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मालेगाँव बम ब्लास्ट की प्रमुख आरोपी के रूप में महाराष्ट्र सरकार द्वारा “मकोका” कानून के तहत जेल में निरुद्ध, साध्वी प्रज्ञा को देवास (मप्र) की एक कोर्ट में पेशी के लिये कल मुम्बई पुलिस लेकर आई। साध्वी के चेहरे पर असह्य पीड़ा झलक रही थी, उन्हें रीढ़ की हड्डी में तकलीफ़ की वजह से बिस्तर पर लिटाकर ही ट्रेन से उतारना पड़ा। कल ही उन्हें देवास की स्थानीय अदालत में पेश किया गया, परन्तु खड़े होने अथवा बैठने में असमर्थ होने की वजह से जज को एम्बुलेंस के दरवाजे पर आकर साध्वी प्रज्ञा (Sadhvi Pargya) से बयान लेना पड़ा। यहीं पर डॉक्टरों की एक टीम द्वारा उनकी जाँच की गई और रीढ़ की हड्डी में असहनीय दर्द की वजह से उन्हें अस्पताल में भर्ती करने की सलाह जारी की गई। मुम्बई में मकोका कोर्ट ने प्रज्ञा के स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें ट्रेन में AC से ले जाने की अनुमति दी थी, बावजूद इसके महाराष्ट्र पुलिस उन्हें स्लीपर में लेकर आई। (Harsh Treatment to Sadhvi Pragya)


इससे पहले भी कई बार विभिन्न अखबारी रिपोर्टों में साध्वी प्रज्ञा को पुलिस अभिरक्षा में प्रताड़ना, मारपीट एवं धर्म भ्रष्ट करने हेतु जबरन अण्डा खिलाने जैसे अमानवीय कृत्यों की खबरें आती रही हैं।

साध्वी प्रज्ञा से सिर्फ़ इतना ही कहना चाहूँगा कि एक “धर्मनिरपेक्ष”(?) देश में आप इसी सलूक के लायक हैं, क्योंकि हमारा देश एक “सेकुलर राष्ट्र” कहलाता है। साध्वी जी, आप पर मालेगाँव बम विस्फ़ोट (Malegaon Blast) का आरोप है…। ब्रेन मैपिंग, नार्को टेस्ट सहित कई तरीके आजमाने के बावजूद, बम विस्फ़ोट में उनकी मोटरसाइकिल का उपयोग होने के अलावा अभी तक पुलिस को कोई बड़ा सबूत हाथ नहीं लगा है, इसके बावजूद तुम पर “मकोका” लगाकर जेल में ठूंस रखा है और एक महिला होने पर भी आप जिस तरह खून के आँसू रो रही हैं… यह तो होना ही था। ऐसा क्यों? तो लीजिये पढ़ लीजिये –

1) साध्वी प्रज्ञा… तुम संसद पर हमला करने वाली अफ़ज़ल गुरु (Afzal Guru) नहीं हो कि तुम्हें VIP की तरह “ट्रीटमेण्ट” दिया जाए, तुम्हें सुबह के अखबार पढ़ने को दिये जाएं, नियमित डॉक्टरी जाँच करवाई जाए…

2) साध्वी प्रज्ञा… तुम “भारत की इज्जत लूटने वाले” अजमल कसाब की तरह भी नहीं हो कि तुम्हें इत्र-फ़ुलैल दिया जाए, स्पेशल सेल में रखा जाए, अण्डा-चिकन जैसे पकवान खिलाए जाएं… तुम पर करोड़ों रुपये खर्च किये जाएं…

3) साध्वी प्रज्ञा… तुम बिनायक सेन (Binayak Sen) भी तो नहीं हो, कि तुम्हारे लिये वामपंथी, सेकुलर और “दानवाधिकारवादी” सभी एक सुर में “रुदालियाँ” गाएं…। न ही अभी तुम्हारी इतनी औकात है कि तुम्हारी खातिर, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर “चर्च की साँठगाँठ से कोई मैगसेसे या नोबल पुरस्कार” की जुगाड़ लगाई जा सके…

4) साध्वी प्रज्ञा… तुम्हें तो शायद हमारे “सेकुलर” देश में महिला भी नहीं माना जाता, क्योंकि यदि ऐसा होता तो जो “महिला आयोग”(?) राखी सावन्त/मीका चुम्बन जैसे निहायत घटिया और निजी मामले में दखल दे सकता है… वह तुम्हारी हालत देखकर पसीजता…

5) साध्वी प्रज्ञा… तुम तो “सो कॉल्ड” हिन्दू वीरांगना भी नहीं हो, क्योंकि भले ही तुम्हारा बचाव करते न सही, लेकिन कम से कम मानवीय, उचित एवं सदव्यवहार की माँग करते भी, किसी “ड्राइंगरूमी” भाजपाई या हिन्दू नेता को न ही सुना, न ही देखा…

6) और हाँ, साध्वी प्रज्ञा… तुम तो कनिमोझी (Kanimojhi) जैसी “समझदार” भी नहीं हो, वरना देश के करोड़ों रुपये लूटकर भी तुम कैमरों पर बेशर्मों की तरह मुस्करा सकती थीं, सेकुलर महिला शक्ति तुम पर नाज़ करती… करोड़ों रुपयों में तुम्हारा बुढ़ापा भी आसानी से कट जाता… लेकिन अफ़सोस तुम्हें यह भी करना नहीं आया…

7) साध्वी प्रज्ञा… तुम्हारे साथ दिक्कत ये भी है कि तुम अरुंधती रॉय (Arundhati Roy’s Anti-National Remarks) जैसी महिला भी नहीं हो, जो सरेआम भारत देश, भारतवासियों, भारत की सेना सहित सभी को गरियाने के बावजूद “फ़ाइव स्टार होटलों” में प्रेस कांफ़्रेंस लेती रहे…

8) साध्वी प्रज्ञा… तुम तो पूनम पाण्डे जैसी छिछोरी भी नहीं हो, कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र के “परिपक्व मीडिया”(?) की निगाह तुम पर पड़े, और वह तुम्हें कवरेज दे…

कहने का मतलब ये है साध्वी प्रज्ञा… कि तुम में बहुत सारे दोष हैं, जैसे कि तुम “हिन्दू” हो, तुम “भगवा” पहनती हो, तुम कांग्रेसियों-वामपंथियों-सेकुलरों के मुँह पर उन्हें सरेआम लताड़ती हो, तुम फ़र्जी मानवाधिकारवादी भी नहीं हो, तुम विदेशी चन्दे से चलने वाले NGO की मालकिन भी नहीं हो… बताओ ऐसा कैसे चलेगा?

सोचो साध्वी प्रज्ञा, जरा सोचो… यदि तुम कांग्रेस का साथ देतीं तो तुम्हें भी ईनाम में अंबिका सोनी या जयन्ती नटराजन की तरह मंत्रीपद मिल जाता…, यदि तुम वामपंथियों की तरफ़ “सॉफ़्ट कॉर्नर” रखतीं, तो तुम भी सूफ़िया मदनी (अब्दुल नासेर मदनी की बीबी) की तरह आराम से घूम-फ़िर सकती थीं, NIA द्वारा बंगलोर बस बम विस्फ़ोट की जाँच किये जाने के बावजूद पुलिस को धमका सकती थीं… यानी तुम्हें एक “विशेषाधिकार” मिल जाता। बस तुम्हें इतना ही करना था कि जैसे भी हो "सेकुलरिज़्म की चैम्पियन" बन जातीं, बस… फ़िर तुम्हारे आगे महिला आयोग, मानवाधिकार आयोग, सब कदमों में होते। महिलाओं के दुखों और पीड़ा को महसूस करने वाली तीस्ता जावेद सीतलवाड, शबाना आज़मी, मल्लिका साराभाई सभी तुमसे मिलने आतीं… तुम्हें जेल में खीर-मलाई आदि सब कुछ मिलता…।

लेकिन अब कुछ नहीं किया जा सकता… जन्म ने तुम्हें “हिन्दू” बना दिया और महान सेकुलरिज़्म ने उसी शब्द के आगे “आतंकवादी” और जोड़ दिया…। साध्वी प्रज्ञा, इस “सेकुलर, लोकतांत्रिक, मानवीय और सभ्य” देश में तुम इसी बर्ताव के लायक हो…
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(भाग-1 से जारी…http://blog.sureshchiplunkar.com/2011/04/jan-lokpal-bill-national-advisory.html) पेश है दूसरा और अन्तिम भाग…

यह कहना मुश्किल है कि “झोलाछाप” सेकुलर NGO इंडस्ट्री के इस खेल में अण्णा हजारे खुद सीधे तौर पर शामिल हैं या नहीं, परन्तु यह बात पक्की है कि उनके कंधे पर बन्दूक रखकर उनकी “छवि” का “उपयोग” अवश्य किया गया है… चूंकि अण्णा सीधे-सादे हैं, इसलिये वह इस खेल से अंजान रहे और अनशन समाप्त होते ही उन्होंने नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार की तारीफ़ कर डाली… बस फ़िर क्या था? अण्णा की “भजन मंडली” (मल्लिका साराभाई, संदीप पाण्डे, अरुणा रॉय और हर्ष मंदर जैसे स्वघोषित सेकुलरों) में से अधिकांश को मिर्गी के दौरे पड़ने लगे… उन्हें अपना खेल बिगड़ता नज़र आने लगा, तो फ़िर लीपापोती करके जैसे-तैसे मामले को रफ़ा-दफ़ा किया गया। यह बात तय जानिये, कि यह NGO इंडस्ट्री वाला शक्तिशाली गुट, समय आने पर एवं उसका “मिशन” पूरा होने पर, अण्णा हजारे को दूध में गिरी मक्खी के समान बाहर निकाल फ़ेंकेगा…। फ़िलहाल तो अण्णा हजारे का “उपयोग” करके NGOवादियों ने अपने “धुरंधरों” की केन्द्रीय मंच पर जोरदार उपस्थिति सुनिश्चित कर ली है, ताकि भविष्य में हल्का-पतला, या जैसा भी लोकपाल बिल बने तो चयन समिति में “अण्णा आंदोलन” के चमकते सितारों(?) को भरा जा सके।

जन-लोकपाल बिल तो जब पास होगा तब होगा, लेकिन भूषण साहब ने इसमें जो प्रावधान रखे हैं उससे तो लगता है कि जन-लोकपाल एक “सर्वशक्तिमान” सुपर-पावर किस्म का सत्ता-केन्द्र होगा, क्योंकि यह न्यायिक और पुलिस अधिकारों से लैस होगा, सीबीआई इसके अधीन होगी, यह समन भी जारी कर सकेगा, गिरफ़्तार भी कर सकेगा, केस भी चला सकेगा, मक्कार सरकारी मशीनरी और न्यायालयों की सुस्त गति के बावजूद सिर्फ़ दो साल में आरोपित व्यक्ति को सजा भी दिलवा सकेगा… ऐसा जबरदस्त ताकत वाला संस्थान कैसे बनेगा और कौन सा राजनैतिक दल बनने देगा, यही सबसे बड़ा पेंच है। देखते हैं यमुना में पानी का बहाव अगले दो महीने में कैसा रहता है…

जन-लोकपाल बिल पर होने वाले मंथन (बल्कि खींचतान कहिये) में संसदीय परम्परा का प्रमुख अंग यानी “प्रतिपक्ष” कहीं है ही नहीं। कुल जमा दस लोग (पाँच-पाँच प्रतिनिधि) ही देश के 120 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करेंगे… इसमें से भी विपक्ष गायब है यानी लगभग 50 करोड़ जनता की रायशुमारी तो अपने-आप बाहर हो गई… पाँच सत्ताधारी सदस्य हैं यानी बचे हुए 70 करोड़ में से हम इन्हें 35 करोड़ का प्रतिनिधि मान लेते हैं… अब बचे 35 करोड़, जिनका प्रतिनिधित्व पाँच सदस्यों वाली “सिविल सोसायटी” करेगी (लगभग एक सदस्य के हिस्से आई 7 करोड़ जनता, उसमें भी भूषण परिवार के दो सदस्य हैं यानी हुए 14 करोड़ जनता)। अब बताईये भला, इतने जबरदस्त “सभ्य समाज” (सिविल सोसायटी) के होते हुए, हम जैसे नालायक तो “असभ्य समाज” (अन-सिविल सोसायटी) ही माने जाएंगे ना? हम जैसे, अर्थात जो लोग नरेन्द्र मोदी, सुब्रह्मण्यम स्वामी, बाबा रामदेव, गोविन्दाचार्य, टीएन शेषन इत्यादि को ड्राफ़्टिंग समिति में शामिल करने की माँग करते हैं वे “अन-सिविल” हैं…

जन-लोकपाल की नियुक्ति करने वाली समिति बनाने का प्रस्ताव भी मजेदार है-

1) लोकसभा के दोनों सदनों के अध्यक्ष रहेंगे (इनकी नियुक्ति सोनिया गाँधी ने की है)

2) सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ जज होंगे (बालाकृष्णन और दिनाकरण नामक “ईसाई” जजों के उदाहरण हमारे सामने हैं, इनकी नियुक्ति भी कांग्रेस, यानी प्रकारान्तर से सोनिया ने ही की थी)

3) हाईकोर्ट के दो वरिष्ठतम जज भी होंगे… (--Ditto--)

4) मानव-अधिकार आयोग के अध्यक्ष होंगे (यानी सोनिया गाँधी का ही आदमी)

5) भारतीय मूल के दो नोबल पुरस्कार विजेता (अव्वल तो हैं ही कितने? और भारत में निवास तो करते नहीं, फ़िर यहाँ की नीतियाँ तय करने वाले ये कौन होते हैं?)

6) अन्तिम दो मैगसेसे पुरस्कार विजेता… (अन्तिम दो??)

