१९ वीं सदी में दुनिया में विस्तार पाते यूरोपीय साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हुए अपनी पुस्तक ‘ग्लिम्पसेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में जवाहरलाल नेहरु बताते है कि ये वो समय था जब कहा जाता था कि आगे बढ़ती सेना के झंडे का अनुसरण उसके देश का व्यापार करता था. और कई बार तो ऐसा भी होता था कि बाइबिल आगे-आगे चलती थी, और सेना उसके पीछे- पीछे.

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जीसस के भारत आने का विषय (Christ in India) आजकल बड़ा चर्चा में है. कुछ लोग ये कहतें हैं कि ईसा के भारत आगमन की बात ईसाई मिशनरियों की वृहद् योजना का हिस्सा है, ताकि वो यहाँ मतान्तरण की फसल काट सकें. इसलिये आज दो बातों की तहकीकात आवश्यक हो जाती है. पहली ये कि ईसा को भारत से जोड़ना क्या मिशनरियों की किसी योजना का हिस्सा है?? और दूसरा ये कि मसीह के भारत आगमन (Jesus was in India) का प्रचार करने से फ़ायदा किसका हो रहा है? हमारा या मिशनरियों का?

जहाँ तक मेरी समझ है इसके अनुसार मसीह के भारत आगमन का विषय मिशनरियों के किसी योजना का हिस्सा नहीं है, बल्कि वो तो इससे चिढतें हैं और दूसरा ये कि उनको इस विषय से फायदे की जगह नुकसान ही हुआ है और आगे भी होगा. ऐसा कहने के पीछे का मेरा आधार है ईसाईयत का वह विश्वास, जो कि उनका मूल आधार (Basics of Christianity) है और जिसके अनुसार :-

1. ईसा खुदा बेटे हैं और उनके जने हुये संतान हैं और तीन ईश्वर में तीसरे हैं

2. वो सलीब पर मार डाले गये

3. मारे जाने के तीसरे दिन पुनर्जीवित हो गये

4. उनका सदेह स्वर्गारोहण हुआ और

5. 'डे ऑफ़ जजमेंट' (D-Day) के पहले वो दुबारा आएंगें.

इन्हीं मान्यताओं के आधार पर सेंट पॉल ने घोषणा की थी - "And if Christ has not been raised, then our preaching is in vain and your faith is in vain". (अर्थात यदि क्राईस्ट ने जन्म नहीं लिया, तो हमारे उपदेश भी बेकार चले गए और तुम्हारा विश्वास भी बेकार चला गया.). यही ईसाईयत की बुनियाद है. यानि अगर ईसा सलीब पर नहीं मरे तो ईसाईयत खत्म. अब यदि ऐसा सिद्ध हो जाए कि ईसा भारत आए थे, तो चर्च का पहला बुनियाद कि ईसा सलीब पर मारे गये खत्म. चर्च की दूसरी बुनियाद कि वो मरे ही नहीं, तो उनके पुनर्जीवन का सवाल ही नहीं है. चर्च की तीसरी बुनियाद कि वो स-देह स्वर्ग चले गये ये भी खत्म. इसके बाद "वो दुबारा आयेंगें" वाली मान्यता ही आधारहीन हो गई... और फिर इसके साथ ईसा के ईश्वरत्व के तमाम दावे अमान्य हो गये.

