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शनिवार, 31 जनवरी 2009 11:38
कंधार के शर्मनाक समर्पण के पीछे का सच, और देश का आभिजात्य वर्ग…
Kandhar Hijack Indian Society and BJP
हाल ही में गृहमंत्री चिदम्बरम ने एक सेमिनार में कहा कि “कंधार घटना के वक्त कांग्रेस क्या करती” यह कहना बेहद मुश्किल है, क्योंकि वह स्थिति पेचीदा थी और उसमें कई प्रकार की भावनायें भी शामिल थीं, लेकिन इस सवाल से वे कन्नी काट गये कि क्या एनडीए द्वारा आतंकवादियों को छोड़ने के फ़ैसले में कांग्रेस भी शामिल नहीं थी?
आजादी के बाद भारत में सैकड़ों हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो चुके हैं, और स्वाभाविक तौर पर लगभग सभी दंगे कांग्रेस शासित राज्यों में ही हुए हैं, लेकिन जिस तरह अकेले ईसा मसीह को सलीब ढोने पर मजबूर किया गया था, उसी तरह से गुजरात के 2002 के दंगों के लिये अकेले नरेन्द्र मोदी को जिम्मेदार मानकर मीडिया, सेकुलरों की गैंग(?) और तथाकथित पढ़े-लिखे लोग “रुदाली” बने हुए हैं, इस मानसिकता को सिर्फ़ “घृणित” कहना उचित नहीं है इसके लिये कोई और शब्द खोजना पड़ेगा… (इस विशेषण को नरेन्द्र मोदी और ईसा मसीह की तुलना नहीं माना जाये बल्कि उन पर पत्थर फ़ेंकने वाली हजारों मूर्खों की भीड़ पर कटाक्ष समझा जाये, जो आसानी से भारत के इतिहास के सभी दंगो को भुला चुकी है, जबकि गुजरात के दंगों को “बन्दरिया के मरे हुए बच्चे की तरह छाती से चिपकाए” हुए हैं…… मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताने भर से जिस प्रकार कई वरिष्ठ पत्रकारों(?), सेकुलरों(?) और वरिष्ठ ब्लॉगरों(?) के “पेट में मरोड़” उठी उस पर अलग से एक लेख लिखूँगा ही, लेकिन फ़िलहाल इस लेख का विषय मोदी नहीं है)… इसी प्रकार जब कभी आतंकवादियों से बातचीत या कोई समझौता होने की बात आती है तो तत्काल एनडीए के कंधे पर “कंधार” की सलीब रख दी जाती है… हालांकि कंधार की घटना और उसके बाद आतंकवादियों को छोड़ने का जो कृत्य एनडीए ने किया था उसे कभी माफ़ किया ही नहीं जा सकता (भाजपा के कट्टर से कट्टर समर्थक भी इस घटना के लिये पार्टी नेतृत्व को दोषी मानते हैं, और ध्यान रखें कि इस प्रकार की भावनाएं कांग्रेसियों में नहीं पाई जाती कि वे अपने नेतृत्व को सरेआम दोषी बतायें, खुद भाजपा वाले कंधार को अमिट कलंक मानते हैं, जबकि कांग्रेसी, सिख विरोधी दंगों और आपातकाल को भी कलंक नहीं मानते…) कहने का मतलब यह कि कंधार प्रकरण में जो भी हुआ शर्मनाक तो था ही, लेकिन इस विकट निर्णय के पीछे की घटनायें हमारे देश के “आभिजात्य वर्ग” का असली चेहरा सामने रखती हैं, (आभिजात्य वर्ग इसलिये कि नौ साल पहले एयरलाइंस में अमूमन आभिजात्य वर्ग के लोग ही सफ़र करते थे, आजकल मध्यमवर्ग की भी उसमें घुसपैठ हो गई है)… आईये देखते हैं कि कंधार प्रकरण के दौरान पर्दे के पीछे क्या-क्या हुआ, जिसके कारण भाजपा के माथे पर एक अमिट कलंक लग गया…। ऐसा नहीं है कि महान भारत के सार्वजनिक अपमान की घटनायें कांग्रेसियों के राज में नहीं हुईं, हजरत बल, चरारे-शरीफ़ प्रकरण हो या महबूबा मुफ़्ती के नकली अपहरण का मामला हो, कोई न कोई कांग्रेसी उसमें अवश्य शामिल रहा है (वीपी सिंह भी कांग्रेसी संस्कृति के ही थे), लेकिन कंधार का अपहरण प्रकरण हमेशा मीडिया में छाया रहता है और ले-देकर समूचा मीडिया, भाजपा-एनडीए के माथे पर ठीकरा फ़ोड़ता रहता है।
जिस वक्त काठमाण्डू-दिल्ली हवाई उड़ान सेवा IC814 का अपहरण हो चुका था, प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी दिल्ली से बाहर अपने तय दौरे पर थे। जब उनका विमान दिल्ली लौट रहा था उस समय विमान के एयरफ़ोर्स के पायलट को अपहरण की सूचना दी गई थी। चूंकि विमान हवा में था इसलिये वाजपेयी को इस घटना के बारे में तुरन्त नहीं बताया गया (जो कि बाद में विवाद का एक कारण बना)। जब शाम 7 बजे प्रधानमंत्री का विमान दिल्ली पहुँचा तब तक IC-814 के अपहरण के 1 घण्टा चालीस मिनट बीत चुके थे। वाजपेयी को हवाई अड्डे पर लेने पहुँचे थे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र, जिन्होंने तत्काल वाजपेयी को एक कोने में ले जाकर सारी स्थिति समझाई। सभी अपहरणकर्ताओं की पहचान स्थापित हो चुकी थी, वे थे इब्राहीम अतहर (निवासी बहावलपुर), शाहिद अख्तर सईद, गुलशन इकबाल (कराची), सनी अहमद काजी (डिफ़ेंस कालोनी, कराची), मिस्त्री जहूर आलम (अख्तर कालोनी, कराची), और शाकिर (सक्खर सिटी)। विमान में उस वक्त 189 यात्री सवार थे।
प्रधानमंत्री निवास पर तत्काल एक उच्च स्तरीय समिति की मीटिंग हुई, जिसमें हालात का जायजा लिया गया, वाजपेयी ने तत्काल अपने निजी स्टाफ़ को अपने जन्मदिन (25 दिसम्बर) के उपलक्ष्य में आयोजित सभी कार्यक्रम निरस्त करने के निर्देश जारी किये। उसी समय सूचना मिली कि हवाई जहाज को लाहौर में उतरने की इजाजत नहीं दी गई है, इसलिये हवाई जहाज पुनः अमृतसर में उतरेगा। अमृतसर में विमान लगभग 45 मिनट खड़ा रहा और अपहर्ता विभिन्न अधिकारियों को उसमें तेल भरने हेतु धमकाते रहे, और अधिकारी “सिर कटे चिकन” की तरह इधर-उधर दौड़ते रहे, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था कि इस स्थिति से निपटने के लिये क्या करना चाहिये। प्रधानमंत्री कार्यालय से राजा सांसी हवाई अड्डे पर लगातार फ़ोन जा रहे थे कि किसी भी तरह से हवाई जहाज को अमृतसर में रोके रखो…एक समय तो पूर्व सैनिक जसवन्त सिंह ने फ़ोन छीनकर चिल्लाये कि “कोई भारी ट्रक या रोड रोलर को हवाई पट्टी पर ले जाकर खड़ा कर दो…”, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। NSG कमाण्डो को अलर्ट रहने का निर्देश दिया जा चुका था, लेकिन 45 मिनट तक अमृतसर में खड़े होने के बावजूद NSG के कमाण्डो उस तक नहीं पहुँच सके। इसके पीछे दो बातें सामने आईं, पहली कि NSG कमाण्डो को अमृतसर ले जाने के लिये सही समय पर विमान नहीं मिल सका, और दूसरी कि मानेसर से दिल्ली पहुँचने के दौरान NSG कमाण्डो ट्रैफ़िक जाम में फ़ँस गये थे, सचाई किसी को नहीं पता कि आखिर क्या हुआ था।
अपहर्ता NSG कमाण्डो से भयभीत थे इसलिये उन्होंने पायलट और यात्रियों पर दबाव बनाने के लिये रूपेन कत्याल की हत्या कर दी और लगभग खाली पेट्रोल टैंक सहित हवाई जहाज को लाहौर ले गये। लाहौर में पुनः उन्हें उतरने की अनुमति नहीं दी गई, यहाँ तक कि हवाई पट्टी की लाईटें भी बुझा दी गईं, लेकिन पायलट ने कुशलता और सावधानी से फ़िर भी हवाई जहाज को जबरन लाहौर में उतार दिया। जसवन्त सिंह ने पाकिस्तान के विदेश मंत्री से बात की कि हवाई जहाज को लाहौर से न उड़ने दिया जाये, लेकिन पाकिस्तानी अधिकारी जानबूझकर मामले से दूरी बनाना चाहते थे, ताकि बाद में वे इससे सम्बन्ध होने से इन्कार कर सकें। वे यह भी नहीं चाहते थे कि लाहौर में NSG के कमाण्डो कोई ऑपरेशन करें, इसलिये उन्होंने तुरन्त हवाई जहाज में पेट्रोल भर दिया और उसे दुबई रवाना कर दिया। दुबई में भी अधिकारियों ने हवाई जहाज को उतरने नहीं दिया। जसवन्त सिंह लगातार फ़ोन पर बने हुए थे, उन्होंने यूएई के अधिकारियों से बातचीत करके अपहर्ताओं से 13 औरतों और 11 बच्चों को विमान से उतारने के लिये राजी कर लिया। रूपेन कत्याल का शव भी साथ में उतार लिया गया, जबकि उनकी नवविवाहिता पत्नी अन्त तक बन्धक रहीं और उन्हें बाद में ही पता चला कि वे विधवा हो चुकी हैं।
25 दिसम्बर की सुबह – विमान कंधार हवाई अड्डे पर उतर चुका है, जहाँ कि एक टूटा-फ़ूटा हवाई अड्डा और पुरानी सी घटिया विमान कंट्रोल प्रणाली है, न पानी है, न ही बिजली है (तालिबान के शासन की एक उपलब्धि)। 25 दिसम्बर की दोपहर से अचानक ही चारों ओर से प्रदर्शनकारी प्रधानमंत्री निवास और कार्यालय के बाहर जमा होने लगे, छाती पीटने लगे, कपड़े फ़ाड़ने लगे, नारे लगाने लगे, प्रधानमंत्री हाय-हाय, हमारे आदमियों को बचाओ… जैसे-जैसे दिन बीतता गया भीड़ और नारे बढ़ते ही गये। अमृतसर, लाहौर और दुबई में निराशा झेलने के बाद सरकार अपनी कोशिशों में लगी थी कि किसी तरह से अपहर्ताओं से पुनः सही सम्पर्क स्थापित हो सके, जबकि 7 रेसकोर्स रोड के बाहर अपहृत परिवारों के सदस्यों के साथ वृन्दा करात सबसे आगे खड़ी थीं। मुफ़्ती प्रकरण का हवाला दे-देकर मीडिया ने पहले दिन से ही आतंकवादियों की मांगें मानकर “जो भी कीमत चुकानी पड़े… बन्धकों को छुड़ाना चाहिये” का राग अलापना शुरु कर दिया था…
मुल्ला उमर और उसके विदेशमंत्री(?) मुत्तवकील से बातचीत शुरु हो चुकी थी और शुरुआत में उन्होंने विभिन्न भारतीय जेलों में बन्द 36 आतंकवादियों को छोड़ने की माँग रखी। मीडिया के दबाव के चलते एक भी वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री अपहृत व्यक्तियों के परिजनों से मिलने को तैयार नहीं था, लेकिन जसवन्त सिंह हिम्मत करके उनसे मिलने गये, तत्काल सभी लोगों ने उन्हें बुरी तरह से घेर लिया और उनके एक वाक्य भी कहने से पहले ही, “हमें हमारे रिश्तेदार वापस चाहिये…”, “आतंकवादियों को क्या चाहिये इससे हमें क्या मतलब…”, “चाहे आप कश्मीर भी उन्हें दे दो, हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता…”, “मेरा बेटा है, मेरी बहू है, मेरा पति है उसमें…” आदि की चिल्लाचोट शुरु कर दी गई, जबकि जसवन्त सिंह उन्हें स्थिति की जानकारी देने गये थे कि हम बातचीत कर रहे हैं। जसवन्त सिंह ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि देशहित में जेल में बन्द आतंकवादियों को छोड़ना ठीक नहीं है, लेकिन भीड़ में से एक व्यक्ति चिल्लाया “भाड़ में जाये देश और देश का हित…”। इसके बाद जसवन्त सिंह मीडिया के लिये शास्त्री भवन में आयोजित प्रेस कांफ़्रेस में आये, लेकिन वहाँ भी नाटकीय ढंग से भीड़ घुस आई, जिसका नेतृत्व संजीव छिब्बर नाम के विख्यात सर्जन कर रहे थे। उनका कहना था कि उनके 6 परिजन हवाई जहाज में हैं, डॉ छिब्बर का कहना था कि हमें तत्काल सभी 36 आतंकवादी छोड़ देना चाहिये। वे चिल्लाये, “जब मुफ़्ती की बेटी के लिये आतंकवादियों को छोड़ा जा सकता है तो हमारे रिश्तेदारों के लिये क्यों नहीं?… उन्हें कश्मीर दे दो, कुछ भी दे दो, लेकिन हमें हमारे रिश्तेदार वापस चाहिये…”।
उसी शाम को प्रधानमंत्री कार्यालय में स्वर्गीय स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा की पत्नी पहुँचीं, उन्होंने अपहृतों के रिश्तेदारों से मुलाकात कर उनसे बात करके बताने की कोशिश की कि क्यों भारत को इन खतरनाक माँगों को नहीं मानना चाहिये और इससे शहीदों का अपमान होगा, लेकिन “समाज के उन इज्जतदार लोगों” ने ताना मारा कि “खुद तो विधवा हो गई है और चाहती है कि हम भी विधवा हो जायें… ये इधर कहाँ से आई?” फ़िर भी आहूजा की पत्नी देश का सम्मान बनाये रखने के लिये खड़ी रहीं। इसी प्रकार एक और वृद्ध दम्पति भी आये जिन्होंने कहा कि हमारे बेटों ने भी भारत के लिये प्राण दिये हैं, कर्नल वीरेन्द्र थापर (जिनके बेटे लेफ़्टीनेंट कर्नल विजयन्त थापर युद्ध में शहीद हुए थे) ने खड़े होकर सभी लोगों से एकजुट होकर आतंकवादियों के खिलाफ़ होने की अपील की, लेकिन सब बेकार… उन बहरे कानों को न कुछ सुनना था, न उन्होंने सुना… (ध्यान रखिये ये वही आभिजात्य वर्ग था, जो मोमबत्ती जलाने और अंग्रेजी स्लोगन लगाये टी-शर्ट पहनने में सबसे आगे रहता है, ये वही धनी-मानी लोग थे जो भारत की व्यवस्था का जमकर शोषण करके भ्रष्टाचार करते हैं, ये वही “पेज-थ्री” वाले लोग थे जो फ़ाइव-स्टार होटलों में बैठकर बोतलबन्द पानी पीकर समाज सुधार के प्रवचन देते हैं), ऐसे लोगों का छातीकूट अभियान जारी रहा और “जिम्मेदार मीडिया(?)” पर उनकी तस्वीरें और इंटरव्यू भी… मीडिया ने दो-चार दिनों में ही जादू के जोर से यह भी जान लिया कि देश की जनता चाहती है कि “कैसे भी हो…” अपहृतों की सुरक्षित रिहाई की जाना चाहिये…
आखिर 28 दिसम्बर को सरकार और आतंकवादियों के बीच “डील फ़ाइनल” हुई, जिसके अनुसार मौलाना मसूद अजहर, मुश्ताक अहमद जरगर, और अहमद उमर शेख को छोड़ा जाना तय हुआ। एक बार फ़िर जसवन्त सिंह के कंधों पर यह कड़वी जिम्मेदारी सौंपी गई कि वे साथ जायें ताकि अन्तिम समय पर यदि किसी प्रकार की “गड़बड़ी” हो तो वे उसे संभाल सकें। आखिर नववर्ष की संध्या पर सभी अपहृत सकुशल दिल्ली लौट आये… और भाजपा-एनडीए के सबसे बुरे अनुभव को समेटे और मीडिया द्वारा खलनायक करार दिये गये जसवन्त सिंह भी अपना बुझा हुआ सा मुँह लेकर वापस आये। इस प्रकार भारत ने अपमान का कड़वा घूँट पीकर नई सदी में कदम रखा… (जरा इस घटना की तुलना, रूस में चेचन उग्रवादियों द्वारा एक सिनेमा हॉल में बन्धक बनाये हुए बच्चों और उससे निपटने के तरीके से कीजिये, दो राष्ट्रों के चरित्र में अन्तर साफ़ नज़र आयेगा)।
इस घटना ने हमेशा की तरह सिर्फ़ और सिर्फ़ सवाल खड़े किये (जवाब पाने या माँगने की परम्परा हमारे यहाँ कभी थी ही नहीं)। न ही नौ साल पहले हमने कोई सबक सीखा था, न ही दो महीने पहले हुए मुम्बई हमले के बाद कुछ सीखने को तैयार हैं। एक और कंधार प्रकरण कभी भी आसानी से मंचित किया जा सकता है, और भारत की जनता में इतनी हिम्मत नहीं लगती कि वह आतंकवादियों के खिलाफ़ मजबूती से खड़ी हो सके। हो सकता है कि एक बार आम आदमी (जो पहले ही रोजमर्रा के संघर्षों से मजबूत हो चुका है) कठोर बन जाये, लेकिन “पब संस्कृति”, “रेव-पार्टियाँ” आयोजित करने वाले नौनिहाल इस देश को सिर्फ़ शर्म ही दे सकेंगे। किसी भी प्रकार के युद्ध से पहले ही हम नुकसान का हिसाब लगाने लगते हैं, लाशें गिनने लगते हैं। पाकिस्तान के एक मंत्री ने बिलकुल सही कहा है कि भारत अब एक “बनिया व्यापारी देश” बन गया है वह कभी भी हमसे पूर्ण युद्ध नहीं लड़ सकेगा। डरपोक नेताओं और धन-सम्पत्ति को सीने से चिपकाये हुए अमीरों के इस देश में अपनी कमजोरियाँ स्वीकार करने की ताकत भी नहीं बची है… भ्रष्टाचार या आतंकवाद से लड़ना तो बहुत दूर की बात है…
सन्दर्भ, आँकड़े और घटनायें : कंचन गुप्ता (तत्कालीन प्रधानमंत्री कार्यालय के मीडिया सेल में पदस्थ पत्रकार) के लेख से…
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हाल ही में गृहमंत्री चिदम्बरम ने एक सेमिनार में कहा कि “कंधार घटना के वक्त कांग्रेस क्या करती” यह कहना बेहद मुश्किल है, क्योंकि वह स्थिति पेचीदा थी और उसमें कई प्रकार की भावनायें भी शामिल थीं, लेकिन इस सवाल से वे कन्नी काट गये कि क्या एनडीए द्वारा आतंकवादियों को छोड़ने के फ़ैसले में कांग्रेस भी शामिल नहीं थी?
