महाराष्ट्र की लावणी/तमाशा परम्परा को जीवित करती और “जेण्डर बायस” की त्रासदी दर्शाती नई मराठी फ़िल्म “नटरंग”… Natrang, Atul Kulkarni, Marathi Movies, Tamasha
Written by Super User बुधवार, 13 जनवरी 2010 12:06
महाराष्ट्र की ग्रामीण लोक-परम्परा में “लावणी” और “तमाशा” का एक विशिष्ट स्थान हमेशा से रहा है। यह लोकनृत्य और इसमें प्रयुक्त किये जाने वाले गीत-संगीत-हावभाव आदि का मराठी फ़िल्मों में हमेशा से प्रमुख स्थान रहा है। बीते कुछ वर्षों में हिन्दी फ़िल्मों के बढ़ते प्रभाव, फ़िल्मों के कथानक का “कमाई” के अनुसार बाज़ारीकरण, तथा मराठी फ़िल्मों में भी पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते असर की वजह से अव्वल तो ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनने वाली फ़िल्में ही कम हो गईं और उसमें भी लावणी और तमाशा के गीत तथा दृश्य मृतप्राय हो गये थे।
महाराष्ट्र के लोगों में नाटक-कला-संस्कृति-फ़िल्में-गायन-वादन-खेल आदि की परम्परा सदा से ही पुष्ट रही है। इसमें भी “नाटक” और “गायन” प्रत्येक मराठी के दिल में बसता है, और यदि संगीत-नाटक (जिसमें कहानी के साथ गीत भी शामिल होते हैं) हो तो क्या कहने। बदलते आधुनिक युग के साथ महाराष्ट्र के ग्रामीण भागों में भी लावणी-तमाशा की परम्परा धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। अलबत्ता मुम्बई जैसे महानगर अथवा नासिक, पुणे, औरंगाबाद, सोलापुर, कोल्हापुर आदि शहरों में अच्छे नाटकों के शो आज भी हाउसफ़ुल जाते हैं।
1 जनवरी 2010 को महाराष्ट्र की इस विशिष्ट परम्परा को पुनर्जीवित करने का प्रयास करते हुए एक फ़िल्म प्रदर्शित हुई है, नाम है “नटरंग”, रिलीज़ होने से पहले ही इसका संगीत बेहद लोकप्रिय हो चुका था और रिलीज़ होने के बाद इस फ़िल्म ने पूरे महाराष्ट्र में धूम मचा रखी है। जी टॉकीज़ द्वारा निर्मित यह फ़िल्म प्रख्यात मराठी लेखक और महाराष्ट्र साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष आनन्द यादव के उपन्यास पर आधारित है और इसमें मुख्य भूमिका निभाई है “अतुल कुलकर्णी” ने। अतुल कुलकर्णी को हिन्दी के दर्शक, - हे-राम, पेज 3, चांदनी बार, रंग दे बसन्ती, ये है इंडिया, जेल आदि फ़िल्मों में महत्वपूर्ण भूमिकाओं में देख चुके हैं।
दो साल पहले जब इस फ़िल्म के उपन्यास पर आधारित पटकथा जी टॉकीज़ वालों को सुनाई गई थी, उस समय इसकी कहानी के फ़िल्म बनने पर “कमाऊ” होने में निश्चित रूप से संशय था, क्योंकि लावणी-तमाशे की मुख्य पृष्ठभूमि पर आधारित ग्रामीण कहानी पर फ़िल्म बनाना एक बड़ा जोखिम था, लेकिन जी टॉकीज़ वालों ने निर्देशक की मदद की और यह बेहतरीन फ़िल्म परदे पर उतरी। रही-सही कसर अतुल कुलकर्णी जैसे “प्रोफ़ेशन” के प्रति समर्पित उम्दा कलाकार ने पूरी कर दी।