jesus lived in india

यानि केवल एक बात, कि ईसा मसीह भारत आए और यहाँ रहे... इसी से ईसाईयत अपने मूल से उखड़ जायेगा. इसलिये जब होल्गर कर्स्टन ने अपनी किताब "जीसस लिव्ड इन इंडिया" लिखी तो दुनिया भर के चर्च आग-बबूला हो गये. चर्च ये कभी बर्दाश्त ही नहीं कर सकता कि अपने जिस जीसस को वो ईश्वर के दर्जे पर बताता है, वो ज्ञान और पनाह के लिये भारत की ख़ाक छान रहा था और यहाँ के ऋषि-मुनियों के चरणों में बैठकर शिक्षा ग्रहण कर रहे थे. चर्च ने जिस दिन ये बेवकूफी कर दी, उसी दिन से ईसाईयत की नींव उखड़ जायेगी, इसलिये चर्च ऐसी बेबकूफी करता भी नहीं है. 'सिंगापुर स्पाइस एयरजेट' की एक पत्रिका में ईसा के सूलीकरण के बाद उनके कश्मीर आगमन को लेकर एक आलेख प्रकाशित किया गया था, जिस पर 'कैथोलिक सेकुलर फोरम' नाम की संस्था ने कड़ा विरोध जताया था और भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों में इसके विरोध में प्रदर्शन किये गये थे. इस अप्रत्याशित विरोध से धबराकर न सिर्फ इस पत्रिका की सभी 20 हजार प्रतियों को वापस लेना पड़ा था बल्कि इसके डायरेक्टर अजय सिंह को इसके लिये माफी भी मांगनी पड़ी थी.

उन्होंने विरोध इसलिये किया था क्योंकि ईसा के भारत-भ्रमण की स्वीकारोक्ति के बाद चर्च के पास बचेगा क्या? उनके 'कथित ईश्वर' एक सामान्य योगी मात्र ठहरेंगें जिसने भारत में ज्ञान-अर्जन किया. फिर सलीबीकरण, पुनरुत्थान, सदेह-स्वर्गारोहण, पुनरागमन जैसे मान्यताएं सीधे मुंह गिर जायेंगीं. फिर वो किस मुंह से "प्रभु तेरा राज आवे" की बात कहेंगें? ईसाईयों की दिक्कत और चिंता इसी बात को लेकर है कि कहीं ईसा का हिंदुस्तान के साथ ताल्लुक साबित हो गया, तो चर्च के उनके विशाल साम्राज्य की नींव ढह जाएगी. उनके लिए ये मानना अपमानजनक है कि जिस ईसा को वो खुदा का बेटा मानते हैं उसने हिन्दुस्तान में आकर यहाँ के अर्ध-नग्न साधुओं से ज्ञान हासिल किया.

जहाँ तक इस बात का सवाल है कि क्या ये चर्च का प्रोपेगेंडा है, तो बिलकुल भी नहीं क्योंकि मैनें एक भी क्रिश्चियन मिशनरी को ईसा के भारत भ्रमण की बात को आधार बनाकर धर्म-प्रचार करते सुना और देखा नहीं और तो और वो ऐसे साहित्य भी नहीं प्रसारित करतें. ईसा के भारत भ्रमण की बात तो सबसे पहले हमारे ग्रंथ भविष्य पुराण ने की, न कि किसी मिशनरी ने. ये वर्णन 18 पुराणों में से एक भबिष्यपुराण के प्रतिसर्गपर्व के द्वितीय अध्याय के श्लोकों में मिलती है, जहां ईसा के शक राजा के साथ उनकी मुलाकात का भी वर्णन है. भविष्यपुराण के अनुसार राजा विक्रमादित्य के पश्चात् जब बाहरी आक्रमणकारी हिमालय के रास्ते भारत आकर यहां की आर्य संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने लगे, तब विक्रम के पौत्र शालिवाहन ने उनको दंडित किया. साथ ही रोम और कामरुप देशों के दुष्टों को पकड़कर सजा दी तथा ऐसे दुष्टों को सिंधु के उस पार बस जाने का आदेश दिया. इसी क्रम में उनकी मुलाकात हिमालय पर्वत पर ईसा से होती है. इसके श्लोकों में आता है,

मलेच्छदेश मसीहो हं समागत !! ईसा मसीह इति च मम नाम प्रतिष्ठितम्।

इसी मुलाकात में ईसा ने शकराज को अपना परिचय तथा अपना और अपने धर्म का मंतव्य बताया था.

