चूँकि गुजरात दंगों से सम्बन्धित प्रत्येक मामले की जाँच एक विशेष SIT कर रही है जिसके प्रत्येक कदम पर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी और सहमति है, उस SIT ने अपनी जाँच में पाया कि संजीव भट्ट के दावे न सिर्फ झूठ का पुलिंदा हैं, बल्कि उसने न्यायालय को गुमराह करने तथा तथ्यों-सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने में अपनी सारी सीमाएँ तोड़ दीं. गुजरात दंगों को “राज्य-प्रश्रय” आधारित बताने के चक्कर में संजीव भट्ट ने अपनी “गुरु माँ” अर्थात तीस्ता जावेद सीतलवाड़ का मार्ग अपनाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में उसके द्वारा पेश नकली शपथ पत्रों और फर्जी ई-मेल की एक न चली. सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस महत्त्वपूर्ण निर्णय में संजीव भट्ट और NGOs गिरोह की जमकर खिंचाई की है. सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की विशेष बेंच इस बात से खासी नाराज थी, कि संजीव भट्ट ने जानबूझकर अपने राजनैतिक संपर्कों, अपने पुलिस अधिकारी होने के रसूख और NGOs साथियों के साथ मिलकर नरेंद्र मोदी को जबरन फाँसने की कोशिश की. सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि संजीव भट्ट और “नर्मदा बचाओ आंदोलन” के एक प्रमुख कार्यकर्ता के बीच जो ई-मेल का आदान-प्रदान हुआ है, उसमें संजीव भट्ट यह कहता हुआ पाया गया है कि “हमें ऐसी स्थिति पैदा करनी चाहिए जिससे SIT का काम करना मुश्किल हो जाए. कृपया दिल्ली स्थित अपने संचार संपर्कों और रायशुमारी बनाने वाली एजेंसियों को इस काम में लगाओ..”. फरवरी 2002 की उस शासकीय मीटिंग में संजीव भट्ट ने अपनी उपस्थिति सिद्ध करने के लिए ना सिर्फ फर्जी ई-मेल का सहारा लिया, बल्कि एक चतुर पुलिस अधिकारी की तरह जानबूझकर कोर्ट में आधे-अधूरे साक्ष्य प्रस्तुत किए. सुप्रीम कोर्ट ने भट्ट के वकील से पूछा कि “संजीव भट्ट को 2011 में इतने वर्ष के बाद ऐसे संवेदनशील और विस्फोटक आरोप करने की याद क्यों आई? यह बात भट्ट ने पहले SIT को क्यों नहीं बताई?”.
संजीव भट्ट शुरू से गुजरात में काँग्रेस के मोहरे और नरेंद्र मोदी विरोधियों के पसंदीदा चेहरे रहे हैं. हाल ही में एक सोशल मीडिया पर एक ऑडियो क्लिप जारी हुई थी, जिसमें संजीव भट्ट अर्जुन मोधवाडिया से पूछ रहे हैं कि “मेरा ब्लैकबेरी फोन अभी तक मुझे नहीं मिला है, कब पहुँचाओगे? और जिस ईनाम की बात हुई थी, वह कहाँ है?”. सुप्रीम कोर्ट ने अपनी जाँच में यह भी पाया कि IPS होने का दबाव डालकर संजीव भट्ट ने गुजरात दंगों के एक प्रमुख गवाह हवलदार केडी पंत को भी धमकाने और उस पर अपने पक्ष में बयान देने के लिए दबाव बनाया था. एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी होने तथा सिस्टम से परिचित होने के कारण ही 25 मार्च 2011 को संजीव भट्ट ने यह दबाव बनाया था कि हवलदार पंत की पूछताछ उसके सामने की जाए, लेकिन मामला SIT के हाथ में होने के कारण उसकी दाल नहीं गली.
