desiCNN - Items filtered by date: जुलाई 2010
गत लोकसभा चुनावों के बाद से ही कांग्रेस को छोड़कर बाकी सभी राजनैतिक दलों के मन में इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों को लेकर एक संशय है। इस विषय पर काफ़ी कुछ लिखा भी जा चुका है और विद्वानों और सॉफ़्टवेयर इंजीनियरों ने समय-समय पर विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के मॉडलों पर प्रयोग करके यह साबित किया है कि वोटिंग मशीनों को आसानी से "हैक" किया जा सकता है, अर्थात इनके परिणामों से छेड़छाड़ और इनमें बदलाव किया जा सकता है (अब चुनाव आयोग भी मान गया है कि छेड़छाड़ सम्भव है)। आम जनता को इन मशीनों के बारे में, इनके उपयोग के बारे में, इनमें निहित खतरों के बारे में अधिक जानकारी नहीं है, इसलिये हाल ही में प्रसिद्ध चुनाव विश्लेषक, शोधक और राजनैतिक लेखक श्री जीवीएल नरसिम्हाराव ने इस बारे में विस्तार से एक पुस्तक लिखी है… "डेमोक्रेसी एट रिस्क…"। इस पुस्तक की प्रस्तावना श्री लालकृष्ण आडवाणी और चन्द्रबाबू नायडू ने लिखी है, तथा दूसरी प्रस्तावना स्टेनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर डेविड डिल द्वारा लिखी गई है।



इस पुस्तक में 16 छोटे-छोटे अध्याय हैं जिसमें भारतीय इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों के बारे में जानकारी दी गई है। शुरुआत में बताया गया है कि किस तरह इन मशीनों को अमेरिका और जर्मनी जैसे विकसित देशों में उपयोग में लाया गया, लेकिन लगातार आलोचनाओं और न्यूनतम सुरक्षा मानकों पर खरी न उतरने की वजह से उन्हें काबिल नहीं समझा गया। कई चुनावी विवादों में इन मशीनों की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर सवाल उठे, और अन्ततः लम्बी बहस के बाद अमेरिका, जर्मनी, हॉलैण्ड, आयरलैण्ड आदि देशों में यह तय किया गया कि प्रत्येक मतदाता द्वारा दिये गये वोट का भौतिक सत्यापन होना जरूरी है, इलेक्ट्रॉनिक सत्यापन भरोसेमन्द नहीं है। अमेरिका के 50 में से 32 राज्यों ने पुनः कागजी मतपत्र की व्यवस्था से ही चुनाव करवाना शुरु कर दिया।

इस विषय पर मैंने मई 2009 में ही दो विस्तृत पोस्ट लिखीं थी, जिन्हें यहाँ क्लिक करके… और यहाँ क्लिक करके… http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/06/evm-rigging-elections-and-voting-fraud.html पढ़ा जा सकता है, जिसमें EVM से छेड़खानी के बारे में विस्तार से बताया था…।

जबकि इधर भारत में, चुनाव आयोग सतत इस बात का प्रचार करता रहा कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें पूर्णतः सुरक्षित और पारदर्शी हैं तथा इनमें कोई छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। कई पाठकों को यह पता नहीं होगा कि वोटिंग मशीनों की निर्माता कम्पनियों BEL (भारत इलेक्ट्रॉनिक लिमिटेड) और ECIL (इलेक्ट्रॉनिक्स कार्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड) ने EVM के माइक्रोचिप में किये जाने वाले सीक्रेट सोर्स कोड (Secret Source Code) का काम विदेशी कम्पनियों को आउटसोर्स किया। लेखक ने सवाल उठाया है कि जब हमारे देश में ही योग्य और प्रतिभावान सॉफ़्टवेयर इंजीनियर हैं तो यह महत्वपूर्ण काम आउटसोर्स क्यों किया गया?

सूचना के अधिकार के तहत श्री वीवी राव को सरकार द्वारा दी गई जानकारी के पृष्ठ क्रमांक 33 के अनुसार "देश की 13.78 लाख वोटिंग मशीनों में से 9.30 मशीनें पुरानी हैं, जबकि 4.48 लाख मशीनें नई हैं। पुरानी मशीनों में हेराफ़ेरी की अधिक सम्भावनाओं को देखते हुए याचिकाकर्ता ने जानना चाहा कि इन मशीनों को किन-किन राज्यों की कौन-कौन सी लोकसभा सीटों पर उपयोग किया गया, लेकिन आज तक उन्हें इसका जवाब नहीं मिला। यहाँ तक कि चुनाव आयोग ने उन्हीं के द्वारा गठित समिति की सिफ़ारिशों को दरकिनार करते हुए लोकसभा चुनावों में इन मशीनों को उपयोग करने का फ़ैसला कर लिया। जब 16 मई 2009 को लोकसभा के नतीजे आये तो सभी विपक्षी राजनैतिक दल स्तब्ध रह गये थे और उसी समय से इन मशीनों पर प्रश्न चिन्ह लगने शुरु हो गये थे।

पुस्तक के अध्याय 4 में लेखक ने EVM की कई असामान्य गतिविधियों के बारे में बताया है। अध्याय 5 में बताया गया है कि कुछ राजनैतिक पार्टियों से "इलेक्ट्रॉनिक फ़िक्सरों" ने उनके पक्ष में फ़िक्सिंग हेतु भारी राशि की माँग की। बाद में लेखक ने विभिन्न उदाहरण देकर बताया है कि किस तरह चुनाव आयोग ने भारतीय आईटी विशेषज्ञों द्वारा मशीनों में हेराफ़ेरी सिद्ध करने के लिये किये जाने वाले प्रयोगों में अडंगे लगाने की कोशिशें की। इन मशीनों की वैधता, पारदर्शिता और भारतीय परिवेश और "भारतीय चुनावी वातावरण" में उपयोग को लेकर मामला न्यायालय में चल रहा है। पाठकों की जानकारी के लिये उन्हें इस पुस्तक को अवश्य पढ़ना चाहिये, यह पुस्तक अपने-आप में इकलौती है, क्योंकि ऐसे महत्वपूर्ण विषय पर सारी सामग्री एक साथ एक ही जगह पढ़ने को मिलती है। पुस्तक के प्रिण्ट फ़ॉर्मेट को मंगवाने के लिये निम्न पते पर सम्पर्क करें…

Veta Books,
B4/137,Safdarjung Enclave,
New Delhi 110 029
India
Email: veta@indianevm.com
Phone: +91 91 9873300800 (Sagar Baria)
Price: Rs. 295 -/-

जबकि इस पुस्तक को सीधे मुफ़्त में http://indianevm.com से डाउनलोड किया जा सकता है…(सिर्फ़ 1.38 MB)। इसी वेबसाइट पर आपको EVM से सम्बन्धित सभी आँकड़े, तथ्य और नेताओं और विशेषज्ञों के बयान आदि पढ़ने को मिल जायेंगे।

कांग्रेस समर्थकों, भाजपा विरोधियों और तटस्थों सभी से अपील है कि इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें, ताकि दिमाग के जाले साफ़ हो सकें, और साथ ही इन प्रश्नों के उत्तर अवश्य खोजकर रखियेगा -

1) इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में वोट देने के बाद क्या आप दावे से कह सकते हैं कि आपका वोट उसी पार्टी के खाते में गया जिसे आपने वोट दिया था? यदि आपको विश्वास है, तो इसका सबूत क्या है?

2) कागजी मतपत्र पर तो आप अपने हाथ से अपनी आँखों के सामने मतपत्र पर सील लगाते हैं, जबकि EVM में क्या सिर्फ़ पंजे या कमल पर बटन दबाने और "पीं" की आवाज़ से ही आपने कैसे मान लिया कि आपका वोट दिया जा चुका है? जबकि हैकर्स इस बात को सिद्ध कर चुके हैं कि मशीन को इस प्रकार प्रोग्राम किया जा सकता है, कि "हर तीसरा या चौथा वोट" "किसी एक खास पार्टी" के खाते में ही जाये, ताकि कोई गड़बड़ी का आरोप भी न लगा सके।

3) वोट देने के सिर्फ़ 1-2 माह बाद यदि किसी कारणवश यह पता करना हो कि किस मतदाता ने किस पार्टी को वोट दिया था, तो यह कैसे होगा? जबकि आपके वोट का कोई प्रिण्ट रिकॉर्ड ही मौजूद नहीं है।

4) अमेरिका, जर्मनी, हॉलैण्ड जैसे तकनीकी रुप से समृद्ध और विकसित देश इन मशीनों को चुनाव सिस्टम से बाहर क्यों कर चुके हैं?

अतः अब समय आ गया है कि इन मशीनों के उपयोग पर पुनर्विचार किया जाये तथा 2009 के लोकसभा चुनावों को तत्काल प्रभाव से दोबारा करवाया जाये…


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कुछ दिनों पहले बिहार की विधानसभा में जो कुछ हुआ उसने लोकतन्त्र को शर्मिन्दा तो किया ही है, लेकिन लोकतन्त्र भी अब ऐसी शर्मिन्दगी बार-बार झेलने को अभिशप्त है, और हम सब इसके आदी हो चुके हैं। बिहार विधानसभा में लालूप्रसाद और कांग्रेस ने जो हंगामा और तोड़फ़ोड़ की उसके पीछे कारण यह दिया गया कि महालेखाकार एवं नियंत्रक (CAG) ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा है कि सन् 2002 से 2007 के बीच शासकीय कोषालय से करोड़ों रुपये निकाले गये और उनका बिल प्रस्तुत नहीं किया गया।

सिर पर खड़े आगामी विधानसभा चुनावों में मुद्दों के लिए तरस रहे लालू और कांग्रेस को इसमें "भ्रष्टाचार" की बू आ गई और उन्होंने बिना सोचे-समझे और मामले की तह में गये बिना हंगामा मचा दिया। बिहार विधानसभा के चुनावों में नीतीश अपनी साफ़-सुथरी छवि और बिहार में किये गये अपने काम के सहारे जाना चाहते हैं, जो लालू को कैसे सहन हो सकता है? और कांग्रेस, जो कि बिहार में कहीं गिनती में ही नहीं है वह भी ऐसे कूदने लगी, जैसे नीतीश के खिलाफ़ उसे कोई बड़ा मुद्दा हाथ लग गया हो और विधानसभा चुनाव में वे राहुल बाबा की मदद से कोई तीर मार लेंगे। विधानसभा में मेजें उलटी गईं, माइक तोड़े गये, गालीगलौज-मारपीट हुई, एक "वीरांगना" ने बाहर आकर गमले उठा-उठाकर पटके… यानी कुल मिलाकर जोरदार नाटक-नौटंकी की गई। मीडिया तो नीतीश और भाजपा के खिलाफ़ मौका ढूंढ ही रहा था, सारे चैनलों ने इस मामले को ऐसे दिखाया मानो यह करोड़ों का घोटाला हो। मीडिया के प्यारे-दुलारे लालू के "जोकरनुमा" बयान लिये गये, मनीष तिवारी इत्यादि ने भी जमकर भड़ास निकाली।



हालांकि पूरा मामला "खोदा पहाड़ निकली चुहिया" टाइप का है, लेकिन लालू, कांग्रेस और मीडिया को कौन समझाए। महालेखाकार एवं नियंत्रक (CAG) ने अपनी रिपोर्ट में सिर्फ़ इतना कहा है कि 2002 से 2007 के बीच कोषालय (Treasury) से जो पैसा निकला है उसका बिल प्रस्तुत नहीं हुआ है। अब भला इसमें घोटाले वाली बात कहाँ से आ गई? हालांकि यह गलत परम्परा तो है, लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि राज्य शासन के अधिकारी और विभिन्न विभाग अपनी आवश्यकतानुसार धन निकालते हैं और उसे खर्च करते हैं। विभागीय मंत्री को तो इन पैसों के उपयोग (या दुरुपयोग) से कोई मतलब होता नहीं, तो बिल और हिसाब-किताब की चिन्ता क्यों होने लगी। सम्बन्धित कलेक्टर और कमिश्नर की यह जिम्मेदारी है, लेकिन जब उन पर किसी का जोर या दबाव ही नहीं है तो वे क्यों अपनी तरफ़ से सारे शासकीय कामों के बिल शासन को देने लगे? ऐसा लगभग सभी राज्यों में होता है और बिहार भी कोई अपवाद नहीं है, हमारी "मक्कार कार्यसंस्कृति" में आलस और ढिलाई तो भरी पड़ी है ही, भ्रष्टाचार इसमें उर्वरक की भूमिका निभाता है। तात्पर्य यह कि 2002 से 2007 के बीच करोड़ों रुपये निकाले गये और खर्च हो गये कोई हिसाब-किताब और बिल नहीं पहुँचा, परन्तु विधानसभा में हंगामा करने वाले राजद और कांग्रेस सदस्यों ने इस बात पर दिमाग ही नहीं लगाया कि जिस CAG की रिपोर्ट के कालखण्ड पर वे हंगामा कर रहे हैं, उसमें से 2002 के बाद 42 माह तक लालू की ही सरकार थी, उसके बाद 11 माह तक राष्ट्रपति शासन था, जिसके सर्वेसर्वा एक और "महा-ईमानदार" बूटा सिंह थे, उसके बाद के 2 साल नीतीश सरकार के हैं, लेकिन गमले तोड़ने वाली उस वीरांगना से माथाफ़ोड़ी करे कौन? उन्हें तो बस हंगामा करने का बहाना चाहिये।


