desiCNN - Items filtered by date: फरवरी 2015
शुक्रवार, 27 फरवरी 2015 20:55
A Boost for RSS Ghar Vapsi
"घर वापसी" पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर...
हिन्दू धर्म के लिए खुशखबरी तथा...हिन्दू धर्म द्रोहियों, चर्च-वेटिकन के गुर्गों और गाँव-गाँव में सेवा के नाम पर "धंधा" करने वाले फादरों के लिए बुरी खबर है कि सुप्रीम कोर्ट ने केरल हाईकोर्ट के निर्णय को धता बताते हुए यह निर्णय सुनाया है कि यदि कोई व्यक्ति हिन्दू धर्म में वापसी करता है तो उसका दलित स्टेटस बरकरार रहेगा और उसे आरक्षण की सुविधा मिलती रहेगी...
मामला केरल का है, जहाँ एक व्यक्ति ने हिन्दू धर्म में "घर-वापसी" की. उसे उसकी मूल दलित जाति का प्रमाण-पत्र जारी कर दिया गया. जब वह आरक्षण लेने पहुँचा तो वेटिकन के "दोगलों" ने हंगामा खड़ा करते हुए केरल हाईकोर्ट में याचिका लगा दी कि वह ईसाई बन चुका था, इसलिए उसे अब आरक्षण नहीं दिया जा सकता. अब सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दे दी है कि हिन्दू धर्म में लौटने के बाद भी वह दलित माना जाएगा और उसे आरक्षण मिलेगा.
ऊपर मैंने चर्च के सफ़ेद शांतिदूतों को "दोगला" इसलिए कहा, क्योंकि इन्हीं लोगों की माँग थी कि जो दलित ईसाई धर्म में जाए उसे भी "दलित ईसाई" श्रेणी में आरक्षण मिलना चाहिए. लेकिन जब वही व्यक्ति उनके चंगुल से निकलकर हिन्दू धर्म में वापस आया तो उसे आरक्षण के नाम पर रुदालियाँ गाने लगे. ठीक ऐसी ही दोगली कोलकाता निवासी एक महिला भी थी जिसे "सेवा"(?) उसी स्थिति में करनी थी, जब सरकार कठोर धर्मांतरण विरोधी क़ानून न बनाए. इस प्रस्तावित क़ानून के विरोध में मोरारजी देसाई को चिठ्ठी भी लिख मारी.
========================
पाखण्ड, धूर्तता, चालाकी, झूठ, फुसलाना आदि के सहारे हिंदुओं को बरगलाने वालों को तगड़ा झटका लगा है... अब गरीब दलितों के सामने अच्छा विकल्प है कि पहले वे चर्च से "मोटा माल" लेकर ईसाई बन जाएँ फिर कुछ वर्ष बाद हिन्दू धर्म में "घर वापसी" कर लें और मजे से आरक्षण लें... "आम के आम, गुठलियों के दाम'.." wink emoticon wink emoticon
मामला केरल का है, जहाँ एक व्यक्ति ने हिन्दू धर्म में "घर-वापसी" की. उसे उसकी मूल दलित जाति का प्रमाण-पत्र जारी कर दिया गया. जब वह आरक्षण लेने पहुँचा तो वेटिकन के "दोगलों" ने हंगामा खड़ा करते हुए केरल हाईकोर्ट में याचिका लगा दी कि वह ईसाई बन चुका था, इसलिए उसे अब आरक्षण नहीं दिया जा सकता. अब सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दे दी है कि हिन्दू धर्म में लौटने के बाद भी वह दलित माना जाएगा और उसे आरक्षण मिलेगा.
ऊपर मैंने चर्च के सफ़ेद शांतिदूतों को "दोगला" इसलिए कहा, क्योंकि इन्हीं लोगों की माँग थी कि जो दलित ईसाई धर्म में जाए उसे भी "दलित ईसाई" श्रेणी में आरक्षण मिलना चाहिए. लेकिन जब वही व्यक्ति उनके चंगुल से निकलकर हिन्दू धर्म में वापस आया तो उसे आरक्षण के नाम पर रुदालियाँ गाने लगे. ठीक ऐसी ही दोगली कोलकाता निवासी एक महिला भी थी जिसे "सेवा"(?) उसी स्थिति में करनी थी, जब सरकार कठोर धर्मांतरण विरोधी क़ानून न बनाए. इस प्रस्तावित क़ानून के विरोध में मोरारजी देसाई को चिठ्ठी भी लिख मारी.
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पाखण्ड, धूर्तता, चालाकी, झूठ, फुसलाना आदि के सहारे हिंदुओं को बरगलाने वालों को तगड़ा झटका लगा है... अब गरीब दलितों के सामने अच्छा विकल्प है कि पहले वे चर्च से "मोटा माल" लेकर ईसाई बन जाएँ फिर कुछ वर्ष बाद हिन्दू धर्म में "घर वापसी" कर लें और मजे से आरक्षण लें... "आम के आम, गुठलियों के दाम'.." wink emoticon wink emoticon
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ब्लॉग
बुधवार, 25 फरवरी 2015 20:22
How to Debate Effectively on TV
टीवी बहस और उसकी प्रभावोत्पादकता
(साभार - आनंद राजाध्यक्ष जी)
(साभार - आनंद राजाध्यक्ष जी)
Jeet Bhargava जी ने मुद्दा उठाया है कि टीवी डिबेट में आने वाले
हिन्दू नेता न तो स्मार्ट ढंग से अपनी बात रख पा रहे है और ना ही विरोधियो के
तर्कों को धार से काट रहे हैं.
विहिप, बजरंग दल और हिन्दू महासभा वाले
बंधुओ, ज़रा
ढंग के ओरेटर लाओ. होम वर्क करके बन्दे भेजो.
--------------------------------------------------------------------------------
जीत भार्गव जी, मुद्दा आप ने १००% सही उठाया है लेकिन उत्तर इतना सहज और सरल नहीं है. वैसे इस विषय पर बहुत दिनों से लिखने की मंशा थी, आज आप ने प्रेरित ही कर दिया. लीजिये :
.
अच्छे वक्ता जो अच्छे तर्क भी दे सकें, और विषय की गहरी जानकारी भी रखते हों, आसानी से नहीं मिलते. मैंने ऐसे लोग देखे हैं जो लिखते बेहद तार्किक और मार्मिक भी हैं, लेकिन लेखन और वक्तृत्व में फर्क होता है, डिलीवरी का अंदाज, आवाज, बॉडी लैंग्वेज इत्यादि बहुतही मायने रखते हैं जो हर किसी में उपलब्ध नहीं होते. अंदाज, आवाज और बॉडी लैंग्वेज तो खैर, सीखे और विक्सित भी किये जा सकते हैं लेकिन मूल बुद्धिमत्ता भी आवश्यक है. अनपढ़ गंवार के हाथों में F16 जैसा फाइटर विमान भी क्या काम का?
.
एक्टर और ओरेटर में यही तो फर्क होता है. अक्सर जो देखने मिलते हैं उन्हें वक्ता न कहकर ‘बकता’ कहना ही सही होगा.
ज्ञान के साथ साथ वक्ते के वाणी मैं ओज और अपनी बात मैं कॉन्फिडेंस होना अत्यावश्यक है, तभी उसकी बात सुननेवाले के दिल को छू पाएगी. यह सब कुछ नैसर्गिक देन नहीं होता. कुछ अंश तक होता है, बाकी लगन, मेहनत और प्रशिक्षण अत्यावश्यक है. हीरा तराशने के बाद ही निखरता है .
.
टीवी डिबेट एक और ही विधा है, केवल वक्तृत्व से काम नहीं चलता. भारतीय दर्शन परंपरा मैं वाद विवाद पद्धति पर ज्ञान उपलब्ध है; जरूरत है उसके अभ्यास की. इसको टीवी डिबेट के तांत्रिक अंगों से align करना आवश्यक है कि विपक्ष से कैसे फुटेज खाया जा सके, आवाज कैसी लगानी चाहिए, बॉडी लैंग्वेज कैसी होनी चाहिए, मुख मुद्रा (एक्सप्रेशन) कैसे हों, आवाज के चढ़ उतार इत्यादि.
.
पश्चिमी देशों की और अपने यहाँ वामपंथियों की इस विषय में गहरी सोच है, यह विषय का महत्त्व समझते हैं. पश्चिमी देशों में यह तो बाकायदा एक व्यवसाय है और ऐसे प्रोफेशनल्स की सेवाएं लेना वहां के राजनेता अनिवार्य मानते हैं. मोदीजी ने भी ऐसे मीडिया कंसल्टेंट्स की सेवाएं लेने की बात सुनी है, लेकिन अधिकारिक रूप से पुष्टि नहीं कर सकता. वैसे, डिबेट के स्तर का नेता या प्रवक्ता और मंच पर जनसमुदाय को सम्बंधित करनेवाला वक्ता उन दोनों में अंतर रहता है, लेकिन वो विषय विस्तार इस पोस्ट के दायरे से बाहर है. अमेरिका में प्रेसिडेंट पद के लिए शीर्ष के दो प्रत्याशियों को डिबेट करनी पड़ती है, अपने यहाँ वो प्रणाली नहीं है.
अपने यहाँ वामपंथी लोग कॉलेज स्तर से ही विद्यार्थियों को अपने जाल में फंसाते हैं और उनका कोचिंग करना शुरू होता है. एक सुनियोजित पद्धति से उनकी जमात बनाई जाती है जो उनकी सामाजिक सेना भी है. यहाँ http://on.fb.me/1mFlPkB और यहाँhttp://on.fb.me/1CFIwMO पढ़ें.
.
इसमें अब हिन्दुत्ववादी संघटनों को करने जैसे तात्कालिक उपाय क्या होंगे जो बिना प्रचुर धन खर्चे हो सके? हाँ, समय अवश्य लगेगा, लेकिन बच्चा शादी के दूसरे दिन तो पैदा नहीं हो सकता भाई ! Full term delivery ही सही होगी. तो प्रस्तुत है :
.
