क्या शाहरुख खान का कोई “छिपा हुआ इस्लामिक एजेण्डा” है?...... My Name is Khan, Shahrukh, Islamic Agenda
Written by Super User गुरुवार, 18 फरवरी 2010 12:41
बाल ठाकरे, मीडिया और जनता को मूर्ख बनाकर, कॉंग्रेस की तरफ़ से अगले लोकसभा चुनावों में अपना टिकट पक्का करने और अपनी फ़िल्म की सफ़ल अन्तर्राष्ट्रीय मार्केटिंग करने वाले शाहरुख खान अब दुबई से लौटकर अपने बंगले मन्नत में आराम फ़रमा रहे हैं। मीडिया को तो खैर इस “काम” के लिये पैसा मिला था और कांग्रेस को मुम्बई में लोकसभा की एक सीट के लिये अज़हरुद्दीन टाइप का सदाबहार “इस्लामिक आईकन” मिल गया, सबसे ज्यादा घाटे में रहे बाल ठाकरे और आम जनता। बाल ठाकरे के बारे में बाद में बात करेंगे, लेकिन जनता तो इस घटिया फ़िल्म को “मीडिया हाइप” की वजह से देखने गई और बेहद निराश हुई, वहीं दूसरी तरफ़ महंगाई और आतंकवाद जैसे मुद्दे 4-5 दिनों के लिये सभी प्रमुख चैनलों से गायब हो गये। इस सारे तमाशे में कुछ प्रमुख बातें उभरकर आईं, खासकर शाहरुख खान द्वारा खुद को इस्लामिक आईकॉन के रूप में प्रचारित करना।
राजनीति की बात बाद में, पहले बात करते हैं फ़िल्म की, क्योंकि फ़िल्म ट्रेड संवाददाताओं और आँकड़े जुटाने वाली वेबसाईटों को स्रोत मानें तो इस फ़िल्म का अब तक का कलेक्शन कमजोर ही रहा है। जब सारे “भारतीय समीक्षकों” ने इस 5 स्टार की रेटिंग दे रखी हो ऐसे में मुम्बई में रिलीज़ 105 थियेटरों में पहले शो की उपस्थिति सिर्फ़ 75% रही, जबकि मीडिया हाइप और उत्सुकता को देखते हुए इसे कम ही कहा जायेगा। करण जौहर की किसी भी फ़िल्म के प्रारम्भिक तीन दिन साधारणतः हाउसफ़ुल जाते हैं, लेकिन इस फ़िल्म में ऐसा तो हुआ नहीं, बल्कि सोमवार आते-आते फ़िल्म की कलई पूरी तरह खुल गई और जहाँ रविवार को दर्शक उपस्थिति 70-80% थी वह सोमवार को घटकर कहीं-कहीं 30% और कहीं-कहीं 15% तक रह गई। ज़ाहिर है कि शुरुआती तीन दिन तो बाल ठाकरे से खुन्नस के चलते, उत्सुकता के चलते, शाहरुख-काजोल की जोड़ी के चलते दर्शक इसे देखने गये, लेकिन बाहर निकलकर “निगेटिव माउथ पब्लिसिटी” के कारण इसकी पोल खुल गई, कि कुल मिलाकर यह एक बकवास फ़िल्म है। और हकीकत भी यही है कि फ़िल्म में शाहरुख खुद तो ओवर-एक्टिंग का शिकार हैं ही, उनकी महानता को दर्शाने वाले सीन भी बेहद झिलाऊ और अविश्वसनीय बन पड़े हैं… ऊपर से बात-बात में कुरान का “ओवरडोज़”…। अमेरिकी कम्पनी फ़ॉक्स स्टार ने इसे 100 करोड़ में खरीदा है, इस दृष्टि से इसे कम से कम 250 करोड़ का राजस्व जुटाना होगा, जो कि फ़िलहाल दूर की कौड़ी नज़र आती है (हालांकि भोंपू पत्रकार झूठे आँकड़े पेश करके इसे 3 इडियट्स से भी अधिक सफ़ल बतायेंगे)…हकीकत इधर देखें…
