JNU के बाद IIT चेन्नई निशाने पर है...

Written by सोमवार, 22 जून 2015 20:39

जिस समय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने IIT मद्रास के एक छात्र समूह “अम्बेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल” (APSC) के बारे में एक गुमनाम शिकायत मिलने पर IIT मद्रास के निदेशक को इसकी जाँच करने का पत्र लिखा, उस समय शायद उन्हें भी यह भान नहीं होगा कि वे साँपों के पिटारे में हाथ डालने जा रही हैं

और ना ही भारत की जनता को यह पता था कि इस पत्र के बाद IIT-मद्रास में जो “नाटक” खेला जाने वाला है, वह अंततः उन्हीं समूहों की पोल खोल देगा जो पिछले पचास वर्ष से इस देश की शिक्षा व्यवस्था पर कुण्डली मारे बैठे हैं. लेकिन न सिर्फ ऐसा हुआ, बल्कि मार्क्सवादी/मिशनरी और द्रविड़ राजनीति के गठजोड़ का जैसा चेहरा सामने आया, उससे सभी भौंचक्के रह गए. देश के अकादमिक क्षेत्र में काम कर रहे लगभग सभी कुलपति, प्रोफेसर्स एवं कर्मचारी अच्छे से जानते हैं कि देश की शिक्षा व्यवस्था, पाठ्यक्रम निर्धारण एवं विश्वविद्यालयों की आंतरिक राजनीति में पिछले साठ वर्ष से परोक्ष रूप में वामपंथी विचारधारा, लेकिन वास्तव में अपरोक्ष रूप से भारत को तोड़ने में जुटी मिशनरी विचारधारा के लोग “ग्रहण” बनकर छाए हुए हैं. 

IIT मद्रास के इस आंबेडकर-पेरियार विवाद के समय, मैंने बारहवीं कक्षा के एक छात्र से पूछा कि क्या वह IIT मद्रास से M.A. करना चाहता है? वह हँसने लगा... बोला कि IIT से M.A.?? भला IIT से कभी M.A. कोर्स भी किया जाता है क्या? विगत कई वर्षों से IIT की जैसी छवि देश में बनी हुई थी, उसके हिसाब से उस नादान बालक की समझ यही थी, कि IIT मद्रास में सिर्फ इंजीनियरिंग, तकनीकी और रिसर्च पाठ्यक्रम ही होते हैं. IIT में पढ़ने वाले छात्र सिर्फ मेधावी, पढ़ाकू और राजनीति से दूर रहने वाले होते हैं. उस बेचारे को क्या पता था, कि इस देश में वामपंथ और प्रगतिशीलता नामक धाराएँ हैं, जो ईसाई मिशनरी के तटों का सहारा लेकर बहती हैं. IIT से इंजीनियरिंग और उच्च तकनीक में रिसर्च का सपना मन में पाले बैठे, उस मासूम को क्या पता था, कि जिस प्रकार दिल्ली के ह्रदय-स्थल में स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जिसे प्यार से JNU पुकारा जाता है) सहित देश के सैकड़ों विश्वविद्यालयों को वामपंथी विचारधारा ने इतना प्रदूषित कर दिया है कि अब वह पढ़ाई-लिखाई, विमर्श-चिंतन और शोध आदि की बजाय “किस ऑफ लव”, “फ्री सेक्स” तथा “समलैंगिकों के अधिकार” जैसे क्रान्तिकारी टाईप के आंदोलन चलाने का अड्डा बन चुका है... उसी प्रकार पिछले कुछ वर्षों में बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से IIT-मद्रास को भी इस विचारधारा ने “डसना” शुरू कर दिया है. चूँकि स्मृति ईरानी इस गिरोह की आँखों में पहले दिन से ही खटक रही हैं, इसलिए IIT-मद्रास पर काबिज इस गिरोह ने आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल” (APSC) पर लगाए गए प्रतिबन्ध को लेकर जैसा हंगामा और कोहराम मचाया वह अदभुत था. अदभुत इस श्रेणी में, कि यह “वामपंथी-मिशनरी बौद्धिक गिरोह” किस तरह शिक्षण संस्थाओं पर कब्ज़ा करता है और अपनी वैचारिक लड़ाई के लिए छात्रों का उपयोग करता है वह हिंदूवादी नव-बुद्धिजीवियों के लिए सीखने वाली बात है. पढ़ाई, रिसर्च, अध्ययन वगैरह छोड़कर, इन विश्वविद्यालयों के माध्यम से अपनी राजनैतिक युद्ध तथा केन्द्र व राज्यों द्वारा पोषित विश्वविद्यालयों में अपने-अपने अकादमिक मोहरे किस प्रकार फिट किए जाते हैं, IIT-मद्रास इसका शानदार उदाहरण है. “आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल” यह विचार ही अपने-आप में कितना विरोधाभासी है तथा यह मानव संसाधन मंत्रालय के साथ हुआ इनका विवाद क्यों हुआ, इसके बारे में हम आगे देखेंगे. पहले हम देखते हैं इस जहरीली समस्या की जड़ और पृष्ठभूमि...