7) भारत के महालेखाकार एवं नियंत्रक (CAG)

8) मुख्य चुनाव आयुक्त (यह भी मैडम की मेहरबानी से ही मिलने वाला पद है)

9) भारत रत्न से नवाज़े गये व्यक्ति (इनकी भी कोई गारण्टी नहीं कि यह सत्तापक्ष के प्रति झुकाव न रखते हों)

इसलिये जो महानुभाव यह सोचते हों, कि संसद है, मंत्रिमण्डल है, प्रधानमंत्री है, NAC है… वह वाकई बहुत भोले हैं… ये लोग कुछ भी नहीं हैं, इनकी कोई औकात नहीं है…। अन्तिम इच्छा सिर्फ़ और सिर्फ़ सोनिया गाँधी की चलती है और चलेगी…। 2004 की UPA की नियुक्तियों पर ही एक निगाह डाल लीजिये –

1) सोनिया गाँधी ने ही नवीन चावला को चुनाव आयुक्त बनाया

2) सोनिया गाँधी ने ही महालेखाकार की नियुक्ति की

3) सोनिया गाँधी की मर्जी से ही बालाकृष्णन सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बने थे

4) सोनिया गाँधी ने ही सीबीआई प्रमुख की नियुक्ति की…

5) सोनिया गाँधी की वजह से ही सीवीसी थॉमस नियुक्त भी हुए और सुप्रीम कोर्ट की लताड़े के बावजूद इतने दिनों अड़े रहे…

6) कौन नहीं जानता कि मनमोहन सिंह, और प्रतिभा पाटिल की “नियुक्ति” (जी हाँ, नियुक्ति) भी सोनिया गाँधी की “पसन्द” से ही हुई…

अब सोचिये, जन-लोकपाल की नियुक्ति समिति के “10 माननीयों” में से यदि 6 लोग सोनिया के “खासुलखास” हों, तो जन-लोकपाल का क्या मतलब रह जाएगा? नोबल पुरस्कार विजेता और मेगसेसे पुरस्कार विजेताओं की शर्त का तो कोई औचित्य ही नहीं बनता? ये कहाँ लिखा है कि इन पुरस्कारों से लैस व्यक्ति “ईमानदार” ही होता है? इस बात की क्या गारण्टी है कि ऐसे “बाहरी” तत्व अपने-अपने NGOs को मिलने वाले विदेशी चन्दे और विदेशी आकाओं को खुश करने के लिये भारत की नीतियों में “खामख्वाह का हस्तक्षेप” नहीं करेंगे? सब जानते हैं कि इन पुरस्कारों मे परदे के पीछे चलने वाली “लॉबीइंग” और चयन किये जाने वाले व्यक्ति की प्रक्रिया के पीछे गहरे राजनैतिक निहितार्थ होते हैं।

ज़रा सोचिये, एक माह पहले क्या स्थिति थी? बाबा रामदेव देश भर में घूम-घूमकर कांग्रेस, सोनिया और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ माहौल तैयार कर रहे थे, सभाएं ले रहे थे, भारत स्वाभिमान नामक “संगठन” बनाकर, मजबूती से राजनैतिक अखाड़े में संविधान के तहत चुनाव लड़ने के लिये कमर कस रहे थे, मीडिया लगातार 2G और कलमाडी की खबरें दिखा रहा था, देश में कांग्रेस के खिलाफ़ जोरदार माहौल तैयार हो रहा था, जिसका नेतृत्व एक भगवा वस्त्रधारी कर रहा था, आगे चलकर इस अभियान में नरेन्द्र मोदी और संघ का भी जुड़ना अवश्यंभावी था…। और अब पिछले 15-20 दिनों में माहौल ने कैसी पलटी खाई है… नेतृत्व और मीडिया कवरेज अचानक एक गाँधी टोपीधारी व्यक्ति के पास चला गया है, उसे घेरे हुए जो “टोली” काम कर रही है, वह धुर “हिन्दुत्व विरोधी” एवं “नरेन्द्र मोदी से घृणा करने वालों” से भरी हुई है… इनके पास न तो कोई संगठन है और न ही राजनैतिक बदलाव ला सकने की क्षमता… कांग्रेस तथा सोनिया को और क्या चाहिये?? इससे मुफ़ीद स्थिति और क्या होगी कि सारा फ़ोकस कांग्रेस-सोनिया-भ्रष्टाचार से हटकर जन-लोकपाल पर केन्द्रित हो गया? तथा नेतृत्व ऐसे व्यक्ति के हाथ चला गया, जो “सत्ता एवं सत्ता की राजनीति में” कोई बड़ा बदलाव करने की स्थिति में है ही नहीं।

मुख्य बात तो यह है कि जनता को क्या चाहिये- 1) एक “फ़र्जी” और “कठपुतली” टाइप का जन-लोकपाल देश के अधिक हित में है, जिसके लिये अण्णा मण्डली काम कर रही है… अथवा 2) कांग्रेस जैसी पार्टी को कम से कम 10-15 साल के लिये सत्ता से बेदखल कर देना, जिसके लिये नरेन्द्र मोदी, रामदेव, सुब्रह्मण्यम स्वामी, गोविन्दाचार्य जैसे लोग काम कर रहे हैं? कम से कम मैं तो दूसरा विकल्प चुनना ही पसन्द करूंगा…

अब अण्णा के आंदोलन के बाद क्या स्थिति बन गई है… प्रचार की मुख्यधारा में “सेकुलरों”(?) का बोलबाला हो गया है, एक से बढ़कर एक “हिन्दुत्व विरोधी” और “नरेन्द्र मोदी गरियाओ अभियान” के अगुआ लोग छाए हुए हैं, यही लोग जन-लोकपाल भी बनवाएंगे और नीतियों को भी प्रभावित करेंगे। बाकी सभी को “अनसिविलाइज़्ड” साबित करके चुनिंदा लोग ही स्वयंभू “सिविल” बन बैठे हैं… यह नहीं चलेगा…। जब उस “गैंग” के लोगों को नरेन्द्र मोदी की तारीफ़ तक से परेशानी है, तो हमें भी “उस NGOवादी गैंग” पर विश्वास क्यों करना चाहिए? जब “वे लोग” नरेन्द्र मोदी के प्रशासन और विकास की अनदेखी करके… रामदेव बाबा के प्रयासों पर पानी फ़ेरकर… रातोंरात मीडिया के चहेते और नीति निर्धारण में सर्वेसर्वा बन बैठे हैं, तो हम भी इतने “गये-बीते” तो नहीं हैं, कि हमें इसके पीछे चलने वाली साजिश नज़र न आये…।

मजे की बात तो यह है कि अण्णा हजारे को घेरे बैठी “सेकुलर चौकड़ी” कुछ दिन भी इंतज़ार न कर सकी… “सेकुलरिज़्म की गंदी बदबू” फ़ैलाने की दिशा में पहला कदम भी ताबड़तोड़ उठा लिया। हर्ष मन्दर और मल्लिका साराभाई सहित दिग्गी राजा ने अण्णा के मंच पर “भारत माता” के चित्र को संघ का आईकॉन बता दिया था, तो JNU छाप मोमबत्ती ब्रिगेड ने अब यह तय किया है कि अण्णा के मंच पर भारत माता का नहीं बल्कि तिरंगे का चित्र होगा, क्योंकि भारत माता का चित्र “साम्प्रदायिक” है। शक तो पहले दिन से ही हो रहा था कि कुनैन की गोली खाये हुए जैसा मुँह बनाकर अग्निवेश, “भारत माता की जय” और वन्देमातरम के नारे कैसे लगा रहे हैं। परन्तु वह सिर्फ़ "तात्कालिक नौटंकी" थी, भारत माता का चित्र हटाने का फ़ैसला लेकर इस सेकुलर जमात ने “भविष्य में आने वाले जन-लोकपाल बिल का रंग” पहले ही दिखा दिये हैं। “सेकुलर चौकड़ी” ने यह फ़ैसला अण्णा को “बहला-फ़ुसला” कर लिया है या बाले-बाले ही लिया है, यह तो वे ही जानें, लेकिन भारत माता का चित्र भी साम्प्रदायिक हो सकता है, इसे सुनकर बंकिमचन्द्र जहाँ भी होंगे उनकी आत्मा निश्चित ही दुखेगी…

उल्लेखनीय है कि आंदोलन के शुरुआत में मंच पर भारत माता का जो चित्र लगाया जाने वाला था, वह भगवा ध्वज थामे, “अखण्ड भारत” के चित्र के साथ, शेर की सवारी करती हुई भारत माता का था (यह चित्र राष्ट्रवादी एवं संघ कार्यकर्ता अपने कार्यक्रमों में उपयोग करते हैं)। “सेकुलर दिखने के लालच” के चलते, इस चित्र में फ़ेरबदल करके अण्णा हजारे ने भारत माता के हाथों में तिरंगा थमाया और शेर भी हटा दिया, तथा अखण्ड भारत की जगह वर्तमान भारत का चित्र लगा दिया…। चलो यहाँ तक भी ठीक था, क्योंकि भ्रष्टाचार से लड़ाई के नाम पर, “मॉडर्न गाँधी” के नाम पर, और सबसे बड़ी बात कि जन-लोकपाल बिल के नाम पर “सेकुलरिज़्म” का यह प्रहार सहा भी जा सकता था। परन्तु भारत माता का यह चित्र भी “सेकुलरिज़्म के गंदे कीड़ों” को अच्छा नहीं लग रहा था, सो उसे भी साम्प्रदायिक बताकर हटा दिया गया और अब भविष्य में अण्णा के सभी कार्यक्रमों में मंच पर बैकग्राउण्ड में सिर्फ़ तिरंगा ही दिखाई देगा, भारत माता को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है (शायद “सिविल सोसायटी”, देशभक्ति जैसे “आउटडेटेड अनसिविलाइज़्ड सिम्बॉल” को बर्दाश्त नहीं कर पाई होगी…)।

दरअसल हमारा देश एक विशिष्ट प्रकार के एड्स से ग्रसित है, भारतीय संस्कृति, हिन्दुत्व एवं सनातन धर्म से जुड़े किसी भी चिन्ह, किसी भी कृति से कांग्रेस-पोषित एवं मिशनरी द्वारा ब्रेन-वॉश किये जा चुके “सेकुलर”(?) परेशान हो जाते हैं। इसी “सेकुलर गैंग” द्वारा पाठ्यपुस्तकों में “ग” से गणेश की जगह “ग” से “गधा” करवाया गया, दूरदर्शन के लोगो से “सत्यम शिवम सुन्दरम” हटवाया गया, केन्द्रीय विद्यालय के प्रतीक चिन्ह से “कमल” हटवाया गया, वन्देमातरम को जमकर गरियाया जाता है, स्कूलों में सरस्वती वन्दना भी उन्हें “साम्प्रदायिक” लगती है… इत्यादि। ऐसे ही “सेकुलर एड्सग्रसित” मानसिक विक्षिप्तों ने अब अण्णा को फ़ुसलाकर, भारत माता के चित्र को भी हटवा दिया है… और फ़िर भी ये चाहते हैं कि हम बाबा रामदेव और नरेन्द्र मोदी की बात क्यों करते हैं, भ्रष्टाचार को हटाने के “विशाल लक्ष्य”(?) में उनका साथ दें…।

भूषण पिता-पुत्र पर जो जमीन-पैसा इत्यादि के आरोप लग रहे हैं, थोड़ी देर के लिये उसे यदि दरकिनार भी कर दिया जाए (कि बड़ा वकील है तो भ्रष्ट तो होगा ही), तब भी ये हकीकत बदलने वाली नहीं है, कि बड़े भूषण ने कश्मीर पर अरुंधती के बयान का पुरज़ोर समर्थन किया था… साथ ही 13 फ़रवरी 2009 को छोटे भूषण तथा संदीप पाण्डे ने NIA द्वारा सघन जाँच किये जा रहे पापुलर फ़्रण्ट ऑफ़ इंडिया (PFI) नामक आतंकवादी संगठन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में भी भाग लिया था, ज़ाहिर है कि अण्णा के चारों ओर “मानवाधिकार और सेकुलरिज़्म के चैम्पियनों”(?) की भीड़ लगी हुई है। इसीलिये प्रेस वार्ता के दौरान अन्ना के कान में केजरीवाल फ़ुसफ़ुसाते हैं और अण्णा बयान जारी करते हैं कि “गुजरात के दंगों के लिये मोदी को माफ़ नहीं किया जा सकता…”, परन्तु अण्णा से यह कौन पूछेगा, कि दिल्ली में 3000 सिखों को मारने वाली कांग्रेस के प्रति आपका क्या रुख है? असल में “सेकुलरिज़्म” हमेशा चुनिंदा ही होता है, और अण्णा तो वैसे भी “दूसरों” के कहे पर चल रहे हैं, वरना लोकपाल बिल की जगह अण्णा, 2G घोटाले की तेजी से जाँच, स्विस बैंकों से पैसा वापस लाने, कलमाडी को जेल भेजने जैसी माँगों को लेकर अनशन पर बैठते?

“उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे” की तर्ज पर, कांग्रेस और मीडिया की मिलीभगत द्वारा भ्रम फ़ैलाने का एक और प्रयास यह भी है कि अण्णा हजारे, संघ और भाजपा के करीबी हैं। अण्णा हजारे का तो पता नहीं, लेकिन उन्हें जो लोग “घेरे” हुए हैं उनके बारे में तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वे संघ-भाजपा के लोग नहीं हैं। अण्णा द्वारा मोदी की तारीफ़ पर भड़कीं मल्लिका साराभाई हों या अण्णा के मंच पर स्थापित “भारत माता के चित्र” पर आपत्ति जताने वाले हर्ष मंदर हों, अरुंधती रॉय के कश्मीर बयान की तारीफ़ करने वाले “बड़े” भूषण हों या माओवादियों के दलाल स्वामी अग्निवेश हों… (महेश भट्ट, तीस्ता जावेद सीतलवाड और शबाना आज़मी भी पीछे-पीछे आते ही होंगे…)। जरा सोचिये, ऐसे विचारों वाले लोग खुद को “सिविल सोसायटी” कह रहे हैं…।

फ़िलहाल सिर्फ़ इतना ही…… क्योंकि कहा जा रहा है, कि जन-लोकपाल बिल बनाने में “अड़ंगे” मत लगाईये, अण्णा की टाँग मत खींचिये, उन्हें कमजोर मत कीजिये… चलिये मान लेते हैं। अब इस सम्बन्ध में विस्तार से 15 अगस्त के बाद ही कुछ लिखेंगे… तब तक आप तेल देखिये और तेल की धार देखिये… आये दिन बदलते-बिगड़ते बयानों को देखिये, अण्णा हजारे द्वारा प्रस्तावित जन-लोकपाल बिल संसद नामक गुफ़ाओं-कंदराओं से बाहर निकलकर “किस रूप” में सामने आता है, सब देखते जाईये…

दिल को खुश करने के लिये मान लेते हैं, कि जैसा बिल “जनता चाहती है”(?) वैसा बन भी गया, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि लोकपाल नियुक्ति हेतु चयन समिति में बैठने वाले लोग कौन-कौन होंगे? असली “राजनैतिक कांग्रेसी खेल” तो उसके बाद ही होगा… और देखियेगा, कि उस समय सब के सब मुँह टापते रह जाएंगे, कि “अरे… यह लोकपाल बाबू भी सोनिया गाँधी के ही चमचे निकले…!!!” तब तक चिड़िया खेत चुग चुकी होगी…।

इसलिये हे अण्णा हजारे, जन-लोकपाल बिल हेतु हमारी ओर से आपको अनंत शुभकामनाएं, परन्तु जिस प्रकार आपकी “सेकुलर मण्डली” का "सो कॉल्ड" बड़ा लक्ष्य, सिर्फ़ जन-लोकपाल बिल है, उसी तरह हम जैसे “अनसिविलाइज़्ड आम आदमी की सोसायटी” का भी एक लक्ष्य है, देश में सनातन धर्म की विजय पताका पुनः फ़हराना, सेकुलर कीट-पतंगों एवं भारतीय संस्कृति के विरोधियों को परास्त करना… रामदेव बाबा- नरेन्द्र मोदी सरीखे लोगों को उच्चतम स्तर पर ले जाना, और इन से भी अधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य है, कांग्रेस जैसी पार्टी को नेस्तनाबूद करना…। अण्णा जी, भले ही आप “बुरी सेकुलर संगत” में पड़कर राह भटक गये हों, हम नहीं भटके हैं… और न भटकेंगे…

(समाप्त)
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बी के हरिप्रसाद एवं अन्य तकनीकी शोधकों का संघर्ष अन्ततः रंग लाता दिख रहा है। चुनाव आयोग ने हाल ही में वोटिंग मशीनें बनाने वाली दोनों सरकारी कम्पनियों के उच्चाधिकारियों के साथ एक बैठक कर उन्हें इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में डाले जाने वाले वोटों के “कागजी रिकॉर्ड” रखे जाने सम्बन्धी तकनीकी बदलाव करने हेतु बातचीत की है। EVM बनाने वाली दोनों कम्पनियों अर्थात भारत इलेक्ट्रोनिक्स (BEL) एवं इलेक्ट्रानिक कार्पोरेशन ऑफ़ इंडिया (ECIL) को इस सम्बन्ध में सॉफ़्टवेयर एवं उचित हार्डवेयर बनाने के निर्देश दिये गये हैं ताकि मशीनों में दर्ज होने वाले वोटों का “प्रिण्टेड रिकॉर्ड” रखने की कोई मजबूत व्यवस्था हो।

उल्लेखनीय है कि सन 2004 में यूपीए की जीत के बाद से ही उक्त मशीनें संदेह के घेरे मे हैं एवं समय-समय पर विभिन्न शौकिया हैकरों एवं बीके हरिप्रसाद जैसे तकनीकी व्यक्ति ने इन मशीनों को सार्वजनिक रूप से “हैक” करके प्रदर्शित किया था, कि इन मशीनों को इस प्रकार “सेट” किया जा सकता है कि पड़ने वाले प्रत्येक दस वोट में से 4 या 5 किसी एक “खास पार्टी” के पक्ष में ही दर्ज हों, ताकि शक भी न हो सके। इसलिये लगातार यह माँग की जाती रही है कि मशीनों में दर्ज वोटों का कोई “पुख्ता सबूत” भी तो होना चाहिये, ताकि कभी “आवश्यकता पड़ने पर” जाँच की जा सके कि क्या वाकई मतदाता ने “उसी पार्टी” को वोट दिया था अथवा नहीं?

बीके हरिप्रसाद को कांग्रेस सरकार द्वारा तरह-तरह से परेशान किया जा चुका है, उन्हें खामख्वाह गिरफ़्तार भी किया गया था, परन्तु हरिप्रसाद इस बात पर अडिग रहे कि वोटिंग मशीनों के उत्पादन् से लेकर, विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में उनकी तैनाती तक के बीच में “कई छेद” ऐसे हैं जहाँ इन मशीनों को “मनमर्जी के मुताबिक हैक या प्रोग्रामिंग” किया जा सकता ह। वे इस “कलाकारी” का सार्वजनिक प्रदर्शन भी कर चुके हैं। अन्ततः सरकार को आंशिक रूप से झुकना पड़ा है एवं वोटिंग मशीनों को पूरी तरह बन्द नहीं करते हुए, सरकार ने इसके रिकॉर्ड को “प्रिण्ट-आउट” के रूप में रखने की शर्त मान ली है… अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या वोट देने के तुरन्त बाद उस वोटर को उसके वोट की पर्ची दी जाएगी अथवा नहीं? क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता है तो गड़बड़ी की गुंजाईश फ़िर भी बनी रहेगी…

अधिक जानकारी एवं “ज्ञान” प्राप्ति के लिये इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों के “फ़र्जीवाड़े” और “कलाकारी” पर समय निकालकर मेरी निम्न तीनों पोस्ट को पढ़ डालिये…

http://blog.sureshchiplunkar.com/2010/08/evm-hacking-hari-prasad-arrested.html


http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/06/evm-rigging-elections-and-voting-fraud.html



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चलते-चलते :- खबर आई है कि असम के विधानसभा चुनाव में एक कांग्रेसी उम्मीदवार के पतिदेव ने एक टीवी चैनल पर बाकायदा चार्ट बनाकर यह घोषणा कर दी है कि किस विधानसभा क्षेत्र से कौन सा उम्मीदवार जीतेगा… बल्कि किसी-किसी विधानसभा क्षेत्र में तो इन महाशय ने यह भी बता दिया है कि उम्मीदवार “कितने वोटों” से जीतेगा…। यदि इन साहब की “भविष्यवाणी” (?) सही निकलती है तब या तो इन्हें “ज्योतिष क्षेत्र में भारत का सर्वोच्च सम्मान” देना ही पड़ेगा, अथवा इनका “पिछवाड़ा गरम” करके इनसे पूछा जाएगा कि यह सूचना उन्हें “कहाँ से” मिली? यानी अब असम विधानसभा चुनाव के नतीजों का, श्री हरिप्रसाद समेत सभी को बेसब्री से इंतज़ार है…

(बाबा रामदेव Vs अण्णा हजारे का भाग-2 एकाध दिन में आयेगा, तब तक “फ़िलर” के रूप में यह माइक्रो-पोस्ट पेश की गई है…)
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अक्सर आपने देखा होगा कि लेख समाप्त होने के बाद “डिस्क्लेमर” लगाया जाता है, लेकिन मैं लेख शुरु करने से पहले “डिस्क्लेमर” लगा रहा हूँ –
डिस्क्लेमर :- 1) मैं अण्णा हजारे की “व्यक्तिगत रूप से” इज्जत करता हूँ… 2) मैं जन-लोकपाल बिल के विरोध में नहीं हूँ…

अब आप सोच रहे होंगे कि लेख शुरु करने से पहले ही “डिस्क्लेमर” क्यों? क्योंकि “मीडिया” और “मोमबत्ती ब्रिगेड” दोनों ने मिलकर अण्णा तथा अण्णा की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को लेकर जिस प्रकार का “मास हिस्टीरिया” (जनसमूह का पागलपन), और “अण्णा हजारे टीम”(?) की “लार्जर दैन लाइफ़” इमेज तैयार कर दी है, उसे देखते हुए धीरे-धीरे यह “ट्रेण्ड” चल निकला है कि अण्णा हजारे की मुहिम का हल्का सा भी विरोध करने वाले को तड़ से “देशद्रोही”, “भ्रष्टाचार के प्रति असंवेदनशील” इत्यादि घोषित कर दिया जाता है…

सबसे पहले हम देखते हैं इस तमाम मुहिम का “अंतिम परिणाम” ताकि बीच में क्या-क्या हुआ, इसका विश्लेषण किया जा सके… अण्णा हजारे (Anna Hajare) की मुहिम का सबसे बड़ा और “फ़िलहाल पहला” ठोस परिणाम तो यह निकला है कि अब अण्णा, भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले एकमात्र “आइकॉन” बन गये हैं, अखबारों-मीडिया का सारा फ़ोकस बाबा रामदेव (Baba Ramdev) से हटकर अब अण्णा हजारे पर केन्द्रित हो गया है। हालांकि मीडिया का कभी कोई सकारात्मक फ़ोकस, बाबा रामदेव द्वारा उठाई जा रही माँगों की तरफ़ था ही नहीं, परन्तु जो भी और जितना भी था… अण्णा हजारे द्वारा “अचानक” शुरु किये गये अनशन की वजह से बिलकुल ही “साफ़-सूफ़” हो गया…। यानी जो बाबा रामदेव देश के 300 से अधिक शहरों में हजारों सभाएं ले-लेकर सोनिया गाँधी, कांग्रेस, स्विस बैंक आदि के खिलाफ़ माहौल-संगठन बनाने में लगे थे, उस मुहिम को एक अनशन और उसके प्रलापपूर्ण मीडिया कवरेज की बदौलत “पलीता” लगा दिया गया है। ये तो था अण्णा की मुहिम का पहला प्राप्त “सफ़ल”(?) परिणाम…

जबकि दूसरा परिणाम भी इसी से मिलता-जुलता है, कि जिस मीडिया में राजा, करुणानिधि, कनिमोझि, भ्रष्ट कारपोरेट, कलमाडी, स्विस बैंक में जमा पैसा… इत्यादि की हेडलाइन्स रहती थीं, वह गायब हो गईं। सीबीआई या सीवीसी या अन्य कोई जाँच एजेंसी इन मामलों में क्या कर रही है, इसकी खबरें भी पृष्ठभूमि में चली गईं… बाबा रामदेव जो कांग्रेस के खिलाफ़ एक “माहौल” खड़ा कर रहे थे, अचानक “मोमबत्ती ब्रिगेड” की वजह से पिछड़ गये। टीवी पर विश्व-कप जीत के बाद अण्णा की जीत की दीवालियाँ मनाई गईं, रामराज्य की स्थापना और सुख समृद्धि के सपने हवा में उछाले जाने लगे हैं…

अंग्रेजों के खिलाफ़ चल रहे स्वतंत्रता संग्राम की याद सभी को है, किस तरह लोकमान्य तिलक, सावरकर और महर्षि अरविन्द द्वारा किये जा रहे जनसंघर्ष को अचानक अफ़्रीका से आकर, गाँधी ने “हाईजैक” कर लिया था. न सिर्फ़ हाइजैक किया, बल्कि “महात्मा” और आगे चलकर “राष्ट्रपिता” भी बन बैठे… और लगभग तानाशाही अंदाज़ में उन्होंने कांग्रेस से तिलक, सरदार पटेल, सुभाषचन्द्र बोस इत्यादि को एक-एक करके किनारे किया, और अपने नेहरु-प्रेम को कभी भी न छिपाते हुए उन्हें देश पर लाद भी दिया… आप सोच रहे होंगे कि अण्णा हजारे और बाबा रामदेव के बीच यह स्वतंत्रता संग्राम कहाँ से घुस गया?

तो सभी अण्णा समर्थकों और जनलोकपाल बिल (Jan-Lokpal Bill) के कट्टर समर्थकों के गुस्से को झेलने को एवं गालियाँ खाने को तैयार मन बनाकर, मैं साफ़-साफ़ आरोप लगाता हूँ कि- इस देश में कोई भी आंदोलन, कोई भी जन-अभियान “भगवा वस्त्रधारी” अथवा “हिन्दू” चेहरे को नहीं चलाने दिया जाएगा… अंग्रेजों के खिलाफ़ आंदोलन में जिस तरह तिलक और अरविन्द को पृष्ठभूमि में धकेला गया था, लगभग उसी अंदाज़ में भगवा वस्त्रधारी बाबा रामदेव को, सफ़ेद टोपीधारी “गाँधीवादी आईकॉन” से “रीप्लेस” कर दिया गया है…। इस तुलना में एक बड़ा अन्तर यह है कि बाबा रामदेव, महर्षि अरविन्द (Maharshi Arvind) नहीं हैं, क्योंकि जहाँ एक ओर महर्षि अरविन्द ने “महात्मा”(?) को जरा भी भाव नहीं दिया था, वहीं दूसरी ओर बाबा रामदेव ने न सिर्फ़ फ़रवरी की अपनी पहली जन-रैली में अण्णा हजारे को मंच पर सादर साथ बैठाया, बल्कि जब अण्णा अनशन पर बैठे थे, तब भी मंच पर आकर समर्थन दिया। चूंकि RSS भी इतने वर्ष बीत जाने के बावजूद “राजनीति” में कच्चा खिलाड़ी ही है, उसने भी अण्णा के अभियान को चिठ्टी लिखकर समर्थन दे मारा। ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में अभी भी वह “घाघपन” नहीं आ पाया है जो “सत्ता की राजनीति” के लिये आवश्यक होता है, विरोधी पक्ष को नेस्तनाबूद करने के लिये जो “राजनैतिक पैंतरेबाजी” और “विशिष्ट प्रकार का कमीनापन” चाहिये होता है, उसका RSS में अभाव प्रतीत होता है, वरना बाबा रामदेव द्वारा तैयार की गई ज़मीन और बोये गये बीजों की “फ़सल”, इतनी आसानी से अण्णा को ले जाते देखकर भी, उन्हें चिठ्ठी लिखकर समर्थन देने की कोई वजह नहीं थी। अण्णा को “संघ” का समर्थन चाहिये भी नहीं था, समर्थन चिठ्ठी मिलने पर न तो उन्होंने कोई आभार व्यक्त किया और न ही उस पर ध्यान दिया…। परन्तु जिन अण्णा हजारे को बाबा रामदेव की रैली के मंच पर बमुश्किल कुछ लोग ही पहचान सकते थे, उन्हीं अण्णा हजारे को रातोंरात “हीरो” बनते देखकर भी न तो संघ और न ही रामदेव कुछ कर पाये, बस उनकी “लार्जर इमेज” की छाया में पिछलग्गू बनकर ताली बजाते रह गये…। सोनिया गाँधी की “किचन कैबिनेट” यानी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC) के “NGO छाप रणबाँकुरों” ने मिलजुलकर अण्णा हजारे के कंधे पर बन्दूक रखकर जो निशाना साधा, उसमें बाबा रामदेव चित हो गये…

