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बुधवार, 09 अप्रैल 2008 20:53
केन्द्र सरकार को भूटिया ने जमाई “किक” और किरण बेदी ने जड़ा “तमाचा”…
China Tibet Human Rights India Coca Cola
ओलम्पिक मशाल भारत आने वाली है, ऐसी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की जा रही है, मानो हजारों आतंकवादी देश में घुस आये हों और नेताओं को बस मारने ही वाले हों। प्रणव मुखर्जी साहब दलाई लामा को सरेआम धमका रहे हैं कि “वे राजनीति नहीं करें” (हुर्रियत नेता चाहे जो बकवास करें, दलाई लामा कुछ नहीं बोल सकते, है ना मजेदार!! )। गरज कि चारों तरफ़ अफ़रा-तफ़री का माहौल बना हुआ है। इस माहौल में देश की पहली महिला आईपीएस अफ़सर किरण बेदी ने ओलम्पिक मशाल थामने से इंकार कर दिया है। उन्होंने कहा है कि “पिंजरे में बन्द कैदी की तरह मशाल लेकर दौड़ने का कोई मतलब नहीं है…”। असल में सरकार तिब्बती प्रदर्शनकारियों से इतना डर गई है कि उसने दौड़ मार्ग को जालियों से ढाँक दिया है, चप्पे-चप्पे पर पुलिस और सेना के जवान तैनात हैं। बेदी ने इसका विरोध करते हुए कहा कि इस “घुटन” भरे माहौल में वे ओलम्पिक मशाल लेकर नहीं दौड़ सकतीं। इसके पहले फ़ुटबॉल खिलाड़ी बाइचुंग भूटिया पहले “मर्द” रहे जिन्होंने खुलेआम चीन की आलोचना करते हुए तिब्बत के समर्थन में मशाल लेने से इनकार किया। हालांकि किरण बेदी का तर्क भूटिया से कुछ अलग है, लेकिन मकसद वही है कि “तिब्बत में मानवाधिकारों की रक्षा होनी चाहिये, चीन तिब्बत के नेताओं से बात करे और भारत सरकार चीन से न दबे।
जो बात एक आम आदमी की समझ में आ रही है वह सरकार को समझ नहीं आ रही। सारी दुनिया में चीन का विरोध शुरु हो गया है, हर जगह ओलम्पिक मशाल को विरोध का सामना करना पड़ रहा है। बुश, पुतिन और फ़्रांस-जर्मनी आदि के नेता चीन के नेताओं को फ़ोन करके दलाई लामा से बात करने को कह रहे हैं। लेकिन हम क्या कर रहे हैं? कुछ नहीं सिवाय प्रदर्शनकारियों को धमकाने के। मानो चीन-तिब्बत मसले से हमें कुछ लेना-देना न हो। सदा-सर्वदा मानवाधिकार और गाँधीवाद की दुहाई देने और गीत गाने वाले लोग चीन सरकार के सुर में सुर मिला रहे हैं, बर्मा के फ़ौजी शासकों से चर्चायें कर रहे हैं (पाकिस्तान के फ़ौजी शासकों से बात करना तो मजबूरी है)। .चीन सरेआम अपना घटिया माल भारत में चेप रहा है, बाजार का सन्तुलन बिगाड़ रहा है, अरुणाचल में दिनदहाड़े हमें आँखें दिखा रहा है, हमारी सीमा पर अतिक्रमण कर रहा है, पाकिस्तान से उसका प्रेम जगजाहिर है, वह आधी रात को हमारे राजदूत को बुलाकर डाँट रहा है… लेकिन हमारे वामपंथी नेताओं की “बन्दर घुड़की” के आगे सरकार बेबस नजर आ रही है। चीन ने भारत सरकार को झुकने को कहा तो सरकार लेट ही गई। सबसे अफ़सोसनाक रवैया तथाकथित मानवाधिकारवादियों का रहा, जिन्हें “गाजा पट्टी” की ज्यादा चिंता है, पड़ोसी तिब्बत की नहीं (जाहिर है कि तिब्बती वोट नहीं डालते) ।

असल में सरकार ने चीन की आँख में उंगली करने का एक शानदार और सुनहरा मौका गँवा दिया। जब चीन हमें सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट दिलवाने में हमारी कोई मदद नहीं करने वाला, व्यापार सन्तुलन भी आने वाले वर्षों में उसके ही पक्ष में ही रहने वाला है, गाहे-बगाहे पाकिस्तान को हथियार और परमाणु सामग्री बेचता रहेगा, तो फ़िर हम क्यों और कब तक उसके लिये कालीन बिछाते रहें? लेकिन सरकार कुछ खास पूंजीपतियों (जिनके चीन के साथ व्यापारिक हित जुड़े हुए हैं और जिन्हें आने वाले समय में चीन में कमाई के अवसर दिख रहे हैं) तथा वामपंथियों के आगे पूरी तरह नतमस्तक हो गई है।
बाजारवाद की आँधी में सरकार ने विदेश में अपनी ही खिल्ली उड़वा ली है। इस पूरे विवाद में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बहुत बड़ा रोल है। ओलम्पिक का मतलब है अरबों डॉलर की कमाई, कोकाकोला और रीबॉक जैसी कम्पनियों ने आमिर खान और सचिन तेंडुलकर पर व्यावसायिक दबाव बनाकर मशाल दौड़ के लिये उन्हें राजी कर लिया। यह खेल सिर्फ़ खेल नहीं हैं, बल्कि इन कम्पनियों के लिये भविष्य के बाजार की रणनीति का प्रचार भी होते हैं। सारे विश्व में इन कम्पनियों ने मोटी रकम दे-देकर नामचीन खिलाड़ियों को खरीदा है और “खेल भावना” के नाम पर उन्हें दौड़ाया है, अब आने वाले छः महीनों तक विज्ञापनों में ये लोग मशाल लिये कम्पनियों का माल बेचते नजर आयेंगे। लेकिन भूटिया और किरण बेदी की अंतरात्मा को वे नहीं खरीद सकीं। इन लोगों ने अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर विरोध का दामन थाम लिया है।