अब आते हैं हमारे "नेशनल"(?), "सबसे तेज़"(?) और "निष्पक्ष"(?) चैनलों के दोगलेपन और भाजपा विरोधी घृणित मानसिकता पर… जो लालू खुद ही करोड़ों रुपये के चारा घोटाले में न सिर्फ़ नामज़द आरोपी हैं, बल्कि न्यायालय उन्हें सजा भी सुना चुका… उसी लालू को पहले मीडिया ने रेल्वे मंत्री रहते हुए "मैनेजमेण्ट गुरु" के रुप में प्रचारित किया, जब ममता दीदी ने बाकायदा श्वेत-पत्र जारी करके लालू के मैनेजमेण्ट की पोल खोली तब वह फ़ुग्गा फ़ूटा, लेकिन फ़िर भी मीडिया को न तो अक्ल आनी थी, न आई। विधानसभा के हंगामे के बाद चैनलों ने लालू के बाइट्स और फ़ुटेज लगातार दिखाये, जबकि सुशील मोदी की बात तक नहीं सुनी गई। असल में मीडिया (और जनता) के लिये लालू एक "हँसोड़ कलाकार" से ज्यादा कुछ नहीं हैं, वह उनके मुँह से कुछ ऊटपटांग किस्म के बयान दिलवाकर मनोरंजन करवाता रहता है, लेकिन विधानसभा में जो हुआ वह मजाक नहीं था। ज़रा इन आँकड़ों पर निगाह डालिये -


झारखण्ड सरकार के 6009 करोड़ और जम्मू-कश्मीर सरकार के 2725 करोड़ रुपये के खर्च का बरसों से अभी तक कोई हिसाब प्रस्तुत नहीं किया गया है।

- महाराष्ट्र सरकार का 3113 करोड़ रुपये के खर्च का बिल नहीं आया है।

- पश्चिम बंगाल सरकार ने 2001-02 में 7140 करोड़ रुपये खर्च किये थे, उसका हिसाब अब तक प्रस्तुत नहीं किया गया है।

- यहाँ तक कि केन्द्र सरकार के परिवार कल्याण मंत्रालय ने 1983 से लेकर अब तक 9000 करोड़ रुपये के खर्च का बिल नहीं जमा करवाया है।

कभी मीडिया में इस बारे में सुना है? नहीं सुना होगा, क्योंकि मीडिया सिर्फ़ वही दिखाता/सुनाता है जिसमें या तो महारानी (और युवराज) का स्तुति-गान होता है या फ़िर भाजपा-संघ-हिन्दूवादी संगठनों का विरोध होता है। क्या झारखण्ड, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के इन प्रकरणों को घोटाला माना जा सकता है? यदि "हाँ", तो कथित रुप से सबसे तेज मीडिया अब तक सो रहा था क्या? कई-कई बार बाकायदा उदाहरण देकर साबित किया जा चुका है कि भारत का वर्तमान मीडिया पूरी तरह से "अज्ञात शक्तियों" के नियन्त्रण में है, जो "निष्पक्ष" तो कतई नहीं है। ट्रेजरी से सम्बन्धित जिस तकनीकी गलती को "घोटाला" कहकर प्रचारित किया गया, यदि सभी राज्यों के हाइकोर्ट, सभी राज्यों के खर्चों का हिसाब-किताब देखने लगें तो सारे के सारे मुख्यमंत्री ही कठघरे में खड़े नज़र आयेंगे।

इस बीच 26 जुलाई को पटना उच्च न्यायालय में होने वाली सुनवाई के लिये नीतीश ने विपक्ष के विरोध को भोथरा करने के लिये ताबड़तोड़ काम करने के निर्देश जारी कर दिये हैं। सभी जिला कलेक्टरों को दिशानिर्देश जारी करके 2002 से 2008 तक के सभी खर्चों के बिल पेश करने को कह दिया गया है, लगभग सभी जिलों में बड़े उच्चाधिकारियों की छुट्टियाँ रद्द कर दी गईं और वे रात-रात भर दफ़्तरों में बैठकर पिछले सारे रिकॉर्ड खंगालकर बिल तैयार कर रहे हैं। सीवान, बक्सर, समस्तीपुर, गया, जहानाबाद, सासाराम और छपरा में विशेष कैम्प लगाकर सारे पिछले पेण्डिंग बिल तैयार करवाये जा रहे हैं, तात्पर्य यह है कि विपक्ष की हवा निकालने और खुद की छवि उजली बनाये रखने के लिये नीतीश ने कमर कस ली है… फ़िर भी इस बीच मीडिया को जो "खेल" खेलना था, वह खेल चुका, अब चुनिंदा अखबारों, वेबसाईटों और ब्लॉग पर पड़े-पड़े लेख लिखते रहिये, कौन सुनेगा?  वैसे, बिहार के आगामी चुनावों को देखते हुए "मुसलमान-मुसलमान" का खेल शुरु हो चुका है, नीतीश भी नरेन्द्र मोदी को छूत की बीमारी की तरह दूर रखने लगे हैं और कांग्रेस भी मुस्लिमों को "आरक्षण" का झुनझुना बजाकर रिझा रही है… और वैसे भी चैनलों द्वारा "साम्प्रदायिकता" शब्द का उपयोग उसी समय किया जाता है, जब "हिन्दू" की बात की जाती है…
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चलते-चलते : उधर पूर्वोत्तर में ऑल असम माइनोरिटी स्टूडेंट्स यूनियन (AAMSU) ने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के विरोध में बन्द का आयोजन किया, जिसमें जिला कलेक्टर के कार्यालय पर हमला किया गया और पुलिस फ़ायरिंग में चार लोग मारे गये। बांग्लादेशी शरणार्थियों (बल्कि हरामखोरों शब्द अधिक उचित है) द्वारा अब वहाँ की जनसंख्या में इतना फ़ेरबदल किया जा चुका है, कि असम में कम से कम 10 विधायक इन बाहरी लोगों की पसन्द के बन सकते हैं। इतने हंगामे के बाद NRC (National Register for Citizens) को स्थगित करते हुए मुख्यमंत्री तरुण गोगोई कहते हैं कि "बातचीत" से मामला सुलझा लिया जायेगा। क्या आपने यह खबर किसी तथाकथित "निष्पक्ष" और सबसे तेज़ चैनल पर सुनी है? नहीं सुनी होगी, क्योंकि मीडिया को संत शिरोमणि श्रीश्री सोहराबुद्दीन के एनकाउंटर और अमित शाह की खबर अधिक महत्वपूर्ण लगती है…


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भारत के करोड़ों ईमानदार टैक्सदाताओं और नागरिकों के लिये यह एक खुशखबरी है कि फ़्रांस के HSBC बैंक के दो कर्मचारियों हर्व फ़ेल्सियानी और जॉर्जीना मिखाइल ने दावा किया है कि उनके पास स्विस बैंकों में से एक बैंक में स्थित 180 देशों के कर चोरों की पूरी डीटेल्स मौजूद हैं। 2 साल से इन्होंने लगातार यूरोपीय देशों की सरकारों को ईमेल भेजकर "टैक्स चोरों" को पकड़वाने में मदद की पेशकश की है। जर्मनी की गुप्तचर सेवा को भेजे अपने ईमेल में इन्होंने कहा कि ये लोग स्विटज़रलैण्ड स्थित एक निजी बैंक के महत्वपूर्ण डाटा और उस कम्प्यूटर तक पुलिस की पहुँच बना सकते हैं। इसी प्रकार के ईमेल ब्रिटेन, फ़्रांस और स्पेन की सरकारों, विदेश मंत्रालयों और पुलिस को भेजे गये हैं (यहाँ देखें…)। यूरोप के देशों में इस बात पर बहस छिड़ी है कि एक "हैकर" या बैंक के कर्मचारी द्वारा चोरी किये गये डाटा पर भरोसा करना ठीक है और क्या ऐसा करना नैतिक रुप से सही है? लेकिन फ़ेल्सियानी जो कि HSBC बैंक के पूर्व कर्मचारी हैं, पर फ़िलहाल फ़्रांस और जर्मनी तो भरोसा कर रहे हैं, जबकि स्विस सरकार लाल-पीली हो रही है। HSBC के वरिष्ट अधिकारियों ने माना है कि फ़ेल्सियानी ने बैंक के मुख्यालय और इसकी एक स्विस सहयोगी बैंक से महत्वपूर्ण डाटा को अपने PC में कॉपी कर लिया है और उसने बैंक की गोपनीयता सम्बन्धी सेवा शर्तों का उल्लंघन किया है।




फ़ेल्सियानी ने स्वीकार किया है कि उनके पास 180 देशों के विभिन्न "ग्राहकों" का डाटा है, लेकिन उन्होंने किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया, क्योंकि इस डाटा से उनका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, बल्कि स्विस बैंक द्वारा अपनाई जा रही "गोपनीयता बैंकिंग प्रणाली" पर सवालिया निशान लगाना भर है। बहरहाल, फ़्रांस सरकार फ़ेल्सियानी से प्राप्त जानकारियों के आधार पर टैक्स चोरों के खिलाफ़ अभियान छेड़ चुकी है। स्विस पुलिस ने फ़ेल्सियानी के निवास पर छापा मारकर उसका कम्प्यूटर और अन्य महत्वपूर्ण हार्डवेयर जब्त कर लिया है लेकिन फ़ेल्सियानी का दावा है कि उसका डाटा सुरक्षित है और वह किसी "दूरस्थ सर्वर" पर अपलोड किया जा चुका है। इधर फ़्रांस सरकार का कहना है कि उन्हें इसमें किसी कानूनी उल्लंघन की बात नज़र नहीं आती, और वे टैक्स चोरों के खिलाफ़ अभियान जारी रखेंगे। फ़्रांस सरकार ने इटली की सरकार को 7000 अकाउंट नम्बर दिये, जिसमें लगभग 7 अरब डालर की अवैध सम्पत्ति जमा थी। स्पेन के टैक्स विभाग ने भी इस डाटा का उपयोग करते हुए इनकी जाँच शुरु कर दी है।

फ़ेल्सियानी ने सन् 2000 मे HSBC बैंक की नौकरी शुरु की थी, वह कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग में स्नातक और बैंक के सुरक्षा सॉफ़्टवेयर के कोड लिखता है। बैंक में उसका कई बार प्रमोशन हो चुका है और 2006 में उसे जिनेवा स्थित HSBC के मुख्यालय में ग्राहक डाटाबेस की सुरक्षा बढ़ाने के लिये तैनात किया गया था। इसलिये फ़ेल्सियानी की बातों और उसके दावों पर शक करने की कोई वजह नहीं बनती। फ़ेल्सियानी का कहना है कि बैंक का डाटा वह एक रिमोट सर्वर पर बैक-अप के रुप में सुरक्षित करके रखता था, जो कि एक निर्धारित प्रक्रिया थी, और मेरा इरादा इस डाटा से पैसा कमाना नहीं है।


जून 2008 से अगस्त 2009 के बीच अमेरिका के कर अधिकारियों ने स्विस बैंक UBS के "नट-बोल्ट टाइट" किये तब उसने अमेरिका के 4450 कर चोरों के बैंक डीटेल्स उन्हें दे दिये। कहने का मतलब यह है कि स्विटज़रलैण्ड की एक बैंक (जी हाँ फ़िलहाल सिर्फ़ एक बैंक) के 180 देशों के हजारों ग्राहकों (यानी डाकुओं) के खातों की पूरी जानकारी फ़ेल्सियानी नामक शख्स के पास है… अब हमारे "ईमानदार" बाबू के ज़मीर और हिम्मत पर यह निर्भर करता है कि वे यह देखना सुनिश्चित करें कि फ़ेल्सियानी के पास उपलब्ध आँकड़ों में से क्या भारत के कुछ हरामखोरों के आँकड़े भी हैं? भले ही इस डाटा को हासिल करने के लिये हमें फ़ेल्सियानी को लाखों डालर क्यों न चुकाने पड़ें, लेकिन जब फ़्रांस, जर्मनी, स्पेन और अमेरिका जैसे देश फ़ेल्सियानी के इन आँकड़ों पर न सिर्फ़ भरोसा कर रहे हैं, बल्कि छापेमारी भी कर रहे हैं… तो हमें "संकोच" नहीं करना चाहिये।

भारत के पिछले लोकसभा चुनावों में स्विस बैंकों से भारत के बड़े-बड़े मगरमच्छों द्वारा वहाँ जमा किये गये धन को भारत वापस लाने के बारे में काफ़ी हो-हल्ला मचाया गया था। भाजपा की तरफ़ से कहा गया था कि सत्ता में आने पर वे स्विस सरकार से आग्रह करेंगे कि भारत के तमाम खातों की जानकारी प्रदान करे। भाजपा की देखादेखी कांग्रेस ने भी उसमें सुर मिलाया था, लेकिन चुनाव निपटकर एक साल बीत चुका है, और हमेशा की तरह कांग्रेस ने अब तक इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है।

