Hindu-Muslim Communialism and Narendra Modi

Written by गुरुवार, 05 सितम्बर 2013 21:25

हिन्दू साम्प्रदायिकता बनाम मुस्लिम साम्प्रदायिकता...

राष्ट्रीय परिदृश्य पर नरेन्द्र मोदी के उभरने से काफी पहले अर्थात पन्द्रह साल पहले 1986 में जब देश एक युवा प्रधानमंत्री को तीन-चौथाई बहुमत देकर यह सोच रहा था कि शायद अब देश तेजी से आगे बढ़ेगा, उसी समय उस “तथाकथित आधुनिक प्रधानमंत्री” ने देश की सुप्रीम कोर्ट को लात मारते हुए शाहबानो नाम की मुस्लिम महिला पर अन्याय की इबारत लिख मारी. क्या उस समय तक अर्थात 1985-86 तक “संघ परिवार” ने राम मंदिर आंदोलन को तेज़ किया था? नहीं... फिर उस समय राजीव गाँधी की क्या मजबूरी थी? इतना जबरदस्त बहुमत होते हुए भी एक युवा प्रधानमंत्री को मुस्लिम कट्टरपंथ खुश करने की घटिया राजनीति क्यों करनी पड़ी? इसका जवाब है, काँग्रेस की दोनों हाथों में लड्डू रखने की राजनीति. सभी को मालूम है कि राम जन्मभूमि का ताला खुलवाते समय ना तो संघ का दबाव था और ना ही उस समय तक नरेन्द्र मोदी को कोई जानता भी था. लेकिन पहले काँग्रेस ने हिन्दू वोटरों को खुश करने के लिए राम जन्मभूमि का कार्ड खेला, फिर इस कदम से कहीं मुस्लिम नाराज़ ना हो जाएँ, इसलिए एक मज़लूम मुस्लिम महिला को दाँव पर लगाकर मुस्लिम तुष्टिकरण कर डाला. क्या 1986 से पहले “तथाकथित हिन्दू साम्प्रदायिकता”(?) नाम की कोई बात अस्तित्त्व में थी? नहीं थी. परन्तु काँग्रेस की मेहरबानी से मुस्लिम साम्प्रदायिकता जरूर 1952 से ही इस देश में लगातार बनी हुई है. इस बीच जब 1989 से 1996 के मध्य “हिन्दू राजनीति” को भाजपा ले उड़ी और टूटे-फूटे बहुमत के साथ सत्ता में भी आ गई, तब सेकुलरिज़्म के पुरोधा हडबडाते हुए बेचैन हो गए.


यह तो था मुस्लिम साम्प्रदायिकता के उभार का शुरुआती बिंदु और इस्लामिक वोटों के लिए नीचे गिरने के सिलसिले के आरम्भ का संक्षिप्त इतिहास... आईये अब हम पिछले कुछ वर्षों की प्रमुख घटनाओं पर संक्षेप में निगाह डाल लें. इन घटनाओं को देखने के बाद हम समझ जाएँगे कि राजीव गाँधी ने मुस्लिम वोटों के लिए जो गिरावट शुरू की थी, वह धार्मिक राजनीति अब खुल्लमखुल्ला देशद्रोह, बेशर्मी और दबंगई में बदल गई है. शुरुआत करते हैं सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले से... केन्द्र व राज्य सरकार के आँकड़ों के अनुसार पिछले दस वर्ष में गुजरात में सिर्फ 18 फर्जी एनकाउंटर के मामले सामने आए हैं, जबकि उत्तरप्रदेश में 170 से अधिक एवं आँध्रप्रदेश में 150 से अधिक फर्जी पुलिस एनकाउंटर हुए हैं. फिर “सोहराबुद्दीन” एनकाउंटर को ही मीडिया में इतनी प्रसिद्धि क्यों मिली? ज़ाहिर है, क्योंकि सोहराबुद्दीन चाहे कितना भी खूंखार अपराधी हो, चाहे उसके घर के कुएँ से एके-४७ राइफलें मिली हों, परन्तु वह मुसलमान है, इसलिए उसका उपयोग करके नरेन्द्र मोदी को घेरा जा सकता है. सोहराबुद्दीन के साथ ही तुलसी प्रजापत नाम के गुंडे का भी एनकाउंटर हुआ था, तुलसी प्रजापत का नाम तो अधिक सुनने में नहीं आता, क्योंकि वह हिन्दू है. यह सब पढ़ने-सुनने में बड़ा अजीब सा और साम्प्रदायिक किस्म का लग सकता है, परन्तु जब हम देखते हैं कि अचानक ही इशरत जहाँ नामक संदिग्ध लड़की के मारे जाने पर नीतीश कुमार और शरद पवार, दोनों ही उसके “अब्बू” बनने की कोशिश करने लगते हैं तब यह शक और भी मजबूत हो जाता है कि मुस्लिम वोटों को लुभाने के लिए सेक्यूलर “गैंग” सोहराबुद्दीन मामले में किसी भी हद तक जा सकती है.