हम क्षेत्रीय महाशक्ति होने का दम भरते हैं, किस बिना पर? क्षेत्रीय महाशक्ति ऐसी पिलपिलाये हुए मेमने की तरह नहीं बोला करतीं, और एक बात तो तय है कि यदि भारत सरकार गाँधीवाद और मानवाधिकार की बातें करती है तो भी, और यदि महाशक्ति बनने का ढोंग करती हो तब भी…दोनों परिस्थितियों में उसे तिब्बत के लिये बोलना जरूरी है, लेकिन वह ऐसा नहीं कर रही। पिछले लगभग बीस वर्षों के आर्थिक उदारीकरण के बाद भी हम मतिभ्रम में फ़ँसे हुए हैं कि हमें क्या होना चाहिये, पूर्ण बाजारवादी, गाँधीवादी या सैनिक/आर्थिक महाशक्ति, और इस चक्कर में हम कुछ भी नहीं बन पाये हैं…
Beijing Olympics and Tibet Issue, Olympics and Human Rights, Free Tibet Movement, China and Olympics, Tibet, Dalai Lama, India, Market Economy, Coca Cola, Reebok, Olympics and China, Gandhism, Nuclear Power, Market Forces, Bhutia, Kiran Bedi, Sachin Tendulkar, Aamir Khan, Coca Cola, Communists in India, Policies of China over Tibet and Congress Government, Pakistan, Human Rights, Kashmir and China, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
ओलम्पिक मशाल भारत आने वाली है, ऐसी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की जा रही है, मानो हजारों आतंकवादी देश में घुस आये हों और नेताओं को बस मारने ही वाले हों। प्रणव मुखर्जी साहब दलाई लामा को सरेआम धमका रहे हैं कि “वे राजनीति नहीं करें” (हुर्रियत नेता चाहे जो बकवास करें, दलाई लामा कुछ नहीं बोल सकते, है ना मजेदार!! )। गरज कि चारों तरफ़ अफ़रा-तफ़री का माहौल बना हुआ है। इस माहौल में देश की पहली महिला आईपीएस अफ़सर किरण बेदी ने ओलम्पिक मशाल थामने से इंकार कर दिया है। उन्होंने कहा है कि “पिंजरे में बन्द कैदी की तरह मशाल लेकर दौड़ने का कोई मतलब नहीं है…”। असल में सरकार तिब्बती प्रदर्शनकारियों से इतना डर गई है कि उसने दौड़ मार्ग को जालियों से ढाँक दिया है, चप्पे-चप्पे पर पुलिस और सेना के जवान तैनात हैं। बेदी ने इसका विरोध करते हुए कहा कि इस “घुटन” भरे माहौल में वे ओलम्पिक मशाल लेकर नहीं दौड़ सकतीं। इसके पहले फ़ुटबॉल खिलाड़ी बाइचुंग भूटिया पहले “मर्द” रहे जिन्होंने खुलेआम चीन की आलोचना करते हुए तिब्बत के समर्थन में मशाल लेने से इनकार किया। हालांकि किरण बेदी का तर्क भूटिया से कुछ अलग है, लेकिन मकसद वही है कि “तिब्बत में मानवाधिकारों की रक्षा होनी चाहिये, चीन तिब्बत के नेताओं से बात करे और भारत सरकार चीन से न दबे।
जो बात एक आम आदमी की समझ में आ रही है वह सरकार को समझ नहीं आ रही। सारी दुनिया में चीन का विरोध शुरु हो गया है, हर जगह ओलम्पिक मशाल को विरोध का सामना करना पड़ रहा है। बुश, पुतिन और फ़्रांस-जर्मनी आदि के नेता चीन के नेताओं को फ़ोन करके दलाई लामा से बात करने को कह रहे हैं। लेकिन हम क्या कर रहे हैं? कुछ नहीं सिवाय प्रदर्शनकारियों को धमकाने के। मानो चीन-तिब्बत मसले से हमें कुछ लेना-देना न हो। सदा-सर्वदा मानवाधिकार और गाँधीवाद की दुहाई देने और गीत गाने वाले लोग चीन सरकार के सुर में सुर मिला रहे हैं, बर्मा के फ़ौजी शासकों से चर्चायें कर रहे हैं (पाकिस्तान के फ़ौजी शासकों से बात करना तो मजबूरी है)। .चीन सरेआम अपना घटिया माल भारत में चेप रहा है, बाजार का सन्तुलन बिगाड़ रहा है, अरुणाचल में दिनदहाड़े हमें आँखें दिखा रहा है, हमारी सीमा पर अतिक्रमण कर रहा है, पाकिस्तान से उसका प्रेम जगजाहिर है, वह आधी रात को हमारे राजदूत को बुलाकर डाँट रहा है… लेकिन हमारे वामपंथी नेताओं की “बन्दर घुड़की” के आगे सरकार बेबस नजर आ रही है। चीन ने भारत सरकार को झुकने को कहा तो सरकार लेट ही गई। सबसे अफ़सोसनाक रवैया तथाकथित मानवाधिकारवादियों का रहा, जिन्हें “गाजा पट्टी” की ज्यादा चिंता है, पड़ोसी तिब्बत की नहीं (जाहिर है कि तिब्बती वोट नहीं डालते) ।

असल में सरकार ने चीन की आँख में उंगली करने का एक शानदार और सुनहरा मौका गँवा दिया। जब चीन हमें सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट दिलवाने में हमारी कोई मदद नहीं करने वाला, व्यापार सन्तुलन भी आने वाले वर्षों में उसके ही पक्ष में ही रहने वाला है, गाहे-बगाहे पाकिस्तान को हथियार और परमाणु सामग्री बेचता रहेगा, तो फ़िर हम क्यों और कब तक उसके लिये कालीन बिछाते रहें? लेकिन सरकार कुछ खास पूंजीपतियों (जिनके चीन के साथ व्यापारिक हित जुड़े हुए हैं और जिन्हें आने वाले समय में चीन में कमाई के अवसर दिख रहे हैं) तथा वामपंथियों के आगे पूरी तरह नतमस्तक हो गई है।
