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बुधवार, 29 अगस्त 2007 11:44

हम हैं मालवा के "खवैय्ये"

पश्चिमी मध्यप्रदेश का एक बड़ा भूभाग है जिसे कहते हैं “मालवा” जिसमें मुख्यतः इन्दौर, उज्जैन, देवास, रतलाम और मन्दसौर जिले आते हैं। “पग-पग रोटी, डग-डग नीर” यह कहावत पहले मालवा के लिये कही जाती थी (कही तो अब भी जाती हैं, लेकिन अब डग-डग नीर यहाँ मौजूद नहीं है)। लेकिन मौजूद है यहाँ की “खवैय्येगिरी” की परम्परा। दूध, सोयाबीन और हरी सब्जियों की बहुतायत वाला यह इलाका विभिन्न बेहतरीन व्यंजनों के लिये जाना जाता है।

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Know Sonia Gandhi (Part-4)

राजीव से विवाह के बाद सोनिया और उनके इटालियन मित्रों को स्नैम प्रोगैती की ओट्टावियो क्वात्रोची से भारी-भरकम राशियाँ मिलीं, वह भारतीय कानूनों से बेखौफ़ होकर दलाली में रुपये कूटने लगा। कुछ ही वर्षों में माइनो परिवार जो गरीबी के भंवर में फ़ँसा था अचानक करोड़पति हो गया । लोकसभा के नयेनवेले सदस्य के रूप में मैंने 19 नवम्बर 1974 को संसद में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी से पूछा था कि “क्या आपकी बहू सोनिया गाँधी, जो कि अपने-आप को एक इंश्योरेंस एजेंट बताती हैं (वे खुद को ओरियंटल फ़ायर एंड इंश्योरेंस कम्पनी की एजेंट बताती थीं), प्रधानमंत्री आवास का पता उपयोग कर रही हैं?”

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(इस भाग में – सोनिया गाँधी का जन्म, उनका पारिवारिक इतिहास, उनके सम्बन्ध, उनके झूठ, उनके द्वारा कानून से खिलवाड़ आदि शामिल हैं)

सोनिया गाँधी से सम्बन्धित पिछले दोनों अनुवादों में हमने सोनिया गाँधी के बारे में काफ़ी कुछ जाना (क्या वाकई?) लेकिन जितना जाना उतने ही प्रश्न दिमागों में उठते गये। उन दोनो पोस्टों पर मुझे ब्लॉग पर और व्यक्तिगत रूप से कई अच्छे-बुरे मेल प्राप्त हुए, जिसका जिक्र मैंने तीसरी पोस्ट “सोनिया गाँधी की पोस्ट पर उठते सवाल-जवाब” में किया था। और जैसा कि मैं पहले ही अर्ज कर चुका हूँ, कि मेरी सोनिया गाँधी से कोई व्यक्तिगत रंजिश नहीं है और ना ही मुझे इस बात का कोई मुगालता है कि मैं कोई बहुत बड़ा “शोधक” हूँ.

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हिन्दी फ़िल्मों ने हमें कई-कई अविस्मरणीय गीत दिये हैं। फ़िल्म संगीतप्रेमी सोते-जागते, उठते-बैठते इन गीतों को गुनगुनाते रहते हैं। हमारे महान गीतकारों और फ़िल्मकारों ने जीवन के हरेक मौके, अवसर और उत्सव के लिये गीत लिखे हैं और खूब लिखे हैं। जन्म, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रेम, विवाह, बिदाई, बच्चे, बुढापा, मौत... सभी-सभी के लिये गीत हमें मिल जायेंगे।

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हमारे "मर्द" प्रधानमन्त्री ने एक बार फ़िर वामपंथियों को जोर का "चमाट" लगाया है। परमाणु मुद्दे पर जिस तरह इस्तीफ़े की धमकी देकर वामों को पटखनी दी है, वह लाजवाब है। ऐसा लगता है कि वामपंथियों ने "आयोडीन युक्त नमक" (Iodine Salt) का सेवन ठीक से नहीं किया है। क्योंकि जब-तब उन्हें जोर से बोलते वक्त "गले का घेंघा" हो जाता है, उनसे कोई कदम भी उठाते नहीं बनता क्योंकि आयोडीन की कमी से "हाथीपाँव" की शिकायत भी है।

