आतंकवादियों, अपराधियों के शरीर में GPS माइक्रोचिप फ़िट कर देना चाहिये… (भाग-2)
Written by Super User सोमवार, 28 अप्रैल 2008 20:24
GPS Microchips Terrorism Criminals RFID
(भाग-1 से जारी)
पिछले भाग में हमने GPS तकनीक वाली चिप के बारे में जानकारी हासिल की थी, जो कि नवीनतम है, अब थोड़ा जानते हैं एक पुरानी तकनीक RFID के बारे में, जो कि अब काफ़ी आम हो चली है (जी हाँ भारत में भी…)
RFID तकनीक वाली माइक्रोचिप -
RFID तकनीक से काम करने वाली माइक्रोचिप के डाटा को पढ़ने के लिये एक विशेष “रीडर” की आवश्यकता होती है, जिसमें से उस व्यक्ति को गुजारा जाता है (उदाहरण के तौर पर मेटल डिटेक्टर जैसी)। साथ ही इस चिप की “रेंज” मात्र कुछ किलोमीटर तक ही होती है, अर्थात इसमें से निकलने वाली “फ़्रीक्वेंसी” को कुछ दूरी तक ही पकड़ा जा सकता है। इसमें माइक्रोचिप फ़िट किये गये व्यक्ति या जानवर को “स्कैन” किया जाता है, और उसका सारा डाटा कम्प्यूटर पर हाजिर होता है। अक्सर इस तकनीक का उपयोग पालतू जानवरों के लिये किया जाता है। आमतौर पर इस माइक्रोचिप का उपयोग उच्च सुरक्षा वाले इलाकों, महत्वपूर्ण दस्तावेजों की आलमारी, या पुलिस विभाग के गोपनीय विभाग में किया जाता है। इस प्रकार के विभागों में सिर्फ़ वही व्यक्ति घुस सकता है जिसकी बाँह के नीचे यह माइक्रोचिप फ़िट किया हुआ है, कोई अवांछित व्यक्ति जब उस “रेंज” में प्रवेश करता है तो अलार्म बजने लगता है। यह तकनीक परमाणु संस्थानों और सेना के महत्वपूर्ण कार्यालयों की सुरक्षा के लिये बहुत जरूरी है।

अमेरिका में तीस वर्ष पूर्व सबसे पहले भैंस पर इसका सफ़ल प्रयोग किया गया। उस भैंस को चरागाह और जंगल में खुला छोड़ दिया गया और उन पर फ़्रीक्वेंसी के जरिये “निगाह” रखी गई, वे कहाँ जाती है, क्या-क्या खाती हैं, आदि। इस प्रयोग की सफ़लता के बाद तो मछलियों, बैलों, कुत्तों आदि को लाखों माइक्रोचिप्स लगाई जा चुकी हैं। इससे जानवर के गुम जाने पर उसे ढूँढने में आसानी हो जाती है। अब इन RFID चिप का उपयोग नाके पर ऑटोमेटिक पेमेंट के लिये कारों में (अमेरिका में चेक नाकों पर इस तकनीक से पेमेंट सीधे क्रेडिट कार्ड के जरिये कट जाता है), लाइब्रेरी की महत्वपूर्ण और कीमती पुस्तकों में (ताकि चोरी होने की स्थिति में उसका पता लगाया जा सके), यहाँ तक कि वालमार्ट जैसे बड़े मॉल में कीमती सामानों में भी लगाया जाता है (चोर तो हर जगह मौजूद होते हैं ना!!)। इस तकनीक में सुरक्षा एजेंसियों को सिर्फ़ जगह-जगह कैमरे फ़िट करने होते हैं और उन्हें इनकी रेडियो फ़्रिक्वेंसी से “तालमेल” करवा दिया जाता है, बस उन कैमरों के सामने से निकलने वाली हर माइक्रोचिप की गतिविधि, उसकी दिशा आदि का तत्काल पता चल जाता है।
11 सितम्बर के हमले के बाद अमेरिका में आज तक कोई आतंकवादी हमला नहीं हो पाया, जबकि भारत में तो हर महीने एक हमला होता है और मासूम नागरिक मारे जाते हैं। अमेरिकी प्रशासन का कहना है कि हरेक नागरिक को यह “चिप” लगवा लेना चाहिये तथा इसे “निजी मामलों में दखल” न समझा जाये बल्कि देश की सुरक्षा के लिहाज से इसे देखा जाना चाहिये। हालांकि “निजता (Privacy) में सरकारी निगरानी” जैसी बात को लेकर, जनता का रुख अभी नकारात्मक है, लेकिन प्रशासन लोगों को राजी करने में लगा हुआ है। इसे लगाने की तकनीक भी बेहद आसान है, एक मामूली इंजेक्शन के जरिये इसे कोहनी और कंधे के बीच में पिछले हिस्से में त्वचा के अन्दर फ़िट कर दिया जाता है। एक मिर्गी के मरीज ने इसे फ़िट करवा लिया है, जब भी उसे दौरा पड़ने की नौबत आती है, या वह बेहोशी की हालत में अस्पताल में लाया जाता है, इस “चिप” के कारण डॉक्टरों को उसके पिछले रिकॉर्ड के बारे सब कुछ पहले से मालूम रहता है और उसका इलाज तत्काल हो जाता है।