सन 2006 से पहले IIT-मद्रास, देश का एक अग्रणी शैक्षिक संस्थान था. जहाँ भारत के सर्वोत्तम दिमाग अपनी-अपनी मेधा व प्रतिभा लेकर तकनीकी, विज्ञान, इंजीनियरिंग एवं शोध-विकास के लिए स्कॉलरशिप वगैरह लेकर आते थे. पढ़ाई-लिखाई का गजब का माहौल था... गंभीरता थी. 2006 में डॉक्टर अनन्त ने इंग्लिश डेवलपमेंट स्टडीज़ एंड इकोनोमिक्स के नाम से पाँच वर्ष का समेकित M.A. कोर्स एक नए विभाग के अंतर्गत आरम्भ किया. बस उसी दिन से IIT-मद्रास का अधःपतन आरम्भ हो गया. “मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान” नाम का एक विभाग शुरू होते ही योजनानुसार मधुमक्खी की तरह मार्क्सवादी/ईसाई मिशनरी/द्रविड़ राजनीति से सम्बन्धित प्रोफेसरों-अध्यापकों का जमावड़ा वहाँ एकत्रित होने लगा तथा भारत की संस्कृति, हिन्दी, हिन्दू, संस्कृत भाषा आदि से घृणा करने वाले, विभिन्न जातिवादी-धर्मांतरणवादी समूहों ने इस संस्थान को भी JNU की ही तरह अकादमिक रसातल में पहुँचाने की ठान ली.

मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान विभाग के झण्डे तले एक से बढ़कर एक छंटे हुए लोग इकठ्ठा होने लगे. नंदनम आर्ट्स कॉलेज अथवा प्रेसीडेंसी कॉलेज जैसे स्थानीय कॉलेजों में जिस प्रकार की छात्र राजनीति, गुण्डई और हिंसा होती थी, वही अब IIT-मद्रास में भी धीरे-धीरे अपने पैर जमाने लगी. अर्थात एक समय पर अपनी रिसर्च, तकनीक एवं ज्ञान के शिखर पर विराजमान इस विश्वविख्यात IIT में भी वामपंथी अराजकता के कीटाणु घर करने लगे. यूरोपियन ईसाई मिशनरियों ने सत्रहवीं, अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में एक विशेष लक्ष्य लेकर भारत में प्रवेश किया था, कि वे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों, विश्वविद्यालयों का एक ऐसा जाल बिछाएँगे जो उन्हीं के द्वारा वित्तपोषित अथवा स्थानीय चर्च सत्ता द्वारा नियंत्रित होगा. 1996 से लगातार देश में भाजपा और हिंदुत्व के बढ़ते प्रभाव को लेकर ईसाई मिशनरी और वामपंथियों ने काफी पहले से ही देश के सभी प्रमुख संस्थानों में अपने मोहरे बिछाने शुरू कर दिए थे. उद्देश्य यह था कि विभिन्न वामपंथी और कथित प्रगतिशील प्रोफेसरों के माध्यम से छात्रों की मानसिकता को हिन्दू विरोधी, संस्कृत विरोधी और संघ-भाजपा विरोधी बना दिया जाए, ताकि ये छात्र अकादमिक एवं विभिन्न शोध संस्थानों में इनके राजनैतिक हित बरकरार रख सकें. इसीलिए IIT जैसे तकनीकी/इंजीनियरिंग संस्थानों में भी मानविकी और सामाजिक विज्ञान जैसे फालतू विषयों एवं विभागों को “सफ़ेद हाथी” के तौर पर पाला-पोसा गया. सन 2002 के आरम्भ से ही इस “गिरोह” को आभास हो गया था कि 2014 के लोकसभा चुनावों में देश की जनता महाभ्रष्ट काँग्रेस को ठुकराने वाली है तथा भाजपा की तरफ से नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे. बुद्धिजीवियों के इस जमावड़े ने अनुमान लगाया था कि भाजपा को गठबंधन की सरकार चलानी पड़ेगी, इसीलिए वे पहले ही अपने युद्धक्षेत्र को वैचारिक भूमि पर ले गए. HSS विभाग की विभिन्न फैकल्टी द्वारा अपने राजनैतिक विचारधारा के चलते उन्हीं के समान वक्ताओं को इस विभाग के बैनर तले विभिन्न संगोष्ठियों में भाषण देने हेतु आमंत्रित किया जाने लगा. इसके अलावा नरेंद्र मोदी की सफलता से चिढ़ के कारण नवंबर 2014 में IIT-मद्रास में भी “किस ऑफ लव” नामक क्रांतिकारी आयोजन किया गया. आईये पहले देखते हैं कि सामाजिक क्रान्ति लाने का दावा करने वाले इस वामपंथी गिरोह ने IIT में किन-किन महानुभावों को लेक्चर देने के लिए आमंत्रित किया...