1. संघ की हर "शाखा" में विषय चुन कर वक्तृत्व को उत्तेजन दें. अभ्यासी, होनहार लोगों / मेधावी बच्चों का चयन करें. विविध विषयों का चयन हो, और वक्ता के आकलन शक्ति, delivery इत्यादि उपरनिर्दिष्ट शक्तियों का अभ्यास किया जाए, बिना पक्षपात के.
.
2. इनमे से छंटे वक्ताओं की तालुका, जिला, शहर और राज्य स्तर पर परीक्षा हो. किसमें कौनसी / कितनी भाषा में किस हद तक धाराप्रवाह और तार्किक वक्तृत्व की क्षमता है यह जांचा जाए. कौनसा वक्ता मंच का है और कौन सा टीवी डिबेट का, किसे प्रचार टीम में जोड़ा जाए, किसे थिंक टैंक में समाया जाए ये काफी उपलब्धियां इस उपक्रम से हो सकती हैं. इसी परीक्षा का विस्तार राष्ट्रीय स्तर पर भी किया जाए ये भी अत्यावश्यक है, सारी मेहनत इसी के लिए ही तो है.
.
3. उनमें जो कॉलेज के छात्र हों उन्हें अपने सहाध्यायिओं को प्रभावित कर के इस धारा में जोड़ने का प्रयास करना चाहिए. कॉलेज में भी वक्तृत्व स्पर्धा में अवश्य भाग लें, इस से लोकप्रियता भी बढ़ेगी, एक neutral या hostile क्राउड का भी अनुभव होगा, stage-fright जाती रहेगी.
.
4. अभी जो लोग लिख रहे हैं, विडिओ पर भाषण देने का भी अभ्यास करें. आजकल विडियो बिलकुल मुफ्त की चीज हो गई है मोबाइल के चलते. कम से कम ढाई मिनट और ज्यादा से ज्यादा दस मिनट तक भाषण कर के देख सकते हैं कहाँ तक प्रभावशाली हैं और कहाँ तक लोगों को पकड़ में रख सकते हैं. आपस में स्काइप पर विडिओ कॉन्फ़्रेंसिंग कर के डिबेट कर के भी देख सकते हैं कि किस लायक है नेशनल टीवी पर जाने के लिए ?
.
5. उपरोक्त जो विडिओ टॉक की बात कही गई है, अपने आप में एक स्वतंत्र और महत्वपूर्ण विधा भी है. अपना फोल्लोविंग बढाकर पक्ष विचार से अधिकाधिक लोग जोड़ सकते हैं. सेना में हर कोई जनरल नहीं होता, पर हर किसी का योगदान अपनी जगह पर बहुत महत्त्व रखता है, और बिना १००% योगदान के मुहीम फेल हो सकती है. वो कहावत तो आप ने पढ़ी ही होगी . नाल से गिरी कील वापस न ठोंकने पर घोडा गिरा, इसीलिए घुड़सवार गिरा.... कील ही सही, लेकिन यह जान लें की यह कील दुश्मन के coffin में ठोंकी जा रही है, अगर मजबूत न रही तो coffin तोड़कर Dracula बाहर आएगा जरूर...
.
6. और जो प्रभावी लेखक हैं अगर वक्ता नहीं है तो कोई बात नहीं, आदमी पढ़ना नहीं छोडनेवाला... आप की भी बहुत भारी जरुरत है भाई, बस आप भी अपनी क्षमता की एक बार जांच कर लें और अपने niche में अपनी तलवार – मतलब कलम – को और धारदार बनाए – वार उसका भी खाली नहीं जाता और न जाए...
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जीत भार्गव जी, मुद्दा आप ने १००% सही उठाया है लेकिन उत्तर इतना सहज और सरल नहीं है. वैसे इस विषय पर बहुत दिनों से लिखने की मंशा थी, आज आप ने प्रेरित ही कर दिया. लीजिये :
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अच्छे वक्ता जो अच्छे तर्क भी दे सकें, और विषय की गहरी जानकारी भी रखते हों, आसानी से नहीं मिलते. मैंने ऐसे लोग देखे हैं जो लिखते बेहद तार्किक और मार्मिक भी हैं, लेकिन लेखन और वक्तृत्व में फर्क होता है, डिलीवरी का अंदाज, आवाज, बॉडी लैंग्वेज इत्यादि बहुतही मायने रखते हैं जो हर किसी में उपलब्ध नहीं होते. अंदाज, आवाज और बॉडी लैंग्वेज तो खैर, सीखे और विक्सित भी किये जा सकते हैं लेकिन मूल बुद्धिमत्ता भी आवश्यक है. अनपढ़ गंवार के हाथों में F16 जैसा फाइटर विमान भी क्या काम का?
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एक्टर और ओरेटर में यही तो फर्क होता है. अक्सर जो देखने मिलते हैं उन्हें वक्ता न कहकर ‘बकता’ कहना ही सही होगा.
ज्ञान के साथ साथ वक्ते के वाणी मैं ओज और अपनी बात मैं कॉन्फिडेंस होना अत्यावश्यक है, तभी उसकी बात सुननेवाले के दिल को छू पाएगी. यह सब कुछ नैसर्गिक देन नहीं होता. कुछ अंश तक होता है, बाकी लगन, मेहनत और प्रशिक्षण अत्यावश्यक है. हीरा तराशने के बाद ही निखरता है .
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टीवी डिबेट एक और ही विधा है, केवल वक्तृत्व से काम नहीं चलता. भारतीय दर्शन परंपरा मैं वाद विवाद पद्धति पर ज्ञान उपलब्ध है; जरूरत है उसके अभ्यास की. इसको टीवी डिबेट के तांत्रिक अंगों से align करना आवश्यक है कि विपक्ष से कैसे फुटेज खाया जा सके, आवाज कैसी लगानी चाहिए, बॉडी लैंग्वेज कैसी होनी चाहिए, मुख मुद्रा (एक्सप्रेशन) कैसे हों, आवाज के चढ़ उतार इत्यादि.
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पश्चिमी देशों की और अपने यहाँ वामपंथियों की इस विषय में गहरी सोच है, यह विषय का महत्त्व समझते हैं. पश्चिमी देशों में यह तो बाकायदा एक व्यवसाय है और ऐसे प्रोफेशनल्स की सेवाएं लेना वहां के राजनेता अनिवार्य मानते हैं. मोदीजी ने भी ऐसे मीडिया कंसल्टेंट्स की सेवाएं लेने की बात सुनी है, लेकिन अधिकारिक रूप से पुष्टि नहीं कर सकता. वैसे, डिबेट के स्तर का नेता या प्रवक्ता और मंच पर जनसमुदाय को सम्बंधित करनेवाला वक्ता उन दोनों में अंतर रहता है, लेकिन वो विषय विस्तार इस पोस्ट के दायरे से बाहर है. अमेरिका में प्रेसिडेंट पद के लिए शीर्ष के दो प्रत्याशियों को डिबेट करनी पड़ती है, अपने यहाँ वो प्रणाली नहीं है.
अपने यहाँ वामपंथी लोग कॉलेज स्तर से ही विद्यार्थियों को अपने जाल में फंसाते हैं और उनका कोचिंग करना शुरू होता है. एक सुनियोजित पद्धति से उनकी जमात बनाई जाती है जो उनकी सामाजिक सेना भी है. यहाँ http://on.fb.me/1mFlPkB और यहाँhttp://on.fb.me/1CFIwMO पढ़ें.
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इसमें अब हिन्दुत्ववादी संघटनों को करने जैसे तात्कालिक उपाय क्या होंगे जो बिना प्रचुर धन खर्चे हो सके? हाँ, समय अवश्य लगेगा, लेकिन बच्चा शादी के दूसरे दिन तो पैदा नहीं हो सकता भाई ! Full term delivery ही सही होगी. तो प्रस्तुत है :
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1. संघ की हर "शाखा" में विषय चुन कर वक्तृत्व को उत्तेजन दें. अभ्यासी, होनहार लोगों / मेधावी बच्चों का चयन करें. विविध विषयों का चयन हो, और वक्ता के आकलन शक्ति, delivery इत्यादि उपरनिर्दिष्ट शक्तियों का अभ्यास किया जाए, बिना पक्षपात के.
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2. इनमे से छंटे वक्ताओं की तालुका, जिला, शहर और राज्य स्तर पर परीक्षा हो. किसमें कौनसी / कितनी भाषा में किस हद तक धाराप्रवाह और तार्किक वक्तृत्व की क्षमता है यह जांचा जाए. कौनसा वक्ता मंच का है और कौन सा टीवी डिबेट का, किसे प्रचार टीम में जोड़ा जाए, किसे थिंक टैंक में समाया जाए ये काफी उपलब्धियां इस उपक्रम से हो सकती हैं. इसी परीक्षा का विस्तार राष्ट्रीय स्तर पर भी किया जाए ये भी अत्यावश्यक है, सारी मेहनत इसी के लिए ही तो है.
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3. उनमें जो कॉलेज के छात्र हों उन्हें अपने सहाध्यायिओं को प्रभावित कर के इस धारा में जोड़ने का प्रयास करना चाहिए. कॉलेज में भी वक्तृत्व स्पर्धा में अवश्य भाग लें, इस से लोकप्रियता भी बढ़ेगी, एक neutral या hostile क्राउड का भी अनुभव होगा, stage-fright जाती रहेगी.
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4. अभी जो लोग लिख रहे हैं, विडिओ पर भाषण देने का भी अभ्यास करें. आजकल विडियो बिलकुल मुफ्त की चीज हो गई है मोबाइल के चलते. कम से कम ढाई मिनट और ज्यादा से ज्यादा दस मिनट तक भाषण कर के देख सकते हैं कहाँ तक प्रभावशाली हैं और कहाँ तक लोगों को पकड़ में रख सकते हैं. आपस में स्काइप पर विडिओ कॉन्फ़्रेंसिंग कर के डिबेट कर के भी देख सकते हैं कि किस लायक है नेशनल टीवी पर जाने के लिए ?
