शौचालय के मल-मूत्र से सोना उपजाता, गाजियाबाद का प्रगतिशील युवा किसान…… Ecosan Technology Toilets, Sanitation in India

Written by शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010 13:49
जो लोग ग्रामीण जीवन से परिचित हैं, वे भलीभाँति जानते हैं कि अक्सर गाँवों में सुबह शौच के लिये लोग खेतों की ओर निकल लेते हैं, यह परम्परा भारत में बहुत पुरानी है और कमोबेश आज की स्थिति अधिक बदली नहीं है। अन्तर सिर्फ़ इतना आया है कि गाँवों में कुछ घरों में शौचालय स्थापित हो गये हैं, जबकि बाकी के गाँववाले खेतों की बजाय सामुदायिक शौचालयों में निवृत्त होने जाते हैं।

ग्रामीण जनजीवन को थोड़ा सुगम बनाने और उनके कठिन जीवनयापन की परिस्थितियों को आसान बनाने के लिये वैज्ञानिक लगातार काम करते रहते हैं। इसी कड़ी में “सेनिटेशन विशेषज्ञों” ने एक शौचालय बनाया है, जिसका नाम है “ईको-सैन शौचालय” (EcoSan = Ecological Sanitation)। अब यदि किसी सार्वजनिक शौचालय से गाँव का भला होता हो तथा साथ-साथ उससे कमाई भी होती हो तो यह सोने पर सुहागा ही हुआ ना… इसी सोच को आगे बढ़ाते हुए उत्तरप्रदेश के गाजियाबाद के पास स्थित ग्राम असलतपुर के एक युवा किसान श्याम मोहन त्यागी ने इस नई तकनीक वाले शौचालय को हाथोंहाथ लिया और अब वह इस शौचालय से अच्छी कमाई कर रहे हैं। शौचालय से कमाई??? जी नहीं, आप गलत समझे… यह सुलभ इंटरनेशनल वाले “पैसा दो शौचालय जाओ” वाली स्टाइल में नहीं कमा रहे, बल्कि गाँववालों को प्रेरित कर रहे हैं कि वे उनके शौचालय में रोज सुबह आयें, क्योंकि त्यागी जी इस शौचालय के मल-मूत्र को एकत्रित करके उसकी कम्पोस्ट खाद बनाते हैं और उसे खेतों में छिड़कते-बिखेरते हैं, और इस वजह से जोरदार “ईको-फ़्रेण्डली” फ़सल ले रहे हैं। त्यागी ने अपने खेतों में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग सन् 2006 से ही बन्द कर दिया है। श्याम मोहन त्यागी, जो कि खुद भी इतिहास में पोस्ट ग्रेजुएट हैं, को दिल्ली के एक NGO द्वारा बनाये जा रहे ईकोसैन तकनीक वाले शौचालयों के बारे में पता चला, तब उन्होंने अपने खेत के एक हेक्टेयर क्षेत्र में टेस्टिंग के तौर पर इसे आजमाने का फ़ैसला किया।



ज़रा पहले जानिये, इस “ईको-सैन शौचालय” के बारे में… फ़िर आगे बात करते हैं। जैसा कि विज्ञान के छात्र जानते हैं कि एक व्यक्ति अपने मल-मूत्र के जरिये एक वर्ष में 4.56 किलो नाइट्रोजन (N), 0.55 किलो फ़ॉस्फ़ोरस (P), तथा 1.28 किलो पोटेशियम (K) उत्पन्न करता है। यह मात्रा 200 X 400 के एक सामान्य खेत की उर्वरक क्षमता को सन्तुष्ट करने के लिये पर्याप्त है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत की एक अरब से अधिक की आबादी का कुल मल-मूत्र लगभग 60 लाख टन होता है, जो कि भारत में रासायनिक उर्वरकों की कुल खपत का एक-तिहाई है। 