- सिद्धार्थ वरदराजन :- “जस्टिस एंड द पोलिटिक्स ऑफ मेमोरी एंड फोर्गेटिंग – 1984 and 2002 दंगे. (लेक्चर था 11 नवंबर 2012 को).
- नरेन्द्र नायक :- विषय “द नीड फॉर रेशनल थिंकिंग” (23 जनवरी 2013)
- डॉक्टर राजीव भार्गव :- (आप CSDS के निदेशक हैं, जहाँ से अभय दुबे जैसे “पत्रकार” निकलते हैं), इन्होंने व्याख्यान दिया, “हाउ शुड स्टेट्स रिस्पांस टू रिलीजियस डाईवर्सिटी” (31 जनवरी 2013).
- जय कुमार क्रिश्चियन :- आप विश्व की सबसे बड़ी ईसाई धर्मांतरण संस्था “वर्ल्ड विजन” के भारतीय निदेशक हैं... ज़ाहिर है कि इन्होंने ईसाईयों पर हो रहे कथित अत्याचारों का रोना रोया.
- आनंद पटवर्धन :- बाबरी ढाँचे के गिराए जाने के बाद, फिल्म-डाक्यूमेंट्री एवं विज्ञापन की दुनिया में सबसे अधिक कपड़े फाड़ने वाले ये सज्जन “सिनेमा ऑफ रेजिस्टेंस : अ जर्नी” विषय पर छात्रों का ब्रेनवॉश करते रहे. (हाल ही में पटवर्धन साहब FTII के नवनियुक्त निदेशक गजेन्द्र चौहान के विरोध में भी कोहराम करते नज़र आए थे).
- तीस्ता सीतलवाड :- “ह्यूमन राईट्स एंड कम्युनल हार्मनी” (10 फरवरी 2014). इन मोहतरमा के बारे में अलग से बताने की जरूरत नहीं है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही इनके झूठे हलफनामों से तंग आकर इन्हें जेल भेजने की चेतावनी दे चुका है, इसके अलावा इनके विभिन्न NGOs में धन की अफरा-तफरी की जाँच हाईकोर्ट के निर्देशों पर जारी है.
- राजदीप सरदेसाई :- इन्हें मोदी की जीत के बाद इस वर्ष अमेरिका में भारतवंशियों के चांटे खाने के बाद “हैज़ 2014 इलेक्शंस रियली चेंज्ड इण्डिया?” विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था. बताया जाता है कि ये सज्जन सिर्फ टीवी एंकर नहीं हैं ये ऊपर बताई गई कुख्यात संस्था “वर्ल्ड विजन” के ब्राण्ड एम्बेसेडर भी रह चुके हैं.

संक्षेप में तात्पर्य यह है कि जानबूझकर चुन-चुन कर ऐसे लोगों विभागों में भर्ती किया जाता है जो पूरी तरह से भारतीय संस्कृति के विरोधी हों तथा वक्ता के रूप में भी ऐसे ही लोगों को आमंत्रित किया जाता है जो अपनी “बौद्धिक चाशनी” से समाज में विभाजन करने की क्षमता रखते हों. इसीलिए दिल्ली के JNU में चलने वाले “गौमांस उत्सव” जैसे प्रत्येक फूहड़ आयोजनों को IIT मद्रास में भी दोहराया गया.

अब हम देखते हैं कि छात्रों में “वैचारिक प्रदूषण” फैलाने वाले इस विभाग अर्थात “ह्यूमैनिटी एंड सोशल साईंसेस” (HSS) के चन्द विद्वान प्रोफ़ेसर कौन-कौन हैं... और इस विभाग का सिलेबस क्या है??

