desiCNN - Items filtered by date: जनवरी 2008
Vastushastra Feng-Shui Science & Business

(गतांक से आगे…)
आदिकाल से मनुष्य ने आसपास के माहौल और प्रकृति के निरीक्षण से कई निष्कर्ष निकाले, उन्हें लिपिबद्ध किया, उन्हें ग्रंथों का रूप दिया ताकि आने वाली पीढ़ी को उनके अनुभवों का लाभ मिल सके। उदाहरण के लिये “मायामत” जिसका निर्माण केरल में हुआ। केरल जो कि दक्षिण और पश्चिम में समुद्र से घिरा हुआ है, सो मायामत के लेखक (या लेखकों) ने यह निष्कर्ष निकाला कि प्रगति बाकी की दो दिशाओं में ही है अर्थात उत्तर और पूर्व। जबकि दूसरी ओर उत्तर भारत के “विश्वकर्मा” ने उत्तर और पूर्व में हिमालय को देखते हुए विस्तार या तरक्की की अवधारणा दक्षिण और पश्चिम में तय की। यदि इस दृष्टि से देखा जाये तो पुरातन वास्तुशास्त्र को एक प्राथमिक विज्ञान कहा जा सकता है, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, इसमें आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण आने की बजाय यह और ज्यादा पोंगापंथी और ढकोसलेबाज बनता गया। विज्ञान की शब्दावली का भी वास्तु वालों ने बखूबी इस्तेमाल किया है, वास्तुविद वी.गणपति स्थापति कहते हैं कि वास्तुशास्त्र विज्ञान के तीन सिद्धांतों पर काम करता है- VRF यानी Vibration, Rhythm and Form, वे आगे कहते हैं कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड एक आयताकार ब्लॉक या क्यूब के समान है, इसलिये जो भी ध्वनि या कम्पन इस धरा पर उत्पन्न होते हैं वह ब्रह्मांड में टकराकर एक परावलय (Sphere) बनाते हैं, और यही मानव और इस सृष्टि का मूल सिद्धांत है, (क्या बात है, जो बात आज तक कोई नहीं जान पाया कि ब्रह्मांड कैसा है? वे यह पहले से जानते हैं)। पढ़े-लिखे, बुद्धिजीवी तक इस छद्म विज्ञान की चपेट में आ चुके हैं, एल एंड टी, जी टीवी, विक्रम इस्पात जैसी विख्यात कम्पनियाँ भी अपने परिसर वास्तु के हिसाब से बनवाने लगी हैं… लेकिन इनमें से सभी सफ़ल नहीं हैं, न हो सकती हैं (कम से कम वास्तु के बल पर तो बिलकुल नहीं)… स्वस्थ जीवन के लिये धूप और हवा आवश्यक है और इसीलिये पूर्व दिशा में खुलने वाला मकान ज्यादा धूप के लिये और खिड़कियाँ हवा के लिये जरूरी हैं, भला इसमें शुभ-अशुभ का क्या लेना-देना?

वास्तुशास्त्र का मूल आधार है आठों दिशायें। ये दिशायें प्रकृति ने पैदा नहीं की हैं, ये इन्सान ने बनाई हैं। अब भला कोई दिशा शुभ और कोई अशुभ कैसे हो सकती है? धरती अपने अक्ष पर सतत पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती रहती है, तो जब मनुष्य धरती पर खड़े होकर तारों, सूर्य को देखता है तो उसे लगता है कि ये सभी पूर्व से पश्चिम की ओर जा रहे हैं। एक उदाहरण – जब हम किसी विशाल गोल झूले पर बैठते हैं और झूला तेजी से चलने लगता है तो हमें लगता है कि दुनिया गोल घूम रही है, जबकि कुछ भी नहीं बदला होता है, सिर्फ़ हमारी स्वयं की स्थिति के अलावा। इसी प्रकार जब सूर्य पूर्व की ओर से पश्चिम की ओर जाता दिखाई देता है, तो इसमें कौन सी शुभ-अशुभ, या लाभकारी-हानिकारक स्थिति बन गई? सबसे मजेदार स्थिति तो आर्कटिक और अंटार्कटिक स्थित जगह की है, जहाँ की सूर्य लगभग छः महीने तक रात में भी दिखाई देता है, अब भला वास्तुशास्त्री अंटार्कटिका में वास्तु के सिद्धांत कैसे लागू करेंगे, यह जानने का विषय है। यह भी जानना बेहद दिलचस्प होगा कि बर्फ़ीले प्रदेशों में रहने वालों के गोलाकार मकान “इग्लू” को वास्तुविद कैसे बनायेंगे?

भगवान बुद्ध ने कहा है – कोई बात प्राचीन है इसलिये उस पर आँख मूंदकर भरोसा मत करो, उस बात पर भी सिर्फ़ इसलिये भरोसा मत करो कि तुम्हारी प्रजाति या समुदाय उस पर विश्वास करता है, किसी ऐसी बात का भरोसा भी मत करो जो तुम्हें बचपन से बताई-सिखाई गई है, जैसे भूत-प्रेत, जादू-टोने आदि, पहले खुद उस बात पर विचार करो, अपना दिमाग और तर्कबुद्धि लगाओ, उसके बाद भी यदि वह तुम्हें वह बात लाभकारी लगे, और समाज के उपयोगार्थ हो तभी उस पर विश्वास करो और उसके बाद लोगों से उस बात पर विश्वास करने को कहो…

प्रख्यात मराठी वैज्ञानिक जयन्त नारलीकर ने अपनी पुस्तक “आकाशाशी जड़ले नाते” मे एक अनुभव का उल्लेख किया है, जिसमें सूर्य पश्चिम से उगता हुआ दिखाई दिया। दरअसल एक बार 14 दिसम्बर सन 1963 को जब वे एक हवाई जहाज से जा रहे थे, तब कुछ क्षणों के लिये जहाज की पूर्व से पश्चिम की गति पृथ्वी की पश्चिम से पूर्व घूर्णन गति से ज्यादा हुई होगी, उस वक्त सूर्य पश्चिम से उगता दिखाई दिया। इस उदाहरण का उल्लेख इसलिये जरूरी है कि वास्तुशास्त्र में जो शुभ-अशुभ दिशायें बताई जाती हैं, असल में ऐसा कुछ है नहीं। “दिशायें” सिर्फ़ मानव द्वारा तैयार की गई एक अवधारणा मात्र है, और वह पवित्र या अपवित्र नहीं हो सकती। नारलीकर कहते हैं कि विश्व की एक बड़ी आबादी पृथ्वी के ध्रुवीय इलाकों जैसे रूस का उत्तरी भाग, कनाडा आदि में रहती है, जहाँ ग्रह, तारे, सूर्य छः-छः महीने तक दिखाई नहीं देते, भला ज्योतिषी और वास्तुविद ऐसे में वहाँ क्या करेंगे, कैसे तो कुंडली बनायेंगे, और कैसे वास्तु के नियम लागू करेंगे? लेकिन फ़िर भी उन लोगों का जीवन तो अबाध चल ही रहा है।

- वास्तु समर्थकों से अनुरोध है कि कालाहांडी (उड़ीसा) में रहने वाले लोगों के मकान वास्तुदोष से मुक्त करें, ताकि वहाँ कम से कम लोगों को दिन में एक बार का भोजन तो मिले… या फ़िर मुम्बई में स्थित एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी “धारावी” में हर घर में एक “लॉफ़िंग बुद्धा” रखा जाये, ताकि उन्हें नारकीय जीवन से मुक्ति मिले और सिर्फ़ “बुद्धा” ही नहीं वे भी मुस्करा सकें…

(तीसरे भाग में फ़ेंग शुई के “धंधे” के बारे में…)

, , , , , ,, , , , , , , , , , , , , ,
Published in ब्लॉग
Vastushastra Feng-Shui Science & Business