ऐसा कहने वाला भविष्य-पुराण अकेला नहीं है. रामकृष्ण परमहंस के शिष्य और स्वामी विवेकानंद के गुरुभाई स्वामी अभेदानंद ने 1922 में लद्दाख के होमिज मिनिस्ट्री का भ्रमण किया था और उन साक्ष्यों का अवलोकन किया था जिससें हजरत ईसा के भारत आने का वर्णन मिलता है, और इन शास्त्रों के अवलोकन के पश्चात् उन्होंने भी ईसा के भारत आगमन की पुष्टि की थी और बाद में अपने इस खोज को बांग्ला भाषा में 'तिब्बत ओ काश्मीर भ्रमण' नाम से प्रकाशित करवाया था. प्रख्यात दार्शनिक ओशो ने तो अपनी किताब “ग्लिम्प्सेस ऑफ़ अ गोल्डन चाइल्डहुड” में ये लिखा है कि ईसा और मूसा दोनों ने ही यहां अपने प्राण त्यागे थे और दोनों की असली कब्र इसी स्थान पर है. ये यहीं तक नहीं है क्योंकि परमहंस योगानंद ने अपनी किताब "दी सेकेंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट, रेजरेक्शन ऑफ क्राइस्ट विदिन यू" में ये दावा किया था कि प्रभु यीशु ने 13 वर्ष से 30 वर्ष की आयु के अपने गुमनामी के दिन हिंदुस्तान में बिताये थे, यहीं अध्यात्म तथा दर्शन की शिक्षा ग्रहण की तथा योग का गहन अभ्यास किया था. उन्होंनें ये भी दावा किया कि यीशु के जन्म के पश्चात् सितारों की निशानदेही पर उनके दर्शन को बेथलहम पहुँचने वाले पूरब से आये तीन ज्योतिषी बौद्ध थे जो हिंदुस्तान से आये थे और उन्होंनें ही परमेश्वर के लिये प्रयुक्त संस्कृत शब्द ईश्वर के नाम पर उनका नाम ईसा रखा था. (एक दूसरी मान्यता ये भी कहती है कि उनका “ईसा” नाम कश्मीर के बौद्ध गुंफो में रखा गया था). योगानंद जी के उक्त पुस्तक के शोधों को लांस एंजिल्स टाइम्स और द गार्जियन जैसे बड़े पत्रों ने प्रमुखता से प्रकाशित से किया था.

हिंदुओं के नाथ संप्रदाय के संन्यासी ईसा को अपना गुरुभाई मानते है क्योंकि उनकी ये मान्यता है कि ईसा जब भारत आये थे तो उन्होंनें महाचेतना नाथ से नाथ संप्रदाय में दीक्षा ली थी और जब उन्हें सूली पर से उतारा गया था तो उन्होंनें समाधिबल से खुद को इस तरह कर लिया था कि रोमन सैनिकों ने उन्हें मृत समझ लिया था. नाथ संप्रदाय वाले यह भी मानतें हैं कि कश्मीर के पहलगाम में ईसा ने समाधि ली. गायत्री परिवार शांतिकुंज हरिद्वार के शोधार्थियों ने भी हजरत ईसा के भारत भ्रमण संबंधी शोधों को "तिब्बती लामाओं के सानिध्य मे ईसा" नाम से प्रकाशित कराया और इसमें ईसा के भारत भ्रमण संबंधी खोजों का उल्लेख किया.

कहने का तात्पर्य यह है कि ईसा के भारत-भ्रमण को आधार बनाइये, इसको प्रसारित करिये. इस रूप में जैसा स्वामी विवेकानंद ने कहा था. उन्होंनें कहा था, “यदि पृथ्वी पर कोई ऐसी भूमि है, जिसे मंगलदायिनी पुण्यभूमि कहा जा सकता है, जहाँ ईश्वर की ओर अग्रसर होने वाली प्रत्येक आत्मा को अपना अंतिम आश्रयस्थल प्राप्त करने के लिए जाना ही पड़ता है... तो वो भारत है”. ईसा मसीह के भारत-आगमन के सच में ही मिशनरियों के झूठ की मृत्यु है

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मिशनरी के झूठे प्रचार और धर्मांतरण से सम्बंधित ये लेख भी महत्त्वपूर्ण हैं, अवश्य पढ़ें... 