हिन्दी के दर्शक अतुल के बारे में अधिक नहीं जानते होंगे, लेकिन मराठी से आये हुए अधिकतर कलाकार चाहे वह रीमा लागू हों, डॉ श्रीराम लागू हों, नाना पाटेकर, अमोल पालेकर, मधुर भण्डारकर या महेश मांजरेकर कोई भी हों… सामान्यतः नाटक और मंच की परम्परा के जरिये ही आते हैं इसलिये फ़िल्म निर्देशक का काम वैसे ही आसान हो जाता है। हिन्दी में भी परेश रावल, सतीश शाह, पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी आदि मंजे हुए कलाकार नाटक मंच के जरिये ही आये हैं। बात हो रही थी अतुल कुलकर्णी की, इस फ़िल्म की पटकथा और कहानी से वे इतने प्रभावित थे कि उन्होंने सात महीने की एकमुश्त डेट्स निर्देशक को दे दीं, तथा इस बीच अपने रोल के साथ पूरा न्याय करने के लिये उन्होंने मणिरत्नम, विशाल भारद्वाज और रामगोपाल वर्मा जैसे दिग्गजों को नई कहानी या पटकथा सुनाने-सुनने से मना कर दिया।
इस फ़िल्म में अतुल कुलकर्णी का रोल इंटरवल के पहले एक पहलवान का है, जबकि इंटरवल के बाद तमाशा में नृत्य करने वाले एक हिजड़ानुमा स्त्री पात्र का है, जिसे “तमाशा” में मुख्य स्त्री पात्र का सहायक अथवा “नाच्या” कहा जाता है। फ़िल्म में पहलवान दिखने के लिये पहले दुबले-पतले अतुल कुलकर्णी ने अपना वज़न बढ़ाकर 85 किलो किया और जिम में जमकर पसीना बहाया। फ़िर दो माह के भीतर ही भूमिका की मांग के अनुसार इंटरवल के बाद “स्त्री रूपी हिजड़ा” बनने के लिये अपना वज़न 20 किलो घटाया। सिर्फ़ तीन माह के अन्तराल में अपने शरीर के साथ इस तरह का खतरनाक खिलवाड़ निश्चित रूप से उनके लिये जानलेवा साबित हो सकता था, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फ़िजिकल ट्रेनर शैलेष परुलेकर की मदद से यह कठिन काम भी उन्होंने पूरा कर दिखाया।
अतुल कुलकर्णी ने 30 वर्ष की आयु में 1995 में नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से कोर्स पूरा किया, उसी के बाद उन्होंने अभिनय को अपना प्रोफ़ेशन बनाना निश्चित कर लिया। अतुल कुलकर्णी ने अब तक 4 भाषाओं में आठ नाटक, 6 भाषाओं में छब्बीस फ़िल्में की हैं तथा उन्हें दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। उनका कहना है कि फ़िल्म की भाषा क्या है, अथवा निर्देशक कौन है इसकी बजाय कहानी और पटकथा के आधार पर ही वे फ़िल्म करना है या नहीं यह निश्चित करते हैं, मुझे अधिक फ़िल्में करने में कोई रुचि नहीं है, अच्छी फ़िल्में और रोल मिलते रहें बस… बाकी रोजी-रोटी के लिये नाटक तो है ही…”।
अब थोड़ा सा इस अदभुत फ़िल्म की कहानी के बारे में…
फ़िल्म का मुख्य पात्र गुणा कागलकर अर्थात अतुल एक ग्रामीण खेत मजदूर हैं। गुणाजी को सिर्फ़ दो ही शौक हैं, पहलवानी करना और तमाशा-लावणी देखना, उसके मन में एक दबी हुई इच्छा भी है कि वह अपनी खुद की नाटक-तमाशा कम्पनी शुरु करे, उसमें स्वयं एक राजा की भूमिका करे तथा विलुप्त होती जा रही लावणी कला को उसके शिखर पर स्थापित करे। ग्रामीण पृष्ठभूमि और सुविधाओं के अभाव में उसका संघर्ष जारी रहता है, वह धीरे-धीरे गाँव के कुछ अन्य नाटकप्रेमी लोगों को एकत्रित करके एक ग्रुप बनाता है जिसमें लावणी नृत्य पेश किया जाना है। उसे हीरोइन भी मिल जाती है, जो उसे भी नृत्य सिखाती है। इन सबके बीच समस्या तब आन खड़ी होती है, जब “नाच्या” (स्त्री रूपी मजाकिया हिजड़े) की भूमिका के लिये कोई कलाकार ही नहीं मिलता, लेकिन गुणाजी पर नाटक कम्पनी खड़ी करने और अपनी कला प्रदर्शित करने का जुनून कुछ ऐसा होता है कि वह मजबूरी में खुद ही “नाच्या” बनने