आजादी के बाद भारत में सैकड़ों हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो चुके हैं, और स्वाभाविक तौर पर लगभग सभी दंगे कांग्रेस शासित राज्यों में ही हुए हैं, लेकिन जिस तरह अकेले ईसा मसीह को सलीब ढोने पर मजबूर किया गया था, उसी तरह से गुजरात के 2002 के दंगों के लिये अकेले नरेन्द्र मोदी को जिम्मेदार मानकर मीडिया, सेकुलरों की गैंग(?) और तथाकथित पढ़े-लिखे लोग “रुदाली” बने हुए हैं, इस मानसिकता को सिर्फ़ “घृणित” कहना उचित नहीं है इसके लिये कोई और शब्द खोजना पड़ेगा… (इस विशेषण को नरेन्द्र मोदी और ईसा मसीह की तुलना नहीं माना जाये बल्कि उन पर पत्थर फ़ेंकने वाली हजारों मूर्खों की भीड़ पर कटाक्ष समझा जाये, जो आसानी से भारत के इतिहास के सभी दंगो को भुला चुकी है, जबकि गुजरात के दंगों को “बन्दरिया के मरे हुए बच्चे की तरह छाती से चिपकाए” हुए हैं…… मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताने भर से जिस प्रकार कई वरिष्ठ पत्रकारों(?), सेकुलरों(?) और वरिष्ठ ब्लॉगरों(?) के “पेट में मरोड़” उठी उस पर अलग से एक लेख लिखूँगा ही, लेकिन फ़िलहाल इस लेख का विषय मोदी नहीं है)… इसी प्रकार जब कभी आतंकवादियों से बातचीत या कोई समझौता होने की बात आती है तो तत्काल एनडीए के कंधे पर “कंधार” की सलीब रख दी जाती है… हालांकि कंधार की घटना और उसके बाद आतंकवादियों को छोड़ने का जो कृत्य एनडीए ने किया था उसे कभी माफ़ किया ही नहीं जा सकता (भाजपा के कट्टर से कट्टर समर्थक भी इस घटना के लिये पार्टी नेतृत्व को दोषी मानते हैं, और ध्यान रखें कि इस प्रकार की भावनाएं कांग्रेसियों में नहीं पाई जाती कि वे अपने नेतृत्व को सरेआम दोषी बतायें, खुद भाजपा वाले कंधार को अमिट कलंक मानते हैं, जबकि कांग्रेसी, सिख विरोधी दंगों और आपातकाल को भी कलंक नहीं मानते…) कहने का मतलब यह कि कंधार प्रकरण में जो भी हुआ शर्मनाक तो था ही, लेकिन इस विकट निर्णय के पीछे की घटनायें हमारे देश के “आभिजात्य वर्ग” का असली चेहरा सामने रखती हैं, (आभिजात्य वर्ग इसलिये कि नौ साल पहले एयरलाइंस में अमूमन आभिजात्य वर्ग के लोग ही सफ़र करते थे, आजकल मध्यमवर्ग की भी उसमें घुसपैठ हो गई है)… आईये देखते हैं कि कंधार प्रकरण के दौरान पर्दे के पीछे क्या-क्या हुआ, जिसके कारण भाजपा के माथे पर एक अमिट कलंक लग गया…। ऐसा नहीं है कि महान भारत के सार्वजनिक अपमान की घटनायें कांग्रेसियों के राज में नहीं हुईं, हजरत बल, चरारे-शरीफ़ प्रकरण हो या महबूबा मुफ़्ती के नकली अपहरण का मामला हो, कोई न कोई कांग्रेसी उसमें अवश्य शामिल रहा है (वीपी सिंह भी कांग्रेसी संस्कृति के ही थे), लेकिन कंधार का अपहरण प्रकरण हमेशा मीडिया में छाया रहता है और ले-देकर समूचा मीडिया, भाजपा-एनडीए के माथे पर ठीकरा फ़ोड़ता रहता है।
जिस वक्त काठमाण्डू-दिल्ली हवाई उड़ान सेवा IC814 का अपहरण हो चुका था, प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी दिल्ली से बाहर अपने तय दौरे पर थे। जब उनका विमान दिल्ली लौट रहा था उस समय विमान के एयरफ़ोर्स के पायलट को अपहरण की सूचना दी गई थी। चूंकि विमान हवा में था इसलिये वाजपेयी को इस घटना के बारे में तुरन्त नहीं बताया गया (जो कि बाद में विवाद का एक कारण बना)। जब शाम 7 बजे प्रधानमंत्री का विमान दिल्ली पहुँचा तब तक IC-814 के अपहरण के 1 घण्टा चालीस मिनट बीत चुके थे। वाजपेयी को हवाई अड्डे पर लेने पहुँचे थे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र, जिन्होंने तत्काल वाजपेयी को एक कोने में ले जाकर सारी स्थिति समझाई। सभी अपहरणकर्ताओं की पहचान स्थापित हो चुकी थी, वे थे इब्राहीम अतहर (निवासी बहावलपुर), शाहिद अख्तर सईद, गुलशन इकबाल (कराची), सनी अहमद काजी (डिफ़ेंस कालोनी, कराची), मिस्त्री जहूर आलम (अख्तर कालोनी, कराची), और शाकिर (सक्खर सिटी)। विमान में उस वक्त 189 यात्री सवार थे।
प्रधानमंत्री निवास पर तत्काल एक उच्च स्तरीय समिति की मीटिंग हुई, जिसमें हालात का जायजा लिया गया, वाजपेयी ने तत्काल अपने निजी स्टाफ़ को अपने जन्मदिन (25 दिसम्बर) के उपलक्ष्य में आयोजित सभी कार्यक्रम निरस्त करने के निर्देश जारी किये। उसी समय सूचना मिली कि हवाई जहाज को लाहौर में उतरने की इजाजत नहीं दी गई है, इसलिये हवाई जहाज पुनः अमृतसर में उतरेगा। अमृतसर में विमान लगभग 45 मिनट खड़ा रहा और अपहर्ता विभिन्न अधिकारियों को उसमें तेल भरने हेतु धमकाते रहे, और अधिकारी “सिर कटे चिकन” की तरह इधर-उधर दौड़ते रहे, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था कि इस स्थिति से निपटने के लिये क्या करना चाहिये। प्रधानमंत्री कार्यालय से राजा सांसी हवाई अड्डे पर लगातार फ़ोन जा रहे थे कि किसी भी तरह से हवाई जहाज को अमृतसर में रोके रखो…एक समय तो पूर्व सैनिक जसवन्त सिंह ने फ़ोन छीनकर चिल्लाये कि “कोई भारी ट्रक या रोड रोलर को हवाई पट्टी पर ले जाकर खड़ा कर दो…”, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। NSG कमाण्डो को अलर्ट रहने का निर्देश दिया जा चुका था, लेकिन 45 मिनट तक अमृतसर में खड़े होने के बावजूद NSG के कमाण्डो उस तक नहीं पहुँच सके। इसके पीछे दो बातें सामने आईं, पहली कि NSG कमाण्डो को अमृतसर ले जाने के लिये सही समय पर विमान नहीं मिल सका, और दूसरी कि मानेसर से दिल्ली पहुँचने के दौरान NSG कमाण्डो ट्रैफ़िक जाम में फ़ँस गये थे, सचाई किसी को नहीं पता कि आखिर क्या हुआ था।
अपहर्ता NSG कमाण्डो से भयभीत थे इसलिये उन्होंने पायलट और यात्रियों पर दबाव बनाने के लिये रूपेन कत्याल की हत्या कर दी और लगभग खाली पेट्रोल टैंक सहित हवाई जहाज को लाहौर ले गये। लाहौर में पुनः उन्हें उतरने की अनुमति नहीं दी गई, यहाँ तक कि हवाई पट्टी की लाईटें भी बुझा दी गईं, लेकिन पायलट ने कुशलता और सावधानी से फ़िर भी हवाई जहाज को जबरन लाहौर में उतार दिया। जसवन्त सिंह ने पाकिस्तान के विदेश मंत्री से बात की कि हवाई जहाज को लाहौर से न उड़ने दिया जाये, लेकिन पाकिस्तानी अधिकारी जानबूझकर मामले से दूरी बनाना चाहते थे, ताकि बाद में वे इससे सम्बन्ध होने से इन्कार कर सकें। वे यह भी नहीं चाहते थे कि लाहौर में NSG के कमाण्डो कोई ऑपरेशन करें, इसलिये उन्होंने तुरन्त हवाई जहाज में पेट्रोल भर दिया और उसे दुबई रवाना कर दिया। दुबई में भी अधिकारियों ने हवाई जहाज को उतरने नहीं दिया। जसवन्त सिंह लगातार फ़ोन पर बने हुए थे, उन्होंने यूएई के अधिकारियों से बातचीत करके अपहर्ताओं से 13 औरतों और 11 बच्चों को विमान से उतारने के लिये राजी कर लिया। रूपेन कत्याल का शव भी साथ में उतार लिया गया, जबकि उनकी नवविवाहिता पत्नी अन्त तक बन्धक रहीं और उन्हें बाद में ही पता चला कि वे विधवा हो चुकी हैं।
25 दिसम्बर की सुबह – विमान कंधार हवाई अड्डे पर उतर चुका है, जहाँ कि एक टूटा-फ़ूटा हवाई अड्डा और पुरानी सी घटिया विमान कंट्रोल प्रणाली है, न पानी है, न ही बिजली है (तालिबान के शासन की एक उपलब्धि)। 25 दिसम्बर की दोपहर से अचानक ही चारों ओर से प्रदर्शनकारी प्रधानमंत्री निवास और कार्यालय के बाहर जमा होने लगे, छाती पीटने लगे, कपड़े फ़ाड़ने लगे, नारे लगाने लगे, प्रधानमंत्री हाय-हाय, हमारे आदमियों को बचाओ… जैसे-जैसे दिन बीतता गया भीड़ और नारे बढ़ते ही गये। अमृतसर, लाहौर और दुबई में निराशा झेलने के बाद सरकार अपनी कोशिशों में लगी थी कि किसी तरह से अपहर्ताओं से पुनः सही सम्पर्क स्थापित हो सके, जबकि 7 रेसकोर्स रोड के बाहर अपहृत परिवारों के सदस्यों के साथ वृन्दा करात सबसे आगे खड़ी थीं। मुफ़्ती प्रकरण का हवाला दे-देकर मीडिया ने पहले दिन से ही आतंकवादियों की मांगें मानकर “जो भी कीमत चुकानी पड़े… बन्धकों को छुड़ाना चाहिये” का राग अलापना शुरु कर दिया था…
मुल्ला उमर और उसके विदेशमंत्री(?) मुत्तवकील से बातचीत शुरु हो चुकी थी और शुरुआत में उन्होंने विभिन्न भारतीय जेलों में बन्द 36 आतंकवादियों को छोड़ने की माँग रखी। मीडिया के दबाव के चलते एक भी वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री अपहृत व्यक्तियों के परिजनों से मिलने को तैयार नहीं था, लेकिन जसवन्त सिंह हिम्मत करके उनसे मिलने गये, तत्काल सभी लोगों ने उन्हें बुरी तरह से घेर लिया और उनके एक वाक्य भी कहने से पहले ही, “हमें हमारे रिश्तेदार वापस चाहिये…”, “आतंकवादियों को क्या चाहिये इससे हमें क्या मतलब…”, “चाहे आप कश्मीर भी उन्हें दे दो, हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता…”, “मेरा बेटा है, मेरी बहू है, मेरा पति है उसमें…” आदि की चिल्लाचोट शुरु कर दी गई, जबकि जसवन्त सिंह उन्हें स्थिति की जानकारी देने गये थे कि हम बातचीत कर रहे हैं। जसवन्त सिंह ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि देशहित में जेल में बन्द आतंकवादियों को छोड़ना ठीक नहीं है, लेकिन भीड़ में से एक व्यक्ति चिल्लाया “भाड़ में जाये देश और देश का हित…”। इसके बाद जसवन्त सिंह मीडिया के लिये शास्त्री भवन में आयोजित प्रेस कांफ़्रेस में आये, लेकिन वहाँ भी नाटकीय ढंग से भीड़ घुस आई, जिसका नेतृत्व संजीव छिब्बर नाम के विख्यात सर्जन कर रहे थे। उनका कहना था कि उनके 6 परिजन हवाई जहाज में हैं, डॉ छिब्बर का कहना था कि हमें तत्काल सभी 36 आतंकवादी छोड़ देना चाहिये। वे चिल्लाये, “जब मुफ़्ती की बेटी के लिये आतंकवादियों को छोड़ा जा सकता है तो हमारे रिश्तेदारों के लिये क्यों नहीं?… उन्हें कश्मीर दे दो, कुछ भी दे दो, लेकिन हमें हमारे रिश्तेदार वापस चाहिये…”।
उसी शाम को प्रधानमंत्री कार्यालय में स्वर्गीय स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा की पत्नी पहुँचीं, उन्होंने अपहृतों के रिश्तेदारों से मुलाकात कर उनसे बात करके बताने की कोशिश की कि क्यों भारत को इन खतरनाक माँगों को नहीं मानना चाहिये और इससे शहीदों का अपमान होगा, लेकिन “समाज के उन इज्जतदार लोगों” ने ताना मारा कि “खुद तो विधवा हो गई है और चाहती है कि हम भी विधवा हो जायें… ये इधर कहाँ से आई?” फ़िर भी आहूजा की पत्नी देश का सम्मान बनाये रखने के लिये खड़ी रहीं। इसी प्रकार एक और वृद्ध दम्पति भी आये जिन्होंने कहा कि हमारे बेटों ने भी भारत के लिये प्राण दिये हैं, कर्नल वीरेन्द्र थापर (जिनके बेटे लेफ़्टीनेंट कर्नल विजयन्त थापर युद्ध में शहीद हुए थे) ने खड़े होकर सभी लोगों से एकजुट होकर आतंकवादियों के खिलाफ़ होने की अपील की, लेकिन सब बेकार… उन बहरे कानों को न कुछ सुनना था, न उन्होंने सुना… (ध्यान रखिये ये वही आभिजात्य वर्ग था, जो मोमबत्ती जलाने और अंग्रेजी स्लोगन लगाये टी-शर्ट पहनने में सबसे आगे रहता है, ये वही धनी-मानी लोग थे जो भारत की व्यवस्था का जमकर शोषण करके भ्रष्टाचार करते हैं, ये वही “पेज-थ्री” वाले लोग थे जो फ़ाइव-स्टार होटलों में बैठकर बोतलबन्द पानी पीकर समाज सुधार के प्रवचन देते हैं), ऐसे लोगों का छातीकूट अभियान जारी रहा और “जिम्मेदार मीडिया(?)” पर उनकी तस्वीरें और इंटरव्यू भी… मीडिया ने दो-चार दिनों में ही जादू के जोर से यह भी जान लिया कि देश की जनता चाहती है कि “कैसे भी हो…” अपहृतों की सुरक्षित रिहाई की जाना चाहिये…
आखिर 28 दिसम्बर को सरकार और आतंकवादियों के बीच “डील फ़ाइनल” हुई, जिसके अनुसार मौलाना मसूद अजहर, मुश्ताक अहमद जरगर, और अहमद उमर शेख को छोड़ा जाना तय हुआ। एक बार फ़िर जसवन्त सिंह के कंधों पर यह कड़वी जिम्मेदारी सौंपी गई कि वे साथ जायें ताकि अन्तिम समय पर यदि किसी प्रकार की “गड़बड़ी” हो तो वे उसे संभाल सकें। आखिर नववर्ष की संध्या पर सभी अपहृत सकुशल दिल्ली लौट आये… और भाजपा-एनडीए के सबसे बुरे अनुभव को समेटे और मीडिया द्वारा खलनायक करार दिये गये जसवन्त सिंह भी अपना बुझा हुआ सा मुँह लेकर वापस आये। इस प्रकार भारत ने अपमान का कड़वा घूँट पीकर नई सदी में कदम रखा… (जरा इस घटना की तुलना, रूस में चेचन उग्रवादियों द्वारा एक सिनेमा हॉल में बन्धक बनाये हुए बच्चों और उससे निपटने के तरीके से कीजिये, दो राष्ट्रों के चरित्र में अन्तर साफ़ नज़र आयेगा)।
