desiCNN - Items filtered by date: दिसम्बर 2014
बुधवार, 31 दिसम्बर 2014 12:21
Missionary Activities in Nepal
नेपाल में मिशनरी चमत्कार...
एकमात्र भूतपूर्व हिन्दू राष्ट्र, उर्फ भारत के एक विश्वस्त
पड़ोसी नेपाल में इन दिनों एक चमत्कार हो रहा है. नेपाल के उत्तरी पहाड़ी इलाकों तथा
दक्षिणी पठार के कुछ जिलों में अचानक लोग अपने भगवान बदलने लगे हैं. जी हाँ,
नेपाली धडल्ले से ईसाई बनने लगे हैं. सन २०११ के बाद से मात्र चार वर्षों में
“आधिकारिक” रूप से नेपाल के प्रमुख तीन जिलों में ढाई लाख लोगों ने अपना धर्म
परिवर्तन कर लिया है. सुनने में ढाई लाख कोई बहुत बड़ा आँकड़ा नहीं दिखाई देता,
परन्तु एक ऐसा देश जिसकी कुल आबादी ही लगभग साढ़े तीन-चार करोड़ हो, वहाँ यह संख्या
अच्छा ख़ासा सामाजिक तनाव उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त है.
लगभग आठ साल पहले सन २००६ में जब नेपाल का हिन्दू राजतंत्र समाप्त
हुआ तथा माओवादियों द्वारा नया “सेकुलर” अंतरिम संविधान अस्तित्त्व में लाया गया,
उसी दिन से मानो विदेशी मिशनरी संस्थाओं की बाढ़ सी आ गई. मिशनरी गतिविधियों के
कारण नेपाल के पारंपरिक बौद्ध एवं शैव हिन्दू धर्मावलंबियों के बहुमत वाले समाज
में तनाव निर्मित होने शुरू हो गए हैं. यहाँ तक कि ईसाई धर्मांतरण की बढ़ती घटनाओं
के कारण वहाँ नेताओं को इस नए अंतरिम संविधान में भी “धार्मिक मतांतरण” पर रोक
लगाने का प्रावधान करना पड़ा. नए संविधान में भी जबरन धर्मांतरण पर पांच साल की जेल
का प्रावधान किया गया है. परन्तु इसके बावजूद मिशनरी संस्थाएँ अपना अभियान निरंतर
जारी रखे हुए हैं.
समाज में जारी वर्त्तमान संघर्ष की प्रमुख वजह है मिशनरी
संस्थाओं द्वारा लगातार यह माँग करना कि संविधान से धारा १६० एवं १६०.२ को हटाया
जाए. यह धारा धर्म परिवर्तन को रोकती है. मिशनरी संस्थाओं की माँग है कि
“स्वैच्छिक धर्म परिवर्तन” पर कोई रोक नहीं होनी चाहिए. एक “सेक्यूलर लोकतंत्र” का
तकाज़ा है कि व्यक्ति जो चाहे वह धर्म चुनने के लिए स्वतन्त्र हो. जबकि नेपाल के
बौद्ध एवं हिन्दू संगठन संविधान की इस धारा को न सिर्फ बनाए रखना चाहते हैं, बल्कि
इसके प्रावधानों को और भी कठोर बनाना चाहते हैं. इस मामले में “आग में घी” का काम
किया नेपाल में ब्रिटेन के राजदूत एंड्रयू स्पार्क्स की टिप्पणी ने. अपने एक लेख
में ब्रिटिश राजदूत ने “सलाह दी” कि, नेपाल के नए बनने वाले संविधान में “अपनी
पसंद का धर्म चुनने का अधिकार सुरक्षित रखा जाए”. ब्रिटिश राजदूत की इस टिप्पणी को
वहाँ के प्रबुद्ध वर्ग ने देश के आंतरिक मामलों में “सीधा हस्तक्षेप” बताया.
राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के नेता कमल थापा कहते हैं कि
ब्रिटिश राजदूत का यह बयान सरकार पर दबाव बनाने के लिए है ताकि मिशनरी संस्थाएँ
बिना किसी रोकटोक एवं क़ानून के डर के बिना अपना धर्मांतरण मिशन जारी रख सकें. थापा
का वाजिब सवाल यही है कि नेपाल के धर्म परिवर्तन क़ानून पर ब्रिटिश राजदूत इतने
बेचैन क्यों हैं? क्योंकि यूरोप एवं दुसरे पश्चिमी देशों से आने वाली क्रिश्चियन
संस्थाओं को नेपाल में घुसपैठ करने का पूरा मौका मिल सके. कमल थापा के इस बयान का
नेपाल के बुद्धिजीवी वर्ग, समाचार पत्रों एवं आम जनता में ख़ासा प्रभाव देखा गया.
नेपाल में इस मुद्दे पर बहस छिड़ गई है कि धर्मान्तरण क़ानून को कठोर बनाया जाए, या
“सेक्यूलर लोकतंत्र” की खातिर इसे “स्वैच्छिक” कर दिया जाए (भारत में भी फिलहाल यही चल रहा है). नेपाल का एक बड़ा तबका
आज भी राजतंत्र का समर्थक है एवं माओवादी सरकार द्वारा जल्दबाजी में बिना
सोचे-समझे सेक्यूलर लोकतंत्र को अपनाए जाने के खिलाफ है. बहुत से लोगों का कहना है
कि सेक्यूलर लोकतंत्र का संविधान अपनाते समय किसी से कोई सलाह नहीं ली गई थी.
नुवाकोट, धादिंग, गुरखा, कास्की, म्याग्दी, रुकुम और चितवन
जिलों में मिशनरी गतिविधियों के कारण धडल्ले से धर्म परिवर्तन हो रहा है. सीमा पर
नए-नए चर्च खुल रहे हैं, जो आए दिन गरीब नेपालियों को रूपए-पैसों का लालच देकर
ईसाई बना रहे हैं. चर्च की संस्थाएँ गरीबों को अच्छे मकान, अच्छे कपड़े और कान्वेंट
स्कूलों में मुफ्त पढ़ाई का आश्वासन देकर अपने धर्म में खींच रहे हैं. जैसी की चर्च की चालबाजी होती
है, उसी प्रकार नेशनल कौंसिल ऑफ नेपाल चर्च का कहना है कि वे जबरन धर्म परिवर्तन
नहीं करवाते, बल्कि नेपाली हिन्दू ईसाई धर्म की अच्छाईयों से आकर्षित होकर ही
परिवर्तित हो रहे हैं.
सवाल यह है कि ऐसा अक्सर “सेकुलर” देशों में ही
क्यों होता है? क्या सेकुलर घोषित होते ही गरीबों का धर्म प्रेम जागृत हो जाता है?
या सेकुलरिज़्म के कारण अचानक ही सेवाभावी चर्च की संस्थाएँ फलने-फूलने लगती हैं?
लगता है कि अफ्रीकी गरीबों की जमकर “सेवा” करने के बाद अब
दक्षिण एशियाई गरीबों का नंबर है...
(वेबसाईट "स्वराज्य.कॉम" से साभार सहित अनुवादित).
Published in
ब्लॉग
शनिवार, 27 दिसम्बर 2014 10:50
Hitler, Goebbles and Indian National Congress
नाज़ी और प्रचार तंत्र
(प्रस्तुत लेख श्री आनंद कुमार जी की फेसबुक वाल से साभार लिया गया है... पठनीय एवं शानदार गठित)
आनंद कुमार जी के फेसबुक प्रोफाईल की लिंक यह है - https://www.facebook.com/anand.ydr
अडोल्फ़ हिटलर की पार्टी नाज़ी पार्टी के नाम से जानी जाती है (सही नाम नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी था) | इसे कई बार सौ फीसदी नियंत्रण वाली सबसे भयावह सरकार कहा जाता है | कई बार अचरज होता है की बीसवीं सदी में कोई ऐसे लोगों को अपने इशारों पर कैसे घुमा सकता है ! लेकिन नाज़ी सिर्फ़ सबसे क्रूर सरकार ही नहीं थे, वो प्रचार प्रसार के सबसे माहिर खिलाड़ी थे | इस काम के लिए हिटलर ने जोसफ गोएबेल्स नाम के एक व्यक्ति को नियुक्त किया था | प्रचार के तरीके सीखने के लिए उसके तरीकों से ज्यादा कारगर कोई तकनीक आज भी नहीं पढाई जाती | आइये उसी गोएबेल्स के तरीकों पर एक नज़र डालते हैं |
10. पोस्टर – प्रतीकों, इशारों के जरिये आपनी बात सामने रखना
हिटलर और उसके साथी जानते थे की इस तरीके का अच्छा इस्तेमाल अपने राजनैतिक फ़ायदे के लिए कैसे किया जाता है | अपने खुद के इलाकों में और नाज़ियों के जीते हुए इलाकों में सारी दीवारें नाज़ी नारों से रंगी होती थी | पोस्टर जगह जगह चिपकाये जाते थे, और हर खाली दिवार पर नारे लिखे होते थे | कविताओं, नारों के जरिये अपनी बात, बहुत सस्ते ढंग से, नारों के जरिये, बार बार लोगों के सामने रख दी जाती थी | देश के अन्दर उन पोस्टरों का मकसद होता था उत्पादन को बढ़ावा देना और जीते हुए इलाकों में वो कहते थे “आप सीमा पर है”, लड़ना आपका धर्म है ऐसा सन्देश जाता था |
अब इसके उदाहरण में “कोंग्रेस का हाथ आपके साथ” जैसे नारे को देखिये | थोड़े साल पहले के “गरीबी हटाओ” या फिर “जय जवान जय किसान” को सुनिए | बैंकों और कई उपक्रमों को निजी से सरकारी कर दिया गया | इसके थोड़े समय बाद हरित क्रांति, श्वेत क्रांति जैसे अभियान चलाये गए | घर पर उत्पादन बढ़ाना था, इसलिए “गरीबी हटाओ” और “जय किसान”, वहीँ एक बाहर के शत्रु का भय भी बनाये रखना था, इसलिए “जय जवान” भी होगा “जय किसान” के साथ | इन सब के बीच नेहरु, इन्दिरा और राजीव के चेहरे रखे गए बीस बीस साल के अंतराल से | ऐसा नहीं था की और दूसरे नेता प्रधानमंत्री नहीं थे कांग्रेस से, लेकिन एक ही चेहरे को लगातार सामने रखना जरूरी था | इसलिए लाल बहादुर शास्त्री पुराने ज़माने में और नए ज़माने में नरसिम्हा राव दरकिनार कर दिए गए | एक ही परिवार, एक ही वंश आपका तारनहार है, इसलिए नेहरु गाँधी परिवार ही आगे रहा, हर पोस्टर पर हर नारे के साथ आपकी आँखों के सामने | इसे ही धीमे तरीके से हर सरकारी योजना का नाम एक ही परिवार के नाम पर कर के पुष्ट किया गया | आप चाहे भी तो भी “गाँधी” सुने बिना नहीं रह सकते | सारी योजनायें इन्दिरा, राजीव के नाम पर ही हैं, गाँधी तो नाम में रहेगा ही |
9. जातिवाद– अल्पसंख्यको को आपका शत्रु बताना
प्रथम विश्व युद्ध और 1929 के वाल स्ट्रीट के नुकसान की वजह से उस समय जर्मनी की हालत बड़ी ख़राब थी | जैसे बरसों भारत की आर्थिक स्थिति अमरीकी डॉलर के गिरने और अरब के तेल की कीमतों के उठने की वजह से रही हैं, कुछ वैसी ही | इसका इल्ज़ाम नाज़ी पार्टी ने यहूदियों पर डाला | उन्होंने बार बार ये कहना शुरू किया की यहूदी कौम ही शुद्ध जर्मन लोगों के बुरे हाल के लिए जिम्मेदार हैं | ये यहूदी कौम कहीं और से आ कर जर्मनी के असली वासिंदों का शोषण कर रही है | यहूदियों को बलि का बकरा बनाया गया | उनके कार्टून बाज जैसे नाक वाले, भौं सिकोड़े, दुष्ट व्यक्ति जैसे बनाये गए | मौका पाते ही हर चीज़ का इल्ज़ाम उनपर थोपा गया और ईमानदार “स्वदेशी” व्यक्ति के पैसे चुराने और ठगने का इल्ज़ाम उन पर थोप दिया गया |
अब इस आलोक में भारत के जातिवाद को देखिये | बहुसंख्यक को छोटी जाति का बताया गया, और ब्राम्हण, राजपूत, कायस्थ जैसी जातियों को उनका शोषण करने वाला साबित किया गया |समर्थन में एक ऐसे ग्रन्थ (मनुस्मृति) का उदाहरण उछाला जाने लगा जिसके सत्रह अलग-अलग पाठ हैं | किसी ने ये बताया की किस राजा ने किस काल में इस ग्रन्थ के हिसाब से शाषण किया था ? नहीं न ? आपने पुछा भी नहीं होगा | पूछ के देखिये, पता भी नहीं चलेगा |
लेकिन बहुसंख्यक की गरीबी का इल्ज़ाम किसी कपोल-कल्पित ब्राम्हणवाद पर थोप कर “गोएबेल्स” के उपासक निश्चिन्त थे | बिना साक्ष्य, बिना प्रमाण किसी ब्राम्हणवाद को दोष देकर वो अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त रहे | आजादी के इतने सालों में मनुस्मृति के बदले संविधान लगा देने पर भी शिक्षा, स्वास्थ या जीवन शैली जैसी चीजों में बहुसंख्यक समुदाय की हालत और ख़राब ही क्यों हुई है ये किसी ने नहीं पुछा | हर कमी के लिए कहीं बाहर से आ कर बसे "आर्य" जिम्मेदार थे |
