बचपन में आपने जादूगर जैसे उस ठग की कहानी जरूर सुनी होगी, जिसमें एक ठग रोज़ाना गाँव में आता और छोटे-छोटे बच्चों को टॉफी-बिस्किट देकर लुभाता था. धीरे-धीरे गाँव के सभी बच्चों को टॉफी` खाने की लत लग गई और वे टॉफी खाए बिना रह नहीं सकते थे, उस मुफ्त बिस्किट के मोहपाश में बंध चुके थे. आगे चलकर उस ठग ने अपना असली रूप दिखाना शुरू किया, और बच्चों तथा उनके माँ-बाप से पैसा ऐंठना शुरू कर दिया. बचपन की यही कहानी लगभग अपने मूल स्वरूप में हमारी पीढ़ी के समक्ष आन खड़ी हुई है. इसमें बच्चे हैं इंटरनेट का उपयोग करने वाले तमाम भारतवासी, टॉफी-बिस्किट हैं अभी तक मुफ्त में मिल रही फेसबुक/गूगल की सुविधा और ठग की भूमिका में हैं फेसबुक के मालिक जुकरबर्ग एवं रिलायंस के मालिक मुकेश अंबानी.
ज़ाहिर है कि आरंभिक प्रस्तावना पढ़कर कोई चौंका होगा, कोई घबराया होगा तो करोड़ों लोग ऐसे भी हैं जो पूरे मामले से बिलकुल ही अनजान हैं. संक्षेप में शुरू करूँ तो बात ऐसी है कि पिछले कुछ माह से देश में एक खामोश क्रान्ति चल रही है, और उस क्रान्ति को दबाने के लिए पूँजीपति भी अपने तमाम हथियार लेकर मैदान में हैं. यह क्रान्ति इसलिए शुरू हुई है, क्योंकि जल-जंगल-जमीन वगैरह पर कब्जे करने के बाद विश्व के बड़े पूंजीपतियों के दिमाग में, विश्व के सबसे सशक्त आविष्कार अर्थात “मुक्त इंटरनेट” पर कब्ज़ा करने का फितूर चढा है. इसकी शुरुआत उस समय हुई जब फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग ने “रिलायंस जिओ” के साथ गठबंधन और समझौता करके Internet.org नामक संस्था बनाई और यह घोषणा की, कि यह तकनीकी प्लेटफार्म उपभोक्ताओं को मुफ्त इंटरनेट सुविधा देगा. जुकरबर्ग-अंबानी की यह जुगलबंदी देश के दूरदराज इलाकों में ग्रामीणों और किसानों को मुफ्त इंटरनेट सुविधा देगी, ताकि भारत में इंटरनेट का प्रसार बढ़े, उपभोक्ताओं की संख्या बढ़े और देश के सभी क्षेत्र इंटरनेट की पहुँच में आ जाएँ, जिससे ज्ञान और सूचना का प्रसारण अधिकाधिक हो सके. सुनने में तो यह प्रस्ताव बड़ा ही आकर्षक लगता है ना..?? कोई भी व्यक्ति यही सोचेगा कि वाह, जुकरबर्ग और अंबानी कितने परोपकारी हैं और नरेंद्र मोदी के डिजिटल इण्डिया के नारे पर इन्होंने कितनी ईमानदारी से अमल किया है ताकि देश के गरीबों और किसानों को मुफ्त इंटरनेट मिले. परन्तु दुनिया में कभी भी, कुछ भी “मुफ्त” नहीं होता, “मुफ्त” नहीं मिलता यह एक सर्वमान्य सिद्धांत है जो हम भारतवासी अक्सर भूल जाते हैं. जब Internet.org की योजनाओं का गहराई से विवेचन किया गया तब पता चला कि वास्तव में यह योजना “इंटरनेट रूपी टॉफी की लत लगे हुए भारतीयों के लिए” उस ठग का एक मायाजाल ही है.