मैंने ऊपर “राजनैतिक पैंतरेबाजी” और “घाघ” शब्दों का उपयोग किया है, इसमें कांग्रेस का कोई मुकाबला नहीं कर सकता… अंग्रेजों के खिलाफ़ आंदोलन से लेकर अण्णा हजारे तक कांग्रेस ने “परफ़ेक्ट” तरीके से “फ़ूट डालो और राज करो” की नीति को आजमाया है और सफ़ल भी रही है। कांग्रेस को पता है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया का देश के युवाओं पर तथा अंग्रेजी प्रिण्ट मीडिया का देश के “बुद्धिजीवी”(?) वर्ग पर खासा असर है, इसलिये जिस “तथाकथित जागरूक और जन-सरोकार वाले मीडिया”(?) ने रामलीला मैदान पर बाबा रामदेव की 27 फ़रवरी की विशाल रैली को चैनलों और अखबारों से लगभग सिरे से गायब कर दिया था, वही मीडिया अण्णा के अनशन की घोषणा मात्र से मानो पगला गया, बौरा गया। अनशन के शुरुआती दो दिनों में ही मीडिया ने देश में ऐसा माहौल रच दिया मानो “जन-लोकपाल बिल” ही देश की सारी समस्याओं का हल है। 27 फ़रवरी की रैली के बाद भी रामदेव बाबा ने गोआ, चेन्नई, बंगलोर में कांग्रेस, सोनिया गाँधी और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ जमकर शंखनाद किया, परन्तु मीडिया को इस तरफ़ न ध्यान देना था और न ही उसने दिया। परन्तु “चर्च-पोषित” मीडिया तथा “सोनिया पोषित NGO इंडस्ट्री” ने बाबा रामदेव की दो महीने की मेहनत पर, अण्णा के “चार दिन के अनशन” द्वारा पानी फ़ेर दिया, तथा देश-दुनिया का सारा फ़ोकस “भगवा वस्त्र” एवं “कांग्रेस-सोनिया” से हटकर “गाँधी टोपी” और “जन-लोकपाल” पर ला पटका… इसे कहते हैं “पैंतरेबाजी”…। जिसमें क्या संघ और क्या भाजपा, सभी कांग्रेस के सामने बच्चे हैं। जब यह बात सभी को पता है कि मीडिया सिर्फ़ “पैसों का भूखा भेड़िया” है, उसे समाज के सरोकारों से कोई लेना-देना नहीं है, तो क्यों नहीं ऐसी कोई कोशिश की जाती कि इन भेड़ियों के सामने पर्याप्त मात्रा में हड्डियाँ डाली जाएं, कि वह भले ही “हिन्दुत्व” का गुणगान न करें, लेकिन कम से कम चमड़ी तो न उधेड़ें?

अब एक स्नैपशॉट देखें…

राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की 4 अप्रैल 2011 को लोकपाल बिल के मुद्दे पर बैठक होती है, जिसमें अरविन्द केजरीवाल, बड़े भूषण, संदीप पाण्डे, हर्ष मन्दर, संतोष मैथ्यू जैसे कई लोग शामिल होते हैं। सोनिया गांधी की इस “पालतू परिषद” वाली मीटिंग में यह तय होता है कि 28 अप्रैल 2011 को फ़िर आगे के मुद्दों पर चर्चा होगी…। अगले दिन 5 अप्रैल को ही अण्णा अनशन पर बैठ जाते हैं, जिसकी घोषणा वह कुछ दिनों पहले ही कर चुके होते हैं… संयोग देखिये कि उनके साथ मंच पर वही महानुभाव होते हैं जो एक दिन पहले सोनिया के बुलावे पर NAC की मीटिंग में थे… ये कौन सा “षडयंत्रकारी गेम” है?

इस चित्र में जरा इस NAC में शामिल “माननीयों” के नाम भी देख लीजिये –


हर्ष मंदर, डॉ जॉन ड्रीज़, अरुणा रॉय जैसे नाम आपको सभी समितियों में मिलेंगे… इतने गजब के विद्वान हैं ये लोग। “लोकतन्त्र”, “जनतंत्र” और “जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों” वाले लफ़्फ़ाज शब्दों की दुहाई देने वाले लोग, कभी ये नहीं बताते कि इस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को किस जनता से चुना है? इस परिषद में आसमान से टपककर शामिल हुए विद्वान, बार-बार मीटिंग करके प्रधानमंत्री और कैबिनेट को आये दिन सलाह क्यों देते रहते हैं? और किस हैसियत से देते हैं? खाद्य सुरक्षा बिल हो, घरेलू महिला हिंसा बिल हो, सिर पर मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने सम्बन्धी बिल हो, लोकपाल बिल हो… सभी बिलों पर सोनिया-चयनित यह परिषद संसद को “सलाह”(?) क्यों देती फ़िरती है? या कहीं ऐसा तो नहीं है कि संसद में पेश किया जाने वाला प्रत्येक बिल इस “वफ़ादार परिषद” की निगाहबीनी के बिना कैबिनेट में भी नहीं जा सकता? किस लोकतन्त्र की दुहाई दे रहे हैं आप? और क्या यह भी सिर्फ़ संयोग ही है कि इस सलाहकार परिषद में सभी के सभी धुर हिन्दू-विरोधी भरे पड़े हैं?

जो कांग्रेस पार्टी मणिपुर की ईरोम शर्मिला के दस साल से अधिक समय के अनशन पर कान में तेल डाले बैठी है, जो कांग्रेस पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) के अध्यक्ष की अलग राज्य की माँग की भूख हड़ताल को उनके अस्पताल में भर्ती होने तक लटकाकर रखती है…और आश्वासन का झुनझुना पकड़ाकर खत्म करवा देती है… वही कांग्रेस पार्टी “आमरण अनशन” का कहकर बैठे अण्णा की बातों को 97 घण्टों में ही अचानक मान गई? और न सिर्फ़ मान गई, बल्कि पूरी तरह लेट गई और उन्होंने जो कहा, वह कर दिया? इतनी भोली तो नहीं है कांग्रेस…

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ताजा खबर ये है कि -
1) संयुक्त समिति की पहली ही बैठक में भ्रष्ट जजों और मंत्रियों को निलम्बित नहीं करने की शर्त अण्णा ने मान ली है,
2) दूसरी खबर आज आई है कि अण्णा ने कहा है कि "संसद ही सर्वोच्च है और यदि वह जन-लोकपाल बिल ठुकरा भी दे तो वे स्वीकार कर लेंगे…"
3) एक और बयान अण्णा ने दिया है कि "मैंने कभी आरएसएस का समर्थन नहीं किया है और कभी भी उनके करीब नहीं था…"

आगे-आगे देखते जाईये… जन लोकपाल बिल "कब और कितना" पास हो पाता है… अन्त में "होईहे वही जो सोनिया रुचि राखा…"। जब तक अण्णा हजारे, बाबा रामदेव और नरेन्द्र मोदी के साथ खुलकर नहीं आते वे सफ़ल नहीं होंगे, इस बात पर शायद एक बार अण्णा तो राजी हो भी जाएं, परन्तु जो "NGO इंडस्ट्री वाली चौकड़ी" उन्हें ऐसा करने नहीं देगी…

(जरा अण्णा समर्थकों की गालियाँ खा लूं, फ़िर अगला भाग लिखूंगा…… भाग-2 में जारी रहेगा…)
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शीर्षक देखकर चौंकिये नहीं, और न ही अश्लील और भद्दा समझिये… यह एक ऐसी घृणित हकीकत है। इस लेख को पढ़कर और वीडियो देखकर, आप न सिर्फ़ वितृष्णा और जुगुप्सा से भर उठेंगे, बल्कि भारत के सार्वजनिक स्थानों पर लगने वाले फ़ुटकर ठेलों, खोमचों एवं रेहड़ियों पर दिन-रात बिकने वाले खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी मानकों को गाली दिये बिना नहीं रहेंगे…

महानगरों की भागदौड़ भरी दिनचर्या में रोजाना दिल्ली-मुम्बई जैसे शहरों में लाखों-करोडों लोग दिन में कभी न कभी, किसी न किसी बहाने सड़कों पर स्थित खोमचे-रेहड़ी-ठेले में खाते-पीते ही हैं… कई बार ऐसा मजबूरीवश होता है, कभीकभार अनजाने में, तो कभी जानबूझकर ज़बान का “स्वाद बदलने” की खातिर किया जाता है। अक्सर इन ठेले वालों के ग्राहक युवा वर्ग, मेहनतकश मजदूर, टूरिंग जॉब करने वाले निम्न-मध्यमवर्गीय लोग होते हैं। मैंने और आप ने, सभी ने, कभी न कभी इन ठेलों पर मिलने वाले व्यंजनों को खाया ही है…

ठाणे के नौपाडा में रहने वाली अंकिता राणे एक युवा जागरूक नागरिक हैं। हाल ही में उन्होंने अपने घर की खिड़की से वीडियो शूटिंग करके, सामने लगने वाले पानी-पताशे के ठेले वाले को न सिर्फ़ बेनकाब किया, बल्कि उसे पुलिस में देकर अपना नागरिक कर्तव्य भी निभाया। 59 वर्षीय राजदेव लखन चौहान, भास्कर कॉलोनी ठाणे, में नियमित रूप से पानी-पताशे का ठेला लगाता है (था), जिसे 13 अप्रैल को पुलिस ने उसी बर्तन में पेशाब करने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया, जिस बर्तन से वह ग्राहकों को पानी पिलाता था।

19 वर्षीया अंकिता राणे बताती हैं कि “उनके घर के सामने रोज वह व्यक्ति अपना ठेला लगाता था, वह अपनी खिड़की से उसे देखा करती थी। पहले भी मैं अपने दोस्तों को आगाह कर चुकी थी कि, यहाँ पर कुछ भी न खाओ…”, क्योंकि यह व्यक्ति ठेले पर साफ़-सफ़ाई तो बिलकुल नहीं रखता, बल्कि कान-नाक खुजाते हुए, उसी हाथ से वह ग्राहकों को पानी-पुरी खिलाता था, परन्तु मेरे दोस्त मेरी इन बातों को हँसी में उड़ा देते थे। परीक्षाएं खत्म होने के बाद फ़ुर्सत में मैंने उस ठेले वाले पर निगाह रखना शुरु किया। मैं यह देखकर हैरान हुई और घृणा से भर उठी कि जिस लोटे से वह पानी-पताशे का मसाला बनाता था और जिस लोटे से कभीकभार ग्राहक पानी भी पी लिया करते थे, वह उसी लोटे में पेशाब भी करता है। जब यह बात मैंने अपने मित्रों, परिवारवालों एवं बिल्डिंग निवासियों को बताई तो किसी ने भी इस पर विश्वास नहीं किया, तब मैंने इसकी यह घृणित हरकत कैमरे में कैद करने का फ़ैसला किया।


वीडियो को देखने के बाद ही स्थानीय निवासियों ने पहले तो उस पानीपुरी ठेले वाले की "चकाचक धुलाई" की और फ़िर उसे पुलिस थाने ले गये, जहाँ उसके खिलाफ़ केस दर्ज किया गया। ठेले वाले चौहान की सफ़ाई भी बड़ी “मासूमियत”(?) भरी थी, जिसका कोई जवाब न तो पुलिस के पास था और न ही महानगरपालिका के अधिकारियों के पास, उसने कहा, “यहाँ आसपास आधा किमी तक एक भी सार्वजनिक मूत्रालय नहीं है, मैं अपने ठेले को लावारिस छोड़कर इतनी दूर बार-बार पेशाब करने कैसे जा सकता हूँ…। चूंकि यह कालोनी साफ़-सफ़ाई में अव्वल है और यहाँ की गलियों में भी लगातार भीड़ की आवाजाही बनी रहती है, तो मैं पेशाब कहाँ करूँ?”… थाना प्रभारी हेमन्त सावन्त ने भी इस बात की पुष्टि की, कि इस इलाके में आसपास कोई भी सार्वजनिक मूत्रालय नहीं है, पहले एक-दो थे भी, लेकिन वह भी अतिक्रमण और बिल्डरों के अंधे लालच में स्वाहा हो गये…

प्रस्तुत है यह वीडियो, जिसमें यह ठेलेवाला बड़ी सफ़ाई से अपनी “कलाकारी” दिखा रहा है… वीडियो में शुरुआती कुछ सेकण्ड की शूटिंग पेड़ के पत्तों में दब गई है, परन्तु बाद में सब कुछ स्पष्ट है…




इस वीडियो की डायरेक्ट लिंक यह है…
http://www.youtube.com/watch?v=7EYHcDHQbU8

पुलिस के सामने समस्या यह थी कि आखिर उस ठेले वाले को किस धारा के तहत केस बनाया जाए, फ़िलहाल उन्होंने मुम्बई पुलिस एक्ट के “सार्वजनिक स्थल पर पेशाब करने” के तहत 1200 रुपये जुर्माना और चेतावनी लगाकर छोड़ दिया है। जिस तरह दिल्ली के लाखों कामकाजी लोग सस्ते छोले-भटूरे पर गुज़ारा करते हैं, उसी तरह मुम्बई में भी लोग अपना पेट भरने के लिये वड़ा-पाव और पाव-भाजी पर निर्भर रहते हैं, परन्तु यह घटना सामने आने के बाद कहना मुश्किल है कि लोग अब क्या करेंगे? स्थानीय निवासियों में इस बात को लेकर भारी नाराज़गी है कि महानगरपालिकाएं उनसे भारीभरकम टैक्स तो ले रही हैं, बल्कि सरकारी कर्मचारी इन ठेले-रेहड़ी-खोमचे वालों से भी दैनिक वैध-अवैध वसूली भी करते रहते हैं, लेकिन जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने की इन्हें पूरी छूट है, न तो सरकार और न ही पुलिस, इन ठेलों पर साफ़-सफ़ाई के स्तर के बारे में कभी कोई जाँच ही करते हैं…।