एक व्यक्ति के रुप में, प्रधानमंत्री की ईमानदार छवि पर मुझे पूरा यकीन है, लेकिन क्या वे इस मौके का उपयोग देशहित में करेंगे…? यदि फ़ेल्सियानी की लिस्ट से भारत के 8-10 "मगरमच्छ" भी फ़ँसते हैं, तो मनमोहन सिंह भारत में इतिहास-पुरुष बन जायेंगे…। परन्तु जिस प्रकार की "आत्माओं" से वे घिरे हुए हैं, उस माहौल में क्या ऐसा करने की हिम्मत जुटा पायेंगे? उम्मीद तो कम ही है, क्योंकि दूरसंचार मंत्री ए राजा के खिलाफ़ पक्के सबूत, मीडिया में छपने के बावजूद वे उन पर कोई कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं, तो फ़ेल्सियानी की स्विस बैंक लिस्ट में से पता नहीं कौन सा "भयानक भूत" निकल आये और उनकी सरकार को हवा में उड़ा ले जाये…।


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भाग-1 में हमने रेड्डी बन्धुओं द्वारा किये जा रहे वीभत्स भ्रष्टाचार और जस्टिस हेगड़े के इस्तीफ़े के बारे में जाना… आईये अब देखते हैं कि यदि रेड्डी बन्धुओं पर नकेल कस दी जाये तो सभी राजनैतिक पार्टियों का क्या-क्या और कैसा फ़ायदा होगा - (साथ ही मीडिया द्वारा कांग्रेस और भाजपा के भ्रष्टाचारों पर रिपोर्टिंग में अपनाये जाने वाले दोहरे मापदण्डों पर भी संक्षिप्त चर्चा)…

1) रेड्डी बन्धुओं के जाने से भाजपा को यह फ़ायदा होगा कि येद्दियुरप्पा इन बन्धुओं के जबरिया दबाव और अवैध माँगों से मुक्त होकर अपना ध्यान राज्य के कामधाम में सही तरीके से लगा सकेंगे, अपनी इच्छानुसार अफ़सरों और मंत्रियों की नियुक्ति कर सकेंगे। येदियुरप्पा दिल से चाहते हैं कि रेड्डी बन्धुओं को लात मारकर बाहर किया जाये, लेकिन मजबूर हैं। वे फ़िलहाल सही मौके का इन्तज़ार कर रहे हैं…। कांग्रेस-भाजपा एक-दूसरे के पाले में गेंद डाल रहे हैं कि दोनों का रेड्डी बन्धुओं से बिगाड़ न हो। भाजपा सोच रही है कि केन्द्र सीबीआई को निर्देशित करे कि रेड्डियों के खिलाफ़ कार्रवाई करे या फ़िर हाईकोर्ट कोई फ़ैसला इनके खिलाफ़ सुना दे…या चुनाव आयोग इनकी गैर-आनुपातिक सम्पत्ति को लेकर कोई केस ठोक दे… तो इनसे छुटकारा मिले। जबकि कांग्रेस चाहती है कि रेड्डी बन्धु बाहर तो हों, लेकिन सरकार न गिरे, क्योंकि अभी कर्नाटक के चुनाव में उतरना कांग्रेस के लिये घातक सिद्ध होगा।

2) कांग्रेस भी इन दोनों से खार खाये बैठी है, क्योंकि आंध्रप्रदेश में जगनमोहन रेड्डी, जो सोनिया गाँधी को ठेंगा दिखाकर अपनी "ओदार्पु यात्रा" जारी रखे हुए हैं उसके पीछे कर्नाटक के रेड्डी बन्धुओं का "जोर" है। सेमुअल रेड्डी की मौत के बाद जगनमोहन की बंगलौर में इन दोनों भाईयों से मुलाकात हुई थी, जिसमें यह योजना बनी थी कि चूंकि सोनिया ने जगनमोहन को मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया इसलिये पैसे के बल पर आंध्रप्रदेश की रोसैया सरकार गिराई जाये और इस पर गुपचुप अमल चल भी रहा है। रेड्डी बन्धु चाहते हैं कि जगनमोहन के रुप में उनकी कठपुतली हैदराबाद में बैठ जाये तो विशाखापत्तनम जैसे बड़े बन्दरगाहों से भी माल की तस्करी की जा सकेगी, जबकि कांग्रेस (यानी सोनिया) इन बन्धुओं को ठिकाने लगाकर जगनमोहन को उसकी औकात बताना चाहती है। जगनमोहन ये सोचकर "यात्रा" कर रहे हैं कि 6 साल पहले उनके पिता को भी ऐसी ही पदयात्रा से मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य मिला था। यदि रेड्डी बन्धु ना हों तो जगन की कोई औकात नहीं है।

3) देवेगौड़ा और कुमारस्वामी को प्रत्यक्ष रुप से कोई फ़ायदा नहीं है, सिवाय "बदला" लेने के, चूंकि रेड्डियों ने उनकी और भाजपा की संयुक्त सरकार गिराने में प्रमुख भूमिका निभाई थी, इसलिये गौड़ा बाप-बेटे चाहते हैं कि रेड्डी बन्धुओं को सबक सिखाया जाये।

कुल मिलाकर यह, कि सोनिया गाँधी से लेकर आडवाणी तक, सभी चाहते हैं कि ये दोनों भ्रष्ट भाई और जगनमोहन रेड्डी पूरे परिदृश्य से गायब हो जायें, लेकिन "साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे" की तर्ज पर। चूंकि भाजपा, दक्षिण में बड़े संघर्ष के बाद बनी पहली कर्नाटक सरकार को इन की वजह से गँवाना नहीं चाहती…… जबकि कांग्रेस, सेमुअल की मौत के बाद आंध्रप्रदेश सरकार को अस्थिर करना नहीं चाहती…और दोनों पार्टियाँ जानती हैं कि उन्हें कभी भविष्य में रेड्डी भाईयों की "मदद"(?) की जरुरत पड़ सकती है… है ना भारत का दमदार लोकतन्त्र और न्याय व्यवस्था?

कल्पना कीजिये, कि यदि आज रेड्डी बन्धु भाजपा का साथ छोड़कर अपने तमाम समर्थक विधायकों सहित कांग्रेस में शामिल हो जायें… तो क्या होगा… ज़ाहिर है कि तब न तो CBI जाँच की माँग होगी, न ही विधानसभा में धरना होगा…। हमारा देशभक्त इलेक्ट्रानिक मीडिया(?) भी एकदम चुप बैठ जायेगा, क्योंकि न तो आज तक कभी एसएम कृष्णा सरकार को बर्खास्त करने की माँग हुई, न ही धर्मसिंह सरकार को… हमेशा सारा दोष भाजपा का और सारे नैतिक मानदण्ड संघ के लिये रिज़र्व हैं।

चलिये कल्पना के लिये मान लें कि नैतिकता के आधार पर येदियुरप्पा इस्तीफ़ा दे दें, तो विरोधियों का आरोप पहले से तय किया हुआ है कि, "भाजपा को शासन करना नहीं आता…" और यदि कांग्रेस की तरह बेशर्मी से सत्ता टिकाकर रखें तो भाई लोग महंगाई-आतंकवाद-नक्सलवाद-भ्रष्टाचार जैसे महामुद्दों पर मनमोहन का इस्तीफ़ा माँगने के बजाय, येदियुरप्पा के पीछे लग जायेंगे, मोदी को "साम्प्रदायिकता"(?) के आधार पर गरियाएंगे, शिवराज को विकास की दौड़ में पीछे रहने के लिये कोसेंगे (भले ही सबसे ज्यादा किसान महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में ही आत्महत्याएं कर रहे हों)… कहने का मतलब ये है कि ऐसे हो या वैसे, भाजपा की सरकारों को अस्थिर करना, आलोचना करना ही मीडिया और देश को भुखमरी की हालत तक ले जाने वाली कांग्रेस के समर्थकों(?) का एकमात्र एजेण्डा है।

मैं तो दावा कर सकता हूं कि यदि रेड्डी बन्धु कांग्रेस में शामिल हो जायें तो न सिर्फ़ उन पर चल रहे सीबीआई के केस रफ़ा-दफ़ा हो जायेंगे, बल्कि जगनमोहन रेड्डी भी आंध्रप्रदेश सरकार को परेशान नहीं करेंगे, कोई न कोई "सौदा" जरूर पट जायेगा। लेकिन येदियुरप्पा सरकार से इस्तीफ़ा देने की माँग करने वाले कभी भी ये दावा नहीं कर सकते कि भाजपा सरकार के चले जाने भर से कर्नाटक में अवैध खनन एकदम रुक जायेगा, रेड्डी बन्धु साधु बन जायेंगे, जगनमोहन रेड्डी सन्यास ले लेंगे, देवेगौड़ा कीर्तनकार बन जायेंगे, कृष्णा-धर्मसिंह तीर्थयात्रा पर चले जायेंगे। फ़िर भाजपा के भ्रष्टाचार को लेकर इतनी बेचैनी और दोहरा मापदण्ड क्यों? यदि रेड्डी बन्धु कांग्रेस में शामिल हो जायें… तो भाजपा के भ्रष्टाचार और नैतिकता पर जो कमेण्ट, बहस और विरोध हो रहा है, सब "हवा" हो जायेंगे।


शिकायत इस बात से है कि भाजपा का भ्रष्टाचार तो तुरन्त दिखाई दे जाता है, उसे तुरन्त नैतिकता और सदाचार के उपदेश पिला दिये जाते हैं, तो फ़िर 1952 के जीप घोटाले से नेहरु ने देश में जो "रायता फ़ैलाने" की शुरुआत की थी, उस इतिहास पर चुप्पी क्यों साध लेते हो? मीडिया के इसी दोहरे मापदण्डों के कारण उसकी साख बुरी तरह से गिरी है, और कांग्रेस का "वर्तमान" ही कौन सा बहुत उजला है?  आज राजनीति और सत्ता के खेल में टिकने सम्बन्धी जो भी "धतकरम" हैं भाजपा ने कांग्रेस को देख-देखकर ही सीखे(?) हैं (हालांकि अभी भी बहुत पीछे है कांग्रेस से)।  मीडिया को कांग्रेस-भाजपा के बीच संतुलन साधना सीखना होगा, लेकिन वैसा अभी नहीं हो रहा है। अभी तो मीडिया स्पष्ट रुप से भाजपा विरोधी (प्रकारांतर से हिन्दुत्व विरोधी) दिखाई दे रहा है। चन्द रोज पहले जब "आज तक" के दफ़्तर में संघ कार्यकर्ताओं ने चैनल का "सार्वजनिक अभिनंदन समारोह" किया था, तब उन्होंने "निष्पक्षता"(?) के बारे में चिल्ला-चिल्लाकर आसमान सिर पर उठा लिया था… आईये देखते हैं कि इन चैनलों की "निष्पक्षता" कैसी होती है… -

1) कर्नाटक पुलिस ने पिछले एक साल में अवैध रुप से लौह अयस्क ले जा रहे करीब 200 ट्रकों को पकड़ा था जो कि "फ़र्जी परमिट" पर चल रहे थे, और ये फ़र्जी परमिट आंध्रप्रदेश सरकार के सील-सिक्कों से लैस थे… अब बोलो? किस चैनल ने इसे प्रमुखता से दिखाया?

2) येदियुरप्पा विरोधियों को तमाचा जड़ता एक और तथ्य - खनन के लिये लाइसेंस लेने हेतु कम्पनियाँ पहले राज्य सरकारों को आवेदन देती हैं और राज्य सरकार उस प्रस्ताव को मंजूरी के लिये केन्द्र को भेजती है उसके बाद ही खनन का लाइसेंस जारी किया जाता है, अब जरा ध्यान से पढ़ें - जिस समय कर्नाटक में धर्मसिंह की कांग्रेस सरकार थी उस समय केन्द्र को लाइसेंस के 43 प्रस्ताव भेजे गये जिसमें से 33 स्वीकृत हुए। जब "देवेगौड़ा के सपूत" की सरकार थी उस समय केन्द्र को 47 लाइसेंस प्रस्ताव भेजे गये और 22 स्वीकृत हुए, इस बीच राष्ट्रपति शासन (यानी कांग्रेस का शासन) लगा उस बीच में 22 लाइसेंस आवेदन केन्द्र को भेजे जिसमें से 14 पर स्वीकृति की मोहर लग गई… अब पिछले दो साल में भाजपा सरकार ने लाइसेंस के 22 प्रस्ताव केन्द्र को भेजे हैं जिसमें से सिर्फ़ 2 स्वीकृत हुए… कौन से चैनल ने गला फ़ाड़-फ़ाड़कर इसका विरोध किया?

