फ़िल्मों की शाश्वत घटनायें...

Written by शनिवार, 09 जून 2007 13:12

भारत में हर साल औसतन (सभी भाषाओं को मिलाकर) लगभग एक हजार फ़िल्में बनती हैं, जो कि विश्व में सर्वाधिक हैं (Hindi Films in India)। जाहिर है कि फ़िल्में हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गई हैं और जैसा कि मैंने "फ़िल्मी मौत : क्या सीन है" में कहा था कि हम हिन्दी फ़िल्मों से प्यार करते हैं । वे अच्छी हो सकती हैं, बुरी हो सकती हैं, लेकिन आम जन के जीवन और समाज पर उनके सकारात्मक या नकारात्मक प्रभावों को खारिज नहीं किया जा सकता है ।

हिन्दी फ़िल्मों के जन्म से लेकर आज तक या कहें कि आलमआरा से लेकर धूम-२ तक हिन्दी फ़िल्मों ने काफ़ी उतार-चढाव देखे हैं और तकनीकी बदलाव लाये हैं, लेकिन यहाँ हम हिन्दी फ़िल्मों के कुछ ऐसे दृश्यों का जिक्र करने जा रहे हैं, जो सालों से लाखों फ़िल्मों के बन जाने के बाद भी नहीं बदले हैं । ना.. ना.. मैं उन "टिपिकल" फ़ार्मूलों के बारे में नहीं कह रहा हूँ, कि दो भाई कुंभ के मेले में बिछडेंगे और अन्त में ताबीज या गोदना देखकर आपस में भै...या!! कहते हुए लिपट जायेंगे, या कि कलफ़ लगे कडक कपडे पहने और तिलक लगाये डाकू का हृदय परिवर्तन हो जायेगा (पुलिस के आने से पहले), या कि गरीब हीरो और अमीर हीरोईन की प्रेम-कहानी जिसमें लडकी का बाप सिगार पीते हुए हीरो के सामने चेकबुक रख देता है और मूर्ख (जी हाँ) हीरो उसे ठुकरा देता है, ना ही इस पर बात होगी कि मरियल सा हीरो दस-बीस गुंडों को कैसे धूल चटाता है, कैसे वह कार या मोटर-साईकल की रेस लगाकर हीरोईन को बचाता है, भले ही हीरो के बाप ने कभी साईकल भी नहीं चलाई हो.. ये सब बातें तो "कॉमन" हैं...। हम बात करने जा रहे हैं कुछ विशिष्ट दृश्यों की या कहें घटनाक्रमों की । इन दृश्यों और संवादों को हिन्दी फ़िल्मों में इतनी बार दोहराया जा चुका है कि मेरे बेटे को भी याद हो चला है कि यदि धर्मेन्द्र है तो वह कम से कम एक बार "कु...त्ते ~!!" जरूर बोलेगा । "माँ..." और "भगवान के लिये मुझे छोड़ दो.." (हालांकि इस संवाद पर एक फ़िल्म में शक्ति कपूर ने बडे़ मजेदार अन्दाज में कहा था - भगवान के लिये तुम्हें छोड दूँगा तो मैं क्या लूँगा...परसाद !!), ढीली-ढाली पैंट वाले पुलिसिये के मुँह से "यू आर अंडर अरेस्ट.." भी जब-तब हमें सुनाई दे ही जाता है...।

