बौद्ध आतंक(?) और बर्मा का ओसामा...
इसे किसी एक पत्रकार की इतिहास और
संस्कृति के बारे में जानकारी का “दिवालियापन” कहें या उत्तेजना फैला कर क्षणिक प्रचार पाने की भूख कहें, यह समझना
मुश्किल है. विश्व में प्रतिष्ठित मानी जाने वाली अमेरिका की पत्रिका “टाईम” में गत माह एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसकी
लेखिका हैं हन्नाह बीच. टाईम पत्रिका की कवर स्टोरी बनना और उसके मुखपृष्ठ पर
प्रकाशित होना एक “सर्कल विशेष” में बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती है. हन्नाह बीच ने बर्मा में पिछले
एक-दो वर्ष से जारी जातीय हिंसा को कवर स्टोरी बनाते हुए लेख लिखा है जिसका शीर्षक
है – “बौद्ध आतंक का चेहरा”.
इस शीर्षक पर कड़ी आपत्ति जताते हुए बर्मा
के राष्ट्रपति थिआं सेन ने बौद्ध संस्कृति के घोर अपमान तथा बौद्ध धर्म और बर्मी
राष्ट्रवाद के समर्थन में हन्नाह बीच और टाईम पत्रिका पर मानहानि का दावा करने का
निश्चय किया है. राष्ट्रपति के समर्थन में आम जनता भी साथ आ गई है, और हजारों
बौद्ध भिक्षुओं के साथ बर्मा की राजधानी यंगून में अमेरिकी दूतावास के सामने
शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया गया.
यह लेख प्रकाशित होने तथा मामले के इतना
तूल पकड़ने की वजह हैं ४४ वर्षीय बौद्ध धर्मगुरु भंते वीराथू. सितम्बर २०१२ में
बौद्ध भिक्षुओं के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए भंते विरथू ने बर्मी राष्ट्रपति
द्वारा अवैध रूप से देश में घुसे बांग्लादेशियों को देश से खदेड़ने सम्बन्धी क़ानून
का समर्थन किया था. पिछले लगभग एक साल से बांग्लादेश सीमा पार कर बर्मा में घुसे
हुए रोहिंग्या मुसलमानों और स्थानीय बौद्ध भिक्षुओं व निवासियों के बीच तनातनी का
माहौल चल रहा था. इस बीच रखिने प्रांत में एक मामूली विवाद के बाद हिंसा भड़क उठी,
जो देखते ही देखते अन्य शहरों में भी फ़ैल गई. भंते विरथू का दावा है कि एक ज्वेलरी
दूकान में कुछ मुस्लिम युवकों द्वारा की गई बदतमीजी, लूट के प्रयास और मारपीट के
बाद बौद्ध समुदाय का गुस्सा उबल पड़ा. बौद्ध भिक्षुओं ने १४ बांग्लादेशी मुसलमानों
को मार दिया और कई मस्जिदों में आग लगा दी. उल्लेखनीय है कि सरकारी आँकड़ों के
मुताबिक़ लगभग सवा करोड़ अवैध बांग्लादेशी मुस्लिम बर्मा में घुसे हुए हैं जो
स्थानीय निवासियों को आए दिन परेशान करते रहते हैं.
भंते विराथू अपने राष्ट्रवादी भाषणों के
लिए जाने जाते हैं, और उनका यह वाक्य बर्मा में बहुत लोकप्रिय हुआ जिसमें उन्होंने
कहा कि – “...आप चाहे जितने भी भले और सहिष्णु क्यों ना हों,
लेकिन आप एक पागल कुत्ते के साथ सो नहीं सकते...”. उन्होंने आगे
कहा कि यदि हम कमजोर पड़े तो बर्मा को एक मुस्लिम राष्ट्र बनते देर नहीं लगेगी.
उनके ऐसे भाषणों को बांग्लादेशी मुस्लिम नेताओं ने “भडकाऊ” और “हिंसात्मक” करार दिया.
लेकिन भंते कहते हैं कि यह हमारे देश को संभालने की बात है, इसमें किसी बाहरी
व्यक्ति को बोलने का कोई हक नहीं है. बौद्ध सम्प्रदाय के लोग कभी भी हिंसक नहीं
रहे हैं, परन्तु बांग्लादेशी मुसलमान उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर कर रहे हैं”. इन्हीं भाषणों को आधार बनाकर टाईम पत्रिका ने एक कवर स्टोरी बना
मारी. इस स्टोरी में बौद्ध संस्कृति से अनजान, “नासमझ”(?) लेखिका ने ना सिर्फ “बौद्ध आतंक” शब्द का उपयोग किया, बल्कि भंते विरथू को “बर्मा का बिन
लादेन” तक चित्रित कर दिया गया.