- आयशा इकबाल :- एमए (साहित्य), पीएचडी (साहित्य)... रूचि एवं अध्ययन क्षेत्र है ड्रामा, साहित्य और फिल्म.
- बिनीथा थम्पी :- एमए (राजनीति विज्ञान), पीएचडी.
- एवेंजेलिन मनिक्कम :- एमए, पीचडी (साहित्य), अमरीका के फुलब्राइट से छात्रवृत्ति प्राप्त.
- जोए थौमस कर्कट्टू :- JNU से एमए, पीचडी (अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध)
- जॉन बोस्को :- पुदुचेरी से एमए (धर्म एवं विज्ञान)
- कल्पना के. :- JNU से एमए (इतिहास) और पीचडी (मद्रास)
- मलाथी डी. :- एमए, पीएचडी (साहित्य)... अमेरिका के रोकफेलर फाउन्डेशन से छात्रवृत्ति प्राप्त
- मिलिंद ब्रह्मे :- एमए पीएचडी (JNU)
- साबुज कुमार मंडल :- M.Sc. (इकोनोमिक्स), पीएचडी (इकोनोमिक्स).
- संतोष अब्राहम :- हैदराबाद विवि से पीएचडी (इतिहास)
- सोलोमन जे बेंजामिन :- MS (Arch.)
- सुधीर चेल्ला राजन :- IIT मुम्बई से बी.टेक.

IIT मद्रास के अलिप्त और पढ़ाई-लिखाई के माहौल को बचाने के इच्छुक छात्र दबी ज़बान में बताते हैं कि, इस सूची में सबसे अंत वाले सज्जन सुधीर चेल्ला राजन साहब, इनकी लिव-इन पार्टनर सुजाथा बिरावन तथा मिलिंद ब्रह्मे ही इस सारे विवाद की जड़ हैं. इन्हीं तीनों ने मिलकर HSS विभाग को एक हिन्दू विरोधी विभाग बना दिया है. कई तरह के छात्र समूह गठित करके जातिगत विद्वेष की राजनीति एवं वैचारिक प्रदूषण फैलाया है. चूँकि सुधीर राजन इस विभाग के विभागाध्यक्ष हैं इसलिए उन्होंने चुन-चुनकर मार्क्सवादियों एवं ईसाई मिशनरी के समर्थकों को भर लिया है. हालाँकि फैकल्टी के सदस्यों में कुछ हिन्दू भी हैं, लेकिन संख्याबल में कम होने के कारण वे “घबराए हुए, दब्बू टाईप के हिन्दू” हैं जो भारी बहुमत में वहाँ स्थापित मार्क्सवादियों तथा मिशनरी के सदस्यों के सामने असहाय से हैं. इसके अलावा वामपंथियों को पिछले दरवाजे से घुसाने के उद्देश्य से यहाँ “सेंटर फॉर चाईनीज़ स्टडीज़” नामक विभाग भी खोल दिया गया है. भारत के इतिहास एवं संस्कृति को विकृत करके छात्रों का ब्रेनवॉश करने के सभी साधन पाठ्यक्रम में अपनाए गए हैं, जो कि इस विभाग का सिलेबस देखकर तत्काल ही कोई भी बता सकता है. JNU में वैचारिक कब्जे के लिए जो-जो हथकण्डे आजमाए गए थे (या हैं), वही हथकण्डे IIT-मद्रास को हथियाने के लिए भी किए गए. यदि वर्तमान भाजपा सरकार में स्मृति ईरानी की बजाय कोई और भी मानव संसाधन मंत्री बनता, तब भी अम्बेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल वाला “रचा गया हंगामा” जरूर होता. क्योंकि IIT में ऐसे समूहों का गठन इसीलिए किया गया है, ताकि सरकार विरोधी तथा हिन्दू धर्म-संस्कृति विरोधी गतिविधियाँ लगातार चलाई जा सकें.