यहाँ आप समाज के एक तबके को डरा कर रखना भी देख सकते हैं | एक समुदाय विशेष को कभी ये नहीं बताया जाता की आपकी शिक्षा या आर्थिक बेहतरी के लिए “गोएबेल्स” समर्थक क्या कर रहे हैं | ये भी नहीं बताया जाता की भारत में तीन लाख मस्जिद हैं जितने दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं हैं | सिर्फ ये पूछना है की अगर आप बहुसंख्यक हैं तो आप ब्राम्हणवादी तो नहीं ? या “सेक्युलर” हैं या नहीं | धुर्विकरण का काम पूरा हो जायेगा |
8. रेडियो, टीवी, इन्टरनेट – जन संचार के माध्यमों पर कब्ज़ा
1933 में जोसेफ गोएब्बेल्स ने कहा था की रेडियो सिर्फ 19वीं ही नहीं बल्कि 20वीं सदी में भी उतना ही असरदार माध्यम रहेगा, वो इसे “आठवीं महान शक्ति” मानता था | उसने जर्मन सरकार से रडियो में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों के उत्पादन में आर्थिक छूट (subsidy) भी दिलवा दी थी ताकि सस्ते रडियो का बनना शुरू हो सके | इन रडियो सेटों की क्षमता इतनी ही होती थी की वो पास के स्टेशन पकड़ सकें | इस तरह लगातार जर्मन और ऑस्ट्रिया के स्टेशन से प्रचार जनमानस तक पहुँचाया जाता था | द्वित्तीय विश्व युद्ध शुरू होने तक पूरा देश ही रडियो के जाल में आ चुका था | इसके जरिये उत्तेजक भाषण और ख़ास तौर पर डिजाईन किये हुए “समाचार” पूरे देश में सुनाये जाते थे |
अब इसे पुरानी फिल्मों के रडियो के साथ याद कीजिये | ब्लैक एंड वाइट के ज़माने में एक बड़ा सा सनमायका का डब्बे जैसा रेडियो होता था | फिल्मों में ये सिर्फ अमीर लोगों के घरों में दिखता था | फिर इन्दिरा गाँधी के भाषण जब रेडियो पर आने शुरू हुए, लगभग उसी ज़माने में सस्ते ट्रांजिस्टर भी आने शुरू हो गए | ये बिना बिजली के बैटरी से चलते थे, गाँव देहात जहाँ बिजली नहीं पहुँचती थी वहां भी कांग्रेस की आवाज पहुँच जाती थी | जब जमाना टीवी पे पहुँच गया और “गरीवी हटाओ” के नारे के वाबजूद गरीबी नहीं हटी तो एक नया ट्रांजिस्टर नेपाल से आ गया, इसमें रिचार्ज होने वाली बैट्री लगती थी, कीमत और भी कम | “हमने देखा है, और हम देखते आये हैं की..” सुनाई देता रहा | चुनाव के ज़माने में इसका इस्तेमाल केजरीवाल ने भी किया था | आजकल हमारे प्रधानसेवक भी इसे चलाना सीख रहे हैं |
7. फिल्म और सिनेमा – मनोरंजन के जरिये
जर्मन घरों के अन्दर तक घुसने के लिए नाज़ी पार्टी ने वहां भी नियंत्रण किया जहाँ जनता पैसे खर्च करके जाती थी | 1933 में ही Department of Film भी बना दिया गया, इसका एकमात्र मकसद “जर्मन लोगों को समाजवादी राष्ट्रवाद का सन्देश” देना था | शुरू में इन्होने शहरों में फिल्म दिखाना शुरू किया, फिर धीरे धीरे नाज़ी सिनमा बनाना भी शुरू किया | दो अच्छे उदाहरण होंगे Triumph of Will जिसमे की 1934 के नुरेमबर्ग की रैली का किस्सा है और The Wandering Jew जो की 1940 में आई थी और यहूदी लोगों को बुरा दिखाती थी |
अब भारत की फिल्मों को देखिये, हाल के विश्वरूपम को याद कीजिये की कैसे उसका प्रदर्शन रोका गया था, फिर हैदर को याद कीजिये | मंगल पाण्डेय में दिखाई मंगल पाण्डेय की तस्वीर याद कीजिये, सरफ़रोश का वो अल्पसंख्यक सब इंस्पेक्टर याद कीजिये जो की देशभक्त था, लेकिन कोई उसे पूछता नहीं था | रंग दे बसंती का सीधा साधा सा अल्पसंख्यक युवक याद कीजिये जो अपने चाचा के कट्टरपंथी रवैये पर भड़क जाता है, फिर उस दुसरे बहुसंख्यक समुदाय के युवक को याद कीजिये की कैसे दिखाते हैं की वो नेताओं के बहकावे में था | अब नयी वाली किसी फिल्म PK को भी याद कर लीजिये |
अगर ये कहने की सोच रहे हैं की ऐसे धीमे से इशारे से क्या तो ये याद रखियेगा की फिल्म में हीरो “कोका कोला” या “पेप्सी” पीता तभी दिखाया जाता है जब ये कंपनी पैसे दे रही होती हैं | कौन सा लैपटॉप इस्तेमाल होगा उसके भी पैसे मिलते हैं | अगर कंपनी ने पैसे नहीं दिए तो, कंपनी का Logo धुंधला कर दिया जाता है |
6. अख़बार – छपने वाले दैनिक पर नियंत्रण
विचार और मंतव्य को मोड़ने का सबसे शशक्त माध्यम अख़बार होता है | नाज़ी अख़बारों में सबसे कुख्यात था Der Sturmer (The Attacker या हमलावर) | गोएरिंग के दफ्तर में इस अख़बार पर पाबन्दी थी, इसे जूलियस स्ट्रैचर छापता था | अपने अश्लील लेखन, तस्वीरों, भेदभाव भरे लेखों की वजह से ये दुसरे पार्टी के सदस्यों में बड़ा ही प्रचलित था |हिटलर खुद भी इसकी बड़ी तारीफ़ करता था, कहता था ये सीधा “सड़क के आदमी” से बात करती है और वो इसे मज़े से पहले पन्ने से आखरी पन्ने तक पढता है |
अभी का हमारा समय देखें तो कुछ “सामना” और “पांचजन्य” जैसे हिंदी अख़बार हैं, या फिर “रणबीर” जैसे उर्दू में कुछ | इन्हें ख़रीदने वाले लोगों वैचारिक झुकाव एक तरफ़ होता है तभी वो इसे पढ़ रहे होते हैं | लेकिन इनके अलावा हमारे पास कई और अख़बार हैं जो की निष्पक्ष होने का दावा करते हैं | चाहे वो हिंदी के “दैनिक जागरण”, “जनसत्ता”, “हिंदुस्तान टाइम्स” या “प्रभात खबर” जैसे हों या फिर “टाइम्स ऑफ़ इंडिया”, या “हिन्दू” जैसे अंग्रेजी अख़बार, पढ़ने वालों को उनकी राजनैतिक निष्ठा का पता रहता है | हर रोज़ सुबह थोड़ा थोड़ा करके कैसे आपको अपने विचारों से भरा जाता है इसका अंदाजा तो आज के सभी पढ़े लिखे भारतीय लोगों को है | एक सुना है “इंडिया टुडे” ग्रुप होता था, काफी चर्चा में था, क्या हुआ पता नहीं !
5. आत्मकथा – किताबों के जरिये पार्टी को “दिव्य” बताना
हिटलर ने जेल में Mein Kampf लिखना शुरू किया था, उस समय Munich Putsch नाकामयाब हो गया था | अपने जीवन में अपनी राजनैतिक विचारधारा का योगदान, और एक काल्पनिक शत्रु के विरुद्ध वैमनस्य को फ़ैलाने का किताब से अच्छा तरीका नहीं था | किन्ही सोलह पार्टी सदस्यों की मृत्यु को शहादत घोषित करते हुए इस कथा को उसने अपने पूरे जीवन काल में जिन्दा रखा | करीब एक करोड़ प्रतियाँ इसकी द्वित्तीय विश्व युद्ध के समाप्त होने तक बिक चुकी थी | आज भी बिकती हैं, वैसे मुस्सोलनी का कहना था की ये किताब “ऐसे बोरिंग टोन में लिखी गई है की वो इसे कभी पूरा पढ़ नहीं पाया” |
इसमें कुछ बताने की शायद ही जरुरत है, अपने आस पास किसी किताबों के शौक़ीन आदमी से पूछ कर देखिये | दो चार ऐसी किताबों का नाम पता चल जायेगा जो लगभग हर किताब पढ़ने वाले ने कभी न कभी खरीदी है |
इसके अलावा आप अपने स्कूल कॉलेज की इतिहास की किताबें उठा लीजिये | भारत के 300 AD से 1100 AD तक का इतिहास दूंढ़ लीजिये, फ़ौरन दिख जायेगा की कैसे स्वर्ण काल कहे जानेवाले गुप्त काल के सिर्फ़ एक राजा का जिक्र है | कैसे “Headless Statue of Kanishka” की तस्वीर तो होती है लेकिन उसके काल का वर्णन नहीं होता | हर राजवंश 250-300 साल में ख़त्म हो जाता है, लेकिन 800 साल राज करने वाले चोल साम्राज्य का जिक्र नहीं है | बड़े भवनों का जिक्र हो तो आप ये तो बता सकते हैं की ताजमहल किसने बनवाया लेकिन ये नहीं की अजंता और एल्लोरा की गुफाएं किसने बनवाई | आप ये तो बता दें शायद की क़ुतुब मीनार किसने बनवाया लेकिन क्या तोड़ कर् बनाया था ये नहीं पता | यहाँ तक की मुग़ल साम्राज्य में भी आप जहाँगीर और बहादुर शाह जफर के बीच के राजाओं का नाम भी नहीं जानते | नहीं बहादुर शाह जफ़र जहाँगीर का बेटा नहीं था !
इन सारे लोगों का जिक्र किस के महिमामंडन के लिए किया गया ? और पिछले पचास साल को इतिहास मानते भी नहीं जब की आज का भारत तो इसी 1947 से आज तक में बना है न ?
4. विरोधियों के खिलाफ दुष्प्रचार – अपने विरोधी को राक्षस बताना
नाज़ी कई लोगों को अपना विरोधी मानते थे | देश के अन्दर भी और विदेशों में भी उनपर प्रचार का हमला जारी रहता था | किसी भी विचारधारा पर विदेशी ज़मीन पर हमला करने के लिए प्रचार बहुत अच्छा हथियार था | विरोधियों को ब्रेन वाश का शिकार, बुद्धू दिखाया जाता था, और जर्मन लोगों को बौध्दिक तौर पर उनसे श्रेष्ठ बताया जाता था |
अब जब राक्षस और आदमखोर भेड़ियों की बात छिड ही गई है तो कौन किस विरोधी को नरभक्षी, इंसानों के खून से रंगे हाथ वाला बताता था ये भी याद आ गया होगा ! चुनावों को ज्यादा दिन तो हुए नहीं हैं | अपने विरोधी दल के समर्थकों को मानसिक रूप से पिछड़ा, बौध्दिक क्षमता न इस्तेमाल करने वाला अंध भक्त, मैला खाने वाला, किसी संगठन के हाथों खेलने वाला कहना तो अब भी चलता ही रहता है |
ये भी गोएब्बेल्स का ही एक तरीका था|
3. मिथकीय कहानियां, लोक कथाएं और धार्मिक मान्यताएं
नाज़ी विचारधारा के “volk” (फोल्क) में मिथक और लोककथाओं का बड़ा महत्व था | नाज़ी पार्टी की अपनी मान्यताएं धर्म पर स्पष्ट नहीं थीं, हिटलर के मामले में तो कहा जा सकता है की वो भटका रहता था | लेकिन धार्मिक प्रतीकों के महत्व का गोएब्बेल्स को अच्छे से पता था | अक्सर ही इसाई प्रतीक चित्रों की मदद प्रचार में किया करते थे नाज़ी | इनका मकसद साफ़ था, प्राचीन जर्मन सभ्यता को लोगों के दिमाग में आगे लाना | स्वस्तिक जैसा निशान उनकी पहचान आज भी है | कई पुराने पोस्टर आज देखें तो पुराने ट्युटोनिक भगवानों के प्रतीक चिन्ह भी दिख जायेंगे |
अब अभी के भारत पर आयेंगे तो अभी हाल की घटना थी जिसमे अचानक से कोई आ कर “महिषासुर” को देवता घोषित कर रहा था | यहाँ धार्मिक मान्यताओं की अस्पष्टता तो दिखेगी ही, प्राचीन हिन्दू प्रतीक चिन्हों का अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल भी दिख जायेगा | इसके अलावा अभी पच्चीस दिसंबर को मनाया गया “डेविल्स डे” भी है | इसमें अनेक ईश्वर को मानने (हिन्दू धर्म की तरह) को निशाने पे लेना भी दिखेगा | धार्मिक मान्यताएं अस्पष्ट होने के उदाहरण वैसे भी राजनीति और अन्य क्षेत्रों में भरे पड़े हैं | होली पे पानी की बर्बादी न करने की सलाह आती है, दिवाली पर लक्ष्मी के घर आने की हंसी उड़ाई जाती है, बकरीद पर अहिंसा का पाठ भी पढ़ा देंगे !!