पाठकों को याद होगा कि मुम्बई के आज़ाद मैदान में रज़ा अकादमी द्वारा आयोजित रैली के बाद एकत्रित मुस्लिम भीड़ ने जिस तरह की अनियंत्रित हिंसा की, पुलिस वालों को पीटा गया, महिला कांस्टेबलों की बेइज्जती की गई और तो और शहीद स्मारक पर मुल्लों द्वारा लातें और डंडे बरसाए गए. संदिग्ध इतिहास वाली रज़ा अकादमी को रैली की अनुमति देना सही निर्णय था या नहीं यह अलग बात है, परन्तु इस मुस्लिम भीड़ द्वारा इस हिंसक रैली के बाद राज ठाकरे के दबाव में जब महाराष्ट्र सरकार की पुलिस ने बिहार जाकर एक मुस्लिम युवक को गिरफ्तार किया, तब भी नीतीश कुमार ने सहयोग करने की बजाय मुस्लिम कार्ड खेल लिया, जबकि महाराष्ट्र के गृह मंत्री आरआर पाटिल NCP के ही मंत्री हैं. जो शरद पवार और नीतीश कुमार जो आज इशरत जहाँ को “बेटी-बेटी-बेटी” कहने की होड़ लगा रहे हैं, वे उस समय आमने-सामने खड़े थे.

मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बड़ी बेशर्मी और भौंडे अंदाज़ में पालने-पोसने की कई घटनाओं में से एक सभी को याद है और वह है “बाटला हाउस एनकाउंटर”. सोहराबुद्दीन एनकाउंटर पर रुदालीगान करने वाले सभी सेक्यूलर इस मामले में भी पुनः शहज़ाद नामक आतंकवादी के पक्ष में आँसू बहाते नज़र आए. जिस तरह से 26/11 हमले के समय हेमंत करकरे के बलिदान की बेइज्जती करके उस घटना को भी संघ के माथे थोपने की भद्दी कोशिश की गई थी, बाटला हाउस मामले में भी शहीद हुए इंस्पेक्टर मोहनचंद्र शर्मा को अपराधी साबित करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी गई. यहाँ तक कि आजमगढ़ से ट्रेन भर-भरकर मुसलमानों को दिल्ली में प्रदर्शन हेतु लाया गया. कोर्ट का निर्णय आने के बावजूद मुस्लिम वोटों के सौदागर अभी भी मोहनचंद्र शर्मा की मिट्टी पलीद करने में लगे हुए हैं.

सोहराबुद्दीन पर मची छातीकूट, आज़ाद मैदान हिंसा पर रहस्यमयी चुप्पी और इशरत जहाँ को बेटी बनाने की फूहड़ होड़ के बाद मुस्लिम साम्प्रदायिकता की राजनीति का घिनौना चेहरा सामने आया उत्तरप्रदेश में, जहाँ के रेत माफिया पर नकेल कसने वाली युवा, कर्मठ आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति को निलंबित करने के लिए अखिलेश यादव नाम के एक और “युवा”(?) मुख्यमंत्री ने रमजान माह में एक मस्जिद की दीवार गिराने का स्पष्ट बहाना बना लिया, ताकि मुस्लिम वोटों की खेती की जा सके. थोड़ा-बहुत हल्ला-गुल्ला मचाया गया, लेकिन जैसा कि होता है उत्तरप्रदेश के अन्य मंत्रियों ने अपने बेतुके बयानों से आग में घी डालने का ही काम किया. किसी को भी इस देश के प्रशासनिक ढाँचे, संघीय व्यवस्था अथवा एक युवा अफसर के गिरते मनोबल के बारे में कोई चिंता नहीं थी. सोनिया गाँधी ने सिर्फ एक चिठ्ठी लिखकर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली, परन्तु संसद में सपा-बसपा के ऑक्सीजन पर टिकी हुई काँग्रेस इस मामले को अधिक तूल देना नहीं चाहती थी... क्योंकि उसके सामने भी मुस्लिम वोटों की फसल का सवाल था...