बाजारवाद की आँधी में सरकार ने विदेश में अपनी ही खिल्ली उड़वा ली है। इस पूरे विवाद में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बहुत बड़ा रोल है। ओलम्पिक का मतलब है अरबों डॉलर की कमाई, कोकाकोला और रीबॉक जैसी कम्पनियों ने आमिर खान और सचिन तेंडुलकर पर व्यावसायिक दबाव बनाकर मशाल दौड़ के लिये उन्हें राजी कर लिया। यह खेल सिर्फ़ खेल नहीं हैं, बल्कि इन कम्पनियों के लिये भविष्य के बाजार की रणनीति का प्रचार भी होते हैं। सारे विश्व में इन कम्पनियों ने मोटी रकम दे-देकर नामचीन खिलाड़ियों को खरीदा है और “खेल भावना” के नाम पर उन्हें दौड़ाया है, अब आने वाले छः महीनों तक विज्ञापनों में ये लोग मशाल लिये कम्पनियों का माल बेचते नजर आयेंगे। लेकिन भूटिया और किरण बेदी की अंतरात्मा को वे नहीं खरीद सकीं। इन लोगों ने अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर विरोध का दामन थाम लिया है।
हम क्षेत्रीय महाशक्ति होने का दम भरते हैं, किस बिना पर? क्षेत्रीय महाशक्ति ऐसी पिलपिलाये हुए मेमने की तरह नहीं बोला करतीं, और एक बात तो तय है कि यदि भारत सरकार गाँधीवाद और मानवाधिकार की बातें करती है तो भी, और यदि महाशक्ति बनने का ढोंग करती हो तब भी…दोनों परिस्थितियों में उसे तिब्बत के लिये बोलना जरूरी है, लेकिन वह ऐसा नहीं कर रही। पिछले लगभग बीस वर्षों के आर्थिक उदारीकरण के बाद भी हम मतिभ्रम में फ़ँसे हुए हैं कि हमें क्या होना चाहिये, पूर्ण बाजारवादी, गाँधीवादी या सैनिक/आर्थिक महाशक्ति, और इस चक्कर में हम कुछ भी नहीं बन पाये हैं…
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ब्लॉग
रविवार, 06 अप्रैल 2008 18:18
सरकारें चाहती है सभी लोग बेईमान और भ्रष्ट बन जायें…
Corruption, Non-Governance, India, Common Man
हाल ही में उज्जैन नगर निगम ने पानी की दरें 60 रुपये प्रतिमाह से बढ़ाकर 150 रुपये प्रतिमाह कर दी। यानी कि सीधे ढाई गुना बढ़ोतरी। नगर निगम ने अपने आँकड़ों में स्वीकार किया कि वर्तमान में उज्जैन में लगभग 80,000 मकान हैं, जिनमें से करीब 45,000 घरों में वैध नल कनेक्शन हैं और 10,000 घरों में अवैध नल चल रहे हैं। यदि 10,000 अवैध घरों, झुग्गियों आदि को छोड़ भी दिया जाये तो वैध 45,000 घरों में से सिर्फ़ 15,000 से कुछ ही अधिक घरों से जल दर की वसूली हो पाती है, मतलब सिर्फ़ 25% लोगों से पानी का पैसा वसूला जाता है। 10,000 अवैध और 30,000 वैध पानी लेने वालों पर नगर निगम का कोई बस नहीं चलता है। बेशर्मी की पराकाष्ठा तो यह है कि सब कुछ मालूम होने के बावजूद ईमानदारी से पानी का पैसा चुका रहे लोगों पर बोझा बढ़ा कर 60 रुपये से 150 रुपये कर दिया गया। बड़े-बड़े संस्थानों, उद्योगों, राजनेताओं, उनके लगुए-भगुओं-चमचों, पहलवानों, जाति विशेष के नलों, सम्प्रदाय विशेष की कालोनियों के नलों का पैसा खुलेआम जमा नहीं होता। इन परजीवियों (Parasites) को पाल-पोस रहे हैं वे ईमानदार जल उपभोक्ता जो अपना पैसा भरते हैं। भारत में सरकारें निकम्मी होती हैं, ये बात सभी जानते हैं, सब-कुछ जानबूझकर भी रौबदार लोगों पर कोई कठोर कार्रवाई न होना इस बात का सबूत है कि सरकार में इच्छाशक्ति ही नहीं है, कि वह इन “खास” VIP लोगों से पानी का पैसा वसूल कर सके। अब ईमानदार उपभोक्ता यही सवाल पूछ रहा है, कि “मैं ही क्यों पानी का पैसा भरूँ? क्यों न मैं भी चोरी कर लूँ? पहली बात तो सरकार कुछ करेगी नहीं, यदि करने का मन बना भी ले तो नेता हैं बचाने के लिये, जब चोरी बढ़ते-बढ़ते 10-15 हजार रुपये की हो जायेगी, तब सरकार खुद कहेगी कि “अच्छा चलो छोड़ो, चार हजार रुपये दे दो…बाकी का माफ़”।
आँकड़ों के मुताबिक मध्यप्रदेश में बिजली का नुकसान (Loss) करीब-करीब 35% है। इस 35% में से अधिकतर नुकसान ट्रांसमिशन और सप्लाई के दोषों के कारण है। बिजली बिलों की वसूली में हालांकि गत कुछ वर्षों में सख्ती आई है, लेकिन यह सख्ती सिर्फ़ मध्यम वर्ग और आम आदमी के हिस्से ही है। उच्च वर्ग तो अपने उद्योगों में दादागिरी से बिजली चोरी करता है, निम्न वर्ग भी अपनी झोपड़ियों में दादागिरी से हीटर जला रहा है, पिस रहा है मध्यम वर्ग जो ईमानदारी से बिजली का बिल भर रहा है। वह ईमानदार बिजली उपभोक्ता भी सरकार से पूछता है कि अकेले मालनपुर (भिण्ड), पीथमपुर (इन्दौर), मण्डीदीप (भोपाल) जैसे Industrial Area में रोजाना करोड़ों की बिजली चोरी हो रही है, क्यों न मैं भी सीधे तार डालकर बिजली चोरी कर लूँ?