को तैयार हो जाता है। उसके इस निर्णय से उसकी पत्नी बेहद खफ़ा होती है और उनमें विवाद शुरु हो जाते हैं, उस पर गाँव की भीतरी राजनीति में नाटक की हीरोइन तो “जेण्डर बायस” की शिकार होती है साथ ही साथ हिजड़े की भूमिका निभाने के लिये गुणाजी को भी गाँव में हँसी का पात्र बनना पड़ता है। कहाँ तो गुणाजी अपने तमाशे में एक “विशालकाय मजबूत राजा” का किरदार निभाना चाहता है, लेकिन बदकिस्मती से उसे साड़ी-बिन्दी लगाकर एक नचैया की भूमिका करना पड़ती है…नाटक के अपने शौक और अपनी लावणी कम्पनी शुरु करने की खातिर वह ऐसा भी करता है। बहरहाल तमाम संघर्षों, पक्षपात, खिल्ली, धनाभाव, अपने परिवार की टूट के बावजूद गुणाजी अन्ततः अपने उद्देश्य में सफ़ल होता है और उसकी नाटक कम्पनी सफ़लता से शुरु हो जाती है, लेकिन उसकी पत्नी उसे छोड़कर चली जाती है। (अतुल कुलकर्णी की हिजड़ानुमा औरत वाली भूमिका की तस्वीर जानबूझकर नहीं दे रहा हूं, क्योंकि वह देखने और अनुभव करने की बात है)
मराठी नाटकों की सौ वर्ष से भी पुरानी समृद्ध नाट्य परम्परा में लावणी-तमाशा में “नाच्या” की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि यह नाच्या कभी कहानी को आगे बढ़ाने के काम आता है, कभी सूत्रधार, कभी विदूषक तो कभी नर्तक बन जाता है। इस तरह नृत्य करने वाली मुख्य नृत्यांगना के साथ ही इसका रोल भी जरूरी होता है, लेकिन जैसा कि हमारे समाज में होता आया है, “थर्ड जेण्डर” अर्थात हिजड़ों के साथ अन्याय, उपेक्षा और हँसी उड़ाने का भाव सदा मौजूद होता है, वैसा नाच्या के साथ भी जेण्डर बायस किया जाता है, जबकि अधिकतर तमाशों में यह भूमिका पुरुष ही निभाते आये हैं। मराठी नाटकों में पुरुषों द्वारा स्त्री की भूमिका बाळ गन्धर्व के ज़माने से चली आ रही है, कई-कई नाटकों में पुरुषों ने स्त्री की भूमिका बगैर किसी फ़ूहड़पन के इतने उम्दा तरीके से निभाई है कि नाटक देखते वक्त कोई जान नहीं सकता कि वह कलाकार पुरुष है। ऐसे ही एक महान मराठी कलाकार थे गणपत पाटील, जिन्होंने बहुत सारी फ़िल्मों में “नाच्या” की भूमिका अदा की, और उनके अभिनय में इतना दम था तथा उनकी भूमिकाएं इतनी जोरदार थीं कि नाटक-फ़िल्मों के बाहर की दुनिया में भी उनके बच्चों को भी लोग उनका बच्चा मानने को तैयार नहीं होते थे, अर्थात जैसी छवि हिन्दी फ़िल्मों में प्राण अथवा रंजीत की है कि ये लोग बुरे व्यक्ति ही हैं, ठीक वैसी ही छवि गणपत पाटील की हिजड़े के रूप में तथा निळू फ़ुले की “खराब आदमी” के रूप में मराठी में प्रचलित है।
मराठी नाटकों की समृद्ध परम्परा की बात निकली है तो एक उल्लेख करना चाहूंगा कि मराठी फ़िल्मों के स्टार प्रशांत दामले 1983 से अब तक नाटकों के 8000 "व्यावसायिक" शो कर चुके हैं तथा एक ही दिन में 3 विभिन्न नाटकों के 5 शो हाउसफ़ुल करने के लिये लिम्का बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स में उनका नाम दर्ज है…।
चलते-चलते :-