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स्वतंत्रता की साठवीं वर्षगाँठ के पवित्र अवसर पर देश के अन्दरूनी हालातों के बारे में बेहद चिन्ता होना स्वाभाविक है। भले ही हम भारतवर्ष के भविष्य की कितनी भी रोमांटिक कल्पना करें, हकीकत यही है कि देश इस समय एक दिशाहीन स्थिति से गुज़र रहा है। सेंसेक्स का पन्द्रह हजारी होना, या विकास दर ६-८ प्रतिशत होना, या आईटी क्षेत्र में भारत का परचम विश्व में लहराना भले ही कुछ खास रहा हो, आम आदमी को इससे कोई लेना-देना नहीं है और इनसे देश के अस्सी प्रतिशत लोगों का भला होने वाला भी नहीं है। दो जून की रोटी की जुगाड़ करने में गरीब, निम्न-मध्यम वर्ग इतना पिसा जा रहा है कि उसे "शाइनिंग इंडिया" कभी दिखाई नहीं देगा, क्योंकि वह "शाइन" कर रहा है सिर्फ़ पाँच-आठ प्रतिशत लोगों के लिये। लेकिन सबसे बड़ी, और रोजमर्रा के जीवन में हमारा सामना जिस समस्या से हो रहा है वह है भ्रष्टाचार, और आश्चर्य इस बात का है कि भ्रष्टाचार को हमने जीवन शैली मान लिया है, और यही बहुत खतरनाक बात है। धीरे-धीरे इस बात पर आम सहमति बनती जा रही है कि भ्रष्टाचार तो होगा ही, कोई इस बात पर विचार करने को तैयार ही नहीं है कि कम से कम वह स्वयं तो रिश्वत ना ले... लेकिन प्रायवेट क्षेत्र में अनाप-शनाप बढती तनख्वाहें और सरकारी क्षेत्र में पैसे और रुतबे की भूख और लालच ने इस समस्या को सर्वव्यापी कर दिया है। हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग इस मुगालते में है कि देश मे साक्षरता बढने पर भ्रष्टाचार में कमी आयेगी, और एक है हमारा "तटस्थ" वर्ग (जो सबसे बड़ा है) वह तो... क्या होगा इस बारे में बोलकर? हमें क्या करना है? कुछ नहीं होना-जाना है? जैसे नकारात्मक विचारों वाले सवालों में मगन है। गरीबों को मारने वाली महंगाई बढने की एक वजह भ्रष्टाचार भी है। इस देश में कितने प्रतिशत लोग इंजीनियरिंग या मेडिकल कॉलेजों की केपिटेशन फ़ीस भरने के काबिल हैं? कितने प्रतिशत लोग अपोलो या किसी अन्य संगठित "कम्पनीनुमा" अस्पताल में इलाज करवाने की हैसियत रखते हैं? जब भी कोई ईमानदार अधिकारी इस नेता-उद्योगपति-अपराधी के चक्रव्यूह को तोड़ने की कोशिश करता है, उसका हश्र मंजूनाथ की तरह होता है। भ्रष्टाचार पर एक विशेष प्रकार की उदासीनता और नकारात्मकता बनी हुई है, जबकि ये सभी के जीवन को प्रभावित कर रहा है। "किरण बेदी पर लिखी हुई मेरी पोस्ट" के जवाब में कई मेल प्राप्त हुए थे, उसमें से एक मित्र ने महाराष्ट्र कैडर के एक बेहद ईमानदार आईपीएस अधिकारी वाय.पी.सिंह की पुस्तक "कार्नेज बाय एन्जेल्स" के बारे में बताया। वाय.पी.सिंह एक ईमानदार आईपीएस अधिकारी हैं ('थे' लिखना उचित नहीं है) उन्होंने सन १९८५ में पुलिस सेवा आरम्भ की और लगभग बीस वर्ष की सेवा के बाद २००५ में त्यागपत्र दे दिया। रिटायर्ड डीजीपी श्री एस.एस.पुरी ने वायपी सिंह के त्यागपत्र को देश और महाराष्ट्र की पुलिस के लिये बेहद दुःखद दिन बताया। पुलिस की नौकरी के दौरान उन्होंने जो अपमान, तनाव और दबाव भुगता वह उन्होंने अपनी पहली पुस्तक "कार्नेज बाय एंजेल्स" में व्यक्त किया। ईमानदार होने के कारण लगातार उन पर मानसिक हमले होते रहे। सेवानिवृत्ति के पश्चात वे पुरी साहब के साथ मिलकर गरीबों को कानूनी सहायता प्रदान करते हैं। अपने इस्तीफ़े में उन्होंने लिखा है, उन्हीं के शब्दों में - "देश के सबसे उम्दा पुलिस अफ़सरों में से एक होने के बावजूद लगातार मेरा अनादर किया जा रहा है, मुझे नीचा दिखाने की कोशिश हो रही है, मैं नौकरी तो कर रहा हूँ, लेकिन एक जिंदा लाश की तरह"। अपने उजले कार्यकाल में वे "यूटीआई यूएस-६४ घोटाले" और "पन्ना-मुक्ता तेल क्षेत्र घोटाले" आदि की जाँच में शामिल रहे, दिनांक १३-१४ दिसम्बर २००४ को रेडिफ़.कॉम के पत्रकार सलिल कुमार और विजय सिंह ने उनसे एक इंटरव्यू लिया, जिसमें उन्होंने पुलिस में फ़ैले भ्रष्टाचार, अनैतिकता और नेताओं की सांठगांठ के बारे में बताया। हिन्दी के पाठकों के लिये पेश है उसी इंटरव्यू का हिन्दी अनुवाद, क्योंकि अंग्रेजी में ऐसी पुस्तकें छपती तो हैं, लेकिन एक विशिष्ट वर्ग उन्हें पढता है और फ़िर वे लायब्रेरियों की शोभा बन कर रह जाती हैं, उन पुस्तकों के बारे में व्यापक प्रचार नहीं हो पाता और वे आम हिन्दी पाठक से दूर ही रह जाती हैं। इस पुस्तक के कुछ अध्याय अथवा अंश उपलब्ध होने पर उसका अनुवाद भी पेश करने की कोशिश करूँगा -