मीडियाई भोंपुओं द्वारा फ़ैलाया गया गर्द-गुबार बैठ गया है तो शान्ति से बैठकर सोचें कि आखिर हुआ क्या? सारे मामले की शुरुआत हुई शाहरुख के दो बयानों से कि - 1) IPL में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को लिया जाना चाहिये था और 2) पाकिस्तान हमारा एक “महान पड़ोसी” है। इस प्रकार के निहायत शर्मनाक और इतिहासबोध से परे बयान एक जेहादी व्यक्ति ही दे सकता है। पहले बयान की बात करें तो आज की तारीख में भी यह एक “खुला रहस्य” बना हुआ है कि आखिर शाहरुख खान ने अपनी टीम में पाकिस्तान के किसी खिलाड़ी को क्यों नहीं खरीदा? यह सवाल मीडियाई भाण्डों ने उनसे आज तक नहीं पूछा… और जब नहीं खरीदा तब बोली खत्म होने के बाद अचानक उनका पाकिस्तान प्रेम क्यों उमड़ पड़ा? रही-सही कसर बाल ठाकरे ने अपनी मूर्खतापूर्ण कार्रवाईयों के जरिये पूरी कर दी, और शाहरुख को खामखा एक बकवास फ़िल्म को प्रचारित करने का मौका मिल गया।
“महान पड़ोसी” वाला बयान तो निहायत ही बेवकूफ़ाना और उनके “इतिहास ज्ञान” का मखौल उड़ाने वाला है। क्या पाकिस्तान के निर्माण से लेकर आज तक भारत के प्रति उसके व्यवहार, लियाकत अली खान, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो, बेनज़ीर भुट्टो, ज़िया-उल-हक, मुशर्रफ़ और कियानी जैसों तथा तीन-तीन युद्धों के बारे में, शाहरुख खान नहीं जानते? यदि नहीं जानते तब तो वे मूर्ख ही हैं और जानते हैं फ़िर भी “महान पड़ोसी” कहते हैं तब तो वे “जेहादी” हैं और उनका कोई गुप्त एजेण्डा है। शाहरुख खान, या महेश भट्ट जैसे लोग जानते हैं कि “बाज़ार” में अपनी “घटिया चीज़” बेचने के लिये क्या-क्या करना पड़ता है, साथ ही ऐसे “उदारवादी” बयानों से पुरस्कार वगैरह कबाड़ने में भी मदद मिलती है, इसीलिये पाकिस्तान के साथ खेलने के सवाल पर सभी कथित गाँधीवादी, पाकिस्तान के प्रति नॉस्टैल्जिक बूढे और भेड़ की खाल में छुपे बैठे कुछ उदारवादी एक सुर में गाने लगते हैं कि “खेलों में राजनीति नहीं होना चाहिये… खेल इन सबसे ऊपर हैं…”। ऐसे वक्त में यह भूल जाते हैं कि चीन ने भी ओलम्पिक को अपनी “छवि बनाने” के लिये ही उपयोग किया, और “पैसा मिलने” पर “कुछ भी” करने के लिये तैयार आमिर और सैफ़ खान ने, तिब्बतियों, और यहाँ तक कि मुस्लिम उइगुरों के भी दमन के बावजूद, ओलम्पिक मशाल लेकर दौड़ने में कोई कोताही नहीं बरती, जबकि फ़ुटबॉल खिलाड़ी बाइचुंग भूटिया अधिक हिम्मत वाले और मजबूत रीढ़ की हड्डी वाले निकले, जिन्होंने चीन में बौद्धों के दमन के विरोध में ओलम्पिक मशाल नहीं थामी। कोई मूर्ख ही यह सोच सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय खेलों में राजनीति नहीं होती। IPL-3 ने जो कड़ा संदेश पाकिस्तान पहुँचाया था उसे शाहरुख खान ने तुरन्त धोने की कवायद कर डाली, लेकिन किसके इशारे पर? यह प्रश्न संदेह के घेरे में अनुत्तरित है।