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देश के हर शहर में आधुनिक जमीन चोर हैं। दिल्ली नगर निगम के अधिकारियों से मिलीभगत करके लोगों ने करोड़ों की जमीन अतिक्रमण करके दबा ली, उन पर आलीशान शोरूम, दफ़्तर खोल लिये, लाखों-करोड़ों रुपये कमा लिये, जब उच्चतम न्यायालय ने डंडा चलाया तो दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार किसके पक्ष में खड़ी हुई, चोरों के। सीलिंग को लेकर जमाने भर के अड़ंगे लगाये गये, अतिक्रमणकारी सड़कों पर आकर प्रदर्शन करने लगे, जमीनों पर नाजायज कब्जे वालों ने कहा “हमारा क्या कसूर है?”, और ईमानदारी से नक्शा पास करवाकर, नियमों के मुताबिक “सेट-बैक” छोड़ने वाला, अनुमति लेकर ही दूसरी मंजिल बनाने वाला भी खुद से पूछ रहा है… “मेरा क्या कसूर है?…”
केन्द्र सरकार द्वारा यह घोषित नियम है कि कुकिंग गैस LPG सिर्फ़ घरेलू खाना पकाने के लिये उपयोग की जायेगी, इसका कोई व्यावसायिक उपयोग नहीं होगा। हमें-आपको-आम आदमी को चारों तरफ़ दिखाई दे रहा है कि लगभग सभी होटलों में, ढाबों में, चाय ठेलों पर, छोटे-बड़े मिठाई शो-रूमों पर खुलेआम धड़ल्ले से 450/- रुपये का सिलेण्डर लेकर काम किया जा रहा है। जिनकी कार खरीदने की औकात तो है (लेकिन उसे पेट्रोल से चलाने की औकात नहीं है), वे हर दूसरे रोज अपनी कार में कुकिंग गैस भरवाते नजर आते हैं, या अपने घर की टंकी सरेआम कार में लगाते दिख जाते हैं। लेकिन यह सब कुछ सरकार(?) को नहीं दिखाई देता। सरकार सिर्फ़ नियम बनाने में लगी है – कि अब महीने में सिर्फ़ एक सिलेण्डर दिया जायेगा, कि 25 दिन के पहले गैस का नम्बर नहीं लगाया जायेगा आदि-आदि। आम आदमी जो बचा-बचाकर गैस उपयोग करता है, डीलर की झिड़कियाँ सुनता है, हॉकर की मान-मनौव्वल करता है, वह पूछता है कि “मेरा कसूर क्या है…?” मैं तो गैस चोरी भी नहीं कर सकता।
केन्द्र सरकार की कर्ज माफ़ी (Loan Waiver Scheme) की घोषणा मात्र से अकेले उज्जैन जिले के सहकारी बैंकों के 5000 करोड़ रुपये फ़ँस गये हैं। चूँकि अभी सिर्फ़ घोषणा हुई है, गाइडलाइन नहीं आई हैं, इसलिये लगभग सभी किसानों ने हाथ ऊँचे कर दिये हैं कि “काहे की वसूली… कर्जा तो माफ़ हो गया है…”। अब ईमानदार किसान जिसने बैंक का कर्ज समय पर चुका दिया था, खुद से पूछ रहा है कि उसने क्या गलती कर दी? जो उसे इस प्रकार की सजा मिल गई है।
गरज यह कि चारों तरफ़ खुलेआम लूट मची हुई है हर चीज में हर बात में… जिसका दाँव लग रहा है चोरी कर रहा है, डाके डाल रहा है। सरकार भी उन्हीं के साथ है… निकम्मी सरकारें पानी चोरी नहीं रोक पातीं, बिजली चोरी नहीं रोक पातीं, कुकिंग गैस का व्यावसायिक उपयोग नहीं रोक पातीं, परीक्षाओं में नकल नहीं रोक पातीं, बड़े उद्योगपति से टैक्स वसूल नहीं कर पातीं, अतिक्रमणकर्ता से जमीन खाली नहीं करवा पातीं, कर्ज वसूल नहीं कर पातीं तो उसे माफ़ कर देती हैं…। ऐसा लगता है कि हमारी नपुंसक सरकारों ने ठान लिया है कि कानून-व्यवस्था का राज तो उनसे चलेगा नहीं, क्यों न पूरी जनता को चोर, उठाईगीरा, बेईमान और भ्रष्ट बना दिया जाये… है ना मेरा भारत महान !!!
Delhi Nagar Nigam, Water Supply in Ujjain, Electricity Supply, Electricity Loss in India and MP, Professional use of Cooking Gas, Cooking Gas Cylinder in Black Market, Income Tax Rebate for Industrialists, Farmer’s Loan Waiver Scheme in India, Tax Waiver Scheme for Black Money, Industrial Areas in Madhya Pradesh, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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आँकड़ों के मुताबिक मध्यप्रदेश में बिजली का नुकसान (Loss) करीब-करीब 35% है। इस 35% में से अधिकतर नुकसान ट्रांसमिशन और सप्लाई के दोषों के कारण है। बिजली बिलों की वसूली में हालांकि गत कुछ वर्षों में सख्ती आई है, लेकिन यह सख्ती सिर्फ़ मध्यम वर्ग और आम आदमी के हिस्से ही है। उच्च वर्ग तो अपने उद्योगों में दादागिरी से बिजली चोरी करता है, निम्न वर्ग भी अपनी झोपड़ियों में दादागिरी से हीटर जला रहा है, पिस रहा है मध्यम वर्ग जो ईमानदारी से बिजली का बिल भर रहा है। वह ईमानदार बिजली उपभोक्ता भी सरकार से पूछता है कि अकेले मालनपुर (भिण्ड), पीथमपुर (इन्दौर), मण्डीदीप (भोपाल) जैसे Industrial Area में रोजाना करोड़ों की बिजली चोरी हो रही है, क्यों न मैं भी सीधे तार डालकर बिजली चोरी कर लूँ?
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केन्द्र सरकार की कर्ज माफ़ी (Loan Waiver Scheme) की घोषणा मात्र से अकेले उज्जैन जिले के सहकारी बैंकों के 5000 करोड़ रुपये फ़ँस गये हैं। चूँकि अभी सिर्फ़ घोषणा हुई है, गाइडलाइन नहीं आई हैं, इसलिये लगभग सभी किसानों ने हाथ ऊँचे कर दिये हैं कि “काहे की वसूली… कर्जा तो माफ़ हो गया है…”। अब ईमानदार किसान जिसने बैंक का कर्ज समय पर चुका दिया था, खुद से पूछ रहा है कि उसने क्या गलती कर दी? जो उसे इस प्रकार की सजा मिल गई है।
गरज यह कि चारों तरफ़ खुलेआम लूट मची हुई है हर चीज में हर बात में… जिसका दाँव लग रहा है चोरी कर रहा है, डाके डाल रहा है। सरकार भी उन्हीं के साथ है… निकम्मी सरकारें पानी चोरी नहीं रोक पातीं, बिजली चोरी नहीं रोक पातीं, कुकिंग गैस का व्यावसायिक उपयोग नहीं रोक पातीं, परीक्षाओं में नकल नहीं रोक पातीं, बड़े उद्योगपति से टैक्स वसूल नहीं कर पातीं, अतिक्रमणकर्ता से जमीन खाली नहीं करवा पातीं, कर्ज वसूल नहीं कर पातीं तो उसे माफ़ कर देती हैं…। ऐसा लगता है कि हमारी नपुंसक सरकारों ने ठान लिया है कि कानून-व्यवस्था का राज तो उनसे चलेगा नहीं, क्यों न पूरी जनता को चोर, उठाईगीरा, बेईमान और भ्रष्ट बना दिया जाये… है ना मेरा भारत महान !!!