प्रश्न : आप अपने काम के दौरान लम्बे समय तक विभागीय समस्याओं से घिरे रहे, आपके इस्तीफ़े की मुख्य वजह क्या है?
उत्तर : यह निर्णय अचानक नहीं, बल्कि कई वर्षों के सोच-विचार के पश्चात लिया गया है।
प्रश्न : लेकिन मुख्यतः आपको किस बात ने उकसाया?
उत्तर : यह एक संयुक्त प्रभाव रहा, सन १९९६ में जब मैं सीबीआई में था तो मुझे अपने मूल कैडर अर्थात महाराष्ट्र लौटने के आदेश हुए। उस समय मैं कुछ बड़े घोटालों को लगभग उजागर करने की स्थिति में आ गया था, जिसमें यूटीआई का घोटाला प्रमुख था। अन्ततः जब सन २००१ में यूएस-६४ घोटाला जनता के सामने आया तब उससे दो करोड़ लोग सीधे तौर पर प्रभावित हुए, जिसमें कि अधिकतर निम्न-मध्यम वर्ग के लोग थे, जिन्होंने अपनी खून-पसीने की गाढ़ी कमाई इसमें खो दी। सीबीआई में जब कोई अधिकारी उत्तम और असाधारण काम करता है तो उसे प्रताड़ित किया जाता है, और भ्रष्ट अधिकारी मेडल और प्रमोशन पाते हैं। मैं जानता था कि मैं पुलिस में ज्यादा दिन तक नहीं रह पाऊँगा, और वही हुआ। सबसे आसान रास्ता था कि मैं भ्रष्टों के साथ हाथ मिला लूँ और जिन्दगी के मजे लूँ, लेकिन मैंने वह रास्ता नहीं अपनाया, उसके बजाय मैंने कानून की पढाई की और डिग्री हासिल की।
प्रश्न : यूटीआई घोटाले के लिये आप किसे जिम्मेदार मानते हैं?
उत्तर : इस घोटाले के लिये पूरा संगठन ही जिम्मेदार है, ये कोई एक दिन में होने वाला नहीं था, यह लगभग दस वर्षों के कुप्रबन्धन का नतीजा था, सन १९९५ में कुप्रबन्धन अपने सर्वोच्च स्तर पर था।
प्रश्न : अर्थात एस.ए.दवे जब इसके अध्यक्ष थे, तब?
उत्तर: हाँ, उन्हीं के कार्यकाल में, यूटीआई ने कई फ़र्जी निवेश किये, नियमों और कानून को ताक पर रख कर कई मनमाने निर्णय लिये।
प्रश्न : क्या आप थोड़ा स्पष्ट बतायेंगे?
उत्तर : यूटीआई खुले तौर पर उन शेयरों में निवेश कर रही थी जिन्हें "सेबी" ने प्रतिबन्धित कर दिया था, यह कहकर कि यूटीआई सेबी के नियमों से बँधी हुई नहीं है। यूटीआई ने "लॉक-इन शेयरों" और ऐसे ही डिबेन्चरों में भी निवेश किया। यदि सन १९९१ में ही इस बारे में सवाल उठाये जाते और सही काम किया गया होता तो यूएस-६४ घोटाला होता ही नहीं।
प्रश्न : क्या राजनेताओं ने इस देश को नीचा दिखाया है ? क्या नेता इस घोटाले में शामिल हैं?
उत्तर : बिना किसी राजनैतिक समर्थन के इतना बड़ा घोटाला होना सम्भव ही नहीं है। जब आप इसमें जाँच-दर-जाँच आगे बढते जाते हैं, तभी आपको नेताओं के किसी घोटाले में शामिल होने के बारे में पता चलता जाता है, लेकिन जनता के सामने सच्चाई कभी नहीं आने दी जाती।
प्रश्न : "पन्ना-मुक्ता तेलक्षेत्र" केस आपके सबसे विवादास्पद केसेस में रहा है। क्या आप इसके बारे में हमें कुछ बता सकते हैं?
उत्तर : ओएनजीसी ने इस बड़े तेलक्षेत्र की खोज की थी। जब सरकार द्वारा उसे प्रायवेट कम्पनियों के साथ साझा करने को कहा गया था, तब ओएनजीसी में काफ़ी चीखपुकार मची थी। ओएनजीसी के बडे़ अधिकारी इससे बहुत नाखुश थे, क्योंकि इस क्षेत्र में विपुल सम्भावनायें थीं। उनका तर्क था कि यदि सरकार को निजी कम्पनियों को देना ही है तो बिना खोजा हुआ या नई खोज के लिये तेलक्षेत्र देना चाहिये।
प्रश्न : सरकार को इसमें कितना नुकसान हुआ?
उत्तर : अभी तक इसका सही-सही आकलन नहीं हो पाया है, लेकिन लगभग पूरा का पूरा तेलक्षेत्र मुफ़्त में ही दे दिया गया। क्योंकि ओएनजीसी कि इसमें सिर्फ़ चालीस प्रतिशत हिस्सेदारी रखी गई जबकि रिलायंस और एनरॉन को बाकी का हिस्सा दे दिया गया।
(अब समझ में आया कि मैनेजमेंट गुरु जो "धीरुभाईज्म" सिखा रहे हैं, वह क्या है?)
प्रश्न : इस तेलक्षेत्र से कितना तेल उत्पादन होता है?
उत्तर : लगभग चालीस से पचास लाख टन सालाना। यह बहुमूल्य तेलक्षेत्र सरकार ने लगभग मुफ़्त में निजी कम्पनियों को दे दिया, जबकि ओएनजीसी ने सारी मेहनत की थी। इस "डीलिंग" की जाँच और पूछताछ के समय सीबीआई मुझसे बहुत नाराज थी। उन्होंने केस को उलझाने की कोशिश की, सीबीआई अधिकारियों ने मेरे फ़ोन काट दिये, मेरी कार और सहायक छीन ली गई, मेरा मकान खाली करवा लिया गया। जब उच्चतम न्यायालय ने इस पर नाराजगी जताई तब यह सिलसिला थमा। जब मुझे सीबीआई से निकाल दिया गया उस वक्त मैंने केन्द्रीय प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में शिकायत की थी, लेकिन उन अधिकारियों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।
प्रश्न : आपको कभी भी कोई जाँच पूरी नहीं करने दी गई।?