ईकोसैन शौचालय की सीट की डिजाइन परम्परागत फ़्लश शौचालय से थोड़ी अलग होती है। परम्परागत शौचालय की सीट में मानव मल-मूत्र दोनों एक साथ, एक ही टैंक में जाता है, जहाँ से उसे सीवर लाइन में भेज दिया जाता है, जबकि ईकोसैन तकनीक शौचालय की सीट दो भागों में होती है, इसके द्वारा मल एक टैंक में एकत्रित किया जाता है, जबकि मूत्र अलग टैंक में… दोनों आपस में मिलने नहीं चाहिये। एक शौचालय के लिये दो सीटों की आवश्यकता होती है, पहली सीट के नीचे का टैंक जब पूरा भर जाता है, तब उस सीट को चार माह तक बन्द करके मानव मल को सूखने और उसमें बैक्टीरिया और जीवाणु उत्पन्न होने के लिये वैसे ही छोड़ दिया जाता है, व तब तक दूसरी सीट उपयोग में लाई जाती है। इसी प्रकार क्रम से अदला-बदली करके एक शौचालय को उपयोग किया जाता है। हाथ-पाँव धोने के लिये व्यवस्था अलग होती है, तात्पर्य यह कि मल-मूत्र और पानी आपस में मिलना नहीं चाहिये। इस शौचालय में उपयोगकर्ता को शौच करने के बाद सिर्फ़ एक मुठ्ठी राख सीट के मल वाले छेद में डालना होता है, राख डालने की वजह से मल जल्दी सूख जाता है, उसमें बदबू भी नहीं रहती और “मित्र-बैक्टीरिया” भी सलामत रहते हैं। इसी प्रकार मूत्र वाले 500 लीटर के टैंक को भी 2 माह के लिये एयर टाइट ढक्कन लगाकर बन्द कर दिया जाता है, ताकि उसमें स्थित अमोनिया बरकरार रहे। दो माह बाद इसमें 1:10 के अनुपात में पानी मिलाकर खेतों में (2000 लीटर प्रति हेक्टेयर) छिड़काव किया जाता है। जबकि राख डालने की वजह से सूख कर ठोस चुके मल को खेतों की मिट्टी के “कण्डीशनर” और उर्वरक क्षमता बढ़ाने के काम में लिया जाता है।


(चित्र में श्याम मोहन त्यागी अपनी फ़सल के ढेर पर बैठे हुए)

इस प्रकार का एक शौचालय (सारे टैंक, सीट, ड्रम और निर्माण सहित) सिर्फ़ 18,000 रुपये में तैयार हो जाता है। जब NGO वालों ने इसे ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों को दिखाया तो सैद्धान्तिक रूप से तो सभी ने इसमें रुचि दिखाई, लेकिन मल-मूत्र एकत्रित करने और शौचालय के रखरखाव के नाम पर सभी पीछे हट गये, तब श्याम मोहन त्यागी ने यह पहल की और अपने खेत के पास यह शौचालय लगवाया। त्यागी मजाक-मजाक में कहते हैं कि “जो किसान शुरु में मेरे इस काम को देखकर नाक-भौंह सिकोड़ते थे, अब उन्हीं के बच्चे मेरे खेतों से सब्जियाँ चुराकर ले जाते हैं। 2007 से पहले त्यागी को अपने छोटे से खेत के लिये प्रतिवर्ष रासायनिक उर्वरकों पर लगभग 2000 रुपये तथा बीजों-मिट्टी की क्षमता बढ़ाने के उपायों पर 3000 रुपये खर्च करने पड़ते थे, जबकि आज स्थिति यह है कि आसपास के किसान त्यागी जी से मानव मल-मूत्र निर्मित पर्यावरण-मित्र उर्वरक माँगकर ले जाते हैं। असलतपुर में सार्वजनिक शौचालय निर्मित करने वाले इस युवा किसान से गाँव के दलित भी खुश हैं, क्योंकि पहले कई बार दलितों को दबंग लोग अपने खेतों के आसपास शौच करने के लिये मना करते थे, जबकि त्यागी का शौचालय उनके लिये “मुफ़्त सुविधा” है और त्यागी के लिये फ़ायदे का सौदा।