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शुक्रवार, 04 अप्रैल 2008 12:07
किशोर कुमार जैसी प्रतिभा वाले "सचिन"…
Sachin Pilgaonkar Marathi Films Actor
असल में सचिन का पूरा नाम कई लोग नहीं जानते हैं। उन्हें सिर्फ़ “सचिन” के नाम से जाना जाता रहा है। इसलिये शीर्षक में नाम पढ़कर कई पाठक चौंके होंगे, ये शायद “सचिन” नाम का कुछ जादू है। सचिन तेंडुलकर, सचिन पिलगाँवकर, सचिन खेड़ेकर, सचिन पायलट… बहुत सारे सचिन हैं, हालांकि सचिन तेंडुलकर इन सभी पर अकेले ही भारी पड़ते हैं (वे हैं भी), लेकिन इस लेख में बात हो रही है सचिन पिलगाँवकर की। हिन्दी फ़िल्मों के स्टार और मराठी फ़िल्मों के सुपर स्टार… जी हाँ, ये हैं मासूम चेहरे वाले, सदाबहार दिखाई देने वाले, हमारे-आपके सिर्फ़ “सचिन”।
जब भी मासूम चेहरे की बात होती है, तब सबसे पहले नाम आता है तबस्सुम का और सचिन का, बाकी जुगल हंसराज और शाहिद कपूर आदि सब बाद में आते हैं। जितनी और जैसी प्रतिभा किशोर कुमार में थी, लगभग उतनी ही प्रतिभा या यूँ कहें कि कलाकारी के विविध आयामों के धनी हैं सचिन पिलगाँवकर। अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, गायक, नृत्य निर्देशक, सम्पादक, टीवी सीरियल निर्माता… क्या-क्या नहीं करते हैं ये। (पहले भी मैंने मराठी के दो दिग्गज कलाकारों दादा कोंडके और निळु फ़ुले पर आलेख लिखे हैं, सचिन भी उन्हीं की श्रेणी में आते हैं)
17 अगस्त 1957 को मुम्बई (Mumbai) में एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्में सचिन की परवरिश एक आम मराठी मध्यमवर्गीय परिवार की तरह ही हुई। बचपन से ही उनके मोहक चेहरे के कारण उन्हें फ़िल्मों में काम मिलने लगा था। चाइल्ड आर्टिस्ट के तौर पर उनकी पहली फ़िल्म है “एक और सुहागन”, लेकिन उन्हें असली प्रसिद्धि मिली फ़िल्म “ब्रह्मचारी” से, जिसमें उन्होंने शम्मी कपूर के साथ काम किया और उसके बाद “ज्वेल थीफ़” से जिसमें उन्होंने वैजयन्तीमाला के छोटे भाई का रोल बखूबी निभाया।

“स्वीट सिक्सटीन” की उम्र में पहुँचते ही, उन्हें राजश्री प्रोडक्शन की “गीत गाता चल” में किशोरवय हीरो की भूमिका मिली, जिसमें उनकी हीरोइन थीं सारिका। इस जोड़ी ने फ़िर लगातार कुछ फ़िल्मों में काम किया। यूँ तो सचिन ने कई हिट फ़िल्मों में काम किया, लेकिन उल्लेखनीय फ़िल्मों के तौर पर कही जा सकती है “अँखियों के झरोखे से”, “बालिका वधू”, “अवतार”, “घर एक मन्दिर”, “कॉलेज गर्ल”, “नदिया के पार” आदि। जैसे ही उनकी उम्र थोड़ी बढ़ी (लेकिन चेहरे पर वही मासूमियत बरकरार थी), उन्होंने मैदान न छोड़ते हुए चरित्र भूमिकायें निभाना शुरु कर दिया। “शोले”, “त्रिशूल”, “सत्ते पे सत्ता” आदि में वे दिखाई दिये।

1990 के दशक के शुरुआत में जब टीवी ने पैर पसारना शुरु किया तब वे इस विधा की ओर मुड़े और एक सुपरहिट कॉमेडी शो “तू-तू-मैं-मैं” निर्देशित किया, जिसमें मुख्य भूमिका में थीं उनकी पत्नी सुप्रिया और मराठी रंगमंच और हिन्दी फ़िल्मों की “ग्लैमरस” माँ रीमा लागू। उनका एक और निर्माण था “हद कर दी”। एक अच्छे गायक और संगीतप्रेमी होने के कारण (मराठी हैं, तो होंगे ही) उन्होंने स्टार टीवी पर एक हिट कार्यक्रम “चलती का नाम अंताक्षरी” भी संचालित किया। उम्र के पचासवें वर्ष में उन्होंने एक चुनौती के रूप में स्टार टीवी के नृत्य कार्यक्रम “नच बलिये” (Nach Baliye) में अपनी पत्नी के साथ भाग लिया। सभी प्रतियोगियों में ये जोड़ी सबसे अधिक उम्र की थी। इन्होंने भी सोचा नहीं था कि वे इतने आगे जायेंगे, इसलिये हरेक एपिसोड को ये अपना अन्तिम नृत्य मानकर करते रहे और अन्त में जीत इन्हीं की हुई और इस जोड़ी को इनाम के तौर पर चालीस लाख रुपये मिले। उम्र के इस पड़ाव पर एक डांस के शो में युवाओं को पछाड़कर जीतना वाकई अदभुत है। 2007 में जी टीवी मराठी पर इन्होंने एक शो शुरु किया है, जिसमें ये जज भी बने हैं, नाम है “एका पेक्षा एक” (एक से बढ़कर एक)। इसमें सचिन महाराष्ट्र की युवा नृत्य प्रतिभाओं को खोज रहे हैं। इनके बेदाग, चमकदार और विवादरहित करियर में सिर्फ़ एक बार अप्रिय स्थिति बनी थी, जब इनकी गोद ली हुई पुत्री करिश्मा ने इन पर गलतफ़हमी में कुछ आरोप लगाये थे, हालांकि बाद में मामला सुलझ गया था… वैसे इनकी खुद की एक पुत्री श्रिया है, जो अभी अठारह वर्ष की है।