इस घटना ने हमेशा की तरह सिर्फ़ और सिर्फ़ सवाल खड़े किये (जवाब पाने या माँगने की परम्परा हमारे यहाँ कभी थी ही नहीं)। न ही नौ साल पहले हमने कोई सबक सीखा था, न ही दो महीने पहले हुए मुम्बई हमले के बाद कुछ सीखने को तैयार हैं। एक और कंधार प्रकरण कभी भी आसानी से मंचित किया जा सकता है, और भारत की जनता में इतनी हिम्मत नहीं लगती कि वह आतंकवादियों के खिलाफ़ मजबूती से खड़ी हो सके। हो सकता है कि एक बार आम आदमी (जो पहले ही रोजमर्रा के संघर्षों से मजबूत हो चुका है) कठोर बन जाये, लेकिन “पब संस्कृति”, “रेव-पार्टियाँ” आयोजित करने वाले नौनिहाल इस देश को सिर्फ़ शर्म ही दे सकेंगे। किसी भी प्रकार के युद्ध से पहले ही हम नुकसान का हिसाब लगाने लगते हैं, लाशें गिनने लगते हैं। पाकिस्तान के एक मंत्री ने बिलकुल सही कहा है कि भारत अब एक “बनिया व्यापारी देश” बन गया है वह कभी भी हमसे पूर्ण युद्ध नहीं लड़ सकेगा। डरपोक नेताओं और धन-सम्पत्ति को सीने से चिपकाये हुए अमीरों के इस देश में अपनी कमजोरियाँ स्वीकार करने की ताकत भी नहीं बची है… भ्रष्टाचार या आतंकवाद से लड़ना तो बहुत दूर की बात है…
सन्दर्भ, आँकड़े और घटनायें : कंचन गुप्ता (तत्कालीन प्रधानमंत्री कार्यालय के मीडिया सेल में पदस्थ पत्रकार) के लेख से…
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मंगलवार, 27 जनवरी 2009 12:11
हिन्दुओं और मुसलमानों को यहूदियों से सीखना चाहिये… (भाग-2)
Muslims-Hindus Take a Lesson from Jews
इस लेख के पहले भाग का मकसद सिर्फ़ यहूदियों का गुणगान करना नहीं है, बल्कि यह सोचना है कि आखिर यहूदी इतने शक्तिशाली, बुद्धिमान और मेधावी क्यों हैं? ध्यान से सोचने पर उत्तर मिलता है – “शिक्षा”। इतनी विशाल जनसंख्या और दुनिया के सबसे मुख्य ऊर्जा स्रोत पेट्रोल पर लगभग एकतरफ़ा कब्जा होने के बावजूद मुसलमान इतने कमजोर और पिछड़े हुए क्यों हैं? ऑर्गेनाईज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कॉन्फ़्रेंस यानी OIC के 57 सदस्य देश हैं, उन सभी 57 देशों में कुल मिलाकर 600 विश्वविद्यालय हैं, यानी लगभग तीस लाख मुसलमानों पर एक विश्वविद्यालय। अमेरिका में लगभग 6000 विश्वविद्यालय हैं और भारत में लगभग 9000। सन् 2004 में एक सर्वे किया गया था, जिसमें से टॉप 500 विश्वविद्यालयों की सूची में मुस्लिम देशों की एक भी यूनिवर्सिटी अपना स्थान नहीं बना सकी। संयुक्त राष्ट्र से सम्बन्धित एक संस्था UNDP ने जो डाटा एकत्रित किया है उसके मुताबिक ईसाई बहुल देशों में साक्षरता दर 90% से अधिक है और 15 से अधिक ईसाई देश ऐसे हैं जहाँ साक्षरता दर 100% है। दूसरी तरफ़ सभी मुस्लिम देशों में कुल साक्षरता दर 40% के आसपास है, और 57 मुस्लिम देशों में एक भी देश या राज्य ऐसा नहीं है जहाँ की साक्षरता दर 100% हो (हमारे यहाँ सिर्फ़ केरल में 90% के आसपास है)। साक्षरता के पैमाने के अनुसार ईसाई देशों में लगभग 40% साक्षर विश्वविद्यालय तक पहुँच जाते हैं जबकि मुस्लिम देशों में यही दर सिर्फ़ 2% है। मुस्लिम देशों में प्रति दस लाख व्यक्तियों पर 230 वैज्ञानिक हैं, जबकि अमेरिका में यह संख्या 4000 और जापान में 5000 है। मुस्लिम देश अपनी कुल आय (GDP) का सिर्फ़ 0.2 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करते हैं, जबकि ईसाई और यहूदी 5% से भी ज्यादा।
एक और पैमाना है प्रति 1000 व्यक्ति अखबारों और पुस्तकों का। पाकिस्तान में प्रति हजार व्यक्तियों पर कुल 23 अखबार हैं, जबकि सिंगापुर जैसे छोटे से देश में यह संख्या 375 है। प्रति दस लाख व्यक्तियों पर पुस्तकों की संख्या अमेरिका में 2000 और मिस्त्र में 20 है। उच्च तकनीक उत्पादों के निर्यात को यदि पैमाना मानें पाकिस्तान से इनका निर्यात कुल निर्यात का सिर्फ़ 1.5 प्रतिशत है, सऊदी अरब से निर्यात 0.3% और सिंगापुर से 58% है।
निष्कर्ष निकालते समय मुसलमानों की बात बाद में करेंगे, पहले हमें अपनी गिरेबान में झाँकना चाहिये। 1945 में दो अणु बम झेलने और विश्व बिरादरी से लगभग अलग-थलग पड़े जापान और लगभग हमारे साथ ही आजाद हुए इज़राइल आज शिक्षा के क्षेत्र में भारत के मुकाबले बहुत-बहुत आगे हैं। आजादी के साठ सालों से अधिक के समय में भारत में प्राथमिक शिक्षा का स्तर और स्कूलों की संख्या जिस रफ़्तार से बढ़ना चाहिये थी वह नहीं बढ़ाई गई। आधुनिक शिक्षा के साथ संस्कृति के मेल से जो शिक्षा पैदा होना चाहिये वह जानबूझकर नहीं दी गई, आज भी स्कूलों में मुगलों और अंग्रेजों को महान दर्शाने वाले पाठ्यक्रम ही पढ़ाये जाते हैं, बचपन से ही ब्रेन-वॉश करके यह बताने की कोशिश होती है कि भारतीय संस्कृति नाम की कोई बात न कभी थी, न है। शुरु से ही बच्चों को “अपनी जड़ों” से काटा जाता है, ऐसे में पश्चिम की दुनिया को जिस प्रकार के “पढ़े-लिखे नौकर” चाहिये थे वैसे ही पैदा हो रहे हैं, और यहाँ से देश छोड़कर जा रहे हैं।
भारत के लोग आज भी वही पुराना राग अलापते रहते हैं कि “हमने शून्य का आविष्कार किया, हमने शतरंज का आविष्कार किया, हमने ये किया था, हमारे वेदों में ये है, हमारे ग्रंथों में वो है, हमने दुनिया को आध्यात्म सिखाया, हमने दुनिया को अहिंसा का संदेश दिया, हम विश्व-गुरु हैं… आदि-आदि। हकीकत यह है कि गीता के “कर्म” के सिद्धान्त को जपने वाले देश के अधिकांश लोग खुद ही सबसे अकर्मण्य हैं, भ्रष्ट हैं, अनुशासनहीन और अनैतिक हैं। लफ़्फ़ाजी को छोड़कर साफ़-साफ़ ये नहीं बताते कि सन् 1900 से लेकर 2000 के सौ सालों में भारत का विश्व के लिये और मानवता को क्या योगदान है? जिन आईआईएम और आईआईटी का ढिंढोरा पीटते हम नहीं थकते, वे विश्व स्तर पर कहाँ हैं, भारत से बाहर निकलने के बाद ही युवा प्रतिभाएं अपनी बुद्धिमत्ता और मेधा क्यों दिखा पाती हैं? लेकिन हम लोग सदा से ही “शतुरमुर्ग” रहे हैं, समस्याओं और प्रश्नों का डटकर सामना करने की बजाय हम हमेशा ऊँची-नीची आध्यात्मिक बातें करके पलायन का रास्ता अपना लेते हैं (ताजा उदाहरण मुम्बई हमले का है, जहाँ दो महीने बीत जाने बाद भी हम दूसरों का मुँह देख रहे हैं, मोमबत्तियाँ जला रहे हैं, गाने गा रहे हैं, हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं, भाषण दे रहे हैं, आतंकवाद के खिलाफ़ शपथ दिलवा रहे हैं, गरज यह कि “कर्म” छोड़कर सब कुछ कर रहे हैं)। हमारी मूल समस्या यह है कि “राष्ट्र” की अवधारणा ही जनता के दिमाग में साफ़ नहीं है, साठ सालों से शिक्षा प्रणाली भी एक “कन्फ़्यूजन” की धुंध में है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि आज तक हम “हिन्दू” नहीं बन पाये हैं, यानी जैसे यहूदी सिर्फ़ और सिर्फ़ यहूदी है चाहे वह विश्व के किसी भी कोने में हो, जबकि हम ब्राह्मण हैं, बनिये हैं, ठाकुर हैं, दलित हैं, उत्तर वाले हैं, दक्षिण वाले हैं, सब कुछ हैं लेकिन “हिन्दू” नहीं हैं। हालांकि मूलभूत शिक्षा और तकनीकी के मामले में हम इस्लामिक देशों से काफ़ी आगे हैं, लेकिन क्या हम उनसे तुलना करके खुश होना चाहिये? तुलना करना है तो अपने से ज्यादा, अपने से बड़े से करनी चाहिये…
संक्षेप में इन सब आँकड़ों से क्या निष्कर्ष निकलता है… कि मुस्लिम देश इसलिये पिछड़े हैं क्योंकि वे शिक्षा में पिछड़े हुए हैं, वे अपनी जनसंख्या को आधुनिक शिक्षा नहीं दिलवा पाते, वे “ज्ञान” आधारित उत्पाद पैदा करने में अक्षम हैं, वे ज्ञान को अपनी अगली पीढ़ियों में पहुँचाने और नौनिहालों को पढ़ाने की बजाय हमेशा यहूदियों, ईसाईयों और हिन्दुओं को अपनी दुर्दशा का जिम्मेदार ठहराते रहते हैं। सारा दिन अल्लाह और खुदा चीखने से कुछ नहीं होगा, शिविर लगाकर जेहादी पैदा करने की बजाय शिक्षा का स्तर बढ़ाना होगा, हवाई जहाज अपहरण और ओलम्पिक में खिलाड़ियों की हत्या करवाने की बजाय अधिक से अधिक बच्चों और युवाओं को शिक्षा देने का प्रयास होना चाहिये। सारी दुनिया में इस्लाम का ही राज होगा, अल्लाह सिर्फ़ एक है, बाकी के मूर्तिपूजक काफ़िर हैं जैसी सोच छोड़कर वैज्ञानिक सोच अपनानी होगी। सभी मुस्लिम देशों को खुद से सवाल करना चाहिये कि मानव जीवन और मानवता के लिये उन्होंने क्या किया है? उसके बाद उन्हें दूसरों से इज्जत हासिल करने की अपेक्षा करना चाहिये। इजराईल और फ़िलीस्तीन के बीच चल रहे युद्ध और समूचे विश्व में छाये हुए आतंकवाद के मद्देनज़र बेंजामिन नेतान्याहू की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि “यदि अरब और मुसलमान अपने हथियार रख दें तो हिंसा खत्म हो जायेगी और यदि यहूदियों ने अपने हथियार रख दिये तो इज़राइल खत्म हो जायेगा…”।
[सन्दर्भ और आँकड़े : डॉ फ़ारुख सलीम (फ़्री लांस पत्रकार, इस्लामाबाद)]
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इस लेख के पहले भाग का मकसद सिर्फ़ यहूदियों का गुणगान करना नहीं है, बल्कि यह सोचना है कि आखिर यहूदी इतने शक्तिशाली, बुद्धिमान और मेधावी क्यों हैं? ध्यान से सोचने पर उत्तर मिलता है – “शिक्षा”। इतनी विशाल जनसंख्या और दुनिया के सबसे मुख्य ऊर्जा स्रोत पेट्रोल पर लगभग एकतरफ़ा कब्जा होने के बावजूद मुसलमान इतने कमजोर और पिछड़े हुए क्यों हैं? ऑर्गेनाईज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कॉन्फ़्रेंस यानी OIC के 57 सदस्य देश हैं, उन सभी 57 देशों में कुल मिलाकर 600 विश्वविद्यालय हैं, यानी लगभग तीस लाख मुसलमानों पर एक विश्वविद्यालय। अमेरिका में लगभग 6000 विश्वविद्यालय हैं और भारत में लगभग 9000। सन् 2004 में एक सर्वे किया गया था, जिसमें से टॉप 500 विश्वविद्यालयों की सूची में मुस्लिम देशों की एक भी यूनिवर्सिटी अपना स्थान नहीं बना सकी। संयुक्त राष्ट्र से सम्बन्धित एक संस्था UNDP ने जो डाटा एकत्रित किया है उसके मुताबिक ईसाई बहुल देशों में साक्षरता दर 90% से अधिक है और 15 से अधिक ईसाई देश ऐसे हैं जहाँ साक्षरता दर 100% है। दूसरी तरफ़ सभी मुस्लिम देशों में कुल साक्षरता दर 40% के आसपास है, और 57 मुस्लिम देशों में एक भी देश या राज्य ऐसा नहीं है जहाँ की साक्षरता दर 100% हो (हमारे यहाँ सिर्फ़ केरल में 90% के आसपास है)। साक्षरता के पैमाने के अनुसार ईसाई देशों में लगभग 40% साक्षर विश्वविद्यालय तक पहुँच जाते हैं जबकि मुस्लिम देशों में यही दर सिर्फ़ 2% है। मुस्लिम देशों में प्रति दस लाख व्यक्तियों पर 230 वैज्ञानिक हैं, जबकि अमेरिका में यह संख्या 4000 और जापान में 5000 है। मुस्लिम देश अपनी कुल आय (GDP) का सिर्फ़ 0.2 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करते हैं, जबकि ईसाई और यहूदी 5% से भी ज्यादा।
एक और पैमाना है प्रति 1000 व्यक्ति अखबारों और पुस्तकों का। पाकिस्तान में प्रति हजार व्यक्तियों पर कुल 23 अखबार हैं, जबकि सिंगापुर जैसे छोटे से देश में यह संख्या 375 है। प्रति दस लाख व्यक्तियों पर पुस्तकों की संख्या अमेरिका में 2000 और मिस्त्र में 20 है। उच्च तकनीक उत्पादों के निर्यात को यदि पैमाना मानें पाकिस्तान से इनका निर्यात कुल निर्यात का सिर्फ़ 1.5 प्रतिशत है, सऊदी अरब से निर्यात 0.3% और सिंगापुर से 58% है।
निष्कर्ष निकालते समय मुसलमानों की बात बाद में करेंगे, पहले हमें अपनी गिरेबान में झाँकना चाहिये। 1945 में दो अणु बम झेलने और विश्व बिरादरी से लगभग अलग-थलग पड़े जापान और लगभग हमारे साथ ही आजाद हुए इज़राइल आज शिक्षा के क्षेत्र में भारत के मुकाबले बहुत-बहुत आगे हैं। आजादी के साठ सालों से अधिक के समय में भारत में प्राथमिक शिक्षा का स्तर और स्कूलों की संख्या जिस रफ़्तार से बढ़ना चाहिये थी वह नहीं बढ़ाई गई। आधुनिक शिक्षा के साथ संस्कृति के मेल से जो शिक्षा पैदा होना चाहिये वह जानबूझकर नहीं दी गई, आज भी स्कूलों में मुगलों और अंग्रेजों को महान दर्शाने वाले पाठ्यक्रम ही पढ़ाये जाते हैं, बचपन से ही ब्रेन-वॉश करके यह बताने की कोशिश होती है कि भारतीय संस्कृति नाम की कोई बात न कभी थी, न है। शुरु से ही बच्चों को “अपनी जड़ों” से काटा जाता है, ऐसे में पश्चिम की दुनिया को जिस प्रकार के “पढ़े-लिखे नौकर” चाहिये थे वैसे ही पैदा हो रहे हैं, और यहाँ से देश छोड़कर जा रहे हैं।