विगत लगभग 15-20 वर्षों से यह देखने में आया है कि हमारे समाज के कथित “एलीट” वर्ग और साथ ही बहुत से तथाकथित “बुद्धिजीवी” भी “वास्तुशास्त्र” नामक आँधी की चपेट में हैं। लगातार मीडिया, टीवी और चिकनी पत्रिकाओं द्वारा लोगों को समझाया जा रहा है कि “वास्तुशास्त्र” स्थापत्य और वास्तु का एक बहुत प्राचीन “विज्ञान”(?) है, जो सदियों पहले भारत में ही उदय हुआ था, और जो बीच के कई दशकों तक गायब रहा, अब अचानक 80 के दशक के बाद इस “विज्ञान” की धमाकेदार पुनर्वापसी हुई है। बताया जाता है कि इससे लोगों का भला होगा, उनके मन में शांति आयेगी, घर में सुख-समृद्धि आयेगी… आदि-आदि। जबकि असल में जिन दशकों में यह कथित विज्ञान “वास्तुशास्त्र” गायब हो गया था, उसी कालखंड में मनुष्य ने विज्ञान के सहारे विभिन्न खोजें करके जीवन को आसान, सुखमय बनाया है और तरक्की की। वास्तुशास्त्र के गायब रहने के दौर में ही विज्ञान ने सामाजिक जीवन को भी काफ़ी सरल बनाया, बच्चों के टीके विकसित करके उन्हें अकाल मृत्यु से बचाया, बीमारियों के इलाज खोजे गये… कहने का मतलब यह कि जब वास्तुशास्त्र नामक विज्ञान नहीं था तब भी दुनिया अपनी गति से ही चल रही थी, लेकिन 80 के दशक से “वास्तु” नामक जो धारा चली, उसमें कई पढ़े-लिखे भी बह गये, बगैर सोचे-समझे, बगैर कोई तर्क, वाद-विवाद किये।


“यह शास्त्र हमारे पुराणों में वर्णित है और पूरी तरह से वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित है”, यह घोषवाक्य ज्योतिष के समर्थन में भी लगातार कहा जाता है, वास्तु के समर्थन में भी, क्योंकि इस घोषवाक्य के बिना पढ़े-लिखे वर्ग का समर्थन, उससे हासिल बाजार और तगड़े नोट हासिल करना मुश्किल है। इस लेख में कोशिश की गई है कि वास्तुशास्त्र के विज्ञान होने सम्बन्धी दावों की पड़ताल की जाये। जैसा कि ज्योतिष सम्बन्धी लेखमाला (देखें ब्लॉग का साइड बार) में भी लिखा जा चुका है कि विज्ञान की परिभाषा ऑक्सफ़ोर्ड के एक शब्दकोष के अनुसार – “ज्ञान की एक शाखा, विशेषकर वह जो वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हो, एक संगठित संस्था द्वारा एकत्रित प्रयोग आधारित जानकारी पर आधारित सूचनाओं का भंडार”। विज्ञान की इस परिभाषा को “वास्तुशास्त्र” पर लागू करके देखते हैं कि इनमें से कोई भी सिद्धांत इस कथित शास्त्र पर लागू होता है या नहीं? विज्ञान में जब कोई प्रयोग होता है तो उसके विभिन्न चरण होते हैं, निरीक्षण या अवलोकन, खोज, प्रयोग, निष्कर्ष और अन्तिम निष्कर्ष। इसी तरीके से किसी भी ज्ञान को पुख्ता तौर पर साबित किया जा सकता है। किसी भी शास्त्र को “वैज्ञानिक” बताने या उसे ऐसा प्रचारित करने के लिये जाहिर है कि उसे विज्ञान की कसौटी पर कसा जाना ही होगा, क्योंकि ऐसा तो हो नहीं सकता कि एक तरफ़ तो किसी बात को विज्ञान कहा जाये और उसी बात को विज्ञान की सीमाओं से परे बताया जाये??

वास्तुशास्त्र को मानना अथवा न मानना एक व्यक्तिगत मामला हो सकता है ठीक ज्योतिष की तरह, लेकिन जब इसे विज्ञान कहा जाता है तब इसका स्वरूप व्यक्तिगत नहीं रह जाता, ठीक ज्योतिष की तरह ही। आज की तारीख में विज्ञान की उपलब्धियों से कोई भी इंकार नहीं कर सकता, इसलिये वास्तुशास्त्र विज्ञान है या नहीं यह परखने में कोई ऐतराज नहीं होना चाहिये।

सृष्टि के प्रारम्भ से ही प्रत्येक जीव अपने-अपने रहने के लिये भिन्न-भिन्न तरीके और अलग-अलग प्रकार के निवास की व्यवस्था रखता रहा। चिड़ियों ने घोंसला बनाया, जानवरों ने गुफ़ायें चुनीं, चींटियों ने बिल बनाये, आदि। इस प्रकार हरेक ने अपना “घर” बनाया और सदियों तक इसमें कोई विशेष बदलाव नहीं किये। मानव चूँकि सबसे ज्यादा बुद्धिसहित और चतुर प्राणी रहा इसलिये उसने अपनी जरूरतों और वक्त के मुताबिक अपने “घर” निर्माण में प्रगति और बदलाव किये। “वास्तुशास्त्र” अर्थात “गृहनिर्माण विज्ञान”, अक्सर कहा जाता है कि वास्तुविज्ञान एक “नैसर्गिक-प्राकृतिक विज्ञान” है, वास्तुशास्त्र मुख्य तौर पर पाँच मूलभूत तत्वों धरती, आकाश, हवा, अग्नि और जल, को ध्यान में रखकर बनाया गया है, लेकिन सिर्फ़ इसी से तो यह “वैज्ञानिक” सिद्ध नहीं हो जाता? वास्तु समर्थक अक्सर तर्क देते हैं कि इसका उदगम वैदिक काल में हुआ, और इसके सन्दर्भ ॠग्वेद में भी मिलते हैं। वास्तु समर्थक ॠषि भृगु द्वारा रचे गये संस्कृत श्लोकों को इसका आधार बताते हैं, वे कहते हैं कि वैदिक काल में चौड़ी सड़कें, हवाई जहाज, बड़ी भव्य अट्टालिकायें आदि हुआ करती थीं, और पश्चिम में आज जो भी शोध हो रहे हैं, सभी खोजें आविष्कार आदि चरक संहिता, सुश्रृत संहिता और वेदों में पहले से ही हैं, लेकिन उस वैदिक काल में साइकल जैसी मामूली चीज थी या नहीं इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता? प्राचीन ज्ञान की एक शाखा आयुर्वेद आज तक बची हुई है सिर्फ़ सतत प्रयोगों, समयानुकूल बदलावों और उसके जनउपयोगों के कारण। ठीक यही बात यदि वास्तुशास्त्र और ज्योतिष शास्त्र भी करते तो आज की तारीख में इन पर इतना अविश्वास करने का कोई कारण नहीं था, लेकिन वास्तुशास्त्र को एक प्राचीन ज्ञान या साहित्य मानकर उसे “जैसा का तैसा” सच मान लिया गया। वास्तुशास्त्र को जनसामान्य में लोकप्रिय बनाने के लिये और शिक्षित वर्ग को भी उसमें शामिल करने के लिये विज्ञान की कुछ मूलभूत बातों को इसमें शामिल किया गया, जैसे हवा की दिशा और गति, सूर्य की दिशा, आठों दिशायें, गुरुत्वाकर्षण आदि, इन्हीं सब बातों से यह तय किया जाता है कि कोई घर, वास्तु या कार्य पवित्र है या नहीं, धन-सम्पत्ति आयेगी या नहीं, खुशी और सुख का माहौल रहेगा या नहीं, सफ़लता मिलेगी या नहीं… आदि-आदि। लेकिन हकीकत में विज्ञान की कसौटी पर इसे नहीं कसा गया, न ही इसके परिणामों पर कोई विवाद, बहस या चर्चा की गई। अधिकतर तर्कों को भगवान, स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य जैसी बातों के आधार पर खारिज कर दिया गया।

