टाइम्स ऑफ़ इंडिया और जंग द्वारा “अमन की आशा” क्या है? – धंधेबाजी, मूर्खता या शतुरमुर्गी रवैया?… Aman ki Asha, Times of India, Jung, India-Pakistan
Written by Super User बुधवार, 20 जनवरी 2010 11:45
अंग्रेजों के नववर्ष के दिन अर्थात 1 जनवरी 2010 से भारत के टाइम्स समूह तथा पाकिस्तान के अखबार “जंग” ने एक तथाकथित शांति मुहिम की शुरुआत के तहत “अमन की आशा” के नाम से एक अभियान छेड़ा है। इसके उद्देश्यों की फ़ेहरिस्त में, भारत और पाकिस्तान के बीच मैत्रीपूर्ण एकता स्थापित करना, दोनों देशों की जनता के बीच मधुर सम्बन्ध बनाना तथा आतंकवाद का मिलजुलकर मुकाबला करने जैसी “महान रोमांटिक” किस्म की लफ़्फ़ाजियाँ शामिल हैं। इन अखबारों के इस “पुरस्कार-जुगाड़ू” काम में इनकी मदद करने के लिये कुछ सेलेब्रिटी (बल्कि इन्हें “नॉस्टैल्जिक” कहना ज्यादा उचित है) नाम भी सदा की तरह शामिल हैं, जैसे कुलदीप नैयर, अमिताभ बच्चन, महेश भट्ट, सलमान हैदर तथा गुलज़ार आदि… और हाँ… यासीन मलिक जैसे सेकुलरों के “कृपापात्र” आतंकवादी भी।
पाकिस्तान में जो हैसियत, इज़्ज़त और छवि कराची से निकलने वाले “डॉन” अखबार की है उसके मुकाबले टाइम्स समूह ने “जंग” जैसे अखबार से हाथ मिलाने का फ़ैसला क्यों किया, सबसे पहला सवाल तो यही उठाया जा रहा है। संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि जंग अखबार के मालिकान की विवादास्पद भूमिका और उनके धनलोलुप होने की वजह से ही इस गठबंधन ने आकार लिया है और “धंधेबाजी” का शक यहीं से गहराना शुरु हो जाता है, क्योंकि इस अभियान की शुरुआत ही इस बात से हुई है कि भारत-पाकिस्तान के बीच व्यापार की क्या संभावनाएं हैं, इसे कैसे बढ़ाया जा सकता है, इसमें और किन क्षेत्रों को शामिल किया जा सकता है… आदि-आदि।
ऊपर नामित महान नॉस्टेल्जिक लोगों और टाइम्स ने कभी इस मामूली बात पर गौर किया है कि 1947 में एक साथ आज़ाद होने के बावजूद आज पाकिस्तान कहाँ रह गया और भारत कहाँ पहुँच गया है, तो उसका कारण क्या है? कारण साफ़ है कि पाकिस्तान का गठन इस्लाम के नाम पर हुआ है और वहाँ कभी लोकतन्त्र नहीं पनप सका, लेकिन सावन के अंधों को अब भी हरा ही हरा सूझ रहा है और ये लोग इस उम्मीद में अपना सिर पत्थर से फ़ोड़ रहे हैं कि शायद पत्थर टूट जाये। क्या कभी इन्होंने सोचा है कि विश्व भर के तमाम आतंकवादी अपनी सबसे सुरक्षित पनाहगाह पाकिस्तान को क्यों मानते हैं? क्योंकि उन आतंकवादियों जैसी मानसिकता वाले लाखों लोग वहाँ उन्हें “पारिवारिक” वातावरण मुहैया करवाते हैं, क्योंकि पाकिस्तान की शिक्षा व्यवस्था में ही दो-दो पीढ़ियों में “भारत से घृणा करो” का भाव फ़ैलाया गया है, क्या ऐसे लोगों से स्वस्थ दोस्ती सम्भव हो सकती है? कभी नहीं। लेकिन ये आसान सी बात स्वप्नदर्शियों को समझाये कौन?