APSC द्वारा जानबूझकर गढे गए इस ताजे विवाद की चिंगारी उसी दिन भड़क गई थी जिस दिन इस छात्र समूह ने आंबेडकर-पेरियार के चित्रों वाले विभिन्न पोस्टरों को IIT कैम्पस में लगाया. बेहद भड़काऊ किस्म के ये पोस्टर वेदों की आलोचना करने, गौमांस का समर्थन करने, ब्राह्मणों को कोसने, संस्कृत भाषा को “बाहरी”(??) लोगों की भाषा बताने जैसी बेहद आपत्तिजनक बातों से भरे हुए थे. “राजनैतिक विचारधारा अथवा मतभेदों के बारे में समझा जा सकता है, परन्तु APSC द्वारा जिस तरह से हिन्दू धर्म के खिलाफ ज़हर उगला जा रहा था वह निश्चित रूप से आंबेडकर रचित संविधान की धाराओं में भी सजा योग्य ही है. परन्तु इस समूह को मार्क्सवादियों तथा हिंदुओं को तोड़ने की साज़िश में लगी ईसाई मिशनरी का हमेशा की तरह पूरा समर्थन हासिल था. अंततः त्रस्त होकर कुछ छात्रों ने स्मृति ईरानी को एक गोपनीय पत्र लिखकर IIT-मद्रास में चल रही इस विषम परिस्थिति और खराब माहौल के बारे में बताया. सारी बातें जानने-समझने के बावजूद, संयम बरतते हुए मानव संसाधन मंत्री ने संविधान अथवा नियमों के खिलाफ रत्ती भर भी कदम नहीं उठाया, बल्कि IIT-मद्रास के निदेशक से पत्र लिखकर सिर्फ हालात की जानकारी लेने तथा “नियमों के अनुसार” कदम उठाने को कहा. IIT निदेशक ने सारे दस्तावेजों एवं पोस्टरों को देखकर APSC की गतिविधियों को कुछ समय के लिए निलंबित कर दिया. बस फिर क्या था!!! यह गिरोह इसी मौके की तलाश में था ताकि हंगामा किया जा सके और इन्होंने वैसा ही किया भी.

मिशनरी पोषित संस्थाएँ किस तरह से भारतीय समाज को तोड़ने और हिंदुओं में विभाजन पैदा करने के लिए अकादमिक क्षेत्रों का उपयोग करती हैं, इसका क्लासिक उदाहरण है IIT-मद्रास. ऊपर प्रोफेसरों की जो सूची डी गई है, उसमें एक नाम है मिलिंद ब्रह्मे का जो IIT-मद्रास के बाहर एक संस्था IGCS (Indo-German Centre for Sustainability) के भी निदेशक बने बैठे हैं. इस IGCS की प्रायोजक है “वर्ल्ड विजन”. जैसा कि पहले बताया जा चुका है वर्ल्ड विजन पूरी दुनिया में ईसाई धर्मांतरण की सबसे बड़ी एजेंसी है. समाजसेवा के नाम पर ये विभिन्न NGOs खड़े करके धर्मांतरण की गतिविधियों को बढ़ावा देना इसका मुख्य काम है. आंबेडकर-पेरियार समूह के विवादित पोस्टर भी इसी संस्था द्वारा प्रायोजित किए गए थे. चर्च की ही एक और “वैचारिक दुकान” IIT-मद्रास कैम्पस के अंदर ही खोलने की अनुमति दी गई है, जिसका नाम है “आईआईटी क्रिश्चियन फेलोशिप”. हिन्दू छात्रों के मुताबिक़ इस समूह के कैथोलिक छात्र खुल्लमखुल्ला IIT के आसपास विभिन्न बस स्टैंडों, होस्टल तथा IIT के ही विभिन्न विभागों में यीशु संबंधी धर्म प्रचार के पर्चे बाँटते फिरते हैं. 9 जनवरी 2015 को कुछ छात्रों ने IGCS नामक इस संदिग्ध संस्था के एक “बाहरी तत्त्व” को कैम्पस में धर्म प्रचार करते हुए पकड़ लिया था, परन्तु IIT प्रशासन इस गिरोह के इतने दबाव में हैं कि उसने “अवैध धर्मांतरण प्रचार” की धाराओं की बजाय सिर्फ अवैध घुसपैठ का मामला पुलिस में दर्ज करवाया. इस तरह धीरे-धीरे IIT के छात्रों का ब्रेनवॉश करके “अ-हिन्दूकरण” किया जा रहा है.

हालाँकि जब तक मिशनरी-वामपंथी गिरोह का यह प्रयास IIT कैम्पस तक सीमित था, तब तक उनका वैचारिक खोखलापन सामने नहीं आया था. परन्तु जैसे ही यह विवाद राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचा, तो तुरंत ही ज़ाहिर हो गया कि उत्तर भारत और दक्षिण भारत के संस्कृत विरोधी, हिन्दू विरोधी तथा भारत विरोधी समूहों को आपस में जोड़ने के लिए जिस APSC समूह का गठन किया गया है वह वास्तव में पाखण्ड और वैचारिक दिवालिएपन से कितना बुरी तरह ग्रस्त है. परन्तु जब उनका उद्देश्य सिर्फ “दुष्प्रचार” ही करना हो तो क्या किया जा सकता है? पेरियार का नाम लेकर उसे आंबेडकर के साथ जोड़ना तो ठीक ऐसा ही जैसे “सावरकर-जिन्ना स्टडी सर्कल” का गठन किया जाए. इन दोनों व्यक्तित्त्वों को आपस में जोड़कर दक्षिण भारत में आम्बेडकर तथा उत्तर भारत में पेरियार को स्थापित करने की इस गिरोह की यह कोशिश निहायत ही फूहड़ है, क्योंकि आम्बेडकर और पेरियार, वैचारिक स्तर पर एक दूसरे से बिलकुल विपरीत दिशा में खड़े हैं. आंबेडकर तो निश्चित रूप से दलितों के मसीहा हैं, लेकिन पेरियार को दलितों से कोई विशेष मोह नहीं था, वे तो सिर्फ हिन्दी विरोधी द्रविड़ मानसिकता से ग्रसित थे. आईये इन दोनों का विरोधाभास उजागर करें, ताकि वाम-ईसाई गठजोड़ के इस षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश हो...