उज्जैन में प्रतिवर्ष सरकारी खर्च और प्रचार पर कालिदास समारोह आयोजित किया जाता है, जिसमें संस्कृत और हिन्दी के नाटक खेले जाते हैं, लेकिन सारे तामझाम के बावजूद कई बार 100 दर्शक भी नहीं जुट पाते, जो दर्शक इन हिन्दी नाटकों में पाये जाते हैं, उनमें से कुछ सरकारी अधिकारी होते हैं जिनकी वहां उपस्थिति “ड्यूटी” का एक भाग है, कुछ अखबारों के कथित समीक्षक, तथा कुछ आसपास घूमने वाले अथवा टेण्ट हाउस वाले दिखाई देते हैं। जबकि इसी उज्जैन में जब महाराष्ट्र समाज द्वारा मराठी नाटक मुम्बई अथवा इन्दौर से बुलवाया जाता है, तब बाकायदा “टिकिट लेकर” देखने वाले 500 लोग भी आराम से मिल जाते हैं।
फ़िल्म रिलीज़ के मौके पर मंच पर प्रस्तुत इस फ़िल्म का एक गीत यहाँ देखा जा सकता है…
http://www.youtube.com/watch?v=79xzHDM11eQ
तथा “नटरंग” फ़िल्म का ट्रेलर यहाँ देखा जा सकता है…
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महाराष्ट्र के लोगों में नाटक-कला-संस्कृति-फ़िल्में-गायन-वादन-खेल आदि की परम्परा सदा से ही पुष्ट रही है। इसमें भी “नाटक” और “गायन” प्रत्येक मराठी के दिल में बसता है, और यदि संगीत-नाटक (जिसमें कहानी के साथ गीत भी शामिल होते हैं) हो तो क्या कहने। बदलते आधुनिक युग के साथ महाराष्ट्र के ग्रामीण भागों में भी लावणी-तमाशा की परम्परा धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। अलबत्ता मुम्बई जैसे महानगर अथवा नासिक, पुणे, औरंगाबाद, सोलापुर, कोल्हापुर आदि शहरों में अच्छे नाटकों के शो आज भी हाउसफ़ुल जाते हैं।
1 जनवरी 2010 को महाराष्ट्र की इस विशिष्ट परम्परा को पुनर्जीवित करने का प्रयास करते हुए एक फ़िल्म प्रदर्शित हुई है, नाम है “नटरंग”, रिलीज़ होने से पहले ही इसका संगीत बेहद लोकप्रिय हो चुका था और रिलीज़ होने के बाद इस फ़िल्म ने पूरे महाराष्ट्र में धूम मचा रखी है। जी टॉकीज़ द्वारा निर्मित यह फ़िल्म प्रख्यात मराठी लेखक और महाराष्ट्र साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष आनन्द यादव के उपन्यास पर आधारित है और इसमें मुख्य भूमिका निभाई है “अतुल कुलकर्णी” ने। अतुल कुलकर्णी को हिन्दी के दर्शक, - हे-राम, पेज 3, चांदनी बार, रंग दे बसन्ती, ये है इंडिया, जेल आदि फ़िल्मों में महत्वपूर्ण भूमिकाओं में देख चुके हैं।
दो साल पहले जब इस फ़िल्म के उपन्यास पर आधारित पटकथा जी टॉकीज़ वालों को सुनाई गई थी, उस समय इसकी कहानी के फ़िल्म बनने पर “कमाऊ” होने में निश्चित रूप से संशय था, क्योंकि लावणी-तमाशे की मुख्य पृष्ठभूमि पर आधारित ग्रामीण कहानी पर फ़िल्म बनाना एक बड़ा जोखिम था, लेकिन जी टॉकीज़ वालों ने निर्देशक की मदद की और यह बेहतरीन फ़िल्म परदे पर उतरी। रही-सही कसर अतुल कुलकर्णी जैसे “प्रोफ़ेशन” के प्रति समर्पित उम्दा कलाकार ने पूरी कर दी।
इस फ़िल्म में अतुल कुलकर्णी का रोल इंटरवल के पहले एक पहलवान का है, जबकि इंटरवल के बाद तमाशा में नृत्य करने वाले एक हिजड़ानुमा स्त्री पात्र का है, जिसे “तमाशा” में मुख्य स्त्री पात्र का सहायक अथवा “नाच्या” कहा जाता है। फ़िल्म में पहलवान दिखने के लिये पहले दुबले-पतले अतुल कुलकर्णी ने अपना वज़न बढ़ाकर 85 किलो किया और जिम में जमकर पसीना बहाया। फ़िर दो माह के भीतर ही भूमिका की मांग के अनुसार इंटरवल के बाद “स्त्री रूपी हिजड़ा” बनने के लिये अपना वज़न 20 किलो घटाया। सिर्फ़ तीन माह के अन्तराल में अपने शरीर के साथ इस तरह का खतरनाक खिलवाड़ निश्चित रूप से उनके लिये जानलेवा साबित हो सकता था, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फ़िजिकल ट्रेनर शैलेष परुलेकर की मदद से यह कठिन काम भी उन्होंने पूरा कर दिखाया।