इससे बरसों पहले अस्सी के दशक में सचिन ने कई मराठी फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें प्रमुख हैं “माई-बाप”, “नवरी मिळे नवरयाला” (इस फ़िल्म के दौरान ही सुप्रिया से उनका इश्क हुआ और शादी हुई), “माझा पती करोड़पती”, “गम्मत-जम्मत” आदि। मराठी के सशक्त अभिनेता अशोक सराफ़ और स्वर्गीय लक्ष्मीकान्त बेर्डे से उनकी खूब दोस्ती जमती है। बच्चों से उनका प्रेम जगजाहिर है, इसीलिये वे स्टार टीवी के बच्चों के एक डांस शो में फ़रीदा जलाल के साथ जज बने हुए हैं। उनकी हिन्दी और उर्दू उच्चारण एकदम शुद्ध हैं, और कोई कह नहीं सकता कि उसमें मराठी “टच” है (जैसा कि सदाशिव अमरापुरकर के उच्चारण में साफ़ झलकता है)। सचिन अपने शुद्ध उच्चारण का पूरा श्रेय स्वर्गीय मीनाकुमारी (Meena Kumari) को देते हैं, जिनके यहाँ वे बचपन में लगातार मिठाई खाने जाते थे और मीनाकुमारी उन्हें पुत्रवत स्नेह प्रदान करती थीं, उनका उर्दू तलफ़्फ़ुज ठीक करती थीं और हिन्दी से उर्दू के तर्जुमें करके देती थीं। नदिया के पार में उनका भोजपुरी का साफ़ उच्चारण इसका सबूत है।
मेहनत, लगन और उत्साह से सतत काम में लगे रहने वाले इस हँसमुख, विनम्र और महान कलाकार को मेरे जैसे एक छोटे से सिनेमाप्रेमी का सलाम…
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17 अगस्त 1957 को मुम्बई (Mumbai) में एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्में सचिन की परवरिश एक आम मराठी मध्यमवर्गीय परिवार की तरह ही हुई। बचपन से ही उनके मोहक चेहरे के कारण उन्हें फ़िल्मों में काम मिलने लगा था। चाइल्ड आर्टिस्ट के तौर पर उनकी पहली फ़िल्म है “एक और सुहागन”, लेकिन उन्हें असली प्रसिद्धि मिली फ़िल्म “ब्रह्मचारी” से, जिसमें उन्होंने शम्मी कपूर के साथ काम किया और उसके बाद “ज्वेल थीफ़” से जिसमें उन्होंने वैजयन्तीमाला के छोटे भाई का रोल बखूबी निभाया।

“स्वीट सिक्सटीन” की उम्र में पहुँचते ही, उन्हें राजश्री प्रोडक्शन की “गीत गाता चल” में किशोरवय हीरो की भूमिका मिली, जिसमें उनकी हीरोइन थीं सारिका। इस जोड़ी ने फ़िर लगातार कुछ फ़िल्मों में काम किया। यूँ तो सचिन ने कई हिट फ़िल्मों में काम किया, लेकिन उल्लेखनीय फ़िल्मों के तौर पर कही जा सकती है “अँखियों के झरोखे से”, “बालिका वधू”, “अवतार”, “घर एक मन्दिर”, “कॉलेज गर्ल”, “नदिया के पार” आदि। जैसे ही उनकी उम्र थोड़ी बढ़ी (लेकिन चेहरे पर वही मासूमियत बरकरार थी), उन्होंने मैदान न छोड़ते हुए चरित्र भूमिकायें निभाना शुरु कर दिया। “शोले”, “त्रिशूल”, “सत्ते पे सत्ता” आदि में वे दिखाई दिये।

1990 के दशक के शुरुआत में जब टीवी ने पैर पसारना शुरु किया तब वे इस विधा की ओर मुड़े और एक सुपरहिट कॉमेडी शो “तू-तू-मैं-मैं” निर्देशित किया, जिसमें मुख्य भूमिका में थीं उनकी पत्नी सुप्रिया और मराठी रंगमंच और हिन्दी फ़िल्मों की “ग्लैमरस” माँ रीमा लागू। उनका एक और निर्माण था “हद कर दी”। एक अच्छे गायक और संगीतप्रेमी होने के कारण (मराठी हैं, तो होंगे ही) उन्होंने स्टार टीवी पर एक हिट कार्यक्रम “चलती का नाम अंताक्षरी” भी संचालित किया। उम्र के पचासवें वर्ष में उन्होंने एक चुनौती के रूप में स्टार टीवी के नृत्य कार्यक्रम “नच बलिये” (Nach Baliye) में अपनी पत्नी के साथ भाग लिया। सभी प्रतियोगियों में ये जोड़ी सबसे अधिक उम्र की थी। इन्होंने भी सोचा नहीं था कि वे इतने आगे जायेंगे, इसलिये हरेक एपिसोड को ये अपना अन्तिम नृत्य मानकर करते रहे और अन्त में जीत इन्हीं की हुई और इस जोड़ी को इनाम के तौर पर चालीस लाख रुपये मिले। उम्र के इस पड़ाव पर एक डांस के शो में युवाओं को पछाड़कर जीतना वाकई अदभुत है। 2007 में जी टीवी मराठी पर इन्होंने एक शो शुरु किया है, जिसमें ये जज भी बने हैं, नाम है “एका पेक्षा एक” (एक से बढ़कर एक)। इसमें सचिन महाराष्ट्र की युवा नृत्य प्रतिभाओं को खोज रहे हैं। इनके बेदाग, चमकदार और विवादरहित करियर में सिर्फ़ एक बार अप्रिय स्थिति बनी थी, जब इनकी गोद ली हुई पुत्री करिश्मा ने इन पर गलतफ़हमी में कुछ आरोप लगाये थे, हालांकि बाद में मामला सुलझ गया था… वैसे इनकी खुद की एक पुत्री श्रिया है, जो अभी अठारह वर्ष की है।

इससे बरसों पहले अस्सी के दशक में सचिन ने कई मराठी फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें प्रमुख हैं “माई-बाप”, “नवरी मिळे नवरयाला” (इस फ़िल्म के दौरान ही सुप्रिया से उनका इश्क हुआ और शादी हुई), “माझा पती करोड़पती”, “गम्मत-जम्मत” आदि। मराठी के सशक्त अभिनेता अशोक सराफ़ और स्वर्गीय लक्ष्मीकान्त बेर्डे से उनकी खूब दोस्ती जमती है। बच्चों से उनका प्रेम जगजाहिर है, इसीलिये वे स्टार टीवी के बच्चों के एक डांस शो में फ़रीदा जलाल के साथ जज बने हुए हैं। उनकी हिन्दी और उर्दू उच्चारण एकदम शुद्ध हैं, और कोई कह नहीं सकता कि उसमें मराठी “टच” है (जैसा कि सदाशिव अमरापुरकर के उच्चारण में साफ़ झलकता है)। सचिन अपने शुद्ध उच्चारण का पूरा श्रेय स्वर्गीय मीनाकुमारी (Meena Kumari) को देते हैं, जिनके यहाँ वे बचपन में लगातार मिठाई खाने जाते थे और मीनाकुमारी उन्हें पुत्रवत स्नेह प्रदान करती थीं, उनका उर्दू तलफ़्फ़ुज ठीक करती थीं और हिन्दी से उर्दू के तर्जुमें करके देती थीं। नदिया के पार में उनका भोजपुरी का साफ़ उच्चारण इसका सबूत है।