इन सारी चुनावी सेकुलर बेशर्मियों के बीच एक और बात को च्युइंग-गम की तरह चबाया गया. वह है मीडिया की सांठगांठ के साथ तैयार किया गया “इस्लामी टोपी प्रकरण”. पिछले एक साल में तो इस मुद्दे पर इतना कुछ कहा जा चुका है कि इस्लाम में पवित्र मानी जाने वाली सफेद टोपी अब हँसी और खिल्ली का विषय बन चुकी है. चंद बिके हुए लोगों ने ऐसा माहौल रच दिया गया है, मानो देश के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होने के लिए विकास कार्य, दूरदृष्टि, ईमानदारी वगैरह की जरूरत नहीं है, बल्कि “जालीदार टोपी” लगाना ही एकमात्र क्वालिफिकेशन है. इफ्तार पार्टियों के नाम पर मुस्लिम वोटों की दलाली का जो भौंडा और भद्दा प्रदर्शन होता है, उसका तो कोई जवाब ही नहीं है. भाजपा के दूसरे मुख्यमंत्री और नेता भी इस चूहा-दौड़ में शामिल दिखाई देते हैं. 1996 की सेकुलर “गिरोहबाजी” से 13 दिनों और 13 माह में भाजपा की सरकारें गिराने वालों की हरकतें देख चुकी देश की जनता फिर से देख रही है कि एक अकेले नरेन्द्र मोदी के खिलाफ किस तरह यह “गैंग” ना सिर्फ एकजुट है, बल्कि इन लोगों को मुस्लिम साम्प्रदायिकता भड़काने से भी गुरेज़ नहीं है. इसीलिए कभी यह गैंग सभी मुसलमानों को “कुत्ते का पिल्ला” साबित करने में जुट जाती है तो कभी टोपी और पाँच रूपए के टिकिट जैसे क्षुद्र मुद्दों पर टाईम-पास करती है.

तात्पर्य यह है कि गत कुछ वर्षों में बड़े ही सुनियोजित ढंग से मुस्लिम साम्प्रदायिकता को खाद-पानी दिया जा रहा है, और मजे की बात यह है कि ये सब कुछ “साम्प्रदायिक”(?) ताकतों से लड़ने के नाम पर किया जा रहा है. क्या पिछले दस वर्ष में कभी भाजपा ने राम मंदिर के नाम पर आंदोलन-प्रदर्शन किया है? क्या विहिप और बजरंग दल ने पिछले दस वर्ष में गौ-हत्या अथवा हिन्दू धर्म के किसी अन्य मुद्दे पर कोई विशाल या हिंसात्मक आंदोलन किया है? क्या नरेन्द्र मोदी के गुजरात में पिछले दस वर्ष में कोई छोटा-बड़ा दंगा हुआ है? क्या शिवराज-रमण सरकारों के शासनकाल में मुसलमानों के ऊपर “अत्याचार” बढ़ाए गए हैं?? इन सभी सवालों का जवाब “नहीं” में आता है, तो फिर “सेकुलरिज़्म के घड़ियाल” मुस्लिम साम्प्रदायिकता के उभार को तथाकथित हिन्दू आतंक(?) के जवाब में होने वाली घटना कैसे कह सकते हैं... यह तो चोरी और सीनाजोरी वाली हरकत हो गई.

