसा खुदा बेटे हैं और उनके जने हुये संतान हैं और तीन ईश्वर में तीसरे हैं
2. वो सलीब पर मार डाले गये
3. मारे जाने के तीसरे दिन पुनर्जीवित हो गये
4. उनका सदेह स्वर्गारोहण हुआ और
5. 'डे ऑफ़ जजमेंट' (D-Day) के पहले वो दुबारा आएंगें.
इन्हीं मान्यताओं के आधार पर सेंट पॉल ने घोषणा की थी - "And if Christ has not been raised, then our preaching is in vain and your faith is in vain". (अर्थात यदि क्राईस्ट ने जन्म नहीं लिया, तो हमारे उपदेश भी बेकार चले गए और तुम्हारा विश्वास भी बेकार चला गया.). यही ईसाईयत की बुनियाद है. यानि अगर ईसा सलीब पर नहीं मरे तो ईसाईयत खत्म. अब यदि ऐसा सिद्ध हो जाए कि ईसा भारत आए थे, तो चर्च का पहला बुनियाद कि ईसा सलीब पर मारे गये खत्म. चर्च की दूसरी बुनियाद कि वो मरे ही नहीं, तो उनके पुनर्जीवन का सवाल ही नहीं है. चर्च की तीसरी बुनियाद कि वो स-देह स्वर्ग चले गये ये भी खत्म. इसके बाद "वो दुबारा आयेंगें" वाली मान्यता ही आधारहीन हो गई... और फिर इसके साथ ईसा के ईश्वरत्व के तमाम दावे अमान्य हो गये.
यानि केवल एक बात, कि ईसा मसीह भारत आए और यहाँ रहे... इसी से ईसाईयत अपने मूल से उखड़ जायेगा. इसलिये जब होल्गर कर्स्टन ने अपनी किताब "जीसस लिव्ड इन इंडिया" लिखी तो दुनिया भर के चर्च आग-बबूला हो गये. चर्च ये कभी बर्दाश्त ही नहीं कर सकता कि अपने जिस जीसस को वो ईश्वर के दर्जे पर बताता है, वो ज्ञान और पनाह के लिये भारत की ख़ाक छान रहा था और यहाँ के ऋषि-मुनियों के चरणों में बैठकर शिक्षा ग्रहण कर रहे थे. चर्च ने जिस दिन ये बेवकूफी कर दी, उसी दिन से ईसाईयत की नींव उखड़ जायेगी, इसलिये चर्च ऐसी बेबकूफी करता भी नहीं है. 'सिंगापुर स्पाइस एयरजेट' की एक पत्रिका में ईसा के सूलीकरण के बाद उनके कश्मीर आगमन को लेकर एक आलेख प्रकाशित किया गया था, जिस पर 'कैथोलिक सेकुलर फोरम' नाम की संस्था ने कड़ा विरोध जताया था और भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों में इसके विरोध में प्रदर्शन किये गये थे. इस अप्रत्याशित विरोध से धबराकर न सिर्फ इस पत्रिका की सभी 20 हजार प्रतियों को वापस लेना पड़ा था बल्कि इसके डायरेक्टर अजय सिंह को इसके लिये माफी भी मांगनी पड़ी थी.
उन्होंने विरोध इसलिये किया था क्योंकि ईसा के भारत-भ्रमण की स्वीकारोक्ति के बाद चर्च के पास बचेगा क्या? उनके 'कथित ईश्वर' एक सामान्य योगी मात्र ठहरेंगें जिसने भारत में ज्ञान-अर्जन किया. फिर सलीबीकरण, पुनरुत्थान, सदेह-स्वर्गारोहण, पुनरागमन जैसे मान्यताएं सीधे मुंह गिर जायेंगीं. फिर वो किस मुंह से "प्रभु तेरा राज आवे" की बात कहेंगें? ईसाईयों की दिक्कत और चिंता इसी बात को लेकर है कि कहीं ईसा का हिंदुस्तान के साथ ताल्लुक साबित हो गया, तो चर्च के उनके विशाल साम्राज्य की नींव ढह जाएगी. उनके लिए ये मानना अपमानजनक है कि जिस ईसा को वो खुदा का बेटा मानते हैं उसने हिन्दुस्तान में आकर यहाँ के अर्ध-नग्न साधुओं से ज्ञान हासिल किया.
जहाँ तक इस बात का सवाल है कि क्या ये चर्च का प्रोपेगेंडा है, तो बिलकुल भी नहीं क्योंकि मैनें एक भी क्रिश्चियन मिशनरी को ईसा के भारत भ्रमण की बात को आधार बनाकर धर्म-प्रचार करते सुना और देखा नहीं और तो और वो ऐसे साहित्य भी नहीं प्रसारित करतें. ईसा के भारत भ्रमण की बात तो सबसे पहले हमारे ग्रंथ भविष्य पुराण ने की, न कि किसी मिशनरी ने. ये वर्णन 18 पुराणों में से एक भबिष्यपुराण के प्रतिसर्गपर्व के द्वितीय अध्याय के श्लोकों में मिलती है, जहां ईसा के शक राजा के साथ उनकी मुलाकात का भी वर्णन है. भविष्यपुराण के अनुसार राजा विक्रमादित्य के पश्चात् जब बाहरी आक्रमणकारी हिमालय के रास्ते भारत आकर यहां की आर्य संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने लगे, तब विक्रम के पौत्र शालिवाहन ने उनको दंडित किया. साथ ही रोम और कामरुप देशों के दुष्टों को पकड़कर सजा दी तथा ऐसे दुष्टों को सिंधु के उस पार बस जाने का आदेश दिया. इसी क्रम में उनकी मुलाकात हिमालय पर्वत पर ईसा से होती है. इसके श्लोकों में आता है,
मलेच्छदेश मसीहो हं समागत !! ईसा मसीह इति च मम नाम प्रतिष्ठितम्।
इसी मुलाकात में ईसा ने शकराज को अपना परिचय तथा अपना और अपने धर्म का मंतव्य बताया था.