ऐसे में शक होना स्वाभाविक है कि टाइम्स और जंग द्वारा “भारत-पाक भाई-भाई” (http://timesofindia.indiatimes.com/amankiasha.cms) का रोमांटिक नारा लगाने के पीछे आखिर कौन सी चाल है? शान्ति के पक्ष में जैसे कसीदे टाइम्स ने भारत की तरफ़ से काढ़े हैं, वैसे ही कसीदे जंग ने उधर पाकिस्तान में क्यों नहीं काढ़े? क्या यहाँ भी बांग्लादेशी भिखारियों को 4500 करोड़ का अनुदान देने जैसा एकतरफ़ा “संतत्व” का भाव है… या कश्मीर के मामले पर अन्दर ही अन्दर कोई खिचड़ी पक रही है, जिसकी परिणति शर्म-अल-शेख जैसे किसी शर्मनाक हाथ मिलाने के रूप में होगी? या फ़िर दोनों अखबार मिलकर, कहीं से किसी अन्तर्राष्ट्रीय “फ़ण्ड” या पुरस्कार की व्यवस्था में तो नहीं लगे हैं? पान, चावल, शकर और आलू निर्यात व्यापारियों की लॉबी तो इसमें प्रमुख भूमिका नहीं निभा रही? फ़िल्म वालों के जुड़ने की वजह से यह बॉलीवुड इंडस्ट्री द्वारा अपना व्यवसाय पाकिस्तान में मजबूत करने की भी जुगाड़ नज़र आती है…। यह सारी शंकाएं-कुशंकाएं इसीलिये हैं कि भारतीय हो या पाकिस्तानी, जब फ़ायदा, धंधा, लाभ, पैसे का गणित जैसी बात सामने आती है तब राष्ट्र-गौरव, स्वाभिमान जैसी बातें (जो कभीकभार 15 अगस्त वगैरह को झाड़-पोंछकर बाहर निकाली जाती हैं), तुरन्त “पैरपोंछ” के नीचे सरका दी जाती हैं, और हें-हें-हें-हें करते हुए दाँत निपोरकर पाकिस्तान तो क्या, ये लोग लादेन से भी हाथ मिलाने में संकोच नहीं करेंगे, इसलिये इन दोनों अखबारों की गतिविधियों पर बारीक नज़र रखने की जरूरत तो है ही, “तथाकथित शान्ति” के इस “बड़े खेल” में परदे के पीछे से इन दोनों के कान में फ़ुसफ़ुसाने वाली “ताकत” कौन सी है, यह अभी पहचानना बाकी है। अधिक अफ़सोसनाक इसलिये भी है कि यह तमाशा तब हो रहा है जब कश्मीरी पंडितों को “घाटी से निकल जाओ और अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाओ” का फ़रमान सुनाने के बीस वर्ष पूरे हो चुके हैं, लेकिन चूंकि कश्मीरी पंडित कोई “फ़िलीस्तीनी मुसलमान” तो हैं नहीं इसलिये इस महान “सेकुलर” देश में ही पराये हैं।
शक का आधार मजबूत है, क्योंकि यह एक नितांत हवाई कवायद है, इसमें फ़िलहाल भारत सरकार और इसके आधिकारिक संगठन खुले रूप में कहीं भी तस्वीर में नहीं हैं। पाकिस्तान, उसके इतिहास और वहाँ की सरकारों द्वारा किये वादों से मुकरने का एक कटु अनुभव हमारे साथ है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया वाले पाकिस्तान से यह पुरानी बात क्यों नहीं पूछते कि विभाजन के समय जो करोड़ों का ॠण (अब ब्याज मिलाकर अरबों का हो गया है) वह पाकिस्तान कब लौटाने वाला है? या फ़िर एकदम ताजी बात, कि 26/11 के हमले के बाद पाकिस्तान ने कोई ठोस कदम उठाकर किसी आतंकवादी को गिरफ़्तार क्यों नहीं किया? लेकिन मेहमानों से असुविधाजनक सवाल पूछने की परम्परा हमारे यहाँ कभी रही नहीं, उन्हें बिरयानी-मटन खिलाने की जरूर रही है। अब भारत के “गीली मिट्टी” के मंत्री, हवाई जहाज के अपहरण करने पर मौत की सजा के प्रावधान की दिखावटी और