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5. उपरोक्त जो विडिओ टॉक की बात कही गई है, अपने आप में एक स्वतंत्र और महत्वपूर्ण विधा भी है. अपना फोल्लोविंग बढाकर पक्ष विचार से अधिकाधिक लोग जोड़ सकते हैं. सेना में हर कोई जनरल नहीं होता, पर हर किसी का योगदान अपनी जगह पर बहुत महत्त्व रखता है, और बिना १००% योगदान के मुहीम फेल हो सकती है. वो कहावत तो आप ने पढ़ी ही होगी . नाल से गिरी कील वापस न ठोंकने पर घोडा गिरा, इसीलिए घुड़सवार गिरा.... कील ही सही, लेकिन यह जान लें की यह कील दुश्मन के coffin में ठोंकी जा रही है, अगर मजबूत न रही तो coffin तोड़कर Dracula बाहर आएगा जरूर...
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6. और जो प्रभावी लेखक हैं अगर वक्ता नहीं है तो कोई बात नहीं, आदमी पढ़ना नहीं छोडनेवाला... आप की भी बहुत भारी जरुरत है भाई, बस आप भी अपनी क्षमता की एक बार जांच कर लें और अपने niche में अपनी तलवार – मतलब कलम – को और धारदार बनाए – वार उसका भी खाली नहीं जाता और न जाए...
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सोमवार, 23 फरवरी 2015 10:51
A Wise Advise to Hinduvta Forces
हिंदूवादियों को प्यार भरा एक पत्र
(कूटनीति से अनजान, "उतावले हिन्दूवादियों" को भाई गौरव शर्मा की एक तेज़ाबी, लेकिन यथार्थवादी नसीहत...)
खुर्शीद अनवर याद है , जेएनयू का बहुत बड़ा नारीवादी बुद्धिजीवी था और बलात्कारी भी , पर दुस्साहस देखिये जब उसका मामला आया तब पूरी सेक्युलर जमात उसके पीछे खड़ी हो गयी , वही सेक्युलर जमात जो बुद्धिजीवियों से भरी पडी है और जहाँ "एक हो जाओ" जैसी बातें करना बचकाना समझा जाना चाहिए , खैर हमने सोचा की इकलौता केस होगा , फिर लिफ्ट में अपनी बच्ची की सहेली के साथ बलात्कार करने वाले वहशी तरुण तेजपाल की बारी आई , बड़े बड़े बुद्धिजीवियों ने उसके समर्थन में अख़बार के अख़बार भर डाले , नहीं नहीं साहब जमानत तो मिलना चाहिए उन्हें रेप ही तो किया है मर्डर थोड़े ही किया , ऐसे जुमले फेंके गए , कल तीस्ता जैसी फ्रॉड दलाल के समर्थन में सैकड़ों सेक्युलर सडकों पर उतर गए, दंगा पीड़ितों का पैसा खा जाने वाली के सारे अपराध सिर्फ इसलिए माफ़ हो गए क्योंकि उसने मोदी से लोहा लिया , ट्विटर , फेसबुक पर उसके समर्थन में मुहीम चल रही है , आज दलालों की दलाल बुरखा दत्त एनडीटीवी से विदाई ले रही हैं , ट्विटर पर उसकी विदाई का ऐसे वर्णन हो रहा है जैसे कोई योद्धा बरसों तक लड़ने के बाद रिटायर हुआ हो , और ये सब तथाकथित सेक्युलर बुद्धिजीवी ही तो हैं जो उसके सारे गुणदोष भूलकर अपने साथी के साथ खड़े हैं!! इन सब का एजेंडा साफ़ है हिन्दुत्ववादी ताकतों को हराना , ये अपने दिमाग में कोई फितूर नहीं पालते की सही क्या है और गलत क्या है , कॉमरेड है बस , बात खत्म !!
एक हम हैं... महान बुद्धिजीवी , किरण बेदी जैसी महिला हमारी आँखों के सामने कृष्णानगर से हार गयी और हम वहीँ पान की दुकान पर पिचकारी मारते रहे , कहते हैं की किरण बेदी हमारी विचारधारा के लिए नयी थी इसलिए काम नहीं किया .....तो भाई मेरे..... अरविन्द केजरीवाल नितीश कुमार और प्रकाश करात का कोई लंगोटिया यार था क्या ? फिर क्यों वे सब उसके पीछे एक हो गए ? क्यों गोयल और मुखियों की तरह उन्हें ये डर नहीं सताया की ये आदमी आगे बढ़ गया तो हमारा करियर भी ख़राब कर देगा ? देखा जाए तो असली बुद्धिजीवी तो हम हिंदूवादी हैं क्योंकि हम ज्यादा देर तक किसी की अच्छाई के साथ खड़े हो ही नहीं सकते , मीन मेक निकालना , आपस में ही अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता की होड़ मचाना कोई हमसे सीखे , हमसे कोई कह दे की आपको 1 महीने तक मोदी के खिलाफ कुछ नहीं लिखना है फिर देखिये पेट दुखने लगेगा, दस्त लग जायेंगे , हम बाल नोचने लगेंगे पर थोड़े दिन चुप नहीं रह सकेंगे ? आखिर निष्पक्ष फेसबुकिस्म भी कोई चीज़ है !! और ये मानसिकता फेसबुक तक नहीं बल्कि ऊपर से लेकर ज़मीन पर काम करने तक फैली है ...जेटली और राजनाथ को विरोधियों ने नहीं बल्कि हमने खुद फ्लॉप किया , खैर जब हम मोदी को ही नहीं बक्शते तो ये कहाँ के सूरमा हैं !!
जैसे कुछ महीनों पहले मोदी की फ़र्ज़ी चापलूसी करना एक फैशन था वैसे ही आजकल मोदी को गरियाना भी एक फैशन हो चला है , छोटा छोटा फेसबुकिया भी अपने आप को मोदी से बड़ा हिंदूवादी समझता है , हमें मोदी से ये शिकायत है की वो हमारे हिसाब से क्यों नहीं चलता , काम होते हुए दिख तो रहा है पर हमारी इन्द्रियों को तुष्ट करने वाली स्टाइल से नहीं हो रहा , हम चाहते हैं की वाड्रा को घर से घसीटते हुए सड़क पे पीटते पीटते थाने तक लाया जाए जबकि मोदी अपनी स्टाइल से कानून के सहारे वही सब कर रहे हैं , हम चाहते हैं गौ वध , धर्मान्तरण क़ानून अभी के अभी लाया जाये भले ही ओंधे मुँह गिर किरकिरी क्यों ना हो जाये , जबकि मोदी उसके लिए राज्यसभा में बहुमत इकठा करने की जुगत में हैं !! हम चाहते हैं की अरब देशों की चापलूसी बंद हो और इज़राइल से दोस्ती बढे ......तो उसके लिए तेल की निर्भरता खत्म करनी होगी , अब रूस के साथ संधि के बाद ये निर्भरता खत्म होने की पहल शुरू हुई है !! हम चाहते हैं मीडिया पर लगाम कसी जाए पर बताते नहीं की कैसे ? क्या स्टूडियों में घुस जाएँ और गर्दन पकड़ लें ? अब बात ये है की मीडिया की जान उनके व्यावसायिक घपलों में छिपी है जिन्हे एक एक कर बाहर लाया जा रहा है , डेक्कन क्रॉनिकल के मालिक की गिरफ़्तारी उसी कड़ी में समझी जाये , एनडीटीवी बहुत जल्द कानून के शिकंजे में आने वाला है , आईबीएन समूह बहुत हद तक अपनी लाइन सही कर चुका है !!
एक बात गाँठ बाँध के रख लो दोस्तों , मोदी हिन्दुओं की आखिरी उम्मीद है , सैकड़ों साल से गायें कट रही हैं , पांच साल और कट जाएँगी तो कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा , पर अगली बार मोदी नहीं आया तो ये सारे सेक्युलर की खाल में बैठे जेहादी मिलके तुम्हारा ऐसा हश्र करेंगे की आने वाले कई सालों तक किसी दूसरे मोदी के दिल्ली तक पहुँचने का सपना देखने में भी डर लगेगा !! ऐसा नहीं है की मैं मोदी से हर चीज़ में सहमत हूँ , विरोध मैंने भी किया है, पर बहुत विचार के बाद अब चुप रहना सीख लिया है , उसे पांच साल मौका देने का मन बना लिया है क्योंकि मेरे मोदी के बारे में विचार भले कुछ भी हों....... मुझे मेरे और मेरी आने वाली पीढ़ियों के दुश्मनों का पूरा आभास है ,और जिन हिन्दुओं को ये आभास होते हुए भी मोदी को गरियाने में एक विशिष्ट संतुष्टि का अनुभव होता है उन्हें आज की परिस्थितियों में मैं "महामूर्ख" की श्रेणी में रखना पसंद करूँगा !!
समय की ज़रुरत है की मोदी के विकास मन्त्र को , उपलब्धियों को घर घर पहुँचाया जाए , क्योंकि मोदी को वोट सिर्फ आपने ही नहीं कईयों ने कई कारण से दिया है , आप घराती हो आपके लिए खाना बचे न बचे ये मेहमान आपके घर से भूखे नहीं जाना चाहियें , हिन्दुओं को भी उनकी सुरक्षा और भविष्य के संकट समझाना मुश्किल है और विकास के मुद्दे समझाना आसान !! और ये करना भी इसलिए जरूरी है ताकि एक हिंदूवादी ना सही हिन्दू हितैषी स्थिर सरकार भारतवर्ष में बनी रहे क्योंकि याद रहे जब तक मुर्गी ज़िंदा रहेगी तब तक ही अंडे देगी , अटल जी की तरह उसका भी पेट चीर दोगे तो अगला मनमोहन केजरीवाल के रूप में पाओगे , फिर लड़ते रहना इन टोपीवालों से ज़िंदगी भर !!