ठाणे महानगरपालिका के डिप्टी कमिश्नर बीजी पवार कहते हैं कि “निश्चित रूप से यह घटना चौंकाने वाली है, हम इस ठेले वाले का मामला पुलिस के साथ ही स्वास्थ्य विभाग के कानूनों के मुताबिक भी देखेंगे एवं उसे उचित सजा दिलाई जाएगी… साथ ही अंकिता राणे की जागरुकता का सम्मान करते हुए नगरपालिका उसे नगद पुरस्कार से भी सम्मानित करेगी…”। मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी इस सम्बन्ध में टिप्पणी हेतु उपलब्ध नहीं हो सके… न ही कमिश्नर इस बात का कोई जवाब दे सके कि इलाके में आसपास कोई सार्वजनिक मूत्रालय क्यों नहीं है?  सरकारी लेतलाली का आलम यह है कि न तो इन ठेलों को "फ़ूड लाइसेंस" लेने की आवश्यकता है, न ही वैध बिजली-नल कनेक्शन… और इस घिनौनी हरकत पर सिर्फ़ 1200 रुपये का जुर्माना(?), इतनी तो इसकी आधे दिन की कमाई है… क्या कहा? विश्वास नहीं होता? मेरे घर के पास ही एक पानीपुरी वाला रहता है, सिर्फ़ शाम को 5 बजे से रात 11 बजे तक ठेला लगाता है, उसने मात्र 6 साल के अन्दर अपना मकान बनाया और एक ऑटो भी खरीद लिया है…


बहरहाल, ऐसी घटना कहीं भी, किसी भी राज्य में, किसी भी शहर में घट सकती है, घटती रहती होंगी, परन्तु हम भारतवासी चूंकि स्वास्थ्य मानकों को लेकर बहुत अधिक गम्भीर नहीं हैं इसलिये हम साफ़-सफ़ाई और “हाईजीन” को उपेक्षित कर देते हैं, जो कि सही नहीं है। ऐसा भी नहीं कि इस प्रकार की घिनौनी हरकतें सिर्फ़ सड़कों पर स्थित ठेलों-खोमचों में ही होती हैं… यदि आप मैक्डोनाल्ड और पिज्जा हट के किचन में भी झाँककर देखें, निगाह रखें तो वहाँ भी आपको नाक पोंछते शेफ़ और सड़ा हुआ मैदा-आलू, यहाँ-वहाँ घूमते चूहे इत्यादि मिल ही जाएंगे…

दो वर्ष पहले भी मैंने इसी से मिलती-जुलती एक पोस्ट लिखी थी, जिसमें बताया था कि सड़क किनारे मिलने वाले नीबू पानी में शवगृह में उपयोग किये जाने वाले बर्फ़ का ठण्डा पानी मिलाया जाता है, क्योंकि बर्फ़ फ़ैक्ट्रियों से मिलने वाला बर्फ़ महंगा पड़ता है, जबकि सरकारी अस्पतालों के पोस्टमार्टम गृह एवं शवगृह में आधे से अधिक पिघल चुके बर्फ़ की सिल्लियों को खरीदने के लिये इन खोमचेवालों की भीड़ देखी गई जो सरकारी कर्मचारियों की मिलीभगत से, शवों के नीचे रखे बर्फ़ को सस्ते दामों पर खरीद लेते हैं और उस बर्फ़ को नींबू पानी, बर्फ़ के गोले, मछली, मटन ठंडा रखने और फ़्रेश जूस(?) आदि में मिलाया जाता है… पूरा लेख इस लिंक पर क्लिक करके पढ़ें…

http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/03/cold-drinks-ice-road-side-vendors-in.html

पुराने जमाने के लोग “घर के खाने” पर ही जोर देते थे, बल्कि कई परिवारों में तो बाहर से आए हुए व्यक्ति के जूते-चप्पल घर से बाहर रखने, बाहर से आने पर हाथ-पाँव-मुँह धोने, “सिर्फ़ और सिर्फ़” रसोईघर में ही भोजन करने, बिस्तर-सोफ़े इत्यादि पर बैठकर न खाने जैसे कठोर नियम पालते थे, आज भी कई घरों में यह नियम पाले जाते हैं… ज़ाहिर है कि “घर का भोजन” तो घर का ही होता है। फ़िर भी यदि मजबूरीवश आपको कहीं बाहर खाना ही पड़ जाये तो कम से कम एक निगाह ठेले-खोमचे के आसपास के माहौल, साफ़सफ़ाई एवं बनाने वाले की “शारीरिक दशा-महादशा” पर तो डाल ही लें…। चलिये उस अनपढ़ ठेले वाले को छोड़िये, कितने पढ़े-लिखे लोग हैं जो पेशाब करने के बाद अच्छे से हाथ धोते हैं? कितने संभ्रान्त लोग हैं जो यहाँ-वहाँ थूकते रहते हैं? कितने लोग “मौका देखकर” यहाँ-वहाँ पेशाब कर ही देते हैं?

और आप चाहे लाख सावधानियाँ बरत लें, फ़िर भी जो होना है वह तो होकर ही रहेगा… किस्मत खराब हो तो ऊँट पर बैठे आदमी को भी कुत्ता काट लेता है कभी-कभी…

खबर का स्रोत :- Mumbai Mirror
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क्या आप जानते हैं कि सोनिया गाँधी किस धर्म का पालन करती हैं? निश्चित ही जानते होंगे, (गाँधी परिवार के अंधभक्तों को छोड़कर) पूरा देश जानता है कि एंटोनिया माईनो (Antonia Maino) उर्फ़ सोनिया गाँधी ईसाई धर्म का पालन करती हैं। UPA की अध्यक्षा, राष्ट्रीय सलाहकार समिति (National Advisory Council) की अध्यक्षा, सांसद इत्यादि होने के बावजूद, जब भी किसी सरकारी दस्तावेज, आधिकारिक भाषण अथवा कांग्रेस के अलावा किसी अन्य पार्टी के राजनैतिक नेता द्वारा जब भी कभी सोनिया गाँधी के “ईसाई” होने को रेखांकित करने की कोशिश की जाती है तो कांग्रेस पार्टी का समूचा “ऊपरी हिस्सा” हिल जाता है। सोनिया गाँधी को सार्वजनिक रूप से “ईसाई” कहने भर से कांग्रेसियों को हिस्टीरिया का दौरा पड़ जाता है, पता नहीं क्यों? जबकि यह बात सभी को पता है, फ़िर भी…

हाल ही में अमेरिका के वॉशिंगटन में सरकार की “अधिकृत प्रतिनिधि”, यानी वहाँ पर स्थित राजदूत सुश्री मीरा शंकर ने इमोरी विश्वविद्यालय (Emory University, USA) में आयोजित “व्हाय इंडिया मैटर्स” (Why India Matters) अर्थात “भारत क्यों महत्वपूर्ण है” विषय पर एक संगोष्ठी का उदघाटन किया। वहाँ अपने भाषण में मीरा शंकर ने भारत की “विविधता में एकता” को दर्शाने वाली “फ़िलॉसफ़ी” झाड़ते हुए कहा कि “भारत में किसी भी जाति-धर्म के साथ भेदभाव नहीं किया जाता है, सभी धर्मों को तरक्की के अवसर उपलब्ध हैं, आदि-आदि-आदि-आदि, लेकिन अपनी धुन में बोलते-बोलते मीरा शंकर कह बैठीं कि, “आज की तारीख में भारत की राष्ट्राध्यक्ष एक महिला हैं और वह हिन्दू हैं, उप-राष्ट्रपति मुस्लिम हैं, प्रधानमंत्री सिख धर्म से हैं, जबकि देश की सबसे बड़ी और सत्ताधारी पार्टी की अध्यक्ष एक ईसाई हैं और महिला है…” इससे साबित होता है कि भारत की तासीर “अनेकता में एकता” की है।

वैसे देखा जाये तो मीरा शंकर के इस पूरे बयान में कुछ भी गलत या आपत्तिजनक नहीं था, परन्तु भारत सरकार को (यानी सरकार की “असली” मुखिया को) “ईसाई” शब्द का उल्लेख नागवार गुज़रा। ऐसा शायद इसलिये कि, किसी आधिकारिक एवं उच्च स्तर के शासकीय कार्यक्रम में किसी उच्च अधिकारी द्वारा खुलेआम सोनिया गाँधी के धर्म का उल्लेख किया गया। परन्तु तत्काल दिल्ली से सारे सूत्र हिलाये गये, भारत की अमेरिका स्थित राजभवन (Indian Embassy in US) की वेबसाईट से मीरा शंकर के उस बयान में “ईसाई” शब्द के उल्लेख वाली लाइन हटा ली गई।


जब पत्रकारों ने इस सम्बन्ध में मीरा शंकर से जानना चाहा तो उन्होंने “नो कमेण्ट्स” कहकर टरका दिया, जबकि उनके कनिष्ठ अधिकारी वरिन्दर पाल ने पत्रकारों से “लिखित में सवाल पूछने” की बात कहकर अपरोक्ष रुप से धमकाने की कोशिश की। सरकार की आधिकारिक वेबसाईट पर मीरा शंकर का वह भाषण भले ही “संपादित”(?) कर दिया गया हो, परन्तु यू-ट्यूब पर उस भाषण को सुना जा सकता है…




(8.00 से 8.15 पर “ईसाई महिला” शब्द का उल्लेख है)

उल्लेखनीय है कि गत वर्ष 29 नवम्बर को पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट की बेंच ने हरियाणा के एक रिटायर्ड डीजीपी की याचिका को खारिज कर दिया था, जिसमें उन्होंने सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी एवं प्रियंका-रॉबर्ट वढेरा के धर्म के बारे में जानकारी चाही थी। याचिकाकर्ता ने जनसंख्या रजिस्ट्रार से इन महानुभावों के धर्म की जानकारी माँगी थी, परन्तु देने से इंकार करने पर कोर्ट केस लगाया था। न्यायालय में जस्टिस मुकुल मुदगल और रंजन गोगोई की पीठ ने यह कहकर याचिका खारिज कर दी कि, “सम्बन्धित पक्ष किस धर्म का पालन करते हैं, यह उनका निजी मामला है…”।

यह बात समझ से परे है कि आखिर गाँधी-नेहरू परिवार अपना “धर्म” क्यों छिपाना चाहता है, इसमें छिपाने वाली क्या बात है? और इसका कारण क्या है? क्या धर्म भी कोई “शर्म” वाली बात है? जब अमेठी और रायबरेली सीट से नामांकन भरने से पहले सोनिया और राहुल होम-हवन और यज्ञ में भाग लेते हैं तो क्या वे मतदाताओं को बेवकूफ़ बना रहे होते हैं? नैतिकता तो यही कहती है कि सोनिया गाँधी रायबरेली अथवा अमेठी में किसी चर्च जाकर शीश नवाएं, मतदाता अब समझदार हो चुके हैं, इसलिये उनके ईसाई होने (और प्रदर्शित करने) से उनके चुनाव अभियान अथवा परिणामों पर कोई फ़र्क नहीं पड़ सकता है, तो फ़िर डर कैसा? देश की आम जनता तो यह भी नहीं जानती कि रॉबर्ट वाड्रा ने कब ईसाई धर्म स्वीकार किया? रॉबर्ट वाड्रा के पिता ने ईसाई महिला से शादी की थी, तो धर्म बदला था या नहीं? आखिर इतनी “पर्दादारी” क्यों है? क्या फ़र्क पड़ता है, यदि लोग नेताओं के धर्म जान जाएं? जब उत्तरप्रदेश और बिहार के नेता अपनी-अपनी “जातियों” का भौण्डा प्रदर्शन करने में खुश होते हैं, तो “धर्म” छिपाने की क्या तुक है? यदि अपना धर्म छिपाने में नेताओं का कोई “अज्ञात भय” अथवा “जानबूझकर किया जाने वाला षडयंत्र” है… तो फ़िर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की “जाति” का उल्लेख करने पर सौ-सौ लानत है…।

हाल ही में कांग्रेस पार्टी के मुखपत्र “कांग्रेस संदेश” द्वारा भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव के 81वें शहीद दिवस पर प्रकाशित लेख में अमर शहीद सुखदेव थापर को जहाँ एक ओर जेपी साण्डर्स का “हत्यारा” बताया गया, वहीं भगतसिंह को “जाट सिख” और शिवराम राजगुरु को “देशस्थ ब्राह्मण” कहकर खामख्वाह इन अमर सेनानियों को जातिवाद के दलदल में घसीटने की घटिया कोशिश की है (Congress described freedom fighter's Caste), जो कि सिर्फ़ इनका ही नहीं, देश का भी अपमान है, हालांकि कांग्रेस पार्टी के लिये ऐसे “अपमान” कोई नई बात नहीं है… क्योंकि पार्टी का मानना है कि जिस नाम में “गाँधी-नेहरु” शब्द न जुड़ा हो, वह सम्माननीय हो ही नहीं सकता।

ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब सोनिया गाँधी को “ईसाई” कहना कांग्रेसियों को गवारा नहीं है, तो इन महान स्वतंत्रता सेनानियों की “जाति” दर्शाकर, “हत्यारा” निरूपित करके, कांग्रेस क्या साबित करना चाहती है? अब भले ही कांग्रेस इसे प्रिंटर की गलती, प्रूफ़ रीडर की गलती, लेखक की गलती इत्यादि बताकर, या फ़िर सोनिया गाँधी जो कि “भारत में त्याग और सदभावना की एकमात्र मूर्ति” हैं, देश से माफ़ी माँगकर मामले को रफ़ा-दफ़ा करने की कोशिश करे, परन्तु पार्टी का “असली” चेहरा, जो यदाकदा उजागर होता ही रहता है, एक बार फ़िर उजागर हुआ…। इन महान क्रांतिकारियों की जाति उजागर करके, जबकि स्वयं का धर्म छिपाकर कुछ हासिल होने वाला नहीं है… जनता अब धीरे-धीरे समझ रही है, “कौन-कौन”, “क्या-क्या” और “कैसे-कैसे” हैं…
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समूची दुनिया में करोड़ों भक्तों के श्रद्धास्थान अनंतपुर जिले में स्थित पुट्टपर्थी के श्री सत्य साईं बाबा का स्वास्थ्य, बेहद नाज़ुक स्थिति में चल रहा है। डॉक्टरों ने उन्हें वेंटिलेटर पर रखा है। 85 वर्षीय सत्य साँई बाबा अब अपने जीवन के आखिरी चरण में पहुँच चुके हैं। बाबा के करोड़ों भक्त उनके स्वास्थ्य हेतु दुआएं माँग रहे हैं और प्रार्थनाएं कर रहे हैं।