१) आंबेडकर नस्लवादी नहीं थे :- ईवी रामास्वामी उर्फ “पेरियार” विशुद्ध रूप से नस्लवादी थे. पेरियार को “आर्य बाहरी नस्ल है” जैसे झूठे विचारों पर दृढ़ विश्वास था, जबकि दूसरी तरफ आंबेडकर विशुद्ध मानवतावादी थे, उन्होंने भी इस “आर्यन नस्ल वाली झूठी थ्योरी” का अध्ययन किया और इसे तत्काल खारिज कर दिया था. अपनी पुस्तक “शूद्र कौन हैं?” में आम्बेडकर ने साफ़ लिखा है कि “आर्य आक्रमण” का सिद्धांत बिलकुल गलत और गढा हुआ है. अपने एक अन्य लेख “अन-टचेबल्स” में वे लिखते हैं कि भारत के सामाजिक ढाँचे की संरचना का किसी नस्ल विशेष से कोई सम्बन्ध नहीं है. जबकि “नस्लवादी श्रेष्ठता” से ग्रस्त पेरियार लिखते हैं कि “हम तमिलों का जन्म शासन करने के लिए हुआ है, पहले हम ही इस भूमि के राजा थे, लेकिन बाहरी आर्यों ने आक्रमण करके हमारी शक्ति, सत्ता और शानोशौकत को समाप्त किया है, हमें गुलाम बना दिया है.

२) आंबेडकर “एकेश्वरवादी” नहीं थे :- ईवी रामास्वामी उर्फ पेरियार ने “विधुथलाई, दिनाँक 04 जून 1959) में लिखा है कि “मैं आपसे भगवान की पूजा नहीं करने को नहीं कहता, परन्तु आपको मुस्लिमों एवं ईसाईयों की तरह सिर्फ एक ही भगवान की पूजा करनी चाहिए”. जबकि दूसरी तरफ बीआर आंबेडकर ने ऐसे किसी भी विचार का कभी समर्थन नहीं किया. आंबेडकर का कहना था कि हमारा धर्म लोकतांत्रिक है और यह व्यक्ति की अंतरात्मा पर निर्भर करता है कि वह किस धर्म या पंथ अथवा ईश्वर को माने. आंबेडकर ने भी बौद्ध धर्म ही अपनाया था, इस्लाम नहीं.

३) आंबेडकर लोकतंत्र में भरोसा रखते थे, पेरियार नहीं :- पेरियार पूरी तरह से लोकतंत्र के विरोधी थे, उन्हें तानाशाही पसंद थी. 08 फरवरी 1931 को एक सम्पादकीय में पेरियार लिखते हैं, “देश की सारी समस्याओं की जड़ लोकतंत्र ही है, एक ऐसे देश में जहाँ विभिन्न भाषाएँ, धर्म और जातियाँ मौजूद हैं और शिक्षा का स्तर बहुत कम है, लोकतंत्र कतई सफल नहीं हो सकता... सिर्फ लोकतंत्र से किसी का विकास होने वाला नहीं है..”. जबकि बीआर आंबेडकर तो स्वयं भारत के संविधान के रचयिता थे और यह उनका ही प्रसिद्ध वाक्य है कि, “सामाजिक लोकतंत्र एक जीवन पद्धति है, जो भारत की आत्मा में है तथा यही लोकतंत्र हमें स्वतंत्रता, समानता और जीवन मूल्य प्रदान करता है.