शुरुआत में भारत के इंटरनेट उपभोक्ताओं ने Internet.org की इस योजना को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया, उसे बहुत ही कम समर्थन प्राप्त हुआ. अधिकाँश ने इसकी आलोचना की और इसे “मुफ्त और मुक्त इंटरनेट” तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” पर एक हमला बताया एवं खारिज कर दिया. चूँकि भारत में फोन-मोबाईल और इंटरनेट से सम्बन्धित कोई भी योजना TRAI की मंजूरी के बिना शुरू नहीं की जा सकती और बहुत से बुद्धिजीवियों ने Internet.Org की इस योजना को मंजूरी नहीं देने हेतु TRAI में शिकायत कर डाली और इस कारण इसे तात्कालिक रूप से ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. अब जुकरबर्ग-अंबानी की जोड़ी ने नया पैंतरा खेला और इसी संस्था का नाम बदलकर “Free Basics” कर दिया. चूँकि हम भारतवासियों में “मुफ्त” शब्द का बड़ा आकर्षण होता है, इसलिए इस कमज़ोर नस को दबाते हुए इसका नाम Free Basics रखा गया. ऊपर बताया हुआ सिद्धांत, कि “दुनिया में कभी भी, कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता” हम भारत के लोग अक्सर भूल जाते हैं. इसलिए इस बार “Free Basics” के नाम से यह योजना का प्रचार-प्रसार बड़े जोर-शोर से आरम्भ किया गया. फेसबुक पर धडल्ले से इसका समर्थन करने के लिए अपीलें प्रसारित की जाने लगीं, बड़े-बड़े मेट्रो स्टेशनों पर होर्डिंग और बैनर लगाकर इस योजना के कारण “गरीबों, किसानों और छात्रों” को होने वाले फायदों(??) के बारे में बताया जाने लगा. दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (TRAI) को भरमाने के लिए यह चाल चली गई कि 30 दिसम्बर तक भारत के करोड़ों इंटरनेट उपभोक्ताओं द्वारा ई-मेल करके यह बताया जाना था कि उन्हें “फ्री-बेसिक” चाहिए अथवा “नेट न्यूट्रलिटी”? यदि अधिकाधिक उपभोक्ता “फ्री बेसिक्स” के पक्ष में मतदान करें तो TRAI को इसे मंजूरी दे देनी चाहिए.
जो नए पाठक हैं अथवा जो इस गंभीर मुद्दे से अपरिचित हैं, पहले वे “नेट न्यूट्रलिटी” के बारे में संक्षेप में समझ लें. Net Neutrality का अर्थ है पूरी दुनिया में इंटरनेट एकदम तटस्थ और मुक्त रहेगा, इस पर किसी का आधिपत्य नहीं होना चाहिए. Net Neutrality का अर्थ है कि मोबाईल अथवा नेट कनेक्शन के लिए उपभोक्ता ने जितना पैसा दिया वह उस राशि से इंटरनेट पर जो चाहे वह साईट देखे, उतने पैसों में वह मनचाहा डाउनलोड करे. जबकि जुकरबर्ग-अंबानी द्वारा पोषित Free Basics की अवधारणा यह है कि यदि आप रिलायंस का मोबाईल और रिलायंस का नेट कनेक्शन लें तो आपको (उनके द्वारा) कुछ निर्धारित वेबसाइट मुफ्त में देखने को मिलेंगी, लेकिन उन मुफ्त वेबसाईटों के अलावा किसी दूसरी साईट पर जाना हो तो उसका अतिरिक्त पैसा लगेगा. “जुकर-मुकेश” द्वारा खैरात में दी जाने वाली “फ्री-फ्री-फ्री” वेबसाईटों से आप मुफ्त में कुछ भी डाउनलोड कर सकते हैं परन्तु उनके अलावा किसी अन्य वेबसाईट से यदि आप कुछ डाउनलोड करेंगे तो उतनी राशि चुकानी होगी, जितनी अंबानी तय करेंगे.