एक कहावत का मिलता-जुलता स्वरूप है - “मुर्दा अभी घर से उठा नहीं, और तेरहवीं के भोज की तैयारियाँ शुरु हो गईं…”। लगभग यही “मानसिकता” दर्शाते हुए आंध्रप्रदेश की कांग्रेस सरकार ने 40,000 करोड़ रुपये के विशाल टर्नओवर वाले सत्य साँई ट्रस्ट (Satya Sai Trust) पर राजनेताओं द्वारा कब्जा करने हेतु, पहला पाँसा फ़ेंक दिया है। मुख्यमंत्री किरण कुमार की पहल पर राज्य सरकार ने पाँच सदस्यों का एक विशेष प्रतिनिधिमण्डल पुट्टपर्थी भेजा है, जो इस बात की देखरेख करेगा कि साईं बाबा की मृत्यु के पश्चात सत्य सांई ट्रस्ट कैसे संचालित होगा, इस ट्रस्ट के ट्रस्टियों ने इस विशाल अकूत सम्पत्ति की ठीक से देखभाल एवं विभिन्न सेवा प्रकल्पों के सुचारु संचालन हेतु क्या-क्या कदम उठाए हैं।

पाँच सदस्यों की इस टीम में राज्य के मुख्य सचिव, वित्त सचिव एल वी सुब्रह्मण्यम, स्वास्थ्य सचिव पीवी रमेश, राज्य मेडिकल शिक्षा के निदेशक डॉ रघु राजू, उस्मानिया अस्पताल (Usmania Hospital) के कार्डियोलॉजिस्ट डॉ लक्ष्मण राव एवं डॉ भानु प्रसाद शामिल हैं। इस प्रतिनिधिमण्डल ने (यानी आंध्र की कांग्रेस सरकार ने) अपने बयान में कहा कि, “चूंकि डॉक्टर साईं बाबा के स्वास्थ्य (Satya Sai Baba Health) के बारे में सशंकित हैं, इसलिये हम ट्रस्ट के सभी प्रमुख सदस्यों से चर्चा कर रहे हैं कि साईं बाबा के निधन के पश्चात, क्या ऐसी कोई व्यवस्था है जो उनके सभी “चैरिटी” संस्थानों की ठीक तरह से देखभाल कर सके? क्या ट्रस्ट में कोई “केन्द्रीय व्यवस्था” है जो सभी संस्थाओं को एक छतरी के नीचे ला सके?” राज्य के मुख्य सचिव ने कहा कि चूंकि सत्य साईं ट्रस्ट को विदेशों से भारी मात्रा में चन्दा और दान प्राप्त होता है, इसलिये हमारी टीम यह भी देख रही है कि क्या ट्रस्ट के 40,000 करोड़ के टर्नओवर की विधिवत अकाउंटिंग की गई है अथवा नहीं? यदि ट्रस्ट के अकाउंट्स में कोई गड़बड़ी पाई गई तो राज्य सरकार इस समूचे ट्रस्ट का अधिग्रहण करने पर विचार करेगी”। उल्लेखनीय है कि सत्य साईं केन्द्रीय ट्रस्ट पुट्टपर्थी में एक विश्वविद्यालय, एक सुपर-स्पेशल विश्व स्तरीय सुविधाओं वाला अस्पताल (Satya Sai Super Speciality Hospital), एक वैश्विक धर्म म्यूजियम, एक विशाल तारामण्डल, एक रेल्वे स्टेशन, एक स्टेडियम, एक संगीत महाविद्यालय, एक हवाई अड्डा एवं एक इनडोर स्टेडियम जैसे बड़े-बड़े प्रकल्प संचालित करता है, इसके साथ ही विश्व के 180 से अधिक देशों में सत्य साईं बाबा के नाम पर 1200 से अधिक स्वास्थ्य एवं आध्यात्मिक केन्द्र चल रहे हैं…।

आपने कई बार देखा होगा कि घर में बाप आखिरी साँसें गिन रहा होता है और सबसे नालायक, जुआरी और शराबी बेटा उसके मरने से पहले ही, मिलने वाली सम्पत्ति और बंटवारे के बारे में चिल्लाने लगता है, जुगाड़ फ़िट करने लगता है। कुछ-कुछ ऐसा ही “सेकुलर” गिद्धों से भरी कांग्रेस पार्टी भी कर रही है। तिरुपति देवस्थानम (Tirupati Devasthanam) के ट्रस्टियों में “बाहरी” एवं “सेकुलर” लोगों को भरने तथा तिरुमाला की पवित्र पहाड़ियों पर चर्च निर्माण की अनुमति देकर “सेमुअल” राजशेखर रेड्डी ने जो “रास्ता” दिखाया था, उसी पर चलकर अब कांग्रेस की नीयत, सत्य साईं ट्रस्ट पर भी डोल चुकी है। अब यह तय जानिये कि किसी न किसी बहाने, कोई न कोई कानूनी पेंच फ़ँसाकर इस ट्रस्ट में कांग्रेसी घुसपैठ करके ही दम लेंगे।

आंध्रप्रदेश सरकार का यह तर्क अत्यंत हास्यास्पद और बोदा है कि सरकार सिर्फ़ यह सुनिश्चित करना चाहती है कि साँई बाबा के पश्चात ट्रस्ट का संचालन एवं आर्थिक गतिविधियाँ समुचित ढंग से संचालित हों एवं इसमें कोई गड़बड़ी न हो। सोचने वाली बात है कि सत्य साँई बाबा के भक्तों में ऊँचे दर्जे के बुद्धिजीवी, ऑडिटर्स, चार्टर्ड अकाउंटेंट्स, शिक्षाविद, इंजीनियर एवं डॉक्टर हैं, क्या वह ट्रस्ट साँई बाबा के जाने के बाद अचानक लावारिस हो जायेगा? क्या सत्य साँई बाबा के अधीन काम कर रहे वर्तमान विश्वस्त साथियों ने इस स्थिति के बारे में पहले से कोई योजना अथवा कल्पना करके नहीं रखी होगी? क्या ये लोग इतने निकम्मे हैं? स्वाभाविक है कि कोई न कोई “बैक-अप प्लान” अवश्य ही होगा और वैसे भी आज तक बड़े ही प्रोफ़ेशनल तरीके से सत्य साईं ट्रस्ट का संचालन होता रहा है, कभी कोई समस्या नहीं आई। लेकिन सरकार (यानी कांग्रेस) येन-केन-प्रकारेण सत्य साँई ट्रस्ट में “अपने राजनीतिक लुटेरों” को शामिल करना चाहती है।

उल्लेखनीय है कि सत्य साँई ट्रस्ट द्वारा संचालित अस्पताल विश्वस्तरीय हैं जहाँ मरीजों को लगभग मुफ़्त इलाज दिया जाता है, यह भी जरूरी नहीं है कि मरीज साईं बाबा का भक्त हो। परन्तु सांई बाबा के जाने के बाद यदि इसमें सरकारी कांग्रेसी दखल-अंदाजी शुरु हो गई तो इसकी हालत भी दिल्ली के किसी सरकारी अस्पताल जैसी हो जायेगी। बशर्ते “बाबूगिरी” इसमें अपनी नाक न घुसेड़े…

यहाँ पर स्वाभाविक सा प्रश्न खड़ा होता है, कि जिस समय मदर टेरेसा (Mother Teresa) गम्भीर हालत में थीं और अन्तिम साँसें गिन रही थीं, तब सरकार “मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी” (Missionaries of Charity) को मिलने वाले अरबों के चन्दे और उस ट्रस्ट के संचालन तथा रखरखाव के बारे में इतनी चिंतित क्यों नहीं थी? ये सारे सवाल साईं बाबा के ट्रस्ट के समय ही क्यों खड़े किये जा रहे हैं? और वह भी निष्ठुरता की इस पराकाष्ठा के साथ, कि अभी सत्य साँई बाबा मरे नहीं हैं, सिर्फ़ गम्भीर हैं। साईं बाबा ट्रस्ट से सम्बन्धित सभी “कांग्रेसी सेकुलर आशंकाएं” उस समय कभी सामने क्यों नहीं आईं, जब बाबा पूर्णतः स्वस्थ थे और उनके कार्यक्रमों में शंकरदयाल शर्मा, टीएन शेषन, अब्दुल कलाम, नरसिंहराव इत्यादि सार्वजनिक रूप से शिरकत करते थे? अब जबकि बाबा अपनी मृत्यु शैया पर हैं तब कांग्रेस को यह याद आ रहा है? साईं बाबा ने हमेशा आध्यात्म और भक्ति-प्रार्थना को ही अपना औज़ार बनाया है, साँई बाबा पर ढोंग करने, पाखण्ड करने सम्बन्धी आरोप लगते रहे हैं और विवाद होते रहे हैं, परन्तु साँई बाबा पर घोर कांग्रेसी भी “साम्प्रदायिकता फ़ैलाने” का आरोप नहीं लगा सकते… परन्तु साँई बाबा द्वारा खड़े किये गये 40,000 करोड़ के साम्राज्य पर “सेकुलर गिद्धों” की बुरी निगाह है, यह बात आईने की तरह साफ़ है। ये बात और है कि केन्द्र सरकार के बाद, पूरे देश में सबसे अधिक जमीनों और रियल एस्टेट पर कब्जा यदि किसी का है तो दूसरे नम्बर पर “चर्च” और मिशनरी ही हैं, लेकिन याद नहीं पड़ता कि कभी कोई सरकार इस बारे कभी चिन्तित हुई हो… क्या उस अकूत सम्पत्ति के अधिग्रहण के बारे में कभी किसी ने विचार किया है? किसी की हिम्मत नहीं है (खासकर सोनिया गाँधी के रहते)।

महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार ने वहाँ के सभी प्रसिद्ध और बड़े मंदिरों के ट्रस्टों का पिछले दरवाजे से अधिग्रहण कर रखा है, मंदिरों में आने वाला भारीभरकम चढ़ावा सरकारों के लिये “दूध देती गाय” के समान है (लेकिन सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दू मन्दिर ही)। मन्दिरों की दुर्दशा पर किसी का ध्यान नहीं जाता, लेकिन वहाँ से आने वाली 85% कमाई सरकार की जेब में जाती है। हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने हिन्दू, सिख एवं जैन धार्मिक स्थलों के अधिग्रहण हेतु एक प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेजा है, जो कि “उचित माहौल और समय” आने पर पारित कर लिया जायेगा। आम हिन्दू ऐसे मुद्दों पर समर्थन और ठोस कार्रवाई के लिये भाजपा की तरफ़ देखता है, लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगती है। भाजपाई, हिन्दुओं के हितो का सिर्फ़ “दिखावा” करते हैं, और तय जानिये कि सेकुलर “दिखाई देने” के चक्कर में, वे न घर के रहेंगे और न घाट के…। विकल्पहीनता के अभाव में फ़िलहाल हिन्दू भाजपा को वोट दे रहे हैं… लेकिन यह स्थिति हमेशा रहेगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता…। जब सत्य साँई बाबा और शंकराचार्य जैसे हिन्दुओं के बड़े आस्था पुंज पर अथवा लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या से लेकर साध्वी प्रज्ञा को जेल में ठूंसने पर भी भाजपा सिर्फ़ तात्कालिक हो-हल्ला करके चुप्पी साध लेती हो तब तो निश्चित रूप से भविष्य अंधकारमय ही है, हिन्दुओं का भी और भाजपा का भी…

मैं न तो साँई बाबा का भक्त हूँ और न ही साईं बाबा के “तथाकथित चमत्कारों”(?) का कायल हूँ, परन्तु यह तो मानना ही होगा कि उन्होंने अनन्तपुर जिले के कई गाँवों के पीने के पानी की समस्या से लेकर अस्पताल, स्कूल जैसे कई-कई पारमार्थिक काम सफ़लतापूर्वक किये हैं। निश्चित रूप से उनका भक्त वर्ग बहुत बड़ा है, श्रद्धा अथवा अंधश्रद्धा जैसे प्रश्नों को यदि फ़िलहाल दरकिनार भी कर दिया जाए, तब भी इस बात में कोई शक नहीं है कि हिन्दुओं के आस्था केन्द्रों पर सेकुलर हमलों की लम्बी सीरिज की यह एक और कड़ी है…

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चलते-चलते :- अभी कुछ दिनों पहले गोआ के एक मंत्री को मुम्बई एयरपोर्ट पर एक लाख से अधिक अवैध डॉलर के साथ पकड़ा गया था (Goa Minister Held with Dollars), साफ़ है कि वह पैसा ड्रग्स से कमाया गया था और देश के बाहर ले जाया जा रहा था। लेकिन 65 लाख रुपये के लिये राहत फ़तेह अली खान पर हंगामा करने वाले मीडिया ने भी गोआ के इस “ईसाई मंत्री” के कुकर्म पर आँखें मूंदे रखीं, जबकि कस्टम विभाग ने भी उसे बगैर जाँच के छोड़ दिया है… कहा गया है कि गोवा के मंत्री को छोड़ने का आदेश “ऊपर से” आया था…। यानी लुटेरों(कलमाडी) और डाकुओं (ए राजा) के साथ-साथ, अब दिल्ली में “ड्रग स्मगलरों” की भी सरकार काम कर रही है…

देश का ध्यान जब अण्णा हजारे की तरफ़ लगा हुआ है, तब भी “सेकुलर गैंग” अपने घिनौने “हिन्दुओं को दबाओ, अल्पसंख्यकों को उठाओ” अभियान में लगी हुई है… जन-लोकपाल बिल यदि पास हो भी गया, तब भी वह सेकुलरों-वामपंथियों के इस “सतत जारी नीचकर्म” का क्या उखाड़ लेगा?
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जैसा कि अब सभी जान चुके हैं, कांग्रेस पार्टी अल्पसंख्यकों के वोट बैंक को हड़पने और भुनाने के लिये किसी भी हद तक गिर सकती है, लेकिन केरल के आगामी चुनावों में कांग्रेस के नेतृत्व में UDF मोर्चे के उम्मीदवारों की लिस्ट देखकर चौंकना स्वाभाविक है। हालांकि उम्मीद तो नहीं है फ़िर भी कांग्रेस के उम्मीदवारों (Congress Candidates in Kerala) की इस लिस्ट से “सेकुलरों” के मन में बेचैनी उत्पन्न होना चाहिये, एवं कांग्रेस के भीतर भी जल्दी ही इस बात पर विचार मंथन शुरु होना चाहिये कि उनका भविष्य क्या है।