भारत के लोग आज भी वही पुराना राग अलापते रहते हैं कि “हमने शून्य का आविष्कार किया, हमने शतरंज का आविष्कार किया, हमने ये किया था, हमारे वेदों में ये है, हमारे ग्रंथों में वो है, हमने दुनिया को आध्यात्म सिखाया, हमने दुनिया को अहिंसा का संदेश दिया, हम विश्व-गुरु हैं… आदि-आदि। हकीकत यह है कि गीता के “कर्म” के सिद्धान्त को जपने वाले देश के अधिकांश लोग खुद ही सबसे अकर्मण्य हैं, भ्रष्ट हैं, अनुशासनहीन और अनैतिक हैं। लफ़्फ़ाजी को छोड़कर साफ़-साफ़ ये नहीं बताते कि सन् 1900 से लेकर 2000 के सौ सालों में भारत का विश्व के लिये और मानवता को क्या योगदान है? जिन आईआईएम और आईआईटी का ढिंढोरा पीटते हम नहीं थकते, वे विश्व स्तर पर कहाँ हैं, भारत से बाहर निकलने के बाद ही युवा प्रतिभाएं अपनी बुद्धिमत्ता और मेधा क्यों दिखा पाती हैं? लेकिन हम लोग सदा से ही “शतुरमुर्ग” रहे हैं, समस्याओं और प्रश्नों का डटकर सामना करने की बजाय हम हमेशा ऊँची-नीची आध्यात्मिक बातें करके पलायन का रास्ता अपना लेते हैं (ताजा उदाहरण मुम्बई हमले का है, जहाँ दो महीने बीत जाने बाद भी हम दूसरों का मुँह देख रहे हैं, मोमबत्तियाँ जला रहे हैं, गाने गा रहे हैं, हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं, भाषण दे रहे हैं, आतंकवाद के खिलाफ़ शपथ दिलवा रहे हैं, गरज यह कि “कर्म” छोड़कर सब कुछ कर रहे हैं)। हमारी मूल समस्या यह है कि “राष्ट्र” की अवधारणा ही जनता के दिमाग में साफ़ नहीं है, साठ सालों से शिक्षा प्रणाली भी एक “कन्फ़्यूजन” की धुंध में है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि आज तक हम “हिन्दू” नहीं बन पाये हैं, यानी जैसे यहूदी सिर्फ़ और सिर्फ़ यहूदी है चाहे वह विश्व के किसी भी कोने में हो, जबकि हम ब्राह्मण हैं, बनिये हैं, ठाकुर हैं, दलित हैं, उत्तर वाले हैं, दक्षिण वाले हैं, सब कुछ हैं लेकिन “हिन्दू” नहीं हैं। हालांकि मूलभूत शिक्षा और तकनीकी के मामले में हम इस्लामिक देशों से काफ़ी आगे हैं, लेकिन क्या हम उनसे तुलना करके खुश होना चाहिये? तुलना करना है तो अपने से ज्यादा, अपने से बड़े से करनी चाहिये…
संक्षेप में इन सब आँकड़ों से क्या निष्कर्ष निकलता है… कि मुस्लिम देश इसलिये पिछड़े हैं क्योंकि वे शिक्षा में पिछड़े हुए हैं, वे अपनी जनसंख्या को आधुनिक शिक्षा नहीं दिलवा पाते, वे “ज्ञान” आधारित उत्पाद पैदा करने में अक्षम हैं, वे ज्ञान को अपनी अगली पीढ़ियों में पहुँचाने और नौनिहालों को पढ़ाने की बजाय हमेशा यहूदियों, ईसाईयों और हिन्दुओं को अपनी दुर्दशा का जिम्मेदार ठहराते रहते हैं। सारा दिन अल्लाह और खुदा चीखने से कुछ नहीं होगा, शिविर लगाकर जेहादी पैदा करने की बजाय शिक्षा का स्तर बढ़ाना होगा, हवाई जहाज अपहरण और ओलम्पिक में खिलाड़ियों की हत्या करवाने की बजाय अधिक से अधिक बच्चों और युवाओं को शिक्षा देने का प्रयास होना चाहिये। सारी दुनिया में इस्लाम का ही राज होगा, अल्लाह सिर्फ़ एक है, बाकी के मूर्तिपूजक काफ़िर हैं जैसी सोच छोड़कर वैज्ञानिक सोच अपनानी होगी। सभी मुस्लिम देशों को खुद से सवाल करना चाहिये कि मानव जीवन और मानवता के लिये उन्होंने क्या किया है? उसके बाद उन्हें दूसरों से इज्जत हासिल करने की अपेक्षा करना चाहिये। इजराईल और फ़िलीस्तीन के बीच चल रहे युद्ध और समूचे विश्व में छाये हुए आतंकवाद के मद्देनज़र बेंजामिन नेतान्याहू की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि “यदि अरब और मुसलमान अपने हथियार रख दें तो हिंसा खत्म हो जायेगी और यदि यहूदियों ने अपने हथियार रख दिये तो इज़राइल खत्म हो जायेगा…”।
[सन्दर्भ और आँकड़े : डॉ फ़ारुख सलीम (फ़्री लांस पत्रकार, इस्लामाबाद)]
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रविवार, 25 जनवरी 2009 17:07
हिन्दुओं और मुसलमानों को यहूदियों से सीखना चाहिये… (भाग-1)
Muslims-Hindus Take a Lesson from Jews
विश्व की कुल आबादी में से यहूदियों की संख्या लगभग डेढ़ करोड़ है, जिसमें से लगभग 70 लाख अमेरिका में रहते हैं, 50 लाख यहूदी एशिया में, 20 लाख यूरोप में और बाकी कुछ अन्य देशों में रहते हैं… कहने का मतलब यह कि इज़राईल को छोड़कर सभी देशों में वे “अल्पसंख्यक” हैं। दूसरी तरफ़ दुनिया में मुस्लिमों की संख्या लगभग दो अरब है जिसमें से एक अरब एशिया में, 40 करोड़ अफ़्रीका में, 5 करोड़ यूरोप में और बाकी के सारे विश्व में फ़ैले हुए हैं, इसी प्रकार हिन्दुओं की जनसंख्या लगभग सवा अरब है जिसमें लगभग 80 करोड़ भारत में व बाकी के सारे विश्व में फ़ैले हुए हैं… इस प्रकार देखा जाये तो विश्व का हर पाँचवा व्यक्ति मुसलमान है, प्रति एक हिन्दू के पीछे दो मुसलमान और प्रति एक यहूदी के पीछे सौ मुसलमान का अनुपात बैठता है… बावजूद इसके यहूदी लोग हिन्दुओं या मुसलमानों के मुकाबले इतने श्रेष्ठ क्यों हैं? क्यों यहूदी लोग इतने शक्तिशाली हैं?
प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आईन्स्टीन एक यहूदी थे, प्रसिद्ध मनोविज्ञानी सिगमण्ड फ़्रायड, मार्क्सवादी विचारधारा के जनक कार्ल मार्क्स जैसे अनेकों यहूदी, इतिहास में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं जिन्होंने मानवता और समाज के लिये एक अमिट योगदान दिया है। बेंजामिन रूबिन ने मानवता को इंजेक्शन की सुई दी, जोनास सैक ने पोलियो वैक्सीन दिया, गर्ट्र्यूड इलियन ने ल्यूकेमिया जैसे रोग से लड़ने की दवाई निर्मित की, बारुच ब्लूमबर्ग ने हेपेटाइटिस बी से लड़ने का टीका बनाया, पॉल एल्हरिच ने सिफ़लिस का इलाज खोजा, बर्नार्ड काट्ज़ ने न्यूरो मस्कुलर के लिये नोबल जीता, ग्रेगरी पिंकस ने सबसे पहली मौखिक गर्भनिरोधक गोली का आविष्कार किया, विल्लेम कॉफ़ ने किडनी डायलिसिस की मशीन बनाई… इस प्रकार के दसियों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं जिसमें यहूदियों ने अपनी बुद्धिमत्ता और गुणों से मानवता की अतुलनीय सेवा की है।
पिछले 105 वर्षों में 129 यहूदियों को नोबल पुरस्कार मिल चुके हैं, जबकि इसी अवधि में सिर्फ़ 7 मुसलमानों को नोबल पुरस्कार मिले हैं, जिसमें से चार तो शान्ति के नोबल हैं, अनवर सादात और यासर अराफ़ात(शांति पुरस्कार??) को मिलाकर और एक साहित्य का, सिर्फ़ दो मेडिसिन के लिये हैं। इसी प्रकार भारत को अब तक सिर्फ़ 6 नोबल पुरस्कार मिले हैं, जिसमें से एक साहित्य (टैगोर) और एक शान्ति के लिये (मदर टेरेसा को, यदि उन्हें भारतीय माना जाये तो), ऐसे में विश्व में जिस प्रजाति की जनसंख्या सिर्फ़ दशमलव दो प्रतिशत हो ऐसे यहूदियों ने अर्थशास्त्र, दवा-रसायन खोज और भौतिकी के क्षेत्रों में नोबल पुरस्कारों की झड़ी लगा दी है, क्या यह वन्दनीय नहीं है?
मानव जाति की सेवा सिर्फ़ मेडिसिन से ही नहीं होती, और भी कई क्षेत्र हैं, जैसे पीटर शुल्ट्ज़ ने ऑप्टिकल फ़ायबर बनाया, बेनो स्ट्रॉस ने स्टेनलेस स्टील, एमाइल बर्लिनर ने टेलीफ़ोन माइक्रोफ़ोन, चार्ल्स गिन्सबर्ग ने वीडियो टेप रिकॉर्डर, स्टैनली मेज़ोर ने पहली माइक्रोप्रोसेसर चिप जैसे आविष्कार किये। व्यापार के क्षेत्र में राल्फ़ लॉरेन (पोलो), लेविस स्ट्रॉस (लेविस जीन्स), सर्गेई ब्रिन (गूगल), माइकल डेल (डेल कम्प्यूटर), लैरी एलिसन (ओरेकल), राजनीति और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में येल यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष रिचर्ड लेविन, अमरीकी सीनेटर हेनरी किसींजर, ब्रिटेन के लेखक बेंजामिन डिज़रायली जैसे कई नाम यहूदी हैं। मानवता के सबसे बड़े प्रेमी, अपनी चार अरब डॉलर से अधिक सम्पत्ति विज्ञान और विश्व भर के विश्वविद्यालयों को दान करने वाले जॉर्ज सोरोस भी यहूदी हैं। ओलम्पिक में सात स्वर्ण जीतने वाले तैराक मार्क स्पिट्ज़, सबसे कम उम्र में विंबलडन जीतने वाले बूम-बूम बोरिस बेकर भी यहूदी हैं। हॉलीवुड की स्थापना ही एक तरह से यहूदियों द्वारा की गई है ऐसा कहा जा सकता है, हैरिसन फ़ोर्ड, माइकल डगलस, डस्टिन हॉफ़मैन, कैरी ग्राण्ट, पॉल न्यूमैन, गोल्डी हॉन, स्टीवन स्पीलबर्ग, मेल ब्रुक्स जैसे हजारों प्रतिभाशाली यहूदी हैं।
इसका दूसरा पहलू यह है कि हिटलर द्वारा भगाये जाने के बाद यहूदी लगभग सारे विश्व में फ़ैल गये, वहाँ उन्होंने अपनी मेहनत से धन कमाया, साम्राज्य खड़ा किया, उच्च शिक्षा ग्रहण की और सबसे बड़ी बात यह कि उस धन-सम्पत्ति पर अपनी मजबूत पकड़ बनाये रखी, तथा उसे और बढ़ाया। शिक्षा का उपयोग उन्होंने विभिन्न खोज करने में लगाया। जबकि इसका काला पहलू यह है कि अमेरिका स्थित हथियार निर्माता कम्पनियों पर अधिकतर में यहूदियों का कब्जा है, जो चाहती है कि विश्व में युद्ध होते रहें ताकि वे कमाते रहें। जबकि मुस्लिमों को शिक्षा पर ध्यान देने की बजाय, आपस में लड़ने और विश्व भर में ईसाईयों से, हिन्दुओं से मूर्खतापूर्ण तरीके से लगातार सालों-साल लड़ने में पता नहीं क्या मजा आता है? यहूदियों का एक गुण (या कहें कि दुर्गुण) यह भी है कि वे अपनी “नस्ल” की शुद्धता को बरकरार रखने की पूरी कोशिश करते हैं, अर्थात यहूदी लड़के/लड़की की शादी यहूदी से ही हो अन्य धर्मावलम्बियों में न हो इस बात का विशेष खयाल रखा जाता है, उनका मानना है कि इससे “नस्ल शुद्ध” रहती है (इसी बात पर हिटलर उनसे बुरी तरह चिढ़ा हुआ भी था)।
(भाग-2 में जारी रहेगा…)
Jews, Muslims and Hindus, Why Jews Dominate World Order, What is the reason of Jewish Success, Israel, OIC, India and USA, Nobel Prize Winners, Medicine, Physics and Economics Nobel of Jews, Literacy Level in South Asia and Pakistan, Literacy and Muslim Countries, यहूदी, मुसलमान, हिन्दू और नोबल पुरस्कार, यहूदियों की सफ़लता का राज़, विश्व व्यवस्था पर यहूदी प्रभाव, इज़राइल, ओआईसी, पाकिस्तान और दक्षिण एशिया में साक्षरता स्तर, मुस्लिम देशों में साक्षरता दर, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
विश्व की कुल आबादी में से यहूदियों की संख्या लगभग डेढ़ करोड़ है, जिसमें से लगभग 70 लाख अमेरिका में रहते हैं, 50 लाख यहूदी एशिया में, 20 लाख यूरोप में और बाकी कुछ अन्य देशों में रहते हैं… कहने का मतलब यह कि इज़राईल को छोड़कर सभी देशों में वे “अल्पसंख्यक” हैं। दूसरी तरफ़ दुनिया में मुस्लिमों की संख्या लगभग दो अरब है जिसमें से एक अरब एशिया में, 40 करोड़ अफ़्रीका में, 5 करोड़ यूरोप में और बाकी के सारे विश्व में फ़ैले हुए हैं, इसी प्रकार हिन्दुओं की जनसंख्या लगभग सवा अरब है जिसमें लगभग 80 करोड़ भारत में व बाकी के सारे विश्व में फ़ैले हुए हैं… इस प्रकार देखा जाये तो विश्व का हर पाँचवा व्यक्ति मुसलमान है, प्रति एक हिन्दू के पीछे दो मुसलमान और प्रति एक यहूदी के पीछे सौ मुसलमान का अनुपात बैठता है… बावजूद इसके यहूदी लोग हिन्दुओं या मुसलमानों के मुकाबले इतने श्रेष्ठ क्यों हैं? क्यों यहूदी लोग इतने शक्तिशाली हैं?
प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आईन्स्टीन एक यहूदी थे, प्रसिद्ध मनोविज्ञानी सिगमण्ड फ़्रायड, मार्क्सवादी विचारधारा के जनक कार्ल मार्क्स जैसे अनेकों यहूदी, इतिहास में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं जिन्होंने मानवता और समाज के लिये एक अमिट योगदान दिया है। बेंजामिन रूबिन ने मानवता को इंजेक्शन की सुई दी, जोनास सैक ने पोलियो वैक्सीन दिया, गर्ट्र्यूड इलियन ने ल्यूकेमिया जैसे रोग से लड़ने की दवाई निर्मित की, बारुच ब्लूमबर्ग ने हेपेटाइटिस बी से लड़ने का टीका बनाया, पॉल एल्हरिच ने सिफ़लिस का इलाज खोजा, बर्नार्ड काट्ज़ ने न्यूरो मस्कुलर के लिये नोबल जीता, ग्रेगरी पिंकस ने सबसे पहली मौखिक गर्भनिरोधक गोली का आविष्कार किया, विल्लेम कॉफ़ ने किडनी डायलिसिस की मशीन बनाई… इस प्रकार के दसियों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं जिसमें यहूदियों ने अपनी बुद्धिमत्ता और गुणों से मानवता की अतुलनीय सेवा की है।
पिछले 105 वर्षों में 129 यहूदियों को नोबल पुरस्कार मिल चुके हैं, जबकि इसी अवधि में सिर्फ़ 7 मुसलमानों को नोबल पुरस्कार मिले हैं, जिसमें से चार तो शान्ति के नोबल हैं, अनवर सादात और यासर अराफ़ात(शांति पुरस्कार??) को मिलाकर और एक साहित्य का, सिर्फ़ दो मेडिसिन के लिये हैं। इसी प्रकार भारत को अब तक सिर्फ़ 6 नोबल पुरस्कार मिले हैं, जिसमें से एक साहित्य (टैगोर) और एक शान्ति के लिये (मदर टेरेसा को, यदि उन्हें भारतीय माना जाये तो), ऐसे में विश्व में जिस प्रजाति की जनसंख्या सिर्फ़ दशमलव दो प्रतिशत हो ऐसे यहूदियों ने अर्थशास्त्र, दवा-रसायन खोज और भौतिकी के क्षेत्रों में नोबल पुरस्कारों की झड़ी लगा दी है, क्या यह वन्दनीय नहीं है?
