मुस्लिमों का नकली दलित प्रेम

Written by सोमवार, 25 जनवरी 2016 10:15

इस्लाम में तमाम तरह की ऊँच-नीच और जाति प्रथा होने के बावजूद अपना घर सुधारने की बजाय, उन्हें हिन्दू दलितों की “नकली चिंता” अधिक सताती है. विभिन्न फोरमों एवं सोशल मीडिया में असली-नकली नामों तथा वामपंथी बुद्धिजीवियों के फेंके हुए बौद्धिक टुकड़ों के सहारे ये मुस्लिम बुद्धिजीवी हिंदुओं में दरार बढ़ाने की लगातार कोशिश करते रहते हैं. जबकि इनके खुद के संस्थानों में इन्होंने दलितों के लिए दरवाजे बन्द कर रखे हैं.

हाल ही में हैदराबाद विश्वविद्यालय के एक छात्र रोहित वेमुला को गुंडागर्दी एवं देशद्रोही हरकतों के लिए विश्वविद्यालय से निकाला गया था, जिसके बाद उसने आत्महत्या कर ली और इस मामले को भारत के गैर-जिम्मेदार मीडिया ने जबरदस्त तूल देते हुए इस मुद्दे को दलित बनाम गैर-दलित बना दिया. हालाँकि रोहित वेमुला की जातिगत पहचान अभी भी संदेह और जाँच के घेरे में है, लेकिन भारत के अवार्ड लौटाऊ नकली बुद्धिजीवियों ने देश को तोड़ने वाली ताकतों के साथ मिलकर इस मुद्दे पर जमकर वैचारिक दुर्गन्ध मचाई. दिल्ली में रोज़ाना ठण्ड से दस व्यक्तियों की मौत होती है, लेकिन केजरीवाल साहब को गरीबों की सुध लेने की बजाय सुदूर हैदराबाद जाना जरूरी लगा, इस प्रकार सभी “गिद्धों” ने रोहित की लाश पर अपना-अपना भोज किया. रोहित वेमुला की मृत्यु के पश्चात देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों तथा सोशल मीडिया पर एक विशेष “ट्रेण्ड” देखने को मिला, जिसमें देखा गया कि स्टूडेंट्स इस्लामिक ऑर्गेनाइजेशन तथा ईसाईयों के कुछ संगठन अपने “घडियाली आँसू” बहाते नज़र आए. सोशल मीडिया में कई चित्रों, पोस्ट्स एवं कमेंट्स में मुस्लिमों का दलित प्रेम उफन-उफन कर बह रहा था.

Aligarh Muslim University

हाल ही में केन्द्र सरकार ने देश के दो प्रमुख इस्लामिक विश्वविद्यालयों अर्थात अलीगढ़ मुस्लिम विवि तथा जामिया मिलिया इस्लामिया विवि को कारण बताओं नोटिस जारी करके पूछा है कि, क्यों ना इनका “अल्पसंख्यक संस्था” वाला दर्जा समाप्त कर दिया जाए?? केन्द्र सरकार ने यह कदम इसलिए उठाया है कि स्वयं को अल्पसंख्यक संस्थान कहलाने वाले ये दोनों विश्वविद्यालय, क़ानून और नियमों की आड़ लेकर अपने यहाँ दलितों को आरक्षण की सुविधा नहीं देते हैं. जैसा कि सभी को पता है, “अल्पसंख्यक संस्थानों” में दलितों को आरक्षण नहीं मिलता है, बल्कि अलीगढ़ या जामिया में 50% सीटें मुस्लिमों के लिए आरक्षित हैं, जबकि बची हुई पचास प्रतिशत “सभी के लिए ओपन” हैं, ऐसे में दलितों को इन विश्वविद्यालयों में प्रवेश ही नहीं मिल पाता. मुस्लिमों द्वारा दलितों के प्रति प्रेम की झूठी नौटंकी को उजागर करने तथा दलितों के साथ होने वाले इस अन्याय को रोकने के लिए केन्द्र सरकार अब उच्चतम न्यायालय के जरिये इन दोनों विश्वविद्यालयों का अल्पसंख्यक दर्जा छीनने जा रही है. एक दलित केन्द्रीय मंत्री थावरचंद गहलोत ने कहा कि दलितों के साथ यह भेदभाव हम नहीं चलने देंगे, जब देश के सभी विश्वविद्यालयों में दलितों को संविधान के अनुसार आरक्षण दिया जाता है तो अलीगढ़ और जामिया में भी मिलना चाहिए. चूँकि इन दोनों विश्वविद्यालयों का “अल्पसंख्यक संस्थान दर्जा” असंवैधानिक है, इसलिए सरकार न्यायालय के जरिए ऐसे सभी अल्पसंख्यक संस्थानों में दलितों को आरक्षण दिलवाने के लिए कटिबद्ध है.