४) ईवी रामास्वामी राष्ट्र-विरोधी थे, आंबेडकर नहीं :- दक्षिण के आर्य विरोधी, संस्कृत और हिन्दी विरोधी आंदोलन में यह बात स्पष्ट हुई थी कि पेरियार ने कभी भी भारत की स्वतंत्रता के बाद उसे “एक देश” के रूप में स्वीकार नहीं किया. वे हमेशा भारत को भाषाई और नस्लीय आधार पर छोटे-छोटे टुकड़ों में देखना चाहते थे. जबकि भीमराव आंबेडकर भारत की सांस्कृतिक विविधता में विश्वास रखते थे. आंबेडकर का मानना था कि भारत की राजनैतिक विविधता को मतदान की ताकत से और मजबूत किया जाना चाहिए.

५) आंबेडकर संस्कृत समर्थक थे, जबकि पेरियार घोर-विरोधी :- यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि जब 1956 में एक आयोग द्वारा संस्कृत को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव आया था, उस समय संसद में संस्कृत भाषा के प्रबल समर्थन ने सिर्फ दो ही लोग खड़े हुए थे, पहले थे आंबेडकर और दूसरे ताजुद्दीन अहमद (और आज की सेकुलर-वामपंथी राजनीति की विडंबना और धूर्तता देखिए कि पिछले साठ साल में दलितों और मुस्लिमों को ही संस्कृत का विरोधी बना दिया गया). एक स्थान पर आंबेडकर लिखते हैं संस्कृत भाषा भारत की संस्कृति का खजाना है, यह भाषा व्याकरण, राजनीति, नाटक, कला, आध्यात्म, तर्क व आलोचना की मातृभाषा है..” (कीर, पृष्ठ 19). जबकि दूसरी तरफ ईवीआर यानी पेरियार संस्कृत और हिन्दी से घृणा करते थे. उनके द्वारा लिखे लेखों के संकलन “द ग्रेट फ़ाल्सहुड”, विधुतलाई, 31 जुलाई 2014) के अनुसार “...संस्कृत भाषा आर्यों और ब्राह्मणों की भाषा है. ब्राह्मण जानबूझकर संस्कृत में बात करते हैं ताकि वे खुद को अधिक ज्ञानी साबित कर सकें...”.

६) अम्बेडकर यहूदियों के समर्थक थे, लेकिन पेरियार यहूदियों से घृणा करते थे :- पेरियार ने अपने लेखों द्वारा हमेशा ब्राह्मणों की तुलना यहूदियों से की है. पेरियार के अनुसार जिस प्रकार यहूदियों का कोई देश नहीं है, उसी प्रकार ब्राह्मणों का भी कोई देश नहीं है, इसलिए इस नस्ल को समाप्त हो जाना चाहिए. तत्कालीन तमिलनाडु में पेरियार का वह कथन बेहद कुख्यात हुआ था, जिसमें उन्होंने कहा था कि, “यदि साँप और ब्राह्मण एक साथ दिखाई दें तो पहले ब्राह्मण को मारो, क्योंकि साँप के तो सिर्फ फन में जहर होता है, लेकिन ब्राह्मण के पूरे शरीर में..”. वहीं दूसरी तरफ हिन्दू समाज को तोड़ने में सक्रिय मिशनरियों के छद्म रूप से प्रिय अम्बेडकर कभी भी ब्राह्मणों के विरोध में नहीं थे. अम्बेडकर की यहूदियों के प्रति सहानुभूति रही. उन्होंने इज़राईल का भी समर्थन किया था. मिशनरी-वामपंथी दुष्प्रचार यह है कि अम्बेडकर ब्राह्मण विरोधी थे, जबकि ना तो वे ब्राह्मण विरोधी थे और ना ही संस्कृत विरोधी. जब अम्बेडकर ने “पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी” के तहत मुम्बई में सबसे पहला सिद्धार्थ कॉलेज शुरू किया तब उन्होंने एक ब्राह्मण प्रोफ़ेसर श्री एबी गजेंद्रगडकर से विनती की, कि वे इस कॉलेज के पहले प्रिंसिपल बनें. गजेंद्रगड़कर उस समय एलफिन्स्टन कॉलेज, मुम्बई के प्रिंसिपल थे, लेकिन उन्होंने अम्बेडकर को सम्मान देते हुए वहाँ से इस्तीफा देकर उनके कॉलेज को सम्हालने में मदद की.