आगे बढ़ने से पहले आप समस्या को ठीक से समझ सकें इसलिए हम दो छोटे-छोटे उदाहरण और देखेंगे. मान लीजिए कि आपको एक निमंत्रण पत्र मिला जिसमें कहा गया कि आप एक सेमीनार में आमंत्रित हैं, जहाँ “मुफ्त भोजन” मिलेगा. जब आप वहाँ पहुँचते हैं तो आप पाते हैं कि सेमिनार तो घटिया था ही, वहां मिलने वाला मुफ्त भोजन भी बेहद खराब, निम्न क्वालिटी का और आपकी पसंद के व्यंजनों का नहीं था. जब आप आयोजकों से इस सम्बन्ध में शिकायत करते हैं तो आपको टका सा जवाब मिलता है कि “मुफ्त” में जो मिल रहा है, वह यही है और यदि आपको अच्छा और पसंदीदा भोजन चाहिए तो पास के महँगे रेस्टोरेंट में चले जाईये, मनमाने दाम चुकाईये और खाईये. जब आप उस रेस्टोरेंट में पहुँचते हैं तो पाते हैं कि वहाँ का भोजन तो अति-उत्तम और सुस्वादु है लेकिन उसके रेट्स बहुत ही गैर-वाजिब और अत्यधिक हैं. जब आप इसकी शिकायत करना चाहते हैं तो पाते हैं कि उस रेस्टोरेंट का मालिक वही व्यक्ति है, जो थोड़ी देर पहले आपको “मुफ्त भोजन” के नाम पर घटिया खाना परोस रहा था. दूसरा उदाहरण डिश टीवी (अथवा टाटा स्काई) के किसी उपभोक्ता से समझा जा सकता है. यदि आपको मुफ्त चैनल देखने हैं तो आपको दूरदर्शन के एंटीना पर जाना होगा, वहाँ आपको कोई मासिक शुल्क नहीं लगेगा और सरकार द्वारा दिखाए जा रहे सभी चैनल आपको मुफ्त में देखने को मिलेंगे. लेकिन यदि आपको विविध मनोरंजन, ख़बरें, नृत्य एवं फ़िल्में देखना चाहते हैं तो आपको निजी कंपनियों की सेवा लेनी पड़ेगी, समाचार देखने हैं तो उसका “पॅकेज” अलग, फ़िल्में देखनी हों तो उसका “पॅकेज” अलग होगा... और उसकी दरें भी मनमानी होंगी उसमें उपभोक्ता का कोई दखल नहीं होगा, वहाँ पर बाज़ार का एक ही सिद्धांत चलेगा कि “जेब में पैसा है तो चुकाओ और मजे लो, वर्ना फूटो यहाँ से...”. फ्री बेसिक्स और नेट न्यूट्रलिटी को लेकर जो खतरनाक शाब्दिक जंग और पैंतरेबाजी चल रही है वह भारत में इंटरनेट की तेजी से बढ़ते उपभोक्ताओं, भारत के युवाओं में ऑन्लाइन के बढ़े आकर्षण के कारण और भी गहरी हो चली है. इंटरनेट के बाजार पर निजी नियंत्रण और “बाजारू” कब्जे के जो गंभीर परिणाम होंगे उन्हें अभी कोई समझ नहीं पा रहा है. Free Basics के खतरे को एक और उदाहरण से समझिए...
मान लीजिए कि IIT कोचिंग हेतु कोटा का प्रसिद्ध बंसल इंस्टीट्यूट, बिरला की कम्पनी आईडिया से हाथ मिला लेता है कि जिस बच्चे के पास आईडिया का नेट कनेक्शन होगा, उसे तो बंसल इंस्टीट्यूट की कोचिंग के सभी नोट्स एवं अभ्यास क्रम मिल्कुल मुफ्त में मिलेंगे. यानी अगर आप Idea की सिम और इंटरनेट डाटा पैक के ग्राहक हैं तो आपका बच्चा मुफ्त में बंसल इंस्टीट्यूट के कोचिंग वीडियो और नोट्स प्राप्त कर लेगा, लेकिन यदि आपने रिलायंस अथवा एयरटेल का कनेक्शन