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ब्लॉग
मंगलवार, 01 अप्रैल 2008 17:44
तीसरे मोर्चे की बासी कढ़ी, बेकाबू महंगाई और पाखंडी वामपंथी
Third Front Communist Inflation Rate
माकपा के हालिया सम्मेलन में प्रकाश करात साहब ने दो चार बातें फ़रमाईं, कि “हम भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये कुछ भी करेंगे”, कि “तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिशे जारी हैं”, कि “हम बढती महंगाई से चिन्तित हैं”, कि “यूपीए सरकार गरीबों के लिये ठीक से काम नहीं कर रही”, कि ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला… उधर भाकपा ने पुनः बर्धन साहब को महासचिव चुन लिया है, और उठते ही उन्होने कहा कि “हम महंगाई के खिलाफ़ देशव्यापी प्रदर्शन करने जा रहे हैं…”
गत 5 वर्षों में सर्वाधिक बार अपनी विश्वसनीयता खोने वाले ये ढोंगी वामपंथी पता नहीं किसे बेवकूफ़ बनाने के लिये इस प्रकार की बकवास करते रहते हैं। क्या महंगाई अचानक एक महीने में बढ़ गई है? क्या दालों और तेल आदि के भाव पिछले एक साल से लगातार नहीं बढ़ रहे? क्या कांग्रेस अचानक ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की खैरख्वाह बन गई है? जिस “कॉमन मिनिमम प्रोग्राम” का ढोल वे लगातार पीटते रहते हैं, उसका उल्लंघन कांग्रेस ने न जाने कितनी बार कर लिया है, क्या लाल झंडे वालों को पता नहीं है? यदि ये सब उन्हें पता नहीं है तो या तो वे बेहद मासूम हैं, या तो वे बेहद शातिर हैं, या फ़िर वे परले दर्जे के मूर्ख हैं। भाजपा के सत्ता में आने का डर दिखाकर कांग्रेस ने वामपंथियों का जमकर शोषण किया है, और खुद वामपंथियों ने “शेर आया, शेर आया…” नाम का भाजपा का हौआ दिमाग में बिठाकर कांग्रेसी मंत्रियों को इस देश को जमकर लूटने का मौका दिया है।
अब जब आम चुनाव सिर पर आन बैठे हैं, केरल और बंगाल में इनके कर्मों का जवाब देने के लिये जनता तत्पर बैठी है, नंदीग्राम और सिंगूर के भूत इनका पीछा नहीं छोड़ रहे, तब इन्हें “तीसरा मोर्चा” नाम की बासी कढ़ी की याद आ गई है। तीसरा मोर्चा का मतलब है, “थकेले”, “हटेले”, “जातिवादी” और क्षेत्रीयतावादी नेताओं का जमावड़ा, एक भानुमति का कुनबा जिसमें कम से कम चार-पाँच प्रधानमंत्री हैं, या बनने की चाहत रखते हैं। एक बात बताइये, तीसरा मोर्चा बनाकर ये नेता क्या हासिल कर लेंगे? वामपंथियों को तो अब दोबारा 60-62 सीटें कभी नहीं मिलने वाली, फ़िर इनका नेता कौन होगा? मुलायमसिंह यादव? वे तो खुद उत्तरप्रदेश में लहूलुहान पड़े हैं। बाकी रहे अब्दुल्ला, नायडू, चौटाला, आदि की तो कोई औकात नहीं है उनके राज्य के बाहर। यानी किसी तरह यदि सभी की जोड़-जाड़ कर 100 सीटें आ जायें, तो फ़िर अन्त-पन्त वे कांग्रेस की गोद में ही जाकर बैठेंगे, भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के नाम पर। क्या मिला? नतीजा वही ढाक के तीन पात। और करात साहब को पाँच साल बाद जाकर यह ज्ञान हासिल हुआ है कि गरीबों के नाम पर चलने वाली योजनाओं में भारी भ्रष्टाचार हो रहा है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को छूट देने के कारण महंगाई बढ़ रही है… वाह क्या बात है? लगता है यूपीए की समन्वय समिति की बैठक में सोनिया गाँधी इन्हें मौसम का हाल सुनाती थीं, और बर्धन-येचुरी साहब मनमोहन को चुटकुले सुनाने जाते थे। तीसरे मोर्चे की “बासी कढ़ी में उबाल लाने” का नया फ़ण्डा इनकी खुद की जमीन धसकने से बचाने का एक शिगूफ़ा मात्र है। इनके पाखंड की रही-सही कलई तब खुल गई जब इनके “विदेशी मालिक” यानी चीन ने तिब्बत में नरसंहार शुरु कर दिया। दिन-रात गाजापट्टी-गाजापट्टी, इसराइल-अमेरिका का भजन करने वाले इन नौटंकीबाजों को तिब्बत के नाम पर यकायक साँप सूंघ गया।
इन पाखंडियों से पूछा जाना चाहिये कि –
1) स्टॉक न होने के बावजूद चावल का निर्यात जारी था, चावल निर्यात कम्पनियों ने अरबों के वारे-न्यारे किये, तब क्या ये लोग सो रहे थे?
2) तेलों और दालों में NCDEX और MCX जैसे एक्सचेंजों में खुलेआम सट्टेबाजी चल रही थी जिसके कारण जनता सोयाबीन के तेल में तली गई, तब क्या इनकी आँखों पर पट्टी बँधी थी?
3) आईटीसी, कारगिल, AWB जैसे महाकाय कम्पनियों द्वारा बिस्कुट, पिज्जा के लिये करोड़ों टन का गेंहूं स्टॉक कर लिया गया, और ये लोग नन्दीग्राम-सिंगूर में गरीबों को गोलियों से भून रहे थे, क्यों?