१) वामपंथ के निशाने पर ईशा फाउंडेशन... :- http://desicnn.com/news/jaggi-vasudev-isha-foundation-narendra-modi 

२) मिशनरी, NGOs और बाल मजदूर... एक ख़तरनाक गैंग.. :- http://desicnn.com/blog/missionaries-ngos-and-child-labour 

३) क्या आप 10/40 जोशुआ प्रोजेक्ट के बारे में जानते हैं? :- http://desicnn.com/blog/do-you-know-about-10-40-joshua-project 

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रविवार, 27 नवम्बर 2011 12:32

Conversion in Kashmir, Islam and Conversion, Missionary Activity in India


ईसाई धर्मांतरण को रोकने का इस्लामी तरीका… हिन्दुओं के बस की बात नहीं ये… (सन्दर्भ - कश्मीर में धर्मान्तरण)

घटना इस प्रकार है कि, कुछ समय पहले श्रीनगर स्थित चर्च के रेव्हरेंड (चन्द्रमणि खन्ना) यानी सीएम खन्ना(?) (नाम पढ़कर चौंकिये नहीं… ऐसे कई हिन्दू नामधारी फ़र्जी ईसाई हमारे-आपके बीच मौजूद हैं) ने घाटी के सात मुस्लिम युवकों को बहला-फ़ुसलाकर उन्हें इस्लाम छोड़, ईसाई धर्म अपनाने हेतु राजी कर लिया। जब यह मामला खुल गया, तो 19 नवम्बर को रेव्हरेण्ड खन्ना को श्रीनगर स्थित मुख्य मुफ़्ती बशीरुद्दीन ने खन्ना को “शरीयत कोर्ट”(?) में जवाब-तलब के लिए बुलवाया। खन्ना साहब से चार घण्टे तक पूछताछ(?) की गई। उन सभी सात मुस्लिम युवकों की पुलिस ने जमकर पिटाई की, जिन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार किया था, फ़िर उन युवकों से रेव्हरेण्ड खन्ना के खिलाफ़ कबूलनामा लिखवा लिया गया कि उसने पैसों का लालच देकर उन्हें ईसाई धर्म के प्रति बरगलाया (यही सच भी था)।(Know more about Shariah Court... http://expressbuzz.com/opinion/columnists/sharia-courts-rule-in-jk-secularists-keep-mum/337356.html)

इतना सब हो चुकने के बाद राज्य की “धर्मनिरपेक्ष” सरकार ने अपना रोल प्रारम्भ किया। बशीरुद्दीन की “धमकी”(?) के बाद सबसे पहले तो रेव्हरेण्ड खन्ना को गिरफ़्तार किया गया…। चूंकि गुजरात, तमिलनाडु, मध्य्रप्रदेश की तरह जम्मू-कश्मीर में धर्मान्तरण विरोधी कानून नहीं है (क्योंकि कभी सोचा ही नहीं था, कि मुस्लिम बहुल इलाके में कोई पादरी इतनी हिम्मत करेगा), इसलिये अब उस पर 153A तथा 295A की धाराएं लगाई गईं अर्थात “धार्मिक वैमनस्यता फ़ैलाने”, “नस्लवाद भड़काने” और “अशांति फ़ैलाने” की, ताकि चन्द्रमणि खन्ना को आसानी से छुटकारा न मिल सके… क्योंकि उसने इस्लाम के अनुसार मुस्लिमों का धर्म परिवर्तन करवा कर सिर्फ़ “अपराध” नहीं बल्कि “पाप” किया था। मौलाना बशीरुद्दीन ने कहा है कि “शरीयत” अपना काम करेगी, और सरकार को अपना काम “करना होगा…”, यह एक गम्भीर मसला है और इस्लाम में इससे “निपटने” के कई तरीके हैं। 