लेकिन, किन्तु, परन्तु, Thanks Giving पर मारे गए तीतरों पर आत्मा नहीं रोती और पता नहीं कैसे जिस Santa Clause का पूरे बाइबिल में जिक्र नहीं वो रात गए घर में गिफ्ट रखने आता है तो वो अन्धविश्वास तो हरगिज़ नहीं होता !
2. संगीत और नृत्य – अच्छे को ग्रहण कर लेना
हिटलर के मुताबिक जो तीन अच्छे संगीतकार थे, और जर्मन संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते थे, वो थे Ludvig van Beethoven, Anton Bruckner और Richard Wagner | इनमे से Wagner के यहूदियों के प्रति विचार कुछ अच्छे नहीं थे ( उन्होंने 1850 में “Judaism in Music” नाम का एक लेख लिखा था जिसमे यहूदियों को सभ्यता को जहर देने का दोषी करार दिया गया था ) | नाज़ी पार्टी ने उनके लेख के वो भाग उठाये जिनमे यहूदियों को भला बुरा कहा गया था और बाकि का हिस्सा गायब कर दिया | नाज़ी प्रचार तंत्र में जर्मन अतीत के Parsifal, और Der Ring des Nibelungen को प्रमुखता से जगह दी गई | इस तरह जर्मन अतीत के महिमामंडन के लिए संगीत का इस्तेमाल हुआ और उससे विरोध को कुचलने का एक अनोखा तरीका नाज़ियों को मिल गया |
वापिस इसे समझने के लिए अभी के समय में आते हैं | Precurssion instrument संगीत में ढोल जैसे वाद्य यंत्रों को कहा जाता है | कोई भी Drum इसी श्रेणी में डाला जायेगा | एक भ्रान्ति फैला दी गई की इनका इस्तेमाल सिर्फ़ ताल देने के लिए किया जा सकता है, सुर में इनका योगदान नहीं होता और इनसे हमेशा एक सा ही सुर निकलता है | ऐसा कहते समय तबला-डुग्गी, मृदंग जैसे वाद्य यंत्रों को देखा ही नहीं गया, किसी ने विरोध भी नहीं किया | नतीजा वही हुआ जो होना था | आज पाश्चात्य संगीत के साथ जब ये mixed music की तरह आता है तो जनमानस इसे पचा जाता है | कभी किसी पंद्रह से पच्चीस के युवक या युवती को ये सिखाने की कोशिश करें तो वो भारतीय संगीत के सात सुरों के बदले “So, La, Ri, To...” वाले सात सुर सीखना ज्यादा पसंद करेगा | करीब साठ साल का भारतीय संगीत और नृत्य को नीचा दिखाने की कोशिश काम आई है यहाँ |
1. फुहरर (हिटलर को इसी नाम से बुलाते थे)
नाज़ियों के पास जो प्रचार के तरीके थे उनमे से सबसे ख़ास था फुहरर यानि हिटलर खुद ! एक करिश्माई व्यक्तित्व और प्रखर वक्ता के तौर पर हिटलर अपने तर्क को सबसे आसान भाषा में लोगों तक पहुंचा सकता था | कठिन से कठिन मुद्दों पर वो आम बोल-चाल की भाषा में बात करता था | भीड़ के बौध्दिक क्षमता पर नहीं उसका ध्यान उनकी भावनाओं पर होता था | छोटी से छोटी दुर्घटना को बड़ा कर के दिखाना, बरसों पुराने जख्मों को ताज़ा कर देना उसके बाएं हाथ का खेल था | बिना हिटलर के नाज़ी कुछ भी नहीं |
अब अभी के समय में बरसों पुराने जख्मों को कुरेदना अगर याद दिलाना पड़े तो कहना होगा “Poverty is a state of Mind” | किसी ख़ास मुद्दे पर नहीं, सिर्फ विरोध की जन भावना को उकसाना याद दिलाना भी समय बर्बाद करना होगा | अपने लिए समर्थन में जन भावनाओं का इस्तेमाल करना, अपने विकास अपने काम को नहीं, नेता के लिए समर्थन को जगाना सीखना हो तो इन्दिरा गाँधी की मृत्यु के बाद की राजीव गाँधी की जीत और राजीव गाँधी के मरणोपरांत सोनिया की रैली याद कीजिये | उकसाना सीखना है तो भ्रष्टाचार विरोध के आन्दोलन के तुरंत बाद राहुल गाँधी का प्रेस कांफ्रेंस में कागज़ फाड़ना याद कीजिये | जयललिता के जेल जाने पर लोगों की आत्महत्या याद कीजिये, बरसों बिना विकास के बंगाल में टिके रहने वाले ज्योति बासु को याद कीजिये |
वंश कई हैं कोई भी उठा लीजिये, जो लोगों पर नाज़ी होने का आरोप लगाते हैं वो सब ये गोएब्बेल्स वाले तरीके आजमाते दिख जायेंगे | अब अगर आपका ध्यान गया हो तो यहाँ गिनती उलटी है | शुरू दस पर और ख़त्म एक पर होती है | इस से दो पैराग्राफ पढ़ते ही आपको लगने लगेगा की अगला वाला मुद्दा, इस वाले तरीके से भी ज्यादा जरूरी होगा |
इसी मान्यता के साथ, आपने, पढ़ते पढ़ते पूरा 3150 शब्द का लेख पढ़ डाला है | गोएब्बेल्स का एक तरीका हमने आप पर आजमा दिया |
आनंद कुमार जी के फेसबुक प्रोफाईल की लिंक यह है - https://www.facebook.com/anand.ydr
अडोल्फ़ हिटलर की पार्टी नाज़ी पार्टी के नाम से जानी जाती है (सही नाम नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी था) | इसे कई बार सौ फीसदी नियंत्रण वाली सबसे भयावह सरकार कहा जाता है | कई बार अचरज होता है की बीसवीं सदी में कोई ऐसे लोगों को अपने इशारों पर कैसे घुमा सकता है ! लेकिन नाज़ी सिर्फ़ सबसे क्रूर सरकार ही नहीं थे, वो प्रचार प्रसार के सबसे माहिर खिलाड़ी थे | इस काम के लिए हिटलर ने जोसफ गोएबेल्स नाम के एक व्यक्ति को नियुक्त किया था | प्रचार के तरीके सीखने के लिए उसके तरीकों से ज्यादा कारगर कोई तकनीक आज भी नहीं पढाई जाती | आइये उसी गोएबेल्स के तरीकों पर एक नज़र डालते हैं |
10. पोस्टर – प्रतीकों, इशारों के जरिये आपनी बात सामने रखना
हिटलर और उसके साथी जानते थे की इस तरीके का अच्छा इस्तेमाल अपने राजनैतिक फ़ायदे के लिए कैसे किया जाता है | अपने खुद के इलाकों में और नाज़ियों के जीते हुए इलाकों में सारी दीवारें नाज़ी नारों से रंगी होती थी | पोस्टर जगह जगह चिपकाये जाते थे, और हर खाली दिवार पर नारे लिखे होते थे | कविताओं, नारों के जरिये अपनी बात, बहुत सस्ते ढंग से, नारों के जरिये, बार बार लोगों के सामने रख दी जाती थी | देश के अन्दर उन पोस्टरों का मकसद होता था उत्पादन को बढ़ावा देना और जीते हुए इलाकों में वो कहते थे “आप सीमा पर है”, लड़ना आपका धर्म है ऐसा सन्देश जाता था |
अब इसके उदाहरण में “कोंग्रेस का हाथ आपके साथ” जैसे नारे को देखिये | थोड़े साल पहले के “गरीबी हटाओ” या फिर “जय जवान जय किसान” को सुनिए | बैंकों और कई उपक्रमों को निजी से सरकारी कर दिया गया | इसके थोड़े समय बाद हरित क्रांति, श्वेत क्रांति जैसे अभियान चलाये गए | घर पर उत्पादन बढ़ाना था, इसलिए “गरीबी हटाओ” और “जय किसान”, वहीँ एक बाहर के शत्रु का भय भी बनाये रखना था, इसलिए “जय जवान” भी होगा “जय किसान” के साथ | इन सब के बीच नेहरु, इन्दिरा और राजीव के चेहरे रखे गए बीस बीस साल के अंतराल से | ऐसा नहीं था की और दूसरे नेता प्रधानमंत्री नहीं थे कांग्रेस से, लेकिन एक ही चेहरे को लगातार सामने रखना जरूरी था | इसलिए लाल बहादुर शास्त्री पुराने ज़माने में और नए ज़माने में नरसिम्हा राव दरकिनार कर दिए गए | एक ही परिवार, एक ही वंश आपका तारनहार है, इसलिए नेहरु गाँधी परिवार ही आगे रहा, हर पोस्टर पर हर नारे के साथ आपकी आँखों के सामने | इसे ही धीमे तरीके से हर सरकारी योजना का नाम एक ही परिवार के नाम पर कर के पुष्ट किया गया | आप चाहे भी तो भी “गाँधी” सुने बिना नहीं रह सकते | सारी योजनायें इन्दिरा, राजीव के नाम पर ही हैं, गाँधी तो नाम में रहेगा ही |
9. जातिवाद– अल्पसंख्यको को आपका शत्रु बताना
प्रथम विश्व युद्ध और 1929 के वाल स्ट्रीट के नुकसान की वजह से उस समय जर्मनी की हालत बड़ी ख़राब थी | जैसे बरसों भारत की आर्थिक स्थिति अमरीकी डॉलर के गिरने और अरब के तेल की कीमतों के उठने की वजह से रही हैं, कुछ वैसी ही | इसका इल्ज़ाम नाज़ी पार्टी ने यहूदियों पर डाला | उन्होंने बार बार ये कहना शुरू किया की यहूदी कौम ही शुद्ध जर्मन लोगों के बुरे हाल के लिए जिम्मेदार हैं | ये यहूदी कौम कहीं और से आ कर जर्मनी के असली वासिंदों का शोषण कर रही है | यहूदियों को बलि का बकरा बनाया गया | उनके कार्टून बाज जैसे नाक वाले, भौं सिकोड़े, दुष्ट व्यक्ति जैसे बनाये गए | मौका पाते ही हर चीज़ का इल्ज़ाम उनपर थोपा गया और ईमानदार “स्वदेशी” व्यक्ति के पैसे चुराने और ठगने का इल्ज़ाम उन पर थोप दिया गया |
अब इस आलोक में भारत के जातिवाद को देखिये | बहुसंख्यक को छोटी जाति का बताया गया, और ब्राम्हण, राजपूत, कायस्थ जैसी जातियों को उनका शोषण करने वाला साबित किया गया |समर्थन में एक ऐसे ग्रन्थ (मनुस्मृति) का उदाहरण उछाला जाने लगा जिसके सत्रह अलग-अलग पाठ हैं | किसी ने ये बताया की किस राजा ने किस काल में इस ग्रन्थ के हिसाब से शाषण किया था ? नहीं न ? आपने पुछा भी नहीं होगा | पूछ के देखिये, पता भी नहीं चलेगा |
लेकिन बहुसंख्यक की गरीबी का इल्ज़ाम किसी कपोल-कल्पित ब्राम्हणवाद पर थोप कर “गोएबेल्स” के उपासक निश्चिन्त थे | बिना साक्ष्य, बिना प्रमाण किसी ब्राम्हणवाद को दोष देकर वो अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त रहे | आजादी के इतने सालों में मनुस्मृति के बदले संविधान लगा देने पर भी शिक्षा, स्वास्थ या जीवन शैली जैसी चीजों में बहुसंख्यक समुदाय की हालत और ख़राब ही क्यों हुई है ये किसी ने नहीं पुछा | हर कमी के लिए कहीं बाहर से आ कर बसे "आर्य" जिम्मेदार थे |
यहाँ आप समाज के एक तबके को डरा कर रखना भी देख सकते हैं | एक समुदाय विशेष को कभी ये नहीं बताया जाता की आपकी शिक्षा या आर्थिक बेहतरी के लिए “गोएबेल्स” समर्थक क्या कर रहे हैं | ये भी नहीं बताया जाता की भारत में तीन लाख मस्जिद हैं जितने दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं हैं | सिर्फ ये पूछना है की अगर आप बहुसंख्यक हैं तो आप ब्राम्हणवादी तो नहीं ? या “सेक्युलर” हैं या नहीं | धुर्विकरण का काम पूरा हो जायेगा |
8. रेडियो, टीवी, इन्टरनेट – जन संचार के माध्यमों पर कब्ज़ा