उल्लेखनीय है कि दलितों की हितचिन्तक कही जाने वाली सभी राजनैतिक पार्टियों ने इन दोनों विश्वविद्यालयों के इस ज्वलंत मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है. जब यूपीए-२ की सरकार थी, तब भी 2006 से लेकर अब तक मनमोहन-सोनिया सरकार ने अपने वोट बैंक संतुलन की खातिर असंवैधानिक होने के बावजूद ना तो दलितों को न्याय दिलवाया, और ना ही इन दोनों विश्वविद्यालयों की यथास्थिति के साथ कोई छेड़खानी की. 2011 में भी काँग्रेस की केन्द्र सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुप्पी साधे रखी और मामले को टाल दिया.

वास्तव में इतिहास इस प्रकार है कि, मोहम्मडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज (जिसे 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विवि में बदल दिया गया था) भारत के उच्चतम न्यायालय ने 1967 में ही एक निर्णय में कह दिया था कि इसे अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा नहीं दिया जा सकता. लेकिन उस समय दलितों के मुकाबले मुसलमानों का वोट बैंक अधिक मजबूत होने की वजह से इंदिरा गाँधी ने जस्टिस अज़ीज़ बाशा के इस निर्णय को मानने से इनकार कर दिया तथा संसद के द्वारा क़ानून में ही बदलाव करवा दिया ताकि इन संस्थानों का अल्पसंख्यक स्तर बरकरार रहे. इस निर्णय को चुनौती दी गई और इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2006 में इस प्रावधान को हटाने के निर्देश दिए, जिसे मनमोहन सरकार ने ठंडे बस्ते में डाले रखा. अब सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार से पूछा है कि इन दोनों विश्वविद्यालयों के प्रति उनकी सरकार का मत है. इस पर केन्द्र सरकार ने लिखित में कह दिया है कि “चूँकि इन संस्थानों की स्थापनों सिर्फ मुस्लिमों ने, मुस्लिमों के लिए नहीं की है तथा जामिया एवं अलीगढ़ दोनों ही विश्वविद्यालय केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैं इसलिए 1967 के उस फैसले के अनुसार इन्हें अल्पसंख्यक दर्जा प्रदान नहीं किया जा सकता और इन संस्थानों को दलित छात्रों को एडमिशन देना ही होगा”. यहाँ तक कि काँग्रेस के दो पूर्ववर्ती शिक्षा मंत्रियों एमसी छागला और नूरुल हसन ने भी अलीगढ़ मुस्लिम विवि को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय के दर्जे का विरोध किया था (हालाँकि इंदिरा गाँधी की तानाशाही के आगे उनकी एक न चली).