उत्तर : किसी भी मामले की सही जाँच तभी हो सकती है, जब शुरु से अन्त तक एक ही अधिकारी उस पर काम करे। अचानक, बीच में से ही आप को ट्रांसफ़र कर दिया जाता है, फ़िर एक भ्रष्ट अधिकारी आकर सारे मामले को रफ़ा-दफ़ा कर देता है या उसे और उलझा देता है। यह बहुत आम हो गया सा खेल है।
प्रश्न : आपने ग्लोबल ट्रस्ट बैंक और ओरियन्टल बैंक ऑफ़ कॉमर्स के विलय का भी विरोध किया था? क्यों?
उत्तर : उस विलय ने जमकर्ताओं का संरक्षण तो किया था, लेकिन शेयरधारकों को बहुत चोट पहुँचाई थी, और इस मामले में कुछ नियमों का उल्लंघन भी किया गया था, जिसके लिय आज तक किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया।
प्रश्न : कौन था जिम्मेदार?
उत्तर : निश्चित रूप से रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया। जबकि रिजर्व बैंक को यह मालूम था कि जीटीबी की अन्दरूनी हालत बहुत खराब है, फ़िर भी उसने एक प्रेस वार्ता में कहा कि घबराने की कोई जरूरत नहीं है, बैंक की स्थिति सही है, क्या यह आम जनता के साथ धोखाधड़ी नहीं है?
प्रश्न : चलिये वापस पुलिस में फ़ैले भ्रष्टाचार की तरफ़ आते हैं, क्या वाकई में आईपीएस अधिकारी एक हवलदार से भी अधिक भ्रष्ट हैं?
उत्तर : सामान्य मान्यता है कि भ्रष्टाचार का सम्बन्ध तनख्वाह से है, लेकिन ऐसा नहीं है। पुलिस के उच्चाधिकारी एक हवलदार से छः गुना अधिक वेतन पाते हैं (हवलदार का वेतन है ५०००/- और अधिकारी का ३०,०००/-), इसके अतिरिक्त अधिकारी को मकान, ड्रायवर सहित कार, फ़ोन, नौकर मिलता है, फ़िर भी वे भ्रष्ट हैं, वे जितना अधिक पैसा कमाते जाते हैं, उतने ही अधिक लालची होते जाते हैं। प्रतिमाह तीस हजार वेतन पाने वाला अधिकारी करोड़पति बनना चाहता है, इसलिये वह रिश्वत लेता है। फ़िर वह तीन करोड़ बनाने की सोचने लगता है, फ़िर पाँच करोड़, यह कभी खत्म नहीं होता। इसलिये वेतन और भ्रष्टाचार का कोई सम्बन्ध नहीं है। भ्रष्टाचार दरअसल एक मानसिक स्थिति है, इसे आप लालच से जोड़कर देख सकते हैं। मैंने कई हवलदार ऐसे भी देखे हैं, जो उनके वरिष्ठ अधिकारियों से कहीं अधिक ईमानदार हैं (हाल ही में एक रिक्शाचालक नें सवारी के छूटे हुए दस लाख रुपये खुद होकर थाने में जमा कराये) । इसी के साथ भ्रष्टाचार को भी आप कई श्रेणियों में बाँट सकते हैं, कुछ अधिकारी कट्टर तौर पर ईमानदार होते हैं, वे दूसरों को भी रिश्वत नहीं लेने देते, ऐसे लोग कम ही हैं। कुछ ऐसे हैं जो खुद पैसा नहीं लेते, लेकिन दूसरे लेने वाले को रोकते नहीं है, हालांकि वे ईमानदार हैं, लेकिन मैं उन्हें "रीढविहीन"मानता हूँ। ऐसे लोग लगभग मृतप्राय होते हैं। पुलिस फ़ोर्स में भ्रष्टाचार संस्थागत बीमारी बन गया है। उन्हीं अफ़सरों को मुख्य पोस्टिंग दी जाती है जो भ्रष्ट हैं, फ़िर यह उनकी आदत बन जाती है, आसानी से मिलने वाली रिश्वत के अलावा भी वे और दाँव लगाने और पैसा कमाने की जुगत में लगे रहते हैं।
प्रश्न : एक आईपीएस के लिये कमाई की कितनी सम्भावना होती है?
उत्तर : यदि कोई अफ़सर मुम्बई में पदस्थ है तो वह आसानी से पच्चीस से तीस लाख रुपये प्रतिमाह तो सिर्फ़ लेडीज बार से ही कमा लेता है।
प्रश्न : एक महीने में?
उत्तर : जी हाँ, कुछ लेडीज बार पाँच लाख रुपये महीना देते हैं और कुछ छोटे बार एक लाख रुपये प्रतिमाह।
प्रश्न : क्या सभी लेडीज बार रिश्वत देते हैं?
उत्तर : उसके बिना वे धंधा कर ही नहीं सकते।
प्रश्न : क्या सभी उच्चाधिकारी भ्रष्ट हैं?
उत्तर : नहीं, सभी नहीं, लेकिन जो रिश्वत नहीं मांगते वे इस बुराई को दूर करने के लिये कुछ करते भी नहीं, इसलिये एक तरह से वे बेकार हैं। भ्रष्टाचार का दूसरा मुख्य कारण है पैसा देकर पोस्टिंग खरीदना, फ़िर आप निर्भय हो जाते हैं, क्योंकि आप के सिर पर उस नेता का हाथ होता है, जिसने आपसे पैसा लिया है। उस पैसे को वसूल करने के लिये व्यक्ति और जमकर भ्रष्टाचार करता है, क्योंकि उसे रोकने वाला कोई होता ही नहीं।
प्रश्न : आपने अपनी पुस्तक में आईपीएस पोस्टिंग के लिये लॉबिंग के बारे में बताया है, क्या आप इसे विस्तार से बता सकते हैं?
उत्तर : आईपीएस की पोस्टिंग बिकती हैं, उसके लिये आपको किसी दलाल या नेता का करीबी होना होता है।
प्रश्न : ये दलाल कौन लोग होते हैं?
उत्तर : कोई भी हो सकता है, साधारणतः ये वे लोग होते हैं जिनके नेताओं से सम्पर्क होते हैं, बडे़ व्यापारी, कुछ वरिष्ठ नौकरशाह आदि। यदि किसी को कोई खास जगह की पोस्टिंग चाहिये होती है तो वह इनसे सम्पर्क करता है, ये लोग नेताओं के द्वारा उसका काम करवा देते हैं।
प्रश्न : क्या तेलगी घोटाले के बाद इसमें कोई कमी आई है?