भोंदू किस्म की बातें कर रहे हैं, जबकि जिसे सुप्रीम कोर्ट मौत की सजा दे चुका है उसे तो फ़ाँसी देने की हिम्मत हो नहीं रही… (अब तो कसाब को बचाने के लिये भी कुछ “कुख्यात बुद्धिजीवी” आगे आने लगे हैं), उधर ये दोनों धंधेबाज अखबार उपदेश झाड़ने, एकता के गीत गाने और नॉस्टेल्जिक लोगों के सहारे बासी कढ़ी में उबाल लाने की कोशिशों में लगे हैं। वे बतायें कि पिछले एक साल में पाकिस्तान की मानसिकता में ऐसा क्या बदलाव आ गया है जो हम हाथ बढ़ाने के लिये मरे जायें।
अमन की आशा कम से कम भारत में तो काफ़ी लोगों को सदा से रही है, पाकिस्तान के लोगों से अच्छे सम्बन्ध बनें इसकी भी चाहत है, लेकिन यदि पिछले 60 साल में गंगा और चिनाब में बहे पानी को भूल भी जायें तब भी पिछले एकाध-दो साल में ही इतना कुछ हो चुका है कि भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती की बात करना लगभग “थूक कर चाटने” जैसा मामला बन चुका है।
हमारी पिलपिलाई हुई विदेश नीति तो ऐसी है कि मुम्बई हमले के बाद, 40 आतंकवादियों की लिस्ट से शुरु करके धीरे से 20 पर आ गये, फ़िर “सैम अंकल” के कहने पर सिर्फ़ एक लखवी पर आ गये और अब तो अमेरिका की शह पर पाकिस्तान खुलेआम कह रहा है कि किसी को भारत को सौंपने का सवाल ही नहीं है… सोच-सोचकर हैरत होती है कि वे लोग कितने मूर्ख होंगे जो यह सोचते हैं कि पाकिस्तान कभी भारत का दोस्त भी बन सकता है। जिस देश का विभाजन/गठन ही धार्मिक आधार पर हुआ, जिसके मदरसों में कट्टर इस्लामिक शिक्षा दी जाती हो, जो देश भारत के हाथों चार-चार बार पिट चुका हो, जिसके दो टुकड़े हमने किये हों… क्या ऐसा देश कभी हमारा दोस्त हो सकता है? दोनों जर्मनी एकत्रित हो सकते हैं, दोनो कोरिया आपस में दोस्त बन सकते हैं, लेकिन हमसे बार-बार पिटा हुआ एक ऐसा देश जिसकी बुनियाद इस्लाम के नाम पर रखी गई है… वह कभी भी “मूर्तिपूजकों के देश” का सच्चा दोस्त नहीं बन सकता, कभी न कभी पीठ में छुरा घोंपेगा जरूर…। लेकिन इतनी सी बात भी उच्च स्तर पर बैठे लोगों को समझ में नहीं आती?… तरस आता है…
चलते-चलते इस लिंक पर एक निगाह अवश्य डालियेगा http://www.indianexpress.com/news/man-moves-hc-to-get-back-wife/563838/ जो साफ़ तौर पर रजनीश-अमीना यूसुफ़ जैसा ही मामला नज़र आ रहा है… टाइम्स वाले बतायें कि ऐसी मानसिकता वाले लोगों से आप "अमन की आशा" की उम्मीद रखे हुए हैं? रिज़वान मामले पर रो-रोकर अपने कपड़े फ़ाड़ने वाले देश के नामचीन "सेकुलर पत्रकार"(?) रजनीश मामले पर चुप्पी साधे हुए हैं, यदि वाकई मर्द हैं तो अमन की आशा के अलावा कभी "आशीष की आयशा" जैसा नारा भी लगाकर तो दिखायें…, कश्मीर की असली "मानसिकता" को समझें और पाकिस्तान नामक "खजेले कुत्ते" से दोस्ती का ढोंग-ढकोसला छोड़ें…"धंधा" ही करना है तो उसके लिये सारी दुनिया पड़ी है… कभी स्वाभिमान भी तो दिखाओ।
1) http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2009/06/jamat-e-islami-pakistan-talibani-plans_09.html