वास्तुशास्त्र में गृह निर्माण के समय “दिशाओं” पर सर्वाधिक महत्व और जोर दिया जाता है, ताकि वातावरण और भूगोल के हिसाब से प्रकृति का अधिक से अधिक लाभ लिया जा सके। प्राचीन वास्तुशास्त्र “मायामत” में पृथ्वी के चुम्बकीय प्रभाव और उसकी शक्ति को लेकर कहीं नहीं कहा गया है कि इससे किसी व्यक्ति की तरक्की रुक सकती है या इस प्रभाव के कारण उसकी समृद्धि पर कोई असर पड़ता है। लेकिन आधुनिक(?) वास्तुशास्त्र हमें बताता है कि यदि तूने यह नहीं किया तो तेरे बच्चे की मौत हो जायेगी, तूने वह नहीं किया तो तुझे धंधे में भारी नुकसान हो सकता है, आदि। “मायामत” वास्तुशास्त्र का प्रादुर्भाव दक्षिण में स्थित केरल में हुआ, जबकि “विश्वकर्मा प्रकाश” का उत्तर में। इन दोनों शास्त्रों को विज्ञान की कसौटी पर कसा जाये तो एकदम विरोधाभासी नतीजे मिलेंगे। भिन्न-भिन्न शास्त्र(?) दिशाओं के हिसाब से अलग-अलग जातियों और धर्मों पर भी प्रभाव बताते मिल जायेंगे, देवताओं के भी स्थान और घर निश्चित कर दिये गये हैं। जबकि विज्ञान इस प्रकार का भेदभाव किसी के साथ नहीं करता, न ही जाति, न धर्म, न देवताओं के स्थान आदि को लेकर। यदि कोई बात वैज्ञानिक है तो उसका प्रभाव प्रत्येक मनुष्य पर सर्वव्यापी और देशों की सीमाओं से परे होना चाहिये, यह पहली बात ही वास्तुविज्ञान(?) पर लागू नहीं होती। अगले भाग में कुछ वास्तु के बारे में और थोड़ा फ़ेंग-शुई के ढकोसले के बारे में…

तब तक इस बात पर विचार कीजिये कि, यदि भारत सरकार विदर्भ के किसानों को अरबों रुपये का पैकेज देने की बजाय उनके झोंपड़ों को “वास्तुशास्त्र”(?) के हिसाब से डिजाईन करवा देती, तो न वे आत्महत्या करते, न ही उनका जीवन इतना दुष्कर होता…

एक बात और, एक प्रसिद्ध फ़ैक्ट्री में श्रमिक समस्या हल करने के लिये “वास्तुशास्त्र” का सहारा लिया गया, वास्तुविद जो कि ज्योतिषी भी था (यानी डबल-डोज) ने बताया कि फ़ैक्ट्री की खुशहाली के लिये पश्चिमी दिशा में स्थित आठ पेड़ों को काटा जाना जरूरी है, पेड़ काटने के बाद बीमार फ़ैक्ट्री बन्द हो गई, पेड़ भी कटे और मजदूरों की नौकरी भी गई… फ़िलहाल इतना ही, बाकी अगले भाग में…

, , , , , ,, , , , , , , , , , , ,
Published in ब्लॉग
Indian Nationalism, Brad Hogg and Bastard

जैसा कि हमेशा होता आया है, नेता संकट खड़े करते है, देश का अपमान करवाते हैं, लेकिन जनता अपने संघर्षों से देश को सही राह पर लाने और उसका गौरव वापस पाने की जद्दोजहद में जुटी रहती है, ठीक उसी प्रकार पर्थ में भारतीय टीम ने सब कुछ भुलाकर जोरदार संघर्ष किया और ऑस्ट्रेलिया को नाकों चने चबवा कर जीत हासिल की। तारीफ़ करना होगी अनिल कुंबले के नेतृत्व की और युवाओं के जोश की जिसने यह अभूतपूर्व कामयाबी हासिल की। पता नहीं हमारे नेता इस नई सदी के जोश और आत्मविश्वास से भरे भारतीय युवा की ताकत को क्यों नहीं पहचानते और जब-तब देश को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं।

“बास्टर्ड” शब्द का अर्थ शब्दकोष के अनुसार “अवैध संतान” या “हरामी” होता है। सिडनी टेस्ट के बाद में जो “तात्कालिक” राष्ट्रवाद बासी कढ़ी की तरह पैदा हुआ था, उसका झाग अब बैठ गया है, और हम वापस अपने “गाँधीवाद” और “पूंजीवाद” की ओर लौट आये हैं। ऐसा हमेशा ही होता है, हमारा “राष्ट्रवाद” क्षणिक होता है, या तो मीडिया द्वारा पैदा किया गया नकली राष्ट्रवाद (जैसा कि ताजमहल वोटिंग के मामले में हुआ था) या फ़िर कारगिल युद्ध के समय चन्दा माँगने जैसा… पाठक सोच रहे होंगे कि इस बात का “बास्टर्ड” शब्द से क्या लेना-देना? दरअसल सिडनी टेस्ट में ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी ब्रेड हॉग ने गांगुली, कुम्बले और धोनी को “बास्टर्ड्स” कहा था, और हरभजन ने तथाकथित रूप से सायमंड्स को “मंकी” कहा था। दोनों टीमों ने इस मामले में एक दूसरे की शिकायत की थी। हरभजन का मामला आईसीसी की धाराओं के मुताबिक 3.3 स्तर का और हॉग के अपशब्द 3.0 स्तर के माने गये। नियमों के अनुसार दोनों खिलाड़ियों को सजा के तौर पर कम से कम तीन टेस्ट से बाहर किया जा सकता है। ऐसे में विश्व के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड के रीढ़विहीन रवैये और शर्मनाक समर्पण के कारण आज की स्थिति यह है कि कुंबले ने अज्ञात(??) दबाव के कारण ब्रेड हॉग पर लगाये गये आरोपों को न सिर्फ़ वापस ले लिया बल्कि उन्हें “माफ़”(?) भी कर दिया है, बेईमान और अक्खड़ रिकी पोंटिंग ने सिर्फ़ शाब्दिक तौर पर कहा कि “उनसे सिडनी में एक-दो गलतियाँ हुई हैं…”, गिलक्रिस्ट ने भी खुलेआम कहा कि “ऐसा खेल” तो हमारी संस्कृति है और हम इसे जारी रखेंगे, अम्पायरों को भी मीडिया के दबाव के कारण सिर्फ़ आगामी दो मैचों से हटाया गया, लेकिन सबसे मुख्य बात यानी हरभजन पर नस्लभेदी टिप्पणी वाले मामले में ऑस्ट्रेलिया ने अपने आरोप वापस नहीं लिये, यानी हरभजन मामले की सुनवाई होगी और हो सकता है कि उन्हें कुछ सजा भी हो जाये।
“एक गाल पर थप्पड़ खाकर दूसरा गाल आगे करने…” की जो गाँधीवादी घुट्टी हमारे खून में रच-बस गई है, उसने कई मौकों पर देश के स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ किया है। नेताओं को देश की “ताकत” का अन्दाजा तो है, लेकिन उस ताकत का उपयोग वे अपने निजी स्वार्थ पूरे करने में लगाते हैं, देश के स्वाभिमान की बजाय।
आजादी के समय पाकिस्तान को पचपन करोड़ रुपये देने हों, 1962 में चीन से पीठ में छुरा खाना हो, एहसानफ़रामोश बांग्लादेश का जब-तब आँखें दिखाना हो या कंधार-कारगिल में मुशर्रफ़ का षडयंत्र हो…… “एक गाल पर थप्पड़ खाकर दूसरा गाल आगे करने…” की जो गाँधीवादी घुट्टी हमारे खून में रच-बस गई है, उसने कई मौकों पर देश के स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ किया है। लेकिन इक्कीसवीं सदी में भी हमारे नेता यह बात समझने को तैयार नहीं हैं कि देश की पचास प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या “युवा” है, जो अपने हुनर और शिक्षा के बल पर समूचे विश्व में डंका बजा रहे हैं, जबकि “कब्र में पैर लटकाये” हुए चन्द नेता अपने स्वार्थ की खातिर देश को नीचा दिखाने में लगे हुए हैं। अब वे 1974 के दिन नहीं रहे जब इंग्लैंड दौरे पर एक क्रिकेटर सुधीर नाईक पर एक जोड़ी मोजे चुराने का आरोप लगाया गया था, और हमारे “अंग्रेजों के मानसिक गुलाम” क्रिकेट बोर्ड ने आरोप को मान भी लिया और उस बेचारे को देश लौटने का आदेश दे दिया था… अब 2007 का समय है लेकिन नेता आज भी नहीं बदले। इन्हें देश की “ताकत” का अन्दाजा तो है, लेकिन उस ताकत का उपयोग वे अपने निजी स्वार्थ पूरे करने में लगाते हैं, देश के स्वाभिमान की बजाय।