उत्तर : कुछ खास नहीं, सौ भ्रष्ट अधिकारियों में से एक-दो को पकड़ा भी जायें तो कोई अन्तर नहीं आता। बल्कि दूसरे अधिक सतर्क हो जाते हैं, और सब कुछ पहले की तरह ही चलता रहता है।
प्रश्न : क्या आप कहना चाहते हैं कि पूरी मुम्बई में एक भी अधिकारी ईमानदार नहीं है?
उत्तर : यदि होगा तो वह भी मेरे जैसी स्थिति में ही होगा।
प्रश्न : आपने पुस्तक में लिखा है कि एक नया अफ़सर अपने कांस्टेबल से ही भ्रष्टाचार सीखता है, क्या यह सच है?
उत्तर : ये बातें सिखाई नहीं जातीं, सिस्टम में से अपने-आप आ जाती हैं। कई नागरिक आपसे मिलेंगे और कहेंगे, "अरे साहब हम तो पुलिस वालों के मित्र हैं", फ़िर धीरे-धीरे वे ही आपको विभिन्न "आईडिया" देने लग जाते हैं। भ्रष्ट अफ़सर अपना एक दलाल तैयार कर लेते हैं, जो कि अमूमन सब-इंस्पेक्टर स्तर का होता है, फ़िर एक-दो महीने में नया अफ़सर सब कुछ सीख जाता है। यह सीखने के लिये किसी विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं होती। प्रत्येक राज्य में उच्च स्तर के गिने-चुने अधिकारी ही होते हैं, एक अधिकारी एक जिले में जब "गुल" खिला चुका होता है और उसका तबादला दूसरे जिले में होता है तो तब तक दलालों और उच्चाधिकारियों के पास उसका पूरा चिठ्ठा मौजूद होता है, और वह खुद भी यही चाहता है।
प्रश्न : भ्रष्टाचार का संस्थानीकरण कैसे होता है, और रिश्वत की रकम कैसे तय की जाती है?
उत्तर : यह कमाई की सम्भावना पर निर्भर होता है। कस्टम विभाग का एक उदाहरण लें, मान लीजिये कि कोई फ़ोन सौ रुपये का है, उस पर कस्टम ड्यूटी साठ प्रतिशत के हिसाब से साठ रुपये होती है। एक भ्रष्ट कस्टम अफ़सर उस फ़ोन की कीमत दस रुपये बताता है, तो कस्टम ड्यूटी मात्र छः रुपये रह जाती है और सरकार को छप्पन रुपये का नुकसान होता है। इसमें से बीस प्रतिशत, मतलब ग्यारह रुपये उस कस्टम अफ़सर की रिशवत होती है। इस प्रकार रिश्वत का आकलन होता है।
प्रश्न : किन पोस्टिंग को वरीयता दी जाती है?
उत्तर : सबसे अधिक कस्टम्स विभाग में, हालांकि उदारीकरण के बाद इसमें थोडी़ कमी आई है, और दूसरे नम्बर पर है आयकर विभाग। एक बेईमान आयकर अधिकारी अपनी पैंतीस वर्ष की सेवा में सरकार का लगभग एक हजार करोड़ का नुकसान करता है। यह पैसा सरकार आधारभूत ढाँचे, अस्पताल, स्कूल, पेंशन आदि में खर्च करती।
प्रश्न : फ़िर सीबीआई और एंटी-करप्शन ब्यूरो आदि इसे क्यों रोक नहीं पाते?
उत्तर : सारा पैसा भ्रष्ट अधिकारी अकेले नहीं रखता, वह पूरा ऊपर तक बँटता हुआ जाता है। यदि कोई बीच में इसे रोकने की कोशिश करता है तो उसे प्रताडि़त किया जाता है, और मनुष्य है तो कभी-ना-कभी गलती तो करेगा ही, बस फ़िर सब मिलकर उसे ही फ़ाँस लेते हैं।
प्रश्न : आप पुलिस फ़ोर्स की बहुत ही धूमिल छवि पेश कर रहे हैं।
उत्तर : मैं सच्ची छवि पेश कर रहा हूँ, यह कोई रहस्य नहीं है, सभी लोग इसे जानते हैं। आपके चारों तरफ़ अचानक अवैध इमारतें और झुग्गी-झोंपडियाँ खड़ी हो जाती हैं, क्या आप समझते हैं कि कोई इसके बारे में नहीं जानता? माटुंगा (मुम्बई का एक उपनगर) में डाकतार विभाग और कस्टम विभाग की कालोनियाँ पास-पास ही हैं, जरा वहाँ जाकर देखिये, तीसरी श्रेणी के अधिकारियों की कालोनियाँ हैं वे। कस्टम विभाग की कालोनी में आपको कारें, कारें और सिर्फ़ कारें ही मिलेंगी, जबकि डाकतार कालोनी में शायद ही एकाध कार हो, और दोनों केन्द्रीय विभागों के उन अधिकारियों के वेतन और तमाम स्केल्स बराबर हैं।
प्रश्न : आपकी पुस्तक में "रघु" जो एक सब-इंस्पेक्टर है, उसे कोल्हापुर में एक एसपी दो घंटे तक कमरे के बाहर खड़ा रखता है, फ़िर वह एसपी उसे ठीक से सेल्यूट ना करने के लिये बुरी तरह डाँटता है, क्या यह एक वास्तविक घटना है?
उत्तर : हाँ, साधारणतया यही होता है, इसके पीछे की चाल यह है कि जूनियर को अपमानित करो, उसे उसकी औकात दिखाओ, एक तरह से उसकी रैगिंग लो, एक बार जब वह झुक जायेगा तो फ़िर वह आपके लिये काम करने लगेगा और आप उसे आसानी से "मैनेज" कर लेंगे।
प्रश्न : आपके प्रमोशन के बारे में?
उत्तर : मेरी बैच में ८२ अफ़सर थे, मुझे छोड़कर लगभग सभी या तो "डिप्टी-कमिश्नर" हैं या "ज्वाईंट कमिश्नर", जबकि मैं अभी भी पुलिस रैंक का डिप्टी कमिश्नर हूँ।
प्रश्न : क्या आपके बच्चे आईपीएस में आयेंगे?
उत्तर : उन्हें आईपीएस का आकर्षण तो है, लेकिन वे समझते नहीं है, उनके लिये आकर्षण है, पुलिस की वर्दी, बैज, जीप, बंगला। मेरी बेटी आईपीएस में आना चाहती है, लेकिन अभी वह बहुत छोटी है इसलिये कुछ समझती नहीं, हाँ बेटा जरूर दसवीं में है और वह मेरी पीड़ा को समझ सकता है।