मानव जाति की सेवा सिर्फ़ मेडिसिन से ही नहीं होती, और भी कई क्षेत्र हैं, जैसे पीटर शुल्ट्ज़ ने ऑप्टिकल फ़ायबर बनाया, बेनो स्ट्रॉस ने स्टेनलेस स्टील, एमाइल बर्लिनर ने टेलीफ़ोन माइक्रोफ़ोन, चार्ल्स गिन्सबर्ग ने वीडियो टेप रिकॉर्डर, स्टैनली मेज़ोर ने पहली माइक्रोप्रोसेसर चिप जैसे आविष्कार किये। व्यापार के क्षेत्र में राल्फ़ लॉरेन (पोलो), लेविस स्ट्रॉस (लेविस जीन्स), सर्गेई ब्रिन (गूगल), माइकल डेल (डेल कम्प्यूटर), लैरी एलिसन (ओरेकल), राजनीति और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में येल यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष रिचर्ड लेविन, अमरीकी सीनेटर हेनरी किसींजर, ब्रिटेन के लेखक बेंजामिन डिज़रायली जैसे कई नाम यहूदी हैं। मानवता के सबसे बड़े प्रेमी, अपनी चार अरब डॉलर से अधिक सम्पत्ति विज्ञान और विश्व भर के विश्वविद्यालयों को दान करने वाले जॉर्ज सोरोस भी यहूदी हैं। ओलम्पिक में सात स्वर्ण जीतने वाले तैराक मार्क स्पिट्ज़, सबसे कम उम्र में विंबलडन जीतने वाले बूम-बूम बोरिस बेकर भी यहूदी हैं। हॉलीवुड की स्थापना ही एक तरह से यहूदियों द्वारा की गई है ऐसा कहा जा सकता है, हैरिसन फ़ोर्ड, माइकल डगलस, डस्टिन हॉफ़मैन, कैरी ग्राण्ट, पॉल न्यूमैन, गोल्डी हॉन, स्टीवन स्पीलबर्ग, मेल ब्रुक्स जैसे हजारों प्रतिभाशाली यहूदी हैं।
इसका दूसरा पहलू यह है कि हिटलर द्वारा भगाये जाने के बाद यहूदी लगभग सारे विश्व में फ़ैल गये, वहाँ उन्होंने अपनी मेहनत से धन कमाया, साम्राज्य खड़ा किया, उच्च शिक्षा ग्रहण की और सबसे बड़ी बात यह कि उस धन-सम्पत्ति पर अपनी मजबूत पकड़ बनाये रखी, तथा उसे और बढ़ाया। शिक्षा का उपयोग उन्होंने विभिन्न खोज करने में लगाया। जबकि इसका काला पहलू यह है कि अमेरिका स्थित हथियार निर्माता कम्पनियों पर अधिकतर में यहूदियों का कब्जा है, जो चाहती है कि विश्व में युद्ध होते रहें ताकि वे कमाते रहें। जबकि मुस्लिमों को शिक्षा पर ध्यान देने की बजाय, आपस में लड़ने और विश्व भर में ईसाईयों से, हिन्दुओं से मूर्खतापूर्ण तरीके से लगातार सालों-साल लड़ने में पता नहीं क्या मजा आता है? यहूदियों का एक गुण (या कहें कि दुर्गुण) यह भी है कि वे अपनी “नस्ल” की शुद्धता को बरकरार रखने की पूरी कोशिश करते हैं, अर्थात यहूदी लड़के/लड़की की शादी यहूदी से ही हो अन्य धर्मावलम्बियों में न हो इस बात का विशेष खयाल रखा जाता है, उनका मानना है कि इससे “नस्ल शुद्ध” रहती है (इसी बात पर हिटलर उनसे बुरी तरह चिढ़ा हुआ भी था)।
(भाग-2 में जारी रहेगा…)
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ब्लॉग
मंगलवार, 20 जनवरी 2009 13:23
CBSE के महंगे स्कूलों में क्यों पढ़ाते हो, मदरसे में भरती करो…
CBSE Board Equal to Madarsa Board
प्रसिद्ध उपन्यास “राग दरबारी” में पं. श्रीलाल शुक्ल कह गये हैं कि भारत की “शिक्षा व्यवस्था” चौराहे पर पड़ी उस कुतिया के समान है, जिसे हर आता-जाता व्यक्ति लात लगाता रहता है। आठवीं तक के बच्चों की परीक्षा न लेकर उन्हें सीधे पास करने का निर्णय लेकर पहले प्राथमिक शिक्षा को जोरदार लात जमाने का काम किया गया है, लेकिन अब यूपीए सरकार ने वोट बैंक की खातिर मुसलमानों और तथाकथित “सेकुलरों” की “चरणवन्दना” करने की होड़ में एक और अल्पसंख्यक (इस शब्द को हमेशा सिर्फ़ और सिर्फ़ मुसलमान ही पढ़ा जाये) समर्थक निर्णय लिया है कि “मदरसा बोर्ड” का सर्टिफ़िकेट CBSE के समतुल्य माना जायेगा… है न एक क्रांतिकारी(?) निर्णय!!!
रिपोर्टों के मुताबिक केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय अब लगभग इस निर्णय पर पहुँच चुका है कि मदरसा बोर्ड के सर्टिफ़िकेट को CBSE के समतुल्य माना जायेगा। वैसे तो यह निर्णय “खच्चर” (क्षमा करें…) सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशों के आधार पर लिया जा रहा है, लेकिन इसमें मुख्य भूमिका “ओबीसी मसीहा” अर्जुनसिंह की है, जो आने वाले लोकसभा चुनावों को देखते हुए “मुस्लिम मसीहा” भी बनना चाहते हैं और असल में अन्तुले की काट करना चाहते हैं।
“संवैधानिक रूप से प्रधानमंत्री” मनमोहन सिंह द्वारा अल्पसंख्यकों (पढ़ें मुसलमान) के कल्याण हेतु घोषित 15 सूत्रीय कार्यक्रम के अनुसार मंत्रालय द्वारा एक समिति का गठन किया गया था, जिसने यह “बेजोड़” सिफ़ारिश की थी। मानव संसाधन मंत्रालय के इस निर्णय के बाद लगभग 7000 मदरसे, खासकर उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, उड़ीसा, असम और पश्चिम बंगाल (यानी लगभग 250 लोकसभा सीटों पर) में मदरसों में पढ़ने वाले साढ़े तीन लाख विद्यार्थी लाभान्वित होंगे। केन्द्र ने अन्य राज्यों में यह सुविधा भी प्रदान की है कि यदि उस सम्बन्धित राज्य में मदरसा बोर्ड नहीं हो तो छात्र पड़ोसी राज्य में अपना रजिस्ट्रेशन करवाकर इस “सुविधा”(?) का लाभ ले सकता है। “स्वयंभू मुस्लिमप्रेमी” लालू यादव भला कैसे पीछे रहते? उन्होंने भी घोषणा कर डाली है और उसे अमलीजामा भी पहना दिया है कि रेल्वे की परीक्षाओं में मदरसा बोर्ड के प्रमाणपत्र मान्य होंगे, ताकि रेल्वे में अल्पसंख्यकों (पढ़ें मुसलमानों) की संख्या में बढ़ोतरी की जा सके। हाथी के दाँत की तरह दिखाने के लिये इसका मकसद है “अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा(?) में लाना…” (यानी वोट बैंक पक्का करना), ये सवाल पूछना नितांत बेवकूफ़ी है कि “अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा से बाहर किया किसने…”? “क्या किसी ने उनके हाथ-पैर बाँधकर मुख्यधारा से अलग जंगल में रख छोड़ा है?”, क्यों नहीं वे आधुनिक शिक्षा लेकर, खुले विचारों के साथ मुल्लाओं का विरोध करके, “नकली सेकुलरों” को बेनकाब करके कई अन्य समुदायों की तरह खुद ही मुख्यधारा में आते?
इस निर्णय से एक बात स्पष्ट नहीं हो पा रही है कि आखिर केन्द्र सरकार मदरसों का स्तर उठाना चाहती है या CBSE का स्तर गिराना चाहती है? लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि यह उन छात्रों के साथ एक क्रूर मजाक है जो CBSE के कठिन पाठ्यक्रम को पढ़ने और मुश्किल परीक्षा का सामना करने के लिये अपनी रातें काली कर रहे हैं। यदि सरकार को वाकई में मदरसे में पढ़ने वाले मुस्लिमों को मुख्यधारा में लाना ही है तो उन क्षेत्रों में विशेष स्कूल खोले जा सकते हैं जिनमें वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण पढ़ाई करवाई जा सके। लेकिन इस्लाम की धार्मिक शिक्षा देने वाले मदरसों को सीधे CBSE के बराबर घोषित करना तो वाकई एक मजाक ही है। क्या सरकार को यह नहीं मालूम कि उत्तरप्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती जिलों में चल रहे मदरसों में “किस प्रकार की पढ़ाई” चल रही है? सरकार द्वारा पहले ही “अल्पसंख्यकों” के लिये विभिन्न सबसिडी और योजनायें चलाई जा रही हैं, जो कि अन्ततः बहुसंख्यक छात्रों के पालकों के टैक्स के पैसों पर ही होती हैं और उन्हें ही यह सुविधायें नहीं मिलती हैं। असल में यूपीए सरकार के राज में हिन्दू और उस पर भी गरीब पैदा होना मानो एक गुनाह ही है। कहाँ तो संविधान कहता है कि धार्मिक आधार पर नागरिकों के साथ कोई भेदभाव नहीं होना चाहिये, लेकिन असल में मुसलमानों को खुश करने में सोनिया सरकार कोई कसर बाकी नहीं रखना चाहती।
धार्मिक आधार पर आरक्षण नहीं होगा यह सुप्रीम कोर्ट भले ही कह चुका हो, संविधान में भी लिखा हो, विभिन्न नागरिक संगठन विरोध कर रहे हों, लेकिन आंध्रप्रदेश के ईसाई मुख्यमंत्री “सैमुअल रेड्डी” “क्या कर लोगे?” वाले अंदाज में जबरन 5% मुस्लिम आरक्षण लागू करने पर उतारू हैं, केन्द्र की यूपीए सरकार मदरसों के आधुनिकीकरण हेतु करोड़ों रुपये के अनुदान बाँट रही है, लेकिन मदरसे हैं कि राष्ट्रीय त्योहारों पर तिरंगा फ़हराने तक को राजी नहीं हैं (यहाँ देखें)। मुल्ला और मौलवी जब-तब इस्लामी शिक्षा के आधुनिकीकरण के खिलाफ़ “फ़तवे” जारी करते रहते हैं, लेकिन सरकार से (यानी कि टैक्स देने वाले हम और आप के पैसों से) “अनुदान” वे खुशी-खुशी स्वीकार करते हैं। केन्द्र सरकार का यह दायित्व है कि वह मदरसों के प्रबन्धन से कहे कि या तो वे सिर्फ़ “धार्मिक”(?) शिक्षा तक ही सीमित रहें और छात्रों को अन्य शिक्षा के लिये बाहर के स्कूलों में नामजद करवाये या फ़िर मदरसे बन्द किये जायें या उन्हें अनुदान नहीं दिया जाये, लेकिन सरकार की ऐसा कहने की हिम्मत ही नहीं है। सरकार चाहती है कि मदरसे देश भर में कुकुरमुत्ते की तरह फ़ैल जायें। जो नकली “सेकुलर”(?) हमेशा सरस्वती शिशु मन्दिरों की शिक्षा प्रणाली पर हमले करते रहते हैं, उन्हें एक बार इन स्कूलों में जाकर देखना चाहिये कि मदरसों में और इनमें क्या “मूल” अन्तर है।
तीन मुस्लिम विश्वविद्यालयों जामिया हमदर्द, जामिया मिलिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने पोस्ट-ग्रेजुएशन में प्रवेश के लिये पहले ही मदरसों के सर्टिफ़िकेट को मान्यता प्रदान की हुई है, अब मानव संसाधन मंत्रालय (इसे पढ़ें अर्जुनसिंह) चाहता है कि देश की बाकी सभी यूनिवर्सिटी इस नियम को लागू करें। फ़िलहाल तो कुछ विश्वविद्यालयों ने इस निर्णय का विरोध किया है, लेकिन जी-हुजूरी और चमचागिरी के इस दौर में कब तक वे अपनी “रीढ़” सीधी रख सकेंगे यह कहना मुश्किल है। विभिन्न सूत्र बताते हैं कि देश भर में वैध-अवैध मदरसों की संख्या दस लाख के आसपास है और सबसे खतरनाक स्थिति पश्चिम बंगाल और बिहार के सीमावर्ती जिलों के गाँवों में है, जहाँ आधुनिक शिक्षा का नामोनिशान तक नहीं है, और इन मदरसों को सऊदी अरब से आर्थिक मदद भी मिलती रहती है।
सच्चर कमेटी की आड़ लेकर यूपीए सरकार पहले ही मुसलमानों को खुश करने हेतु कई कदम उठा चुकी है, जैसे अल्पसंख्यक (यानी मुसलमान) संस्थानों को विशेष आर्थिक मदद, अल्पसंख्यक (यानी वही) छात्रों को सिर्फ़ 3 प्रतिशत ब्याज पर शिक्षा ॠण (हिन्दू बच्चों को शिक्षा ॠण 13% की दर से दिया जाता है), बेरोजगारी भी धर्म देखकर आती है इसलिये हिन्दू युवकों को 15 से 18 प्रतिशत पर व्यापार हेतु ॠण दिया जाता है, जबकि मुस्लिम युवक को “प्रोजेक्ट की कुल लागत” का सिर्फ़ 5 प्रतिशत अपनी जेब से देना होता है, 35 प्रतिशत राशि का ॠण 3% ब्याज दर पर “अल्पसंख्यक कल्याण फ़ायनेंस” करता है बाकी की 60 प्रतिशत राशि सिर्फ़ 2% का ब्याज पर केन्द्र सरकार उपलब्ध करवाती है। IIM, IIT और AIIMS में दाखिला होने पर पूरी फ़ीस सरकार के माथे होती है, प्रशासनिक और अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी हेतु “उनके” लिये विशेष मुफ़्त कोचिंग क्लासेस चलाई जाती हैं, उन्हें खास स्कॉलरशिप दी जाती है, इस प्रकार की सैकड़ों सुविधायें हिन्दू छात्रों का हक छीनकर दी जा रही हैं, और अब मदरसा बोर्ड के सर्टिफ़िकेट को CBSE के बराबर मानने की कवायद…
क्या सरकार यह चाहती है कि देश की जनता “धर्म परिवर्तन” करके अपने बच्चों को CBSE स्कूलों से निकालकर मदरसे में भरती करवा दे? या श्रीलाल शुक्ल जिस “शिक्षा व्यवस्था नाम की कुतिया” का उल्लेख कर गये हैं उसे “उच्च शिक्षा नाम की कुतिया” भी माना जाये? जिसे मौका मिलते ही जब-तब लतियाया जायेगा……
Madarsa Board Equal to CBSE Board, CBSE Board and Politics, Human Resource Development Ministry Arjun Singh and Muslim Appeasement, UPA Government Pro-Muslim Decisions, Higher Education in India, School Education and Secularism, Communalism and Indian Primary Schools, मदरसा बोर्ड, सीबीएसई बोर्ड, सीबीएसई बोर्ड, राजनीति, अर्जुन सिंह, सेकुलरिज़्म, साम्प्रदायिकता, भारत में उच्च शिक्षा, सोनिया सरकार के मुस्लिम वोट बैंक के फ़ैसले, भारत में प्राथमिक शिक्षा और इस्लाम, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
प्रसिद्ध उपन्यास “राग दरबारी” में पं. श्रीलाल शुक्ल कह गये हैं कि भारत की “शिक्षा व्यवस्था” चौराहे पर पड़ी उस कुतिया के समान है, जिसे हर आता-जाता व्यक्ति लात लगाता रहता है। आठवीं तक के बच्चों की परीक्षा न लेकर उन्हें सीधे पास करने का निर्णय लेकर पहले प्राथमिक शिक्षा को जोरदार लात जमाने का काम किया गया है, लेकिन अब यूपीए सरकार ने वोट बैंक की खातिर मुसलमानों और तथाकथित “सेकुलरों” की “चरणवन्दना” करने की होड़ में एक और अल्पसंख्यक (इस शब्द को हमेशा सिर्फ़ और सिर्फ़ मुसलमान ही पढ़ा जाये) समर्थक निर्णय लिया है कि “मदरसा बोर्ड” का सर्टिफ़िकेट CBSE के समतुल्य माना जायेगा… है न एक क्रांतिकारी(?) निर्णय!!!
रिपोर्टों के मुताबिक केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय अब लगभग इस निर्णय पर पहुँच चुका है कि मदरसा बोर्ड के सर्टिफ़िकेट को CBSE के समतुल्य माना जायेगा। वैसे तो यह निर्णय “खच्चर” (क्षमा करें…) सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशों के आधार पर लिया जा रहा है, लेकिन इसमें मुख्य भूमिका “ओबीसी मसीहा” अर्जुनसिंह की है, जो आने वाले लोकसभा चुनावों को देखते हुए “मुस्लिम मसीहा” भी बनना चाहते हैं और असल में अन्तुले की काट करना चाहते हैं।
“संवैधानिक रूप से प्रधानमंत्री” मनमोहन सिंह द्वारा अल्पसंख्यकों (पढ़ें मुसलमान) के कल्याण हेतु घोषित 15 सूत्रीय कार्यक्रम के अनुसार मंत्रालय द्वारा एक समिति का गठन किया गया था, जिसने यह “बेजोड़” सिफ़ारिश की थी। मानव संसाधन मंत्रालय के इस निर्णय के बाद लगभग 7000 मदरसे, खासकर उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, उड़ीसा, असम और पश्चिम बंगाल (यानी लगभग 250 लोकसभा सीटों पर) में मदरसों में पढ़ने वाले साढ़े तीन लाख विद्यार्थी लाभान्वित होंगे। केन्द्र ने अन्य राज्यों में यह सुविधा भी प्रदान की है कि यदि उस सम्बन्धित राज्य में मदरसा बोर्ड नहीं हो तो छात्र पड़ोसी राज्य में अपना रजिस्ट्रेशन करवाकर इस “सुविधा”(?) का लाभ ले सकता है। “स्वयंभू मुस्लिमप्रेमी” लालू यादव भला कैसे पीछे रहते? उन्होंने भी घोषणा कर डाली है और उसे अमलीजामा भी पहना दिया है कि रेल्वे की परीक्षाओं में मदरसा बोर्ड के प्रमाणपत्र मान्य होंगे, ताकि रेल्वे में अल्पसंख्यकों (पढ़ें मुसलमानों) की संख्या में बढ़ोतरी की जा सके। हाथी के दाँत की तरह दिखाने के लिये इसका मकसद है “अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा(?) में लाना…” (यानी वोट बैंक पक्का करना), ये सवाल पूछना नितांत बेवकूफ़ी है कि “अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा से बाहर किया किसने…”? “क्या किसी ने उनके हाथ-पैर बाँधकर मुख्यधारा से अलग जंगल में रख छोड़ा है?”, क्यों नहीं वे आधुनिक शिक्षा लेकर, खुले विचारों के साथ मुल्लाओं का विरोध करके, “नकली सेकुलरों” को बेनकाब करके कई अन्य समुदायों की तरह खुद ही मुख्यधारा में आते?