1933 में जोसेफ गोएब्बेल्स ने कहा था की रेडियो सिर्फ 19वीं ही नहीं बल्कि 20वीं सदी में भी उतना ही असरदार माध्यम रहेगा, वो इसे “आठवीं महान शक्ति” मानता था | उसने जर्मन सरकार से रडियो में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों के उत्पादन में आर्थिक छूट (subsidy) भी दिलवा दी थी ताकि सस्ते रडियो का बनना शुरू हो सके | इन रडियो सेटों की क्षमता इतनी ही होती थी की वो पास के स्टेशन पकड़ सकें | इस तरह लगातार जर्मन और ऑस्ट्रिया के स्टेशन से प्रचार जनमानस तक पहुँचाया जाता था | द्वित्तीय विश्व युद्ध शुरू होने तक पूरा देश ही रडियो के जाल में आ चुका था | इसके जरिये उत्तेजक भाषण और ख़ास तौर पर डिजाईन किये हुए “समाचार” पूरे देश में सुनाये जाते थे |
अब इसे पुरानी फिल्मों के रडियो के साथ याद कीजिये | ब्लैक एंड वाइट के ज़माने में एक बड़ा सा सनमायका का डब्बे जैसा रेडियो होता था | फिल्मों में ये सिर्फ अमीर लोगों के घरों में दिखता था | फिर इन्दिरा गाँधी के भाषण जब रेडियो पर आने शुरू हुए, लगभग उसी ज़माने में सस्ते ट्रांजिस्टर भी आने शुरू हो गए | ये बिना बिजली के बैटरी से चलते थे, गाँव देहात जहाँ बिजली नहीं पहुँचती थी वहां भी कांग्रेस की आवाज पहुँच जाती थी | जब जमाना टीवी पे पहुँच गया और “गरीवी हटाओ” के नारे के वाबजूद गरीबी नहीं हटी तो एक नया ट्रांजिस्टर नेपाल से आ गया, इसमें रिचार्ज होने वाली बैट्री लगती थी, कीमत और भी कम | “हमने देखा है, और हम देखते आये हैं की..” सुनाई देता रहा | चुनाव के ज़माने में इसका इस्तेमाल केजरीवाल ने भी किया था | आजकल हमारे प्रधानसेवक भी इसे चलाना सीख रहे हैं |
7. फिल्म और सिनेमा – मनोरंजन के जरिये
जर्मन घरों के अन्दर तक घुसने के लिए नाज़ी पार्टी ने वहां भी नियंत्रण किया जहाँ जनता पैसे खर्च करके जाती थी | 1933 में ही Department of Film भी बना दिया गया, इसका एकमात्र मकसद “जर्मन लोगों को समाजवादी राष्ट्रवाद का सन्देश” देना था | शुरू में इन्होने शहरों में फिल्म दिखाना शुरू किया, फिर धीरे धीरे नाज़ी सिनमा बनाना भी शुरू किया | दो अच्छे उदाहरण होंगे Triumph of Will जिसमे की 1934 के नुरेमबर्ग की रैली का किस्सा है और The Wandering Jew जो की 1940 में आई थी और यहूदी लोगों को बुरा दिखाती थी |
अब भारत की फिल्मों को देखिये, हाल के विश्वरूपम को याद कीजिये की कैसे उसका प्रदर्शन रोका गया था, फिर हैदर को याद कीजिये | मंगल पाण्डेय में दिखाई मंगल पाण्डेय की तस्वीर याद कीजिये, सरफ़रोश का वो अल्पसंख्यक सब इंस्पेक्टर याद कीजिये जो की देशभक्त था, लेकिन कोई उसे पूछता नहीं था | रंग दे बसंती का सीधा साधा सा अल्पसंख्यक युवक याद कीजिये जो अपने चाचा के कट्टरपंथी रवैये पर भड़क जाता है, फिर उस दुसरे बहुसंख्यक समुदाय के युवक को याद कीजिये की कैसे दिखाते हैं की वो नेताओं के बहकावे में था | अब नयी वाली किसी फिल्म PK को भी याद कर लीजिये |
अगर ये कहने की सोच रहे हैं की ऐसे धीमे से इशारे से क्या तो ये याद रखियेगा की फिल्म में हीरो “कोका कोला” या “पेप्सी” पीता तभी दिखाया जाता है जब ये कंपनी पैसे दे रही होती हैं | कौन सा लैपटॉप इस्तेमाल होगा उसके भी पैसे मिलते हैं | अगर कंपनी ने पैसे नहीं दिए तो, कंपनी का Logo धुंधला कर दिया जाता है |
6. अख़बार – छपने वाले दैनिक पर नियंत्रण
विचार और मंतव्य को मोड़ने का सबसे शशक्त माध्यम अख़बार होता है | नाज़ी अख़बारों में सबसे कुख्यात था Der Sturmer (The Attacker या हमलावर) | गोएरिंग के दफ्तर में इस अख़बार पर पाबन्दी थी, इसे जूलियस स्ट्रैचर छापता था | अपने अश्लील लेखन, तस्वीरों, भेदभाव भरे लेखों की वजह से ये दुसरे पार्टी के सदस्यों में बड़ा ही प्रचलित था |हिटलर खुद भी इसकी बड़ी तारीफ़ करता था, कहता था ये सीधा “सड़क के आदमी” से बात करती है और वो इसे मज़े से पहले पन्ने से आखरी पन्ने तक पढता है |
अभी का हमारा समय देखें तो कुछ “सामना” और “पांचजन्य” जैसे हिंदी अख़बार हैं, या फिर “रणबीर” जैसे उर्दू में कुछ | इन्हें ख़रीदने वाले लोगों वैचारिक झुकाव एक तरफ़ होता है तभी वो इसे पढ़ रहे होते हैं | लेकिन इनके अलावा हमारे पास कई और अख़बार हैं जो की निष्पक्ष होने का दावा करते हैं | चाहे वो हिंदी के “दैनिक जागरण”, “जनसत्ता”, “हिंदुस्तान टाइम्स” या “प्रभात खबर” जैसे हों या फिर “टाइम्स ऑफ़ इंडिया”, या “हिन्दू” जैसे अंग्रेजी अख़बार, पढ़ने वालों को उनकी राजनैतिक निष्ठा का पता रहता है | हर रोज़ सुबह थोड़ा थोड़ा करके कैसे आपको अपने विचारों से भरा जाता है इसका अंदाजा तो आज के सभी पढ़े लिखे भारतीय लोगों को है | एक सुना है “इंडिया टुडे” ग्रुप होता था, काफी चर्चा में था, क्या हुआ पता नहीं !
5. आत्मकथा – किताबों के जरिये पार्टी को “दिव्य” बताना
हिटलर ने जेल में Mein Kampf लिखना शुरू किया था, उस समय Munich Putsch नाकामयाब हो गया था | अपने जीवन में अपनी राजनैतिक विचारधारा का योगदान, और एक काल्पनिक शत्रु के विरुद्ध वैमनस्य को फ़ैलाने का किताब से अच्छा तरीका नहीं था | किन्ही सोलह पार्टी सदस्यों की मृत्यु को शहादत घोषित करते हुए इस कथा को उसने अपने पूरे जीवन काल में जिन्दा रखा | करीब एक करोड़ प्रतियाँ इसकी द्वित्तीय विश्व युद्ध के समाप्त होने तक बिक चुकी थी | आज भी बिकती हैं, वैसे मुस्सोलनी का कहना था की ये किताब “ऐसे बोरिंग टोन में लिखी गई है की वो इसे कभी पूरा पढ़ नहीं पाया” |
इसमें कुछ बताने की शायद ही जरुरत है, अपने आस पास किसी किताबों के शौक़ीन आदमी से पूछ कर देखिये | दो चार ऐसी किताबों का नाम पता चल जायेगा जो लगभग हर किताब पढ़ने वाले ने कभी न कभी खरीदी है |
इसके अलावा आप अपने स्कूल कॉलेज की इतिहास की किताबें उठा लीजिये | भारत के 300 AD से 1100 AD तक का इतिहास दूंढ़ लीजिये, फ़ौरन दिख जायेगा की कैसे स्वर्ण काल कहे जानेवाले गुप्त काल के सिर्फ़ एक राजा का जिक्र है | कैसे “Headless Statue of Kanishka” की तस्वीर तो होती है लेकिन उसके काल का वर्णन नहीं होता | हर राजवंश 250-300 साल में ख़त्म हो जाता है, लेकिन 800 साल राज करने वाले चोल साम्राज्य का जिक्र नहीं है | बड़े भवनों का जिक्र हो तो आप ये तो बता सकते हैं की ताजमहल किसने बनवाया लेकिन ये नहीं की अजंता और एल्लोरा की गुफाएं किसने बनवाई | आप ये तो बता दें शायद की क़ुतुब मीनार किसने बनवाया लेकिन क्या तोड़ कर् बनाया था ये नहीं पता | यहाँ तक की मुग़ल साम्राज्य में भी आप जहाँगीर और बहादुर शाह जफर के बीच के राजाओं का नाम भी नहीं जानते | नहीं बहादुर शाह जफ़र जहाँगीर का बेटा नहीं था !
इन सारे लोगों का जिक्र किस के महिमामंडन के लिए किया गया ? और पिछले पचास साल को इतिहास मानते भी नहीं जब की आज का भारत तो इसी 1947 से आज तक में बना है न ?
4. विरोधियों के खिलाफ दुष्प्रचार – अपने विरोधी को राक्षस बताना
नाज़ी कई लोगों को अपना विरोधी मानते थे | देश के अन्दर भी और विदेशों में भी उनपर प्रचार का हमला जारी रहता था | किसी भी विचारधारा पर विदेशी ज़मीन पर हमला करने के लिए प्रचार बहुत अच्छा हथियार था | विरोधियों को ब्रेन वाश का शिकार, बुद्धू दिखाया जाता था, और जर्मन लोगों को बौध्दिक तौर पर उनसे श्रेष्ठ बताया जाता था |
अब जब राक्षस और आदमखोर भेड़ियों की बात छिड ही गई है तो कौन किस विरोधी को नरभक्षी, इंसानों के खून से रंगे हाथ वाला बताता था ये भी याद आ गया होगा ! चुनावों को ज्यादा दिन तो हुए नहीं हैं | अपने विरोधी दल के समर्थकों को मानसिक रूप से पिछड़ा, बौध्दिक क्षमता न इस्तेमाल करने वाला अंध भक्त, मैला खाने वाला, किसी संगठन के हाथों खेलने वाला कहना तो अब भी चलता ही रहता है |
ये भी गोएब्बेल्स का ही एक तरीका था|
3. मिथकीय कहानियां, लोक कथाएं और धार्मिक मान्यताएं
नाज़ी विचारधारा के “volk” (फोल्क) में मिथक और लोककथाओं का बड़ा महत्व था | नाज़ी पार्टी की अपनी मान्यताएं धर्म पर स्पष्ट नहीं थीं, हिटलर के मामले में तो कहा जा सकता है की वो भटका रहता था | लेकिन धार्मिक प्रतीकों के महत्व का गोएब्बेल्स को अच्छे से पता था | अक्सर ही इसाई प्रतीक चित्रों की मदद प्रचार में किया करते थे नाज़ी | इनका मकसद साफ़ था, प्राचीन जर्मन सभ्यता को लोगों के दिमाग में आगे लाना | स्वस्तिक जैसा निशान उनकी पहचान आज भी है | कई पुराने पोस्टर आज देखें तो पुराने ट्युटोनिक भगवानों के प्रतीक चिन्ह भी दिख जायेंगे |
अब अभी के भारत पर आयेंगे तो अभी हाल की घटना थी जिसमे अचानक से कोई आ कर “महिषासुर” को देवता घोषित कर रहा था | यहाँ धार्मिक मान्यताओं की अस्पष्टता तो दिखेगी ही, प्राचीन हिन्दू प्रतीक चिन्हों का अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल भी दिख जायेगा | इसके अलावा अभी पच्चीस दिसंबर को मनाया गया “डेविल्स डे” भी है | इसमें अनेक ईश्वर को मानने (हिन्दू धर्म की तरह) को निशाने पे लेना भी दिखेगा | धार्मिक मान्यताएं अस्पष्ट होने के उदाहरण वैसे भी राजनीति और अन्य क्षेत्रों में भरे पड़े हैं | होली पे पानी की बर्बादी न करने की सलाह आती है, दिवाली पर लक्ष्मी के घर आने की हंसी उड़ाई जाती है, बकरीद पर अहिंसा का पाठ भी पढ़ा देंगे !!
लेकिन, किन्तु, परन्तु, Thanks Giving पर मारे गए तीतरों पर आत्मा नहीं रोती और पता नहीं कैसे जिस Santa Clause का पूरे बाइबिल में जिक्र नहीं वो रात गए घर में गिफ्ट रखने आता है तो वो अन्धविश्वास तो हरगिज़ नहीं होता !