इसी सीनाजोरी का एक और प्रदर्शन हाल ही में जम्मू क्षेत्र के किश्तवाड में देखने को मिला, जहाँ ईद की नमाज़ के बाद मुस्लिमों की भारी भीड़ ने भारत विरोधी नारे लगाए, जिसका विरोध करने पर असंगठित हिंदुओं को जमकर सबक सिखाया गया. सैकड़ों दुकानें जलीं, संपत्ति लूटी गई, कुछ घायल हुए और कुछ मारे गए. जवाब में उमर अब्दुल्ला ने भी “देश के इतिहास में हुए एकमात्र दंगे”(?) यानी गुजरात का उदाहरण देकर उसे हल्का करने की कोशिश कर ली. अब्दुल्ला का वह बयान तो और भी हैरतनाक था जिसमें उन्होंने कहा कि “ कश्मीर में ईद की नमाज के बाद अथवा जुमे की नमाज के बाद भारत विरोधी नारे लगना तो आम बात है...” यानी उमर अब्दुल्ला कहना चाहते हैं कि पाकिस्तान जिंदाबाद कहना एक सामान्य सी बात है और उसका विरोध नहीं किया जाना चाहिए. क्या अब भी कोई शक बाकी रह गया है कि कश्मीर को पंडितों से खाली करने के बाद अब जेहादियों की नज़रें जम्मू क्षेत्र पर भी हैं, और इस मंशा को हवा देने में बाकी भारत में जारी मुस्लिम साम्प्रदायिकता का बड़ा हाथ है, इस साधारण सी बात को सेकुलर समझना ही नहीं चाहते. “हिन्दू आतंक” नाम के जिस हौए को वे खड़ा करना चाहते हैं, उसके पैर इतनी खोखली जमीन पर खड़े हैं कि महाराष्ट्र सरकार साध्वी प्रज्ञा के खिलाफ अभी तक ठीक से चार्जशीट भी फ़ाइल नहीं कर पाई है, सरकारी प्रेस की खबरों पर यकीन करें तो असीमानंद पर NIA के बयान भी लगातार बदल रहे हैं, भाजपा अथवा कोई हिंदूवादी संगठन इनकी मदद के लिए खुल्लमखुल्ला सामने नहीं आ रहा, जबकि शहजाद का साथ देने के लिए दिग्विजय सिंह डट चुके हैं, सोहराबुद्दीन के लिए तीस्ता “जावेद” सीतलवाड बैटिंग कर रही हैं, आज़ाद मैदान की घटना को “मामूली” बताकर खारिज करने की कोशिशें हो रही हैं, किश्तवाड से हिन्दू पलायन करने की गुहार लगा रहे हैं कोई सुनवाई नहीं हो रही... लेकिन सभी पार्टियों के दिलो-दिमाग पर नरेन्द्र मोदी नाम का तूफ़ान ऐसा हावी है कि उन्हें मुस्लिम वोटों से आगे कुछ दिखाई नहीं दे रहा, मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ाने के लिए नित-नए रास्ते खोजे जा रहे हैं, ताकि मोदी के नाम से मुसलमानों को धमकाकर रखा जा सके.


फिल्म मिशन इम्पासिबल (भाग-२) में एक वैज्ञानिक कहता है, “नायक गढ़ने के लिए पहले एक खलनायक गढ़ना जरूरी है...” मुस्लिम वोटरों की दलाली करने वाले नेताओं और दलों की आपसी खींचतान के चलते उन्होंने आपस में एक “गैंग” बनाकर पहले नरेन्द्र मोदी को खलनायक बनाया, ताकि वे खुद को मुस्लिमों के एकमात्र मसीहा और खैरख्वाह साबित कर सकें, उनके नायक बन सकें. वर्ना क्या वजह है कि जब भी गुजरात दंगों की बात होती है या चर्चाएँ होती हैं, उस समय उन दंगों के मुख्य कारक तत्त्व गोधरा ट्रेन हादसे को ना सिर्फ भुला दिया जाता है, बल्कि उसे चुपचाप दरी के नीचे छिपाने की भौंडी कोशिशें लगातार जारी रहती हैं. क्या 2001 से पहले भारत में कहीं दंगे नहीं हुए थे? क्या 2001 के बाद भारत में कभी दंगे नहीं हुए? क्या 2001 से पहले के गुजरात का हिन्दू-मुस्लिम दंगों का इतिहास लोगों को मालूम नहीं है, जब चिमनभाई पटेल के शासन में दो-दो माह तक दंगे चला करते थे? सेकुलरिज़्म की डामर अपने चेहरे पर पोते हुए कांग्रेसियों और वामपंथियों को सब मालूम है कि काँग्रेस शासन के दौरान असम के नेल्ली से लेकर मलियाना तक सैकड़ों मुसलमानों का नरसंहार हुआ था, और उधर तीस साल के वामपंथी कुशासन में पश्चिम बंगाल में गरीबी तो बढ़ी ही, साथ ही मुस्लिम वोट बैंक की घटिया राजनीति के चलते बांग्लादेश से आए हुए “सेक्यूलर मेहमानों” ने पश्चिम बंगाल के सत्रह जिलों और असम के आठ जिलों की आबादी को मुस्लिम बहुल बना डाला. क्या “सेक्यूलर रतौंधी” से ग्रस्त लोग कभी इसे देख पाएँगे?