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ब्लॉग
रविवार, 22 फरवरी 2015 18:49
Windows Versus Linux
विन्डोज़ Vs लाईनक्स
(फेसबुक की वाल से कॉपी - ताकि भविष्य में सनद रहे)
1) 10 min me nahi hoga
2) thoda tedha kaam hai.
Disk cloning and recovery software use kariye. Aam taur pe 30-40 min pe sab ready ho jayega. Sare software, driver, settings sab kuch.
(फेसबुक की वाल से कॉपी - ताकि भविष्य में सनद रहे)
Windows के करप्ट होने, क्रैश होने, वायरस हमलों आदि से बहुत परेशानी होती है... बारम्बार Install करने अथवा Restore/Recovery करने में समय बर्बाद होता है...
समस्या यह है कि मेरा साइबर कैफे होने के कारण सभी पीसी पर Linux भी नहीं अपना सकता... क्योंकि कैफे पर जो सामान्य ग्राहक, Gmail तक को गूगल सर्च बॉक्स में जाकर खोजते हों, जो अनभिज्ञ ग्राहक आज भी Chrome की बजाय, इंटरनेट का मतलब Internet Explorer ही समझते हों... उन्हें Linux का ले-आउट और इंटरफेस कैसे सिखाऊँगा?? कुछ ऐसा होना चाहिए, कि Windows करप्ट या क्रैश होने की स्थिति में सिर्फ पेन ड्राईव लगाकर दस-पन्द्रह मिनट में पूरा का पूरा सिस्टम (डाटा, प्रिंटर्स, साफ्टवेयर आदि सहित) Restore हो जाए...
=====================यदि ऐसा हो जाए तो फिर तो तमाम एंटी-वायरस से भी तौबा की जा सकती है... आने दो वायरसों को... जैसे ही विंडोज क्रैश हुआ... दस मिनट में पीसी को फिर से ओके कर लिया... क्या ऐसा कुछ होता है??
समाधान हेतु आए कुछ चुनिंदा जवाब को भी यहाँ लिख रहा हूँ... ताकि रिकॉर्ड में रहे...
Adhokshaj Mishra · Aisa ho to sakta hai, lekin
1) 10 min me nahi hoga
2) thoda tedha kaam hai.
Disk cloning and recovery software use kariye. Aam taur pe 30-40 min pe sab ready ho jayega. Sare software, driver, settings sab kuch.
Adhokshaj Mishra · Friends with Anand G. Sharma
Ranjan Jain लिनक्स हॉट इमेज या रेडी तो यूज़ इमेज ट्राई करो। हर बार एक ही स्टेटस रहेगा सिस्टम का। बूट होते ही पहले जैसा।
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Agar aap windows hi use karna chahte hai to Acronic True Image install kijiye. jisse aap apna system crash or corrupt ho jaane par aap pehle jaisa restore kar sakte hai maatr 15 min me.
Ankush Kalia · Friends with लवी भरद्वाज सावरकर
किशोर बड़थ्वाल fedora Linux kar sakte hain.. interface lagbhag window jaisa he hai aur chrome to sabhi Linux me chal jata hai... mai 19 saal se pahle UNIX aur fir Linux use kar raha hun.. kabhi koi samasya nahi aayi... aur virus to kabhi nahi...
Prabhat Sandheliya Linux install कर लीजिये फिर उसमें windows virtualbox चला लीजिये। कभी भी विंडोज currupt हो जाये तो virtual machine फिर से कॉपी कर लीजिये।
Shyam Rathore 1. Install Linux 2. Install VirtualBox 3. Create virtual machine 4. Virtual machine ko clone kare and every morning reset to initial state. I can demo on teamviewer to you.
Hridayesh Gupta clonezilla se pure system ki image bana kar rakh sakte hain. jab corrupt ho jaye to 30 minutes me pura system waisa ka waisa sab kuch installed aa jayega jab image banayi hogi
http://clonezilla.org/
http://clonezilla.org/
दिब्यम प्रभात् Suresh Chiplunkar जी शायद मेरे दो सुझाव आपके काम आ सकता है....
(1) Linux का OS install करे फिर उसके ऊपर Oracle का Virtual Box install करने से आपकी समस्या हल हो जाएगी....और फिर आप उसमे Xp install कर दीजिये....सारा सॉफ्टवेर install करने के बाद आप एक Snapsort ले लीजिये बाद में समस्या आने में आप मिनट में सिस्टम को Restore/Revert कर सकते है...
लिंक :- https://www.virtualbox.org/
पर इसके लिए एक अच्छा हार्डवेयर चाहिये...
(2) सबसे अच्छा और सबसे हल्का linux जिसे आप पेन ड्राइव से चला सकते है और data और सारा configuration भी save कर सकते है वो Puppy Linux है जिसे आप यहाँ से डाउनलोड कर सकते "OS Size is aprox. 170 MB" साथ में ऑफिस package भी और काम की बहुत सॉफ्टवेर Preloaded रहती है....है...http://puppylinux.org/main/Download%20Latest%20Release.htm
वैसे मैंने अपने कैफे में काफी हद तक सफल प्रयोग किया था...आप भी अपने किसी एक PC में Trial कर के देख लीजिये....
(1) Linux का OS install करे फिर उसके ऊपर Oracle का Virtual Box install करने से आपकी समस्या हल हो जाएगी....और फिर आप उसमे Xp install कर दीजिये....सारा सॉफ्टवेर install करने के बाद आप एक Snapsort ले लीजिये बाद में समस्या आने में आप मिनट में सिस्टम को Restore/Revert कर सकते है...
लिंक :- https://www.virtualbox.org/
पर इसके लिए एक अच्छा हार्डवेयर चाहिये...
(2) सबसे अच्छा और सबसे हल्का linux जिसे आप पेन ड्राइव से चला सकते है और data और सारा configuration भी save कर सकते है वो Puppy Linux है जिसे आप यहाँ से डाउनलोड कर सकते "OS Size is aprox. 170 MB" साथ में ऑफिस package भी और काम की बहुत सॉफ्टवेर Preloaded रहती है....है...http://puppylinux.org/main/Download%20Latest%20Release.htm
वैसे मैंने अपने कैफे में काफी हद तक सफल प्रयोग किया था...आप भी अपने किसी एक PC में Trial कर के देख लीजिये....
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गुरुवार, 12 फरवरी 2015 11:46
Sponsored Mass Movements in India - Technique and Targets
मार्केटिंग तकनीक से खड़े किए गए जन-आंदोलन
(आनंद राजाध्यक्ष जी का एक और अदभुत विवेचन)
(आनंद राजाध्यक्ष जी का एक और अदभुत विवेचन)
मुझे यकीन है कि आप इस पोस्ट को पूरा पढेंगे, लेकिन आप को पहले ही बता दूँ कि यह पोस्ट लम्बी है. पढ़ने में ५ मिनट लेगी और सोचने में १० . इसीलिए अगर आप इसे न पढ़ना चाहें तो आप से अनुरोध है कि इसे SHARE करते जाएँ, औरों को भी काम आ सकता है .
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आज के भारत में लोकतंत्र में सत्ता के विरोध में जन आन्दोलन खड़ा करना बहुत ही आसान है और कठिन भी. कठिन इसलिए है कि आप को बहुत सारा पैसा लगेगा. ये काम में सहयोगी लगेंगे और वे भी फुल टाइमर. हज़ारों की संख्या में कार्यकर्ता भी लगेंगे, फुल टाइमर. उनके payment का प्रबंध आप को करना होगा.
मान लेते हैं कि यह हो गया. कैसे, ये बताया जायेगा, लेकिन फिलहाल देखते हैं कि आज के भारत में लोकतंत्र में सत्ता विरोध में जन आन्दोलन खड़ा करना बहुत ही आसान क्यूँ है. यह जन आन्दोलन कैसे चलाया जाए, अन्य देशों में कैसे चलाया गया, यह सब विस्तृत स्टेप by स्टेप जानकारी उपलब्ध है ही और वो भी बाकायदा “course module” के तर्ज पर ! तो चलें देखते हैं कि ये कैसे हो सकता है.
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लेकिन उस से भी पहले PG Wodehouse का एक चुटकुला सुनिए. सम्बन्ध अपनेआप समझ में आ ही जाएगा. होता यूँ है कि एक रौबदार व्यक्तिमत्ववाला पुख्ता उम्र का सजा संवरा व्यक्ति, जहाँ भी जाता है, खुद पहल कर जो भी मिले उस से बात छेड़ता है. उसकी opening line एक ही होती है, “How are you keeping, my dear? And how's the old complaint?" इस आदमी के साथ किस्सा बयान करनेवाला अपना नायक खड़ा है, और अचंभित है कि किस कदर अनजान लोग इस आदमी के सामने अपने दिल के राज खोल देते हैं. ये पांच दस मिनिट के लिए सुन लेता है, सांत्वना देता है और फिर बहुत ही आराम से अपना काम उनसे करवा लेता है. काम वैसे बहुत मुश्किल नहीं होते, लेकिन जाहिर है कि ऐसे ही किसी अनजान व्यक्ति के लिए यूँही नहीं किये जाते. अंत में ये व्यक्ति अपनी कामयाबी का राज बता देता है... हर किसी को कोई न कोई तकलीफ होती है, और उस से भी बड़ी तकलीफ ये होती है कि कोई सुननेवाला नहीं होता.... बस, काम ऐसे ही होते हैं, समझे?
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तो भाई, आप के पास दो लडके और एक लड़की भी आती है. स्मार्ट से हैं, अच्छी इंग्लिश बोल लेते हैं लेकिन आप से तो बिलकुल शालीनता से हिंदी में बात करते हैं. आप से एरिया की समस्याएं के बारे में पूछते है. क्या समस्याएं हैं, कोई इलाज होता भी है या नहीं, कोई आप की सुनता भी है या नहीं, इत्यादि.