(वायपी सिंह की दूसरी पुस्तक "वल्चर्स इन लव" कहानी है एक आईएएस महिला राजस्व अधिकारी की, जिसमें प्रशासनिक स्तर पर फ़ैली यौनिकता और सड़ाँध के बारे में बताया गया है। संक्षेप में इसकी कहानी यह है कि एक महिला राजस्व अधिकारी की शादी एक कस्टम अधिकारी से होती है, दोनों मिलकर अथाह सम्पत्ति एकत्रित करते हैं, फ़िर सीबीआई का छापा पड़ता है, लेकिन छापा मारने वाला सीबीआई पुलिस अधिकारी उस महिला राजस्व अधिकारी का पूर्व प्रेमी निकलता है, फ़िर शुरु होता है पैसे, सेक्स और सत्ता का नंगा खेल। भले ही सिंह साहब ने पुस्तक के शुरु में लिखा हो कि "यह एक काल्पनिक कथा है" लेकिन पुस्तक की रिलीज के वक्त कई कस्टम्स अधिकारियों के ड्रायवर वह पुस्तक खरीदने के लिये खडे़ थे। "कार्नेज बाय एंजेल्स" पर भी छगन भुजबल बहुत भड़के थे, पता नहीं क्यों?)


मुझे अहसास है कि यह सब पढ़कर कई लोग सन्न रह गये होंगे, लेकिन यही सच्चाई है। आजादी के इस पर्व पर सभी लोग मीठी-मीठी और रूमानी बातें ही करेंगे, तो मैंने सोचा कि मैं ही बुरा बनूँ और एक सामाजिक कैंसर जिसे सब जानते हैं, लेकिन उसे ढँके रहते है, को मैं उघाड़ने की कोशिश करूँ। किसी कवि की चार पंक्तियाँ कहीं पढीं थीं, उसे उद्धृत कर रहा हूँ -
एक बार जो आउते बापू
नेक बात समझाउते बापू
सत्य-अहिंसा कहतई भर में
बीसन लप्पर पाऊते बापू