1990 से ही संजीव भट्ट और एक निलंबित जज आरके जैन की साँठगाँठ के कई आपराधिक मामले विभाग के अधिकारियों की जानकारी में थे. भट्ट नारकोटिक्स विभाग में होने के कारण कई मासूमों को धमकाने का काम कर चुका था, और SIT ने अपनी जाँच में पाया कि नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने से पहले ही संजीव भट्ट पर ब्लैकमेलिंग के कई मामले विभिन्न थानों में दर्ज थे, परन्तु IPS होने की धौंस, जजों से पहचान तथा NGOs के लोगों द्वारा दबाव बनाकर खुद को “पीड़ित” दर्शाने की उसकी चालबाजी पुरानी थी. लेकिन ज्यादा चतुर बनने के चक्कर में खुद अपने ही बिछाए जाल में फंसते हुए संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट में जिन ई-मेल को तथ्य-सबूत कहते हुए पेश किया था, उससे यह भी सिद्ध हो गया कि संजीव भट्ट ने तत्कालीन अतिरिक्त एडवोकेट जनरल श्री तुषार मेहता का ई-मेल अकाउंट भी हैक किया था, ताकि इस मामले में चल रही अंदरूनी जानकारी एवं पत्राचार के बारे में ख़ुफ़िया ख़बरें हासिल की जा सकें. संजीव भट्ट को बर्खास्त करने के लिए इतने कारण पर्याप्त थे, लेकिन काँग्रेस को यह सब रास नहीं आ रहा था. बर्खास्तगी के बाद राशिद अल्वी ने बयान दिया कि “नरेंद्र मोदी के शासन में अफसरशाही पर दबाव बनाया जा रहा है और भट्ट जैसे पुलिस अधिकारियों के खिलाफ बदले की भावना से काम किया जा रहा है”. हालाँकि अल्वी सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों और SIT की जाँच के बारे में कुछ भी कहने से बचते रहे. सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि संजीव भट्ट ने इस मामले को खामख्वाह सनसनीखेज बनाने के लिए झूठे तथ्यों एवं नकली शपथ-पत्रों का सहारा लिया, और न्यायालय को प्रभावित करने के लिए अपने मीडियाई संपर्कों, NGOs गिरोह और “एक विपक्षी राजनैतिक पार्टी” का सहारा लिया. नरेंद्र मोदी के खिलाफ याचिका को खारिज करते हुए न्यायालय ने संजीव भट्ट पर आगे कार्रवाई जारी रखने के भी निर्देश दिए. परिणाम यह हुआ है कि मोदी-भाजपा-संघ को फाँसने के चक्कर में “सत्य की ताकत” के कारण काँग्रेस का यह मोहरा भी पिट गया है, लेकिन फिर भी मीडिया में इस मामले की कोई विशेष चर्चा नहीं होना बड़ा रहस्यमयी है.
इस प्रकार सितम्बर-अक्टूबर 2015 के दो माह में ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा काँग्रेस पार्टी और उसके काले कारनामों एवं षडयंत्र की पोल खोलते हुए जिस तरह लगातार निर्णय आए हैं, उसने काँग्रेस को सन्निपात की अवस्था में धकेल दिया है. चूँकि मीडिया-NGOs और काँग्रेस का बहुत पुराना गठबंधन है, इसलिए इन जॉर्ज फर्नांडीस, प्रमोद महाजन और संजीव भट्ट इन तीनों ही मामलों को लगभग नगण्य कवरेज मिला और आम जनता से यह सच बड़ी सफाई से छिपा लिया गया और उसे जानबूझकर बीफ-गौमांस-साहित्य अकादमी जैसे फालतू विवादों में उलझाए रखा गया है. हालाँकि इन तमाम हथकण्डों के बावजूद काँग्रेस की मुश्किलें अभी कम होने वाली नहीं हैं, बल्कि और बढ़ने वाली ही हैं, क्योंकि जल्दी ही सोनिया गाँधी और काँग्रेस पर “नेशनल हेराल्ड” अखबार की संपत्ति हथियाकर उसे पारिवारिक स्वरूप देने के मामले में भी न्यायालयीन केस तेजी से आगे बढ़ेगा. इसके अलावा हाल ही में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के परिजनों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर उनकी रहस्यमयी मृत्यु से सम्बन्धित सभी गुप्त दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की जो माँग की थी, वह न सिर्फ प्रधानमंत्री द्वारा मान ली गई है, बल्कि 23 जनवरी 2016 की तारीख भी घोषित की गई है, जिसके बाद केन्द्र सरकार के पास नेहरू-बोस-पटेल से सम्बन्धित जो भी दस्तावेज हैं उन्हें सार्वजनिक कर दिया जाएगा. इस दिशा में तत्काल पहला कदम बढ़ाते हुए केन्द्र सरकार ने रूस और जापान की सरकारों से सुभाषचंद्र बोस से सम्बन्धित सभी दस्तावेजों की माँग की है. अर्थात 23 जनवरी 2016 के बाद काँग्रेस के लिए “एक और बुरा सपना” आरम्भ होने की पूरी उम्मीद है.