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आप को बता दूँ, हर कोई सरकार से हमेशा नाराज ही रहता है. सरकार को गाली देना लोगों के लिए रोज का टाइमपास है. लेकिन सोचिये, यही लोग अगर चार महीने में आप को दस बार मिले, तो एक सम्बन्ध बन जाता है. और अगर आप को अपने प्रॉब्लम को हल करने के लिए कोई ख़ास तकलीफ नहीं, बस इनके सुझाये लोगों को वोट देना है, तो बात मन में उतर जाती है, क्योंकि बहुतही लॉजिकल तरीकेसे समझाई जाती है, वो भी हंसते हंसते शालीनता से और मिठास से. और साथ साथ और भी ऐसे रोजमर्रा के प्रोब्लेम्स का जिक्र होता है और आप का वोट इन सब मर्ज की दवा बताई जाती है.... अब आप ही बताएं, जो पक्ष की टोपी पहनकर बतौर कार्यकर्ता आप के घर आये – क्या आप उनकी इतनी सुनेंगे?
चलिए, अब लेते हैं दूसरे मुख्य मुद्दे को, कि यह सब करने के लिए जो संसाधन जुटाने होंगे, उसके लिए पैसे कहाँ से आयेंगे? इसका भी उत्तर है अगर आप राजनीति से हट कर marketing के ढंग से सोचें. निवेश के लिए उद्योगपति अपनी योजना ले कर ऐसी संस्थाओं के पास जाता है जिन्हें उस योजना में अपना लाभ दिखाई दे, तो वे निवेश करें. आप उन्हें पूरा प्रोजेक्ट रिपोर्ट दें, आप क्या करेंगे, कैसे करेंगे, सब समझा दें. कुछ सुझाव वे भी देंगे, जो आप मानेंगे अगर उतने बड़े निवेश करनेवाले दूसरे आप के पास न हों. और एक बात है. उद्योजक के अक्ल पर निवेशक को विश्वास है तो खुद भी चले आते हैं कि उसके काम में वे अपने लाभ के लिए पैसे लगायें.
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अब ये योजना है सरकार बदलने की तो आप सोचिये इसके लाभार्थी कौन हो सकते हैं?
१ बाहरी देश जो टार्गेट देश का महत्व कम करना चाहते है, उसकी प्रगति रोकना चाहते हैं वे चाहेंगे कि अगर सरकार पलट दी गई या उसको करारा धक्का दिया गया तो उसके विकास में अवरोधना पैदा होगी. वैसे वे तो सामने नहीं आयेंगे तो बात और अच्छी है. सरकारी तौर पर सम्बन्ध भी नहीं बिगड़ेंगे और डायरेक्टली involve भी नहीं होंगे. दामन बेदाग़ ! सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे ....
२ वे सभी संस्था जिन्हें विद्यमान सरकार की नीतियों से तक़लीफ़ हो रही हो. यहाँ ये बात नहीं कि संस्था का कार्य राष्ट्रहित में है या नहीं. सरकार का हस्तक्षेप अगर संस्था हित में खलल पैदा करता है तो वो संस्था सहकार्य करेगी. Money power , man power, जो बन पड़े.
३ अन्य राजनीतिक दल जिनका भी विद्यमान सरकार को बदलनेका अजेंडा हो. उनकी सहाय्यता विविध रूप ले सकती है; जैसे कि सिर्फ सरकार पक्ष के वोट काटने के लिए दुर्बल प्रत्याशी खड़े करें, कोई जगह न ही करें और अपने निष्ठावान मतदाताओं को समझाये कि किसे वोट देना है.
४ अगर सरकार पक्ष को किसी विशिष्ट विचारधारा या धर्म से जोड़ दिया जाए तो बाकी सारे संप्रदायोँ से उनके विरोध में समर्थन की मांग की जा सकती है ये तो आप समझ ही गए होंगे...
५ प्रवासी जन समुदायों को उनके मूल स्थानों से संदेसे आने की व्यवस्था की जा सकती है, विशेषकर अगर उन स्थानों के शासक भी इस सत्ता परिवर्तन में अपना लाभ देखते हों. Money power , man power, जो बन पड़े वाला नियम यहाँ भी पुरजोश लागू होता है.
ये तो हुई मार्केटिंग बाहरवाले निवेशकों को. याने पैसो का इंतजाम हो जाता है, man power का भी. लेकिन इस योजना में स्थानिक जनता का ही मुख्य रोल है तो जनता को अपने तरफ मोड़ना है. इसमें भी अलग अलग तरीके काम आते हैं.
अ) अगर उन्हें लगे कि उनके तकलीफों का इलाज आप कर सकते हैं
ब) सरकार प्रति रोष – जायज / नाजायज से मतलब नहीं, जो वोट दे सकता है वो अपना है . नाराज सरकारी कर्मचारी इसमें गिने जा सकते हैं. अवैध निवासी, अवैध हॉकर इत्यादि भी आपके पास आयेंगे अगर आप में उन्हें एक तगडा पर्याय दिखें.
क) सीधा प्रलोभन – मुफ्त , या साथ में वोट के लिए कॅश / वस्तू, दारु....
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हो गया मार्केटिंग पूरा . पहले संस्थात्मक निवेशकों को issue बेच दिया, बाकी public को ...हो गया over subscribe ! आसान नहीं है ये सब पापड बेलना , लेकिन जिन्हें कुछ करने की जिद होती है वे कुछ भी कर जाते हैं. कुछ भी .... इमानदारी, राष्ट्रहित, कोई मायने नहीं रखता ....
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तो ये एक अनदेखा पहलू . ख़ास कर के लम्बे समय तक सर्वे से सेल्समन से कार्यकर्ता तक का, उसके लिए लगनेवाले हजारों ट्रेंड लोगों का जिनका कहीं रिकॉर्ड ही नहीं क्यूंकि वो सब जिम्मा आप के इन्वेस्टर उठाते है. जहाँ से आये, चले गए... सम्प्रदायिक वोटरों को संभालने उनके रहनुमाँ, राहबर और shepherds, उनके ही खर्चे से ... वे भी इन्वेस्टर... प्रवासी वोटरों को आप के साथ जोड़ने के लिए उनके मूल राज्यों से भेजे गए लोग –सब बतौर इन्वेस्टमेंट ! न आपको खर्चा उठाना है, न आपको कोई रिकॉर्ड रखना, और ना ही कहीं रिकॉर्ड दिखेगा ....
इन सब ऑफ द रिकॉर्ड ताकतों का प्रभाव तो दिखाई देगा , लेकिन अस्तित्व नहीं. नतीजा ये कि ये आभास सफलता से बनाया जा सकता है कि ये दीये की तूफ़ान से लड़ाई है. ये दिया नहीं, मुल्क को राख कर देनेवाला दावानल है ये अंदाजा शायद बहुतों को आता ही नहीं, और जिन्हें समझ आता है वे बताते नहीं हालांकि बताना ही उनका धर्म और कर्म है. शायद वे मुद्दा क्र. २ में अंतर्भूत हैं...
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बाकी काफी बातें तो आप पढ़ ही रहे हैं. और आप ने अगर देखा होगा तो इस आलेख में कोई भी नामनिर्देश नहीं है. आप चाहें तो इसे परिकल्पना समझ सकते हैं.
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इतनी लम्बी पोस्ट पढ़ने का शुक्रिया, शेयर करने का अनुरोध तो है....
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रविवार, 08 फरवरी 2015 12:48
Economic Horror - Mufflerman Kejriwal of India
आ रही है भारत की सब से डरावनी हॉरर फिल्म – "मफलर मैन" !
(7 फरवरी को दिल्ली विधानसभा के Exit Polls एवं संभावित परिणामों के आधार पर श्री आनंद राजाध्यक्ष जी की पोस्ट)...
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येशु को जब सूली पर चढ़ाया गया तब उसने परमेश्वर से प्रार्थना की थी: इन्हें क्षमा करो, ये जानते नहीं ये क्या कर रहे हैं.
येशु एक महान आत्मा था, लेकिन economy येशु नहीं होती, और माफ़ तो बिलकुल भी नहीं करती.दिल्ली ने AAP को वोट दे कर जो पाप किया है उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी. दुःख की बात ये है कि ये कीमत केवल दिल्ली को ही नहीं, पूरे भारत को भी चुकानी पड़ेगी.
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बनिया अगर जानता है कि पार्टी उधार देने की लायक नहीं है, तो वो कभी उधार नहीं देता. केजरीवाल के चुनावी वादे प्रैक्टिकल नहीं थे. उसके हर वादे पर प्रश्न चिहन है कि ये इसके पैसे कहाँ से लाएगा? जाहिर है कि अगर ऐसा आदमी सत्ता में आता है तो वो पूरे देश के अर्थतंत्र पर खराब असर करेगा जब तक वो सत्ता में रहता है. इसका सीधा असर शेयर मार्केट पर होगा, जैसे ही इसकी जीत कन्फर्म होगी, मार्केट फिसलने लगेगा. करोड़ों का नुकसान होगा और दिल्लीवाले भी इसमें नहीं बचेंगे.
मार्किट के चरमराते इसका असर देश के अलग अलग क्रेडिट रेटिंग्स पर भी पड़ेगा, एक उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की साख को धक्का लगना तय है. नए प्रोजेक्ट्स का जोश ठंडा हो जाएगा, पूरे अर्थव्यवस्था को दुनिया शंकाशील नज़रों से देखने लगेगी. एक्सपोर्ट इम्पोर्ट वालों के व्यवहार पर भी इसका असर पड़ेगा. वे भी हम-आप जैसे नॉर्मल लोग ही हैं, और उनके कंपनियों में कई कर्मचारी काम करते हैं जो बिलकुल आम आदमी ही हैं.
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इसके दिवालिया वादे पूरे न करने पड़े इसलिए ये पहले तो समय मांगेगा और वो देना भी होगा. लेकिन उस अवकाश का उपयोग ये केंद्र सरकार को परेशां करने के लिए करेगा. अराजक को बढ़ावा देनेवाले मोर्चा को खुली छूट होगी, और अव्यवस्था के लिए ये जिम्मेदार केंद्र सरकार को ठहराएगा. इसकी सहयोगी और मोदिविरोधी मीडिया का सहयोग इसमें आग में घी का काम करेगा.