यदि हीरो गरीब है तो भी उसका घर बहुत बडा़ होगा और उसकी माँ जबरन खाली डब्बे उलट-पुलट करते हुए आँसू बहाती रहेगी (ये नहीं कि बडा घर बेचकर छोटा ले लें)। लीला चिटणीस और सुलोचना की आँखें तो सिलाई मशीन पर काम करते-करते ही खराब हुई होंगी, और निरुपा राय की ग्लिसरीन लगा-लगा कर । मुस्टण्डे हीरो का सारा घर-खर्चा सिलाई मशीन से निकलता है और वो नालायक बगीचे में हीरोईन से पींगें बढा रहा होता है । कोई-कोई हीरो जब भी टेनिस या बैडमिंटन का मुकाबला या कप जीतकर आता है तो माँ उसके लिये गाजर का हलवा या खीर जरूर बनाती है, कभी-कभार आलू का पराँठा भी चल जाता है, सारे हीरो की पसन्द का मेनू यही है । बेरोजगार और निकम्मा होते हुए भी हीरोईन के साथ बगीचे की घास पर ऐसे मस्तायेगा जैसे बगीचा उसके बाप का ही हो । इसी प्रकार पुलिस के फ़िल्म के अन्त में ही पहुँचने की महान परम्परा रही है, जब विलेन पिट-पिट कर अधमरा हो जायेगा, तब इफ़्तेखार साहब कहेंगे "कानून को अपने हाथ में मत लो विजय..." (और विजय भी तड़ से मान जायेगा, जैसे कानून कोई काँच का बरतन हो)। विलेन को पिटते देखना भी अपने-आप में एक दावत की तरह ही होता है, विलेन की एक भी गोली हीरो को छू जाये मजाल है ? उसके अड्डे पर तमाम जलती-बुझती लाईटें देखकर लगता है कहीं वह इलेक्ट्रीशियन तो नहीं ! आलमारी में से तहखाने का दरवाजा तो विलेन के अड्डे का जरूरी अंग है, और हमारे लगभग सारे विलेन पैकिंग और ढुलाई के काम को साइड-बिजनेस के रूप में करते होंगे, तभी तो आज तक मुझे यह नहीं पता चला कि हर विलेन के अड्डे पर खाली ड्रम और खाली खोके क्यों रखे रहते हैं.. अन्तिम संघर्ष में जाने कितने सब्जी भरे ठेलों को उलटाया जाता है और थर्माकोल की दीवारों को नष्ट किया जाता है (इसी कारण सब्जियाँ और थर्माकोल महंगा भी हो गया है)। सबसे पवित्र सीन जो राजकपूर साहब के पहले भी था, बाद में भी है और सदा रहेगा, वह है हीरोईन के नहाने का सीन । हीरोईनों को नहाने का इतना शौक होता है कि वे जलसंकट की रत्तीभर परवाह नहीं करतीं । "जिस देश में गंगा बहती है" से लेकर "मोहरा" तक हीरोईनों ने मात्र नहाने में इतना पानी बर्बाद किया है कि भाखडा़-नंगल और हीराकुंड को भी शर्म आ जाये। हिन्दी फ़िल्मों के डाकू अभी भी घोडों पर ही हैं, जबकि चम्बल के असली डाकुओं ने खुली अर्थव्यवस्था को अपनाते हुए हीरो होंडा और स्कोडा ले ली है । फ़िल्मी माँओं-बहनों ने तो हाथ से थाली गिराने में मास्टरी हासिल कर ली है, बुरी खबर सुनते वक्त अधिकतर उनके हाथ में थाली होती ही है... न...~~हीं...!! कहते हुए झन्न से थाली हाथ से छोडी.. (अरी मूढ़ धीरे से रख भी तो सकती थी), अब तक न जाने कितनी थालियों में अनगिनत टोंचे पड़ गये होंगे ।

वैसे आजकल फ़िल्मों में वक्त के साथ काफ़ी बदलाव आ गये हैं, हीरो की माँ अब बूढी़ नहीं होती, बल्कि रीमा लागू जैसी ग्लैमरस और सेक्सी होती है, गोदरेज के रहते उसके बाल सफ़ेद होने का तो अब सवाल ही नहीं । धारावाहिकों में भी हीरो जब माँ कहता है तभी पता चलता है कि ये उसकी माँ है, माशूका नहीं...। हीरो भी आजकल कम्प्यूटर पर काम करने लगा है (कम से कम ऐसा अभिनय तो वह करता ही है), हीरोईनों का नहाना भी इधर आजकल कुछ कम हो चला है (जलसंकटग्रस्त लोगों के लिये खुश होने का मौका), क्योंकि उन्हें अब कपडे़ उतारने के लिये नहाने का बहाना करने की जरूरत नहीं रही । डाकू और गुण्डे भी हमारे आसपास के लोगों जैसे ही दिखने लगे हैं (सत्या, वास्तव आदि) । कहने का तात्पर्य यह कि बदलाव तो आ रहा है, लेकिन धीरे-धीरे, तब तक हमें यदा-कदा इन दृश्यों को झेलने को तैयार रहना चाहिये...

Read 1282 times Last modified on बुधवार, 26 जून 2019 13:25