लिया है तो वे आपसे भारी शुल्क वसूलेंगे, जबकि उन्होंने भी अपने इंटरनेट डाटा पैक का पैसा पहले ही वसूल कर लिया है. इसी प्रकार यदि आईडिया वाला कोई उपभोक्ता अगर इंटरनेट पर मुफ्त में मिलने वाले संजीव कपूर के खाना-खजाना को देखने की कोशिश करेगा तो उसकी जेब से ज्यादा पैसा काटा जाएगा, क्योंकि हो सकता है कि संजीव कपूर का अनुबंध टाटा के डोकोमो से हो. संक्षेप में कहने का अर्थ यह है कि “फ्री बेसिक्स” के लागू होने के बाद आप किसी कम्पनी के बँधुआ गुलाम बन जाएँगे. वह कम्पनी आपको जो वेबसाईट्स दिखाना चाहती है वही दिखाएगी और चूँकि आप भी एक बार उस कम्पनी का मोबाईल खरीद चुके तथा उसी कम्पनी को आपने इंटरनेट डाटा पैक का भी पैसा दे दिया है, इसलिए आप अधिक पैसा देकर किसी “Paid” वेबसाईट पर भला क्यों जाने लगे? यही तो वह कम्पनी चाहती है कि आप उतना ही सोचें, उतना ही देखें, उतना ही सुनें जितना वह कम्पनी आपको दिखाना-सुनाना-पढ़ाना चाहती है. जबकि इस समय स्थिति बिलकुल उलट है, आज की तारीख में यदि आपने एक बार इंटरनेट डाटा पैक ले लिया अथवा अपने घर में किसी कम्पनी से वाई-फाई कनेक्शन ले लिया तो आप जो मर्जी चाहें, उस वेबसाइट पर जा सकते हैं. आज की तारीख में आप पर ऐसा कोई बंधन नहीं है कि आपको बंसल इंस्टीट्यूट अथवा एलेन इंस्टीट्यूट में से किसी एक का ही चुनाव करना पड़ेगा... फिलहाल आप पर यह बंधन भी नहीं है कि आप तरला दलाल या संजीव कपूर में से किसी एक से ही कुकिंग सीख सकते हैं... चूँकि अभी जुकरबर्ग-अंबानी की चालबाजी सफल नहीं हुई है, इसलिए फिलहाल आप टाईम्स, एक्सप्रेस से लेकर वॉशिंगटन-जर्मनी तक के अपने सभी पसंदीदा अखबार पढ़ सकते हैं, “फ्री-बेसिक्स” लागू होने के बाद संभव है कि रिलायंस के मोबाईल पर आपको सिर्फ दैनिक भास्कर ही पढ़ने को मिले, क्योंकि एक-दो अखबार ही “मुफ्त” में मिलेंगे, बाकी कुछ पढ़ना हो तो पैसा चुकाना पड़ेगा. मान लीजिए जैसे आज फेसबुक और रिलायंस का गठबंधन है, वैसे ही यदि गूगल और एयरटेल का समझौता हो गया तो रिलायंस के नेट कनेक्शन से गूगल पर कोई बात सर्च करना हो तो अतिरिक्त्त पैसा लगेगा, जबकि एयरटेल के कनेक्शन वाले को यदि फेसबुक पर मित्रों से बात करनी है तो वह उसका पैसा लेगा. यानी आपकी स्वतंत्रता खत्म... फ्री-बेसिक्स का विरोध क्यों हो रहा है कुछ समझे आप?? लेकिन समस्या यह है कि भारत में खासे पढ़े-लिखे लोगों को भी “मुफ्त” “फ्री” के नाम पर आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है, इसीलिए लाखों लोगों ने फेसबुक पर चल रहे विज्ञापनों एवं उनके द्वारा आए ई-मेल के झाँसे में आकर बिना सोचे-समझे-पढ़े, “हाँ, मैं फ्री बेसिक्स का समर्थन करता हूँ” कहते हुए TRAI को ई-मेल भी भेज डाला है. अब देखते हैं कि आगे क्या होता है.