जब सरकार की नीतियों पर तुम्हारा जोर नहीं चलता, सरकार के मंत्री तुम्हें सरेआम ठेंगा दिखाते घूमते हैं, तो फ़िर काहे की समन्वय समिति, काहे का बाहर से मुद्दा आधारित समर्थन? लानत है…। आज अचानक इन्हें महंगाई-महंगाई चारों तरफ़ दिखने लगी है। ये निर्लज्ज लोग महंगाई के खिलाफ़ प्रदर्शन करेंगे? असल में यह आने वाले चुनाव में संभावित जूते खाने का डर है, और अपनी सर्वव्यापी असफ़लता को छुपाने का नया हथकंडा…
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माकपा के हालिया सम्मेलन में प्रकाश करात साहब ने दो चार बातें फ़रमाईं, कि “हम भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये कुछ भी करेंगे”, कि “तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिशे जारी हैं”, कि “हम बढती महंगाई से चिन्तित हैं”, कि “यूपीए सरकार गरीबों के लिये ठीक से काम नहीं कर रही”, कि ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला… उधर भाकपा ने पुनः बर्धन साहब को महासचिव चुन लिया है, और उठते ही उन्होने कहा कि “हम महंगाई के खिलाफ़ देशव्यापी प्रदर्शन करने जा रहे हैं…”
गत 5 वर्षों में सर्वाधिक बार अपनी विश्वसनीयता खोने वाले ये ढोंगी वामपंथी पता नहीं किसे बेवकूफ़ बनाने के लिये इस प्रकार की बकवास करते रहते हैं। क्या महंगाई अचानक एक महीने में बढ़ गई है? क्या दालों और तेल आदि के भाव पिछले एक साल से लगातार नहीं बढ़ रहे? क्या कांग्रेस अचानक ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की खैरख्वाह बन गई है? जिस “कॉमन मिनिमम प्रोग्राम” का ढोल वे लगातार पीटते रहते हैं, उसका उल्लंघन कांग्रेस ने न जाने कितनी बार कर लिया है, क्या लाल झंडे वालों को पता नहीं है? यदि ये सब उन्हें पता नहीं है तो या तो वे बेहद मासूम हैं, या तो वे बेहद शातिर हैं, या फ़िर वे परले दर्जे के मूर्ख हैं। भाजपा के सत्ता में आने का डर दिखाकर कांग्रेस ने वामपंथियों का जमकर शोषण किया है, और खुद वामपंथियों ने “शेर आया, शेर आया…” नाम का भाजपा का हौआ दिमाग में बिठाकर कांग्रेसी मंत्रियों को इस देश को जमकर लूटने का मौका दिया है।
अब जब आम चुनाव सिर पर आन बैठे हैं, केरल और बंगाल में इनके कर्मों का जवाब देने के लिये जनता तत्पर बैठी है, नंदीग्राम और सिंगूर के भूत इनका पीछा नहीं छोड़ रहे, तब इन्हें “तीसरा मोर्चा” नाम की बासी कढ़ी की याद आ गई है। तीसरा मोर्चा का मतलब है, “थकेले”, “हटेले”, “जातिवादी” और क्षेत्रीयतावादी नेताओं का जमावड़ा, एक भानुमति का कुनबा जिसमें कम से कम चार-पाँच प्रधानमंत्री हैं, या बनने की चाहत रखते हैं। एक बात बताइये, तीसरा मोर्चा बनाकर ये नेता क्या हासिल कर लेंगे? वामपंथियों को तो अब दोबारा 60-62 सीटें कभी नहीं मिलने वाली, फ़िर इनका नेता कौन होगा? मुलायमसिंह यादव? वे तो खुद उत्तरप्रदेश में लहूलुहान पड़े हैं। बाकी रहे अब्दुल्ला, नायडू, चौटाला, आदि की तो कोई औकात नहीं है उनके राज्य के बाहर। यानी किसी तरह यदि सभी की जोड़-जाड़ कर 100 सीटें आ जायें, तो फ़िर अन्त-पन्त वे कांग्रेस की गोद में ही जाकर बैठेंगे, भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के नाम पर। क्या मिला? नतीजा वही ढाक के तीन पात। और करात साहब को पाँच साल बाद जाकर यह ज्ञान हासिल हुआ है कि गरीबों के नाम पर चलने वाली योजनाओं में भारी भ्रष्टाचार हो रहा है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को छूट देने के कारण महंगाई बढ़ रही है… वाह क्या बात है? लगता है यूपीए की समन्वय समिति की बैठक में सोनिया गाँधी इन्हें मौसम का हाल सुनाती थीं, और बर्धन-येचुरी साहब मनमोहन को चुटकुले सुनाने जाते थे। तीसरे मोर्चे की “बासी कढ़ी में उबाल लाने” का नया फ़ण्डा इनकी खुद की जमीन धसकने से बचाने का एक शिगूफ़ा मात्र है। इनके पाखंड की रही-सही कलई तब खुल गई जब इनके “विदेशी मालिक” यानी चीन ने तिब्बत में नरसंहार शुरु कर दिया। दिन-रात गाजापट्टी-गाजापट्टी, इसराइल-अमेरिका का भजन करने वाले इन नौटंकीबाजों को तिब्बत के नाम पर यकायक साँप सूंघ गया।
इन पाखंडियों से पूछा जाना चाहिये कि –
1) स्टॉक न होने के बावजूद चावल का निर्यात जारी था, चावल निर्यात कम्पनियों ने अरबों के वारे-न्यारे किये, तब क्या ये लोग सो रहे थे?
2) तेलों और दालों में NCDEX और MCX जैसे एक्सचेंजों में खुलेआम सट्टेबाजी चल रही थी जिसके कारण जनता सोयाबीन के तेल में तली गई, तब क्या इनकी आँखों पर पट्टी बँधी थी?
3) आईटीसी, कारगिल, AWB जैसे महाकाय कम्पनियों द्वारा बिस्कुट, पिज्जा के लिये करोड़ों टन का गेंहूं स्टॉक कर लिया गया, और ये लोग नन्दीग्राम-सिंगूर में गरीबों को गोलियों से भून रहे थे, क्यों?
जब सरकार की नीतियों पर तुम्हारा जोर नहीं चलता, सरकार के मंत्री तुम्हें सरेआम ठेंगा दिखाते घूमते हैं, तो फ़िर काहे की समन्वय समिति, काहे का बाहर से मुद्दा आधारित समर्थन? लानत है…। आज अचानक इन्हें महंगाई-महंगाई चारों तरफ़ दिखने लगी है। ये निर्लज्ज लोग महंगाई के खिलाफ़ प्रदर्शन करेंगे? असल में यह आने वाले चुनाव में संभावित जूते खाने का डर है, और अपनी सर्वव्यापी असफ़लता को छुपाने का नया हथकंडा…
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