2. संगीत और नृत्य – अच्छे को ग्रहण कर लेना
हिटलर के मुताबिक जो तीन अच्छे संगीतकार थे, और जर्मन संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते थे, वो थे Ludvig van Beethoven, Anton Bruckner और Richard Wagner | इनमे से Wagner के यहूदियों के प्रति विचार कुछ अच्छे नहीं थे ( उन्होंने 1850 में “Judaism in Music” नाम का एक लेख लिखा था जिसमे यहूदियों को सभ्यता को जहर देने का दोषी करार दिया गया था ) | नाज़ी पार्टी ने उनके लेख के वो भाग उठाये जिनमे यहूदियों को भला बुरा कहा गया था और बाकि का हिस्सा गायब कर दिया | नाज़ी प्रचार तंत्र में जर्मन अतीत के Parsifal, और Der Ring des Nibelungen को प्रमुखता से जगह दी गई | इस तरह जर्मन अतीत के महिमामंडन के लिए संगीत का इस्तेमाल हुआ और उससे विरोध को कुचलने का एक अनोखा तरीका नाज़ियों को मिल गया |
वापिस इसे समझने के लिए अभी के समय में आते हैं | Precurssion instrument संगीत में ढोल जैसे वाद्य यंत्रों को कहा जाता है | कोई भी Drum इसी श्रेणी में डाला जायेगा | एक भ्रान्ति फैला दी गई की इनका इस्तेमाल सिर्फ़ ताल देने के लिए किया जा सकता है, सुर में इनका योगदान नहीं होता और इनसे हमेशा एक सा ही सुर निकलता है | ऐसा कहते समय तबला-डुग्गी, मृदंग जैसे वाद्य यंत्रों को देखा ही नहीं गया, किसी ने विरोध भी नहीं किया | नतीजा वही हुआ जो होना था | आज पाश्चात्य संगीत के साथ जब ये mixed music की तरह आता है तो जनमानस इसे पचा जाता है | कभी किसी पंद्रह से पच्चीस के युवक या युवती को ये सिखाने की कोशिश करें तो वो भारतीय संगीत के सात सुरों के बदले “So, La, Ri, To...” वाले सात सुर सीखना ज्यादा पसंद करेगा | करीब साठ साल का भारतीय संगीत और नृत्य को नीचा दिखाने की कोशिश काम आई है यहाँ |
1. फुहरर (हिटलर को इसी नाम से बुलाते थे)
नाज़ियों के पास जो प्रचार के तरीके थे उनमे से सबसे ख़ास था फुहरर यानि हिटलर खुद ! एक करिश्माई व्यक्तित्व और प्रखर वक्ता के तौर पर हिटलर अपने तर्क को सबसे आसान भाषा में लोगों तक पहुंचा सकता था | कठिन से कठिन मुद्दों पर वो आम बोल-चाल की भाषा में बात करता था | भीड़ के बौध्दिक क्षमता पर नहीं उसका ध्यान उनकी भावनाओं पर होता था | छोटी से छोटी दुर्घटना को बड़ा कर के दिखाना, बरसों पुराने जख्मों को ताज़ा कर देना उसके बाएं हाथ का खेल था | बिना हिटलर के नाज़ी कुछ भी नहीं |
अब अभी के समय में बरसों पुराने जख्मों को कुरेदना अगर याद दिलाना पड़े तो कहना होगा “Poverty is a state of Mind” | किसी ख़ास मुद्दे पर नहीं, सिर्फ विरोध की जन भावना को उकसाना याद दिलाना भी समय बर्बाद करना होगा | अपने लिए समर्थन में जन भावनाओं का इस्तेमाल करना, अपने विकास अपने काम को नहीं, नेता के लिए समर्थन को जगाना सीखना हो तो इन्दिरा गाँधी की मृत्यु के बाद की राजीव गाँधी की जीत और राजीव गाँधी के मरणोपरांत सोनिया की रैली याद कीजिये | उकसाना सीखना है तो भ्रष्टाचार विरोध के आन्दोलन के तुरंत बाद राहुल गाँधी का प्रेस कांफ्रेंस में कागज़ फाड़ना याद कीजिये | जयललिता के जेल जाने पर लोगों की आत्महत्या याद कीजिये, बरसों बिना विकास के बंगाल में टिके रहने वाले ज्योति बासु को याद कीजिये |
वंश कई हैं कोई भी उठा लीजिये, जो लोगों पर नाज़ी होने का आरोप लगाते हैं वो सब ये गोएब्बेल्स वाले तरीके आजमाते दिख जायेंगे | अब अगर आपका ध्यान गया हो तो यहाँ गिनती उलटी है | शुरू दस पर और ख़त्म एक पर होती है | इस से दो पैराग्राफ पढ़ते ही आपको लगने लगेगा की अगला वाला मुद्दा, इस वाले तरीके से भी ज्यादा जरूरी होगा |
इसी मान्यता के साथ, आपने, पढ़ते पढ़ते पूरा 3150 शब्द का लेख पढ़ डाला है | गोएब्बेल्स का एक तरीका हमने आप पर आजमा दिया |
Published in
ब्लॉग
सोमवार, 22 दिसम्बर 2014 13:22
Do You Know About 10/40 Joshua Project?
क्या आप “मिशनरी प्रोजेक्ट” के 10/40
खिड़की
के बारे में जानते हैं?
कई पाठक वेटिकन और मिशनरी द्वारा संगठित, सुविचारित एवं
धूर्त षडयंत्र सहित किए जाने वाले ईसाई धर्मान्तरण के बारे में जानते हैं. यह पूरा
धर्मांतरण अभियान बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से वर्षों से जारी है. समूचे विश्व को
ईसाई बनाने का उद्देश्य लेकर बने हुए “जोशुआ प्रोजेक्ट” के अंतर्गत धर्मांतरण हेतु सर्वाधिक ध्यान दिए जाने
वाले क्षेत्र के रूप में एक काल्पनिक “10/40
खिड़की” को
लक्ष्य बनाया गया है.
इस जोशुआ प्रोजेक्ट के अनुसार पृथ्वी के नक़्शे पर, दस
डिग्री अक्षांश एवं चालीस डिग्री देशांश के चौकोर क्षेत्र में पड़ने वाले सभी देशों
को “10/40 खिड़की” के नाम से पुकारा जाता है. इस
खिड़की में उत्तरी अफ्रीका, मध्य पूर्व एवं एशिया का एक बड़ा भूभाग आता है. वेटिकन
के अनुसार इस 10/40
खिड़की के देशों में सबसे कम ईसाई धर्मांतरण हुआ है. वेटिकन का लक्ष्य हा कि इस
खिड़की के बीच स्थित देशों में तेजी से, आक्रामक तरीके से, चालबाजी से, सेवा के नाम
पर या किसी भी अन्य तरीके से अधिकाधिक ईसाई धर्मांतरण होना चाहिए. जोशुआ प्रोजेक्ट
के आकलन के अनुसार इस “खिड़की” में
विश्व के तीन प्रमुख धर्म स्थित हैं, इस्लाम, हिन्दू एवं बौद्ध. यह तीनों ही धर्म
ईसाई धर्मांतरण के प्रति बहुत प्रतिरोधक हैं.
पहले इस खिड़की के अंदर दक्षिण कोरिया
और फिलीपींस भी शामिल थे, परन्तु इन देशों की जनसंख्या 70% से अधिक ईसाई हो जाने के बाद उन्हें इस खिड़की से बाहर
रख दिया गया है. वेटिकन के अनुसार इस खिड़की में शामिल देशों में सबसे ‘मुलायम और
आसान”
लक्ष्य भारत है, जबकि सबसे कठिन लक्ष्य इस्लामी देश मोरक्को है. वेटिकन ने गत वर्ष
ही “सॉफ्ट
इस्लामी” इंडोनेशिया
को भी इस खिड़की में शामिल कर लिया है. विश्व की कुल आबादी में से चार अरब से अधिक
लोग इस 10/40
खिड़की के तहत आती है, इसलिए यदि ईसाई धर्म का अधिकाधिक प्रसार करना हो तो इन देशों
को टारगेट बनाना जरूरी है. क्योंकि इस “खिड़की” से बाहर स्थित देशों जैसे यूरोपीय देश, रूस, अमेरिका,
कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड में से अधिकाँश देश पहले ही “घोषित रूप से ईसाई देश” हैं
और अधिकाँश देशों में “बाइबल” की
शपथ ली जाती है.
एशियाई देशों में चर्च ने सर्वाधिक सफलता हासिल की है “नास्तिक” माने
जाने वाले “वामपंथी” चीन
में. आज की तारीख में चीन में लगभग 17 करोड़
ईसाई (कैथोलिक व प्रोटेस्टेंट मिलाकर) हैं. चीन में वेटिकन के प्रवक्ता डॉक्टर जॉन
संग कहते हैं कि हमें विश्वास है कि सन 2025 तक
चीन में ईसाईयों की आबादी 25 करोड़
पार कर जाएगी. भारत में “घोषित
रूप से”
ईसाईयों की आबादी लगभग छह करोड़ है, जबकि अघोषित रूप से छद्म नामों से रह रही ईसाई
आबादी का अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल है. आईये एक संक्षिप्त उदाहरण से समझते हैं कि
किस तरह से मिशनरी जमीनी स्तर पर संगठित स्वरूप में कार्य करते हैं.
प्रस्तुत चित्र में दिखाए गए सज्जन हैं “पास्टर
जेसन नेटाल्स”. नाम
से ही ज़ाहिर है कि ये साहब ईसाई धर्म के प्रचारक हैं.
पास्टर जेसन जुलाई से नवंबर 2013 तक भारत में धर्म प्रचार यात्रा पर थे. इन्होंने अपने
कुछ मित्रों के साथ आंध्रप्रदेश के विशाखापट्टनम जिले के कुछ अंदरूनी गाँवों में
ईसाई धर्म का प्रचार किया, और इसकी कुछ तस्वीरें ट्वीट भी कीं. जैसा कि चित्र में
देखा जा सकता है कि “पास्टर
जेसन” एक
मंदिर के अहाते में ही ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे हैं और तो और ट्वीट में इस “ईसाई
धर्म से अनछुए गाँव” की
गर्वपूर्ण घोषणा भी कर रहे हैं. भोलेभाले (बल्कि मूर्ख) हिन्दू बड़ी आसानी से इन “सफ़ेद
शांतिदूतों” की
मीठी-मीठी बातों तथा सेवाकार्य से प्रभावित होकर इनके जाल में फँस जाते हैं.
संक्षेप में :- तात्पर्य यह है कि “घर
वापसी” जैसे
आडंबरपूर्ण और हो-हल्ले वाले कार्यक्रमों का कोई विशेष फायदा नहीं होगा. यदि ईसाई
मिशनरी का मुकाबला करना है, तो संगठित, सुविचारित, सुव्यवस्थित एवं सतत अभियान
चलाना होगा. जाति व्यवस्था एवं गरीबी को दूर करना होगा.
Published in
ब्लॉग
मंगलवार, 16 दिसम्बर 2014 14:19
Dalit Christians in Tamilnadu
“दलित
ईसाईयों”
द्वारा वेटिकन दूतावास के सामने विरोध प्रदर्शन...
तमिलनाडु
के कई तमिल कैथोलिक संगठनों ने चेन्नई में वेटिकन दूतावास के सामने “दलित
ईसाईयों”(?)
के साथ छुआछूत और भेदभाव के खिलाफ जमकर प्रदर्शन किया. एक पूर्व-दलित वकील फ्रेंकलिन
सीज़र थॉमस ने यह विरोध मार्च आयोजित किया था, उन्होंने बताया कि सन 2011
में जब तिरुची के एक क्रिश्चियन विद्यालय से दलित किशोर माईकल राजा को अपमानजनक
पद्धति से निकाल दिया गया था, तब से लेकर आज तक दक्षिण तमिलनाडु के रामनाथपुरम तथा
शिवगंगा जिलों में उच्च वर्गीय कैथोलिक्स तथा दलित ईसाईयों के बीच कई संघर्ष हो
चुके हैं, तथा कई दलितों को चर्च में घुसने से मना कर दिया गया है.
इस
प्रदर्शन में शामिल भीड़ को देखते हुए चेन्नई पुलिस ने वेटिकन दूतावास के सामने
सुरक्षा कड़ी कर दी थी. इसमें शामिल कुछ लोगों को ही अंदर जाने दिया गया, जिन्होंने
वेटिकन के राजदूत को साल्वातोर पिनाशियो को अपना ज्ञापन सौंपा. इस अवसर पर प्रेस
से वार्ता करते हुए एक संगठन के अध्यक्ष कुन्दथाई आरासन ने कहा कि उन्हें स्थानीय
चर्चों एवं डायोसीज के निराशाजनक रवैये के कारण मजबूर होकर वेटिकन के समक्ष गुहार
लगानी पड़ रही है. दलित ईसाईयों के साथ तमिलनाडु में बेहद खराब व्यवहार हो रहा है. अपने
ज्ञापन में संगठनों ने सोलह बिंदुओं पर अपनी माँगें रखी हैं. दलितों के साथ चर्च
में छुआछूत, बदसलूकी, दलितों को पादरी नहीं बनाए जाने तथा कब्रिस्तान में अलग से
दफनाए जाने एवं अपमानजनक नामों से बुलाए जाने को लेकर कई गंभीर शिकायतें हैं, जिन
पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है. फ्रेंकलिन ने कहा कि जब तक हमारी माँगें पूरी नहीं
होतीं, तब तक हमारा विरोध प्रदर्शन जारी रहेगा.
पुअर
क्रिश्चियन लिबरेशन संघ का कहना है कि जो दलित कैथोलिक ईसाईयों के बहकावे में आकर हिन्दू
धर्म छोड़कर ईसाई बने, उन्हें अब गहन निराशा हो रही है. उन्हें लगने लगा है कि उनके
साथ धोखा हुआ है. उल्लेखनीय है कि इससे पहले भी सन 2011 के अक्टूबर में लगभग 200 दलित
पादरियों ने चेन्नई में प्रदर्शन किया था क्योंकि उस समय भी रामेश्वरम में झूठे
आरोप लगाकर छः दलित ईसाई पादरियों को नौकरी और चर्च से निकाल दिया गया था. दलित
पादरियों का आरोप है कि हमेशा विशेष अवसरों एवं खास प्रार्थनाओं के मौके पर उन्हें
न तो कोई अधिकार दिए जाते हैं और ना ही उनके हाथों कोई धार्मिक प्रक्रियाएँ पूरी
करवाई जाती हैं. प्रदर्शनकारियों में शामिल ननों ने कहा कि हिन्दू धर्म की जाति
व्यवस्था से हताश होकर वे ईसाई बने थे, परन्तु यहाँ आकर भी उनके साथ वैसा ही
बर्ताव हो रहा है.