D1


विपक्षी पार्टियों का “नकली दलित प्रेम” एक झटके में उस समय उजागर हो गया, जब आठ विपक्षी दलों ने केन्द्र सरकार के इस निर्णय का विरोध करते हुए कहा कि वे इस निर्णय के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाएंगे तथा राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन सौंपेंगे. यानी कल तक जो विपक्षी पार्टियाँ दलितों पर अत्याचार और अन्याय के खिलाफ चिल्ला रही थीं, उन्हें अब अचानक अल्पसंख्यक वोटों का ख़याल आने लगा है. और मुसलमानों का तो कहना ही क्या? खुद इस्लाम में तमाम तरह की ऊँच-नीच और जाति प्रथा होने के बावजूद अपना घर सुधारने की बजाय, उन्हें हिन्दू दलितों की “नकली चिंता” अधिक सताती है. विभिन्न फोरमों एवं सोशल मीडिया में असली-नकली नामों तथा वामपंथी बुद्धिजीवियों के फेंके हुए बौद्धिक टुकड़ों के सहारे ये मुस्लिम बुद्धिजीवी हिंदुओं में दरार बढ़ाने की लगातार कोशिश करते रहते हैं. जबकि इनके खुद के संस्थानों में इन्होंने दलितों के लिए दरवाजे बन्द कर रखे हैं.

पिछली सरकारों के दौरान तमाम मुस्लिम सांसदों के लिखित भाषणों की प्रतियाँ भी एकत्रित की जा रही हैं, जिनमें उन्होंने देश के सेकुलर ढाँचे को देखते हुए इन विश्वविद्यालयों के अल्पसंख्यक दर्जे का विरोध किया था. सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की अगली सुनवाई चार अप्रैल को होने जा रही है, जिसमें मानव संसाधन मंत्रालय अपना लिखित जवाब प्रस्तुत करेगा और माननीय न्यायालय से अनुरोध करेगा कि इन दोनों विश्वविद्यालयों का अल्पसंख्यक दर्जा समाप्त करके दलित छात्रों को भी इसमें समुचित आरक्षण दिलवाया जाए. इस कदम से “मुस्लिमों का नकली दलित प्रेम” तो उजागर होगा ही, विपक्षी “कथित सेकुलर” राजनैतिक पार्टियों का मुखौटा भी टूट कर गिर पड़ेगा, क्योंकि यदि वे केन्द्र सरकार के इस निर्णय का विरोध करती हैं तो उनका भी “दलित प्रेम” सामने आ जाएगा, और यदि समर्थन करती हैं तो उन्हें मुस्लिम वोट बैंक खोने का खतरा रहेगा. कुल मिलाकर वामपंथी-सेकुलर बुद्धिजीवियों तथा दलितों के नकली प्रेमियों के सामने साँप-छछूंदर की स्थिति पैदा हो गई है. बहरहाल, रोहित वेमुला की लाश पर रोटी सेंकने वाले सोच में पड़ गए हैं, क्योंकि शुरुआत अलीगढ़ और जामिया विवि से हुई है और यह आगे किन-किन संस्थानों तक जाएगी, कुछ कहा नहीं जा सकता. एक बात तो निश्चित है कि इन “तथाकथित अल्पसंख्यक” संस्थानों में, दलितों को प्रवेश दिलवाने के मामले में मोदी सरकार गंभीर नज़र आती है.

रही बात काँग्रेस की, तो रोहित वेमुला की मौत पर राजनैतिक रोटियाँ सेंकने को बेताब यह पार्टी शुरू से ही दलित विरोधी रही है... फिर चाहे बाबा साहेब आंबेडकर को मृत्यु के 34 वर्ष बाद भारत रत्न का सम्मान देने वाली बात हो, या फिर एक दलित पार्टी अध्यक्ष सीताराम केसरी की धोती फाड़कर उन्हें काँग्रेस से बाहर फेंकने जैसा मामला हो... इसलिए काँग्रेस के बारे में कुछ लिखना बेकार ही है. वह भी रोहित वेमुला के इस दुखद अवसर को "राजनैतिक गिद्ध" के रूप में ही देखती है.

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