इन आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि,  धर्म सिंह, कुमारस्वामी और उसके बाद राष्ट्रपति शासन के दौरान कितना अवैध खनन हुआ होगा, और किस पार्टी ने अरबों रुपये का चूना देश को लगाया होगा। क्या कभी मीडिया में इस बारे में सुना है? नहीं सुना होगा… इसलिये जब हम मीडिया पर कांग्रेस का "पालतू कुत्ता" होने का आरोप लगाते हैं तो उसके पीछे यही बातें होती हैं, भाजपा विरोधियों का "माइण्डफ़्रेम" भी इसी मीडियाई चालबाजी से फ़िक्स किया जाता है।

3) लेख को ज्यादा लम्बा नहीं खींचता, फ़िर भी एक और अन्तिम उदाहरण - लोकायुक्त ने दिसम्बर 2008 में कर्नाटक के तत्कालीन राज्यपाल को रिपोर्ट सौंपी जिसमें अवैध खनन और गलत लाइसेंस देने के लिये मुख्यमंत्री धर्मसिंह से 23 करोड़ रुपये वसूलने का अनुरोध किया गया…। राज्यपाल ने क्या किया - लोकायुक्त कानून की धारा 12/4 के तहत अपनी शक्तियों(?) का "सदुपयोग" करते हुए सरकार को मामला खारिज करने की सिफ़ारिश कर दी… इस बारे में कभी मीडिया में पढ़ा? "राज्यपालों" पर केन्द्र (यानी कांग्रेस) का दलाल होने का आरोप जब लगाया जाता है, उसके पीछे यही बातें होती हैं, लेकिन मीडिया कभी भी ऐसी बातों को कवरेज नहीं देता। यदि कभी देता भी है तो "हड्डी के कुछ टुकड़े" पाकर खामोश हो जाता है। लेकिन जब बात भाजपा की आती है, तब इस मीडिया के रंग देखिये, सेकुलरों के ढंग देखिये, वामपंथियों के दाँव देखिये, हिन्दुत्व विरोधियों का चरित्र देखिये… सब के सब एक सुर में गाने लगते हैं कि भाजपा भ्रष्ट है, मुख्यमंत्री कुर्सी छोड़ो…। आडवाणी ने हवाला डायरी में नाम आते ही पद छोड़ दिया और कहा कि जब तक मामला सुलझ नहीं जाता संसद का चुनाव नहीं लड़ेंगे… मीडिया ने उन्हें क्या दिया? मीडिया की छोड़ो, क्या जनता ने उन्हें प्रधानमंत्री बनवाया? अटल जी की ईमानदारी पर कोई शक नहीं कर सकता… नदियों को जोड़ने, सड़कों के स्वर्णिम चतुर्भुज बनाने, जैसी कई बेहतरीन योजनाएं उन्होंने शुरु कीं… नतीजा क्या हुआ? जनता ने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया।

असली लड़ाई "विचारधारा" की है, यदि विचारधारा को आगे बढ़ाना है तो कुछ बातों को नज़रअंदाज़ करना मजबूरी है। उदाहरण के तौर पर "नक्सलवाद" के समर्थक भी उसे एक विचारधारा कहते हैं, लेकिन वे लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव लड़कर सत्ता हासिल करना और बदलाव करना नहीं चाहते, वे बन्दूक के बल पर सत्ता चाहते हैं। सोचिये जब आज की तारीख में नक्सलवादी, जंगलों से अवैध खनन, चौथ वसूली और ठेकेदारों-अफ़सरों से रंगदारी वसूल कर रहे हैं, यदि सत्ता में आ गये तो कितना लूटेंगे? येदियुरप्पा की दुविधा यही है कि रेड्डी बन्धुओं के कारनामों को फ़िलहाल नज़रअंदाज़ करें, या उनसे पंगा लेकर सरकार को कुर्बान कर दें। नैतिकता तो यही कहती है कि सरकार कुर्बान करो, लेकिन उससे परिस्थितियाँ तो सुधरने वाली नहीं… फ़िर वही देवेगौड़ा, फ़िर वही धर्म सिंह, फ़िर वही कांग्रेस… तो बेहतर विकल्प यही है कि, "सही मौके" का इंतज़ार किया जाये और दाँव लगते ही रेड्डी बन्धुओं को ठिकाने लगाया जाये। जरा सोचिये, शंकरसिंह वाघेला और नरेन्द्र मोदी की लड़ाई में यदि मोदी का दाँव "गर्मागर्मी" में गलत लग जाता, तो क्या आज नरेन्द्र मोदी गुजरात के निर्विवाद नेता बन पाते? निश्चित रुप से येदियुरप्पा भी "ठण्डा करके खाने" की फ़िराक में होंगे, तब तक इन भाईयों को झेलना ही पड़ेगा, जो कि देवेगौड़ा अथवा कांग्रेस को झेलने के मुकाबले अच्छा विकल्प है।

लोग कहते हैं अंग्रेजों ने भारत को जमकर लूटा था, यह अर्धसत्य है। मधु कौड़ा, शरद पवार, जयललिता और रेड्डी बन्धुओं को देखकर तो लगता है कि अंग्रेज नादान ही थे, जो भारत छोड़कर चले गये। यह तो एक राज्य के एक इलाके के अयस्क खनन का घोटाला है, पूरे भारत में ऐसे न जाने कितने अरबों-खरबों के घोटाले रोज हो रहे होंगे, यह कल्पनाशक्ति से बाहर की बात है। स्विस बैंक, स्विट्ज़रलैण्ड, यूरोप और अमेरिका यूं ही धनी नहीं बन गये हैं… भारत जैसे "मूर्खों से भरे" देशों को लूट-लूटकर बने हैं। कौन कहता है कि भारत गरीब है, बिलकुल गलत… भारत में सम्पदा भरी पड़ी है, लेकिन 50 साल तक शासन करने के बावजूद कांग्रेस, उद्योगपतियों और IAS अफ़सरों ने जानबूझकर देश को गरीब और अशिक्षित बनाकर रखा हुआ है, ताकि इनकी लूट-खसोट चलती रहे। उद्योगपति तो कम से कम कुछ लोगों को रोज़गार दे रहा है, काफ़ी सारा टैक्स चोरी करने बावजूद कुछ टैक्स भी दे रहा है, ज़मीने कौड़ी के दाम हथियाने के बावजूद देश के आर्थिक संसाधनों में अपना कुछ तो हाथ बँटा रहा है, लेकिन "नेता" और "IAS" ये दो कौमें ऐसी हैं, जो हर जिम्मेदारी से मुक्त हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि हमें लालूप्रसाद, जयललिता, ए राजा, प्रकाश सिंह बादल, शरद पवार जैसे लोग मिलते हैं… प्रधानमंत्री व्यक्तिगत रुप से "ईमानदार" हैं तो देश को क्या फ़र्क पड़ता है? उनमें दम-गुर्दे हैं तो इन भ्रष्ट नेताओं(?) का कुछ बिगाड़कर दिखायें? लेकिन लुटी-पिटी हुई जनता भी बार-बार इन्हें ही चुन-चुनकर अपना नुमाइन्दा बनाती रहती है, क्योंकि उसके पास और कोई विकल्प नहीं है, उसे तो साँप या नाग में से एक को चुनना ही है। इसी को कुछ लोग "लोकतन्त्र" कहते हैं, जहाँ 10 चोट्टों की "सामूहिक राय"(?) एक समझदार व्यक्ति की सही सलाह पर भारी पड़ती है।

जनता बुरी तरह त्रस्त तो है ही, जिस दिन "हिटलर" टाइप का कोई आदमी सत्ता पर कब्जा करता हुआ और रोज़ाना 15-20 भ्रष्ट नेताओं-अफ़सरों को गोली से उड़ाता दिखाई देगा, तुरन्त उसके पीछे हो लेगी…। इसे चेतावनी समझें या मेरे जैसे पागल का काल्पनिक प्रलाप, लेकिन देश में स्थितियाँ जिस प्रकार बद से बदतर होती जा रही हैं, अमीरी-गरीबी के बीच फ़ासला बढ़ता जा रहा है, मेरे विरोधी भी दिल ही दिल में इस सम्भावना से इंकार नहीं कर सकते… बशर्ते उन्हें हिन्दुत्व-संघ-भाजपा-मोदी का विरोध करने से फ़ुर्सत मिले और वे "आँखें खोलकर इतिहास में निष्पक्ष रुप से" झाँक सकें…

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चलते-चलते : भारत में "गायब" होने की "परम्परा और तकनीक" काफ़ी पुरानी है, पहले एण्डरसन गायब हुआ, फ़िर क्वात्रोची गायब हुआ, और अब सूचना मिली है कि 7 दिसम्बर 1984 को एण्डरसन को भोपाल से दिल्ली लाने वाले मध्यप्रदेश के सरकारी विमान की "लॉग-बुक" भी गायब हो गई है, क्योंकि केन्द्र सरकार का कहना है कि वह पुराना विमान एक अमेरिकी कम्पनी को बेच दिया गया था उसी के साथ उसके सारे रिकॉर्ड्स भी अमेरिका चले गये… तो अब आप इन्तज़ार करते रहिये कि अर्जुनसिंह कब अपनी आत्मकथा लिखते हैं, तब तक कोई भी मैडम सोनिया गाँधी (उर्फ़ एंटोनिया माइनो) से यह पूछने की हिम्मत नहीं कर सकता कि आखिर "मौत का असली सौदागर" कौन है या कौन था? क्या यह सवाल पूछने की औकात किसी "निष्पक्ष" (हा हा हा हा) चैनल की है?

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Reference : TVR Shenoy Article on Rediff
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पिछले कुछ दिनों से कर्नाटक में खनन माफ़िया और अरबों के लौह अयस्क घोटाले को लेकर घमासान मचा हुआ है। कर्मठ और ईमानदार छवि वाले जस्टिस संतोष हेगड़े ने लोक-आयुक्त के पद से इस्तीफ़ा भी दे दिया था, जो उन्होंने आडवाणी की मनुहार के बाद वापस ले लिया, मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा भी इस सारे झमेले से काफ़ी परेशान हैं लेकिन कुछ नहीं कर पा रहे हैं। पूरे मामले के पीछे सदा की तरह "बेल्लारी के कुख्यात" रेड्डी बन्धु हैं, जिन्हें भाजपा सहित सभी पार्टियाँ निपटाना चाहती हैं, लेकिन उनकी ताकत से सभी भयभीत और आशंकित भी हैं।

आईये देखते हैं कि आखिर मामला क्या है और रेड्डी बन्धु इतने ताकतवर कैसे हैं कि कोई उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पा रहा है - कर्नाटक के लोकायुक्त श्री संतोष हेगड़े ने पिछले कुछ माह से इन दोनों भाईयों के खिलाफ़ जाँच की है और पाया कि बिलिकेरे बन्दरगाह से 35 लाख टन का लौह अयस्क "गायब" कर दिया गया है। आप भी पढ़कर भौंचक हुए होंगे कि 35 लाख टन का लौह अयस्क कैसे गायब हो सकता है? लेकिन ऐसा हुआ है और भारत जैसे महाभ्रष्ट देश में कुछ भी सम्भव है। आपको याद होगा कि जादूगर पीसी सरकार ने एक बार ताजमहल "गायब" कर दिया था, लेकिन रेड्डी बन्धु उनसे भी बहुत बड़े जादूगर हैं, इन्होंने 35 लाख टन का अयस्क गायब कर दिया।


पहले आप यह जान लीजिये कि 35 लाख टन लौह अयस्क के मायने क्या हैं - न्यूयॉर्क की प्रसिद्ध एम्पायर स्टेट बिल्डिंग का वज़न अंदाजन साढ़े तीन लाख टन होगा, दूसरे शब्दों में कहें तो रेड्डी बन्धुओं ने लगभग दस एम्पायर स्टेट बिल्डिंग को हवा में "गायब" कर दिया है, कहाँ लगते हैं पीसी सरकार? मोटे तौर पर इसकी कीमत का अंदाज़ा भी लगा लेते हैं - आज की तारीख में लौह अयस्क की अंतर्राष्ट्रीय कीमत लगभग 145 डालर प्रति टन है, यदि इसे हम 130 डालर भी मान लें और इसमें से 30 डालर प्रति टन ट्रांसपोर्टेशन और अन्य खर्चों के तौर पर घटा भी दें तब भी 35 लाख टन के 100 डालर प्रति टन के हिसाब से कितना हुआ? चकरा गया दिमाग…? अभी रुकिये, अभी और चक्कर आयेंगे जब आपको मालूम पड़ेगा कि विधानसभा में मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा ने लिखित में स्वीकार किया है कि सन् 2007 में (जब भाजपा सत्ता में नहीं थी) 47 लाख टन लौह अयस्क का अवैध खनन और तस्करी हो चुकी है। है ना मेरा भारत महान…? तो ये है रेड्डी बन्धुओं की "असली ताकत", मधु कौड़ा तो इनके सामने बच्चे हैं। "अथाह और अकूत पैसा" ही सारे फ़साद की जड़ है, रेड्डी बन्धुओं की जेब में कई विधायक हैं जो जब चाहे सरकार गिरा देंगे, ठीक उसी तरह जैसे कि विजय माल्या और अम्बानी की जेब में कई सांसद हैं, जो उनके एक इशारे पर केन्द्र सरकार को हिला देंगे, सो इन लोगों का कभी कुछ बिगड़ने वाला नहीं है चाहे कई सौ की संख्या में ईमानदार येदियुरप्पा, मनमोहन सिंह, शेषन, खैरनार, किरण बेदी आ जायें। बहरहाल, वापस आते हैं इस केस पर…