फ्री-बेसिक्स के विरोधियों अर्थात नेट-न्यूट्रलिटी के समर्थकों का यह तर्क उचित जान पड़ता है कि जब उपभोक्ता ने एक बार इंटरनेट डाटा पैक के पैसे चुका दिए हैं तो उसे यह स्वतंत्रता मिलनी चाहिए कि वह “एक-समान स्पीड” से दुनिया की किसी भी वेबसाईट पर जा सके. यदि कंपनियों को इंटरनेट डाटा पैक के दाम बढ़ाने हों तो वे TRAI की अनुमति लेकर बेशक बढ़ाएँ परन्तु एक बार नेट कनेक्शन लेने के बाद उपभोक्ता को किसी टेलिकॉम कम्पनी अथवा किसी वेबसाईट की दादागिरी ना सहनी पड़े कि वह फलाँ चीज ही देखे या फलाँ न्यूज़ ही पढ़े. यही सच्चा लोकतांत्रिक व्यवहार और सिद्धांत है. जबकि फ्री-बेसिक्स के समर्थकों (खासकर मार्क जुकरबर्ग) का कहना है कि यह योजना लागू की जानी चाहिए, ताकि देश में इंटरनेट के उपयोगकर्ता बढ़ें, इस योजना से इंटरनेट की पहुँच गरीबों, किसानों और छात्रों तक सुलभ होगी. रिलायंस का मोबाईल खरीदते ही उपभोक्ता को बिना किसी नेट कनेक्शन के उनके द्वारा निर्धारित कई वेबसाईट्स मुफ्त में देखने को मिलेंगी. जुकरबर्ग का कहना है कि भारत में इसका विरोध क्यों हो रहा है, उन्हें समझ नहीं आता क्योंकि फिलीपींस, मलावी, बांग्लादेश, थाईलैंड और मंगोलिया जैसे कई देशों में “फ्री-बेसिक्स” योजना लागू है.
जैसा कि फेसबुक और अंबानी दावा कर रहे हैं कि “फ्री-बेसिक्स” के नाम पर वे यह सब इसलिए कर रहे हैं ताकि देश के गरीबों-किसानों तक इंटरनेट की पहुँच बन सके उन्हें लाभ पहुँचे तो उनके पास फ्री-बेसिक्स के अलावा दूसरे भी विकल्प हैं जिसमें “नेट न्यूट्रलिटी” भी बरक़रार रहेगी और उपभोक्ता की स्वतंत्रता भी. उदाहरणार्थ रिलायंस यह घोषणा कर सकता है कि जो उनका मोबाईल खरीदेगा उसे 100MB तक फेसबुक मुफ्त देखने को मिलेगा. यदि एयरटेल का समझौता गूगल के साथ हो जाता है तो एयरटेल घोषणा कर सकता है कि उनका मोबाईल खरीदने पर अथवा एयरटेल का कनेक्शन लेने पर ग्राहक को 200MB तक का डाटा बहुत तेज गति से लेकिन मुफ्त मिलेगा, परन्तु उसके बाद उसे सामान्य इंटरनेट डाटा पैक शुल्क चुकाना होगा. दूसरा सुझाव यह है कि यदि उन्हें वास्तव में गरीबों की चिंता है तो उन्हें सस्ते एंड्रायड मोबाईल बाज़ार में उतारकर “दस-दस रूपए में 300MB” के छोटे-छोटे रिचार्ज वाउचर निकालने चाहिए ताकि किसान को जितनी जरूरत हो वह उतना ही इंटरनेट उपयोग करे, लेकिन वह दुनिया की कोई भी वेबसाइट खोलकर देख सके, ना कि जुकरबर्ग और अंबानी की पसंद की. बांग्लादेश में मोज़िला कंपनी ने “ग्रामीण-फोन” नामक इंटरनेट सेवा प्रदाता से समझौता किया है, जिसके अनुसार कोई भी उपभोक्ता रोज़ाना 20MB तक का डाटा बिलकुल मुफ्त उपयोग कर सकता है, और बदले में उसे सिर्फ एक विज्ञापन देखना होता है. यदि वाकई में “सेवाभाव” की बात है तो यह नियम भारत में भी लागू किया जा सकता है. जिसे मुफ्त में डाटा चाहिए होगा, पहले वह विज्ञापन देखेगा, इसमें क्या दिक्कत है? एक और उदाहरण अफ्रीका का भी है, जहाँ Orange नामक कम्पनी 37 डॉलर (लगभग 2300 रूपए) का मोबाईल बेचती है, जिस पर उपभोक्ता को प्रतिमाह 500MB का इंटरनेट डाटा मुफ्त मिलता है. अंबानी-बिरला और मित्तल यदि वास्तव में गरीब छात्रों के हितचिन्तक हैं तो उनके लिए यह योजना भी लागू की जा सकती है. लेकिन यह “फ्री-बेसिक्स” की जिद क्यों?? उपभोक्ता उनके द्वारा तय की गई सूची के हिसाब से क्यों देखे-पढ़े-सुने? उसे चुनाव की स्वतंत्रता चाहिए.