दलित
ईसाई विचारक एवं जेस्यूट वकील फादर येसुमारियन कहते हैं कि यह कैथोलिक चर्च के
दोहरे मापदण्ड एवं चरित्र दर्शाता है. हम यह मानकर ईसाई बने थे कि यहाँ “जाति
की दीवार” नहीं
होगी, परन्तु हमारे तो कब्रिस्तान भी अलग बना दिए गए हैं. मानवता, शान्ति और
पवित्रता का नारा देने वाले वेटिकन ने भी जातियों एवं उच्चवर्गीय कैथोलिकों को
ध्यान में रखकर अलग-अलग कब्रिस्तान बनाए हैं, यह बेहद निराशाजनक है. देश के
संविधान ने जातिप्रथा एवं छुआछूत को भले ही गैरकानूनी कहा है, परन्तु कैथोलिक चर्च
एवं ईसाई समाज में इस क़ानून का कोई असर नहीं है. धर्म-परिवर्तित ईसाईयों से कोई भी
उच्चवर्गीय कैथोलिक विवाह करना पसंद नहीं करता है. चेन्नई के अखबारों में छपने वाले
विज्ञापनों को देखकर सहज ही अंदाजा हो जाता है, जिनमें कैथोलिक युवाओं वाले कालम
में साफ़-साफ़ लिखा होता है कि “सिर्फ कैथोलिक ईसाई ही विवाह प्रस्ताव भेजें”.
कुछ
तथाकथित प्रगतिशील एवं बुद्धि बेचकर खाने वाले वामपंथी बुद्धिजीवी अक्सर हिन्दू
धर्म को कोसते समय “ईसाई
पंथ” का
उदाहरण देते हैं, लेकिन वास्तविकता तो यही है कि चर्च में भी दलितों के साथ वैसा
ही भेदभाव जारी है, लेकिन दलित ईसाईयों और दलित पादरियों की आवाज़ मीडिया द्वारा
अनसुनी कर दी जाती है, क्योंकि प्रमुख मीडिया संस्थानों पर आज भी वामपंथी और
हिन्दू विरोधी ही काबिज हैं. यदि चर्च में होने वाले बलात्कारों एवं दलितों के साथ
होने वाले छुआछूत की ख़बरें मुख्यधारा में आएँगी तो उनकी ही खिल्ली उड़ेगी, इसलिए
ऐसी ख़बरें वे दबा देते हैं और किसी शंकराचार्य के बयान को चार-छह दिनों तक तोडमरोड
कर पेश करते हैं.
चेन्नई
में एक सर्वे के दौरान जब एक NGO ने इन दलित ईसाईयों से पूछा, कि उन्होंने अभी तक अपना
नाम हिन्दू पद्धति एवं जाति का ही क्यों रखा हुआ है? उसका जवाब था कि, इससे “दोहरा
फायदा”
मिलता है... चर्च की तरफ से मिलने वाली राशि, नौकरी, बच्चों की पढ़ाई में छूट के
अलावा हिन्दू नामधारी व दलित होने के कारण जाति प्रमाण-पत्र के सहारे दूसरी शासकीय
योजनाओं एवं नौकरियों में भी फायदा मिल जाता है. दलितों को मिलने वाले फायदे में
से एक बड़ा हिस्सा ये परिवर्तित ईसाई कब्ज़ा कर लेते हैं, परन्तु आश्चर्य की बात यह
है कि कथित दलित नेताओं को यह बात पता है, परन्तु उनकी चुप्पी रहस्यमयी है.
Published in
ब्लॉग
सोमवार, 15 दिसम्बर 2014 12:50
Want to Know About Islam?
इस्लाम को समझना चाहते हैं??
- "क्या आप इस्लाम को समझना चाहते हैं?", उसने मेरी आँखों के सामने कुरआन लहराते हुए पूछा...
- जी... अभी थोड़ा-थोड़ा ही समझ पाया हूँ, ठीक से समझना चाहता हूँ... मैंने जवाब दिया.
- "इस्लाम एक बेहद शांतिपूर्ण धर्म है", आप कुरआन पढ़िए सब जान जाएँगे...
- "जी, वैसे तो अल-कायदा, बोको-हरम, सिमी, ISIS और हिजबुल ने मुझे इस्लाम के बारे में थोड़ा-बहुत समझा दिया है, फिर भी यदि आप आग्रह कर रहे हैं तो मैं कुरआन ले लेता हूँ...
- "लिल्लाह!! उन्हें छोडिए, वे लोग सही इस्लाम का प्रतिनिधित्व नहीं करते...
- अच्छा!! यानी उन्होंने कुरआन नहीं पढ़ी?? या कोई गलती से कोई दूसरी कुरआन पढ़ ली है?, मैंने पूछा.
- नहीं, उन लोगों ने भी कुरआन तो यही पढ़ी है... लेकिन उन्होंने इसका गलत अर्थ निकाल लिया है... वे लोग इस्लाम की राह से भटक गए हैं... कम पढ़े-लिखे और गरीब होंगे. इस्लाम तो भाईचारा सिखाता है..
- जी, हो सकता है... लेकिन मैंने तो सुना है कि ट्विन टावर पर हवाई जहाज चढ़ाने वाला मोहम्मद अत्ता एयरोनाटिक्स इंजीनियर था, और बंगलौर से पकड़ाया ISIS का ट्विटर मेहदी बिस्वास भी ख़ासा पढ़ा-लिखा है...
- आपसे वही तो कह रहा हूँ कि इन लोगों ने इस्लाम को ठीक से समझा नहीं है... आप कुरआन सही ढंग से पढ़िए, हदीसों को समझिए... आप समय दें तो मौलाना जी से आपकी काउंसिलिंग करवा दूँ??
- ".. लेकिन सर, मेरे जैसे नए लोगों की इस्लाम में भर्ती करने की बजाय, आप इराक-अफगानिस्तान-लीबिया-पाकिस्तान जाकर आपकी इस "असली कुरआन" और "सही इस्लाम" का प्रचार करके, उन भटके हुए लोगों को क्यों नहीं सुधारते?? जब मौलाना जी आपके साथ ही रहेंगे तो आप बड़े आराम से सीरिया में अमन-चैन ला सकते हैं... ताकि आपके शांतिपूर्ण धर्म की बदनामी ना हो... तो आप सीरिया कब जा रहे हैं सर??
- "मैं अभी चलता हूँ... मेरी नमाज़ का वक्त हो गया है.."
- सर... सीरिया तो बहुत दूर पड़ेगा, आप मेरे साथ भोपाल चलिए, वहाँ भी ऐसे ही कुछ "भटके" हुए, "कुरआन का गलत अर्थ लगाए हुए" लोगों ने, ईरानी शियाओं के मकान जला दिए हैं, मारपीट और हिंसा की है... वहाँ आप जैसे शान्ति प्रचारक की सख्त ज़रूरत है...
- "मैं बाद में आता हूँ... नमाज़ का वक्त हो चला है..."
=====================
जी, ठीक है, नमस्कार...
.
.
.
- "क्या आप इस्लाम को समझना चाहते हैं?", उसने मेरी आँखों के सामने कुरआन लहराते हुए पूछा...
- जी... अभी थोड़ा-थोड़ा ही समझ पाया हूँ, ठीक से समझना चाहता हूँ... मैंने जवाब दिया.
- "इस्लाम एक बेहद शांतिपूर्ण धर्म है", आप कुरआन पढ़िए सब जान जाएँगे...
- "जी, वैसे तो अल-कायदा, बोको-हरम, सिमी, ISIS और हिजबुल ने मुझे इस्लाम के बारे में थोड़ा-बहुत समझा दिया है, फिर भी यदि आप आग्रह कर रहे हैं तो मैं कुरआन ले लेता हूँ...
- "लिल्लाह!! उन्हें छोडिए, वे लोग सही इस्लाम का प्रतिनिधित्व नहीं करते...
- अच्छा!! यानी उन्होंने कुरआन नहीं पढ़ी?? या कोई गलती से कोई दूसरी कुरआन पढ़ ली है?, मैंने पूछा.
- नहीं, उन लोगों ने भी कुरआन तो यही पढ़ी है... लेकिन उन्होंने इसका गलत अर्थ निकाल लिया है... वे लोग इस्लाम की राह से भटक गए हैं... कम पढ़े-लिखे और गरीब होंगे. इस्लाम तो भाईचारा सिखाता है..
- जी, हो सकता है... लेकिन मैंने तो सुना है कि ट्विन टावर पर हवाई जहाज चढ़ाने वाला मोहम्मद अत्ता एयरोनाटिक्स इंजीनियर था, और बंगलौर से पकड़ाया ISIS का ट्विटर मेहदी बिस्वास भी ख़ासा पढ़ा-लिखा है...
- आपसे वही तो कह रहा हूँ कि इन लोगों ने इस्लाम को ठीक से समझा नहीं है... आप कुरआन सही ढंग से पढ़िए, हदीसों को समझिए... आप समय दें तो मौलाना जी से आपकी काउंसिलिंग करवा दूँ??
- ".. लेकिन सर, मेरे जैसे नए लोगों की इस्लाम में भर्ती करने की बजाय, आप इराक-अफगानिस्तान-लीबिया-पाकिस्तान जाकर आपकी इस "असली कुरआन" और "सही इस्लाम" का प्रचार करके, उन भटके हुए लोगों को क्यों नहीं सुधारते?? जब मौलाना जी आपके साथ ही रहेंगे तो आप बड़े आराम से सीरिया में अमन-चैन ला सकते हैं... ताकि आपके शांतिपूर्ण धर्म की बदनामी ना हो... तो आप सीरिया कब जा रहे हैं सर??
- "मैं अभी चलता हूँ... मेरी नमाज़ का वक्त हो गया है.."
- सर... सीरिया तो बहुत दूर पड़ेगा, आप मेरे साथ भोपाल चलिए, वहाँ भी ऐसे ही कुछ "भटके" हुए, "कुरआन का गलत अर्थ लगाए हुए" लोगों ने, ईरानी शियाओं के मकान जला दिए हैं, मारपीट और हिंसा की है... वहाँ आप जैसे शान्ति प्रचारक की सख्त ज़रूरत है...
- "मैं बाद में आता हूँ... नमाज़ का वक्त हो चला है..."
=====================
जी, ठीक है, नमस्कार...
.
.
.
Published in
ब्लॉग
सोमवार, 15 दिसम्बर 2014 10:13
What Urdu Newspaper Say
जानिए
उर्दू अखबारों में क्या चल रहा है...
उर्दू
अखबार “सियासत” (६ नवंबर के अंक) के अनुसार तेलंगाना सरकार ने अपने ताज़ा बजट में
मुस्लिमों के लिए योजनाओं की झड़ी लगा दी है. मुस्लिम लड़कियों को निकाह के अवसर पर 51000 रूपए दिए जाएँगे, इसके
अलावा वक्फ बोर्ड को उन्नत बनाने के लिए ५३ करोड़, पुस्तकों का अनुवाद उर्दू में
करने के लिए दो करोड़ रूपए तथा मुस्लिम छात्रों को ऋण एवं फीस वापसी में सहायता के
लिए ४०० करोड़ रूपए की व्यवस्था की गई है. इसके अलावा अल्पसंख्यकों को स्वरोजगार शुरू
करने के लिए सौ करोड़ रूपए की धनराशी ब्याज मुक्त कर्जे के रूप में दी जाएगी.
उर्दू हिन्दुस्तान एक्सप्रेस (१२ नवंबर अंक) की खबर के
अनुसार अलग-अलग दलों के टिकट पर चुनाव जीते हुए मुस्लिम विधायकों ने एक संयुक्त
मोर्चा बनाने का फैसला किया है. जमीयत उलेमा द्वारा आयोजित एक समारोह में गुलज़ार
आज़मी ने कहा कि वे भले ही भिन्न-भिन्न पार्टियों के टिकटों से चुनाव जीते हों,
लेकिन “मिल्लत” की समस्याओं को लेकर उनका रुख एक ही रहेगा. आज़मी ने कहा कि
महाराष्ट्र पुलिस जानबूझकर मुस्लिम युवकों को फँसाती है, उनकी आवाज़ संयुक्त रूप से
उठाने तथा उन्हें कानूनी मदद पहुँचाने की दृष्टि से इस मोर्चे का गठन किया जा रहा
है.
अजीजुल-हिंद (२८ अक्टूबर का अंक) लिखता है कि ऑल इण्डिया
मजलिस मुशावरात के अध्यक्ष ज़फरुल इस्लाम ने आरोप लगाया है कि केन्द्रीय जाँच
एजेंसियां कतई विश्वसनीय नहीं हैं और वे बंगाल के बर्दवान धमाके को जानबूझकर
बढाचढा कर पेश कर रही हैं ताकि ममता बनर्जी सरकार एवं मदरसों को बदनाम करके बंगाल
में भी हिन्दू-मुस्लिम एकता में दरार पैदा की जा सके. बंगाल के जमाते इस्लामी
अध्यक्ष मौलाना नूरुद्दीन ने बनर्जी से शिकायत की है कि केन्द्र की मोदी सरकार
धार्मिक ग्रंथों को संदेह के घेरे में लाकर और मदरसों पर जाँच बैठाकर दबाव बढ़ाना
चाहते हैं. उन्होंने दावा किया कि बांग्ला के ख्यात पत्रकार तृणमूल सांसद अहमद हसन
इमरान को झूठे मामलों में फँसाया गया है. भाजपा सरकार ने उन पर सिमी का एजेंट होने
तथा सारधा घोटाले का पैसा बांग्लादेश भेजने का आरोप लगाया है वह गलत है.