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अपनी जिम्मेदारी वो मोहल्ला समितियों पर सौंपेगा. काम होगा या नहीं होगा, लेकिन ये उन्हें जिम्मेदार ठहराके खुद का बचाव करेगा. नयी समितियां बनाएगा, खेल चलता रहेगा.
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झुग्गियां और पटरी पे व्यवसाय करनेवालों को ये क़ानून के दायरे से छूट दिला देगा. इस के चलते अगर सभी जगह झुग्गियां फूट आये तो इसके जिम्मेदार दिल्लीवाले खुद ही होंगे. पुलिस की अथॉरिटी ख़त्म सी होगी. इनका जो core सपोर्टर वर्ग है, उसको तो आप जानते – पहचानते ही होंगे, अब जरा कुछ ज्यादा ही करीब से जानने के लिए तैयार हो जाइए – रोजमर्रा की भाषा में उसे ‘झेलना’ कहते हैं.... आपने ही इन्हें वोट दिया है, या अगर घर बैठे रहे या वीकेंड मनाने चले गए तो भी आप उतने ही जिम्मेदार है....
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पानी और बिजली का तो बस देखते जाइए. मुझे सोचने से भी डर लगता है, दिल्लीवालों को अगर हॉरर पिक्चर देखने का शौक है तो उनकी मर्जी.....
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आप ने containment शब्द सुना है? क्या होता है, आप को पता है? एक उदाहरण देता हूँ जो झट से समझ आएगा आप को. कोई दुकानदार प्रतिस्पर्धी दुकानदार का धंधा खराब करने नगर निगम के पाइप लाइन वालों को पैसे खिलाता है कि उसके दूकान के सामने फूटपाथ खोद रखो ताकि ...समझ गए न? तो ये थी बहुत आर्डिनरी containment. इंटरनेशनल तौर पर किसी देश की प्रगति रोकने के लिए बहुत सारे प्रकार किये जाते हैं. देश के अन्दर अराजक फैलाना उसमें अग्रसर है. अब जब आप को ये सुनने में आता है कि इसको प्रमोट करने वाले ताकतों में चाइना का भी नाम शुमार है, और पाकिस्तान का तो नाम खुलेआम चर्चा में आया ही है तो कुछ समझ में आ रहा है दिल्लीवालों ने देश का कितना बड़ा नुकसान किया है?
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मीडिया को क्या कहें? ये वो जमात होती है जो उड़ते पक्षी के पर गिन सकती हैं. क्या ये बातें उन्हें पता नहीं होंगी? उनपर तो विस्तृति से लिखूंगा. मराठी के एक जानेमाने पत्रकार भाऊ तोरासेकर आज कल इनकी वो पोल खोल रहे हैं, वही डेटा जरा जमा कर लूँ, फिर इनकी भी जम के खबर लेते हैं... दिल्लीवालों को बरगलाने में इनका रोल काबिल इ ... जाने दो, महिलाएं भी ये पढ़ रही होंगी....
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Arthur Hailey के किताब तो पढ़े होंगे आप ने... एअरपोर्ट पढ़ी है? उसमें एक पात्र होता है – Marcus Rathbone – विमान के अन्दर एक टेररिस्ट है ये बात सिर्फ स्टाफ को पता चली है , अन्य यात्रियों को नहीं. तो वे उस टेररिस्ट को घेर लेते हैं, और एयर होस्टेस उसके हाथ से बम वाला पार्सल झट से छीन लेती है. तब ये आदमी; जिसे युनिफोर्म पहने महिलाओं से तिरस्कार होता है, फुर्ती से ऐअर होस्टेस के हाथ से वो पार्सल छीनकर उस टेररिस्ट को देता है. ये सोचता है कि मैंने एक सत्ताधारी वर्ग के प्रतिनिधी के खिलाफ एक आम आदमी की मदद की. अब इस फिल्म में ये रोल किसका है? मिडिल क्लास और कूल डूड्स .
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ये हॉरर फिल्म कितनी लम्बी चलेगी? पता नहीं दिल्लीवालों, आप ने अपने और बाकी देशवासियों के नसीब में क्या लिखवाया है... हाँ, इंटरवल तक आप हॉल के बाहर भी नहीं निकल सकते, तो देखिये अब भारत की सबसे डरावनी हॉरर फिल्म – मफलरमैन !
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यह पोस्ट सेव कर लीजिये अगर इच्छा हो. बीच बीच में पढ़ लीजियेगा. और हाँ, मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ, बस, कॉमन सेंस खोया नहीं है....
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जैसे मैंने कहा कि मैं ज्योतिषी नहीं हूँ. अगर ये सब बस एक दु:स्वप्न निकले और १० तारीख बीजेपी जीत जाए तो मैं बहुत खुश होऊंगा ये भी बताये देता हूँ..
- (अदभुत लेखक एवं विचारक श्री आनंद राजाध्यक्ष जी के फेसबुक नोट से जस का तस साभार...)
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नोट :- इस पोस्ट पर श्री Vivek Chouksey का कमेन्ट भी उल्लेखनीय है :- दक्षिण अमेरिका का इतिहास जानने वाले जानते
की यह कहानी अर्जेंटीना में घटित हो चुकी है. कभी विश्व की समृद्धतम अर्थव्यवस्था
को जुआन परोन और एविटा ने माल ए मुफ्त लुटाकर कुछ ही वर्षों में कंगाल कर दिया.
अर्जेन्टीना फिर नहीं उबर सका. जुआन की पत्नी ईवा उसके लिए ज़िम्मेदार थी पर अपनी 'दयालुता' के लिए आज भी
वहां मदर एविटा के रूप में याद की जाती है.
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गुरुवार, 05 फरवरी 2015 14:24
Delhi Elections Modi Vs All The Real Gas Game
दिल्ली विधानसभा चुनाव : मोदी बनाम मीडिया - गैस प्लांट का खेल
हर चैनल पर पांच मिनट के बाद आम आदमी पार्टी का विज्ञापन आ रहा है .. हर दो मिनट पर स्क्रीन के आधे भाग में आम आदमी का विज्ञापन आ रहा है ... एफएम रेडियो पर भी AAP के प्रचार की भरमार है.. इसके अलावा हर अखबार के मुखपृष्ठ पर आम आदमी पार्टी का विज्ञापन ... दिल्ली के लगभग सभी चौराहों पर बड़े बड़े होर्डिंग.... मोटा-मोटा अंदाजा भी लगाएँ तो अरविन्द केजरीवाल ने करीब सात से आठ सौ करोड़ रूपये सिर्फ विज्ञापन पर फूंके है ... कहाँ से आ रहा है इतना पैसा?? क्या सिर्फ जनता से लिए गए मामूली चन्दे से?? ये चंदा वह है जो हाथी के दाँत की तरह दिखाने के लिए होता है. पैसों का असली खेल तो परदे के पीछे चल रहा है.. मजे की बात ये की केजरीवाल एक तरफ मुकेश अंबानी को गाली देते है और दूसरी तरफ मुकेश अंबानी के चैनलों-अखबारों को ही विज्ञापन के रूप में पर केजरीवाल ने कम से कम दो सौ करोड़ रूपये दिए होंगे. क्योकि नेटवर्क-18 यानी आईबीएन, सीएनबीसी, ईटीवी के पूर्ण मालिक और भारत में नेट जियो, हिस्ट्री, आदि के प्रसारण का मालिकी अधिकार मुकेश अंबानी के पास है... आठ अखबारों में भी ३०% भागीदार भी मुकेश अंबानी है... केजरीवाल भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाकर राजनीति में आये थे .और आज के समय में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार मीडिया में ही है... यह बात उनका खास चमचा आशुतोष अच्छे से बता सकता है.... फिर केजरीवाल मीडिया को आठ सौ करोड़ रूपये क्यों दे रहे है?
भाई जितेन्द्र प्रताप सिंह ने अपनी फेसबुक वाल पर उदाहरण देते हुए लिखा है कि - एक बार जब कांशीराम बामसेफ नामक संगठन बनाकर यूपी के गाँवों गाँवों में साइकिल से घुमा करते थे, और दलितों को संगठित करते थे .. तब एक पत्रकार ने उनसे पूछा था की आप इतना मेहनत करते है, गाँव गाँव में साइकिल से जाते हैं, आप अखबारों में बामसेफ का प्रचार क्यों नही करते? इस पर कांशीराम ने जबाब दिया था की ऐसा नही कि मेरे पास पैसा नही है .. लेकिन सभी अखबारों और पत्रिकाओ के मालिक तो ब्राम्हण, राजपूत या बनिया लोग है फिर मै उन्हें पैसे क्यों दूँ ? जिनके खिलाफ मै आवाज उठा रहा हूँ उनको ही पैसा देकर उन्हें और ज्यादा आर्थिक रूप से मजबूत क्यों करूं ? फिर अरविन्द केजरीवाल जो परदे के सामने मुकेश अंबानी का विरोध करते हैं, उन्हें करोड़ों रूपए क्यों दे रहे हैं? कहाँ से दे रहे हैं?.... या वास्तव में दे भी रहे हैं कि नहीं?? कहीं यह खेल खुद अंबानी ही अपने पैसों से नहीं खेल रहे? आज की तारीख में मुकेश अंबानी का TV Today और TV-18 सहित कई बड़े-बड़े मीडिया हाउस में बड़ा हिस्सा है. फिर सवाल उठता है कि आखिर रिलायंस मोदी का विरोध क्यों कर रहा है??