इन तमाम बिंदुओं के अलावा अम्बेडकर और पेरियार के बीच इतने ज्यादा विरोधाभास और विसंगतियाँ हैं कि IIT-मद्रास में जिस समूह का गठन जातिवादी जहर फैलाने के लिए हुआ है, उसके नाम पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाते हैं. डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने “महार रेजिमेंट” की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, तथा विभाजन के समय पाकिस्तान से मर-कट के आने वाले हिंदुओं की रक्षा हेतु आव्हान भी किया. जबकि नायकर पेरियार सिर्फ क्षेत्रवाद और आर्य नस्ल के प्रति घृणा तक ही सीमित रहे. इस्लाम के कुख्यात नरसंहारों पर आंबेडकर ने कभी भी वामपंथियों की तरह “दोहरा व्यवहार” नहीं किया. केरल के कुख्यात “मोपला नरसंहार” पर आंबेडकर ने जिस तरह खुल्लमखुल्ला कलम चलाई है, वह करना किसी प्रगतिशील बुद्धिजीवी के बस की बात नहीं. जिस तरह से वामपंथी लेखक प्रत्येक हिन्दू-मुस्लिम दंगे पर लिखते समय अक्सर वैचारिक रूप से दाँये-बाँए होते रहते हैं, वैसा आंबेडकर ने कभी नहीं किया. वास्तव में आंबेडकर के साथ पेरियार का नाम जोड़ना परले दर्जे की वैचारिक फूहड़ता और पाखण्ड ही है. उल्लेखनीय है कि पेरियार का जन्म एक धनी परिवार में हुआ था. 1919 में काँग्रेस में अधिक महत्त्व नहीं मिलने के कारण वे कुंठित हो गए थे. उसके बाद उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन और काँग्रेस का विरोध करने का निश्चय किया तथा खुन्नस में आकर आर्य-द्रविड़ राजनीति शुरू की. 1940 आते-आते पेरियार ने “द्रविड़-नाडु” नामक राष्ट्र के समर्थन के बदले में मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की माँग का भी समर्थन कर दिया. कहने का अर्थ यह है कि “सेकुलर-प्रगतिशील-वामपंथी” विचारधारा सिर्फ विरोधाभासों, पाखण्ड और वैचारिक दुराचार पर टिकी हुई है. उदाहरण के तौर पर, यदि इस गिरोह के गुर्गों द्वारा “गौमांस खाने के समर्थन” में लगाए गए पोस्टर पर महान क्रान्तिकारी भगतसिंह अपना चेहरा देखते, तो निश्चित ही आत्महत्या कर लेते.

यदि आप स्वामी विवेकानन्द के विचारों अथवा योग की संस्कृति पर कुछ बोलते हैं, तो तत्काल आपको संघ का वैचारिक समर्थक घोषित कर दिया जाता है. जबकि यदि कोई प्रोफ़ेसर घोषित रूप से वामपंथियों का लाल-कार्डधारी है तब भी उसे “राजनैतिक विश्लेषक” अथवा “तटस्थ” व्यक्ति मान लिया जाता है. यही दोगलापन हमारी शिक्षा व्यवस्था को पिछले साठ वर्ष से डस रहा है. विभिन्न विश्वविद्यालयों में मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान के नाम पर जो शोध केन्द्र अथवा विभाग और फेलोशिप खोली गई हैं उनमें ऐसे ही “तथाकथित तटस्थ” लोग योजनाबद्ध तरीके से भरे गए हैं. फिर शिक्षा के इन पवित्र मंदिरों में छात्रों के बीच राजनीति, घृणा, जातिवाद फैलाया जाता है और उनके माध्यम से अपना उल्लू सीधा किया जाता है. कुडनकुलम परमाणु बिजलीघर के विरोध में जो NGOs सामने आए थे, उनकी हरकतों और उसमें शामिल लोगों की पहचान से ही पता चल जाता है कि इनका “छिपा हुआ एजेण्डा” क्या है.

तात्पर्य यह है कि IIT-मद्रास में HSS के तत्त्वावधान में चल रहे पाँच वर्षीय एमए के पाठ्यक्रम, प्रोफेसरों और ड्रामेबाज छात्रों ने इस महान तकनीकी-इंजीनियरिंग कॉलेज को बदनाम और बर्बाद करने का बीड़ा उठा लिया है. मानव संसाधन मंत्रालय एवं केन्द्र की भाजपा सरकार को इन संस्थानों पर न सिर्फ कड़ी निगाह रखनी चाहिए, बल्कि IIT जैसे संस्थानों में इस प्रकार के फालतू कोर्स जिनसे न सिर्फ “वैचारिक प्रदूषण” फैलता हो, बल्कि शासकीय संसाधनों और धन की भारी बर्बादी होती हो, तत्काल बन्द कर देना चाहिए... देश के शैक्षिक संस्थानों में ऐसे सैकड़ों “अड्डे” हैं, जहाँ से विभिन्न पाठ्यक्रमों द्वारा पिछली चार पीढ़ियों को वैचारिक गुलाम बनाया गया है.

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