मामले की शुरुआत तब हुई, जब एक और ईमानदार फ़ॉरेस्ट अफ़सर आर गोकुल ने कर्नाटक के बिलिकेरे बन्दरगाह पर 8 लाख टन का लौह अयस्क अवैध रुप से पड़ा हुआ देखा, उन्होंने तत्काल विभिन्न कम्पनियों और रेड्डी बन्धुओं पर केस दर्ज कर दिया। नतीजा - जैसे 35 लाख टन लौह अयस्क गायब हुआ, आर गोकुल को भी दफ़्तर से गायब कर दिया गया, उन्हें गायब किया रेड्डी बन्धुओं के खास व्यक्ति यानी "पर्यावरण मंत्री" जे कृष्णा पालेमर ने, जिन्होंने अपने मालिकों की शान में गुस्ताखी करने वाले भारत सरकार के नौकर को निलम्बित कर दिया। लोकायुक्त श्री हेगड़े जो कि अपने ईमानदार अफ़सरों का हमेशा पक्ष लेते रहे हैं, उन्होंने मामले में दखल दिया, और कर्नाटक सरकार को रेड्डी बन्धुओं पर नकेल कसने को कहा। अब भला येद्दियुरप्पा की क्या हिम्मत, कि वे रेड्डी बन्धुओं के खिलाफ़ कुछ कर सकें, उन्होंने मामले को लटकाना शुरु कर दिया। खुद येद्दियुरप्पा भले ही कितने भी ईमानदार हों, रेड्डी बन्धुओं के दबाव में उन्हें उनके मनचाहे मंत्री और अफ़सर रखने/हटाने पड़ते हैं, पिछली बार हुए विवाद में येद्दियुरप्पा सार्वजनिक रुप से आँसू भी बहा चुके हैं, लेकिन यह बात उन्हें भी पता है कि जिस दिन रेड्डी बन्धुओं का बाल भी बाँका हुआ, उसी दिन कर्नाटक सरकार गिर जायेगी, जैसे पिछली कुमारस्वामी सरकार गिरी थी, जब उन्होंने रेड्डी बन्धुओं से पंगा लिया था।


खैर, बार-बार आग्रह करने के बावजूद जब कर्नाटक सरकार ने हेगड़े की बातों और सुझावों पर अमल नहीं किया तो हताश और निराश हेगड़े साहब ने गुस्से में इस्तीफ़ा दे दिया, और भूचाल आ गया। कांग्रेस-जद(एस) को मुद्दा मिल गया और उन्होंने विधानसभा में धरना दे दिया, मानो वे सारे के सारे दूध के धुले हुए हों और भाजपा सरकार के दो साल के कार्यकाल में ही सारा का सारा लौह अयस्क गायब हुआ हो, इस नौटंकी में देवेगौड़ा और उनके सुपुत्र से लेकर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री धर्मसिंह और एस एम कृष्णा जैसे दिग्गज भी परदे के पीछे से खेल कर रहे हैं, जबकि इन सभी ने रेड्डी बन्धुओं की कृपा से करोड़ों का माल बनाया है, मीडिया भी इसे इतनी हवा इसीलिये दे रहा है क्योंकि यह भाजपा से जुड़ा मामला है, वरना मीडिया ने कभी भी सेमुअल रेड्डी के खनन घोटालों पर कोई रिपोर्ट पेश नहीं की। खैर जाने दीजिये… हम तो इस बात को जानते ही हैं कि मीडिया किसके "पंजे" में है और किसके हाथों बिका हुआ है। जस्टिस हेगड़े ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है कि चूंकि गोआ, विशाखापत्तनम और रामेश्वरम बन्दरगाह उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आते, इसलिये वहाँ की जाँच का जिम्मा सम्बन्धित राज्य सरकारों का है (और इन तीनों राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं है), परन्तु मीडिया ने सिर्फ़ कर्नाटक की सरकार को अस्थिर करने की योजना बना रखी है।

जस्टिस हेगड़े ने मुख्यतः इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करवाया कि समुद्र तट से मीलों दूर अवैध खदानों में अवैध खनन हो रहा है। खदान से बन्दरगाह तक पहुँचने के बीच कम से कम 7 जगह प्रमुख चेक पोस्ट आती हैं, लेकिन किसी भी चेक पोस्ट पर लौह अयस्क ले जा रहे एक भी ट्रक की एण्ट्री नहीं है, ऐसा तभी सम्भव है जब पूरी की पूरी मशीनरी भ्रष्टाचार में सनी हुई हो, और भारत जैसे देश में यह आसानी से सम्भव है। जस्टिस हेगड़े ने अपने बयान में कहा है कि 35 लाख टन अयस्क की तस्करी रातोंरात होना सम्भव ही नहीं है, यह पिछले कई वर्षों से जारी है। मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा कह रहे हैं कि वे पिछले दस साल में हुई लौह अयस्क की खुदाई और तस्करी की पूरी जाँच करवायेंगे, लेकिन जब पिछले कुछ माह में सात-सात चेक पोस्टों से गुज़रकर बन्दरगाह तक माल पहुँचाने वाले ट्रकों की ही पहचान स्थापित नहीं हो पा रही तो दस साल की जाँच कैसे करवायेंगे? कौन सी एजेंसी यह कर पायेगी? राज्य की भ्रष्ट मशीनरी, जिसे रेड्डी बन्धुओं ने पैसा खिला-खिलाकर "चिकना घड़ा" बना दिया है, वह किसी लोकायुक्त, सीबीआई या पुलिस को सहयोग क्यों करने लगी? येद्दियुरप्पा कितने भी ईमानदार हों, जब पूरा सिस्टम ही सड़ा हुआ हो तो अकेले क्या उखाड़ लेंगे? बेल्लारी आंध्रप्रदेश की सीमा से लगा हुआ है, यहाँ से सोनिया गाँधी (और पहले भी कांग्रेस ही) जीतती रही है, और रेड्डी बन्धुओं के सेमुअल रेड्डी और जगनमोहन रेड्डी से "मधुर सम्बन्ध" सभी जानते हैं।

कर्नाटक सहित भारत के सभी राज्यों में लोकायुक्त को सिर्फ़ "बिजूके" की तरह नियुक्त किया गया है, उन्हें कोई शक्तियाँ नहीं दी गईं, जबकि 1984 से ही इसकी माँग की जा रही है, न तो एस एम कृष्णा और न ही धर्मसिंह, किसी ने इस पर ध्यान दिया, क्योंकि उनकी भी पोल खुल सकती थी। उधर कांग्रेस के "दल्ले" राज्यपालों की परम्परा को निभाते हुए हंसराज भारद्वाज ने अपनी "चादर से बाहर पैर निकालकर" येदियुरप्पा को मंत्रियों पर कार्रवाई करने की सलाह दी है, जो कि राज्यपाल का कार्यक्षेत्र ही नहीं है। लेकिन इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि देश को गहरे नीचे गिराने में कांग्रेस ने तो 1952 से ही महारत हासिल कर ली थी, तो उसकी संस्कृति में पले हुए भारद्वाज भी बूटा सिंह, रोमेश भण्डारी, सिब्ते रजी जैसी हरकत नहीं करेंगे, तो कौन करेगा? ये बात अलग है कि भारद्वाज साहब में हिम्मत नहीं है कि वे मनमोहन सिंह से शरद पवार, ए राजा और कमलनाथ को मंत्रिमण्डल से बाहर करने को कह सकें, क्योंकि आज जैसे येदियुरप्पा मजबूर हैं, वैसे ही मनमोहन सिंह भी बेबस हैं… यही इस देश की शोकांतिका है।

(भाग-2 में जारी रहेगा……)

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अपनी पिछली पोस्ट (केरल में तालिबान पहुँचे, प्रोफ़ेसर का हाथ काटा) में मैंने वामपंथियों के दोहरे चरित्र और व्यवहार के बारे में विवेचना की थी… इस केस के फ़ॉलो-अप के रूप में आगे पढ़िये…

बात शुरु करने से पहले NDF के बारे में संक्षेप में जान लीजिये -

1) केरल के जज थॉमस पी जोसफ़ आयोग ने अपनी विस्तृत जाँच के बाद अपनी रिपोर्ट में "मराड नरसंहार" (यहाँ पढ़िये http://en.wikipedia.org/wiki/Marad_massacre) के मामले में NDF और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग को दोषी पाया है। इसी रिपोर्ट में उन्होंने उदारवादी और शांतिप्रिय मुस्लिमों पर भी NDF के हमले की पुष्टि की है और कहा है कि यह एक चरमपंथी संगठन है।

2) भाजपा तो शुरु से आरोप लगाती रही है कि NDF के रिश्ते पाकिस्तान की ISI से हैं, लेकिन खुद कांग्रेस के कई पदाधिकारियों ने NDF की गतिविधियों को संदिग्ध मानकर रिपोर्ट की है। 31 अक्टूबर 2006 को कांग्रेस ने मलप्पुरम जिले में आतंकवाद विरोधी अभियान की शुरुआत की और वाम दलों, PDP (पापुलर डेमोक्रेटिक पार्टी) और NDF पर कई गम्भीर आरोप लगाये।

3) बरेली में पदस्थ रह चुकीं वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी नीरा रावत ने जोसफ़ आयोग के सामने अपने बयान में कहा है कि उनकी जाँच के मुताबिक NDF के सम्बन्ध पाकिस्तान के ISI  और ईरान से हैं, जहाँ से इसे भारी मात्रा में पैसा मिलता है। इसी प्रकार एर्नाकुलम के ACP एवी जॉर्ज ने अदालत में अपने बयान में कहा है कि NDF को विदेश से करोड़ों रुपया मिलता है जिससे इनके "ट्रेनिंग प्रोग्राम"(?) चलाये जाते हैं। NDF के कार्यकर्ताओं को मजदूर, कारीगर इत्यादि बनाकर फ़र्जी तरीके से खाड़ी देशों में भेजा जाता है, और यह सिलसिला कई वर्ष से चल रहा है। (यहाँ देखें… http://www.indianexpress.com/oldStory/70524/)

4) 23 मार्च 2007 को कोटक्कल के पुलिस थाने पर हुए हमले में भी NDF के 27 कार्यकर्ता दोषी पाये गये थे।

5) NDF के कार्यकर्ताओं के पास से बाबरी मस्जिद और गुजरात दंगों की सीडी और पर्चे बरामद होते रहते हैं, जिनका उपयोग करके ये औरों को भड़काते हैं।

6) 29 अप्रैल 2007 को पाकिस्तान के सांसद मोहम्मद ताहा ने NDF और अन्य मुस्लिम संगठनों के कार्यक्रम में भाग लिया और गुप्त मुलाकातें की। (यहाँ देखें… http://www.hindu.com/2007/04/29/stories/2007042900971100.htm)

7) यह संगठन "शरीयत कानून" लागू करवाने के पक्ष में है और एक-दो मामले ऐसे भी सामने आये हैं जिसमें इस संगठन के कार्यकर्ताओं ने मुसलमानों की भी हत्या इसलिये कर दी क्योंकि वे लोग "इस्लाम" के सिद्धान्तों(??) के खिलाफ़ चल रहे थे। पल्लानूर में एक मुस्लिम की हत्या इसलिये की गई क्योंकि उसने रमज़ान के माह में रोज़ा नहीं रखा था।

वामपंथियों द्वारा पाले-पोसे गये इस "महान देशभक्त" संगठन के बारे में जानने के बाद आईये इस केस पर वापस लौटें…



प्रोफ़ेसर टीजे जोसफ़ पर हुए हमले ने केरल पुलिस को मानो नींद से हड़बड़ाकर जगा दिया है और इस हमले के बाद ताबड़तोड़ कार्रवाई करते हुए केरल पुलिस ने 9 जुलाई को पापुलर फ़्रण्ट के एक कार्यकर्ता(?) कुंजूमोन को आतंकवाद विरोधी अधिनियम के तहत गिरफ़्तार किया, कुंजूमोन के घर से बरामद की गई कार में तालिबान और अल-कायदा के प्रचार से सम्बन्धित सीडी और लश्कर-ए-तोईबा से सम्बन्धित दस्तावेज लैपटॉप से बरामद किये गये। राज्य पुलिस ने कहा है कि प्रोफ़ेसर के हाथ काटने वाले दोनों मुख्य आरोपियों जफ़र और अशरफ़ से कुंजूमोन के सम्बन्ध पहले ही स्थापित हो चुके हैं। इसी प्रकार पुलिस ने त्वरित कार्रवाई करते हुए NDF के ही एक और प्रमुख नेता अय्यूब को अलुवा के पास से 10 जुलाई को गिरफ़्तार कर लिया है और उसके पास से भी हथियार और NDF का अलगाववादी साहित्य बरामद किया है।

http://www.asianetindia.com/news/pfi-leader-kunhumon-booked-antiterror-laws_171699.html