ऐसा कहने वाला भविष्य-पुराण अकेला नहीं है. रामकृष्ण परमहंस के शिष्य और स्वामी विवेकानंद के गुरुभाई स्वामी अभेदानंद ने 1922 में लद्दाख के होमिज मिनिस्ट्री का भ्रमण किया था और उन साक्ष्यों का अवलोकन किया था जिससें हजरत ईसा के भारत आने का वर्णन मिलता है, और इन शास्त्रों के अवलोकन के पश्चात् उन्होंने भी ईसा के भारत आगमन की पुष्टि की थी और बाद में अपने इस खोज को बांग्ला भाषा में 'तिब्बत ओ काश्मीर भ्रमण' नाम से प्रकाशित करवाया था. प्रख्यात दार्शनिक ओशो ने तो अपनी किताब “ग्लिम्प्सेस ऑफ़ अ गोल्डन चाइल्डहुड” में ये लिखा है कि ईसा और मूसा दोनों ने ही यहां अपने प्राण त्यागे थे और दोनों की असली कब्र इसी स्थान पर है. ये यहीं तक नहीं है क्योंकि परमहंस योगानंद ने अपनी किताब "दी सेकेंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट, रेजरेक्शन ऑफ क्राइस्ट विदिन यू" में ये दावा किया था कि प्रभु यीशु ने 13 वर्ष से 30 वर्ष की आयु के अपने गुमनामी के दिन हिंदुस्तान में बिताये थे, यहीं अध्यात्म तथा दर्शन की शिक्षा ग्रहण की तथा योग का गहन अभ्यास किया था. उन्होंनें ये भी दावा किया कि यीशु के जन्म के पश्चात् सितारों की निशानदेही पर उनके दर्शन को बेथलहम पहुँचने वाले पूरब से आये तीन ज्योतिषी बौद्ध थे जो हिंदुस्तान से आये थे और उन्होंनें ही परमेश्वर के लिये प्रयुक्त संस्कृत शब्द ईश्वर के नाम पर उनका नाम ईसा रखा था. (एक दूसरी मान्यता ये भी कहती है कि उनका “ईसा” नाम कश्मीर के बौद्ध गुंफो में रखा गया था). योगानंद जी के उक्त पुस्तक के शोधों को लांस एंजिल्स टाइम्स और द गार्जियन जैसे बड़े पत्रों ने प्रमुखता से प्रकाशित से किया था.
हिंदुओं के नाथ संप्रदाय के संन्यासी ईसा को अपना गुरुभाई मानते है क्योंकि उनकी ये मान्यता है कि ईसा जब भारत आये थे तो उन्होंनें महाचेतना नाथ से नाथ संप्रदाय में दीक्षा ली थी और जब उन्हें सूली पर से उतारा गया था तो उन्होंनें समाधिबल से खुद को इस तरह कर लिया था कि रोमन सैनिकों ने उन्हें मृत समझ लिया था. नाथ संप्रदाय वाले यह भी मानतें हैं कि कश्मीर के पहलगाम में ईसा ने समाधि ली. गायत्री परिवार शांतिकुंज हरिद्वार के शोधार्थियों ने भी हजरत ईसा के भारत भ्रमण संबंधी शोधों को "तिब्बती लामाओं के सानिध्य मे ईसा" नाम से प्रकाशित कराया और इसमें ईसा के भारत भ्रमण संबंधी खोजों का उल्लेख किया.
कहने का तात्पर्य यह है कि ईसा के भारत-भ्रमण को आधार बनाइये, इसको प्रसारित करिये. इस रूप में जैसा स्वामी विवेकानंद ने कहा था. उन्होंनें कहा था, “यदि पृथ्वी पर कोई ऐसी भूमि है, जिसे मंगलदायिनी पुण्यभूमि कहा जा सकता है, जहाँ ईश्वर की ओर अग्रसर होने वाली प्रत्येक आत्मा को अपना अंतिम आश्रयस्थल प्राप्त करने के लिए जाना ही पड़ता है... तो वो भारत है”. ईसा मसीह के भारत-आगमन के सच में ही मिशनरियों के झूठ की मृत्यु है.
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१) वामपंथ के निशाने पर ईशा फाउंडेशन... :- http://desicnn.com/news/jaggi-vasudev-isha-foundation-narendra-modi
२) मिशनरी, NGOs और बाल मजदूर... एक ख़तरनाक गैंग.. :- http://desicnn.com/blog/missionaries-ngos-and-child-labour
३) क्या आप 10/40 जोशुआ प्रोजेक्ट के बारे में जानते हैं? :- http://desicnn.com/blog/do-you-know-about-10-40-joshua-project