अखबार मुंसिफ (३ नवंबर अंक) के अनुसार सऊदी अरब में तलाक
के मामलों में भारी वृद्धि हुई है. पिछले दस
साल में चौंतीस हजार तलाक हुए, जबकि विवाह सिर्फ ग्यारह हजार ही हुए. सऊदी
पत्रिका “अल-सबक” के अनुसार स्मार्टफोन एवं कंप्यूटर के बढ़ते प्रयोग के कारण तलाक
बढ़ रहे हैं. अनजान नंबरों से बुर्कानशीं महिलाओं के स्मार्टफोन पर आने वाले नंबर
देखकर पतियों को उन पर शक होता है और वे तलाक दे देते हैं. पिछले सप्ताह एक महिला
को सऊदी युवक ने सिर्फ इसलिए तलाक दिया क्योंकि वह उसके कहने पर कार का दरवाजा बंद
नहीं कर रही थी. तलाक के अधिकाँश मामले वही हैं जहाँ विवाह को सिर्फ दो या तीन
वर्ष ही हुए हैं.
===============
इन सभी रिपोर्ट्स का अर्थ निकालने के लिए आप स्वतन्त्र हैं... मैं अपना कोई मत नहीं थोपता... :)
Published in
ब्लॉग
शुक्रवार, 05 दिसम्बर 2014 12:52
Saradha Scam and Burdwan Blasts Connection
पश्चिम बंगाल का सारधा चिटफंड घोटाला :- लूट, राजनीति, और आतंक
का तालमेल
कभी-कभी ऐसा संयोग होता है कि एक साथ
दो घटनाएँ अथवा दुर्घटनाएँ होती हैं और उनका आपस में सम्बन्ध भी निकल आता है, जो
उस समय से पहले कभी उजागर नहीं हुआ होता. पश्चिम बंगाल में सारधा चिटफंड घोटाला
तथा बर्दवान बम विस्फोट ऐसी ही दो घटनाएँ हैं. ऊपर से देखने पर किसी अल्प-जागरूक
व्यक्ति को इन दोनों मामलों में कोई सम्बन्ध नहीं दिखाई देगा, परन्तु जिस तरह से
नित नए खुलासे हो रहे हैं तथा ममता बनर्जी जिस प्रकार बेचैन दिखाई देने लगी हैं
उससे साफ़ ज़ाहिर हो रहा है कि वामपंथियों के कालखंड से चली आ रही बांग्लादेशी वोट
बैंक की घातक नीति, पश्चिम बंगाल के गरीबों को गरीब बनाए रखने की नीति ने राज्य की
जनता और देश की सुरक्षा को एक गहरे संकट में डाल दिया है.
जब तृणमूल काँग्रेस के गिरफ्तार सांसद
कुणाल घोष ने जेल में नींद की गोलियाँ खाकर आत्महत्या करने की कोशिश की तथा उधर
उड़ीसा में बीजू जनता दल के सांसद हंसदा को सीबीआई ने गिरफ्तार किया, तब जाकर आम
जनता को पता चला कि सारधा चिटफंड घोटाला ऊपर से जितना छोटा या सरल दिखाई देता है
उतना है नहीं. इस घोटाले की जड़ें पश्चिम बंगाल से शुरू होकर पड़ोसी उड़ीसा, असम और
ठेठ बांग्लादेश तक गई हैं. आरंभिक जांच में पता चला है कि सारधा समूह ने अपने
फर्जी नेटवर्क से 279 कम्पनियाँ खोल रखी थीं, ताकि पूरे प्रदेश से गरीबों के
खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को चूसकर उन्हें लूटा जा सके. सीबीआई का प्रारम्भिक अनुमान
2500 करोड़ के
घोटाले का है, लेकिन जब जाँच बांग्लादेश तक पहुँचेगी तब पता चलेगा कि वास्तव में
बांग्लादेश के इस्लामिक बैंकों में कितना पैसा जमा हुआ है और कितना हेराफेरी कर
दिया गया है. इस कंपनी की विशालता का अंदाज़ा इसी बात से लग जाता है कि गरीबों से
पैसा एकत्रित करने के लिए इनके तीन लाख एजेंट नियुक्त थे. जिस तेजी से इसमें
तृणमूल काँग्रेस के छोटे-बड़े नेताओं के नाम सामने आ रहे हैं, उसे देखते हुए इसके
राजनैतिक परिणाम-दुष्परिणाम भी कई लोगों को भोगने पड़ेंगे.
सारधा चिटफंड स्कीम को अंगरेजी में
“पोंजी” स्कीम कहा जाता है. यह नाम अमेरिका के धोखेबाज व्यापारी चार्ल्स पोंजी के
नाम पर पड़ा, क्योंकि सन 1920 में उसी ने इस प्रकार की चिटफंड योजना का आरम्भ किया था,
जिसमें वह निवेशकों से वादा करता था कि पैंतालीस दिनों में उनके पैसों पर 50% रिटर्न
मिलेगा और नब्बे दिनों में उन्हें 100% रिटर्न मिलेगा. भोलेभाले और बेवकूफ
किस्म के लोग इस चाल में अक्सर फँस जाते थे क्योंकि शुरुआत में वह उन्हें नियत समय
पर पैसा लौटाता भी था. ठीक यही स्कीम भारत में चल रही सैकड़ों चिटफंड कम्पनियाँ भी
अपना रही हैं. बंगाल का सारधा समूह भी इन्हीं में से एक है. ये कम्पनियाँ पुराने
निवेशकों को योजनानुसार ही पैसा देती हैं, जबकि नए निवेशकों को बौंड अथवा पॉलिसी
बेचकर उन्हें लंबे समय तक बेवकूफ बनाए रखती हैं. जाँच एजेंसियों ने पाया है कि
सारधा समूह ने प्राप्त पैसों को लाभ वाले क्षेत्रों अथवा शेयर मार्केट अथवा फिक्स
डिपॉजिट में न रखते हुए, जानबूझकर ऐसी फर्जी अथवा घाटे वाली मीडिया कंपनियों में
लगाया जहाँ से उसके डूबने का खतरा हो. फिर इन्हीं कंपनियों को घाटे में दिखाकर
सारा पैसा धीरे-धीरे बांग्लादेश की बैंकों में विस्थापित कर दिया गया. NIA तथा
गंभीर आर्थिक मामलों की जाँच एजेंसी SFIO ने केन्द्र सरकार से कहा है कि चूंकि
पश्चिम बंगाल पुलिस उनका समुचित सहयोग नहीं कर रही है, इसलिए कम से कम तीन प्रमुख
मीडिया कंपनियों सारधा प्रिंटिंग एंड पब्लिकेशंस प्रा.लि., बंगाल मीडिया प्रा.लि.
तथा ग्लोबल ऑटोमोबाइल प्रा.लि. के सभी खातों, लेन-देन तथा गतिविधियों की जाँच
सीबीआई द्वारा गहराई से की जाए. SFIO ने अपनी जाँच में पाया कि सारधा समूह
का अध्यक्ष सुदीप्तो सेन (जो फिलहाल जेल में है) 160 कंपनियों में निदेशक था, जबकि उसका
बेटा सुभोजित सेन 64 कंपनियों में निदेशक के पद पर था.
सीबीआई को अपनी जाँच में पता चला है
कि भद्र पुरुष जैसा दिखाई देने वाला और ख़ासा भाषण देने वाला सुदीप्तो सेन वास्तव
में एक पुराना नक्सली है. सुदीप्तो सेन का असली नाम शंकरादित्य सेन था. नक्सली
गतिविधियों में संलिप्त होने तथा पुलिस से बचने के चक्कर में 1990 में इसने
अपनी प्लास्टिक सर्जरी करवाई और नया नाम सुदीप्तो सेन रख लिया. बांग्ला भाषा पर
अच्छी पकड़ रखने तथा नक्सली रहने के दौरान अपने संबंधों व संपर्कों तथा गरीबों की
मानसिकता समझने के गुर की वजह से इसने दक्षिण कोलकाता में 2000 लोगों को
जोड़ते हुए इस पोंजी स्कीम की शुरुआत की. सुदीप्तो सेन की ही तरह सारधा समूह की
विशेष निदेशक देबजानी मुखर्जी भी बेहद चतुर लेकिन संदिग्ध महिला है. इस औरत को
सारधा समूह के चेक पर हस्ताक्षर करने की शक्ति हासिल थी. देबजानी मुखर्जी पहले एक
एयर होस्टेस थी, लेकिन 2010 में नौकरी छोड़कर उसने सारधा समूह में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी
आरम्भ की, और सभी को आश्चर्य में डालते हुए, देखते ही देखते पूरे समूह की
एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर बन बैठी. सारधा समूह की तरफ से कई राजनैतिक पार्टियों को
नियमित रूप से चन्दा दिया जाता था. कहने की जरूरत नहीं कि सर्वाधिक चन्दा प्राप्त
करने वालों में तृणमूल काँग्रेस के सांसद ही थे. खुद कुणाल घोष प्रतिमाह 26,000 डॉलर की
तनख्वाह प्रतिमाह पाते थे. इसी प्रकार सृंजय बोस नामक सांसद महोदय सारधा समूह की
मीडिया कंपनियों में सीधा दखल रखते थे. इनके अलावा मदन मित्रा नामक सांसद इसी समूह
में युनियन लीडर बने रहे और इसी समूह में गरीब मजदूरों का पैसा लगाने के लिए
उकसाते और प्रेरित करते रहे. ममता बनर्जी की “अदभुत एवं
अवर्णनीय” कही जाने वाली पेंटिंग्स को भी सुदीप्तो सेन ने ही अठारह करोड़
में खरीदा था. बदले में ममता ने आदेश जारी करके राज्य की सभी सरकारी लायब्रेरीयों
में सारधा समूह से निकलने वाले सभी अखबारों एवं पत्रिकाओं को खरीदना अनिवार्य कर
दिया था. सूची अभी खत्म नहीं हुई है, सारधा समूह ने वफादारी दिखाते हुए राज्य के
कपड़ा मंत्री श्यामपद मुखर्जी की बीमारू सीमेंट कंपनी को खरीदकर उसे फायदे में ला
दिया. ऐसा नहीं कि वामपंथी दूध के धुले हों, उनके कार्यकाल में भी सारधा समूह ने
वित्त मंत्री के विशेष सहायक गणेश डे को आर्थिक “मदद”(?) दी थी. सारधा समूह ने पश्चिम बंगाल से बाहर अपने पैर कैसे
पसारे?? असम स्वास्थ्य एवं शिक्षा मंत्री हिमंता बिस्वा सरमा को सारधा की पोंजी
स्कीम से लगभग पच्चीस करोड़ रूपए का भुगतान हुआ. असम से पूर्व काँग्रेसी मंत्री
मातंग सिंह की पत्नी श्रीमती मनोरंजना सिंह को बीस करोड़ के शेयर मिले, जबकि उनके
पिता केएन गुप्ता को तीस करोड़ रूपए के शेयर मिले जिसे बेचकर उन्होंने सारधा के ही
एक टीवी चैनल को खरीदा. जाँच अधिकारियों के अनुसार जब जाँच पूरी होगी, तो संभवतः
धन के लेन-देन का यह आँकड़ा दोगुना भी हो सकता है. सभी विश्लेषक मानते हैं कि
गरीबों के पैसों पर यह लूट बिना राजनैतिक संरक्षण के संभव ही नहीं थी, इसलिए
काँग्रेस-वामपंथी और खासकर तृणमूल काँग्रेस के सभी राजनेता इस बात को जानते थे,
लेकिन चूँकि सभी की जेब भरी जा रही थी, इसलिए कोई कुछ नहीं बोल रहा था.
ये तो हुई घोटाले, उसकी कड़ियाँ एवं
विधि के बारे में जानकारी, पाठकगण सोच रहे होंगे कि इस लूट और भ्रष्टाचार का
इस्लामी आतंक और बम विस्फोटों से क्या सम्बन्ध?? असल में हुआ यूँ कि इस घोटाले की
जाँच काफी पहले शुरू हुई जिसे SFIO नामक एजेंसी चला रही थी. लेकिन बंगाल
में बर्दवान जिले के खाग्रागढ़ नामक स्थान पर एक मोहल्ले में अब्दुल करीम और उसकी
साथी जेहादी महिलाओं के हाथ से कोई गलती हुई और बम का निर्माण करते हुए जबरदस्त
धमाका हो गया. हालाँकि पश्चिम बंगाल की वफादार पुलिस ने इसे “मामूली” धमाका बताते हुए छिपाने की पूरी कोशिश की, अपनी
तरफ से जितनी देर हो सकती थी वह भी की. लेकिन विस्फोट के आसपास के रहवासियों ने
समझ लिया था कि यह विस्फोट कोई सामान्य गैस टंकी का विस्फोट नहीं है. ज़ाहिर है कि
इसकी जाँच पहले सीबीआई ने और फिर जल्दी ही NIA ने अपने हाथ में ले ली. अब SFIO घोटाले की तथा NIA विस्फोट की जाँच के रास्ते पर चल
निकले. उन्हें क्या पता था कि दोनों के रास्ते जल्दी ही आपस में मिलने वाले हैं.