सेकुलरों को यह जानकर खुशी(?) होगी कि केरल के आगामी विधानसभा चुनावों (Kerala Assembly Elections) में “खानग्रेस” पार्टी ने कुल 140 में से 74 टिकिट अल्पसंख्यकों को दिये हैं। यह तो अब एक स्वाभाविक सी बात हो गई है कि जिन विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिम अथवा ईसाई जनसंख्या का बहुमत है, वहाँ एक भी हिन्दू को टिकिट नहीं दिया गया है (“सेकुलरिज़्म की रक्षा” की खातिर दिया ही नहीं जा सकता), लेकिन ऐसे कई अल्पसंख्यक उम्मीदवार (Minority Community Candidates in Kerala) हैं जिन्हें हिन्दू बहुल क्षेत्रों से “खान्ग्रेस” ने टिकिट दिया है। यह रवैया साफ़ दर्शाता है कि “खानग्रेस” पार्टी को पूरा भरोसा है कि ईसाई और मुस्लिम वोट तो कभी भी “सेकुलरिज़्म” नाम के लॉलीपाप के झाँसे में आने वाले नहीं हैं, इसलिये जहाँ ईसाईयों और मुस्लिमों का बहुमत है वहाँ सिर्फ़ उसी समुदाय के उम्मीदवार खड़े किये हैं, जबकि हिन्दू तो चूंकि परम्परागत रूप से मुँह में “सेकुलरिज़्म” (Secularism of Hindus) का चम्मच लेकर ही पैदा होता है इसलिये वहाँ “कोई भी ऐरा-गैरा” उम्मीदवार चलेगा, वह तो उसे वोट देंगे ही। ज़ाहिर है कि यह सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दुओं की जिम्मेदारी है कि “केरल में धर्मनिरपेक्षता” बरकरार रहे…।

जिस प्रकार कश्मीर में सिर्फ़ मुसलमान व्यक्ति ही मुख्यमंत्री बन सकता है, उसी प्रकार अगले 10-15 साल में केरल में यह स्थिति बन जायेगी कि कोई ईसाई या कोई मुस्लिम ही केरल का मुख्यमंत्री बन सकता है, यानी केरल “अल्पसंख्यकों की एक्सक्लूसिव सरकार” दूसरा रोल मॉडल सिद्ध होगा। अब यह तो “खानग्रेस” पार्टी के हिन्दू सदस्यों, विधायकों, पूर्व विधायकों, सांसदों को आत्ममंथन कर सोचने की आवश्यकता है कि 1970 में खान्ग्रेस से कितने अल्पसंख्यकों को टिकट मिलता था और 2010 में उसका प्रतिशत कितना बढ़ गया है, तथा सन 2040 आते-आते खान्ग्रेस पार्टी में हिन्दुओं की स्थिति क्या होगी, शायद उस वक्त 100 से अधिक उम्मीदवार मुस्लिम या ईसाई होंगे?


एक बात और… 170 सीटों में से 74 उम्मीदवार अल्पसंख्यक समुदाय से हैं, जबकि बाकी बचे हुए 66 उम्मीदवार सिर्फ़ कहने के लिये ही हिन्दू हैं, क्योंकि सही स्थिति किसी को भी नहीं पता कि इन 66 में से कितने “असली” हिन्दू हैं और इनमें से कितने “अन्दरखाने” धर्म परिवर्तन (Conversion in India) कर चुके हैं। जिस प्रकार भारत के भोले (बल्कि मूर्ख) हिन्दू सोनिया गाँधी (Sonia Gandhi a Christian) और राजशेखर रेड्डी (YSR is Christian) जैसों को हिन्दू समझते आये हों, वहाँ इन 66 उम्मीदवारों के असली धर्म का पता लगाने की “ज़हमत” कौन उठायेगा? और मान लें कि यदि 66 उम्मीदवार हिन्दू भी हुए, तब भी असल में वे हैं तो इटली की मैडम के गुलाम ही…

मजे की बात तो यह है कि इतने सारे अल्पसंख्यक उम्मीदवारों के बावजूद, त्रिचूर के कैथोलिक चर्च (Catholic Church of Thrissur) ने UDF के समक्ष ईसाईयों को “पर्याप्त” सीटें न दिये जाने पर अप्रसन्नता व्यक्त की है, इसी प्रकार मलप्पुरम क्षेत्र की मुस्लिम एजुकेशन सोसायटी ने पूरे इलाके में समुदाय को सिर्फ़ 10 सीटें दिये पर नाराज़गी जताई है।

ऐसा नहीं है कि वामपंथी नेतृत्व वाला LDF कोई दूध का धुला है, बल्कि वह भी उतना ही राजनैतिक नीच है जितनी कांग्रेस। उन्होंने भी चुन-चुनकर कई हिन्दू बहुल इलाकों में ईसाई और मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किये हैं और वे ढोल बजा-बजाकर यह प्रचारित भी कर रहे हैं कि वामपंथ ने अल्पसंख्यकों के लिये “क्या-क्या तीर” मारे हैं। वामपंथियों के, अब्दुल नासेर मदनी (Abdul Naser Madni) और पापुलर फ़्रण्ट ऑफ़ इंडिया (Popular Front of India) (जिसके खिलाफ़ NIA राष्ट्रद्रोह और बम विस्फ़ोटों के मामले की जाँच कर रही है) से मधुर सम्बन्ध काफ़ी पहले से हैं (ज़ाहिर है कि “धर्म अफ़ीम है” जैसा वामपंथी ढोंग, सरेआम और गाहे-बगाहे नंगा होता ही रहता है, क्योंकि उनके अनुसार “सिर्फ़ हिन्दू धर्म” ही अफ़ीम है, बाकी के सभी पवित्र हैं)।

स्वाभाविक सी बात है, कि जब आज की तारीख में खानग्रेस और वामपंथी शासित राज्यों में हिन्दुओं के हितों की रक्षा नहीं होती, तो जिस दिन केरल और बंगाल विधानसभा में सिर्फ़ और सिर्फ़ “अल्पसंख्यकों” का ही दबदबा और सत्ता पर कब्जा होगा तब क्या हालत होगी? अभी जो नीतियाँ दबे-छिपे तौर पर जेहादियों और एवेंजेलिस्टों के लिये बनती हैं, तब वही नीतियाँ खुल्लमखुल्ला भी बनेंगी… अर्थात निश्चित रूप से कश्मीर जैसी…। कांग्रेस के बचे-खुचे हिन्दू विधायक या तो मन मसोसकर देखते रह जायेंगे या फ़िर उन तत्वों से समझौता करके अपना मुनाफ़ा स्विस बैंक में पहुँचाते रहेंगे।

जनसंख्या बढ़ाकर, वोट बैंक के रूप में समुदाय को “प्रोजेक्ट” करने से क्या नतीजे हासिल हो सकते हैं यह जयललिता की इस घोषणा (Jayalalitha Announces travel to Bethlehem) से समझा जा सकता है जिसमें उन्होंने तमिलनाडु के मतदाताओं को सोने की चेन, लैपटॉप इत्यादि बाँटने का आश्वासन देने के बावजूद, सभी ईसाईयों को बेथलेहम (इज़राइल) जाने के लिये सबसिडी की भी घोषणा की है। जयललिता का कहना है कि जब मुस्लिमों को हज जाने पर सबसिडी मिलती है तो ईसाईयों को भी बेथलेहम जाने हेतु सबसिडी, उनका “हक” है। हिन्दू धर्म के अलावा, किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के लाभ हेतु की जाने वाली घोषणाओं से भारत का “धर्मनिरपेक्ष” चरित्र खतरे में नहीं पड़ता, भाजपा सहित सभी के मुँह में दही जम जाता है, सभी लोग एकदम भोले और अनजान बन जाते हैं। लेकिन जैसे ही विहिप अथवा नरेन्द्र मोदी, हिन्दुओं के पक्ष में कुछ कहते हैं तो हमारे मीडिया और मीडिया के तथाकथित स्वयंभू ठेकेदारों को अचानक सेकुलर उल्टियाँ होने लगती हैं, संविधान की मर्यादा तथा गंगा-जमनी संस्कृति इत्यादि के मिर्गी के दौरे पड़ने लगते हैं।

लेकिन ज़ाहिर है कि इसके जिम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दू और इनके हितों का दम भरने वाली पार्टियाँ ही हैं, जिन्होंने “राम” के नाम पर सत्ता की मलाई तो खूब खाई है, लेकिन “सेकुलरिज़्म” के नाम पर हिन्दुओं का जो मानमर्दन किया जाता है, उस पर चुप्पी साध रखी है। सेकुलरिज़्म और गाँधीवाद का डोज़, हिन्दुओं की नसों में ऐसा भर दिया गया है कि हिन्दू बहुल राज्य (महाराष्ट्र, बिहार) का मुख्यमंत्री तो ईसाई या मुस्लिम हो सकता है, लेकिन कश्मीर का मुख्यमंत्री कोई हिन्दू नहीं… जल्दी ही यह स्थिति केरल में भी दोहराई जायेगी।
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चलते-चलते :- मेरे लेखों को पढ़कर कई पाठक मुझे ई-मेल करते हैं, कुछ लोग टिप्पणियाँ करते हैं, जबकि कुछ सीधे ही ईमेल कर देते हैं। गत छः माह (जबसे मैं फ़ेसबुक पर अधिक सक्रिय हुआ हूँ) से देखने में आया है कि ईमेल में प्राप्त होने वाली सबसे “कॉमन” शिकायतें होती है कि -

1) “सेकुलरिज़्म और कांग्रेस को बेनकाब करते हुए इन मुद्दों को उठाकर तुम नकारात्मकता फ़ैला रहे हो…”

2) “यदि इन मुद्दों और घटनाओं को तुम रोक नहीं सकते, तो लोगों को भड़काते क्यों हो?”

3) “यदि इतने ही तेवरों वाले बनते हो, तो तुम खुद ही राजनीति में कूदो और ये बुराईयाँ दूर करो…”

4) “यदि भाजपा से भी मोहभंग हो चुका है, तो स्वयं कोई संगठन क्यों नहीं बनाते?”

इन सभी “आरोपों”(?) और “सवालों” पर कभी एकाध विस्तृत पोस्ट लिखने की कोशिश करूंगा… फ़िलहाल सिर्फ़ इतना ही कहना चाहूँगा कि “क्या प्रत्येक व्यक्ति हर प्रकार का (जैसे राजनीति में आना, संगठन बनाना इत्यादि) काम कर सकता है?”, “क्या जनजागरण हेतु “सिर्फ़” लेखन करना पर्याप्त नहीं है?” ये तो वही बात हुई कि बिल्डिंग के चौकीदार से आप कहें कि, "तू चोरों से आगाह भी कर, चोर को पकड़ भी, चोर को पकड़ने का उपाय भी बता, चोर कैसे पकड़ें उसके लिये संगठन भी बना और चौकीदारी भी कर… हम तो सिर्फ़ सोएंगे और जाग भी गये तो सिर्फ़ देखते रहेंगे, करेंगे कुछ भी नहीं…"

मेरे पाठक मुझे पढ़कर आंदोलित, आक्रोशित होते हैं, यह मेरे लिये खुशी की बात है, परन्तु हर बात के समाधान के लिये, वे मेरी तरफ़ ही क्यों देखते हैं? मुझे ही उलाहना क्यों देते हैं? मुझ से ही अपेक्षा क्यों रखते हैं? आखिर प्रत्येक आम आदमी की तरह मेरी भी कुछ आर्थिक, पारिवारिक सीमाएं हैं…। यदि किसी को ऐसा लगता है, कि मेरे लिखने से कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला, कुछ नहीं बदलने वाला… तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ? नकारात्मक विचारों वाला वह स्वयं है, या मैं? मेरा योगदान भले ही गिलहरी जितना हो, परन्तु मेरे आलोचक स्वयं विचार करें देश की स्थितियाँ जितनी बदतर होती जा रही हैं, क्या उसमें व्यक्ति का “सिर्फ़ पैसा कमाना” ही महत्वपूर्ण पैमाना है? देश के प्रति उसके कोई और दायित्व नहीं हैं? मैं अक्सर ऐसे "सेकुलर हिन्दू बुद्धिजीवियों" से मिलता हूँ, जिनके सामने "हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद" की बात करने भर से ही उनका मुँह ऐसा हो जाता है मानो कुनैन की गोली खिला दी गई हो…। यदि देश का मुस्लिम नेतृत्व(?) अपने समुदाय के युवाओं को कट्टरवाद की ओर जाने से रोकने में असफ़ल हो रहा है तो इसमें किसी और का क्या दोष है? खानग्रेस और वामदलों की तुष्टिकरण की नीतियों और खबरों को उजागर करना साम्प्रदायिकता फ़ैलाना कैसे कहा जा सकता है? यदि कोई यह कहे कि भारत में बढ़ता इस्लामी कट्टरवाद और ईसाई धर्मान्तरण का जाल, नामक कोई समस्या है ही नहीं, तब तो उसे निश्चित रूप से "अच्छे इलाज" की जरुरत है…

केरल, गोवा, पश्चिम बंगाल और असम में अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के चलते जो स्थितियाँ आज बनी हैं, वह कोई रातोंरात तो नहीं हुआ है…। मुझे भड़काने वाला एवं नकारात्मक लिखने का आरोप लगाने वाले सेकुलरों को मैं चुनौती देता हूँ कि यदि वे “वाकई असली सेकुलर” हैं तो कश्मीर में हिन्दू मुख्यमंत्री बनवाकर दिखाएं, या नगालैण्ड में ही किसी हिन्दू को मुख्यमंत्री बनवाकर देख लें… मैं उसी दिन ब्लॉगिंग छोड़ दूंगा…। यदि यह काम नहीं कर सकते, तो स्वयं सोचें कि आखिर ऐसा क्यों है कि मुस्लिम बहुल या ईसाई बहुल राज्य/देश में हिन्दू नेतृत्व नहीं पनप सकता…

अंत में सिर्फ़ इतना ही कहना चाहूंगा कि कुछ पाठक मेरे लेख पढ़कर आक्रोशित होते हैं, जबकि कुछ कुण्ठित हो जाते हैं (कि देश के हालात बदलने हेतु वे कुछ कर सकने में अक्षम हैं), परन्तु संकल्प लें कि इस हिन्दू नववर्ष से धैर्य बनाये रखेंगे, आक्रोश और ऊर्जा को सही दिशा में लगाने का प्रयास करेंगे, देश के लिये आप “जो भी” और “जैसा भी” योगदान दे सकते हों, अवश्य देंगे…