2) http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2009/03/pakistan-education-system-indian_17.html
3) http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2008/08/secular-intellectuals-terrorism-nation.html
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पाकिस्तान में जो हैसियत, इज़्ज़त और छवि कराची से निकलने वाले “डॉन” अखबार की है उसके मुकाबले टाइम्स समूह ने “जंग” जैसे अखबार से हाथ मिलाने का फ़ैसला क्यों किया, सबसे पहला सवाल तो यही उठाया जा रहा है। संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि जंग अखबार के मालिकान की विवादास्पद भूमिका और उनके धनलोलुप होने की वजह से ही इस गठबंधन ने आकार लिया है और “धंधेबाजी” का शक यहीं से गहराना शुरु हो जाता है, क्योंकि इस अभियान की शुरुआत ही इस बात से हुई है कि भारत-पाकिस्तान के बीच व्यापार की क्या संभावनाएं हैं, इसे कैसे बढ़ाया जा सकता है, इसमें और किन क्षेत्रों को शामिल किया जा सकता है… आदि-आदि।
ऊपर नामित महान नॉस्टेल्जिक लोगों और टाइम्स ने कभी इस मामूली बात पर गौर किया है कि 1947 में एक साथ आज़ाद होने के बावजूद आज पाकिस्तान कहाँ रह गया और भारत कहाँ पहुँच गया है, तो उसका कारण क्या है? कारण साफ़ है कि पाकिस्तान का गठन इस्लाम के नाम पर हुआ है और वहाँ कभी लोकतन्त्र नहीं पनप सका, लेकिन सावन के अंधों को अब भी हरा ही हरा सूझ रहा है और ये लोग इस उम्मीद में अपना सिर पत्थर से फ़ोड़ रहे हैं कि शायद पत्थर टूट जाये। क्या कभी इन्होंने सोचा है कि विश्व भर के तमाम आतंकवादी अपनी सबसे सुरक्षित पनाहगाह पाकिस्तान को क्यों मानते हैं? क्योंकि उन आतंकवादियों जैसी मानसिकता वाले लाखों लोग वहाँ उन्हें “पारिवारिक” वातावरण मुहैया करवाते हैं, क्योंकि पाकिस्तान की शिक्षा व्यवस्था में ही दो-दो पीढ़ियों में “भारत से घृणा करो” का भाव फ़ैलाया गया है, क्या ऐसे लोगों से स्वस्थ दोस्ती सम्भव हो सकती है? कभी नहीं। लेकिन ये आसान सी बात स्वप्नदर्शियों को समझाये कौन?
ऐसे में शक होना स्वाभाविक है कि टाइम्स और जंग द्वारा “भारत-पाक भाई-भाई” (http://timesofindia.indiatimes.com/amankiasha.cms) का रोमांटिक नारा लगाने के पीछे आखिर कौन सी चाल है? शान्ति के पक्ष में जैसे कसीदे टाइम्स ने भारत की तरफ़ से काढ़े हैं, वैसे ही कसीदे जंग ने उधर पाकिस्तान में क्यों नहीं काढ़े? क्या यहाँ भी बांग्लादेशी भिखारियों को 4500 करोड़ का अनुदान देने जैसा एकतरफ़ा “संतत्व” का भाव है… या कश्मीर के मामले पर अन्दर ही अन्दर कोई खिचड़ी पक रही है, जिसकी परिणति शर्म-अल-शेख जैसे किसी शर्मनाक हाथ मिलाने के रूप में होगी? या फ़िर दोनों अखबार मिलकर, कहीं से किसी अन्तर्राष्ट्रीय “फ़ण्ड” या पुरस्कार की व्यवस्था में तो नहीं लगे हैं? पान, चावल, शकर और आलू निर्यात व्यापारियों की लॉबी तो इसमें प्रमुख भूमिका नहीं निभा रही? फ़िल्म वालों के जुड़ने की वजह से यह बॉलीवुड इंडस्ट्री द्वारा अपना व्यवसाय पाकिस्तान में मजबूत करने की भी जुगाड़ नज़र आती है…। यह सारी