वैसे एक माइक्रोचिप की औसत उम्र 10 से 15 साल होती है, और एक बार फ़िट कर दिये जाने के बाद इसे निकालना आसान नहीं है। हरेक चिप का 16 अंकों का विशेष कोड नम्बर होता है, जिससे इसकी स्कैनिंग आसानी से हो जाती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इन माइक्रोचिप को शरीर से निकाला जा सकता है, लेकिन उसके लिये पहले पूरे शरीर का एक्सरे करना पड़ेगा, क्योंकि वह चिप अधिकतर शरीर में स्किन के नीचे खिसकते-खिसकते कहीं की कहीं पहुँच जाती है। इसमें एक सम्भावना यह भी है कि कहीं वह अपराधी किसी मुठभेड़ में या आपसी गैंगवार में बुरी तरह घायल हो जाये, तो कहीं बहते खून के साथ यह माइक्रोचिप भी न निकल जाये।

अमेरिका की सबसे बड़ी माइक्रोचिप बनाने वाली कम्पनी “वेरीचिप कॉर्प” अब तक 7000 से ज्यादा माइक्रोचिप बना चुकी है जिसे विभिन्न पालतू जानवरों को लगाया जा चुका है, साथ ही 2000 माइक्रोचिप विभिन्न व्यक्तियों को भी लगाई जा चुकी है, जिनमें से अधिकतर गम्भीर डायबिटीज, अल्जाइमर्स पीड़ित या हृदय रोगियों को लगाई गई हैं। चूंकि यह तकनीक अभी नई है, इसलिये फ़िलहाल इसकी कीमत 200 से 300 डॉलर के आसपास होती है, लेकिन जैसे-जैसे यह आम होती जायेगी स्वाभाविक रूप से यह चिप सस्ती पड़ेगी। लेकिन जैसा कि मैंने पिछले लेख में कहा कि यदि “तरल” रूप में नैनो जीपीएस तकनीक वाली माइक्रोचिप आ जाये तो सुरक्षा एजेंसियों को जबरदस्त फ़ायदा हो जायेगा…
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(भाग-1 से जारी)
पिछले भाग में हमने GPS तकनीक वाली चिप के बारे में जानकारी हासिल की थी, जो कि नवीनतम है, अब थोड़ा जानते हैं एक पुरानी तकनीक RFID के बारे में, जो कि अब काफ़ी आम हो चली है (जी हाँ भारत में भी…)
RFID तकनीक वाली माइक्रोचिप -
RFID तकनीक से काम करने वाली माइक्रोचिप के डाटा को पढ़ने के लिये एक विशेष “रीडर” की आवश्यकता होती है, जिसमें से उस व्यक्ति को गुजारा जाता है (उदाहरण के तौर पर मेटल डिटेक्टर जैसी)। साथ ही इस चिप की “रेंज” मात्र कुछ किलोमीटर तक ही होती है, अर्थात इसमें से निकलने वाली “फ़्रीक्वेंसी” को कुछ दूरी तक ही पकड़ा जा सकता है। इसमें माइक्रोचिप फ़िट किये गये व्यक्ति या जानवर को “स्कैन” किया जाता है, और उसका सारा डाटा कम्प्यूटर पर हाजिर होता है। अक्सर इस तकनीक का उपयोग पालतू जानवरों के लिये किया जाता है। आमतौर पर इस माइक्रोचिप का उपयोग उच्च सुरक्षा वाले इलाकों, महत्वपूर्ण दस्तावेजों की आलमारी, या पुलिस विभाग के गोपनीय विभाग में किया जाता है। इस प्रकार के विभागों में सिर्फ़ वही व्यक्ति घुस सकता है जिसकी बाँह के नीचे यह माइक्रोचिप फ़िट किया हुआ है, कोई अवांछित व्यक्ति जब उस “रेंज” में प्रवेश करता है तो अलार्म बजने लगता है। यह तकनीक परमाणु संस्थानों और सेना के महत्वपूर्ण कार्यालयों की सुरक्षा के लिये बहुत जरूरी है।