एक रजिस्टर्ड पत्रकार बनकर, किसी फ़ालतू से सांध्य-दैनिक में काम करते हुए सरकारी अधिकारियों को धमकाकर/ब्लैकमेल करके लाखों रुपये बनाना बहुत आसान काम है, जबकि बगैर किसी कमाई के, मुफ़्त में अपने ब्लॉग पर राष्ट्रीय राजनीति की खबरें और विश्लेषण डालना, किसी सिरफ़िरे का ही काम हो सकता है, और वह मैं हूं…

शायद पाँच राज्यों में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव, माननीय अण्णा हजारे का आमरण अनशन (Anna Hajare Fast unto Death), बाबा रामदेव की मुहिम (Baba Ramdev threat to congress) जैसी घटनाएं मिलकर देश के भविष्य में कुछ सकारात्मक करवट लेने वाले बनें… हम सभी को उम्मीद रखना चाहिये और देश के लिए अपना “सर्वाधिक सम्भव योगदान” करते रहना चाहिये…। क्रिकेट-फ़िल्मों-भूतप्रेत-ज्योतिष-नंगीपुंगी बालाओं जैसी "खबरों की वेश्यावृत्ति" में लगा हुआ चाटुकार, भाण्ड, अपने दायित्वों को भूल चुका तथा सत्ताधीशों के हाथों बिका हुआ मीडिया तो यह करने से रहा… यह काम तो आपको और मुझे ही करना है।

इसी आशा के साथ सभी को नूतन वर्ष की मंगल कामनाएं…
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भारत और पाकिस्तान के बीच बहुप्रतीक्षित मैच अन्ततः 30 मार्च को सुखद अन्त के साथ सम्पन्न हो गया। 26/11 के मुम्बई हमले के बाद पाकिस्तान के साथ भारत का यह पहला ही मुकाबला था, इसलिये स्वाभाविक तौर पर भावनाएं उफ़ान पर थीं। रही-सही कसर भारत के अधकचरे इलेक्ट्रानिक मीडिया (जो कि परम्परागत रूप से मूर्खों, बेईमानों, चमचों से भरा है) ने इस मैच को लेकर जिस तरह अपना “ज्ञान”(?) बघारा तथा बाज़ार की ताकतों (जो कि परम्परागत रूप से लालची, मुनाफ़ाखोर और देशद्रोही होने की हद तक कमीनी हैं) ने इस मौके का उपयोग अपनी तिजोरी भरने में किया… उस वजह से इस मैच के बारे में आम जनता की उत्सुकता बढ़ गई थी।




इस माहौल का लगे हाथों फ़ायदा उठाने में कांग्रेस सरकार, मनमोहन सिंह, विदेश मंत्रालय के अफ़सरों (Foreign Ministry of India) और सोनिया-राहुल ने कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। मीडिया भी 7-8 दिनों के लिये इस ओर व्यस्त कर दिया गया, आगामी 5 राज्यों के चुनाव (Assembly elections in India) को देखते हुए पाकिस्तान को पुचकारने (प्रकारान्तर से खुद के मुँह पर जूता पड़वाने) का इससे बढ़िया मौका कौन सा मिल सकता था। यह कांग्रेस की घटिया और नीच सोच ही है कि उसे लगता है कि पाकिस्तान से मधुर सम्बन्ध बनाने पर भारत के मुसलमान खुश होंगे, यह घातक विचारधारा है, लेकिन मीडिया इसकी परवाह नहीं करता और कांग्रेस की “अखण्ड चमचागिरी” में व्यस्त रहता है।

सो, पाकिस्तान से दोस्ती (India-Pakistan Relations) की कसमें खाते, कुछ “नॉस्टैल्जिक” किस्म के अमन की आशा वाले “दलालों” की सलाह पर, मौके का फ़ायदा(?) उठाने के लिये मनमोहन सिंह ने उस व्यक्ति को मैच देखने भारत आने का निमंत्रण दे दिया, जो लगातार पिछले दो साल से पाकिस्तान में छिपे बैठे 26/11 के मुख्य अपराधियों और षडयंत्रकारियों को बचाने में लगा हुआ है, भारत की कूटनीतिक कोशिशों पर पानी फ़ेरने में लगा हुआ है, अमेरिका से हथियार और पैसा डकारकर भारत के ही खिलाफ़ उपयोग करने में लगा है। अफ़ज़ल खान की तरह शिवाजी की पीठ में छुरा घोंपने की मानसिकता बनाये बैठे यूसुफ़ रज़ा गिलानी (Yousuf Raza Gilani) के साथ बुलेटप्रूफ़ काँच के बॉक्स में मैच देखने में मनमोहन सिंह को ज़रा भी संकोच अथवा शर्म नहीं आई। (26/11 Mumbai Attacks)

यह एक सामान्य सिद्धांत है कि जो नेता अपनी जनता की भावनाओं को समझ नहीं सकता, उसे नेता बनकर कुर्सी से चिपके रहने का कोई हक नहीं है। आम जनता की भावना क्या है, यह 30 मार्च की रात को समूचे भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी और गुवाहाटी से राजकोट तक साफ़ देखी जा सकती थी, और जो इस जनभावना के ज्वार को नहीं पढ़ पा रहे हैं, ऐसे नेता पक्ष और विपक्ष में अपनी राजनैतिक गोटियाँ बैठाने में लगे हुए हैं। पाकिस्तान का हर विकेट गिरने पर पटाखे छोड़ने वाले, मैच जीतने के बाद आतिशबाजी करने वाले, अपनी-अपनी गाड़ियों पर तिरंगा लहराते, “हिन्दुस्तान जिंदाबाद” (सेकुलरों का मुँह भले यह सुनकर कड़वा हो, लेकिन हकीकत यही है कि “इंडिया-इंडिया” की बजाय “भारत माता की जय” तथा “हिन्दुस्तान जिन्दाबाद” का ही जयघोष चहुँओर हुआ) नारे लगाते बड़े-बूढ़े, हिन्दू-मुस्लिम, नर-नारियाँ जिस “भावना” का प्रदर्शन कर रहे थे, उसे कोई बच्चा भी समझ सकता था। यदि मनमोहन सिंह ने गली-नुक्कड़ की पान की दुकानों पर खड़े होकर मैच देखा होता तो वे जान जाते कि आम आदमी उनके बारे में, पाकिस्तान के बारे में, पाकिस्तान के खिलाड़ियों के बारे में, तथाकथित गंगा-जमनी वाले फ़र्जियों के बारे में… किस भाषा में बात करता है और क्या सोच रखता है।

उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोग जानते हैं कि होली (Holi Festival in India) खेलने के दौरान कैसी गालियों से युक्त भाषा का उपयोग किया जाता है, सोनिया-राहुल अपना एसी बॉक्स छोड़कर ग्रामीण कस्बे के किसी चौराहे पर मैच देखते तो जान जाते कि लोगों ने दीपावली तो मैच जीतने के बाद मनाई थी, होली पहले मनाई… अर्थात “होली के माहौल वाली भाषा” पूरे मैच के दौरान जारी थी। कामरान अकमल का विकेट गिरने से लेकर मिस्बाह का विकेट गिरने तक हर बार तथा स्क्रीन पर कभीकभार दिखाये जाने वाले यूसुफ़ रज़ा गिलानी का दृश्य देखते ही पान की दुकान पर जिस प्रकार की गालियों की बौछार होती थी, उन सभी गालियों को उनके अलंकार सहित यहाँ लिखना नैतिकता के तकाजे की वजह से असम्भव है। परन्तु 30 मार्च को जिसने भी “आम जनता” के साथ मैच देखा और धारा 144 तथा बड़ी स्क्रीन नहीं, डीजे नहीं, अधिक शोर नहीं… जैसे विभिन्न सरकारी प्रतिबन्धों को सरेआम धता बताकर जैसा जश्न मनाया… उसका संदेश साफ़ था कि पाकिस्तान नाम के “खुजली वाले कुत्ते” से अब हर कोई परेशान है और उसे लतियाना चाहता है, दबाना और रगेदना चाहता है… परन्तु इस भावना को न तो अटल जी समझने को तैयार थे, न मनमोहन सिंह समझने को तैयार हैं, और न ही आडवाणी।

यदि मोहाली में मैच शुरु होने से पहले दोनों प्रधानमंत्री हमारे शहीद जवानों के सम्मान में दो मिनट का मौन रखते, अथवा मुम्बई हमले में मारे गये शहीदों की याद में दीपक प्रज्जवलित किये जाते, अथवा पाकिस्तान से विरोध प्रदर्शित करने के लिये कम से कम 20-25 हजार दर्शक और सोनिया-राहुल स्वयं काली पट्टी बाँधकर आते… परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ… इसी से साबित होता है कि हमारे देश के नेताओं की "कथित देशभक्ति" कितनी संदिग्ध है… और उनमें पाकिस्तान के समक्ष कोई "कठोर"  तो छोड़िये, हल्का-पतला प्रतीकात्मक प्रतिरोध करने लायक "सीधी रीढ़ की हड्डी" भी नहीं बची है।

ड्राइंगरूमों में बैठकर चैनलों की स्क्रिप्ट लिखने वाले तथाकथित “अंग्रेजीदां बुद्धिजीवी” भी कभी इस भावना को नहीं समझ सकते। हमने पाकिस्तान को 4-4 बार युद्ध में हराया है और विश्वकप के मुकाबलों में भी 5 बार हराया है, हमने पाकिस्तान के दो टुकड़े किये हैं (चार टुकड़े और भी करने की क्षमता है), परन्तु कश्मीर के जिस नासूर को पाकिस्तान ने लगातार 60 साल से लहूलुहान रखा है, कभी दाऊद इब्राहीम, टाइगर मेमन तो कभी अफ़ज़ल गुरुओं-कसाबों के जरिये जिस तरह लगातार कीलें-काँटे चुभाता रहा है… अब उससे “आम जनता” आज़िज़ आ चुकी है…। पान की दुकान पर रखे टीवी पर चलते मैच के दौरान होने वाली "देसी गालियों से लैस" अभिव्यक्तियों के स्वर यदि समय रहते देश के कर्णधारों के “तेल डले कानों” तक पहुँच जाये तो ज्यादा अच्छा रहेगा…

अब अन्त में एक कड़वी बात 30 मार्च की रात को जश्न मनाने वाले “वीरों” से भी –



पाकिस्तान को हराने पर आपने जश्न मनाया, पटाखे फ़ोड़े, मिठाईयाँ बाँटी, रैली निकाली, हॉर्न बजाये, तिरंगे लहराये… कोई शिकायत नहीं है। कुछ लोगों ने इस उन्मादी क्रिकेट प्रेम पर यह कहकर नाक-भौंह सिकोड़ी कि ये सब बकवास है, देश जिन समस्याओं से जूझ रहा है उसे देखते हुए ऐसा भौण्डा जश्न मनाना उचित नहीं है… परन्तु ऐसे शुद्धतावादियों से मैं सिर्फ़ इतना ही कहना चाहता हूँ कि आम जनता के जीवन में इतने संघर्ष हैं, इतने दुःख हैं, इतनी गैर-बराबरी है कि उसे खुशी मनाने के मौके कम ही मिलते हैं, इसलिये भारत-पाक क्रिकेट मैच के जरिये थोड़ी देर की “आभासी” ही सही, खुशी मनाने का मौका उन्हें मिलता है। अपना गुस्सा व्यक्त करने की कोई संधि या कोई मौका-अवसर इन आम लोगों के पास नहीं है, इसलिये वह गुस्सा पाकिस्तान के खिलाफ़ मैच के दौरान निकल जाता है… इसलिये मैं कहना चाहता हूँ कि देशभक्ति का यह प्रदर्शन, खुशियाँ, नारेबाजियाँ इत्यादि सब कुछ, सब कुछ माफ़ किया जा सकता है, बशर्ते यह भावना “पेशाब के झाग” की तरह तात्कालिक ना हो, कि ‘बुलबुले की तरह उठा और फ़ुस्स करके बैठ गया”।

दुर्भाग्य से हकीकत यही है कि हमारी राष्ट्रवाद और देशप्रेम की भावना, पेशाब के झाग की तरह ही है… मैच जीतने का जश्न खत्म हुआ, पाकिस्तान और ज़रदारी-गिलानी को गालियाँ देने का दौर थमा और अगले दिन से आम आदमी वापस अपनी “असली औकात” पर आ जाता है, उसे देश को लूटने वालों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, उसे उसका जीवन दूभर करने वाले नेताओं से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, उसके बच्चों का जीवन अंधकारमय बनाने वाले भ्रष्टाचार से कोई फ़र्क नहीं पड़ता… तो फ़िर ऐसी देशभक्ति(?) का क्या फ़ायदा जो घण्टे-दो घण्टे हंगामा करके “बासी कढ़ी के उबाल” की तरह बैठ जाये?

भारत-पाकिस्तान के मैच ने दोनों वर्गों (शासकों और शासितों) को साफ़ संदेश दिया है –

शासकों :- जनभावना को समझो, उसका सम्मान करो और तदनुसार आचरण करो…

जबकि ऐ शासितों और शोषितों :- देशभक्ति और राष्ट्रवाद कोई हॉट डॉग या इंस्टेंट फ़ूड नहीं है कि खाया और भूल गये… यह भावना तो “अचार-मुरब्बे” की तरह धीरे-धीरे पकती है, “असली स्वाद के साथ अन्दर तक उतरती है” और गहरे असर करती है। यदि भ्रष्टाचार, महंगाई, अनैतिकता, भाई-भतीजावाद, जातिवाद, अत्याचार, देश की खुली लूट देखकर भी आपका खून नहीं खौलता, तो मान लीजिये कि 30 मार्च की रात जो आपने दर्शाया वह फ़र्जी देशप्रेम ही था… और पेशाब के झाग की तरह वापस चुपचाप अपने घर बैठ जाईये, काम पर लग जाईये…। यदि घोटालों, घपलों, स्विस बैंक, हसन अली, सत्ता के नंगे नाच, कांग्रेस-वामपंथियों के आत्मघाती सेकुलरिज़्म, को यदि आप भूल जाते हैं तो “देशभक्ति के बारे में सोचने” के लिये अगले भारत-पाक मैच का इन्तज़ार कीजिये…
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