शंकाएं-कुशंकाएं इसीलिये हैं कि भारतीय हो या पाकिस्तानी, जब फ़ायदा, धंधा, लाभ, पैसे का गणित जैसी बात सामने आती है तब राष्ट्र-गौरव, स्वाभिमान जैसी बातें (जो कभीकभार 15 अगस्त वगैरह को झाड़-पोंछकर बाहर निकाली जाती हैं), तुरन्त “पैरपोंछ” के नीचे सरका दी जाती हैं, और हें-हें-हें-हें करते हुए दाँत निपोरकर पाकिस्तान तो क्या, ये लोग लादेन से भी हाथ मिलाने में संकोच नहीं करेंगे, इसलिये इन दोनों अखबारों की गतिविधियों पर बारीक नज़र रखने की जरूरत तो है ही, “तथाकथित शान्ति” के इस “बड़े खेल” में परदे के पीछे से इन दोनों के कान में फ़ुसफ़ुसाने वाली “ताकत” कौन सी है, यह अभी पहचानना बाकी है। अधिक अफ़सोसनाक इसलिये भी है कि यह तमाशा तब हो रहा है जब कश्मीरी पंडितों को “घाटी से निकल जाओ और अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाओ” का फ़रमान सुनाने के बीस वर्ष पूरे हो चुके हैं, लेकिन चूंकि कश्मीरी पंडित कोई “फ़िलीस्तीनी मुसलमान” तो हैं नहीं इसलिये इस महान “सेकुलर” देश में ही पराये हैं।
शक का आधार मजबूत है, क्योंकि यह एक नितांत हवाई कवायद है, इसमें फ़िलहाल भारत सरकार और इसके आधिकारिक संगठन खुले रूप में कहीं भी तस्वीर में नहीं हैं। पाकिस्तान, उसके इतिहास और वहाँ की सरकारों द्वारा किये वादों से मुकरने का एक कटु अनुभव हमारे साथ है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया वाले पाकिस्तान से यह पुरानी बात क्यों नहीं पूछते कि विभाजन के समय जो करोड़ों का ॠण (अब ब्याज मिलाकर अरबों का हो गया है) वह पाकिस्तान कब लौटाने वाला है? या फ़िर एकदम ताजी बात, कि 26/11 के हमले के बाद पाकिस्तान ने कोई ठोस कदम उठाकर किसी आतंकवादी को गिरफ़्तार क्यों नहीं किया? लेकिन मेहमानों से असुविधाजनक सवाल पूछने की परम्परा हमारे यहाँ कभी रही नहीं, उन्हें बिरयानी-मटन खिलाने की जरूर रही है। अब भारत के “गीली मिट्टी” के मंत्री, हवाई जहाज के अपहरण करने पर मौत की सजा के प्रावधान की दिखावटी और भोंदू किस्म की बातें कर रहे हैं, जबकि जिसे सुप्रीम कोर्ट मौत की सजा दे चुका है उसे तो फ़ाँसी देने की हिम्मत हो नहीं रही… (अब तो कसाब को बचाने के लिये भी कुछ “कुख्यात बुद्धिजीवी” आगे आने लगे हैं), उधर ये दोनों धंधेबाज अखबार उपदेश झाड़ने, एकता के गीत गाने और नॉस्टेल्जिक लोगों के सहारे बासी कढ़ी में उबाल लाने की कोशिशों में लगे हैं। वे बतायें कि पिछले एक साल में पाकिस्तान की मानसिकता में ऐसा क्या बदलाव आ गया है जो हम हाथ बढ़ाने के लिये मरे जायें।
अमन की आशा कम से कम भारत में तो काफ़ी लोगों को सदा से रही है, पाकिस्तान के लोगों से अच्छे सम्बन्ध बनें इसकी भी चाहत है, लेकिन यदि पिछले 60 साल में गंगा और चिनाब में बहे पानी को भूल भी जायें तब भी पिछले एकाध-दो साल में ही इतना कुछ हो चुका है कि भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती की बात करना लगभग “थूक कर चाटने” जैसा मामला बन चुका है।