राष्ट्रीय
सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल, जो कि भूतपूर्व जासूस और कमांडो रह चुके हैं, खुद
उन्होंने विस्फोट के घटनास्थल का दौरा किया और एजेंसी तुरंत ही ताड़ गई कि मामला
बहुत गंभीर है. इस बीच सितम्बर 2014 में आनंदबाजार पत्रिका ने लगातार अपनी रिपोर्टों
में तृणमूल सांसद अहमद हसन इमरान के बारे में लेख छापे. सांसद इमरान पहले ही
स्वीकार कर चुका है कि वह प्रतिबंधित संगठन “सिमी” का संस्थापक सदस्य है और बांग्लादेश
में प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी से उसके सम्बन्ध हैं. सारधा घोटाले तथा बर्दवान
विस्फोटों के बारे में जाँच की भनक लगते ही बांग्लादेश की सरकार भी सक्रिय हो गई
और उन्होंने पाया कि ढाका स्थिति इस्लामिक बैंक के तार भी इस समूह से जुड़े हुए
हैं. यहाँ भी ममता बनर्जी ने अपनी टांग अडाने का मौका नहीं छोड़ा, और उन्होंने
बांग्लादेश के डिप्टी हाई कमिश्नर को विरोध प्रकट करने तथा प्रोटोकॉल तोड़ने के
आरोप में हाजिर होने का फरमान सुना दिया. बांग्लादेश के विदेश मंत्री अब्दुल हसन
महमूद और डोवाल के बीच हुई चर्चा के बाद उन्होंने अपनी जाँच को और मजबूत किया तब
पता चला कि सारधा समूह का सारा पैसा ढाका
की इस्लामिक बैंक में ट्रांसफर किया जा रहा था. जाँच में इस बैंक के तार अल-कायदा
से भी जुड़े हुए पाए गए हैं. बांग्लादेश सरकार पहले ही भारत सरकार से भी ज्यादा
कठोर होकर कथित जेहादियों पर टूट पड़ी है, पिछले दो साल में बांग्लादेश में इनकी
कमर टूट चुकी है, इसलिए इन संगठनों के कई मोहरे सीमा पार कर कोलकाता, मुर्शिदाबाद,
बर्दवान, नदिया आदि जिलों में घुसपैठ कर चुके हैं. यह सूचनाएँ पाने के बाद भारत की
ख़ुफ़िया एजेंसी RAW भी इसमें कूद पड़ी है. प्रवर्तन निदेशालय और बांग्ला जाँच
एजेंसियों के तालमेल से पता चला है कि इस इस्लामिक बैंक के कई “विशिष्ट कारपोरेट ग्राहक” बेहद संदिग्ध हैं, जिन्हें यह बैंक “कारपोरेट ज़कात” के रूप में मोटी रकम चुकाता रहा है.
भारतीय जाँच एजेंसियों ने धन के इस प्रवाह पर निगाह रखने के लिए अब दुबई और सऊदी
अरब तक अपना जाल फैला दिया है. “RAW” के अधिकारियों के मुताबिक़ इस इस्लामिक बैंक के डायरेक्टरों में
से कम से कम दो लोग ऐसे हैं, जिनकी पृष्ठभूमि आतंकी संगठन “अल-बद्र” से जुड़ती है. जबकि इधर कोलकाता सहित
पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और असम के बेचारे लाखों गरीब और निम्न वर्ग के लोग, अपनी
बीस-पच्चीस-पचास हजार रूपए की गाढ़ी कमाई की रकम के लिए धक्के खा रहे हैं.
अब
हम वापस आते हैं, सारधा पर. ममता बनर्जी के खास आदमी माने जाने वाले पूर्व सिमी
कार्यकर्ता और तृणमूल से राज्यसभा सांसद हसन इमरान ने “कलाम” नामक उर्दू अखबार
शुरू किया, जिसे “अचानक” सारधा समूह ने खरीद
लिया. प्रवर्तन निदेशालय की जाँच से स्पष्ट हुआ कि बांग्लादेश की जमाते-इस्लामी के
जरिये इमरान सारधा समूह का पैसा खाड़ी देशों में हवाला के जरिये पहुंचाता था, इसके
बदले में बैंक और इमरान को मोटी राशि कमीशन के रूप में मिलती थी, जिससे वे बम
विस्फोट के आरोपियों को मकान दिलवाने एवं उनकी मदद करने आदि में खर्च करते थे.
चूँकि इमरान खुद सिमी का संस्थापक सदस्य रहा और 1974 से
1984 तक लगातार जुड़ा भी
रहा, इसलिए उसके संपर्क काफी थे और कार्यशैली से वह वाकिफ था. ख़ुफ़िया जाँच
एजेंसियों को कोलकाता में एक रहस्यमयी मकान 19,
दरगाह रोड भी मिला. इस मकान में ही “सिमी” का दफ्तर भी खोला
गया, फिर इसी पते पर सारधा घोटाले की चिटफंड कंपनी का दफ्तर भी खोला गया, फिर इसी
पते पर सारधा समूह के दो-दो अखबारों का रजिस्ट्रेशन भी करवाया गया, जिन्हें बाद
में सुदीप्तो सेन ने इमरान से खरीद लिया. अखबार बेचने के बावजूद हसन इमरान ही
कागजों पर दोनों उर्दू अखबारों का मालिक बना रहा. इन्हीं अखबारों के सम्पादकीय और
संपर्कों के जरिये इमरान ने अबूधाबी में इस्लामिक डेवलपमेंट बैंक के अधिकारियों से
मधुर सम्बन्ध बनाए थे. बांग्लादेश के जमात नेता मामुल आज़म से भी इमरान के मधुर
सम्बन्ध रहे, और वह बांग्लादेश में एक-दो बार उनके यहाँ भी आया था. अब SFIO तथा NIA
मिलजुलकर सारधा घोटाले तथा बर्दवान बम विस्फोटों की गहन जाँच में जुटी हुई है और
उन्हें विश्वास है कि इन दोनों की लिंक्स और कड़ियाँ जो फिलहाल बिखरी हुई हैं,
बांग्लादेश और असम तक फ़ैली हुई हैं सब आपस में जुड़ेंगी और जल्दी ही वे इसका
पर्दाफ़ाश कर देंगे, कि किस तरह तृणमूल के कुछ सांसद, सुदीप्तो सेन, अब्दुल करीम
तथा हसन इमरान सब आपस में गुंथे हुए हैं और इनका सम्बन्ध बांग्लादेश की प्रतिबंधित
जमात-ए-इस्लामी और आतंक के नेटवर्क से जुड़ा हुआ है.
बहरहाल, ये तो हुई एक “ईमानदार दीदी” की कथा, अब आते हैं एक और “ईमानदार सभ्य बाबू” उर्फ नवीन पटनायक के राज्य उड़ीसा
में. अप्रैल-मई में इस मामले के सामने आने के बाद से लगातार सीबीआई सारधा घोटाले
की जाँच में जुटी हुई है और हाल ही में एजेंसी ने बीजद के सांसद रामचंद्र हंसदा और
दो विधायकों को इस सिलसिले में गिरफ्तार कर लिया है. उड़ीसा में ये सांसद महोदय “अर्थ-तत्त्व” नामक समूह चलाते थे, जिसकी कार्यशैली बिलकुल सारधा के पोंजी
स्कीम की तरह है. जहाँ सारधा वालों ने रियलिटी, मीडिया जैसे कई क्षेत्रों में 200 से अधिक कम्पनियाँ बनाईं, उसी प्रकार
“अर्थ-तत्त्व” ने 44 कम्पनियाँ खड़ी कर रखी हैं. जिसमें जाँच एजेंसियों को भूलभुलैया
की तरह घुमाए जाने की योजना थी, लेकिन पश्चिम बंगाल से सबक लेते हुए सांसद महोदय
को गिरफ्तार कर लिया. जाँच एजेंसियों के हाथ में आई अब तक की सबसे बड़ी मछली है
उड़ीसा के एडवोकेट जनरल अशोक मोहंती साहब, जिन्होंने अर्थ-तत्त्व के मुखिया प्रदीप सेठी
के साठ मिलकर एक बेहद रहस्यमयी जमीन सौदा किया और ताक में लगी एजेंसियों की पकड़
में आ गए. सीबीआई का मानना है कि सारधा और अर्थ-तत्त्व दोनों आपस में अंदर ही अंदर
कहीं मिले हुए हैं और दोनों का सम्मिलित घोटाला दस हजार करोड़ से भी अधिक हो सकता
है. उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल और उड़ीसा दोनों ही राज्यों में गरीबों की संख्या
बहुत अधिक है. इसलिए वे बेचारे अनपढ़ लोग जब किसी संस्था के साथ सांसद और अपने
नेताओं को जुड़ा हुआ देखते हैं तो विश्वास कर लेते हैं, यही हुआ भी और लाखों लोगों
को अभी तक करोड़ों रूपए की चपत लग चुकी है. वे अपनी मैली-कुचैली पास बुक लेकर
दस-बीस हजार रूपए के लिए दर-दर भटक रहे हैं, लेकिन न तो ममता बनर्जी और ना ही नवीन
पटनायक उनकी बात सुनने को तैयार हैं. सिर्फ जाँच का आश्वासन दिया जा रहा है, जो कि
केन्द्रीय एजेंसियाँ कर रही हैं.
एडवोकेट
जनरल मोहंती साहब फरमाते हैं कि कटक के मिलेनियम सिटी इलाके में उन्होंने एक करोड़
एक लाख का जो मकान खरीदा है वह उनकी कमाई है. जबकि जाँच में पता चला है कि यह मकान
प्रदीप सेठी ने “कानूनी मदद” के रूप में मोहंती साहब को “गिफ्ट” किया हुआ है. विशेष सीबीआई कोर्ट भी
मोहंती साहब से सहमत नहीं हुई और उन्हें दो बार न्यायिक हिरासत में भेज चुकी है.
इसी से पता चलता है कि तीनों ही राज्यों (बंगाल, असम, उड़ीसा) में कितने ऊँचे स्तर
पर यह खेल चल रहा था, और यह सभी को पता था. सारधा के विशाल फ्राड नेटवर्क की ही एक
और कंपनी है उड़ीसा की ग्रीन रे इंटरनेशनल लिमिटेड. इसका मुख्यालय बालासोर में है
और यह कम्पनी उड़ीसा के गरीबों से दस-दस, पचास-पचास रूपए रोज़ाना वसूल कर नाईजेरिया
में खनन का कारोबार खड़ा कर रही थी. इस कम्पनी के कर्ताधर्ता मीर सहीरुद्दीन ने
दुबई में दफ्तर भी खोल लिया था, लेकिन वहाँ भी अपनी कलाकारी दिखाने के चक्कर में
फिलहाल नाईजीरिया सरकार ने इनका पासपोर्ट जब्त कर रखा है और ये साहब वहाँ पर
सरकारी मेहमान हैं.
नवीन
पटनायक साहब, जो अपने चेहरे-मोहरे से बड़े भोले और सभ्य दिखाई देते हैं, वे वास्तव
में इतने सीधे नहीं हैं. ममता बनर्जी की ही तरह पटनायक साहब ने भी NIA तथा SFIO की जाँच में अड़ंगे लगाने के भरपूर
प्रयास किए और जाँच को धीमा अथवा बाधित किया. सीबीआई द्वारा तमाम सबूत दिए जाने के
बावजूद उड़ीसा विधानसभा के स्पीकर महीनों तक दोनों बीजद विधायकों और मंत्रियों से
पूछताछ का आदेश देने में टालमटोल करते रहे. इसीलिए सीबीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने
नाम न छापने की शर्त पर कहा कि इस घोटाले की व्यापकता तथा इसमें आतंकवाद और
अंडरवर्ल्ड तथा तीन-तीन राज्यों के बड़े-बड़े नेताओं के फँसे होने के कारण सीबीआई
एवं दूसरी जाँच एजेंसियों पर भारी दबाव है कि जाँच की गति धीमी करें. राज्य पुलिस
एवं स्थानीय CID से कोई विशेष मदद नहीं मिल रही है, इसलिए जाँच में मुश्किल भी
आ रही है, जबकि इधर दिल्ली में नरेंद्र मोदी और अमित शाह लगातार जाँच अधिकारियों
पर जल्दी जाँच करने का दबाव बनाए हुए हैं. अप्रैल में यह मामला उजागर हुआ, 9 मई 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की
जाँच सीबीआई को सौंपने तथा इस पर निगरानी हेतु सरकार से कहा (इस दिनाँक तक बाजी UPA के हाथ से निकल चुकी थी) और तत्परता
दिखाते हुए 4 जून 2014 को ही सीबीआई ने 47 एफआईआर रजिस्टर कर दी थीं. ताज़ा खबर
यह है कि तृणमूल काँग्रेस के एक और सांसद को सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिया है और
शिकंजा कसता जा रहा है.
बंगाल-उड़ीसा
और असम के लाखों गरीब लोगों का पैसा वापस मिलने की उम्मीद तो अब बहुत ही कम बची
है, लेकिन कम से कम लुटेरों और ठगों को उचित सजा और लंबी कैद वगैरह मिल जाए तो
उतना ही बहुत है. देखते हैं कि केन्द्र सरकार आगे इस मामले को कितनी गहराई से
खोदती है. लेकिन फिलहाल ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और तरुण गोगोई को ठीक से नींद
नहीं आ रही होगी, यह निश्चित है.
-
सुरेश चिपलूनकर, उज्जैन
Published in
ब्लॉग