सिडनी के इस मामले में कई घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय पेंच भी जुड़ गये थे। बीसीसीआई की सनातन राजनीति में गहरे धँसे डालमिया ने तत्काल पवार पर मामले को ढील देने का आरोप जड़ दिया, दूसरी तरफ़ लालू हुँकार भरते रहे कि “यदि मैं बीसीसीआई अध्यक्ष होता तो अब तक टीम वापस बुला लेता…” (क्योंकि उन्हें अगला अध्यक्ष बनना है और अपने बेटे को भारत की टीम में लाना है)। अब पवार अपने विरोधियों की बात कैसे मानते, भले ही मुद्दा राष्ट्रप्रेम से जुड़ा हो। उन्होंने नया “गणित” लगाया और भारत सरकार पर दबाव बनाया कि यदि इस मुद्दे को ज्यादा तूल दिया गया तो दोनों देशों के आपसी सम्बन्ध बिगड़ सकते हैं जिससे कि हमें ऑस्ट्रेलिया से यूरेनियम मिलने में दिक्कत होगी। बात में “वजन” था, विदेश सचिव स्तर का प्रतिनिधिमंडल ऑस्ट्रेलिया में यूरेनियम की भीख माँगने पहुँचा हुआ ही था। बस फ़िर क्या था… कुंबले को बुलाकर दबाव बनाया गया कि ब्रेड हॉग के खिलाफ़ मामला वापस ले लो, बात को यहीं रफ़ा-दफ़ा करो (दूसरे अर्थों में, मान लो कि हम “बास्टर्ड” हैं)। जबकि असल में पवार साहब को अपनी आईसीसी की कुर्सी खतरे में दिखाई दे रही थी। ये और बात है कि इतना सब करने के बावजूद ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने यूरेनियम के नाम पर हमें “ठेंगा” दिखा ही दिया है। रही बात बकनर के कारण वेस्टईंडीज के नाराज होने की, तो भविष्य में उसे एक “बड़ा टुकड़ा” देकर राजी कर लिया जायेगा। अब निश्चित ही अन्दर ही अन्दर हरभजन पर दबाव बनाया जा रहा होगा कि मामले की सुनवाई हो जाने दो, मैच रेफ़री (मांडवाली करने गये बिचौलिये) रंजन मदुगले को “सेट” कर लिया जायेगा कि तीन की बजाय सिर्फ़ एक टेस्ट का ही प्रतिबन्ध लगाया जायेगा, जिसे हरभजन सिंह और हमारी क्रिकेट टीम सहर्ष स्वीकार कर लेगी, नेता लोग कुछ “गाँधीवादी” बयान (“बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले” या फ़िर “खेल भावना के सम्मान” टाईप का) देंगे। भारतीय जनता (और मीडिया भी) जिसकी याददाश्त बहुत कमजोर होती है, इसे वक्त के साथ भुला देंगे, और फ़िर से हमारे खिलाड़ी ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और दक्षिण अफ़्रीका में गालियाँ खाने को तैयार… (सम्बन्धित लेख “शरद पवार जी अब तो मर्दानगी दिखाओ…)

इस सारे मामले में “पैसे” ने भी अपना खासा रोल निभाया है, दौरा निरस्त कर टीम के वापस लौटने की सूरत में भारत पर आठ करोड़ (क्या यह BCCI के लिये बड़ी रकम है?) का जुर्माना हो जाता, आगामी वन-डे ट्राई-सीरिज पर भी खतरा मंडराने लगता, जिससे प्रति खिलाड़ी कम से कम पाँच करोड़ तथा बोर्ड को कम से कम 400 करोड़ का नुकसान उठाना पड़ सकता था… ऐसे में आसान रास्ता यही था कि राष्ट्रवाद को भाड़ में झोंको, “बास्टर्ड” सुनकर भी मुस्करा दो, यहाँ तक कि अपने आपको “नस्लभेदी” भी मान लो… खैर, ऑस्ट्रेलिया की घटना के कारण भारत में हुए मीडिया प्रायोजित “देशभक्ति” नाटक का फ़िलहाल अन्त हो गया लगता है। जैसा कि भारत में हरेक मुद्दे का अन्त होता है मतलब शर्मनाक, खुद को महाशक्ति कहने वाले देश के पिलपिले साबित होने जैसा, ठीक वैसा ही अंत (फ़िलहाल) इस मामले का हुआ है। साथ ही कुछ बातें भी साफ़ हो गई हैं… जैसे –

(1) किसी भारतीय को “बास्टर्ड” (हरामी) कहा जा सकता है, लेकिन अंग्रेज को “मंकी” (बन्दर) नहीं कहा जा सकता…
(2) आठ करोड़ का जुर्माना ज्यादा बड़ा है देश की टीम के स्वाभिमान से…
(3) यूरेनियम की भीख माँगना ज्यादा जरूरी है, राष्ट्र के सम्मान की रक्षा की बजाय…
(4) भले ही हम “नस्लवादी” साबित कर दिये जायें, लेकिन “माफ़” करने की महान गाँधीवादी परम्परा नहीं टूटनी चाहिये…


लेकिन भारतीय युवाओं ने साबित कर दिया है कि जैसे हम “मुँहजोर” हो गये हैं वैसे ही मैदान में भी दमखम दिखा सकते हैं, बशर्ते कि देश और बीसीसीआई का नेतृत्व उनका खुलकर साथ दे, और गाली के बदले गाली, गोली के बदले गोली (प्रतिभा ताई सुन रही हैं ना… अफ़जल वाली फ़ाईल अभी भी आपकी टेबल पर पड़ी है) वाली नीति अपनाये…

और अब अन्त में एक गुप्त बात… असल में हरभजन ने सायमंड्स को “माँ की……” कहा था, लेकिन दर्शकों के शोर में सायमंड्स ने उसे “मंकी……” सुन लिया, इसलिये आईसीसी से अनुरोध है कि इसे भाषा सम्बन्धी समस्या माना जाये, न कि नस्लभेदी प्रकरण…

-->

, , , , , , , , , , , , , , , , , , , , ,
Published in ब्लॉग
Road Art Pictures Drawings Artist

सड़क पर बनाये जाने वाले चित्रों की श्रृंखला…यहाँ प्रस्तुत चित्र जूलियन बीवर नामक अंग्रेज चित्रकार ने बनाये हुए हैं, इन चित्रों की खासियत इनका 3-D दिखना है… सिर्फ़ रंगीन पेंसिलों, चॉक, वाटर कलर और पेस्ट कलर से ये चित्र बनाये हैं। यह कलाकार सड़कों पर, फ़ुटपाथ की टाइल्स पर चित्र बनाता है। जूलियन साहब फ़्रांस, जर्मनी, स्विटजरलैंड आदि यूरोपीय देशों में अपने कला-कौशल के हाथ दिखा चुके हैं… आप खुद देखिये कि यह चित्र कितने उम्दा हैं और कितना असाधारण कलाकार है, और क्या गजब की उसकी दृष्टि है…

पहले चित्र में आपको कोकाकोला की बोतल की छाया तक दिखाई देगी…


इस चित्र में बहता हुआ पानी बिलकुल असली लगता है, आपको आश्चर्य होगा कि जो पानी का पाईप दिखाया गया है वह भी चित्र ही है…


रास्ते के बीच में छोटी सी झील और उसमें तैरती नाव (साथ में नाव की परछाँई भी)…


बीच सड़क पर एक गढ़ढा और उसमें बसा एक छोटा शहर…


फ़ुटपाथ के नीचे की बिलकुल असली लगने वाली पाईप लाइन, और एक फ़व्वारा भी…


सड़क की हटी हुई टाइल्स का हूबहू चित्र (यहाँ तक कि गुजरने वाले लोग भी समझते हैं कि शायद इस जगह सड़क नहीं है), है ना कमाल की चीज…


स्वयं चित्रकार ने अपने कलर बॉक्स का चित्र बनाया है…


एक असली और एक नकली (बीयर का कौन सा गिलास असली है?)


सड़क के बीच सोने की खान…


ये रहा स्वीमिंग पूल और उसमें एक हसीना…


और यह रहा इन चित्रों के 3-D होने का राज… यह चित्र स्वीमिंग पूल वाली हसीना का ही है, दूसरी तरफ़ से…


जैसे कि यह रहा पृथ्वी से "गरीबी हटाओ" के नारे के साथ कलाकार…


और वही चित्र साईड एंगल से (लगभग चालीस फ़ुट लम्बा) है ना असाधारण कलाकार?