बाल ठाकरे, जो पहले ही उत्तर भारतीयों पर निशाना साधने की वजह से जनता की सहानुभूति खो चुके थे, शाहरुख खान और इस्लामिक जगत की इस “इमेज-बनाऊ” “बाजारू चाल” को भाँप नहीं सके और उनके जाल में फ़ँस गये। उप्र-बिहार के निवासियों को नाराज़ करके “हिन्दुत्व आंदोलन” को पहले ही कमजोर कर चुके और उसी वजह से खुद भी कमजोर हो चुके बाल ठाकरे बेवकूफ़ बन गये। युवाओं ने बाल ठाकरे से खुन्नस के चलते मल्टीप्लेक्सों में जाकर इस थर्ड-क्लास फ़िल्म पर अपने पैसे लुटाये (और बाद में पछताये भी)। भाजपा ने युवाओं के इस रुख को भाँप लिया था और वह इससे दूर ही रही, लेकिन तब तक शाहरुख ने खुद को करोड़ों रुपये में खेलने के लिये ज़मीन तैयार कर ली। जबकि बाल ठाकरे यदि रिलीज़ से एक-दो दिन पहले इस फ़िल्म की पायरेटेड सीडी हजारों की संख्या में अपने कार्यकर्ताओं के जरिये आम जनता और युवाओं में बंटवाते तो वह विरोध अधिक प्रभावशाली होता तथा पहले तीन दिन जितने लोग मूर्ख बनने थियेटरों में गये, उनके पैसे भी बचते। ठाकरे के इस कदम का विरोध करना भी मुश्किल हो जाता क्योंकि पाकिस्तान में भारतीय फ़िल्मों और गानों की पाइरेसी से करोड़ों रुपये का फ़टका खाने के बावजूद इधर के मूर्ख कलाकार अभी भी पाकिस्तान का गुणगान किये ही जा रहे हैं।
कुछ पत्रकार बन्धुओं का शाहरुख प्रेम अचानक जागृत हो उठा है, शाहरुख के पिता ऐसे थे, दादाजी वैसे थे, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे, आजादी की लड़ाई में भाग भी लिया था… आदि-आदि-आदि किस्से हवा में तैरने लगे हैं, लेकिन वे लोग यह भूल जाते हैं कि शाहरुख शाहरुख हैं, अपने पिता और दादा नहीं…। शाहरुख ने तो “लव जेहाद” अपनाते हुए एक हिन्दू लड़की को भगाकर शादी की है, फ़िर उनकी तुलना स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी से कैसे की जा सकती है?
उधर हमारा “बिका हुआ सेकुलर मीडिया” जो पहले ही हिन्दुत्व और हिन्दू हित की खबरों को पीछे धकेल रखता है, हरिद्वार कुम्भ के शाही स्नान की प्रमुख खबरें छोड़कर, देश पर आई इस “सेकुलर आपदा” यानी खान की फ़िल्म रिलीज़ को कवरेज देता रहा (ऐसी ही भौण्डी कोशिश देश के स्वतन्त्रता दिवस के दिन भी हुई थी जब इस व्यक्ति को अमेरिका के हवाई अड्डे पर तलाशी के लिये रोका गया था, उस दिन भी मीडिया ने 15 अगस्त के प्रमुख कार्यक्रम छोड़कर इस छिछोरे पर हुए “कथित अन्याय” को कवरेज में पूरे तीन दिन खा लिये थे)। शाहरुख खान ने पाकिस्तान से मधुर सम्बन्ध की नौटंकी का पहला भाग अपनी फ़िल्म “मैं हूँ ना…” से पहले भी खेला था, अभी जो खेला गया, वह तीसरा भाग था, जबकि दूसरा भाग अमेरिकी हवाई अड्डे की तलाशी वाला था। इससे शक गहराना स्वाभाविक है कि शाहरुख का कोई गुप्त एजेण्डा तो नहीं है? इसी प्रकार फ़िल्म की रिलीज़ के पहले शाहरुख खान ने लन्दन एयरपोर्ट पर बॉडी स्कैनर द्वारा उसकी नग्न तस्वीरें खींचे जाने सम्बन्धी सरासर झूठ बोला, फ़िर उसके हवाले से खबर आई कि उसकी नग्न तस्वीरों पर लन्दन में लड़कियों ने ऑटोग्राफ़ भी लिये… ब्रिटिश कस्टम अधिकारियों के खण्डन के बावजूद (क्योंकि ऐसा नग्न स्कैन सम्भव नहीं है), चमचे पत्रकारों ने कुछ समय हंगामे में गुज़ार दिया… और अचानक तुरन्त ही इस्लामिक जगत की ओर से “फ़तवा” आ गया कि “कोई भी मुसलमान एयरपोर्ट पर अपना बॉडी स्कैनर न करवायें, क्योंकि यह गैर-इस्लामिक है…” ताबड़तोड़ दारुल उलूम ने भी इसका अनुमोदन कर दिया… क्या यह सिर्फ़ संयोग है कि शाहरुख के बयान के तुरन्त बाद फ़तवा आ गया? क्या यह भी संयोग है कि नायक का नाम रिज़वान है (कोलकाता में एक हिन्दू लड़की से शादी रचाने और मौत के बाद “सेकुलरों” द्वारा रोने-पीटने के मामले में भी “हीरो” रिज़वान ही था)। क्या यह भी सिर्फ़ संयोग है कि नायिका एक हिन्दू विधवा है? इतने सारे संयोग एक साथ? मामला कुछ गड़बड़ है भैया…