इस निर्णय से एक बात स्पष्ट नहीं हो पा रही है कि आखिर केन्द्र सरकार मदरसों का स्तर उठाना चाहती है या CBSE का स्तर गिराना चाहती है? लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि यह उन छात्रों के साथ एक क्रूर मजाक है जो CBSE के कठिन पाठ्यक्रम को पढ़ने और मुश्किल परीक्षा का सामना करने के लिये अपनी रातें काली कर रहे हैं। यदि सरकार को वाकई में मदरसे में पढ़ने वाले मुस्लिमों को मुख्यधारा में लाना ही है तो उन क्षेत्रों में विशेष स्कूल खोले जा सकते हैं जिनमें वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण पढ़ाई करवाई जा सके। लेकिन इस्लाम की धार्मिक शिक्षा देने वाले मदरसों को सीधे CBSE के बराबर घोषित करना तो वाकई एक मजाक ही है। क्या सरकार को यह नहीं मालूम कि उत्तरप्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती जिलों में चल रहे मदरसों में “किस प्रकार की पढ़ाई” चल रही है? सरकार द्वारा पहले ही “अल्पसंख्यकों” के लिये विभिन्न सबसिडी और योजनायें चलाई जा रही हैं, जो कि अन्ततः बहुसंख्यक छात्रों के पालकों के टैक्स के पैसों पर ही होती हैं और उन्हें ही यह सुविधायें नहीं मिलती हैं। असल में यूपीए सरकार के राज में हिन्दू और उस पर भी गरीब पैदा होना मानो एक गुनाह ही है। कहाँ तो संविधान कहता है कि धार्मिक आधार पर नागरिकों के साथ कोई भेदभाव नहीं होना चाहिये, लेकिन असल में मुसलमानों को खुश करने में सोनिया सरकार कोई कसर बाकी नहीं रखना चाहती।
धार्मिक आधार पर आरक्षण नहीं होगा यह सुप्रीम कोर्ट भले ही कह चुका हो, संविधान में भी लिखा हो, विभिन्न नागरिक संगठन विरोध कर रहे हों, लेकिन आंध्रप्रदेश के ईसाई मुख्यमंत्री “सैमुअल रेड्डी” “क्या कर लोगे?” वाले अंदाज में जबरन 5% मुस्लिम आरक्षण लागू करने पर उतारू हैं, केन्द्र की यूपीए सरकार मदरसों के आधुनिकीकरण हेतु करोड़ों रुपये के अनुदान बाँट रही है, लेकिन मदरसे हैं कि राष्ट्रीय त्योहारों पर तिरंगा फ़हराने तक को राजी नहीं हैं (यहाँ देखें)। मुल्ला और मौलवी जब-तब इस्लामी शिक्षा के आधुनिकीकरण के खिलाफ़ “फ़तवे” जारी करते रहते हैं, लेकिन सरकार से (यानी कि टैक्स देने वाले हम और आप के पैसों से) “अनुदान” वे खुशी-खुशी स्वीकार करते हैं। केन्द्र सरकार का यह दायित्व है कि वह मदरसों के प्रबन्धन से कहे कि या तो वे सिर्फ़ “धार्मिक”(?) शिक्षा तक ही सीमित रहें और छात्रों को अन्य शिक्षा के लिये बाहर के स्कूलों में नामजद करवाये या फ़िर मदरसे बन्द किये जायें या उन्हें अनुदान नहीं दिया जाये, लेकिन सरकार की ऐसा कहने की हिम्मत ही नहीं है। सरकार चाहती है कि मदरसे देश भर में कुकुरमुत्ते की तरह फ़ैल जायें। जो नकली “सेकुलर”(?) हमेशा सरस्वती शिशु मन्दिरों की शिक्षा प्रणाली पर हमले करते रहते हैं, उन्हें एक बार इन स्कूलों में जाकर देखना चाहिये कि मदरसों में और इनमें क्या “मूल” अन्तर है।
तीन मुस्लिम विश्वविद्यालयों जामिया हमदर्द, जामिया मिलिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने पोस्ट-ग्रेजुएशन में प्रवेश के लिये पहले ही मदरसों के सर्टिफ़िकेट को मान्यता प्रदान की हुई है, अब मानव संसाधन मंत्रालय (इसे पढ़ें अर्जुनसिंह) चाहता है कि देश की बाकी सभी यूनिवर्सिटी इस नियम को लागू करें। फ़िलहाल तो कुछ विश्वविद्यालयों ने इस निर्णय का विरोध किया है, लेकिन जी-हुजूरी और चमचागिरी के इस दौर में कब तक वे अपनी “रीढ़” सीधी रख सकेंगे यह कहना मुश्किल है। विभिन्न सूत्र बताते हैं कि देश भर में वैध-अवैध मदरसों की संख्या दस लाख के आसपास है और सबसे खतरनाक स्थिति पश्चिम बंगाल और बिहार के सीमावर्ती जिलों के गाँवों में है, जहाँ आधुनिक शिक्षा का नामोनिशान तक नहीं है, और इन मदरसों को सऊदी अरब से आर्थिक मदद भी मिलती रहती है।
सच्चर कमेटी की आड़ लेकर यूपीए सरकार पहले ही मुसलमानों को खुश करने हेतु कई कदम उठा चुकी है, जैसे अल्पसंख्यक (यानी मुसलमान) संस्थानों को विशेष आर्थिक मदद, अल्पसंख्यक (यानी वही) छात्रों को सिर्फ़ 3 प्रतिशत ब्याज पर शिक्षा ॠण (हिन्दू बच्चों को शिक्षा ॠण 13% की दर से दिया जाता है), बेरोजगारी भी धर्म देखकर आती है इसलिये हिन्दू युवकों को 15 से 18 प्रतिशत पर व्यापार हेतु ॠण दिया जाता है, जबकि मुस्लिम युवक को “प्रोजेक्ट की कुल लागत” का सिर्फ़ 5 प्रतिशत अपनी जेब से देना होता है, 35 प्रतिशत राशि का ॠण 3% ब्याज दर पर “अल्पसंख्यक कल्याण फ़ायनेंस” करता है बाकी की 60 प्रतिशत राशि सिर्फ़ 2% का ब्याज पर केन्द्र सरकार उपलब्ध करवाती है। IIM, IIT और AIIMS में दाखिला होने पर पूरी फ़ीस सरकार के माथे होती है, प्रशासनिक और अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी हेतु “उनके” लिये विशेष मुफ़्त कोचिंग क्लासेस चलाई जाती हैं, उन्हें खास स्कॉलरशिप दी जाती है, इस प्रकार की सैकड़ों सुविधायें हिन्दू छात्रों का हक छीनकर दी जा रही हैं, और अब मदरसा बोर्ड के सर्टिफ़िकेट को CBSE के बराबर मानने की कवायद…
क्या सरकार यह चाहती है कि देश की जनता “धर्म परिवर्तन” करके अपने बच्चों को CBSE स्कूलों से निकालकर मदरसे में भरती करवा दे? या श्रीलाल शुक्ल जिस “शिक्षा व्यवस्था नाम की कुतिया” का उल्लेख कर गये हैं उसे “उच्च शिक्षा नाम की कुतिया” भी माना जाये? जिसे मौका मिलते ही जब-तब लतियाया जायेगा……
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मंगलवार, 06 जनवरी 2009 11:47
“ठण्डे खून वालों का वक्ती उबाल” बैठ चुका है, अगले बम विस्फ़ोट के इन्तज़ार में हैं हम…
India Pakistan War, Terrorism, Nuclear Power
मुम्बई हमले और बम विस्फ़ोटों को लगभग डेढ़ माह होने को आया, जैसी की पूरी सम्भावना थी कि भारत के नेताओं से कुछ नहीं होने वाला और इस देश के मिजाज़ को समझने वाले अधिकतर लोग आशंकित थे कि पाकिस्तान के खिलाफ़ गुस्से का यह वक्ती जोश बहुत जल्दी ठण्डा पड़ जायेगा, ठीक वैसा ही हुआ… 40 आतंकवादियों की लिस्ट से शुरु करके धीरे से 20 पर आ गये, फ़िर “सैम अंकल” के कहने पर सिर्फ़ एक लखवी पर आ गये और अब तो अमेरिका की शह पर पाकिस्तान खुलेआम कह रहा है कि किसी को भारत को सौंपने का सवाल ही नहीं है… तमाम विद्वान सलाहें दे रहे हैं कि भले ही युद्ध न लड़ा जाये, लेकिन कुछ तो ऐसे कदम उठाना चाहिये कि दुनिया को लगे कि हम पाकिस्तान के खिलाफ़ गम्भीर हैं, कुछ तो ऐसा करें कि जिससे विश्व जनमत को लगे कि हम आतंकवाद के जनक, आतंकवाद के गढ़ को खत्म करने के लिये कटिबद्ध हैं। इसकी बजाय सोनिया जी के सिपहसालार क्या कर रहे हैं देखिये… एक मंत्री कहते हैं कि पाकिस्तान को “मोस्ट फ़ेवर्ड नेशन” (MFN) का दर्जा जारी रहेगा (यानी जब भी भारत की जनता बम विस्फ़ोट से मरना चाहेगी, बांग्लादेश से पहले पाकिस्तान “मोस्ट फ़ेवर्ड” देश होगा), पूर्व गृहमंत्री पाटिल साहब अभी भी “उसी पुराने चोले” में हैं, वे फ़रमाते हैं, “अफ़ज़ल गुरु को फ़ाँसी देने की इतनी जल्दी क्या है?” (अभी उसे भारत की छाती पर और मूँग दलने दो), हमारे नये-नवेले गृहमंत्री अमेरिका की यात्रा पर जा रहे हैं, वहाँ पर वे अमेरिका को पाकिस्तान के खिलाफ़ सबूत देंगे (इज़राइल ने कभी भी हमास के खिलाफ़ की सबूत नहीं दिया, न ही अमेरिका ने अफ़गानिस्तान-इराक के खिलाफ़ कोई सबूत दिया), “पपू” प्रधानमंत्री (ना, ना, ना…“पप्पू” नहीं, बल्कि परम पूज्य) कहते हैं कि “पाकिस्तान को हम बताना चाहते हैं कि आतंकवाद को समाप्त करने के लिये हम किसी भी हद तक जा सकते हैं…” (यानी कि अफ़ज़ल गुरु को माफ़ करने की हद तक भी जा सकते हैं), “भारत के सभी विकल्प खुले हैं…” (यानी कि पिछवाड़े में दुम दबाकर बैठ जाने का विकल्प)।
उधर पुंछ में मेंढर के जंगलों में जैश के आतंकवादियों ने पक्के कंक्रीट के बंकर बना लिये हैं और महीनों की सामग्री जमा कर ली है, हमारे सुरक्षाबल कह रहे हैं कि “स्थानीय” मदद के बिना यह सम्भव नहीं है (यही बात मुम्बई हमले के वक्त भी कही गई थी), लेकिन कांग्रेस पहले आतंकवादियों की पार्टी (पीडीपी) के साथ सत्ता की मलाई चख रही थी, अब “नाकारा” नेशनल कांफ़्रेंस के साथ मजे मार रही है, लेकिन पाकिस्तानियों की हमारे देश में आवाजाही लगातार जारी है। सोच-सोचकर हैरत होती है कि वे लोग कितने मूर्ख होंगे जो यह सोचते हैं कि पाकिस्तान कभी भारत का दोस्त भी बन सकता है। जिस देश का विभाजन/गठन ही धार्मिक आधार पर हुआ, जिसके मदरसों में कट्टर इस्लामिक शिक्षा दी जाती हो, जो देश भारत के हाथों चार-चार बार पिट चुका हो, जिसके दो टुकड़े हमने किये हों… क्या ऐसा देश कभी हमारा दोस्त हो सकता है? एक बार दोनों जर्मनी एकत्रित हो सकते हैं, दोनो कोरिया आपस में दोस्त बन सकते हैं, लेकिन हमारे हाथों से पिटा हुआ एक मुस्लिम देश कभी भी मूर्तिपूजकों के देश का दोस्त नहीं बन सकता, लेकिन इतनी सी बात भी उच्च स्तर पर बैठे लोगों को समझ में नहीं आती?… तरस आता है…
अब तो लगने लगा है कि वाजपेयी जी ने पोखरण परमाणु विस्फ़ोट करके बहुत बड़ी गलती कर दी थी… कैसे? बताता हूँ… ज़रा सोचिये यदि वाजपेयी पोखरण-2 का परीक्षण ना करते और घोषित रूप से परमाणु बम होने की गर्जना ना करते, तो पाकिस्तान जो कि पोखरण के बाद पगलाये हुए साँड की तरह किसी भी तरह से परमाणु शक्ति बनने को तिलमिला रहा था, वह भी खुलेआम परमाणु शक्ति न बनता… “खुलेआम” कहने का मतलब यह है कि यह समूचा विश्व जानता है कि पाकिस्तान का परमाणु बम “चोरी” का है, यह बात भी सभी जानते हैं कि न सिर्फ़ पाकिस्तान, बल्कि ईरान और उत्तर कोरिया जैसे कई देश परमाणु बम शक्ति सम्पन्न हैं, लेकिन “अघोषित” रूप से… ऐसे में यदि न हम परमाणु बम की घोषणा करते, न ही हमारा नकलची पड़ोसी देखादेखी में परमाणु बम बनाता, तब स्थिति यह थी कि “बँधी मुठ्ठी लाख की खुल गई तो फ़िर खाक की…” लेकिन दोनों पार्टियों ने सारे विश्व को बता दिया कि “हाँ हमारे पास परमाणु बम है…”। अब होता यह है कि जब भी भारत, “पाकिस्तान को धोने के मूड” में आता है, सारा विश्व और सारे विश्व के साथ-साथ भारत में भी काफ़ी लोग इस बात से आशंकित हो जाते हैं कि कहीं “परमाणु युद्ध” न छिड़ जाये… इसलिये शान्ति बनाये रखो… पाकिस्तान जैसा गिरा हुआ देश भी परमाणु बम की धमकी देकर अमेरिका और बाकी देशों को इस बात के लिये राजी कर लेता है कि वे “भारत को समझायें…” रही बात भारत की तो वह तो “समझने” को तैयार ही बैठा रहता है, और कुल मिलाकर सेनाओं को सीमाओं तक ले जाकर बासी कढ़ी का उबाल थोड़े समय में ठण्डा पड़ जाता है, और ऐसा दो बार हो चुका है… जबकि उधर देखिये इज़राइल भले ही जानता हो कि ईरान एक “अघोषित” परमाणु शक्ति है, लेकिन चूँकि हमास या फ़िलीस्तीन के पक्ष में वह इस हद तक नहीं जा सकता, सो जब मर्जी होती है इज़राइल हमास पर टूट पड़ता है…
चलो माना कि किसी को पता नहीं है कि आखिर पाकिस्तान में “परमाणु बटन” पर किसका कंट्रोल है, या यह भी नहीं पता कि पाकिस्तान से कितने परमाणु बम आतंकवादियों के हाथ में पहुँच सकते हैं, या आतंकवादियों की पहुँच में हैं… सो हम युद्ध करने का खतरा मोल नहीं ले सकते… लेकिन पाकिस्तान से सम्बन्ध तो खत्म कर सकते हैं, उसके पेट पर लात तो मार सकते हैं (जो लोग इस बात के समर्थक हैं कि “आर्थिक रूप से मजबूत पाकिस्तान”, भारत का दोस्त बन सकता है, वे भी भारी मुगालते में हैं), पाकिस्तान की आर्थिक नाकेबन्दी करें, उसके साथ सभी सम्बन्ध खत्म करें, उसके नकली राजदूत (जो कि आईएसआई का एजेंट होने की पूरी सम्भावना है) को देश से निकाल बाहर करें, पाकिस्तान के साथ आयात-निर्यात खत्म करें, उधर से आने वाले कलाकारों, खिलाड़ियों पर प्रतिबन्ध लगायें, पाकिस्तान आने-जाने वाली तमाम हवाई उड़ानों को भारत के ऊपर से उड़ने की अनुमति रद्द की जाये… सिर्फ़ एक छोटा सा उदाहरण देखें – यदि पाकिस्तान एयरलाइंस की सभी उड़ानों को भारत के उड़ान क्षेत्र से न उड़ने दिया जाये तो क्या होगा… पाकिस्तान से दक्षिण-पूर्व एशिया और ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैण्ड आदि देशों को जाने वाले विमानों को कितना बड़ा चक्कर लगाकर जाना पड़ेगा, पाकिस्तान से बांग्लादेश या श्रीलंका जाने वाले विमानों को कहाँ-कहाँ से घूमकर जाना पड़ेगा… पाकिस्तान का कितना नुकसान होगा, कश्मीर घाटी में नदियों और पानी पर हमारा नियन्त्रण है, हम जब चाहें पाकिस्तान को सूखा या बाढ़ दे सकते हैं, देना चाहिये… इस सम्बन्ध में अन्तर्राष्ट्रीय नियम-कानूनों की दुहाई दी जायेगी, लेकिन यदि वाकई “महाशक्ति” बन के दिखाना है तो भारत को नुकसान दे सकने वाले नियम-कानून नहीं मानने चाहिये, अमेरिका या चीन कौन से सारे अन्तर्राष्ट्रीय कानून मानते हैं? संक्षेप में यह कि जब तक हम ही विश्व को यह संकेत नहीं देंगे कि पाकिस्तान एक “खुजली वाला कुत्ता” है और जो भी उससे सम्बन्ध रखेगा, वह हमसे मधुर सम्बन्ध की आशा न रखे… बस एक संकेत भर की देर है, पाकिस्तान पर ऐसा भारी दबाव बनेगा कि उसे सम्भालना मुश्किल हो जायेगा… लेकिन कांग्रेस हो या भाजपा दोनों से ऐसी उम्मीद करना बेकार है, वाजपेयी ने मुशर्रफ़ का लाल कालीन बिछाकर स्वागत किया था, आडवाणी जिन्ना की मज़ार पर हो आये, तो कांग्रेस इज़राईल की आलोचना कर रही है… और फ़िलीस्तीन जैसे “सड़ल्ले देश” को दिल्ली की बेशकीमती जमीन पर दूतावास खोलने दिया जा रहा है… दूसरी तरफ़ “मोमबत्ती ब्रिगेड” भी “हैप्पी न्यू ईयर” की खुमारी में खो चुकी है… हमारे विदेश मंत्रालय के अधिकारी इतने पढ़े-लिखे हैं फ़िर भी यह बात क्यों नहीं समझते कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति-कूटनीति में कोई भी “स्थायी दोस्त या दुश्मन” नहीं होता, न वहाँ भावनाओं का कोई महत्व है, न ही किये गये वादों का… बस अपने देश का फ़ायदा किसमें है सिर्फ़ यह देखा जाता है… ये छोटी सी बात समझाने के लिये क्या आसमान से देवता आयेंगे? “नकली सेकुलरिज़्म” और “थकेले” नेताओं ने इस देश को कहीं का नहीं छोड़ा…