अपनी पिछली पोस्ट में मैंने यह सवाल उठाया था कि आम जनता द्वारा दिए जाने वाले 500-1000 या दस-बीस हजार के चन्दे से आज के दौर की महंगी राजनीति करना संभव नहीं है. वास्तव में AAP द्वारा जितने जबरदस्त खर्चे किए जा रहे हैं, स्वाभाविक है कि उसके पीछे कोई बड़ी ताकत है. यहाँ केजरीवाल के पीछे अपने-अपने हित एवं स्वार्थ लिए हुए ओवैसी जैसी कई ताकतें हैं, जो किसी भी कीमत पर दिल्ली विधानसभा जीतकर नरेंद्र मोदी के अश्वमेध को रोकना और मोदी की विजेता छवि पर एक गहरा दाग लगाना चाहती हैं. मुकेश अंबानी का केजरीवाल प्रेम, एक वेबसाईट पर हुए खुलासे से स्पष्ट होता हैं. इसमें बताया गया है कि दिल्ली के चारों गैस प्लांट्स (इन्द्रप्रस्थ, प्रगति, बवाना और रिठाला) पर मुकेश अंबानी "अपना कब्ज़ा" चाहते हैं... जो मोदी सरकार आसानी से होने नहीं दे रही.
पाठकों को याद होगा कि केजरीवाल की 49 दिनों की सरकार ने उस संक्षिप्त कार्यकाल में ही बिना विधानसभा की मंजूरी लिए, रिलायंस को 343 करोड़ की सब्सिडी और छूट प्रदान कर दी थी. जबकि इधर मोदी सरकार ने गैस क्षेत्र में समुचित उत्पादन नहीं कर पाने और किए गए करार पूरे नहीं कर पाने के कारण लगातार दो-दो बार अंबानी की कंपनी पर जुर्माना ठोंका. फिर अंबानी और केजरीवाल द्वारा बड़े ही शातिर तरीके से यह प्रचार किया गया कि नरेंद्र मोदी अंबानी के करीबी हैं...(यह लोकसभा चुनावों तक सही भी था, लेकिन सत्ता में आते ही मोदी ने रिलायंस पर जुर्माने ठोंकने शुरू कर दिए). केजरीवाल चिल्लाता ही रहा कि मोदी सरकार आएगी तो अंबानी को मुफ्त में गैस दे देगी, गैस के भाव कम कर देगी... लेकिन वास्तव में हुआ उल्टा ही. रंगराजन समिति की सिफारिशों के अनुसार मोदी ने निकाली जाने वाली गैस की कीमत 8.4 डालर कर दी तथा रिलायंस पर करोड़ों रूपए के जुर्माने अलग से ठोंक दिए. वास्तव में आज की तारीख में केजरीवाल ही अंदरखाने मुकेश अंबानी और नवीन जिंदल से मिले हुए हैं. हर बिजनेसमैन सिर्फ अपना फायदा देखता है, जब तक काँग्रेस सत्ता में थी, तब तक अंबानी उन्हें मोटी रकमें दिया करता था. अब अंबानी को किसी भी कीमत पर दिल्ली के चारों गैस प्लांट चाहिए. आज गैस की कमी के कारण बवाना का प्लांट सिर्फ दस प्रतिशत क्षमता से काम कर रहा है, जबकि रिठाला का प्लांट बन्द करना पड़ा है. इधर मुकेश अंबानी जानबूझकर गैस का उत्पादन कम कर रहे हैं ताकि एक बार इन प्लांट्स को सस्ते में हथियाने के बाद उत्पादन बढ़ाकर यहाँ से बिजली का तगड़ा मुनाफा कमा सकें.
अब स्थिति ये है कि नरेंद्र मोदी "जनता" और अपनी "बची-खुची लहर" के सहारे दिल्ली में जीत की जुगाड़ लगा रहे हैं, जबकि मुकेश अंबानी ने कमर कस ली है कि मीडिया पर अपने कब्जे के सहारे वह मोदी को "कम से कम एक सबक" तो सिखाकर ही दम लेंगे. यह देखना दिलचस्प होगा कि दिल्ली में किसे जीत हासिल होती है और अगले एक वर्ष में दिल्ली के गैस आधारित पावर प्लांट्स के बारे में क्या-क्या निर्णय होते हैं... अगले एक वर्ष में भारत के तेल-गैस-रिफाइनरी क्षेत्र से सम्बन्धित ख़बरों पर निगाह बनाए रखिएगा...
खबर स्रोत साभार : https://www.saddahaq.com/politics/bjpvsambani/delhi-elections-its-bjp-vs-ambani-game-of-gas
हर चैनल पर पांच मिनट के बाद आम आदमी पार्टी का विज्ञापन आ रहा है .. हर दो मिनट पर स्क्रीन के आधे भाग में आम आदमी का विज्ञापन आ रहा है ... एफएम रेडियो पर भी AAP के प्रचार की भरमार है.. इसके अलावा हर अखबार के मुखपृष्ठ पर आम आदमी पार्टी का विज्ञापन ... दिल्ली के लगभग सभी चौराहों पर बड़े बड़े होर्डिंग.... मोटा-मोटा अंदाजा भी लगाएँ तो अरविन्द केजरीवाल ने करीब सात से आठ सौ करोड़ रूपये सिर्फ विज्ञापन पर फूंके है ... कहाँ से आ रहा है इतना पैसा?? क्या सिर्फ जनता से लिए गए मामूली चन्दे से?? ये चंदा वह है जो हाथी के दाँत की तरह दिखाने के लिए होता है. पैसों का असली खेल तो परदे के पीछे चल रहा है.. मजे की बात ये की केजरीवाल एक तरफ मुकेश अंबानी को गाली देते है और दूसरी तरफ मुकेश अंबानी के चैनलों-अखबारों को ही विज्ञापन के रूप में पर केजरीवाल ने कम से कम दो सौ करोड़ रूपये दिए होंगे. क्योकि नेटवर्क-18 यानी आईबीएन, सीएनबीसी, ईटीवी के पूर्ण मालिक और भारत में नेट जियो, हिस्ट्री, आदि के प्रसारण का मालिकी अधिकार मुकेश अंबानी के पास है... आठ अखबारों में भी ३०% भागीदार भी मुकेश अंबानी है... केजरीवाल भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाकर राजनीति में आये थे .और आज के समय में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार मीडिया में ही है... यह बात उनका खास चमचा आशुतोष अच्छे से बता सकता है.... फिर केजरीवाल मीडिया को आठ सौ करोड़ रूपये क्यों दे रहे है?
भाई जितेन्द्र प्रताप सिंह ने अपनी फेसबुक वाल पर उदाहरण देते हुए लिखा है कि - एक बार जब कांशीराम बामसेफ नामक संगठन बनाकर यूपी के गाँवों गाँवों में साइकिल से घुमा करते थे, और दलितों को संगठित करते थे .. तब एक पत्रकार ने उनसे पूछा था की आप इतना मेहनत करते है, गाँव गाँव में साइकिल से जाते हैं, आप अखबारों में बामसेफ का प्रचार क्यों नही करते? इस पर कांशीराम ने जबाब दिया था की ऐसा नही कि मेरे पास पैसा नही है .. लेकिन सभी अखबारों और पत्रिकाओ के मालिक तो ब्राम्हण, राजपूत या बनिया लोग है फिर मै उन्हें पैसे क्यों दूँ ? जिनके खिलाफ मै आवाज उठा रहा हूँ उनको ही पैसा देकर उन्हें और ज्यादा आर्थिक रूप से मजबूत क्यों करूं ? फिर अरविन्द केजरीवाल जो परदे के सामने मुकेश अंबानी का विरोध करते हैं, उन्हें करोड़ों रूपए क्यों दे रहे हैं? कहाँ से दे रहे हैं?.... या वास्तव में दे भी रहे हैं कि नहीं?? कहीं यह खेल खुद अंबानी ही अपने पैसों से नहीं खेल रहे? आज की तारीख में मुकेश अंबानी का TV Today और TV-18 सहित कई बड़े-बड़े मीडिया हाउस में बड़ा हिस्सा है. फिर सवाल उठता है कि आखिर रिलायंस मोदी का विरोध क्यों कर रहा है??
अपनी पिछली पोस्ट में मैंने यह सवाल उठाया था कि आम जनता द्वारा दिए जाने वाले 500-1000 या दस-बीस हजार के चन्दे से आज के दौर की महंगी राजनीति करना संभव नहीं है. वास्तव में AAP द्वारा जितने जबरदस्त खर्चे किए जा रहे हैं, स्वाभाविक है कि उसके पीछे कोई बड़ी ताकत है. यहाँ केजरीवाल के पीछे अपने-अपने हित एवं स्वार्थ लिए हुए ओवैसी जैसी कई ताकतें हैं, जो किसी भी कीमत पर दिल्ली विधानसभा जीतकर नरेंद्र मोदी के अश्वमेध को रोकना और मोदी की विजेता छवि पर एक गहरा दाग लगाना चाहती हैं. मुकेश अंबानी का केजरीवाल प्रेम, एक वेबसाईट पर हुए खुलासे से स्पष्ट होता हैं. इसमें बताया गया है कि दिल्ली के चारों गैस प्लांट्स (इन्द्रप्रस्थ, प्रगति, बवाना और रिठाला) पर मुकेश अंबानी "अपना कब्ज़ा" चाहते हैं... जो मोदी सरकार आसानी से होने नहीं दे रही.