पाठक सोच रहे होंगे, वाह… वाह… क्या बात है, केरल की पुलिस और वामपंथी सरकार अपने कर्तव्यों के प्रति कितने तत्पर और मुस्तैद हैं। प्रोफ़ेसर पर हमला होने के चन्द दिनों में ही मुख्य आरोपी और उन्हें "वैचारिक खुराक" देने वाले दोनों नेताओं को गिरफ़्तार भी कर लिया… गजब की पुलिस है भई!!! लेकिन थोड़ा ठहरिये साहब… जरा इन दो घटनाओं को भी पढ़ लीजिये…

1) अप्रैल 2008 में रा स्व संघ  के एक कार्यकर्ता बिजू को NDF के कार्यकर्ताओं ने दिनदहाड़े त्रिचूर के बाजार में मार डाला था। कन्नूर, पावारत्ती आदि इलाकों में RSS और NDF के कार्यकर्ताओं में अक्सर झड़पें होती रहती हैं, लेकिन वामपंथी सरकार के मूक समर्थन की वजह से अक्सर NDF के कार्यकर्ता RSS के स्वयंसेवकों को हताहत कर जाते हैं और उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती।

2) कन्नूर जिले के संघ के बौद्धिक प्रमुख श्री टी अश्विनी कुमार जो कि सतत देशद्रोही तत्वों के खिलाफ़ अभियान चलाये रहते थे, उन्हें भी NDF के चरमपंथियों ने कुछ साल पहले सरे-बाज़ार तलवारों से मारा था और जो लोग अश्विनी की मृतदेह उठाने आये उन पर भी हमला किया गया। उस समय तत्कालीन वाजपेयी सरकार और गृह मंत्रालय ने केरल में NDF की संदिग्ध गतिविधियों की विस्तृत रिपोर्ट केन्द्र को सौंपने को कहा था, लेकिन वामपंथी सरकार ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उन्हें चुनाव जीतने के लिये NDF और मुस्लिम लीग की आवश्यकता पड़ती रहती है।

जैसा कि पहले भी कहा गया है माकपा को मुस्लिम वोटों की भारी चिंता रहती है, हाल ही में माकपा ने अपनी राज्य कांग्रेस की बैठक मलप्पुरम  में रखी थी जो कि 80% मुस्लिम बहुलता वाला इलाका है। माकपा के राज्य सचिव अक्सर मुस्लिमों के धार्मिक कार्यक्रमों में देखे जाते हैं (फ़िर भी इस बात की रट लगाये रहते हैं कि कम्युनिस्ट धर्म के खिलाफ़ हैं, यानी कि "धर्म अफ़ीम है" जैसे उदघोष से उनका मतलब सिर्फ़ "हिन्दू धर्म" होता है, बाकी से नहीं), तो फ़िर अचानक केरल पुलिस इतनी सक्रिय क्यों हो गई है? जवाब है "हाथ किसका काटा गया है, उसके अनुसार कार्रवाई होगी…" पहले तो संघ कार्यकर्ताओं के हाथ काटे जाते थे या हत्याएं की जा रही थीं, लेकिन अब तो "तालिबानियों" ने सीधे चर्च को ही चुनौती दे डाली है। पहले तो वे "लव जेहाद" ही करते थे और ईसाई लड़कियाँ भगाते थे, पर अब खुल्लमखुल्ला एक ईसाई प्रोफ़ेसर का हाथ काट दिया, सो केरल पुलिस का चिन्तित होना स्वाभाविक है। मैं आपको सोचने के लिये विकल्प देता हूं कि पुलिस की इस तत्परता के कारण क्या-क्या हो सकते हैं -

1) केरल पुलिस के अधिकतर उच्च अधिकारी ईसाई हैं, इसलिये? या…

2) एक अल्पसंख्यक(?) ने दूसरे अल्पसंख्यक(?) पर हमला किया, इसलिये? या…

3) एक "अल्पसंख्यक" मनमोहन सिंह का प्यारा है (यानी "देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है…" वाला ब्राण्ड) और जिसका हाथ काटा गया वह "अल्पसंख्यक", सोनिया आंटी के समुदाय का है (एण्डरसन, क्वात्रोची ब्राण्ड), इसलिये? या…

4) कहीं करोड़ों का चन्दा देने वाले, "चर्च" ने माकपा को यह धमकी तो नहीं दे दी, कि अगले चुनाव में फ़ूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी… इसलिये?

बहरहाल, जो भी कारण हों, प्रोफ़ेसर टी जोसफ़ के मामले में त्वरित कार्रवाई हो रही है, खुद राज्य के DGP जोसफ़ के घर सांत्वना जताने पहुँच चुके हैं, गिरफ़्तारियाँ हो रही हैं… अब्दुल नासिर मदनी के साथ दाँत निपोरते हुए फ़ोटो खिंचवाने वाले माकपा नेता पिनरई विजयन अब कह रहे हैं कि NDF एक साम्प्रदायिक संगठन है, माकपा इस मामले को गम्भीरता से ले रही है और इसकी रिपोर्ट केन्द्र सरकार को भेजी जा रही है… तात्पर्य यह है कि जोसफ़ का हाथ काटने के बाद बहुत तेजी से "काम" हो रहा है।

जिस "तालिबानी" NDF कार्यकर्ता कुंजूमान को केरल पुलिस ने अब आतंकवादी कहकर गिरफ़्तार किया है, इसी कुंजूमान पर RSS के कार्यकर्ता कलाधरन के हाथ काटने के आरोप में केस चल रहा है… चल रहा है और चलता ही रहेगा… क्योंकि कार्रवाई यह देखकर तय की जाती है कि "हाथ किसका काटा गया है…"…

यह है "वामपंथ" और "धर्मनिरपेक्षता" (सॉरी… बेशर्मनिरपेक्षता) की असलियत!!!!!!


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हाल ही में केरल के थोडुपुझा में एक कॉलेज के प्रोफ़ेसर टीजे जोसफ़ पर कुछ मुस्लिम आतंकियों ने दिनदहाड़े हमला किया और उनके हाथ काट दिये। जैसा कि सभी जानते हैं यह मामला उस समय चर्चा में आया था, जब प्रोफ़ेसर जोसफ़ ने कॉलेज के बी कॉम परीक्षा में एक प्रश्नपत्र तैयार किया था जिसमें "मुहम्मद" शब्द का उल्लेख आया था। चरमपंथी मुस्लिमों का आरोप था कि जोसफ़ ने जानबूझकर "मोहम्मद" शब्द का उल्लेख अपमानजनक तरीके से किया और इस वजह से "उन्मादी भीड़ के रेले" ने उन्हें "ईशनिंदा" का दोषी मान लिया गया।

जिस दिन यह प्रश्नपत्र आया था, उसी दिन शाम को थोडुपुझा में मुस्लिम संगठनों ने सड़कों पर जमकर हंगामा और तोड़फ़ोड़ की थी, तथा कॉलेज प्रशासन पर दबाव बनाने के लिये राजनैतिक पैंतरेबाजी शुरु कर दी थी। केरल में पिछले कई वर्षों से या तो कांग्रेस की सरकार रही है अथवा वामपंथियों की, और दोनों ही पार्टियाँ ईसाई और मुस्लिम "वोट बैंक" का समय-समय पर अपने फ़ायदे के लिये उपयोग करती रही हैं (क्योंकि हिन्दू वोट बैंक नाम की कोई चीज़ अस्तित्व में नहीं है)। फ़िलहाल केरल में वामपंथी सत्ता में हैं, जिनके "परम विद्वान मुख्यमंत्री" हैं श्री अच्युतानन्दन (याद आया? जी हाँ, वही अच्युतानन्दन जिन्हें स्वर्गीय मेजर उन्नीकृष्णन के पिता ने घर से बाहर निकाल दिया था)।

पहले समूचे घटनाक्रम पर एक संक्षिप्त नज़र - थोडुपुझा के कॉलेज प्रोफ़ेसर जोसफ़ ने एक प्रश्नपत्र तैयार किया, जो कि विश्वविद्यालय के कोर्स पैटर्न और पाठ्यक्रम पर आधारित था, उसमें पूछे गये एक सवाल पर केरल के एक प्रमुख मुस्लिम संगठन NDF ने यह कहकर बवाल खड़ा किया गया कि इसमें "मुहम्मद" शब्द का अपमानजनक तरीके से प्रयोग किया गया है, तोड़फ़ोड़-दंगा-प्रदर्शन इत्यादि हुए। जहालत की हद तो यह है कि जिस प्रश्न और मोहम्मद के नामोल्लेख पर आपत्ति की गई थी, वह कोई टीजे जोसफ़ का खुद का बनाया हुआ प्रश्न नहीं था, बल्कि पीटी कुंजू मोहम्मद नामक एक CPM विधायक की पुस्तक "थिरकाथायुडु नीथीसास्त्रम" (पेज नम्बर 58) से लिया गया एक पैराग्राफ़ है, कुंजू मोहम्मद खुद एक मुस्लिम हैं और केरल में "मोहम्मद" नाम बहुत आम प्रचलन में है। प्रख्यात अभिनेता ममूटी का नाम भी मोहम्मद ही है, ऐसे में प्रश्न पत्र में पूछे गये सवाल पर इतना बलवा करने की जरूरत ही नहीं थी, लेकिन "तालिबान" को केरल में वामपंथियों और चर्च को अपनी "ताकत" दिखानी थी, और वह दिखा दी गई।



आये दिन जमाने भर की बौद्धिक जुगालियाँ करने वाले, जब-तब सिद्धान्तों और मार्क्स के उल्लेख की उल्टियाँ करने वाले…… लेकिन हमेशा की तरह मुस्लिम वोटों के लालच के  मारे, वामपंथियों ने पहले प्रोफ़ेसर टीजे जोसफ़ को निलम्बित कर दिया, फ़िर भी मुसलमान खुश नहीं हुए… तो प्रोफ़ेसर के खिलाफ़ पुलिस रिपोर्ट कर दी… पढ़ाई-लिखाई करने वाले बेचारे प्रोफ़ेसर साहब घबराकर अपने रिश्तेदार के यहाँ छिप गये, तब भी मुसलमान खुश नहीं हुए, तो जोसफ़ को गिरफ़्तार करने के लिये दबाव बनाने के तहत उनके लड़के को पुलिस ने उठा लिया और थाने में जमकर पिटाई की, बेचारे प्रोफ़ेसर ने आत्मसमर्पण कर दिया, मामला न्यायालय में गया, जहाँ से उन्हें ज़मानत मिल गई, लेकिन वामपंथी सरकार द्वारा इतने "सकारात्मक प्रयास" के बावजूद मुसलमान खुश नहीं हुए। वे लोग तभी खुश हुए, जब उन्होंने "शरीयत"  कानून के तहत प्रोफ़ेसर के हाथ काटने का फ़ैसला किया, और जब प्रोफ़ेसर अपने परिवार के साथ चर्च से लौट रहे थे, उस समय इस्लामिक कानून के मानने वालों ने वामपंथी सरकार को ठेंगा दिखाते हुए प्रोफ़ेसर पर हमला कर दिया, उन्हें चाकू मारे और तलवार से उनका हाथ काट दिया और भाग गये……



अब वामपंथी सरकार के शिक्षा मंत्री कह रहे हैं कि "मामला बहुत दुखद है, किसी को भी कानून अपने हाथ में नही लेने दिया जायेगा…"। जबकि देश में ईसाईयों पर होने वाले किसी भी "कथित अत्याचार" के लिये हमेशा भाजपा-संघ-विहिप और मोदी को गरियाने वाले एवेंजेलिस्ट चर्च  की बोलती, फ़िलहाल इस मामले में बन्द है। मुस्लिम वोटों के लिये घुटने टेकने और तलवे चाटने की यह वामपंथी परम्परा कोई नई बात नहीं है, तसलीमा नसरीन के मामले में हम इनका दोगलापन पहले भी देख चुके हैं और भारत के भगोड़े, कतर के नागरिक एमएफ़ हुसैन के मामले में भी वामपंथियों और सेकुलरों ने जमकर छातीकूट अभियान चलाया था। अब यदि एक प्रश्नपत्र में सिर्फ़ मोहम्मद के कथित रुप से अपमानजनक नाम आने पर जब एक गरीब प्रोफ़ेसर के हाथ काटे जा सकते हैं, उसके लड़के की थाने में पिटाई की जा सकती है, उसे नौकरी से निलम्बित किया जा सकता है… तो सोचिये दुर्गा-सरस्वती और सीता-हनुमान के अपमानजनक चित्र बनाने वाले एमएफ़ हुसैन के कितने टुकड़े किये जाने चाहिये? लेकिन हिन्दुओं का व्यवहार अधिकतर संयत ही रहा है, इसलिये MF हुसैन को यहाँ से सिर्फ़ लात मारकर बाहर भगाया गया, उसे सलमान रुशदी की तरह दर-दर की ठोकरें नहीं खानी पड़ी।