बहरहाल... आगे बढ़ते हैं और संक्षिप्त में एक और मुद्दा समझने की कोशिश करते हैं, वह मुद्दा है देश के कुछ साहित्यकारों की संवेदनशीलता का “अचानक” जागृत होना. पिछले कुछ दिनों में खासकर दादरी की घटना के बाद देश के कुछ चुनिंदा साहित्यकारों की आत्मा अचानक जागृत हो गई है. 1975 के आपातकाल के बाद अब जाकर कुछ साहित्यकारों को “अचानक” अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की याद आने लगी है... कुछ कथित साहित्यकार तो अचानक इतने आहत हो गए हैं कि उन्हें यह देश डूबता नज़र आने लगा है. जबकि ऐसा कुछ नहीं हुआ है. जैसा कि मैंने ऊपर बताया, नरेंद्र मोदी की सरकार को बदनाम करने और भारत की छवि को विदेशों में धूमिल करने के लिए “एक समूचा NGOs गिरोह” काम कर रहा है, जिसे मिशनरी पोषित मीडिया और काँग्रेस का पूर्ण समर्थन हासिल है. कुछ मामूली से तथ्यों पर गौर करें... अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के दाभोलकर की हत्या हुई महाराष्ट्र में, उस समय वहाँ NCP-काँग्रेस की सरकार थी, चव्हाण मुख्यमंत्री थे... लेकिन उस समय किसी साहित्यकार ने ना तो पृथ्वीराज चव्हाण का इस्तीफा माँगा और ना ही उनकी अंतरात्मा जागृत हुई. कर्नाटक में काँग्रेस शासन के अंतर्गत साहित्यकार कल्बुर्गी की हत्या हुई, परन्तु साहित्य अकादमी से सम्मानित किसी भी लेखक को उस समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुहावरा याद नहीं आया. इसी प्रकार दादरी में इखलाक की जो हत्या हुई, वह स्पष्ट रूप से क़ानून-व्यवस्था का मामला था जो कि राज्य सरकार के अधीन होता है. परन्तु किसी भी संवेदनशील(??) कवि या शायर ने अखिलेश यादव से इस्तीफ़ा नहीं माँगा.... क्या कभी इस बात पर विचार हुआ है कि हर बार ऐसा क्यों होता है कि पिछले 18 माह में देश में कहीं भी दूरदराज कोई भी घटना होती है तो तत्काल हमारा मीडिया और कुछ “संगठन” अचानक नरेंद्र मोदी जवाब दें, नरेंद्र मोदी इस्तीफ़ा दें की टेर लगाने लगते हैं?? साहित्य अकादमी द्वारा अज्ञात कारणों के लिए पुरस्कृत कुछ तथाकथित साहित्यकार (जिनमें से कुछ की रचनाएँ तो विशुद्ध कूड़ा हैं) विदेशी संचार माध्यमों तथा NGOs के बहकावे में आकर सम्मान-पुरस्कार लौटाने का जो कदम उठा रहे हैं, यह उन्हीं को हास्यास्पद बना रहा है. ऐसा इसलिए, क्योंकि इनकी आत्मा-अंतरात्मा-संवेदनशीलता वगैरह जो भी है वह बड़े दोहरे मापदण्ड लिए हुए और वैचारिक पाखण्ड से भरी हुई है... चंद उदाहरण देखें...
१) नेहरू की भांजी नयनतारा सहगल को जब साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया, उस समय अर्थात 1984 में दिल्ली जैसे स्थान पर 3000 से अधिक सिखों की हत्या उन्हीं की पसंदीदा पार्टी के लोगों (HKL भगत, सज्जन कुमार, जगदीश टाईटलर) द्वारा की गई थी. कुछ माह बाद ही सहगल को यह सम्मान दिया गया, जिसे उनहोंने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया...
२) 1990 के उन काले दिनों में जब कश्मीर से बाकायदा आव्हान करके पंडितों को मारा-खदेड़ा जा रहा था, कश्मीर से लाखों शरणार्थी अपने ही देश में शरण लेने के लिए मजबूर हो रहे थे उस समय शशि देशपांडे नाम की लेखिका को मानवाधिकार और असहिष्णुता नज़र नहीं आ रही थी. उन्होंने भी उस समय अकादमी पुरस्कार डकार लिया.
३) केरल की एक वामपंथी लेखिका हैं सारा जोसफ (आजकल आम आदमी पार्टी की केरल संस्थापक हैं), इनका मामला तो और भी मजेदार है. आज मोदी और भाजपा को जमकर कोसने वाली इन लेखिका को गुजरात दंगों अर्थात 2002 के बाद तत्कालीन भाजपा सरकार के हाथों ही साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था, तब उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, बढ़ती हुई साम्प्रदायिकता जैसे नुमाईशी वाक्य याद नहीं आ रहे थे...