पाठकों को याद होगा कि केजरीवाल की 49 दिनों की सरकार ने उस संक्षिप्त कार्यकाल में ही बिना विधानसभा की मंजूरी लिए, रिलायंस को 343 करोड़ की सब्सिडी और छूट प्रदान कर दी थी. जबकि इधर मोदी सरकार ने गैस क्षेत्र में समुचित उत्पादन नहीं कर पाने और किए गए करार पूरे नहीं कर पाने के कारण लगातार दो-दो बार अंबानी की कंपनी पर जुर्माना ठोंका. फिर अंबानी और केजरीवाल द्वारा बड़े ही शातिर तरीके से यह प्रचार किया गया कि नरेंद्र मोदी अंबानी के करीबी हैं...(यह लोकसभा चुनावों तक सही भी था, लेकिन सत्ता में आते ही मोदी ने रिलायंस पर जुर्माने ठोंकने शुरू कर दिए). केजरीवाल चिल्लाता ही रहा कि मोदी सरकार आएगी तो अंबानी को मुफ्त में गैस दे देगी, गैस के भाव कम कर देगी... लेकिन वास्तव में हुआ उल्टा ही. रंगराजन समिति की सिफारिशों के अनुसार मोदी ने निकाली जाने वाली गैस की कीमत 8.4 डालर कर दी तथा रिलायंस पर करोड़ों रूपए के जुर्माने अलग से ठोंक दिए. वास्तव में आज की तारीख में केजरीवाल ही अंदरखाने मुकेश अंबानी और नवीन जिंदल से मिले हुए हैं. हर बिजनेसमैन सिर्फ अपना फायदा देखता है, जब तक काँग्रेस सत्ता में थी, तब तक अंबानी उन्हें मोटी रकमें दिया करता था. अब अंबानी को किसी भी कीमत पर दिल्ली के चारों गैस प्लांट चाहिए. आज गैस की कमी के कारण बवाना का प्लांट सिर्फ दस प्रतिशत क्षमता से काम कर रहा है, जबकि रिठाला का प्लांट बन्द करना पड़ा है. इधर मुकेश अंबानी जानबूझकर गैस का उत्पादन कम कर रहे हैं ताकि एक बार इन प्लांट्स को सस्ते में हथियाने के बाद उत्पादन बढ़ाकर यहाँ से बिजली का तगड़ा मुनाफा कमा सकें.
अब स्थिति ये है कि नरेंद्र मोदी "जनता" और अपनी "बची-खुची लहर" के सहारे दिल्ली में जीत की जुगाड़ लगा रहे हैं, जबकि मुकेश अंबानी ने कमर कस ली है कि मीडिया पर अपने कब्जे के सहारे वह मोदी को "कम से कम एक सबक" तो सिखाकर ही दम लेंगे. यह देखना दिलचस्प होगा कि दिल्ली में किसे जीत हासिल होती है और अगले एक वर्ष में दिल्ली के गैस आधारित पावर प्लांट्स के बारे में क्या-क्या निर्णय होते हैं... अगले एक वर्ष में भारत के तेल-गैस-रिफाइनरी क्षेत्र से सम्बन्धित ख़बरों पर निगाह बनाए रखिएगा...
खबर स्रोत साभार : https://www.saddahaq.com/politics/bjpvsambani/delhi-elections-its-bjp-vs-ambani-game-of-gas
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ब्लॉग
मंगलवार, 03 फरवरी 2015 11:25
Be Practical and Dont be hypocrite AAP
ईमानदारी का ढोल पीटना और ढोंग बन्द कीजिए AAP...
फिलहाल ढुलमुल मनः स्थिति में, लेकिन दिल ही दिल में थोड़े से AAP की तरफ झुके हुए कुछ मित्र यह सोच रहे थे कि केजरीवाल ईमानदारी की मिसाल है. हालाँकि हम तो पहले दिन से ही जानते थे कि भारत की "वर्तमान व्यवस्था के तहत" कोई भी व्यक्ति ईमानदारी के साथ राजनीति कर ही नहीं सकता (Be Practical). लेकिन भोले-भाले कजरी भक्त इस बात को समझते नहीं थे.
कल जिस तरह से AAP की फंडिंग उजागर हुई, और "आआपा"के प्रवक्ता सिर कटे मुर्गे की तरह इधर-उधर भागते दिखाई दिए, उससे यह बात सिद्ध हुई कि केजरीवाल के लिए पैसा जुटाने के पीछे कोई ना कोई शक्ति जरूर है. ज़ाहिर है कि जो भी व्यक्ति या संस्था मोटी राशि का चंदा देता है, उसके पीछे उसका स्वार्थ छिपा होता है... या तो उसे उस पार्टी से कोई काम करवाना होता है, अथवा पहले वाली पार्टी द्वारा रोके गए कामों को क्लीयरेंस दिलवाना होता है (Be Practical). तीसरा स्वार्थ "वैचारिक" होता है, यदि उस दानदाता(?) को कोई व्यक्ति या पार्टी वैचारिक स्तर पर फूटी आँख नहीं सुहाता तो वह संस्था परदे के पीछे से अपने किसी मोहरे को आगे करके उसे चंदा देती (या दिलवाती) है.
चुनावों में कार्यकर्ता, गाडियाँ, संसाधन, झण्डे-बैनर, पेट्रोल आदि में लगने वाला भारी-भरकम खर्च सामान्य जनता द्वारा दिए गए "चिड़िया के चुग्गे" बराबर डोनेशन से असंभव है (Be Practical). इसलिए स्वाभाविक है कि इस देश की हर राजनैतिक पार्टी "चोर" है. अब सवाल उठता है कि जब सभी चोर हैं (कोई जेबकतरा, कोई छोटा चोर, कोई डकैत) तो फिर हम उस पार्टी का समर्थन क्यों ना करें जो कम से कम "हिन्दुत्ववादी" होने का दिखावा तो करती है. दूसरी पार्टियाँ तो खुलेआम देशद्रोहियों का समर्थन कर रही हैं.
संक्षेप में तात्पर्य यह है कि, "..हे मेरे भोले (अथवा मूर्ख), (अथवा महासंत), (अथवा किताबी रूप से भीषण सैद्धांतिक) आआपा समर्थकों, इस बात को दिल से निकाल दो कि युगपुरुष राजा हरिश्चंद्र ईमानदार हैं, या वे भ्रष्टाचार रोकने में समर्थ हैं, क्योंकि भ्रष्टाचार भारत की जनता की रग-रग में समाया हुआ है, इसे सिर्फ थोड़ा कम किया जा सकता है, खत्म नहीं...". फिर हम उसे मौका क्यों ना दें जिसने कम से कम तीस-चालीस साल विश्वसनीय नौकरी की है... AAP की तरह नहीं, कि पहले नौकरी से भागे, फिर आंदोलन के बीच से भागे, फिर सरकार छोड़कर भागे... (Be Practical)....
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फिलहाल ढुलमुल मनः स्थिति में, लेकिन दिल ही दिल में थोड़े से AAP की तरफ झुके हुए कुछ मित्र यह सोच रहे थे कि केजरीवाल ईमानदारी की मिसाल है. हालाँकि हम तो पहले दिन से ही जानते थे कि भारत की "वर्तमान व्यवस्था के तहत" कोई भी व्यक्ति ईमानदारी के साथ राजनीति कर ही नहीं सकता (Be Practical). लेकिन भोले-भाले कजरी भक्त इस बात को समझते नहीं थे.
कल जिस तरह से AAP की फंडिंग उजागर हुई, और "आआपा"के प्रवक्ता सिर कटे मुर्गे की तरह इधर-उधर भागते दिखाई दिए, उससे यह बात सिद्ध हुई कि केजरीवाल के लिए पैसा जुटाने के पीछे कोई ना कोई शक्ति जरूर है. ज़ाहिर है कि जो भी व्यक्ति या संस्था मोटी राशि का चंदा देता है, उसके पीछे उसका स्वार्थ छिपा होता है... या तो उसे उस पार्टी से कोई काम करवाना होता है, अथवा पहले वाली पार्टी द्वारा रोके गए कामों को क्लीयरेंस दिलवाना होता है (Be Practical). तीसरा स्वार्थ "वैचारिक" होता है, यदि उस दानदाता(?) को कोई व्यक्ति या पार्टी वैचारिक स्तर पर फूटी आँख नहीं सुहाता तो वह संस्था परदे के पीछे से अपने किसी मोहरे को आगे करके उसे चंदा देती (या दिलवाती) है.
चुनावों में कार्यकर्ता, गाडियाँ, संसाधन, झण्डे-बैनर, पेट्रोल आदि में लगने वाला भारी-भरकम खर्च सामान्य जनता द्वारा दिए गए "चिड़िया के चुग्गे" बराबर डोनेशन से असंभव है (Be Practical). इसलिए स्वाभाविक है कि इस देश की हर राजनैतिक पार्टी "चोर" है. अब सवाल उठता है कि जब सभी चोर हैं (कोई जेबकतरा, कोई छोटा चोर, कोई डकैत) तो फिर हम उस पार्टी का समर्थन क्यों ना करें जो कम से कम "हिन्दुत्ववादी" होने का दिखावा तो करती है. दूसरी पार्टियाँ तो खुलेआम देशद्रोहियों का समर्थन कर रही हैं.
संक्षेप में तात्पर्य यह है कि, "..हे मेरे भोले (अथवा मूर्ख), (अथवा महासंत), (अथवा किताबी रूप से भीषण सैद्धांतिक) आआपा समर्थकों, इस बात को दिल से निकाल दो कि युगपुरुष राजा हरिश्चंद्र ईमानदार हैं, या वे भ्रष्टाचार रोकने में समर्थ हैं, क्योंकि भ्रष्टाचार भारत की जनता की रग-रग में समाया हुआ है, इसे सिर्फ थोड़ा कम किया जा सकता है, खत्म नहीं...". फिर हम उसे मौका क्यों ना दें जिसने कम से कम तीस-चालीस साल विश्वसनीय नौकरी की है... AAP की तरह नहीं, कि पहले नौकरी से भागे, फिर आंदोलन के बीच से भागे, फिर सरकार छोड़कर भागे... (Be Practical)....
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AAP समर्थक इस बात को समझें, कि कथित
ईमानदारी के जिस USP (Unique Selling Point) वाले खम्भे पर
आआपा टिकी हुई थी, जब वही भरभराकर गिर गया, तो फिर सभी पार्टियों में अंतर क्या बचा?? इसलिए स्वाभाविक है कि समर्थन का आधार वैचारिक
होगा... हमारा समर्थन "कथित हिंदूवादी"
पार्टी को है, आप भी अलग कश्मीर का नारा लगाने वाले और सड़कों
पर सरेआम किस करने वाले बुद्धिजीवियों की "कथित ईमानदार" पार्टी के
समर्थन में रहिए... लेकिन प्लीज़ "ईमानदारी" का ढोंग बन्द कीजिए भाई...
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