इन मुस्लिम युवकों के धर्मान्तरण की वीडियो क्लिप यू-ट्यूब पर आने के बाद पादरी खन्ना और वेटिकन के खिलाफ़ घृणा संदेशों की मानो बाढ़ सी आ गई, जिसमें “वादा” किया गया है कि यदि खन्ना को “उचित सजा” नहीं मिली तो कश्मीर से मिशनरियों के सभी स्कूल, इमारतें और चर्च इत्यादि जला दिए जाएंगे… मजे की बात यह है कि धमकी भरे ईमेल कश्मीर के साथ-साथ पाकिस्तान से भी भेजे जा रहे हैं। 

समूचे मामले का तीन तरह से विश्लेषण किया जा सकता है, और तीनों ही विश्लेषण तीन विभिन्न समूहों को पूरी तरह बेनकाब करते हैं…

1) सबसे पहले बेनकाब होते हैं तमाम ईसाई संगठन तथा सजन जॉर्ज एवं जॉन दयाल जैसे “स्वघोषित” ईसाई बुद्धिजीवी… (लेकिन असलियत में धर्मान्तरण के समर्थक घोर एवेंजेलिस्ट)। भाजपा शासित राज्यों सहित पूरे देश में मिशनरी गतिविधियों के जरिये दनदनाते हुए दलितों-आदिवासियों और गरीब हिन्दुओं को ईसाई धर्म में खींचने-लपेटने में लगे हुए ईसाई संगठन, कश्मीर के इस मसले पर शुरुआत में तो चुप्पी साध गये, फ़िर धीमे-धीमे सुरों में इन्होंने विरोध शुरु किया। प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति और सोनिया गाँधी के समक्ष, “धर्मान्तरण की गतिविधि संविधान सम्मत है…”, “कश्मीर में जो हुआ वह गलत और असंवैधानिक तथा धार्मिक स्वतन्त्रता का हनन है…” तथा “कश्मीर के तालिबानीकरण पर चिंता जताते हैं…” जैसे वाक्यों और घोषणाओं से शिकायत करते रहे। लेकिन इस्लामिक मामलों में और खासकर कश्मीर के मामले में प्रधानमंत्री की क्या औकात है कि वे कुछ करें… सो कुछ नहीं हुआ। फ़िलहाल डायोसीज़ चर्च और वेटिकन के उच्चाधिकारी रेव्हरेण्ड खन्ना के साथ हुए सलूक पर सिर्फ़ “प्रलाप” भर कर रहे हैं, कुछ कर सकने की उनकी न तो हिम्मत है और न ही औकात…। यह बात पहले भी केरल में साबित हो चुकी है, जब एक ईसाई प्रोफ़ेसर का हाथ, कुछ इस्लामिक पागलों ने काट दिया था… तब भी भारतीय चर्च, हिन्दुओं को सरेआम ईसाई बनाते एवेंजेलिस्ट और वेटिकन के सारे गुर्गे, सिमी द्वारा संचालित इस्लामी जेहाद के सामने दुम दबाकर घर बैठ गये थे…। तात्पर्य यह कि ईसाई संगठनों द्वारा किये जाने वाले “धर्मान्तरण सम्बन्धी सारे संवैधानिक अधिकार”(?) और “दादागिरी” सिर्फ़ हिन्दुओं पर ही चलती है, जैसे ही कोई इस्लामी जेहादी इन्हें इनकी औकात बताता है तो ये चुप्पी साध लेते हैं या मन मसोसकर रह जाते हैं…

पता कीजिये कि गरीबों की सेवा(?)  के नाम पर चल रही कितनी मिशनरियाँ, मुस्लिम बहुल इलाके में अपना कामकाज कर रही हैं?  क्या मुसलमानों में गरीबी नहीं है? तो फ़िर मिशनरी संस्थाओं को "सेवा" के लिए दलित-आदिवासी बस्तियाँ ही क्यों मिलती हैं?