और अन्त में "बच्चे को खाने जा रहा केकड़ा"… चित्र में सड़क की टाईल्स स्पष्ट दिखाई दे रही हैं…


ऐसे उम्दा कलाकार की कलाकारी को मेरा सलाम…


, , , , , , , , , ,
Published in ब्लॉग
English Medium Convent, Parents Children

मेरे शहर में कई स्कूल हैं (जैसे हर शहर में होते हैं), कई स्कूलों में से एक-दो कथित प्रतिष्ठित स्कूल(?) भी हैं (जैसे कि हर शहर में होते हैं), और उन एक-दो स्कूलों के नाम में “सेंट” या “पब्लिक” है (यह भी हर शहर में होता है)। जिस स्कूल के नाम में “सेंट” जुड़ा होता है, वह तत्काल प्रतिष्ठित होने की ओर अग्रसर हो जाता है। इसका सबसे पहला कारण तो यह है कि “सेंट” नामधारी स्कूलों में आने वाले माता-पिता भी “सेंट” लगाये होते हैं, दूसरा कारण है “सन्त” को “सेंट” बोलने पर साम्प्रदायिकता की उबकाई की बजाय धर्मनिरपेक्षता की डकार आती है, और भरे पेट वालों को भला-भला लगता है। रही बात “पब्लिक” नामधारी स्कूलों की…तो ऐसे स्कूल वही होते हैं, जहाँ आम पब्लिक घुसना तो दूर उस तरफ़ देखने में भी संकोच करती है।

ऐसे ही एक “सेंट”धारी स्कूल में कल एडमिशन फ़ॉर्म मिलने की तारीख थी, और जैसा कि “हर शहर में होता है” यहाँ भी रात 12 बजे से पालक अपने नौनिहाल का भविष्य सुधारने(?) के लिये लाइन में लग गये थे। खिड़की खुलने का समय था सुबह नौ बजे, कई “विशिष्ट” (वैसे तो लगभग सभी विशिष्ट ही थे) लोगों ने अपने-अपने नौकरों को लाईन में लगा रखा था। खिड़की खुलने पर एक भदेस दिखने वाले लेकिन अंग्रेजी बोलने वाले बाबू के दर्शन लोगों को हुए, जो लगभग झिड़कने के अन्दाज में उन “खास” लोगों से बात कर रहा था, “जन्म प्रमाणपत्र की फ़ोटोकॉपी लेकर आओ, फ़िर देखेंगे”, “यह बच्चे का ब्लैक-व्हाईट फ़ोटो नहीं चलेगा, कलर वाला लगाकर लाओ”, “फ़ॉर्म काले स्केच पेन से ही भरना”… आदि-आदि निर्देश (बल्कि आदेश कहना उचित होगा) वह लगे हाथों देता जा रहा था।

मुझ जैसे आम आदमी को जो यत्र-तत्र और रोज-ब-रोज धक्के खाता रहता है, यह देखकर बड़ा सुकून सा महसूस हुआ कि “चलो कोई तो है, जो इन रईसों को भी धक्के खिला सकता है, झिड़क सकता है, हड़का सकता है, लाईन में लगने पर मजबूर कर सकता है…”। स्कूल के बाहर खड़ी चमचमाती कारों को देखकर यह अहसास हो रहा था कि “सेंट” वाले स्कूल कितने “ताकतवर” हैं, जहाँ एडमिशन के लिये स्कूली शिक्षा मंत्री की सिफ़ारिश भी पूरी तरह काम नहीं कर रही थी। एक फ़ॉर्म की कीमत थी मात्र 200 रुपये, स्कूल वालों को कुल बच्चे लेने थे 100, लेकिन फ़ॉर्म बिके लगभग 1000, यानी दो लाख रुपये की “सूखी कमाई”, फ़िर इसके बाद दौर शुरु होगा “इंटरव्यू” का, जिसके लिये अभी से माता-पिता की नींदें उड़ चुकी हैं, यदि इंटरव्यू में पास हो गया (मतलब बगैर रसीद के भारी डोनेशन को लेकर सौदा पट जाये) तो फ़िर आजीवन स्कूल वालों की गालियाँ भी खाना है, क्योंकि यह मूर्खतापूर्ण मान्यता विकसित की गई है कि इन स्कूलों से "शासक" निकलते हैं, बाकी स्कूलों से "कामगार", जबकि यही वह स्कूल है, जहाँ हिन्दी में बातें करने पर दण्ड लगता है, बिन्दी लगा कर आने पर लड़कियों को सजा दी जाती है, और मेहंदी लगाकर आने पर कहर ही बरपा हो जाता है। लेकिन बच्चे के उज्जवल भविष्य(?) के लिये यह सब तो सहना ही होगा…

, , , , , , , , , , , ,
Published in ब्लॉग
BCCI, Sharad Pawar, Australia Cricket Board

एक बार फ़िर वही कहानी दोहराई गई, नेताओं ने हमेशा की तरह देश के आत्मसम्मान की जगह पैसे को तरजीह दी, कुर्सी को प्रमुखता दी| मैंने पिछले लेख में लिखा था कि “शरद पवार कम से कम अब तो मर्दानगी दिखाओ”…लेकिन नहीं समूचे देश के युवाओं ने जमकर विरोध प्रकट किया, मीडिया ने भी (अपने फ़ायदे के लिये ही सही) दिखावटी ही सही, देशभक्ति को दो दिन तक खूब भुनाया इतना सब होने के बावजूद नतीजा वही ढाक के तीन पात| शंका तो उसी समय हो गई थी जब NDTV ने कहा था कि “बीच का रास्ता निकालने की कोशिशें जारी हैं…”, तभी लगा था कि मामले को ठंडा करने के लिये और रफ़ा-दफ़ा करने के लिये परम्परागत भारतीय तरीका अपनाया जायेगा भारत की मूर्ख जनता के लिये यह तरीका एकदम कारगर है, मतलब एक समिति बना दो, जो अपनी रिपोर्ट देगी, फ़िर न्यायालय की दुहाई दो, फ़िर भी बात नहीं बने तो भारतीय संस्कृति और गांधीवाद की दुहाई दो… बस जनता का गुस्सा शान्त हो जायेगा, फ़िर ये लोग अपने “कारनामे” जारी रखने के लिये स्वतन्त्र !!!

आईसीसी के चुनाव होने ही वाले हैं, शरद पवार की निगाह उस कुर्सी पर लगी हुई है, दौरा रद्द करने से पवार के सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खराब हो जाते, क्योंकि जो लोग हमसे भीख लेते हैं (वेस्टइंडीज, बांग्लादेश आदि) उनका भी भरोसा नहीं था कि वे इस कदम का समर्थन करते, क्योंकि इन देशों के मानस पर भी तो अंग्रेजों की गुलामी हावी है, इसलिये टीम को वहीं अपमानजनक स्थिति में सिडनी में होटल में रुकने को कह दिया गया, ताकि “सौदेबाजी” का समय मिल जाये| दौरा रद्द करने की स्थिति में लगभग आठ करोड़ रुपये का हर्जाना ऑस्ट्रेलिया बोर्ड को देना पड़ता जो बोर्ड अपने चयनकर्ताओं के फ़ालतू दौरों और विभिन्न क्षेत्रीय बोर्डों में जमें चमचेनुमा नेताओं (जिन्हें क्रिकेट बैट कैसे पकड़ते हैं यह तक नहीं पता) के फ़ाइव स्टार होटलों मे रुकने पर करोड़ों रुपये खर्च कर सकता है, वह राष्ट्र के सम्मान के लिये आठ करोड़ रुपये देने में आगे-पीछे होता रहा फ़िर अगला डर था टीम के प्रायोजकों का, उन्हें जो नुकसान (?) होता उसकी भरपाई भी पवार, शुक्ला, बिन्द्रा एन्ड कम्पनी को अपनी जेब से करनी पड़ती? इन नेताओं को क्या मालूम कि वहाँ मैदान पर कितना पसीना बहाना पड़ता है, कैसी-कैसी गालियाँ सुननी पड़ती हैं, शरीर पर गेंदें झेलकर निशान पड़ जाते हैं, इन्हें तो अपने पिछवाड़े में गद्दीदार कुर्सी से मतलब होता है तारीफ़ करनी होगी अनिल कुम्बले की… जैसे तनावपूर्ण माहौल में उसने जैसा सन्तुलित बयान दिया उसने साबित कर दिया कि वे एक सफ़ल कूटनीतिज्ञ भी हैं|