मतलब यह कि यदि गाँधी दोबारा आ जाते हमें नेक बातें समझाते रहते। लेकिन सत्य-अहिंसा की बात कहते ही उनमें बीसियों चाँटे पड़ जाते। लेकिन यह दौर ही पाखंड का है, फ़र्जी गाँधीगिरी चलाई जा रही है, ट्रैफ़िक पुलिस वाला चुन-चुनकर महिलाओं को ही फ़ूल दे रहा है, जबकि दो कौड़ी की औकात वाले विधायक का बेटा उसके सामने से बिना नम्बर की गाड़ी तीन लोगों को बिठाकर ले जाता है। हम यह
मानने को तैयार ही नहीं हैं कि हम स्वयं पाखंडी हैं।
दो-दो लड़कियों की भ्रूण हत्या करवाने वाला नवरात्रि में "कन्या भोज" आयोजित कर रहा है, घर-घर में "जोर से कहो कंडोम" के जयकारे लग रहे हैं, शहीद की विधवा पेंशन पाने तक के लिये दर-दर की ठोकरें खा रही है, देश की चालीस प्रतिशत आबादी आधे पेट सोती है, पैसे वाला जमीने खरीद कर शॉपिंग मॉल और टाउनशिप बनवा रहा है और उसी जमीन का मालिक किसान या तो आत्महत्या कर रहा है, या बाँधों में डूबती जा रही अपनी जमीन को बेबस देख रहा है... क्या-क्या और कितना कहा जाये... क्या सचमुच हमें आजादी का जश्न मनाने का हक है?