इस मामले में पुलिस की जाँच में यह बात सामने आई है और NDF  के एक "कार्यकर्ता"(??) अशरफ़ ने बताया कि केरल के अन्दरूनी इलाकों में चल रही तालिबानी स्टाइल की कोर्ट "दारुल खदा" ने "आदेश" दिया था कि न्यूमैन कॉलेज के मलयालम प्रोफ़ेसर के हाथ काटे जायें और इसे अंजाम भी दिया गया (भारत का कानून गया तेल लेने…) यहाँ पढ़ें http://news.rediff.com/report/2010/jul/07/islamic-court-ordered-chopping-of-profs-palm.htm। अशरफ़ ने पुलिस को बताया कि पापुलर फ़्रण्ट (यानी NDF) केरल के मुस्लिमों के पारिवारिक मामलों को भी "दारुल खदा" के माध्यम से निपटाने में लगा हुआ है तथा मुस्लिमों से "आग्रह"(?) किया जा रहा है कि अपने विवादों के निराकरण के लिये वे भारतीय न्यायालयों में न जाकर "दारुल खदा" में आयें। हमेशा की तरह सुलझे हुए तथा शांतिप्रिय मुसलमान चुप्पी साधे हुए हैं, क्योंकि चरमपंथी हमेशा उन्हें धकियाकर मुद्दों पर कब्जा कर ही लेते हैं, जैसा कि शाहबानो  मामले में भी हुआ था। हालांकि केरल की "भारतीय मुस्लिम लीग" ने इस घटना की निंदा की है, लेकिन यह सिर्फ़ दिखावा ही है।

केरल में इस्लामिक उग्रवाद तेजी से बढ़ रहा है, जब यह बात संघ-विहिप कहता था तब "सेकुलर जमात" उसे हमेशा "दुष्प्रचार" कहकर टालती रही है, लेकिन आज जब केरल में "तालिबान" अपना सिर उठाकर खुला घूम रहा है, तब मार्क्स के सिद्धांत बघारने वाले तथा उड़ीसा में रो-रोकर अमेरिका से USCIRF को बुलाकर लाने वाले, ईसाई संगठन दुम दबाकर भाग खड़े हुए हैं। एवेंजेलिस्ट ईसाई भले ही सारी दुनिया में मुसलमानों के साथ "क्रूसेड" में लगे हों, लेकिन भारत में इन्होंने हमेशा "हिन्दू-विरोधी" रुख अपनाये रखा है, चाहे वह मुस्लिमों से हाथ मिलाना हो, या नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सलियों से गठजोड़ का मामला हो… या फ़िर मिजोरम और नागालैण्ड जैसे राज्य जहाँ ईसाई बहुसंख्यक हैं वहाँ से अल्पसंख्यक हिन्दुओं को भगाने का मामला हो… हमेशा एवेंजेलिस्ट ईसाईयों ने हिन्दुओं के खिलाफ़ "धर्म-परिवर्तन" और हिन्दू धर्म के दुश्मनों के साथ हाथ मिलाने की रणनीति अपना रखी है।

अब केरल में पहली बार उन्हें इस्लामिक चरमपंथ की "गर्माहट अपने पिछवाड़े में" महसूस हो रही है, तो उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि जिन वामपंथियों को ईसाई संगठन "अपना" समझते थे, अचानक ये लोग अब्दुल मदनी जैसे व्यक्ति के साथ क्यों दिखाई देने लगे हैं? केरल के ईसाईयों को यह वास्तविकता स्वीकार करने में मुश्किल हो रही है कि उनके जिस "वोट बैंक" का उपयोग वामपंथियों ने किया, वही उपयोग अब "दूसरे पक्ष" का भी कर रहे हैं। वे सोच नहीं पा रहे कि बात-बात पर हिन्दू संगठनों को कोसने की आदत कैसे बदलें, क्योंकि इस्लामिक संगठनों की आक्रामकता के सामने "सेकुलरिज़्म" नाम की दाल गलती नहीं है।

पिछले कुछ वर्षों से उत्तरी केरल के क्षेत्रों में मुस्लिम चरमपंथी, अब ईसाईयों पर हमले बढ़ाने लगे हैं, क्योंकि तीसरी पार्टी यानी "हिन्दू" तो गिनती में ही नहीं हैं या "संगठित वोट बैंक" नहीं है। खुद ईसाई संगठन अपने न्यूज़लेटर मानते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में "लव जेहादियों" ने हजारों ईसाई लड़कियों को प्रेमजाल में फ़ाँसकर उन्हें या तो मुस्लिम बनाया अथवा उन्हें खाड़ी देशों में ले भागे, इसके बावजूद अभी भी एवेंजेलिस्ट ईसाई, हिन्दुओं को अपना प्रमुख निशाना मानते हैं। "धर्म प्रचार" के बहाने अपनी जनसंख्या और राजनैतिक बल बढ़ाने में लगे ईसाई संगठन खुद से सवाल करें कि दुनिया में किस इस्लामी देश में उन्हें भारत की तरह "धर्म-प्रचार"(?) की सुविधाएं हासिल हैं? कितने इस्लामी देशों में वहाँ के "अल्पसंख्यकों" (यानी ईसाई या हिन्दू) के साथ मानवीय अथवा बराबरी का व्यवहार होता है?

यह बात पहले भी कई-कई बार दोहराई जा चुकी है कि हर उस देश-प्रान्त-जिले में जहाँ जब तक मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं, तब तक वे "बहुलतावाद", "सहिष्णुता" और "गंगा-जमनी" आदि की बातें करते हैं, लेकिन जैसे ही वे बहुसंख्यक होते हैं, तत्काल वहाँ के स्थानीय अल्पसंख्यकों पर इस्लाम अपनाने का दबाव बनाने लगते हैं, उन्हें परेशान करने लगते हैं। हमारे सामने पाकिस्तान, बांग्लादेश, सूडान, सऊदी अरब जैसे कई उदाहरण हैं। एक उदाहरण देखिये, यदि सऊदी अरब के इस्लामिक कानून के मुताबिक किसी व्यक्ति की अप्राकृतिक मौत होती है तो उसके परिवार को मिलने वाली मुआवज़ा राशि इस प्रकार है, यदि मुस्लिम है तो 1 लाख रियाल, यदि ईसाई है अथवा यहूदी है तो 50,000 रियाल तथा यदि मरने वाला हिन्दू है तो 6,666 रियाल (सन्दर्भ : http://resistance-to-totalitarianism.blogspot.com/2010/05/koran-says-muslims-and-non-muslims-are.html) ऐसे सैकड़ों उदाहरण दिये जा सकते हैं जहाँ मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में हिन्दुओं के साथ असमान व्यवहार और अत्याचार आम बात है। इस्लाम को और गहराई से समझने के लिये ऊपर दिये गये ब्लॉग के साइड बार में उल्लेखित पुस्तक Islamic Jihad:A Legacy of Forced conversion, Slavery and Imperialism लेखक - MA Khan पढ़ें। इसकी ई-बुक भी उसी ब्लॉग से डाउनलोड की जा सकती है।

वामपंथी तो मुस्लिम वोटों के लिये कहीं भी लेटने को तैयार रहते हैं,  क्योंकि उनकी निगाह में "हिन्दू वोटों" की बात करना ही साम्प्रदायिकता(???) है, बाकी नहीं। 30 साल तक पश्चिम बंगाल में यही किया और अब वहाँ ममता बैनर्जी और इनके बीच में होड़ लगी है कि, कौन कितनी अच्छी तरह से मुसलमानों की तेल-मालिश कर सकता है, उधर केरल में प्रोफ़ेसर जोसफ़ के साथ हुए "सरकारी व्यवहार" ने इस बात की पुष्टि कर दी है, कम से कम केरल में ईसाईयों की आँखें तो अब खुल ही जाना चाहिये


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मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले में पुलिस ने एक सूचना के आधार पर 13 संदिग्ध लोगों को पकड़ा है, और उनसे 25 मोबाइल और ढेर सारे सिम कार्ड बरामद किये। इन मोबाइलों में भड़काऊ साम्प्रदायिक भाषण और वीडियो क्लिपिंग पाई गई है। यह 13 लोग उत्तरप्रदेश के बागपत जिले से हैं और सभी की आयु 16 वर्ष से 45 वर्ष के बीच है। ये लोग एक मारुति वैन में कपड़े और कम्बल बेचने के बहाने गाँव-गाँव भ्रमण कर रहे थे तथा रात को मस्जिद में रुकते थे। इन लोगों के मोबाइल से सिमी के भड़काऊ भाषणों की क्लिप्स और बाबरी मस्जिद दंगों के दौरान मुस्लिम नेताओं द्वारा किये गये भाषणों की ऑडियो/वीडियो क्लिप्स बरामद हुई हैं। इनके पास से पश्चिमी मध्यप्रदेश के कुछ जिलों के कई गाँवों के नक्शे भी बरामद हुए हैं, जिसमें कुछ खास जगहों पर लाल रंग से निशानदेही भी की गई है। यदि आप सामाजिक रुप से जागरुक हैं (यहाँ देखें…) तो अपने आसपास की घटनाओं और लोगों पर निगाह रखें…)। फ़िलहाल इन्दौर ATS और शाजापुर तथा उज्जैन की पुलिस इन सभी से पूछताछ कर रही है। ये लोग एक-दो वैन लेकर ग्रामीण भागों में कम्बल बेचने जाते थे और मुस्लिमों की भावनाओं को भड़काने का खेल करते थे। (यहाँ देखें…)

उल्लेखनीय है कि पूरा पश्चिमी मध्यप्रदेश सिमी (Students Islamic Movement of India) का गढ़ माना जाता है, उज्जैन, इन्दौर, शाजापुर, मक्सी, महिदपुर, उन्हेल, नागदा, खाचरौद आदि नगरों-कस्बों में सिमी का जाल बिछा हुआ है। कुछ माह पहले सिमी के सफ़दर नागौरी को इन्दौर पुलिस ने इन्दौर से ही पकड़ा था, जबकि उन्हेल के एक अन्य "मासूम" सोहराबुद्दीन को गुजरात पुलिस ने एनकाउंटर में मारा था, सोहराबुद्दीन इतना "मासूम" था, कि इसे पता ही नहीं था कि उसके घर के कुँए में AK-56 पड़ी हुई है। ऐसे संवेदनशील इलाके में उत्तरप्रदेश से आये हुए यह संदिग्ध लोग क्या कर रहे थे और इनके इरादे क्या थे… यह समझने के लिये कोई बड़ी विद्वत्ता की आवश्यकता नहीं है, बशर्ते आप सेकुलर और कांग्रेसी ना हों। हालांकि हो सकता है कि ये सभी लोग बाद में न्यायालय में "मासूम" और "गुमराह" सिद्ध हो जायें, क्योंकि इन्हें कोई न कोई "राष्ट्रभक्त वकील" मिल ही जायेगा, और न्यायालय के बाहर तो सीतलवाडों, आजमियों, महेश भट्टों की कोई कमी है ही नहीं।

उधर कश्मीर में "मासूम" और "गुमराह" लड़के CRPF के जवानों को सड़क पर घेरकर मार भी रहे हैं, और पत्थर फ़ेंकने में भी पैसा कमा रहे हैं (यहाँ देखें…)। आजमगढ़ के "मासूम" तो खैर विश्वप्रसिद्ध हैं ही, बाटला हाउस के "गुमराह" भी उनके साथ विश्वप्रसिद्ध हो लिये। उधर कोलकाता में भी "मासूम" लोग कभी बुरका पहनने के लिये दबाव बना रहे हैं (यहाँ देखें...), तो कभी "गुमराह" लड़के हिन्दू लड़कियों को छेड़छाड़ और मारपीट कर देते हैं (यहाँ देखें…)। असम में तो बेचारे इतने "मासूम मुस्लिम" हैं कि उन्हें यही नहीं पता होता कि, जो झण्डा वे फ़हरा रहे हैं वह भारत का है या पाकिस्तान का?