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इसी विवाद से सम्बन्धित एक और हिट लेख पढ़िये - क्या इन्हीं पाकिस्तानियों के लिये मरे जा रहे हैं शाहरुख खान…
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राजनीति की बात बाद में, पहले बात करते हैं फ़िल्म की, क्योंकि फ़िल्म ट्रेड संवाददाताओं और आँकड़े जुटाने वाली वेबसाईटों को स्रोत मानें तो इस फ़िल्म का अब तक का कलेक्शन कमजोर ही रहा है। जब सारे “भारतीय समीक्षकों” ने इस 5 स्टार की रेटिंग दे रखी हो ऐसे में मुम्बई में रिलीज़ 105 थियेटरों में पहले शो की उपस्थिति सिर्फ़ 75% रही, जबकि मीडिया हाइप और उत्सुकता को देखते हुए इसे कम ही कहा जायेगा। करण जौहर की किसी भी फ़िल्म के प्रारम्भिक तीन दिन साधारणतः हाउसफ़ुल जाते हैं, लेकिन इस फ़िल्म में ऐसा तो हुआ नहीं, बल्कि सोमवार आते-आते फ़िल्म की कलई पूरी तरह खुल गई और जहाँ रविवार को दर्शक उपस्थिति 70-80% थी वह सोमवार को घटकर कहीं-कहीं 30% और कहीं-कहीं 15% तक रह गई। ज़ाहिर है कि शुरुआती तीन दिन तो बाल ठाकरे से खुन्नस के चलते, उत्सुकता के चलते, शाहरुख-काजोल की जोड़ी के चलते दर्शक इसे देखने गये, लेकिन बाहर निकलकर “निगेटिव माउथ पब्लिसिटी” के कारण इसकी पोल खुल गई, कि कुल मिलाकर यह एक बकवास फ़िल्म है। और हकीकत भी यही है कि फ़िल्म में शाहरुख खुद तो ओवर-एक्टिंग का शिकार हैं ही, उनकी महानता को दर्शाने वाले सीन भी बेहद झिलाऊ और अविश्वसनीय बन पड़े हैं… ऊपर से बात-बात में कुरान का “ओवरडोज़”…। अमेरिकी कम्पनी फ़ॉक्स स्टार ने इसे 100 करोड़ में खरीदा है, इस दृष्टि से इसे कम से कम 250 करोड़ का राजस्व जुटाना होगा, जो कि फ़िलहाल दूर की कौड़ी नज़र आती है (हालांकि भोंपू पत्रकार झूठे आँकड़े पेश करके इसे 3 इडियट्स से भी अधिक सफ़ल बतायेंगे)…हकीकत इधर देखें…
मीडियाई भोंपुओं द्वारा फ़ैलाया गया गर्द-गुबार बैठ गया है तो शान्ति से बैठकर सोचें कि आखिर हुआ क्या? सारे मामले की शुरुआत हुई शाहरुख के दो बयानों से कि - 1) IPL में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को लिया जाना चाहिये था और 2) पाकिस्तान हमारा एक “महान पड़ोसी” है। इस प्रकार के निहायत शर्मनाक और इतिहासबोध से परे बयान एक जेहादी व्यक्ति ही दे सकता है। पहले बयान की बात करें तो आज की तारीख में भी यह एक “खुला रहस्य” बना हुआ है कि आखिर शाहरुख खान ने अपनी टीम में पाकिस्तान के किसी खिलाड़ी को क्यों नहीं खरीदा? यह सवाल मीडियाई भाण्डों ने उनसे आज तक नहीं पूछा… और जब नहीं खरीदा तब बोली खत्म होने के बाद अचानक उनका पाकिस्तान प्रेम क्यों उमड़ पड़ा? रही-सही कसर बाल ठाकरे ने अपनी मूर्खतापूर्ण कार्रवाईयों के जरिये पूरी कर दी, और शाहरुख को खामखा एक बकवास फ़िल्म को प्रचारित करने का मौका मिल गया।