2) इस घटना से इस्लाम के तथाकथित स्वयंभू ठेकेदार भी बेनकाब होते हैं, क्योंकि जहाँ एक तरफ़ उन गरीब मुस्लिम नौजवानों (जो पैसे के लालच में ईसाई बने), उन पर फ़िलहाल कोई कार्रवाई नहीं की जा रही, जबकि रेव्हरेण्ड खन्ना को रगड़ा जा रहा है। इसी प्रकार इस्लाम की अजब-गजब परिभाषाओं के अनुसार “जो भी व्यक्ति पवित्र इस्लाम में प्रवेश करता है, उसका स्वागत है…” इसमें “आने वाले” और “लाने वाले” दोनों को ईनाम दिया जाता है (जैसा कि लव-जेहाद के कई मामलों में कर्नाटक व केरल पुलिस ने पाया है कि मुस्लिम लड़कों को हिन्दू लड़की फ़ँसा कर लाने पर दो-दो लाख रुपये तक दिये गये हैं)। वहीं दूसरी ओर, पाखण्ड की इन्तेहा यह है कि बशीरुद्दीन साहब फ़रमाते हैं कि “इस्लाम छोड़कर जाना गुनाह-ए-अज़ीम (महापाप) है…”। यानी इस्लाम में आने वाले को ईनाम और इस्लाम छोड़कर जाने वाले को कठोर दण्ड… यह है “शांति का धर्म” (Religion of Peace)?

3) बेनकाब होने की श्रृंखला में तीसरा नम्बर आता है, हमारे “सुपर ढोंगी सेकुलरों” और “वामपंथी बुद्धिजीवियों”(?) का…। पाठकों को याद होंगे दो मामले, पहला कोलकाता के रिज़वानुर रहमान और उद्योगपति अशोक तोडी की लड़की का प्रेम प्रसंग (Search - Ashok Todi and Rizvanur Rehman Case) एवं कश्मीर में अमीना और रजनीश का प्रेम प्रसंग (Search - Ameena and Rajneesh Love story of Kashmir)। झोला छाप वामपंथी बुद्धिजीवियों एवं पाखण्ड से लबरेज धर्मनिरपेक्षों ने रिज़वानुर रहमान की हत्या पर कैसा “रुदालीगान” किया था, जबकि कश्मीर में इस्लामी उग्रवादियों द्वारा रजनीश की हत्या पर चुप्पी साध ली थी…। ये लोग ऐसे ही गिरे हुए होते हैं, उदाहरण - गोधरा ट्रेन जलाने पर कपड़ा-फ़ाड़ चिल्लाना, लेकिन मुम्बई की राधाबाई चाल में हिन्दुओं को जलाने पर चुप्पी…, फ़िलीस्तीन के मुसलमानों के लिये बुक्का फ़ाड़कर रोना, लेकिन कश्मीरी पण्डितों के मामले में चुप्पी…, गुजरात के दंगों को “नरसंहार” बताना, लेकिन सिखों के नरसंहार के बावजूद कांग्रेस की गोद में बैठना इत्यादि-इत्यादि। इनका ऐन यही रवैया, कश्मीर के इस धर्मान्तरण मामले को लेकर भी रहा… आए दिन भाजपा-संघ को अनुशासन, संविधान, अल्पसंख्यकों के अधिकारों आदि पर भाषण पिलाने वाले महेश भट्ट, शबाना आज़मी और तीस्ता नुमा सारे बुद्धिजीवी अपनी-अपनी खोल के अन्दर दुबक गये…। किसी ने भी बशीरुद्दीन और उमर अब्दुल्ला सरकार को पाठ पढ़ाने की कोशिश नहीं की, क्योंकि उन्हें मालूम है कि यदि वे इस्लाम के खिलाफ़ एक शब्द भी बोलेंगे तो उनका पिछवाड़ा लाल कर दिया जाएगा…। जॉन दयाल, सीताराम येचुरी अथवा सैयद शहाबुद्दीन साहब ने एक बार भी नहीं कहा, कि कश्मीर में पादरी खन्ना के खिलाफ़ जो भी कार्रवाई हो वह भारत के संविधान के अनुसार हो… शरीयत कोर्ट कौन होता है फ़ैसला करने वाला? लेकिन ज़ाहिर है कि जिसके पास “ताकत” है, उसी की बात चलेगी और ठोकने-लतियाने तथा हाथ काटने की ताकत फ़िलहाल इस्लाम के पास है, जबकि हिन्दू ठहरे नम्बर एक के बुद्धू, सेकुलर और गाँधीवादी…, उनके खिलाफ़ तो “कुछ भी” (जी हाँ, कुछ भी) किया जा सकता है…। क्योंकि भाजपा में भी अब कांग्रेस “बी” टीम बनने की होड़ चल पड़ी है, तो रीढ़ की हड्डी सीधी करके धार्मिक मामलों पर भाजपा के नेता खुलकर क्यों और कैसे बोलें? जबकि स्थापित तथ्य यह है कि “विशेष परिस्थितियों” (गुजरात एवं मध्यप्रदेश के चन्द चुनावों) को छोड़कर चाहे भाजपाई नेता, सार्वजनिक रूप से मुस्लिमों के चरण धोकर भी पिएं तब भी वे भाजपा को वोट देने वाले नहीं हैं… फ़िर भी भाजपा को यह पूछने में संकोच(?) हो रहा है कि “शरीयत” बड़ी या “भारत का संविधान”?