ऐसे "मासूम", "गुमराह", "बेगुनाह", "बेकसूर", "मज़लूम", "सताये हुए", "पीड़ित" (कुछ छूट गया हो तो अपनी तरफ़ से जोड़ लीजियेगा) कांग्रेस-सपा-बसपा के प्यारे-प्यारे बच्चों और युवाओं को हमें स्कॉलरशिप देना चाहिये, उत्साहवर्धन करना चाहिये, आर्थिक पैकेज देना चाहिये… और भी जो कुछ बन पड़े वह करना चाहिये, उन्हें कोई दुख नहीं पहुँचना चाहिये।




बारिश के दिनों में अक्सर भारत की नदियों से पाकिस्तान और बांग्लादेश में बाढ़ आती है, लेकिन "मासूमों" और "गुमराहों" की बाढ़ साल भर उल्टी दिशा में बहती है यानी पाकिस्तान और बांग्लादेश से भारत की तरफ़ को। इसलिये आप ध्यान रखें कि जैसे ही कोई मुस्लिम युवक किसी लव जेहाद या आतंकवादी या भड़काऊ भाषण, या पत्थरबाजी, या छेड़छाड़ जैसी घटना में पकड़ाये, तो तड़ से समझ जाईये और मान भी लीजिये कि वह "मासूम" और "गुमराह" ही है। ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं…… बल्कि तीस्ता आंटी, जावेद अंकल, महेश मामा, मनीष तिवारी चाचा, बुरका (सॉरी बरखा) दत्त चाची, और मीडिया में बैठे बुद्धिजीवी लोग आपसे आग्रह कर रहे हैं… तात्पर्य यह है कि समूचे भारत में "मासूमों" और "गुमराहों" की बाढ़ आई हुई है, और इसे रोकना बड़ा मुश्किल है…। और तो और अब "मासूमियत की सुनामी", शीला दीक्षित सरकार की दहलीज और राष्ट्रपति भवन के अहाते तक पहुँच गई है, क्योंकि मासूमों के शहंशाह "अफ़ज़ल गुरु" को बचाने में पूरा जोर लगाया जा रहा है, जबकि उधर मुम्बई में "गुमराहों का बादशाह" अजमल कसाब चिकन उड़ा रहा है, इत्र लगा रहा है…।

ऐसा भी नहीं कि मासूम और गुमराह सिर्फ़ भारत में ही पाये जाते हैं, उधर अमेरिका में भी पढ़े-लिखे, दिमागदार, अच्छी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले शहजाद जैसे युवा और अबू निदाल मलिक जैसे अमेरिका के नागरिक भी मासूमियत और गुमराहियत की गंगा में डुबकी लगाते रहते हैं… (यहाँ देखें…) अन्तर सिर्फ़ इतना है उधर भारत की तरह "रबर स्टाम्प" राष्ट्रपति नहीं होता बल्कि "पिछवाड़ा गरम करने वाली" ग्वान्तानामो बे जैसी जेलें होती हैं…
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चलते-चलते : अन्त में एक आसान सा "मासूम" सवाल (जिसका जवाब सभी को पता है) पूछने को जी चाहता है, कि क्या "गुमराह" और "मासूम" होने का ठेका सिर्फ़ कट्टर मुस्लिमों को ही मिला है? "मुस्लिमों"??? सॉरी अल्पसंख्यकों… सॉरी मुस्लिमों… ओह सॉरी अल्पसंख्यकों… अरे!! फ़िर सॉरी…। छोड़ो… जाने भी दो यारों… दोनों शब्दों का मतलब एक ही होता है… जिसका नया पर्यायवाची है "मासूम और गुमराह"

क्यों उमर अब्दुल्ला साहब, आपका क्या विचार है???


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19 जून 2010 को आंध्रप्रदेश सरकार ने कडप्पा जिले का नाम बदलकर "YSR जिला" रख दिया है, कहा गया कि विधानसभा ने यह प्रस्ताव पास करके हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मारे गये YSR को श्रद्धांजलि दी है।


इस आशय का प्रस्ताव 3 सितम्बर 2009 को ही विधानसभा में पेश किया जा चुका था, इस प्रस्ताव पर कडप्पा जिले के सभी प्रमुख मानद नागरिकों ने नाराजी जताई थी, तथा हिन्दू संगठनों ने विरोध प्रदर्शन भी किये, लेकिन "सेमुअल" का नाम सभी पर भारी पड़ा। उल्लेखनीय है कि सेमुअल रेड्डी ने ही 19 अगस्त 2005 को, वहाँ 1820-1829 के दौरान कलेक्टर रहे चार्ल्स फ़िलिप ब्राउन द्वारा उच्चारित सही शब्द "कुडप्पाह" को बदलकर "कडप्पा" कर दिया था।

देखा गया है कि देश की सभी प्रमुख योजनाओं, भवनों, सड़कों, स्टेडियमों, संस्थानों के नाम अक्सर "गांधी परिवार" से सम्बन्धित व्यक्तियों के नाम पर ही रखे जाते हैं, भले ही उनमें से किसी-किसी का देश के प्रति योगदान दो कौड़ी का भी क्यों न हो। (हाल ही में मुम्बई के बान्द्रा-वर्ली सी-लिंक पुल का नाम भी पहले "शिवाजी महाराज पुल" रखने का प्रस्ताव था, लेकिन वहाँ भी अचानक रहस्यमयी तरीके से "राजीव गाँधी" घुसपैठ कर गये और "शिवाजी" पर भारी पड़े)।

इसी क्रम में अब नई परम्परा के तहत "ईसाईयत के महान सेवक", "धर्मान्तरण के दिग्गज चैम्पियन" YSR के नाम पर "देश और समाज के प्रति उनकी अथक सेवाओं" को देखते हुए कडप्पा जिले का नाम बदल दिया गया है। चूंकि यह देश नेहरु-गाँधी परिवार की "बपौती" है और यहाँ के बुद्धिजीवी उनकी चाकरी करने में गर्व महसूस करते हैं इसलिये आने वाले समय में "गाँधी परिवार" के प्रिय व्यक्तियों के नाम पर ही जिलों के नाम रखे जायेंगे।
(यह मत पूछियेगा, कि देश को आर्थिक कुचक्र से बचाने वाले, नई आर्थिक नीति की नींव रखने वाले, पूरे 5 साल तक गैर-गाँधी परिवार के प्रधानमंत्री, नौ भाषाओं के ज्ञाता, आंध्रप्रदेश के गौरव कहे जाने वाले पीवी नरसिम्हाराव के नाम पर कितने जिले हैं, कितनी योजनाएं हैं, कितने पुल हैं… क्योंकि नरसिम्हाराव न तो गाँधी-नेहरु नामधारी हैं, और न ही ईसाई धर्मान्तरण के कार्यकर्ता… इसलिये उन्हें दरकिनार और उपेक्षित ही रखा जायेगा…)। तमाम सेकुलर और गाँधी परिवार के चमचे बुद्धिजीवियों और बिके हुए मीडिया की "बुद्धि" पर तरस भी आता है, हँसी भी आती है… जब वे लोग राहुल गाँधी को "देश का भविष्य" बताते हैं… साथ ही कांग्रेस शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों पर दया भी आती है कि, आखिर ये कितने रीढ़विहीन और लिज़लिज़े टाइप के लोग हैं कि राज्य की किसी भी योजना का नाम उस राज्य के किसी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक व्यक्तित्व के नाम पर रखने की बजाय "गाँधी परिवार" के नाम पर रख देते हैं, जिनके नाम पर पहले से ही देश भर में 2-3 लाख योजनाएं, पुल, सड़कें, बगीचे, मैदान, संस्थाएं आदि मौजूद हैं।

"गुलाम" बने रहने की कोई सीमा नहीं होती, यह इसी बात से स्पष्ट होता है कि ब्रिटेन की महारानी के हाथ से "गुलाम" देशों के "गुलाम" नागरिकों के मनोरंजन के लिये बनाये गये "खेलों"  पर अरबों रुपये खुशी-खुशी फ़ूंके जा रहे हैं, कलमाडी और प्रतिभा पाटिल, दाँत निपोरते हुए उन खेलों की बेटन ऐसे थाम रहे हैं, जैसे महारानी के हाथों यह पाकर वे कृतार्थ और धन्य-धन्य हो गये हों। यही हाल कांग्रेसियों और देश के तमाम बुद्धिजीवियों का है, जो अपने "मालिक" की कृपादृष्टि पाने के लिये लालायित रहते हैं। कडप्पा का नाम YSR डिस्ट्रिक्ट करने का फ़ैसला भी इसी "भाण्डगिरी" का नमूना है।

परन्तु इस मामले में "परम्परागत कांग्रेसी चमचागिरी" के अलावा एक विशेष एंगल और जुड़ा हुआ है। उल्लेखनीय है कि YSR (जो "हिन्दू" नाम रखे हुए, लाखों ईसाईयों में से एक थे) "सेवन्थ डे एडवेन्टिस्ट"  थे, और YSR ने आंध्रप्रदेश में नये चर्चों के बेतहाशा निर्माण, धर्मान्तरण के लिये NGOs को बढ़ावा देने तथा इवेंजेलिकल संस्थाओं को मन्दिरों से छीनकर कौड़ी के दाम ज़मीन दान करने का काम बखूबी किया है, इसीलिये यह साहब "मैडम माइनो" के खास व्यक्तियों में भी शामिल थे। वह तो शुक्र है आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट का जिसने तिरुपति तिरुमाला  की सात पहाड़ियों में से पाँच पहाड़ियों पर "कब्जा" करने की YSR की बदकार कोशिश को खारिज कर दिया (हाईकोर्ट केस क्रमांक 1997(2) ALD, पेज 59 (DB) - टीके राघवन विरुद्ध आंध्रप्रदेश सरकार), वरना सबसे अधिक पैसे वाले भगवान तिरुपति भी एक पहाड़ी पर ही सीमित रह जाते, और उनके चारों तरफ़ चर्च बन जाते। (हालांकि पिछले दरवाजे से अभी भी ऐसी कोशिशें जारी हैं, और सफ़ल भी हो रही हैं, क्योंकि "हिन्दू"…………… हैं)।
(http://www.vijayvaani.com/FrmPublicDisplayArticle.aspx?id=795)

प्रत्येक शहर का अपना एक इतिहास होता है, एक संस्कृति होती है और उस जगह की कई ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर होती हैं। "नाम" की भूख में किसी सनकी पार्टी द्वारा उस शहर की सांस्कृतिक पहचान से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। यदि कांग्रेस को अपने सम्मानित नेता की यादगार में कुछ करना ही था तो वह अस्पताल, लायब्रेरी, स्टेडियम कुछ भी बनवा सकती थी, चेन्नई में प्रभु यीशु की जैसी बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ लगवाई हैं वैसी ही एकाध मूर्ति YSR की भी लगवाई जा सकती थी (जिस पर कौए-कबूतर दिन रात बीट करते), लेकिन कडप्पा का नाम YSR के नाम पर करना वहाँ के निवासियों की "पहचान" खत्म करने समान है। उल्लेखनीय है कि "कडप्पा" एक समय मौर्य शासकों के अधीन था, जो कि बाद में सातवाहन के अधीन भी रहा। विजयनगर साम्राज्य के सेनापति, नायक और कमाण्डर यहाँ के किले में युद्ध के दौरान विश्राम करने आते थे। यह जगह प्रसिद्ध सन्त अन्नमाचार्य और श्री पोथन्ना जैसे विद्वानों की जन्मस्थली भी है। तेलुगू में "कडप्पा" का अर्थ "प्रवेश-द्वार" (Gateway) जैसा भी होता है, क्योंकि यह स्थान तिरुपति-तिरुमाला पवित्र स्थल का प्रवेश-द्वार समान ही है (ठीक वैसे ही जैसे "हरिद्वार" को बद्री-केदार का प्रवेश-द्वार अथवा "पवित्र गंगा" का भू-अवतरण स्थल कहा जाता है), ऐसी परिस्थिति में, "YSR जिला" जैसा बेहूदा नाम मिला था रखने को? (इतनी समृद्ध भारतीय संस्कृति की धरोहर रखने वाले कडप्पा का नाम एक "धर्म-परिवर्तित ईसाई" के नाम पर? जिसने ऐसा कोई तीर नहीं मारा कि पूरे जिले का नाम उस पर रखा जाये, वाकई शर्मनाक है।)


जरा सोचिये, दिल्ली का नाम बदलकर "राहुल गाँधी सिटी", जयपुर का नाम बदलकर "गुलाबी प्रियंका नगरी", भोपाल का नाम बदलकर "मासूम राजीव गाँधी नगर" आदि कर दिया जाये, तो कैसा लगेगा? वामपंथी ऐसा "मानते" हैं (मुगालता पालने में कोई हर्ज नहीं है) कि बंगाल के लिये ज्योति बसु ने बहुत काम किया है, तो क्या कोलकाता का नाम बदलकर "ज्योति बाबू सिटी" कर दिया जाये, क्या कोलकाता के निवासियों को यह मंजूर होगा? ज़ाहिर है कि यह विचार सिरे से ही फ़ूहड़ लगता है, तो फ़िर कडप्पा का नाम YSR पर क्यों? क्या भारत के "मानसिक कंगाल बुद्धिजीवी" और "मीडियाई भाण्ड" इसका विरोध करेंगे, या "पारिवारिक चमचागिरी" की खोल में ही अपना जीवन बिताएंगे?
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चलते-चलते : इस कदम के विरोध में हैदराबाद के श्री गुरुनाथ ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री और मुख्य न्यायाधीश के नाम एक ऑनलाइन याचिका तैयार की है, कृपया इस पर हस्ताक्षर करें… ताकि भविष्य में तिरुचिरापल्ली का नाम "करुणानिधि नगरम" या लखनऊ का नाम "सलमान खुर्शीदाबाद" होने से बचाया जा सके…

http://www.petitiononline.com/06242010/petition.html


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