असल में मार्क जुकरबर्ग को यह समझने और समझाने की जरूरत है कि “फ्री-बेसिक” की अवधारणा भारत में तेजी से पनप रहे “युवा स्टार्ट-अप” के लिए भी खतरनाक है. मान लीजिए कि कोई युवा एक शानदार स्टार्ट-अप कम्पनी खड़ी करता है, उसकी वेबसाईट पर सारी जानकारियाँ देता है, अपना बिजनेस बढ़ाने के लिए डिजिटल इण्डिया के नारे के तहत तमाम वेबमीडिया का सहारा लेने की कोशिश करता है. लेकिन उसे पता चलता है कि चूँकि एयरटेल ने गूगल के साथ, फेसबुक ने अंबानी के साथ अथवा आईडिया ने किसी और बड़े मगरमच्छ के साथ अपने-अपने गठबंधन एवं समझौते कर लिए हैं तथा वे उनके मोबाईल और नेट कनेक्शन पर “उनकी सूची” के मुताबिक़ फ्री इंटरनेट सेवा दे रहे हैं तो फिर इस नए स्टार्ट-अप कम्पनी की वेबसाईट पर कौन आएगा? कैसे आएगा और क्यों आएगा? यानी एक स्थिति यह भी आएगी कि उस स्टार्ट-अप कम्पनी को रिलायंस अथवा गूगल के सामने गिडगिडाना पड़ेगा कि “हे महानुभावों, मुझ गरीब की इस वेबसाइट को भी अपनी मुफ्त वाली सूची में शामिल कर लो”, हो सकता है कि ये महाकाय कम्पनियाँ उस छोटी स्टार्ट-अप से इसके लिए भी कोई वार्षिक शुल्क लेना शुरू कर दें. और ऐसी किसी भी वेबसाईट के मालिक को यह प्रक्रिया उन सभी गठबंधनों के साथ करनी पड़ेगी जहाँ-जहाँ वह अपनी वेबसाईट मुफ्त में ग्राहकों को दिखाना चाहता है. यदि रिलायंस के मोबाईल पर स्नैपडील की साईट मुफ्त है लेकिन मुझे फ्लिप्कार्ट से सामान खरीदना है तो मुझे अतिरिक्त पैसा चुकाना पड़ेगा, फिर मैं फ्लिप्कार्ट की साईट पर क्यों जाने लगा? यानी अंततः बेचारी फ्लिप्कार्ट को भी मजबूरी में नाक रगड़ते हुए रिलायंस के साथ गठबंधन करना होगा, इसी प्रकार स्नैपडील को एयरटेल से करना पड़ेगा. यानी हमारी पसंद-नापसंद का मालिक कौन हुआ?? ज़ाहिर है कि चंद बड़े उद्योगपति... यानी जुकरबर्ग-अंबानी-मित्तल-बिरला आदि. यह पूर्णतः अलोकतांत्रिक विचार है तथा आपसी मुक्त प्रतिस्पर्धा एवं इंटरनेट के मूल सिद्धांत के खिलाफ है. अब आप खुद सोचिये कि “नौकरी.कॉम” जैसी बड़ी वेबसाईट भला यह क्यों चाहेगी कि उसके बेरोजगार ग्राहकों को फेसबुक अपनी मनमर्जी से चलाए और विभिन्न वेबसाईटों की तरफ Redirect करके उन्हें चूना लगाए? फेसबुक अथवा गूगल की एकाधिकारवादी मानसिकता खुलकर सामने आने लगी है, उनका पेट विज्ञापनों से होने वाली अरबों-खरबों रूपए से भी नहीं भर रहा, इसीलिए अब वे “गिरोह” बनाकर इंटरनेट जैसी शानदार चीज़ पर कब्ज़ा जमाना चाहते हैं ताकि वे अपने हिसाब से उपभोक्ताओं को हाँक सकें. यानी जो ठग शुरू में मुफ्त की चॉकलेट और बिस्किट देकर हमें उसकी लत लगा चुका है, वह अब अपनी कीमत वसूलने पर आ गया दीखता है.