प्रस्तुत घटना यदि किसी भाजपा शासित राज्य में हुई होती तथा बजरंग दल अथवा श्रीराम सेना ने इस घटना को अंजाम दिया होता, तो अब तक भारत के समूचे मीडियाई भाण्डों, नकली सेकुलरिज़्म का झण्डा उठाये घूमने वाले बुद्धिजीवियों सहित “प्रगतिशील”(?) वामपंथियों ने कपड़े फ़ाड़-फ़ाड़कर, आसमान सिर पर उठा लिया होता… परन्तु चूंकि यह घटना कश्मीर की है तथा इसमें इस्लामी फ़तवे का तत्व शामिल है, इसलिए दोगले सेकुलरों और फ़र्जी वामपंथियों के मुँह पर बड़ा सा ताला जड़ गया है… “राष्ट्रीय”(?) मीडिया की तो वैसे भी हिम्मत और औकात नहीं है कि वे इस घटना को कवरेज दे सकें…।

वाकई, “सेकुलरिज़्म और गाँधीवाद” ने मानसिक रूप से भारतवासियों (सॉरी… हिन्दुओं) को इतना खोखला और डरपोक बना दिया है, कि वे वाजिब बात का विरोध भी नहीं कर पाते… 
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नोट :- ताज़ा समाचार यह है कि "शरीयत कोर्ट" ने कश्मीर विवि के कुछ प्रोफ़ेसरों को भी उसके समक्ष पेश होने का नोटिस जारी किया है, क्योंकि खन्ना ने स्वीकार किया है कि मुस्लिम युवकों का धर्मान्तरण करवाने में इन्होंने उसकी मदद की थी…। दूसरी तरफ़ पादरी खन्ना की पत्नी और बेटे ने उनके "गिरते स्वास्थ्य" को देखते हुए उमर अब्दुल्ला से उन्हें रिहा करने की अपील की है। पत्नी ने एक बयान में कहा है कि कश्मीर में आए भूकम्प के दौरान पादरी खन्ना और चर्च ने सेवाभाव से गरीबों की मदद की थी, उनके पुनर्वास में विभिन्न NGOs के साथ मिलकर काम किया था… (इस स्वीकारोक्ति का अर्थ समझे आप? थोड़ा गहराई से विचार कीजिए, समझ जाएंगे)। 

फ़िलहाल तो इस मामले में "धर्मनिरपेक्षों" और "स्वयंभू मानवाधिकारवादियों" की साँप-छछूंदरनुमा हालत, दोगलेपन और पाखण्ड पर तरस खाईये और मुस्कुराईये…। 

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