इतना हो-हल्ला मचने के बावजूद बकनर को अभी सिर्फ़ अगले दो टेस्टों से हटाया गया है, हमेशा के लिये रिटायर नहीं किया गया है हरभजन पर जो घृणित आरोप लगे हैं, वे भी आज दिनांक तक नहीं हटे नहीं हैं| आईसीसी का एक और चमचा रंजन मदुगले (जो जाने कितने वर्षों से मैच रेफ़री बना हुआ है) अब बीच-बचाव मतलब मांडवाली (माफ़ करें यह एक मुम्बईया शब्द है) करने पहुँचाया गया है मतलब साफ़ है, बदतमीज और बेईमान पोंटिंग, क्लार्क, सायमंड्स, और घमंडी हेडन और ब्रेड हॉग बेदाग साफ़…(फ़िर से अगले मैच में गाली-गलौज करने को स्वतन्त्र), इन्हीं में से कुछ खिलाड़ी कुछ सालों बाद आईपीएल या आईसीएल में खेलकर हमारी जेबों से ही लाखों रुपये ले उड़ेंगे और हमारे क्रिकेट अधिकारी “क्रिकेट के महान खेल…”, “महान भारतीय संस्कृति” आदि की सनातन दुहाई देती रहेंगे|

सच कहा जाये तो इसीलिये इंजमाम-उल-हक और अर्जुन रणतुंगा को सलाम करने को जी चाहता है, जैसे ही उनके देश का अपमान होने की नौबत आई, उन्होंने मैदान छोड़ने में एक पल की देर नहीं की…| अब देखना है कि भारतीय खिलाड़ी “बगावत” करते हैं या “मैच फ़ीस” की लालच में आगे खेलते रहते हैं… इंतजार इस बात का है कि हरभजन के मामले में आईसीसी कौन सा “कूटनीतिक” पैंतरा बदलती है और यदि उसे दोषी करार दिया जाता है, तो खिलाड़ी और बीसीसीआई क्या करेंगे? इतिहास में तो सिडनी में हार दर्ज हो गई…कम से कम अब तो नया इतिहास लिखो…

, , , , , , , , , , , , , , , , ,
Published in ब्लॉग
Sharad Pawar, ICC, Cricket Australia

अम्पायरों की मिलीभगत से पहले तो भारत को सिडनी टेस्ट में हराया गया और फ़िर अब हरभजन को “नस्लभेदी”(??) टिप्पणियों के चलते तीन टेस्ट का प्रतिबन्ध लगा दिया गया है, यानी “जले पर नमक छिड़कना”…शरद पवार जी सुन रहे हैं, या हमेशा की तरह बीसीसीआई के नोटों की गड्डियाँ गिनने में लगे हुए हैं पवार साहब, ये वही बेईमान, धूर्त और गिरा हुआ पोंटिंग है जिसने आपको दक्षिण अफ़्रीका में मंच पर “बडी” कहकर बुलाया था, और मंच से धकिया दिया था विश्वास नहीं होता कि एक “मर्द मराठा” कैसे इस प्रकार के व्यवहार पर चुप बैठ सकता है हरभजन पर नस्लभेदी टिप्पणी का आरोप लगाकर उन्होंने पूरे भारत के सम्मान को ललकारा है, जो लोग खुद ही गाली-गलौज की परम्परा लिये विचरते रहते हैं, उन्होंने एक “प्लान” के तहत हरभजन को बाहर किया है, बदतमीज पोंटिंग को लगातार हरभजन ने आऊट किया इसलिये… आईसीसी का अध्यक्ष भी गोरा, हरभजन की सुनवाई करने वाला भी गोरा… शंका तो पहले से ही थी (देखें सायमंड्स सम्बन्धी यह लेख) कि इस दौरे पर ऐसा कुछ होगा ही, लेकिन भारत से बदला लेने के लिये ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी इस स्तर तक गिर जायेंगे, सोचा नहीं था…

अब तो बात देश के अपमान की आ गई है, यदि अब भी “बिना रीढ़” के बने रहे और गाँधीवादियों(??) के प्रवचन (यानी… “जो हुआ सो हुआ जाने दो…” “खेल भावना से खेलते रहो…” “हमें बल्ले से उनका जवाब देना होगा…” “भारत की महान संस्कृति की दुहाईयाँ…” आदि-आदि) सुनकर कहीं ढीले न पड़ जाना, वरना आगे भी उजड्ड ऑस्ट्रेलियाई हमें आँखें दिखाते रहेंगे सबसे बड़ी बात तो यह है कि जब हमारा बोर्ड आईसीसी में सबसे अधिक अनुदान देता है, वेस्टईंडीज और बांग्लादेश जैसे भिखारी बोर्डों की मदद करता रहता है, तो हम किसी की क्यों सुनें और क्यों किसी से दबें…? कहा जा रहा है कि अम्पायरों को हटाकर मामला रफ़ा-दफ़ा कर दिया जाये… जबकि भारत के करोड़ों लोगों की भावनाओं को देखते हुए हमारी निम्न माँगें हैं… जरा कमर सीधी करके आईसीसी के सामने रखिये…

(1) सिडनी टेस्ट को “ड्रॉ” घोषित किया जाये
(2) “ब” से बकनर, “ब” से बेंसन यानी “ब” से बेईमानी… को हमेशा के लिये “ब” से बैन किया जाये
(3) हरभजन पर लगे आरोपों को सिरे से खारिज किया जाये
(4) अन्तिम और सबसे महत्वपूर्ण यह कि टीम को तत्काल वापस बुलाया जाये…


ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? आईसीसी दौरा बीच में छोड़ने के लिये भारतीय बोर्ड पर जुर्माना कर देगा? क्या जुर्माना हम नहीं भर सकते, या जुर्माने की रकम खिलाड़ियों और देश के सम्मान से भी ज्यादा है? राष्ट्र के सम्मान के लिये बड़े कदम उठाने के मौके कभी-कभी ही मिलते हैं (जैसा कि कन्धार में मिला था और हमने गँवाया भी), आशंका इसलिये है कि पहले भी सोनिया गाँधी को विदेशी मूल का बताकर फ़िर भी आप उनके चरणों में पड़े हैं, कहीं ऐसी ही “पलटी” फ़िर न मार देना… अब देर न करिये साहब, टीम को वापस बुलाकर आप भी “हीरो” बन जायेंगे… अर्जुन रणतुंगा से कुछ तो सीखो… स्टीव वॉ ने अपने कॉलम में लिखा है कि “इस प्रकार का खेल तो ऑस्ट्रेलियाई संस्कृति है”, अब हमारी बारी है… हम भी दिखा दें कि भारत का युवा जाग रहा है, वह कुसंस्कारित गोरों से दबेगा नहीं, अरे जब हम अमेरिका के प्रतिबन्ध के आगे नहीं झुके तो आईसीसी क्या चीज है… तो पवार साहब बन रहे हैं न हीरो…? क्या कहा… मामला केन्द्र सरकार के पास भेज रहे हैं… फ़िर तो हो गया काम…


, , , , , , , , , , , , , , , , ,
Published in ब्लॉग
Bucknor Umpiring Sharad Pawar Indian Cricket