अतुल कुलकर्णी ने 30 वर्ष की आयु में 1995 में नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से कोर्स पूरा किया, उसी के बाद उन्होंने अभिनय को अपना प्रोफ़ेशन बनाना निश्चित कर लिया। अतुल कुलकर्णी ने अब तक 4 भाषाओं में आठ नाटक, 6 भाषाओं में छब्बीस फ़िल्में की हैं तथा उन्हें दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। उनका कहना है कि फ़िल्म की भाषा क्या है, अथवा निर्देशक कौन है इसकी बजाय कहानी और पटकथा के आधार पर ही वे फ़िल्म करना है या नहीं यह निश्चित करते हैं, मुझे अधिक फ़िल्में करने में कोई रुचि नहीं है, अच्छी फ़िल्में और रोल मिलते रहें बस… बाकी रोजी-रोटी के लिये नाटक तो है ही…”।
अब थोड़ा सा इस अदभुत फ़िल्म की कहानी के बारे में…
फ़िल्म का मुख्य पात्र गुणा कागलकर अर्थात अतुल एक ग्रामीण खेत मजदूर हैं। गुणाजी को सिर्फ़ दो ही शौक हैं, पहलवानी करना और तमाशा-लावणी देखना, उसके मन में एक दबी हुई इच्छा भी है कि वह अपनी खुद की नाटक-तमाशा कम्पनी शुरु करे, उसमें स्वयं एक राजा की भूमिका करे तथा विलुप्त होती जा रही लावणी कला को उसके शिखर पर स्थापित करे। ग्रामीण पृष्ठभूमि और सुविधाओं के अभाव में उसका संघर्ष जारी रहता है, वह धीरे-धीरे गाँव के कुछ अन्य नाटकप्रेमी लोगों को एकत्रित करके एक ग्रुप बनाता है जिसमें लावणी नृत्य पेश किया जाना है। उसे हीरोइन भी मिल जाती है, जो उसे भी नृत्य सिखाती है। इन सबके बीच समस्या तब आन खड़ी होती है, जब “नाच्या” (स्त्री रूपी मजाकिया हिजड़े) की भूमिका के लिये कोई कलाकार ही नहीं मिलता, लेकिन गुणाजी पर नाटक कम्पनी खड़ी करने और अपनी कला प्रदर्शित करने का जुनून कुछ ऐसा होता है कि वह मजबूरी में खुद ही “नाच्या” बनने को तैयार हो जाता है। उसके इस निर्णय से उसकी पत्नी बेहद खफ़ा होती है और उनमें विवाद शुरु हो जाते हैं, उस पर गाँव की भीतरी राजनीति में नाटक की हीरोइन तो “जेण्डर बायस” की शिकार होती है साथ ही साथ हिजड़े की भूमिका निभाने के लिये गुणाजी को भी गाँव में हँसी का पात्र बनना पड़ता है। कहाँ तो गुणाजी अपने तमाशे में एक “विशालकाय मजबूत राजा” का किरदार निभाना चाहता है, लेकिन बदकिस्मती से उसे साड़ी-बिन्दी लगाकर एक नचैया की भूमिका करना पड़ती है…नाटक के अपने शौक और अपनी लावणी कम्पनी शुरु करने की खातिर वह ऐसा भी करता है। बहरहाल तमाम संघर्षों, पक्षपात, खिल्ली, धनाभाव, अपने परिवार की टूट के बावजूद गुणाजी अन्ततः अपने उद्देश्य में सफ़ल होता है और उसकी नाटक कम्पनी सफ़लता से शुरु हो जाती है, लेकिन उसकी पत्नी उसे छोड़कर चली जाती है। (अतुल कुलकर्णी की हिजड़ानुमा औरत वाली भूमिका की तस्वीर जानबूझकर नहीं दे रहा हूं, क्योंकि वह देखने और अनुभव करने की बात है)