“महान पड़ोसी” वाला बयान तो निहायत ही बेवकूफ़ाना और उनके “इतिहास ज्ञान” का मखौल उड़ाने वाला है। क्या पाकिस्तान के निर्माण से लेकर आज तक भारत के प्रति उसके व्यवहार, लियाकत अली खान, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो, बेनज़ीर भुट्टो, ज़िया-उल-हक, मुशर्रफ़ और कियानी जैसों तथा तीन-तीन युद्धों के बारे में, शाहरुख खान नहीं जानते? यदि नहीं जानते तब तो वे मूर्ख ही हैं और जानते हैं फ़िर भी “महान पड़ोसी” कहते हैं तब तो वे “जेहादी” हैं और उनका कोई गुप्त एजेण्डा है। शाहरुख खान, या महेश भट्ट जैसे लोग जानते हैं कि “बाज़ार” में अपनी “घटिया चीज़” बेचने के लिये क्या-क्या करना पड़ता है, साथ ही ऐसे “उदारवादी” बयानों से पुरस्कार वगैरह कबाड़ने में भी मदद मिलती है, इसीलिये पाकिस्तान के साथ खेलने के सवाल पर सभी कथित गाँधीवादी, पाकिस्तान के प्रति नॉस्टैल्जिक बूढे और भेड़ की खाल में छुपे बैठे कुछ उदारवादी एक सुर में गाने लगते हैं कि “खेलों में राजनीति नहीं होना चाहिये… खेल इन सबसे ऊपर हैं…”। ऐसे वक्त में यह भूल जाते हैं कि चीन ने भी ओलम्पिक को अपनी “छवि बनाने” के लिये ही उपयोग किया, और “पैसा मिलने” पर “कुछ भी” करने के लिये तैयार आमिर और सैफ़ खान ने, तिब्बतियों, और यहाँ तक कि मुस्लिम उइगुरों के भी दमन के बावजूद, ओलम्पिक मशाल लेकर दौड़ने में कोई कोताही नहीं बरती, जबकि फ़ुटबॉल खिलाड़ी बाइचुंग भूटिया अधिक हिम्मत वाले और मजबूत रीढ़ की हड्डी वाले निकले, जिन्होंने चीन में बौद्धों के दमन के विरोध में ओलम्पिक मशाल नहीं थामी। कोई मूर्ख ही यह सोच सकता है कि अन्तर्राष्ट्रीय खेलों में राजनीति नहीं होती। IPL-3 ने जो कड़ा संदेश पाकिस्तान पहुँचाया था उसे शाहरुख खान ने तुरन्त धोने की कवायद कर डाली, लेकिन किसके इशारे पर? यह प्रश्न संदेह के घेरे में अनुत्तरित है।
बाल ठाकरे, जो पहले ही उत्तर भारतीयों पर निशाना साधने की वजह से जनता की सहानुभूति खो चुके थे, शाहरुख खान और इस्लामिक जगत की इस “इमेज-बनाऊ” “बाजारू चाल” को भाँप नहीं सके और उनके जाल में फ़ँस गये। उप्र-बिहार के निवासियों को नाराज़ करके “हिन्दुत्व आंदोलन” को पहले ही कमजोर कर चुके और उसी वजह से खुद भी कमजोर हो चुके बाल ठाकरे बेवकूफ़ बन गये। युवाओं ने बाल ठाकरे से खुन्नस के चलते मल्टीप्लेक्सों में जाकर इस थर्ड-क्लास फ़िल्म पर अपने पैसे लुटाये (और बाद में पछताये भी)। भाजपा ने युवाओं के इस रुख को भाँप लिया था और वह इससे दूर ही रही, लेकिन तब तक शाहरुख ने खुद को करोड़ों रुपये में खेलने के लिये ज़मीन तैयार कर ली। जबकि बाल ठाकरे यदि रिलीज़ से एक-दो दिन पहले इस फ़िल्म की पायरेटेड सीडी हजारों की संख्या में अपने कार्यकर्ताओं के जरिये आम जनता और युवाओं में बंटवाते तो वह विरोध अधिक प्रभावशाली होता तथा पहले तीन दिन जितने लोग मूर्ख बनने थियेटरों में गये, उनके पैसे भी बचते। ठाकरे के इस कदम का विरोध करना भी मुश्किल हो जाता क्योंकि पाकिस्तान में भारतीय फ़िल्मों और गानों की पाइरेसी से करोड़ों रुपये का फ़टका खाने के बावजूद इधर के मूर्ख कलाकार अभी भी पाकिस्तान का गुणगान किये ही जा रहे हैं।