बर्मा के राष्ट्रपति ने बौद्ध धर्मगुरु का
समर्थन करते हुए कहा है कि सरकार सभी धर्मगुरुओं और सभी पक्षों के नेताओं से चर्चा
कर रही है और इस्लाम विरोधी इस हिंसा का कोई ना कोई हल निकल आएगा. शांति बनाने के
लिए किए जा रहे इन उपायों को इस लेख में पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया गया है.
इसलिए शक होता है कि इस लेख के पीछे अतिवादी इस्लामिक बुद्धिजीवियों का हाथ हो
सकता है, जो कि समस्या की "जड़" (अर्थात अवैध बांग्लादेश घुसपैठिये तथा इस्लाम के नाम पर उन्हें
मिलने वाले स्थानीय समर्थन) पर ध्यान देने की बजाय “जेहाद” भड़काने की दिशा में बर्मा सरकार और बौद्ध समुदाय को बदनाम करने में
लगा हुआ है. भंते ने कहा कि टाईम मैगजीन की इस कवर स्टोरी से समूचे विश्व में
बौद्ध समुदाय की छवि को नुकसान पहुँचा है, इसीलिए हम इसका कड़ा विरोध करते हैं.
बौद्ध धर्म हिंसक कतई नहीं है, लेकिन यदि बांग्लादेशियों पर लगाम नहीं लगाई गई और
बर्मा में मुसलमानों की बढती आबादी की समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया, तो यह मामला
और आगे बढ़ सकता है. भंते ने बर्मा सरकार से अनुरोध किया है कि बौद्ध और मुस्लिम
समुदायों के बीच विवाह पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए, धर्मांतरण पर रोक लगनी चाहिए तथा
बांग्लादेशी मुसलमानों द्वारा किए जा रहे व्यवसाय और उनके कामकाज पर आर्थिक
बहिष्कार होना चाहिए. विराथू कहते हैं यह हमारे देश और धर्म को बचाने का आंदोलन
है. टाईम पत्रिका के इस लेख से हम कदम पीछे हटाने वाले नहीं हैं और अपने धर्म और
राष्ट्रवाद की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहेंगे.
अब आप सोच रहे होंगे कि इस मामले का हमारे
देश से क्या सम्बन्ध है? जरूर सोचिए... सोचना भी चाहिए... सोचने से ही तो “मीडिया द्वारा बंद की गई” दिमाग की खिड़कियाँ
खुलती हैं और उनमें ताजी हवा आती है. लेख को पढ़ने के बाद निश्चित रूप से आपके
दिमाग की घंटियाँ बजी होंगी... “हिन्दू आतंक” शब्द भी गूँजा होगा, तथा हिन्दू आतंक शब्द का विरोध करने वालों को “साम्प्रदायिक” कहने के “फैशन” पर भी विचार आया होगा. दिल्ली-मुम्बई
समेत असम और त्रिपुरा जैसे सुदूर राज्यों में घुसे बैठे लाखों अवैध बांग्लादेशियों
और इस्लाम के नाम पर उन्हें मिलने वाले “स्थानीय
समर्थन” के बारे में भी थोड़ा दिमाग हिला ही होगा... इसी
प्रकार भारत में “मूलनिवासी” के नाम पर
व्यवस्थित रूप से चलाए जा रहे “बौद्धिक आतंकवाद” की तरफ भी ध्यान गया ही होगा. लखनऊ में बुद्ध प्रतिमा पर चढ़े बैठे और
तोड़फोड़ मचाते “शांतिदूतों” का चित्र भी
आँखों के सामने घूमा ही होगा. उन “शांतिदूतों” की उस हरकत पर दलित विचारकों-चिंतकों(?) की ठंडी प्रतिक्रिया भी आपने
सुनी ही होगी... तात्पर्य यह कि सोचते जाईये, सोचते जाईये, आपके दिमाग के बहुत से
जाले साफ़ होते जाएँगे... बर्मा के बौद्ध धर्मावलंबी तो जाग चुके, लेकिन आप “नकली-सेकुलरिज्म की अफीम” चाटे अभी भी सोए हुए
हैं.
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