India Pakistan Relations, Terrorism and Pakistan, Pakistan Exports and Nuclear Bomb, Nuclear Power Pakistan and India, War between India and Pakistan, Hamas America and Israel, Pokharan 2 and Vajpayee, Terrorists in Pakistan, ISI and Pakistan Army, भारत-पाकिस्तान युद्ध, आतंकवाद, भारत और पाकिस्तान, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था और भारत, अमेरिका, इसराइल और हमास, परमाणु बम, पाकिस्तान और भारत, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
मुम्बई हमले और बम विस्फ़ोटों को लगभग डेढ़ माह होने को आया, जैसी की पूरी सम्भावना थी कि भारत के नेताओं से कुछ नहीं होने वाला और इस देश के मिजाज़ को समझने वाले अधिकतर लोग आशंकित थे कि पाकिस्तान के खिलाफ़ गुस्से का यह वक्ती जोश बहुत जल्दी ठण्डा पड़ जायेगा, ठीक वैसा ही हुआ… 40 आतंकवादियों की लिस्ट से शुरु करके धीरे से 20 पर आ गये, फ़िर “सैम अंकल” के कहने पर सिर्फ़ एक लखवी पर आ गये और अब तो अमेरिका की शह पर पाकिस्तान खुलेआम कह रहा है कि किसी को भारत को सौंपने का सवाल ही नहीं है… तमाम विद्वान सलाहें दे रहे हैं कि भले ही युद्ध न लड़ा जाये, लेकिन कुछ तो ऐसे कदम उठाना चाहिये कि दुनिया को लगे कि हम पाकिस्तान के खिलाफ़ गम्भीर हैं, कुछ तो ऐसा करें कि जिससे विश्व जनमत को लगे कि हम आतंकवाद के जनक, आतंकवाद के गढ़ को खत्म करने के लिये कटिबद्ध हैं। इसकी बजाय सोनिया जी के सिपहसालार क्या कर रहे हैं देखिये… एक मंत्री कहते हैं कि पाकिस्तान को “मोस्ट फ़ेवर्ड नेशन” (MFN) का दर्जा जारी रहेगा (यानी जब भी भारत की जनता बम विस्फ़ोट से मरना चाहेगी, बांग्लादेश से पहले पाकिस्तान “मोस्ट फ़ेवर्ड” देश होगा), पूर्व गृहमंत्री पाटिल साहब अभी भी “उसी पुराने चोले” में हैं, वे फ़रमाते हैं, “अफ़ज़ल गुरु को फ़ाँसी देने की इतनी जल्दी क्या है?” (अभी उसे भारत की छाती पर और मूँग दलने दो), हमारे नये-नवेले गृहमंत्री अमेरिका की यात्रा पर जा रहे हैं, वहाँ पर वे अमेरिका को पाकिस्तान के खिलाफ़ सबूत देंगे (इज़राइल ने कभी भी हमास के खिलाफ़ की सबूत नहीं दिया, न ही अमेरिका ने अफ़गानिस्तान-इराक के खिलाफ़ कोई सबूत दिया), “पपू” प्रधानमंत्री (ना, ना, ना…“पप्पू” नहीं, बल्कि परम पूज्य) कहते हैं कि “पाकिस्तान को हम बताना चाहते हैं कि आतंकवाद को समाप्त करने के लिये हम किसी भी हद तक जा सकते हैं…” (यानी कि अफ़ज़ल गुरु को माफ़ करने की हद तक भी जा सकते हैं), “भारत के सभी विकल्प खुले हैं…” (यानी कि पिछवाड़े में दुम दबाकर बैठ जाने का विकल्प)।
उधर पुंछ में मेंढर के जंगलों में जैश के आतंकवादियों ने पक्के कंक्रीट के बंकर बना लिये हैं और महीनों की सामग्री जमा कर ली है, हमारे सुरक्षाबल कह रहे हैं कि “स्थानीय” मदद के बिना यह सम्भव नहीं है (यही बात मुम्बई हमले के वक्त भी कही गई थी), लेकिन कांग्रेस पहले आतंकवादियों की पार्टी (पीडीपी) के साथ सत्ता की मलाई चख रही थी, अब “नाकारा” नेशनल कांफ़्रेंस के साथ मजे मार रही है, लेकिन पाकिस्तानियों की हमारे देश में आवाजाही लगातार जारी है। सोच-सोचकर हैरत होती है कि वे लोग कितने मूर्ख होंगे जो यह सोचते हैं कि पाकिस्तान कभी भारत का दोस्त भी बन सकता है। जिस देश का विभाजन/गठन ही धार्मिक आधार पर हुआ, जिसके मदरसों में कट्टर इस्लामिक शिक्षा दी जाती हो, जो देश भारत के हाथों चार-चार बार पिट चुका हो, जिसके दो टुकड़े हमने किये हों… क्या ऐसा देश कभी हमारा दोस्त हो सकता है? एक बार दोनों जर्मनी एकत्रित हो सकते हैं, दोनो कोरिया आपस में दोस्त बन सकते हैं, लेकिन हमारे हाथों से पिटा हुआ एक मुस्लिम देश कभी भी मूर्तिपूजकों के देश का दोस्त नहीं बन सकता, लेकिन इतनी सी बात भी उच्च स्तर पर बैठे लोगों को समझ में नहीं आती?… तरस आता है…
अब तो लगने लगा है कि वाजपेयी जी ने पोखरण परमाणु विस्फ़ोट करके बहुत बड़ी गलती कर दी थी… कैसे? बताता हूँ… ज़रा सोचिये यदि वाजपेयी पोखरण-2 का परीक्षण ना करते और घोषित रूप से परमाणु बम होने की गर्जना ना करते, तो पाकिस्तान जो कि पोखरण के बाद पगलाये हुए साँड की तरह किसी भी तरह से परमाणु शक्ति बनने को तिलमिला रहा था, वह भी खुलेआम परमाणु शक्ति न बनता… “खुलेआम” कहने का मतलब यह है कि यह समूचा विश्व जानता है कि पाकिस्तान का परमाणु बम “चोरी” का है, यह बात भी सभी जानते हैं कि न सिर्फ़ पाकिस्तान, बल्कि ईरान और उत्तर कोरिया जैसे कई देश परमाणु बम शक्ति सम्पन्न हैं, लेकिन “अघोषित” रूप से… ऐसे में यदि न हम परमाणु बम की घोषणा करते, न ही हमारा नकलची पड़ोसी देखादेखी में परमाणु बम बनाता, तब स्थिति यह थी कि “बँधी मुठ्ठी लाख की खुल गई तो फ़िर खाक की…” लेकिन दोनों पार्टियों ने सारे विश्व को बता दिया कि “हाँ हमारे पास परमाणु बम है…”। अब होता यह है कि जब भी भारत, “पाकिस्तान को धोने के मूड” में आता है, सारा विश्व और सारे विश्व के साथ-साथ भारत में भी काफ़ी लोग इस बात से आशंकित हो जाते हैं कि कहीं “परमाणु युद्ध” न छिड़ जाये… इसलिये शान्ति बनाये रखो… पाकिस्तान जैसा गिरा हुआ देश भी परमाणु बम की धमकी देकर अमेरिका और बाकी देशों को इस बात के लिये राजी कर लेता है कि वे “भारत को समझायें…” रही बात भारत की तो वह तो “समझने” को तैयार ही बैठा रहता है, और कुल मिलाकर सेनाओं को सीमाओं तक ले जाकर बासी कढ़ी का उबाल थोड़े समय में ठण्डा पड़ जाता है, और ऐसा दो बार हो चुका है… जबकि उधर देखिये इज़राइल भले ही जानता हो कि ईरान एक “अघोषित” परमाणु शक्ति है, लेकिन चूँकि हमास या फ़िलीस्तीन के पक्ष में वह इस हद तक नहीं जा सकता, सो जब मर्जी होती है इज़राइल हमास पर टूट पड़ता है…
चलो माना कि किसी को पता नहीं है कि आखिर पाकिस्तान में “परमाणु बटन” पर किसका कंट्रोल है, या यह भी नहीं पता कि पाकिस्तान से कितने परमाणु बम आतंकवादियों के हाथ में पहुँच सकते हैं, या आतंकवादियों की पहुँच में हैं… सो हम युद्ध करने का खतरा मोल नहीं ले सकते… लेकिन पाकिस्तान से सम्बन्ध तो खत्म कर सकते हैं, उसके पेट पर लात तो मार सकते हैं (जो लोग इस बात के समर्थक हैं कि “आर्थिक रूप से मजबूत पाकिस्तान”, भारत का दोस्त बन सकता है, वे भी भारी मुगालते में हैं), पाकिस्तान की आर्थिक नाकेबन्दी करें, उसके साथ सभी सम्बन्ध खत्म करें, उसके नकली राजदूत (जो कि आईएसआई का एजेंट होने की पूरी सम्भावना है) को देश से निकाल बाहर करें, पाकिस्तान के साथ आयात-निर्यात खत्म करें, उधर से आने वाले कलाकारों, खिलाड़ियों पर प्रतिबन्ध लगायें, पाकिस्तान आने-जाने वाली तमाम हवाई उड़ानों को भारत के ऊपर से उड़ने की अनुमति रद्द की जाये… सिर्फ़ एक छोटा सा उदाहरण देखें – यदि पाकिस्तान एयरलाइंस की सभी उड़ानों को भारत के उड़ान क्षेत्र से न उड़ने दिया जाये तो क्या होगा… पाकिस्तान से दक्षिण-पूर्व एशिया और ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैण्ड आदि देशों को जाने वाले विमानों को कितना बड़ा चक्कर लगाकर जाना पड़ेगा, पाकिस्तान से बांग्लादेश या श्रीलंका जाने वाले विमानों को कहाँ-कहाँ से घूमकर जाना पड़ेगा… पाकिस्तान का कितना नुकसान होगा, कश्मीर घाटी में नदियों और पानी पर हमारा नियन्त्रण है, हम जब चाहें पाकिस्तान को सूखा या बाढ़ दे सकते हैं, देना चाहिये… इस सम्बन्ध में अन्तर्राष्ट्रीय नियम-कानूनों की दुहाई दी जायेगी, लेकिन यदि वाकई “महाशक्ति” बन के दिखाना है तो भारत को नुकसान दे सकने वाले नियम-कानून नहीं मानने चाहिये, अमेरिका या चीन कौन से सारे अन्तर्राष्ट्रीय कानून मानते हैं? संक्षेप में यह कि जब तक हम ही विश्व को यह संकेत नहीं देंगे कि पाकिस्तान एक “खुजली वाला कुत्ता” है और जो भी उससे सम्बन्ध रखेगा, वह हमसे मधुर सम्बन्ध की आशा न रखे… बस एक संकेत भर की देर है, पाकिस्तान पर ऐसा भारी दबाव बनेगा कि उसे सम्भालना मुश्किल हो जायेगा… लेकिन कांग्रेस हो या भाजपा दोनों से ऐसी उम्मीद करना बेकार है, वाजपेयी ने मुशर्रफ़ का लाल कालीन बिछाकर स्वागत किया था, आडवाणी जिन्ना की मज़ार पर हो आये, तो कांग्रेस इज़राईल की आलोचना कर रही है… और फ़िलीस्तीन जैसे “सड़ल्ले देश” को दिल्ली की बेशकीमती जमीन पर दूतावास खोलने दिया जा रहा है… दूसरी तरफ़ “मोमबत्ती ब्रिगेड” भी “हैप्पी न्यू ईयर” की खुमारी में खो चुकी है… हमारे विदेश मंत्रालय के अधिकारी इतने पढ़े-लिखे हैं फ़िर भी यह बात क्यों नहीं समझते कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति-कूटनीति में कोई भी “स्थायी दोस्त या दुश्मन” नहीं होता, न वहाँ भावनाओं का कोई महत्व है, न ही किये गये वादों का… बस अपने देश का फ़ायदा किसमें है सिर्फ़ यह देखा जाता है… ये छोटी सी बात समझाने के लिये क्या आसमान से देवता आयेंगे? “नकली सेकुलरिज़्म” और “थकेले” नेताओं ने इस देश को कहीं का नहीं छोड़ा…
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शुक्रवार, 02 जनवरी 2009 17:36
“बाज़ार” की शक्तियाँ “एक दिन का धर्मान्तरण” करने में सफ़ल हैं…
New Year Celebration Marketing & Hindu Traditions
उज्जैन स्थित महाकालेश्वर का मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है और इसका खासा महत्व माना जाता है। यहाँ प्रातःकाल 4 बजे होने वाली “भस्मार्ती” (भस्म-आरती) भी प्रसिद्ध है जिसके लिये देश-विदेश से श्रद्धालु पहुँचते हैं। इस भस्मार्ती में रोज शामिल होने वाले 100 लोगों के अलावा बाहर से आने वालों के लिये 100 विशेष पास जारी किये जाते हैं। गत कुछ वर्षों से देखने में आया है कि 31 दिसम्बर की रात (या कहें कि 1 जनवरी को तड़के) की भस्मार्ती के लिये बहुत भीड़ होने लगी है। श्रद्धालुओं(?) का कहना है कि नववर्ष के पहले दिन का प्रारम्भ वे महाकालेश्वर के दर्शन करने के बाद ही करना चाहते हैं। इस वर्ष भीड़ को देखते हुए उज्जैन जिला प्रशासन ने बाहरी 100 लोगों के अलावा भी थोड़े पास वितरित करने की योजना रखी थी, लेकिन भक्तों(?) की भारी भीड़ के चलते 23 दिसम्बर को ही पास समाप्त हो गये और मन्दिर प्रशासन को लोगों को भस्मार्ती के पास के लिये मना करना पड़ा, जो कि गर्भगृह की क्षमता को देखते हुए उचित कदम था। 23 दिसम्बर से लेकर 31 दिसम्बर तक भक्तों(?) और श्रद्धालुओं(?) ने पास के लिये जुगाड़ लगाईं, जोड़-तोड़ किये, प्रशासनिक अधिकारियों पर दबाव डलवाये, और फ़िर भी कुछ वीवीआईपी अपने रुतबे का जलवा दिखाते हुए भस्मार्ती वाली सुबह मन्दिर में “विशेष गेट और विशेष पास” से घुसने में कामयाब रहे… इस तमाम भूमिका की वजह यह प्रश्न हैं कि “बेजा और ठसियलपने की हद तक जाकर पास जुगाड़ कर नववर्ष के पहले दिन सूर्योदय से पहले ही महाकालेश्वर के दर्शन करने की यह जिद आखिर क्यों?”… क्या इसी खास दिन “इतनी नाजायज़ मेहनत”(?) से सबसे पहले भगवान के दर्शन करने से कोई विशेष पुण्यलाभ मिलने वाला है?… और सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या यह भारत का अथवा हिन्दुओं का नववर्ष है भी?… साफ़तौर पर नहीं। यह दिन तो विशुद्ध रूप से ईसाई नववर्ष है, ईस्वी सन् है। हैदराबाद से प्राप्त समाचारों के अनुसार तिरुपति बालाजी के मुख्य पुजारियों श्री एमवी सौंदाराजन और सीएस गोपालकृष्ण ने बाकायदा एक अपील जारी करके धर्मालुओं(?) को आगाह किया कि ईसाई नववर्ष के इस मौके पर मन्दिर में खामख्वाह भीड़ न बढ़ायें, इस दिन किसी भी प्रकार की विशेष आरती आदि नहीं की जायेगी और न ही मन्दिर के पट खुलने-बन्द होने के समय में बदलाव किया जायेगा। दोनो पुजारियों ने स्पष्ट कहा कि हिन्दुओं का नववर्ष 1 जनवरी से नहीं शुरु होता, तेलुगू लोगों का नववर्ष “उगादि” पर तथा केरल का नववर्ष “विसू” के तौर पर मनाया जाता है, इसलिये ख्रिस्ती नववर्ष के दिन प्रार्थना करने से कोई विशेष आध्यात्मिक लाभ नहीं होने वाला है। इतना सब कुछ बताने के बावजूद कई धर्मालु(?) 1 जनवरी को अलसुबह मन्दिर में भीड़ करने पहुँच गये थे।
भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न धर्म समूहों के नववर्ष अलग-अलग मनाये जाते हैं, फ़िर भी सामान्य तौर पर अप्रैल माह में पड़ने वाला गुड़ी पड़वा (चैत्र शुक्ल प्रथमा) को हिन्दू नववर्ष माना जाता है, इसी प्रकार मुस्लिमों का हिजरी सन और पारसियों आदि के नववर्ष भी साल में अलग-अलग समय पर आते हैं। फ़िर यह ईस्वी सन् को धूमधड़ाके से मनाने की यह परम्परा भारत (और कुछ हद तक समूचे विश्व) में क्यों बढ़ रही है? यदि विश्लेषण किया जाये तो इसके पीछे बाजार की शक्तियाँ प्रमुख होती हैं, जिन्होंने विभिन्न प्रसार माध्यमों के जरिये समूचे विश्व में यह स्थापित कर दिया है कि 1 जनवरी ही नववर्ष है और इसे “धूमधाम से मनाया” जाना चाहिये। जाहिर है कि जिस तरह से वेलेन्टाईन डे, पेरेण्ट्स डे, मदर्स डे, फ़ादर्स डे आदि “कुकुरमुत्ते” दिनोंदिन अपने पैर पसारते जा रहे हैं, उसके पीछे मानसिकता सिर्फ़ और सिर्फ़ “बाजार” है। तर्क देने वाले कह सकते हैं कि आखिर इसमें क्या खराबी है, यदि इस बहाने लोग उत्सवप्रियता का आनन्द लेते हैं और बाजार में पैसे का चलन बढ़ता है तो इसमें क्या बुराई है? सही बात है, कोई बुराई नहीं है… 1 जनवरी जरूर जोरशोर से मनाओ, लेकिन इसके लिये गुड़ी पड़वा को भूलना जरूरी है क्या? जितना धूमधड़ाका, शोरशराबा, हो-हल्ला, पटाखे आदि 31 दिसम्बर की रात को किया जाता है क्या उसका दस प्रतिशत भी हिन्दू नववर्ष को किया जाता है? जितने उल्लास से और अनाप-शनाप पैसा खर्च करके 31 दिसम्बर मनाया जाता है, क्या “उगादि” भी वैसा मनाया जाता है? हिन्दू नववर्ष कब से शुरु होता है इसकी जानकारी का सर्वे किया जाये तो चौंकाने वाले आँकड़े निकल सकते हैं। क्या प्रकारान्तर से यह “एक दिन का धर्मान्तरण” नहीं है? सवाल ये नहीं है कि 1 जनवरी की “मार्केटिंग” सही तरीके से की गई है इसलिये यह अधिक लोकप्रिय है, बल्कि सवाल यह है कि क्या मार्केटिंग कम्पनियाँ अपना माल नहीं बेचेंगी तो हम अपना पारम्परिक धार्मिक नववर्ष भी भूल जायेंगे? दारू पीने और मुर्गे खाने को मिलता है इसलिये 31 दिसम्बर याद रखा जायेगा और चूँकि रात-बेरात लड़कियों के साथ घूमने का मौका नहीं मिलेगा इसलिये गुड़ी पड़वा को भूल जायेंगे? 200 साल की अंग्रेजी मानसिक गुलामी ने धीरे-धीरे भारत की जनता को सांस्कृतिक रूप से खोखला कर दिया है।
2009 साल पहले हुई एक घटना के आधार पर आज समूचा विश्व नववर्ष मनाता है, पश्चिम की अंधी नकल करने में माहिर हम भारतवासी भी देखादेखी ईस्वी नववर्ष मनाने लगे हैं। ऐसे-ऐसे गाँव-कस्बों में भी ढाबों-होटलों आदि में जश्न मनाये जाने लगे हैं जहाँ न तो बिजली ठीक से मिलती है, न ही ढंग की सड़क उपलब्ध है, लेकिन फ़िर भी अंधी दौड़ में सब मिलकर बहे जा रहे हैं, क्या 2009 वर्ष पहले इस दुनिया में कुछ था ही नहीं? या 2009 वर्ष पहले दुनिया में न पंचांग थे, न ही काल गणना की जाती थी? जिस प्रकार धर्म परिवर्तन करने के बाद व्यक्ति उस धर्म के त्यौहारों, परम्पराओं को अपनाने लगता है, उसी प्रकार “बाजार” की शक्तियाँ भारत में “एक दिन का धर्मान्तरण” करने में सफ़ल होती हैं। बच्चे-बूढ़े-जवान सभी देर रात तक एक दूसरे को “हैप्पी न्यू ईयर” कहते पाये जाते हैं, ये और बात है कि इनमें से 20% भी गुड़ी पड़वा को “नूतन वर्ष की शुभकामनायें” कहते हुए नहीं दिखाई देते। क्या सिर्फ़ 200 साल की अंग्रेजी गुलामी और 60 साल की आज़ादी(??) में हमारा इतना सांस्कृतिक क्षरण हो गया? कि हम “अपने” ही त्यौहार भूलने लगे हैं। और यदि वाकई में पश्चिम की नकल करना है तो उनकी समय की पाबन्दी की करो, अधिकार के साथ-साथ नागरिक कर्तव्यों के निर्वहन की नकल करो, उनके छोटे-छोटे कानूनों के पालन की नकल करो, उनके सफ़ाईपसन्द व्यवहार की नकल करो, उनके कतार में खड़े रहने की नकल करो… लेकिन भारत के अकर्मण्य और पलायनवादी लोग आसान काम की नकल करते हैं, कठिन काम की नहीं, और आसान काम है पश्चिम की देखादेखी फ़लाने-डे, ढिमाके-डे और न्यू ईयर की फ़ूहड़ डांस पार्टियों की नकल।
अन्तिम पंच लाईन - हिन्दुओं में ही सर्वाधिक धर्मान्तरण क्यों होता है इसका जवाब अगले दो सवालों में है – 1) कितने मुस्लिम हैं जो इस “अंग्रेजी नववर्ष के उपलक्ष्य में” मस्जिदों में विशेष नमाज अदा करने जाते हैं? 2) भारत में कितने चर्च हैं जहाँ गुड़ी पड़वा या उगादि के दिन विशेष घंटियाँ बजाई जाती हैं? ज़रा सोचिये कि हम कहाँ जा रहे हैं… आप कितने ही दरियादिल, कितने ही “सेकुलर”(?), कितने ही “सर्वधर्मसमभाववादी” क्यों न हों, “यदि आप मौसी को माँ कहना चाहते हैं तो शौक से कहें, लेकिन ‘माँ’ को न भूलें…”
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उज्जैन स्थित महाकालेश्वर का मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है और इसका खासा महत्व माना जाता है। यहाँ प्रातःकाल 4 बजे होने वाली “भस्मार्ती” (भस्म-आरती) भी प्रसिद्ध है जिसके लिये देश-विदेश से श्रद्धालु पहुँचते हैं। इस भस्मार्ती में रोज शामिल होने वाले 100 लोगों के अलावा बाहर से आने वालों के लिये 100 विशेष पास जारी किये जाते हैं। गत कुछ वर्षों से देखने में आया है कि 31 दिसम्बर की रात (या कहें कि 1 जनवरी को तड़के) की भस्मार्ती के लिये बहुत भीड़ होने लगी है। श्रद्धालुओं(?) का कहना है कि नववर्ष के पहले दिन का प्रारम्भ वे महाकालेश्वर के दर्शन करने के बाद ही करना चाहते हैं। इस वर्ष भीड़ को देखते हुए उज्जैन जिला प्रशासन ने बाहरी 100 लोगों के अलावा भी थोड़े पास वितरित करने की योजना रखी थी, लेकिन भक्तों(?) की भारी भीड़ के चलते 23 दिसम्बर को ही पास समाप्त हो गये और मन्दिर प्रशासन को लोगों को भस्मार्ती के पास के लिये मना करना पड़ा, जो कि गर्भगृह की क्षमता को देखते हुए उचित कदम था। 23 दिसम्बर से लेकर 31 दिसम्बर तक भक्तों(?) और श्रद्धालुओं(?) ने पास के लिये जुगाड़ लगाईं, जोड़-तोड़ किये, प्रशासनिक अधिकारियों पर दबाव डलवाये, और फ़िर भी कुछ वीवीआईपी अपने रुतबे का जलवा दिखाते हुए भस्मार्ती वाली सुबह मन्दिर में “विशेष गेट और विशेष पास” से घुसने में कामयाब रहे… इस तमाम भूमिका की वजह यह प्रश्न हैं कि “बेजा और ठसियलपने की हद तक जाकर पास जुगाड़ कर नववर्ष के पहले दिन सूर्योदय से पहले ही महाकालेश्वर के दर्शन करने की यह जिद आखिर क्यों?”… क्या इसी खास दिन “इतनी नाजायज़ मेहनत”(?) से सबसे पहले भगवान के दर्शन करने से कोई विशेष पुण्यलाभ मिलने वाला है?… और सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या यह भारत का अथवा हिन्दुओं का नववर्ष है भी?… साफ़तौर पर नहीं। यह दिन तो विशुद्ध रूप से ईसाई नववर्ष है, ईस्वी सन् है। हैदराबाद से प्राप्त समाचारों के अनुसार तिरुपति बालाजी के मुख्य पुजारियों श्री एमवी सौंदाराजन और सीएस गोपालकृष्ण ने बाकायदा एक अपील जारी करके धर्मालुओं(?) को आगाह किया कि ईसाई नववर्ष के इस मौके पर मन्दिर में खामख्वाह भीड़ न बढ़ायें, इस दिन किसी भी प्रकार की विशेष आरती आदि नहीं की जायेगी और न ही मन्दिर के पट खुलने-बन्द होने के समय में बदलाव किया जायेगा। दोनो पुजारियों ने स्पष्ट कहा कि हिन्दुओं का नववर्ष 1 जनवरी से नहीं शुरु होता, तेलुगू लोगों का नववर्ष “उगादि” पर तथा केरल का नववर्ष “विसू” के तौर पर मनाया जाता है, इसलिये ख्रिस्ती नववर्ष के दिन प्रार्थना करने से कोई विशेष आध्यात्मिक लाभ नहीं होने वाला है। इतना सब कुछ बताने के बावजूद कई धर्मालु(?) 1 जनवरी को अलसुबह मन्दिर में भीड़ करने पहुँच गये थे।
भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न धर्म समूहों के नववर्ष अलग-अलग मनाये जाते हैं, फ़िर भी सामान्य तौर पर अप्रैल माह में पड़ने वाला गुड़ी पड़वा (चैत्र शुक्ल प्रथमा) को हिन्दू नववर्ष माना जाता है, इसी प्रकार मुस्लिमों का हिजरी सन और पारसियों आदि के नववर्ष भी साल में अलग-अलग समय पर आते हैं। फ़िर यह ईस्वी सन् को धूमधड़ाके से मनाने की यह परम्परा भारत (और कुछ हद तक समूचे विश्व) में क्यों बढ़ रही है? यदि विश्लेषण किया जाये तो इसके पीछे बाजार की शक्तियाँ प्रमुख होती हैं, जिन्होंने विभिन्न प्रसार माध्यमों के जरिये समूचे विश्व में यह स्थापित कर दिया है कि 1 जनवरी ही नववर्ष है और इसे “धूमधाम से मनाया” जाना चाहिये। जाहिर है कि जिस तरह से वेलेन्टाईन डे, पेरेण्ट्स डे, मदर्स डे, फ़ादर्स डे आदि “कुकुरमुत्ते” दिनोंदिन अपने पैर पसारते जा रहे हैं, उसके पीछे मानसिकता सिर्फ़ और सिर्फ़ “बाजार” है। तर्क देने वाले कह सकते हैं कि आखिर इसमें क्या खराबी है, यदि इस बहाने लोग उत्सवप्रियता का आनन्द लेते हैं और बाजार में पैसे का चलन बढ़ता है तो इसमें क्या बुराई है? सही बात है, कोई बुराई नहीं है… 1 जनवरी जरूर जोरशोर से मनाओ, लेकिन इसके लिये गुड़ी पड़वा को भूलना जरूरी है क्या? जितना धूमधड़ाका, शोरशराबा, हो-हल्ला, पटाखे आदि 31 दिसम्बर की रात को किया जाता है क्या उसका दस प्रतिशत भी हिन्दू नववर्ष को किया जाता है? जितने उल्लास से और अनाप-शनाप पैसा खर्च करके 31 दिसम्बर मनाया जाता है, क्या “उगादि” भी वैसा मनाया जाता है? हिन्दू नववर्ष कब से शुरु होता है इसकी जानकारी का सर्वे किया जाये तो चौंकाने वाले आँकड़े निकल सकते हैं। क्या प्रकारान्तर से यह “एक दिन का धर्मान्तरण” नहीं है? सवाल ये नहीं है कि 1 जनवरी की “मार्केटिंग” सही तरीके से की गई है इसलिये यह अधिक लोकप्रिय है, बल्कि सवाल यह है कि क्या मार्केटिंग कम्पनियाँ अपना माल नहीं बेचेंगी तो हम अपना पारम्परिक धार्मिक नववर्ष भी भूल जायेंगे? दारू पीने और मुर्गे खाने को मिलता है इसलिये 31 दिसम्बर याद रखा जायेगा और चूँकि रात-बेरात लड़कियों के साथ घूमने का मौका नहीं मिलेगा इसलिये गुड़ी पड़वा को भूल जायेंगे? 200 साल की अंग्रेजी मानसिक गुलामी ने धीरे-धीरे भारत की जनता को सांस्कृतिक रूप से खोखला कर दिया है।
2009 साल पहले हुई एक घटना के आधार पर आज समूचा विश्व नववर्ष मनाता है, पश्चिम की अंधी नकल करने में माहिर हम भारतवासी भी देखादेखी ईस्वी नववर्ष मनाने लगे हैं। ऐसे-ऐसे गाँव-कस्बों में भी ढाबों-होटलों आदि में जश्न मनाये जाने लगे हैं जहाँ न तो बिजली ठीक से मिलती है, न ही ढंग की सड़क उपलब्ध है, लेकिन फ़िर भी अंधी दौड़ में सब मिलकर बहे जा रहे हैं, क्या 2009 वर्ष पहले इस दुनिया में कुछ था ही नहीं? या 2009 वर्ष पहले दुनिया में न पंचांग थे, न ही काल गणना की जाती थी? जिस प्रकार धर्म परिवर्तन करने के बाद व्यक्ति उस धर्म के त्यौहारों, परम्पराओं को अपनाने लगता है, उसी प्रकार “बाजार” की शक्तियाँ भारत में “एक दिन का धर्मान्तरण” करने में सफ़ल होती हैं। बच्चे-बूढ़े-जवान सभी देर रात तक एक दूसरे को “हैप्पी न्यू ईयर” कहते पाये जाते हैं, ये और बात है कि इनमें से 20% भी गुड़ी पड़वा को “नूतन वर्ष की शुभकामनायें” कहते हुए नहीं दिखाई देते। क्या सिर्फ़ 200 साल की अंग्रेजी गुलामी और 60 साल की आज़ादी(??) में हमारा इतना सांस्कृतिक क्षरण हो गया? कि हम “अपने” ही त्यौहार भूलने लगे हैं। और यदि वाकई में पश्चिम की नकल करना है तो उनकी समय की पाबन्दी की करो, अधिकार के साथ-साथ नागरिक कर्तव्यों के निर्वहन की नकल करो, उनके छोटे-छोटे कानूनों के पालन की नकल करो, उनके सफ़ाईपसन्द व्यवहार की नकल करो, उनके कतार में खड़े रहने की नकल करो… लेकिन भारत के अकर्मण्य और पलायनवादी लोग आसान काम की नकल करते हैं, कठिन काम की नहीं, और आसान काम है पश्चिम की देखादेखी फ़लाने-डे, ढिमाके-डे और न्यू ईयर की फ़ूहड़ डांस पार्टियों की नकल।
अन्तिम पंच लाईन - हिन्दुओं में ही सर्वाधिक धर्मान्तरण क्यों होता है इसका जवाब अगले दो सवालों में है – 1) कितने मुस्लिम हैं जो इस “अंग्रेजी नववर्ष के उपलक्ष्य में” मस्जिदों में विशेष नमाज अदा करने जाते हैं? 2) भारत में कितने चर्च हैं जहाँ गुड़ी पड़वा या उगादि के दिन विशेष घंटियाँ बजाई जाती हैं? ज़रा सोचिये कि हम कहाँ जा रहे हैं… आप कितने ही दरियादिल, कितने ही “सेकुलर”(?), कितने ही “सर्वधर्मसमभाववादी” क्यों न हों, “यदि आप मौसी को माँ कहना चाहते हैं तो शौक से कहें, लेकिन ‘माँ’ को न भूलें…”
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