मराठी नाटकों की सौ वर्ष से भी पुरानी समृद्ध नाट्य परम्परा में लावणी-तमाशा में “नाच्या” की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि यह नाच्या कभी कहानी को आगे बढ़ाने के काम आता है, कभी सूत्रधार, कभी विदूषक तो कभी नर्तक बन जाता है। इस तरह नृत्य करने वाली मुख्य नृत्यांगना के साथ ही इसका रोल भी जरूरी होता है, लेकिन जैसा कि हमारे समाज में होता आया है, “थर्ड जेण्डर” अर्थात हिजड़ों के साथ अन्याय, उपेक्षा और हँसी उड़ाने का भाव सदा मौजूद होता है, वैसा नाच्या के साथ भी जेण्डर बायस किया जाता है, जबकि अधिकतर तमाशों में यह भूमिका पुरुष ही निभाते आये हैं। मराठी नाटकों में पुरुषों द्वारा स्त्री की भूमिका बाळ गन्धर्व के ज़माने से चली आ रही है, कई-कई नाटकों में पुरुषों ने स्त्री की भूमिका बगैर किसी फ़ूहड़पन के इतने उम्दा तरीके से निभाई है कि नाटक देखते वक्त कोई जान नहीं सकता कि वह कलाकार पुरुष है। ऐसे ही एक महान मराठी कलाकार थे गणपत पाटील, जिन्होंने बहुत सारी फ़िल्मों में “नाच्या” की भूमिका अदा की, और उनके अभिनय में इतना दम था तथा उनकी भूमिकाएं इतनी जोरदार थीं कि नाटक-फ़िल्मों के बाहर की दुनिया में भी उनके बच्चों को भी लोग उनका बच्चा मानने को तैयार नहीं होते थे, अर्थात जैसी छवि हिन्दी फ़िल्मों में प्राण अथवा रंजीत की है कि ये लोग बुरे व्यक्ति ही हैं, ठीक वैसी ही छवि गणपत पाटील की हिजड़े के रूप में तथा निळू फ़ुले की “खराब आदमी” के रूप में मराठी में प्रचलित है।
मराठी नाटकों की समृद्ध परम्परा की बात निकली है तो एक उल्लेख करना चाहूंगा कि मराठी फ़िल्मों के स्टार प्रशांत दामले 1983 से अब तक नाटकों के 8000 "व्यावसायिक" शो कर चुके हैं तथा एक ही दिन में 3 विभिन्न नाटकों के 5 शो हाउसफ़ुल करने के लिये लिम्का बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स में उनका नाम दर्ज है…।
चलते-चलते :-
उज्जैन में प्रतिवर्ष सरकारी खर्च और प्रचार पर कालिदास समारोह आयोजित किया जाता है, जिसमें संस्कृत और हिन्दी के नाटक खेले जाते हैं, लेकिन सारे तामझाम के बावजूद कई बार 100 दर्शक भी नहीं जुट पाते, जो दर्शक इन हिन्दी नाटकों में पाये जाते हैं, उनमें से कुछ सरकारी अधिकारी होते हैं जिनकी वहां उपस्थिति “ड्यूटी” का एक भाग है, कुछ अखबारों के कथित समीक्षक, तथा कुछ आसपास घूमने वाले अथवा टेण्ट हाउस वाले दिखाई देते हैं। जबकि इसी उज्जैन में जब महाराष्ट्र समाज द्वारा मराठी नाटक मुम्बई अथवा इन्दौर से बुलवाया जाता है, तब बाकायदा “टिकिट लेकर” देखने वाले 500 लोग भी आराम से मिल जाते हैं।
फ़िल्म रिलीज़ के मौके पर मंच पर प्रस्तुत इस फ़िल्म का एक गीत यहाँ देखा जा सकता है…
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तथा “नटरंग” फ़िल्म का ट्रेलर यहाँ देखा जा सकता है…
Natrang, Atul Kulkarni, Marathi Movies, Tamasha, Lavni Culture in Marathi Folk, Anand Yadav, Marathi Sahitya Sammelan, नटरंग, अतुल कुलकर्णी, मराठी फ़िल्में, तमाशा, लावणी, आनंद यादव, मराठी साहित्य सम्मेलन, मराठी लोक संस्कृति, मराठी नाटक, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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