(सिर्फ़ इंटरव्यू वाला हिस्सा ही अनुवाद है, बाकी के विचारों की जिम्मेदारी मेरी है)
इतना बड़ा ब्लॉग एक बार में लिखने के लिये माफ़ करें, आशा है कि मित्रों ने इसे पूरा पढा होगा, लेकिन यदि इसे दो भागों में पेश करता तो इसका प्रभाव समाप्त हो जाता।
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आप सोनिया गाँधी को कितना जानते हैं (भाग-१ और भाग-२) की पोस्टिंग के पश्चात मानो मेरे मेल बॉक्स में बाढ़ आ गई है। कुछ मित्रों ने सामने आकर टिप्पणियाँ की हैं, लेकिन अधिकतर मेल जो प्राप्त हुए हैं वे Anonymous या फ़र्जी ई-मेल पतों से भेजे गये हैं। समझ में नहीं आता कि आखिर सामने आकर, अपनी पहचान बताकर, गालियाँ देने में क्या हर्ज है?

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सोनिया गाँधी भारत की प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं या नहीं, इस प्रश्न का "धर्मनिरपेक्षता", या "हिन्दू राष्ट्रवाद" या "भारत की बहुलवादी संस्कृति" से कोई लेना-देना नहीं है। इसका पूरी तरह से नाता इस बात से है कि उनका जन्म इटली में हुआ, लेकिन यही एक बात नहीं है, सबसे पहली बात तो यह कि देश के सबसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन कराने के लिये कैसे उन पर भरोसा किया जाये। सन १९९८ में एक रैली में उन्होंने कहा था कि "अपनी आखिरी साँस तक मैं भारतीय हूँ", बहुत ही उच्च विचार है, लेकिन तथ्यों के आधार पर यह बेहद खोखला ठहरता है।

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जब इंटरनेट और ब्लॉग की दुनिया में आया तो सोनिया गाँधी के बारे में काफ़ी कुछ पढने को मिला । पहले तो मैंने भी इस पर विश्वास नहीं किया और इसे मात्र बकवास सोच कर खारिज कर दिया, लेकिन एक-दो नहीं कई साईटों पर कई लेखकों ने सोनिया के बारे में काफ़ी कुछ लिखा है जो कि अभी तक प्रिंट मीडिया में नहीं आया है (और भारत में इंटरनेट कितने और किस प्रकार के लोग उपयोग करते हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं है) ।

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संजय दत्त को मिली सजा के विरोध में जिस तरह का बेतुका, तर्कहीन और भौंडा प्रदर्शन जारी है, उसे देखते हुए एक कानूनपसन्द व्यक्ति का चिंतित होना स्वाभाविक है । इस मुहिम को जिस तरह मीडिया हवा दे रहा है वह और भी खतरनाक है, क्योंकि मीडिया की सामाजिक जिम्मेदारी नेताओं से कहीं अधिक है, संजू बाबा ये कर रहे हैं, संजू बाबा ने वह किया, अब उन्होंने मुँह धोया, तब उन्होंने क्या खाया...इस सबसे आम जनता का क्या लेना-देना है ? संजय दत्त को सजा देने के विरोधियों के मुख्य तर्क इस प्रकार हैं -

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