जिस किसी ने सिडनी का टेस्ट मैच देखा होगा, वह साफ़-साफ़ महसूस कर सकता है कि भारत की टीम को हराने के लिये ऑस्ट्रेलिया 13 खिलाड़ियों के साथ खेल रहा था दोनों अम्पायर जिनमें से स्टीव बकनर तो खासतौर पर “भारत विरोधी” रहे हैं, ने मिलकर भारत को हरा ही दिया पहली पारी में चार गलत निर्णय देकर पहले बकनर ने ऑस्ट्रेलिया के बल्लेबाजों को ज्यादा रन बनाने दिये, और आखिरी पारी में दो गलत निर्णय देकर भारत को ऑल-आऊट करवा दिया सबसे शर्मनाक तो वह क्षण था जब गांगुली के आऊट होने के बारे में बकनर ने पोंटिंग से पूछ कर निर्णय लिया वैसे ही बेईमानी के लिये कुख्यात ऑस्ट्रेलियाई कप्तान क्या सही बताते? ठीक यही बात हरभजन के नस्लभेदी टिप्पणी वाले मामले में है, साफ़ दिखाई दे रहा है कि यह आरोप “भज्जी” को दबाव में लाने और फ़िर भारतीय टीम को तोड़ने के लिये लगाया गया है खेल में ‘फ़िक्सिंग’ होती है, होती रहेगी, लेकिन खुद अम्पायर ही मैच फ़िक्स करें यह पहली बार हुआ है शंका तो पहले से ही थी (देखें सायमंड्स सम्बन्धी यह लेख) कि इस दौरे पर ऐसा कुछ होगा ही, लेकिन भारत से बदला लेने के लिये ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी इस स्तर तक गिर जायेंगे, सोचा नहीं था…

इस सबमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि “महान भारत की महान की परम्परा”(??) के अनुसार भारत के कंट्रोल बोर्ड ने अम्पायरिंग की कोई शिकायत नहीं करने का फ़ैसला किया है नपुंसकता की भी कोई हद होती है, और यह कोई पहली बार भी नहीं हो रहा है… याद कीजिये पाकिस्तान में हुए उस मैच को जिसमें संजय मांजरेकर को अम्पायरों ने लगभग अन्धेरे में खेलने के लिये मजबूर कर दिया था, लेकिन हमेशा ऐसे मौकों पर भारतीय बोर्ड “मेमना” बन जाता है जरा श्रीलंका के अर्जुन रणतुंगा से तो सीख लेते, कैसे उसने मुरली का साथ दिया, जब लगातार अम्पायर उसे चकर घोषित कर रहे थे और ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी उस पर नस्लभेदी टिप्पणी कर रहे थे रणतुंगा समूची टीम के साथ मैदान छोड़कर बाहर आ गये थे और फ़िर आईसीसी की हिम्मत नहीं हुई कि जिस मैच में श्रीलंका खेल रहा हो उसमें डेरेल हेयर को अम्पायर रखे

लेकिन कोई भी बड़ा और कठोर निर्णय लेने के लिये जो “रीढ़ की हड्डी” लगती है वह भारतीय नेताओं में कभी भी नहीं थी, ये लोग आज भी गोरों के गुलाम की तरह व्यवहार करते हैं… शर्म करो शरद पवार… यदि अब भी टीम का दौरा जारी रहता है तो लानत है तुम पर…तुम्हारे चयनकर्ताओं पर जो अब ऑस्ट्रेलिया घूमने जा रहे हैं… और दुनिया के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड के अरबों रुपये पर…

, , , , , , , , , , , , , ,
Published in ब्लॉग
Congress, Madarsa, Tricolour and Bribe

सोचा था कि उप्र, गुजरात, हिमाचल में जूते खाने के बाद कांग्रेस को अक्ल आ गई होगी, लेकिन नहीं… बरसों की गन्दी आदतें जल्दी नहीं बदलतीं 31 दिसम्बर के “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” और “रेडिफ़.कॉम” की इस खबर के अनुसार केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने फ़ैसला किया है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में अब से मदरसों में 15 अगस्त और 26 जनवरी को तिरंगा फ़हराने पर उन्हें विशेष अनुदान दिया जायेगा अब इस घृणित निर्णय के पीछे कांग्रेस की वही साठ साल पुरानी मानसिकता है या कुछ और कहना मुश्किल है, लेकिन इस निर्णय ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं…

(1) क्या तिरंगा फ़हराना धर्म आधारित है या देशभक्ति आधारित?
(2) क्या मदरसों में तिरंगा फ़हराने के लिये इस प्रकार की रिश्वत जायज है?
(3) 11 वीं पंचवर्षीय योजना से इस प्रकार का विशेष (?) अनुदान देना क्या ईमानदार आयकरदाताओं के साथ विश्वासघात नहीं है?
(4) क्या एक तरह से कांग्रेस यह स्वीकार नहीं कर चुकी, कि मदरसों में तिरंगा नहीं फ़हराया जाता? और वहाँ देशभक्त तैयार नहीं किये जा रहे? लेकिन इसके लिये दण्ड की बजाय पुरस्कार क्यों?
(5) क्या अब कांग्रेस इतनी गिर गई है कि देशभक्ति “खरीदने”(?) के लिये उसे “रिश्वत” का सहारा लेना पड़ रहा है?

इन सब प्रश्नों के मद्देनजर अब ज्यादा कुछ कहने को नहीं रह जाता, सिवाय इसके कि लगता है कांग्रेस को 2008 के विभिन्न विधानसभाओं और फ़िर आने वाले लोकसभा चुनाव में भी “सबक” सिखाना ही पड़ेगा…इस फ़ैसले के पहले भी “बबुआ” प्रधानमंत्री, बजट में अल्पसंख्यकों के लिये 15% आरक्षित करने का संकल्प ले चुके हैं, यानी उस 15% से जो सड़क बनेगी उस पर सिर्फ़ अल्पसंख्यक ही चलेगा, या उस 15% से जो बाँध बनेगा उससे बाकी लोगों को पानी नहीं मिलेगा… पता नहीं ऐसे फ़ैसलों से कांग्रेस क्या साबित करना चाहती है, लेकिन यह बात पक्की है कि ऐसे नेहरू (जो केरल के मन्दिर में धोती बाँधने के आग्रह पर आगबबूला होते थे, लेकिन अजमेर में खुशी-खुशी टोपी पहनते थे) या फ़िर वह नेहरू जिन्होंने आजादी के वक्त एकमात्र रियासत “कश्मीर” को समझाने(?) का काम हाथ में लिया था और सरदार पटेल को बाकी चार सौ रियासतें संभालने को कहा था… इतिहास गवाह है कि नेहरू से एक रियासत तक ठीक से “हैण्डल” नहीं हो सकी, या शायद जानबूझकर नहीं की… उन्हीं नेहरु की संताने देश को बाँटने के अपने खेल में सतत लगी हुई हैं… यदि जनता अब भी नहीं जागी तो पहले असम सहित उत्तर-पूर्व फ़िर कश्मीर और आधा पश्चिम बंगाल भारत से अलग होते देर नहीं लगेगी… दिक्कत यह है कि जनता और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को “सेक्स” और “सेंसेक्स” से ही फ़ुर्सत नहीं है…

(आम तौर पर मैं बड़े-बड़े ब्लॉग लिखता हूँ, लेकिन इस मामले में गुस्से की अधिकता के कारण और ज्यादा नहीं लिखा जा रहा, यदि आपको भी गुस्सा आ रहा हो तो इस खबर को आगे अपने मित्रों में फ़ैलायें)

, , , , , , , , , , , , , , , , , , , ,
Published in ब्लॉग
Marathi Film Industry Nilu Fule

हिन्दी फ़िल्मों में जो स्थान प्राण साहब का है, लगभग वही स्थान मराठी सिनेमा में निळू फ़ुले साहब का है। प्राण साहब अपने-आप में एक “लीजेण्ड” हैं, एक आँख छोटी करके, शब्दों को चबा-चबाकर बोलने और “विलेन” नामक पात्र को उस ऊँचाई पर पहुँचाना जहाँ “हीरो” भी छोटा दिखाई देने लगे, और जिस प्रकार से पूरी फ़िल्म पर वे हावी हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार निळू फ़ुले साहब का नाम मराठी फ़िल्म इंडस्ट्री में बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है। एक क्रूर, कपटी, धूर्त, धोखेबाज, शोषक जमींदार, चालाक मुनीम आदि की भारतीय फ़िल्मों के जाने-पहचाने रोल निळू फ़ुले जी ने बेहतरीन अन्दाज में प्रस्तुत किये हैं। मराठी फ़िल्मों में निळू फ़ुले का पहनावा अर्थात “टिपिकल” ग्रामीण मराठी “सफ़ेद टोपी, काली जैकेट, और धोती”, लेकिन चेहरे पर चिपकाई हुई धूर्त मुस्कराहट और संवाद-अदायगी का विशेष अन्दाज दर्शकों के दिलोदिमाग पर छा जाता है। उनकी आवाज भी कुछ विशेष प्रकार की है, जिसके कारण जब वे अपने खास स्टाइल में “च्या मा...यला” (माँ की गाली का शॉर्ट फ़ॉर्म) बोलते हैं तो महिलाओं के दिल में कँपकपी पैदा कर देते हैं।