नरेन्द्र मोदी की आलोचना करते समय यह “गैंग” सुविधानुसार यह भूल जाती है कि पिछले दस वर्ष में गुजरात में एक भी दंगा नहीं हुआ, क्या यह बड़ी उपलब्धि नहीं है? बिलकुल है, परन्तु जैसा कि मैंने ऊपर कहा, खुद को नायक साबित करने के चक्कर में खलनायक गढा गया है, और जब यह कथित “खलनायक” गुजरात के विकास को शो-केस में रखकर वोट जुटाने की कोशिश में लगा है, तो रह-रहकर काँग्रेस-सपा-बसपा-जदयू-वामपंथ सभी को सेकुलरिज़्म का बुखार चढ़ने लगता है. नरेन्द्र मोदी से मुकाबले के लिए इन लोगों की निगाह में सिर्फ एक ही रामबाण है, और वह है “थोकबंद मुस्लिम वोट”. ज़ाहिर है कि मुस्लिम वोट देश की १०० से अधिक लोकसभा सीटों पर निर्णायक है, इसलिए आने वाले दिनों में इस “पैमाने” पर इन्हीं के बीच आपस में घमासान मचेगा, जिसका केन्द्र बिंदु उत्तरप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल होंगे.

हिन्दू साम्प्रदायिकता का उभार और चरम 1988 से 1993 तक ही कहा जा सकता है. 2001 में गुजरात की घटना सिर्फ गोधरा की प्रतिक्रिया थी, लेकिन पिछले साठ वर्षों में काँग्रेस सहित अन्य तथाकथित सेकुलर पार्टियों ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ाया और पाला-पोसा है, उसके जवाब में यदि मई २०१४ के लोकसभा चुनावों में “हिन्दू उभार” सामने आ गया तो मुश्किल हो जाएगी. संक्षेप में कहूँ तो, “राजनीति करें, लेकिन रबर को इतना भी ना खींचें कि वह टूट ही जाए...”. यदि इसी तरह मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ोतरी दी गई, तो 1989-1991 की तरह पुनः हिन्दू साम्प्रदायिकता का उभार ना हो जाए... यदि ऐसा हुआ तो राजनीतिज्ञों का कोई नुकसान नहीं होगा, लेकिन आम गरीब मुसलमान को ही कष्ट उठाने पड़ेंगे.
Read 3297 times Last modified on शुक्रवार, 30 दिसम्बर 2016 14:16
Super User

 

I am a Blogger, Freelancer and Content writer since 2006. I have been working as journalist from 1992 to 2004 with various Hindi Newspapers. After 2006, I became blogger and freelancer. I have published over 700 articles on this blog and about 300 articles in various magazines, published at Delhi and Mumbai. 


I am a Cyber Cafe owner by occupation and residing at Ujjain (MP) INDIA. I am a English to Hindi and Marathi to Hindi translator also. I have translated Dr. Rajiv Malhotra (US) book named "Being Different" as "विभिन्नता" in Hindi with many websites of Hindi and Marathi and Few articles. 

www.google.com