४) एक और सज्जन हैं अशोक वाजपेयी साहब. ये साहब अर्जुन सिंह के खासुलखास हुआ करते थे. जिस समय मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह की तूती बोलती थी, उस समय प्रदेश के साँस्कृतिक परिदृश्य पर वाजपेयी साहब का एकाधिकार और कब्ज़ा था. इन्हीं के एक हमकदम साहित्यकार उदय प्रकाश तो अशोक वाजपेयी को सरेआम “पावर ब्रोकर” (सत्ता के दलाल) घोषित कर चुके हैं. ऐसे महान सज्जन अशोक वाजपेयी जी को जब यह बताया गया कि भोपाल में भीषण गैस काण्ड हुआ है, हजारों लोग मारे गए हैं तो आगामी दिनों में होने वाले साहित्य-नाटक सम्मेलन स्थगित कर दिए जाने चाहिए. तब वाजपेयी जी का जवाब था, “मुर्दों के साथ मरा नहीं करते, कार्यक्रम तो होगा”. ऐसी होती है लेखकीय संवेदनशीलता.
गत वर्ष अक्टूबर 2014 में काँग्रेस शासित कर्नाटक में बंगलौर के पास एक “जीवदया समिति कार्यकर्ता” को मुस्लिमों की भीड़ ने पीट-पीटकर अधमरा कर दिया था, उसका दोष सिर्फ इतना था कि वह गौ-हत्या विरोधी कुछ पुस्तकें बाँट रहा था... इसी प्रकार सितम्बर 2014 में भोपाल में पशुओं के लिए काम करने वाली प्रसिद्ध संस्था PETA की एक मुस्लिम मोहतरमा की मुस्लिमों द्वारा ही जमकर पिटाई की गई, क्योंकि वह “शाकाहारी बकरीद” बनाने की अपील कर रही थी, और इन सभी के ऊपर हैं तस्लीमा नसरीन.. जब हैदराबाद में AIMIM के कार्यकताओं ने तस्लीमा पर हमला किया, उस समय यह पुरस्कार सम्मान लौटाने की नौटंकी करने वाला “लेखक-कवि गिरोह” अपने मुँह में दही जमाकर बैठ गया था.
ये तो सिर्फ चंद ही उदाहरण हैं, यदि पुरस्कार लौटाने वाले प्रत्येक साहित्यकार की पृष्ठभूमि और उनके कार्यकलापों पर नज़र घुमाई जाए तो साफ़-साफ़ दिखाई देगा कि “अधिकाँश” (सभी नहीं, अधिकाँश) लेखकों, साहित्यकारों को जो भी सम्मान-पुरस्कार आदि मिले हैं वह सत्ता की नज़दीकी, परिवार और पार्टी विशेष की चापलूसी के कारण ही मिले हैं, और इनमें से बहुत सारे लेखक-साहित्यकार-कवि किसी न किसी NGO से जरूर जुड़े हैं. जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, उसने NGOs का टेंटुआ दबाना शुरू किया है, ग्रीनपीस और फोर्ड फाउन्डेशन जैसे बड़े मगरमच्छों पर लगाम की कार्रवाई आरम्भ की है, तभी से यह “गिरोह” बेचैन है. पिछले अठारह माह में इनका काम यही रह गया है कि येन-केन-प्रकारेण नरेंद्र मोदी सरकार को किसी न किसी “अ-मुद्दे” में उलझाए रखना, भारत को विदेशों में बदनाम करने के लिए नित-नए षड्यंत्र रचना, अपने पालतू मीडिया चैनलों के सहारे सिर्फ वही नकारात्मक ख़बरें दिखाना जिसमें सरकार की आलोचना का मौका मिले. इस गिरोह को केन्द्र सरकार की एक भी बात सकारात्मक नहीं दिखाई देती. चूँकि काँग्रेस के पास खोने के लिए तो अब कुछ बचा ही नहीं, इसलिए अपने “मोदी-द्वेष” के कारण खुल्लमखुल्ला इस खेल में शामिल है. काँग्रेस ने पिछले साठ वर्ष में प्रशासनिक स्तर पर, अकादमिक स्तर पर, मीडियाई स्तर पर एवं NGOs के स्तर पर जो नेटवर्क खड़ा किया है, उसे अब पूरी तरह सरकार के खिलाफ “एक्टिव” कर दिया गया है. इसीलिए संजीव भट्ट जैसे “आपराधिक पुलसिए” को भी आराम से NGOs में शरण मिल जाती है तथा जॉर्ज फर्नांडीस अथवा प्रमोद महाजन को क्लीन चिट् मिलने की ख़बरें भी बड़े आराम से चुपचाप दबा ली जाती हैं. हालाँकि यह बेचैनी बेवजह नहीं है, क्योंकि यह “गिरोह” जानता है कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह और अजित डोभाल जैसे लोग इनका क्या हश्र कर सकते हैं... सिर्फ समय की बात है.