(प्रस्तुत चित्र एक कलाकार द्वारा तैयार किया गया कैरीकैचरनुमा चित्र है, जबकि उनके अभिनय की झलक देखने के लिये लेख में नीचे एक वीडियो क्लिप दिया गया है)


मराठी फ़िल्मोद्योग के अधिकतर कलाकार चूँकि नाटकों की पृष्ठभूमि से आये हुए होते हैं, इसलिये निर्देशक को उनके साथ अपेक्षाकृत कम मेहनत करनी पड़ती है। (मराठी में नाट्य परम्परा कितनी महान, विस्तृत, समृद्ध और सतत चलायमान है यह हिन्दी पाठकों को अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है, फ़िर भी जो लोग नहीं जानते उनके लिये बता दूँ कि आज टीवी, फ़िल्मों और धारावाहिकों के जमाने में भी कई मराठी नाटक हाउसफ़ुल जाते हैं, किसी प्रसिद्ध मराठी नाटक के 2000-3000 शो हो जाना मामूली बात है प्रशान्त दामले जैसे कलाकार एक ही दिन में अलग-अलग नाटकों के चार शो भी कर डालते हैं, बगैर एक भी डायलॉग भूले…)

शुरुआत में निळू फ़ुले ने गाँव में एक आर्ट ग्रुप के साथ जुड़कर कई स्थानीय और ग्रामीण नाटकों में काम किया। कुछ वर्षों बाद उन्होंने नाटक को “प्रोफ़ेशन” के तौर पर अपनाया और एक लोकनाटक “कथा अक्लेच्या कांड्याची” में काम किया। यह नाटक बेहद प्रसिद्ध हुआ। इसके पहले भाग के 2000 शो हुए इसी नाटक के दूसरे भाग के दौरान निर्देशक अनन्तराव माने की निगाह उन पर पड़ी और उन्होंने निळू फ़ुले को मराठी फ़िल्मों में काम करने की सलाह दी फ़ुले की पहली फ़िल्म थी “एक गाव बारा भानगडी” (एक गाँव और बारह लफ़ड़े), यह फ़िल्म सुपरहिट रही, और फ़िर निळू फ़ुले ने पीछे मुड़कर नहीं देखा उसी वर्ष उन्हें लगातार सात हिट फ़िल्में भी मिलीं उनका कहना है कि “प्रत्येक कलाकार को अपने रोल के साथ हमेशा पूरा न्याय करने की कोशिश करना चाहिये, भले ही मैं अपने जीवन में एकदम सीधा-सादा हूँ, लेकिन परदे पर मुझे हमेशा बुरा आदमी ही बताया गया है, लेकिन यह तो काम है और मुझे खुशी है कि मैंने अपना काम इतनी बेहतरीन तरीके से किया है कि आज भी जब मैं समाजसेवा के लिये अन्दरूनी गाँवों में जाता हूँ तो ग्रामीणों के दिमाग में मेरी छवि इतनी गहरी है कि वहाँ की स्कूल शिक्षिकायें, नर्सें और आम गृहिणियाँ आज भी मुझसे दूरी बनाकर रखती हैं, वे लोग अब भी यह सोचते हैं कि जरूर यह कोई शोषण करने या बुरी नजर रखने वाला व्यक्ति है, लेकिन इसे मैं अपनी सफ़लता मानता हूँ…” हालांकि समय-समय पर मराठी में उन्होंने चरित्र भूमिकायें भी की हैं, क्या आपको फ़िल्म “प्रेम प्रतिज्ञा” याद है, जिसमें माधुरी दीक्षित के हाथठेला चलाने वाले दारूबाज पिता की भूमिका में निळू फ़ुले साहब थे

लगभग प्रत्येक मराठी अभिनेता की तरह उनकी पहली पसन्द आज भी नाटक ही हैं, उनका कहना है कि “जो मजा नाटकों में काम करने में आता है, वह फ़िल्मों में कहाँ…हर अभिनेता को नाटक करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतनी होती है, क्योंकि आपके एक-एक संवाद पर तत्काल सामने से तारीफ़ या हूटिंग की सम्भावना होती है, और वहीं अच्छे अभिनेता की असली परीक्षा होती है…” निळू फ़ुले आज के आधुनिक मराठी नाटकों और युवा निर्देशकों से प्रभावित हैं, उनकी खुद के अभिनय की पसन्दीदा फ़िल्में हैं – सामना, सिंहासन, चोरीचा मामला, शापित, पुढ़चे पाऊल आदि, जबकि नाटकों में उन्हें “सूर्यास्त” और जाहिर है उनका पहला नाटक “कथा अकलेच्या कांड्याची” पसन्द हैं डॉ. श्रीराम लागू के साथ मराठी नाटकों में उनकी जोड़ी बेहतरीन जमती थी, जिनमें उल्लेखनीय हैं फ़िल्म “पिंजरा” और नाटक “सूर्यास्त”, जिसमें दर्शकों ने उन्हें बेहद पसन्द किया

यहाँ प्रस्तुत है एक फ़िल्म की छोटी सी क्लिप जिसमें पाठक उनके “खाँटी विलेन” के रूप के दर्शन कर पायेंगे… हिन्दी दर्शकों को शायद कुछ संवाद समझ में न आयें उनके लिये बताना उचित होगा कि प्रस्तुत दृश्य में निळू फ़ुले अपने पोते को छुड़वाने के लिये पुलिस थाने जाकर अपने खास अन्दाज में “पुलिस” को धमकाते हैं, कोई चिल्लाचोट नहीं, खामख्वाह के चेहरे बिगाड़ने का अभिनय नहीं, लेकिन अपनी विशिष्ट आवाज और खास संवाद अदायगी से वह पूरा सीन लूट ले जाते हैं… सीन है मराठी फ़िल्म “सात च्या आत घरात” का और इसमें उनके अभिनय के जलवे देखने लायक हैं…



आप सोच रहे होंगे कि इतने सशक्त अभिनेता और बेहद सादगीपसन्द इन्सान आजकल आखिर क्या कर रहे हैं? मराठी फ़िल्मों में चालीस वर्ष गुजारने और लगभग 140 मराठी और 12 हिन्दी फ़िल्मों में काम करने के बाद निळू फ़ुले आजकल समाजसेवा के साथ सेवानिवृत्ति का जीवन जी रहे हैं। “अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति” के साथ गाँव-गाँव का दौरा करके वे ग्रामीणों को अँधविश्वास से दूर करने, जादू-टोने, तंत्र-मंत्र, झाड़-फ़ूँक आदि के बारे में शिक्षित और जागरूक करने के प्रयास में लगे रहते हैं अपने सहयोग और प्रभाव से उन्होंने एक कोष एकत्रित किया है, जिसके द्वारा संघर्षरत युवा नाटक कलाकारों की आर्थिक मदद भी वे करते हैं मराठी लोकनृत्य “तमाशा” और “लावणी” को राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने, लोकप्रिय बनाने और उसे सरकार के स्तर पर हर तरह की मदद दिलवाने के लिये निळू फ़ुले हमेशा प्रयासरत रहते हैं बागवानी, पुस्तकें पढ़ना, अच्छी फ़िल्में देखना आदि शौक वे अब पूरे करते हैं अभिनय का यह तूफ़ानी चेहरा भले ही अब चकाचौंध से दूर हो गया हो, लेकिन उनकी स्टाईल का प्रभाव लोगों के दिलोदिमाग पर हमेशा रहेगा

उन्हें महाराष्ट्र सरकार की ओर से लगातार सन 1972, 1973 और 1974 में सर्वश्रेष्ठ कलाकार के रूप में सम्मानित किया गया था “साहित्य संगीत समिति” का राष्ट्रीय पुरस्कार भी राष्ट्रपति के हाथों ग्रहण कर चुके हैं और नाटक “सूर्यास्त” के लिये उन्हें “नाट्यदर्पण” का अवार्ड भी मिल चुका है ऐसे महान कलाकार, एक बेहद नम्र इन्सान, और समाजसेवी को मेरा सलाम…

, , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , ,
Published in ब्लॉग
पृष्ठ 1 का 2