अमेरिका में तीस वर्ष पूर्व सबसे पहले भैंस पर इसका सफ़ल प्रयोग किया गया। उस भैंस को चरागाह और जंगल में खुला छोड़ दिया गया और उन पर फ़्रीक्वेंसी के जरिये “निगाह” रखी गई, वे कहाँ जाती है, क्या-क्या खाती हैं, आदि। इस प्रयोग की सफ़लता के बाद तो मछलियों, बैलों, कुत्तों आदि को लाखों माइक्रोचिप्स लगाई जा चुकी हैं। इससे जानवर के गुम जाने पर उसे ढूँढने में आसानी हो जाती है। अब इन RFID चिप का उपयोग नाके पर ऑटोमेटिक पेमेंट के लिये कारों में (अमेरिका में चेक नाकों पर इस तकनीक से पेमेंट सीधे क्रेडिट कार्ड के जरिये कट जाता है), लाइब्रेरी की महत्वपूर्ण और कीमती पुस्तकों में (ताकि चोरी होने की स्थिति में उसका पता लगाया जा सके), यहाँ तक कि वालमार्ट जैसे बड़े मॉल में कीमती सामानों में भी लगाया जाता है (चोर तो हर जगह मौजूद होते हैं ना!!)। इस तकनीक में सुरक्षा एजेंसियों को सिर्फ़ जगह-जगह कैमरे फ़िट करने होते हैं और उन्हें इनकी रेडियो फ़्रिक्वेंसी से “तालमेल” करवा दिया जाता है, बस उन कैमरों के सामने से निकलने वाली हर माइक्रोचिप की गतिविधि, उसकी दिशा आदि का तत्काल पता चल जाता है।
11 सितम्बर के हमले के बाद अमेरिका में आज तक कोई आतंकवादी हमला नहीं हो पाया, जबकि भारत में तो हर महीने एक हमला होता है और मासूम नागरिक मारे जाते हैं। अमेरिकी प्रशासन का कहना है कि हरेक नागरिक को यह “चिप” लगवा लेना चाहिये तथा इसे “निजी मामलों में दखल” न समझा जाये बल्कि देश की सुरक्षा के लिहाज से इसे देखा जाना चाहिये। हालांकि “निजता (Privacy) में सरकारी निगरानी” जैसी बात को लेकर, जनता का रुख अभी नकारात्मक है, लेकिन प्रशासन लोगों को राजी करने में लगा हुआ है। इसे लगाने की तकनीक भी बेहद आसान है, एक मामूली इंजेक्शन के जरिये इसे कोहनी और कंधे के बीच में पिछले हिस्से में त्वचा के अन्दर फ़िट कर दिया जाता है। एक मिर्गी के मरीज ने इसे फ़िट करवा लिया है, जब भी उसे दौरा पड़ने की नौबत आती है, या वह बेहोशी की हालत में अस्पताल में लाया जाता है, इस “चिप” के कारण डॉक्टरों को उसके पिछले रिकॉर्ड के बारे सब कुछ पहले से मालूम रहता है और उसका इलाज तत्काल हो जाता है।
वैसे एक माइक्रोचिप की औसत उम्र 10 से 15 साल होती है, और एक बार फ़िट कर दिये जाने के बाद इसे निकालना आसान नहीं है। हरेक चिप का 16 अंकों का विशेष कोड नम्बर होता है, जिससे इसकी स्कैनिंग आसानी से हो जाती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इन माइक्रोचिप को शरीर से निकाला जा सकता है, लेकिन उसके लिये पहले पूरे शरीर का एक्सरे करना पड़ेगा, क्योंकि वह चिप अधिकतर शरीर में स्किन के नीचे खिसकते-खिसकते कहीं की कहीं पहुँच जाती है। इसमें एक सम्भावना यह भी है कि कहीं वह अपराधी किसी मुठभेड़ में या आपसी गैंगवार में बुरी तरह घायल हो जाये, तो कहीं बहते खून के साथ यह माइक्रोचिप भी न निकल जाये।

अमेरिका की सबसे बड़ी माइक्रोचिप बनाने वाली कम्पनी “वेरीचिप कॉर्प” अब तक 7000 से ज्यादा माइक्रोचिप बना चुकी है जिसे विभिन्न पालतू जानवरों को लगाया जा चुका है, साथ ही 2000 माइक्रोचिप विभिन्न व्यक्तियों को भी लगाई जा चुकी है, जिनमें से अधिकतर गम्भीर डायबिटीज, अल्जाइमर्स पीड़ित या हृदय रोगियों को लगाई गई हैं। चूंकि यह तकनीक अभी नई है, इसलिये फ़िलहाल इसकी कीमत 200 से 300 डॉलर के आसपास होती है, लेकिन जैसे-जैसे यह आम होती जायेगी स्वाभाविक रूप से यह चिप सस्ती पड़ेगी। लेकिन जैसा कि मैंने पिछले लेख में कहा कि यदि “तरल” रूप में नैनो जीपीएस तकनीक वाली माइक्रोचिप आ जाये तो सुरक्षा एजेंसियों को जबरदस्त फ़ायदा हो जायेगा…
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