हमारी पिलपिलाई हुई विदेश नीति तो ऐसी है कि मुम्बई हमले के बाद, 40 आतंकवादियों की लिस्ट से शुरु करके धीरे से 20 पर आ गये, फ़िर “सैम अंकल” के कहने पर सिर्फ़ एक लखवी पर आ गये और अब तो अमेरिका की शह पर पाकिस्तान खुलेआम कह रहा है कि किसी को भारत को सौंपने का सवाल ही नहीं है… सोच-सोचकर हैरत होती है कि वे लोग कितने मूर्ख होंगे जो यह सोचते हैं कि पाकिस्तान कभी भारत का दोस्त भी बन सकता है। जिस देश का विभाजन/गठन ही धार्मिक आधार पर हुआ, जिसके मदरसों में कट्टर इस्लामिक शिक्षा दी जाती हो, जो देश भारत के हाथों चार-चार बार पिट चुका हो, जिसके दो टुकड़े हमने किये हों… क्या ऐसा देश कभी हमारा दोस्त हो सकता है? दोनों जर्मनी एकत्रित हो सकते हैं, दोनो कोरिया आपस में दोस्त बन सकते हैं, लेकिन हमसे बार-बार पिटा हुआ एक ऐसा देश जिसकी बुनियाद इस्लाम के नाम पर रखी गई है… वह कभी भी “मूर्तिपूजकों के देश” का सच्चा दोस्त नहीं बन सकता, कभी न कभी पीठ में छुरा घोंपेगा जरूर…। लेकिन इतनी सी बात भी उच्च स्तर पर बैठे लोगों को समझ में नहीं आती?… तरस आता है…
चलते-चलते इस लिंक पर एक निगाह अवश्य डालियेगा http://www.indianexpress.com/news/man-moves-hc-to-get-back-wife/563838/ जो साफ़ तौर पर रजनीश-अमीना यूसुफ़ जैसा ही मामला नज़र आ रहा है… टाइम्स वाले बतायें कि ऐसी मानसिकता वाले लोगों से आप "अमन की आशा" की उम्मीद रखे हुए हैं? रिज़वान मामले पर रो-रोकर अपने कपड़े फ़ाड़ने वाले देश के नामचीन "सेकुलर पत्रकार"(?) रजनीश मामले पर चुप्पी साधे हुए हैं, यदि वाकई मर्द हैं तो अमन की आशा के अलावा कभी "आशीष की आयशा" जैसा नारा भी लगाकर तो दिखायें…, कश्मीर की असली "मानसिकता" को समझें और पाकिस्तान नामक "खजेले कुत्ते" से दोस्ती का ढोंग-ढकोसला छोड़ें…"धंधा" ही करना है तो उसके लिये सारी दुनिया पड़ी है… कभी स्वाभिमान भी तो दिखाओ।
विषय से सम्बन्धित कुछ लेख अवश्य देखें ताकि आपको पाकिस्तान (और वहाँ की मानसिकता) की सही जानकारी मिल सके…
1) http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2009/06/jamat-e-islami-pakistan-talibani-plans_09.html
2) http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2009/03/pakistan-education-system-indian_17.html
3) http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2008/08/secular-intellectuals-terrorism-nation.html
Aman ki Asha, Times of India, Jung Newspaper Pakistan, Indo-Pak Friendship, India’s Business in Pakistan, Amitabh Bachchan, Kuldeep Nayyar, Gulzar, Mahesh Bhatt in Aman ki Asha, Terrorism and Kashmiri Pandits, Sharm-al-Sheikh, Kashmir Issue and India’s Stand, अमन की आशा, टाइम्स ऑफ़ इंडिया, जंग, भारत-पाकिस्तान दोस्ती, भारत-पाकिस्तान व्यापार, कश्मीर में आतंकवाद, कश्मीरी पंडितों का घाटी से निर्वासन, शर्म-अल-शेख, कुलदीप नैयर, महेश भट्ट, अमिताभ बच्चन, यासीन मलिक, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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