त्यागी आगे बताते हैं कि दूसरे किसान जहाँ दिन में दो बार सिंचाई करते हैं, वहीं मुझे सिर्फ़ एक बार सिंचाई करनी पड़ती है, क्योंकि मेरे खेत की मिट्टी अब बेहद उपजाऊ हो चुकी है। उनकी योजना है कि मूत्र निर्मित उच्च अमोनिया वाला तरल-उर्वरक पचास पैसे प्रति लीटर की दर से गरीब किसानों को बेचा जाये। (चित्र में त्यागी अपने खेतों में छिड़काव करते हुए)

संक्षेप में कहूं, तो भारत का पढ़ा-लिखा युवा किसान कुछ नया करने के लिये उत्सुक है, सिर्फ़ उसे उचित मार्गदर्शन और सही दिशानिर्देशों की आवश्यकता है। इस प्रकार के ग्रामीण-मित्र शौचालयों की सबसे बड़ी बात तो यह है कि ये विशुद्ध रूप से पर्यावरण मित्र हैं, पानी की बचत करते हैं, धरती पर बढ़ रहे रासायनिक कचरे को कम करने में मदद करेंगे और शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय उर्वरक कम्पनियों की दादागिरी और मनमर्जी से किसानों को थोड़ी मुक्ति दिलायेंगे…

ईकोसैन शौचालय की पूरी तकनीक समझने के लिये यू-ट्यूब पर यह वीडियो देखिये…

http://www.youtube.com/watch?v=YV-1To9DkJQ


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विषयान्तर और मनोगत :- (मित्रों-पाठकों, कुछ वरिष्ठों द्वारा मुझसे यह अनुरोध किया गया है कि मैं “राष्ट्रवाद” के अलावा भी, जरा “हट-के” पोस्ट लिखा करूं। हालांकि मुझे किसी के सामने कुछ भी साबित करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन मेरे कुछ और प्रेमी पाठकों के इस अनुरोध पर यह “शौचालय और मल-मूत्र” वाली पोस्ट दे रहा हूं (मल-मूत्र पर सामाजिक पोस्ट लिखना… है ना हट-के? ऐसे सब्जेक्ट पर लिखो जिस पर कम लोग लिख रहे हों, उसे कहते हैं “हट-के”)। पहले भी ऐसे कई सामाजिक लेख मैं लिख चुका हूं, परन्तु देशहित और राष्ट्र के सामने मंडरा रहे खतरों के मद्देनज़र मेरी लिखी गई तीखी पोस्टों की वजह से मेरी एक विशिष्ट “छवि” बना दी गई है, और सेकुलरिज़्म-कांग्रेस-पाकिस्तान-इस्लामी आतंकवाद-धर्मान्तरण आदि शब्द सुनते ही, खौलते खून से लिखी गई पोस्टों को दुर्भाग्य से मुस्लिम विरोधी मान लिया जाता है…। मैं अपने पाठकों को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि “ईकोसैन शौचालय” जैसी “हट-के” पोस्ट बीच-बीच में आती रहेंगी… परन्तु इस ब्लॉग का तेवर चिरपरिचित वही राष्ट्रवादी रहेगा, चाहे किसी के पिछवाड़े में कितनी भी मिर्ची लगे…। क्रिकेट पर भी बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा उस बारे में भी कुछ पाठक ईमेल से शिकायत कर चुके हैं… जल्दी ही उस पर भी कुछ लिखूंगा…)

इस लेख के लिये सन्दर्भ साभार – पत्रिका “डाउन टू अर्थ”, दिनांक 16/11/2008 तथा www.indiawaterportal.org

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