कुछ पत्रकार बन्धुओं का शाहरुख प्रेम अचानक जागृत हो उठा है, शाहरुख के पिता ऐसे थे, दादाजी वैसे थे, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे, आजादी की लड़ाई में भाग भी लिया था… आदि-आदि-आदि किस्से हवा में तैरने लगे हैं, लेकिन वे लोग यह भूल जाते हैं कि शाहरुख शाहरुख हैं, अपने पिता और दादा नहीं…। शाहरुख ने तो “लव जेहाद” अपनाते हुए एक हिन्दू लड़की को भगाकर शादी की है, फ़िर उनकी तुलना स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी से कैसे की जा सकती है?
उधर हमारा “बिका हुआ सेकुलर मीडिया” जो पहले ही हिन्दुत्व और हिन्दू हित की खबरों को पीछे धकेल रखता है, हरिद्वार कुम्भ के शाही स्नान की प्रमुख खबरें छोड़कर, देश पर आई इस “सेकुलर आपदा” यानी खान की फ़िल्म रिलीज़ को कवरेज देता रहा (ऐसी ही भौण्डी कोशिश देश के स्वतन्त्रता दिवस के दिन भी हुई थी जब इस व्यक्ति को अमेरिका के हवाई अड्डे पर तलाशी के लिये रोका गया था, उस दिन भी मीडिया ने 15 अगस्त के प्रमुख कार्यक्रम छोड़कर इस छिछोरे पर हुए “कथित अन्याय” को कवरेज में पूरे तीन दिन खा लिये थे)। शाहरुख खान ने पाकिस्तान से मधुर सम्बन्ध की नौटंकी का पहला भाग अपनी फ़िल्म “मैं हूँ ना…” से पहले भी खेला था, अभी जो खेला गया, वह तीसरा भाग था, जबकि दूसरा भाग अमेरिकी हवाई अड्डे की तलाशी वाला था। इससे शक गहराना स्वाभाविक है कि शाहरुख का कोई गुप्त एजेण्डा तो नहीं है? इसी प्रकार फ़िल्म की रिलीज़ के पहले शाहरुख खान ने लन्दन एयरपोर्ट पर बॉडी स्कैनर द्वारा उसकी नग्न तस्वीरें खींचे जाने सम्बन्धी सरासर झूठ बोला, फ़िर उसके हवाले से खबर आई कि उसकी नग्न तस्वीरों पर लन्दन में लड़कियों ने ऑटोग्राफ़ भी लिये… ब्रिटिश कस्टम अधिकारियों के खण्डन के बावजूद (क्योंकि ऐसा नग्न स्कैन सम्भव नहीं है), चमचे पत्रकारों ने कुछ समय हंगामे में गुज़ार दिया… और अचानक तुरन्त ही इस्लामिक जगत की ओर से “फ़तवा” आ गया कि “कोई भी मुसलमान एयरपोर्ट पर अपना बॉडी स्कैनर न करवायें, क्योंकि यह गैर-इस्लामिक है…” ताबड़तोड़ दारुल उलूम ने भी इसका अनुमोदन कर दिया… क्या यह सिर्फ़ संयोग है कि शाहरुख के बयान के तुरन्त बाद फ़तवा आ गया? क्या यह भी संयोग है कि नायक का नाम रिज़वान है (कोलकाता में एक हिन्दू लड़की से शादी रचाने और मौत के बाद “सेकुलरों” द्वारा रोने-पीटने के मामले में भी “हीरो” रिज़वान ही था)। क्या यह भी सिर्फ़ संयोग है कि नायिका एक हिन्दू विधवा है? इतने सारे संयोग एक साथ? मामला कुछ गड़बड़ है भैया…
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